Monday, December 27, 2010

आज तक चैनल के दस साल : कहां से चले...कहां आ पहुंचे

ठीक दस बरस पहले आज तक न्यूज चैनल शुरु हुआ तो इंडिया टुडे के एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी ने मीटिंग बुलाकर सिर्फ इतना कहा कि अब यह चैनल आपके हाथ में है ...आप खुद ही इसकी दिशा तय कीजिये। उसके बाद शायद हर पत्रकार ने अपनी अपनी दिशा तय की। कोई बीजेपी के भीतर घुसा तो कोई संघ के भीतर। किसी ने काग्रेस में सेंघ लगायी तो कोई आतंकवाद की आहट में फंसते देश को संसद पर हमले से ही सूंघ गया। असर इसका यही हुआ कि खबरें तो सबसे पहले आजतक के स्क्रीन पर रेंगने ही लगी...साथ ही रिपोर्टर की विश्वसनीयता भी इतनी मजबूत दिखी कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की प्रतिक्रिया का इंतजार खबरों को चलाने के लिये कभी ‘आज तक’ में नहीं हुआ। और कोई रिपोर्टर इस तौर पर नहीं लगा कि उसके ताल्लुकात किसी राजनीतिक दल के साथ या सरकार के किसी मंत्री के साथ हैं। हर रिपोर्टर की अपनी ठसक थी। उसकी अपनी विश्वसनीयता थी।

दरअसल, इस हिम्मत के पीछे भी अरुण पुरी की ही पत्रकारीय समझ की ताकत थी, जिन्होंने न्यूज चैनल लांच करने से पहले बैठक में एक रिपोर्टर के सवाल पर यह कह कर चौकाया था कि खबर कभी रोकनी नहीं चाहिये और बिना किसी बाइट के अगर कोई रिपोर्टर खबर बताने की ताकत रखता है, तो वही उसकी विश्वनियता होती है। इस खुलेपन और ईमानदार माहौल के बीच आज तक की शुरुआत का हर पन्ना दस्तावेज है। लेकिन दस बरस बाद सिर्फ आज तक ही नहीं बल्कि न्यूज चैनलो में खुलापन या ईमानदार पहल के बीच पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल खोजने की बात होगी तो जाहिर है आखों के सामने खबरों से इतर रोचक या डराती तस्वीर आयेगी। हंसाती या त्रासदी को भी लोकप्रिय अंदाज में परोसी जाती जानकारी ही आती है। या फिर सूचना-दर-सूचना के आसरे सरकार के प्रवक्ता के तौर पर जानकारी को ही खबरों को मानने के सच के आलावे और कुछ आयेगा नहीं। और इस कड़ी में अगर पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल उछलेगा तो सत्ता से सबसे करीब का पत्रकार ही सबसे उंचे कद का खबरो को जानने समझने वाला माना जायेगा। यानी दस बरस का सबसे बड़ा यू टर्न पत्रकार की विश्वसनीयता से इतर सत्ताधारियों की गलबहियों के आसरे खुद में सत्ता की ताकत देखने-दिखाने की विश्नसनीयता है।

इसी घेरे में पेड न्यूज भी है और नीरा राडिया के टेप भी। चूंकि सत्ता का मतलब अब सरकार नहीं बल्कि वह पूंजी है जिसके आसरे सरकार अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। और सरकार की मौजूदगी मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जब विकास दर का आंकडे और चकाचौंध की नीतियों तले हो, तब समझना यह भी होगा कि गवरनेंस का मतलब या तो नीतियों के आसरे पूंजी की उगाही के रास्ते बनाने हैं या फिर पूंजी के लिये मुनाफे का ऐसा तंत्र, जिसमें विकास का पैमाना नयी नयी थ्योरी गढ़े। यानी एक ऐसे समाज या देश की परिकल्पना उड़ान भरे, जिसमें लोकतंत्र का जाम कॉरपोरेट के गिलास में सिमटा रहे। पत्रकार की पहली मुश्किल यहीं से खड़ी हुई क्योकि पत्रकार पहले मीडियाकर्मी में बदला और फिर अखबार या न्यूज चैनल का दफ्तर मीडिया हाउस में।

