Monday, December 27, 2010
आज तक चैनल के दस साल : कहां से चले...कहां आ पहुंचे
दरअसल, इस हिम्मत के पीछे भी अरुण पुरी की ही पत्रकारीय समझ की ताकत थी, जिन्होंने न्यूज चैनल लांच करने से पहले बैठक में एक रिपोर्टर के सवाल पर यह कह कर चौकाया था कि खबर कभी रोकनी नहीं चाहिये और बिना किसी बाइट के अगर कोई रिपोर्टर खबर बताने की ताकत रखता है, तो वही उसकी विश्वनियता होती है। इस खुलेपन और ईमानदार माहौल के बीच आज तक की शुरुआत का हर पन्ना दस्तावेज है। लेकिन दस बरस बाद सिर्फ आज तक ही नहीं बल्कि न्यूज चैनलो में खुलापन या ईमानदार पहल के बीच पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल खोजने की बात होगी तो जाहिर है आखों के सामने खबरों से इतर रोचक या डराती तस्वीर आयेगी। हंसाती या त्रासदी को भी लोकप्रिय अंदाज में परोसी जाती जानकारी ही आती है। या फिर सूचना-दर-सूचना के आसरे सरकार के प्रवक्ता के तौर पर जानकारी को ही खबरों को मानने के सच के आलावे और कुछ आयेगा नहीं। और इस कड़ी में अगर पत्रकार की विश्वसनीयता का सवाल उछलेगा तो सत्ता से सबसे करीब का पत्रकार ही सबसे उंचे कद का खबरो को जानने समझने वाला माना जायेगा। यानी दस बरस का सबसे बड़ा यू टर्न पत्रकार की विश्वसनीयता से इतर सत्ताधारियों की गलबहियों के आसरे खुद में सत्ता की ताकत देखने-दिखाने की विश्नसनीयता है।
इसी घेरे में पेड न्यूज भी है और नीरा राडिया के टेप भी। चूंकि सत्ता का मतलब अब सरकार नहीं बल्कि वह पूंजी है जिसके आसरे सरकार अपनी मौजूदगी दर्ज कराती है। और सरकार की मौजूदगी मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक जब विकास दर का आंकडे और चकाचौंध की नीतियों तले हो, तब समझना यह भी होगा कि गवरनेंस का मतलब या तो नीतियों के आसरे पूंजी की उगाही के रास्ते बनाने हैं या फिर पूंजी के लिये मुनाफे का ऐसा तंत्र, जिसमें विकास का पैमाना नयी नयी थ्योरी गढ़े। यानी एक ऐसे समाज या देश की परिकल्पना उड़ान भरे, जिसमें लोकतंत्र का जाम कॉरपोरेट के गिलास में सिमटा रहे। पत्रकार की पहली मुश्किल यहीं से खड़ी हुई क्योकि पत्रकार पहले मीडियाकर्मी में बदला और फिर अखबार या न्यूज चैनल का दफ्तर मीडिया हाउस में।
जाहिर है मीडिया हाउस की जरुरत भी इसी दस बरस में अगर अपनी पहचान को लेकर बदली तो नयी पहचान को बनाये रखने की जद्दोजहद में पत्रकार का ट्रांसफारमेशन भी हुआ। खबरों पर विज्ञापन मिलने का दौर इस कदर बदला कि विज्ञापन के आसरे खबरो को लिखने और चलाने का दौर शुरु हो गया। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय विश्वसनीयता जनता में प्रभाव जमाती थी और उसी जनता को अपना माल बेचने के लिये विज्ञापन के जरीये पैसा मीडिया तक पहुंचता था, उसे नई आर्थिक व्यवस्था ने उलट दिया। इसी के सामानांतर खबरों को जनता तक पहुंचाने की पटरी भी उसी राजनीति के भरोसे पर आ टिकी जो खुद कारपोरेट पूंजी के जरीये अपने होने या ना होने का आंकलन करने लगी थी। खबर बिना विज्ञापन मंजूर नहीं। और न्यूज चैनल जिन कैबल के आसरे लोगो के घर तक पहुंचे, उस पर उसी राजनीति ने कब्जा कर लिया जो पहले ही खुद को मुनाफे की पूंजी तले नीलाम कर चुकी है। यानी रिपोर्टर से लेकर संपादक तक की समूची ऊर्जा ही जब मिडिया हाउस के मुनाफे को बनाने पर टिकेगी तो इसका असर होगा क्या ।
यह दस बरस बाद अब की परिस्थितियों को देखने से साफ हो सकता है। जहां पेड न्यूज का मतलब अगर पैसा लेकर खबर छापना है तो इसका दूसरा मतलब उन लोगो से पैसा लेना है जो चुनाव लड़कर या जीतकर पैसा ही बनायेंगे। तो उनसे पैसा मांगने में परेशानी क्या है। वही जो सरकार खुद को कॉरपोरेट के जरीये उपलब्धियों के दायरे में रखें या फिर कारपोरेट के लिये ही इस भरोसे काम करें कि देश में एक व्यवस्था तो बनी ही हुई है, उस व्यवस्था के एक हिस्से को लूटकर अगर एक नया कारपोरेट समाज ही बनाया जा सकता है, तो फिर इस कारपोरेट समाज का हिस्सा बनने में कोई सवाल क्यों करेगा। उसी कारपोरेट समाज का हिस्सा अगर कोई संपादक खबर के लिये या खबर की सौदेबाजी के जरीये अपने मीडिया हाउस को लाभ पहुंचाता है तो फिर इसमें परेशानी क्या है। बल्कि कोई संपादक अगर अपने आप में कॉरपोरेट हो जाये तो किसी भी मीडिया हाउस के लिये इससे बडी उपलब्धि और क्या हो सकती है। यानी पत्रकारीय समझ के दोनो दायरे में जब महत्वपूर्ण पूंजी या मुनाफा ही है, तो फिर स्ट्रिंगरों से लेकर रिपोर्टर तक से पेड-न्यूज का खेल या फिर कारपोरेट संपादक से जरीये सत्ता के पूंजी बंटवारे में सेंध लगाने की हैसियत तले राडिया टेप सरीखे सवाल। 15 बरस पहले जब आजतक न्यूज चैनल के तौर पर नहीं था और महज बीस मिनट में देश भर की खबरो को समेटने का माद्दा एसपी सिंह रखते थे। तब सुखराम के घर से बोरियों से निकले नोटों को कैमरो पर देखकर उन्होंने आजतक की पत्रकारीय टीम की मीटिंग में यही कहा कि इन नोटों