जाहिर है मीडिया हाउस की जरुरत भी इसी दस बरस में अगर अपनी पहचान को लेकर बदली तो नयी पहचान को बनाये रखने की जद्दोजहद में पत्रकार का ट्रांसफारमेशन भी हुआ। खबरों पर विज्ञापन मिलने का दौर इस कदर बदला कि विज्ञापन के आसरे खबरो को लिखने और चलाने का दौर शुरु हो गया। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय विश्वसनीयता जनता में प्रभाव जमाती थी और उसी जनता को अपना माल बेचने के लिये विज्ञापन के जरीये पैसा मीडिया तक पहुंचता था, उसे नई आर्थिक व्यवस्था ने उलट दिया। इसी के सामानांतर खबरों को जनता तक पहुंचाने की पटरी भी उसी राजनीति के भरोसे पर आ टिकी जो खुद कारपोरेट पूंजी के जरीये अपने होने या ना होने का आंकलन करने लगी थी। खबर बिना विज्ञापन मंजूर नहीं। और न्यूज चैनल जिन कैबल के आसरे लोगो के घर तक पहुंचे, उस पर उसी राजनीति ने कब्जा कर लिया जो पहले ही खुद को मुनाफे की पूंजी तले नीलाम कर चुकी है। यानी रिपोर्टर से लेकर संपादक तक की समूची ऊर्जा ही जब मिडिया हाउस के मुनाफे को बनाने पर टिकेगी तो इसका असर होगा क्या ।

यह दस बरस बाद अब की परिस्थितियों को देखने से साफ हो सकता है। जहां पेड न्यूज का मतलब अगर पैसा लेकर खबर छापना है तो इसका दूसरा मतलब उन लोगो से पैसा लेना है जो चुनाव लड़कर या जीतकर पैसा ही बनायेंगे। तो उनसे पैसा मांगने में परेशानी क्या है। वही जो सरकार खुद को कॉरपोरेट के जरीये उपलब्धियों के दायरे में रखें या फिर कारपोरेट के लिये ही इस भरोसे काम करें कि देश में एक व्यवस्था तो बनी ही हुई है, उस व्यवस्था के एक हिस्से को लूटकर अगर एक नया कारपोरेट समाज ही बनाया जा सकता है, तो फिर इस कारपोरेट समाज का हिस्सा बनने में कोई सवाल क्यों करेगा। उसी कारपोरेट समाज का हिस्सा अगर कोई संपादक खबर के लिये या खबर की सौदेबाजी के जरीये अपने मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाता है तो फिर इसमें परेशानी क्या है। बल्कि कोई संपादक अगर अपने आप में कॉरपोरेट हो जाये तो किसी भी मीडिया हाउस के लिये इससे बडी उपलब्धि और क्या हो सकती है। यानी पत्रकारीय समझ के दोनो दायरे में जब महत्वपूर्ण पूंजी या मुनाफा ही है, तो फिर स्ट्रिंगरों से लेकर रिपोर्टर तक से पेड-न्यूज का खेल या फिर कारपोरेट संपादक से जरीये सत्ता के पूंजी बंटवारे में सेंध लगाने की हैसियत तले राडिया टेप सरीखे सवाल। 15 बरस पहले जब आजतक न्यूज चैनल के तौर पर नहीं था और महज बीस मिनट में देश भर की खबरो को समेटने का माद्दा एसपी सिंह रखते थे। तब सुखराम के घर से बोरियों से निकले नोटों को कैमरो पर देखकर उन्होंने आजतक की पत्रकारीय टीम की मीटिंग में यही कहा कि इन नोटों को आपने अगर भूसा नहीं माना तो फिर भ्रष्ट्राचार पर नकेल भी मीडिया नहीं कस पायेगा । और उसके बाद आजतक के कार्यक्रम में जब्त करोडो नोटों को दिखाकर एसपी ने देश की बदहाली में भ्रष्ट्र मंत्री का कच्चा-चिट्ठा दिखाया। लेकिन दस बरस बाद उसी बदहाल देश में साढ़े चार हजार करोड के मुकेश अंबानी के मकान का ग्लैमर तमाम न्यूज चैनलो में यह कह कर परोसा गया कि दुनिया का सबसे रईस शख्स भी हमारे पास है। और इसके लिये देखिये नायाब व्हाइट हाउस। दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये 14 बरस पहले जब उद्योगों को हटाने का एलान हुआ तो एसपी सिंह ऐसी खबर को बनाने में जुटे जिसमें प्रदूषण का मारा मजदूर हो और उसी मजदूर के घर का चूल्हा भी उसी उद्योग से चलता हो, जिससे उसकी तबियत बिगड़ी हो । और उस वक्त लुटियन्स की दिल्ली पर एसपी सिंह ने सीधा हमला किया था।

वहीं दस बरस पहले जब सैनिक फार्म पर एससीडी का बुलडोजर चल रहा था तब आजतक के ही संपादक उदय शंकर इस बात पर तैयार हो गये थे कि छतरपुर के फार्म हाउसों के भीतर की दुनिया से भी देश को परिचय कराया जाये। जहां आज नीरा राडिया का आकाश-गंगा फार्म-हाउस है और जिसपर सीबीआई ने छापा मारा। दस बरस पहले फार्म हाउस समाज की बदहाली में मलमल का पैबंद संपादक को नजर आते थे और दस बरस बाद संपादको को नीरा राडिया के फार्म हाउस में ग्लैमर और देश के विकास की चकाचौंध नजर आती है। किस तेजी से मीडिया का चरित्र बदला इसका अंदाज अब खबरों को पकड़ने और उसे दिखाने से भी लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में तीस फीसदी लोग गरीबी से नीचे हैं। अधिकतर बुनकर मौत के कगार पर हैं। कपास-गन्ने के किसान खुदकुशी कर रहे हैं। लेकिन इस दौर में औरगांबाद में सबसे ज्यादा मर्सीडिज गाड़ियां हैं इस पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने स्पेशल कार्यक्रम बनाये। डीएलएफ के मालिक के पास सिर्फ दो सौ करोड़ की कारों का काफिला ही है, उस पर स्पेशल रिपोर्ट न्यूज चैनलो में चली। क्योंकि दस बरस में मीडिया हाउस का मतलब कारपोरेट समाज का पिलर बनना हो चुका है और पत्रकार का मतलब भी कारपोरेट समाज में बतौर ब्रांड बनना। यानी कीमत अब ब्रांड की है। न्यूज चैनल भी ब्रांड है और कोई पत्रकार अगर ब्रांड बन गया तो उसके लिये पत्रकारिता मायने नहीं रखती बल्कि उसके जरीये पत्रकारिता चल सकती है। दस बरस पहले ब्रांड का मतलब खबरों को लेकर विश्वसनीयता थी। पत्रकारीय एथिक्स थे । दस बरस बाद आज की तारीख में ब्रांड का मतलब सत्ता और कारपोरेट के समाज में पत्रकारीय एथिक्स बेचकर उनके मुनाफे को विश्वसनीय बनाना है, और खुद चकाचौंध के लिये विश्वसनीय बनना है। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय समझ आम आदमी के हक उसकी जरुरत तले लोकतंत्र की महक खोजते थे और संविधान के दायरे में वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल खड़ा करने की ताकत दिखाते थे, वही सवाल दस बरस बाद आज लोकतंत्र को भी पूंजी-मुनाफे का गुलाम मानने से नहीं हिचकते। और मीडिया का यही चेहरा अब खुल्लम खुल्ला मान चुका है कि देश संसद से या संविधान के दायरे से नहीं बल्कि कारपोरेट समाज के जरीये चलता है। इसलिये दस बरस पहले मीडिया विकल्प के सवालों में देश की व्यवस्था को भी परखता था। लेकिन दस बरस बाद आज बदली हुई व्यवस्था और कारपोरेट समाज के लिये पत्रकारिता को ही विकल्प मान लिया गया है। यानी जिससे लड़ना था और जिस पर निगरानी करनी थी उसी की पूंछ बनकर सूंड होने का भ्रम नया पत्रकारीय मिशन हो चुका है।

13 comments:

  1. सर, आपने 'आज तक...' वाला आलेख 'अभी तक' दो बार पोस्ट कर दिया है।
    सवजी चौधरी, अहमदाबाद- ९९९८० ४३२३८.

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  2. prabhash joshi ki kami kuchh hadd tak pura karne ke liye dhanyvad, eesa aalekh sonia-radia ke gulam desh main kewal aap aur aap hi likh sakte hai I

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  3. भाई साहब,

    शुरूआत तो आपके लेख की बड़ी अच्छी थी। लगा कि वाकई आप आज तक के दस साल के बहाने मीडिया को इंट्रोस्पेक्शन के लिए एक मौका देने वाले हैं। लेकिन पहला पैरा ख़त्म होते होते आप वापस अपने उसी घिसे पिटे राग पर आ गए, जो इसकी पिछली चार पोस्ट में आप गा चुके हैं। समस्या ये है कि आप कॉरपोरेट से अपनी खीझ को सब पर लादना चाहते हैं, इस बात को दरकिनार करते हुए कि उसी कॉरपोरेट ने आपको करोड़ रूपए के बंगले और दस बारह लाख की गाड़ी में घूमने का मौका दे रखा है। और उसी कॉरपोरेट ने आपको इस लायक चेहरा बनाया कि लोग आपकी बात सुनें। उसी कॉरपोरेट के सहारा चैनल में आप पांच सात लाख रूपए महीना की तनख्वाह पर गए थे ना? बेशक आप अपने सहारा स्टिंट को ये कह के जस्टीफाई करने की कोशिश करें कि आपने हर दिन जितनी वैचारिक जुगाली सहारा के कुछ महीने के कार्यकाल में दर्शकों को परोस दी, आज तक दस साल में न परोस पाया होगा। लेकिन जनाब प्लैटफॉरम तो दिया ना आपको कारपोरेट ने ? हो सकता है नीरा राडिया से आपकी चिढ़ की वजह ये भी हो कि उसकी लिस्ट में शामिल सौ सवा सौ कथित टॉप पत्रकारों में आप जैसे मूर्धन्य हिंदी भाषी बुद्धिजीवी नहीं हैं। लेकिन ये नाराज़गी की बात नहीं है प्रसून जी। लोग इससे खुश ही हैं कि आपका नाम कम से कम दलालों में नहीं है।पर आप दलाल न हो पाने की नाराज़गी बार बार ज़ाहिर कर के,अपने चाहने वालों का हौसला न तोड़ें। यही इल्तजा है। उम्मीद है कि आप इस कमेंट को डिलीट न कर के अपने बड़े दिल का परिचय देंगे।

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  4. हशिम साहब से मैं सहमत नहीं हूं. खीज वाजपेई जी की नहीं आप की दिख रही है. समस्या यही. हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते है लोग. यह एक नंगा सच है बस और इसमे बारबार कौर्पोरेट घराने आते है तो यही सच है.

    बधाई सरजी बहुत ही प्रेरक आलेख

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  5. बाजपेयी जी, आज आपने हिम्‍मत का काम किया , दरअसल हमें तो आज भी ये आकाशवाणी हैं अब देवकी नन्‍दन पाण्‍डेय से समाचार सुनिऐ , या अस्‍सी के दशक मे सलमा सुल्‍तान जी द्वारा पढे जाने वाले समाचार ही समाचार लगते थे अब तो आपके साथीयो की जमात ... कुछ कहने की इच्‍छा ही नही होती, समाचार में घुस आया,अब समाज के बुनियादी सवालो पर भी दलाली कर रहा हैं ,प्रिट मीडिया में तो आज राज्‍य सरकारो से वेतन लेने वाले ब्‍यूरो प्रमुख बैठाऐ जा रहे हैं, आम व्‍यपार अपराध की तो बात ही छोडिऐ, सरकारी, प्रशासनिक दफतरो अफसरो द्वारा मीडिया कर्मीयो को महीना मिलता हैं..क्‍यों ? इसलिऐ मैं आपकी बात की दाद देता हूं पर अभी भी कुछ वक्‍त और लोग शेष हैं जो इस पेशे की गरिमा फिर स्‍थापित कर सकते हैं .....सतीश कुमार चौहान भिलाई

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  6. पूरे एक दशक का विश्लेषण बहुत ही बढिया रहा ....

    मेरा नया ठिकाना

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  7. अरूण जी, मेरा मकसद वाजपेयी जी के कपड़े उतारना नहीं है। लेकिन जिस हमाम में सभी नंगे हैं, वहां वाजपेयी जी कपड़े पहने होते तो लोग उन्हें टिकने नहीं देते। वाजपेयी जी वहां टिके हैं, तो मानिए, कि वो भी नंगे ही हैं। सिर्फ हमें-आपको ये बताते हैं कि मैं नंगा नहीं हूं। वाजपेयी जी के पिछले चार - पांच लेख पढ़ लीजिए, सबमें बात एक ही मिलेगी। भला क्या ज़रूरत है उन्हें कॉरपोरेट्स की नौकरी कर के कॉरपोरेट्स को ही गाली देने की ? ये स्थिति देश के छद्म सेकुलरवादियों जैसी ही है।

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  8. आज ब्रांड को ज्यादा प्रमुखता मिलती है..गुणवत्ता को नहीं। ब्रांड ही गुणवत्ता को जस्टिफाई कर रहा है। ऐसे में हम जैसे सामान्य जन के लिए भेद करना काफी मुश्किल हो जाता है कि जो हमारे सामने विषय- वस्तु परोसी जा रही है वो असल में गुणवत्ता-प्रधान है या फिर ब्रांड का भौकाल मात्र है।

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  9. HASHIM JI KIS JAGAH SE TALOOK RAKHTE HAI? IS TARAH KE MAHAN SHABD AAPKE PAS AATE KAHA SE HAI? KUHD DEKHIYE JANAB..KYA LIKHA HAI AAPNE AUR KISKE LIYE LIKHA HAI? PLEASE AAP IS BLOG PE DUBARA AANE KA KAST NAHI UTHAIYEGA

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  10. हाशिम जी की बात से असहमति!
    प्रसून जी के स्वर कम से कम इस नक्कार खाने में बजती हुयी तूती तो हैं ही!

    बहरहाल, खबर से बड़े खबरचीयों के इस दौर में..सबसे बड़ी खबर ये खबरची ही स्वम बन गये हैं..एक मशहूर खबरची श्री रातदिन नोटछपाई का चैनल कहता हैं..खबर हर कीमत पर!.....दो कौड़ी की खबर...पर करोड़ रुपये की उगाही करने का नाम है पत्रकारिता..थू..थू..थू..

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  11. सर बहुत ही अच्छा विश्लेषण है ! और दास साल पहले के पत्रकारिता मिशन को जान कर हमारे ज्ञान में भी इजाफा हुआ है !

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  12. Bhaut hi accha aalekh...... maine apne blog par bhi ise dala hai...

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  13. ye hashim ji kya prove karna chahte hain. Mujhe to lagta h hamam mein sabse jyada nange to hashim ji hi h or kehna chahte hain ki "Mein nanga nahin hun"

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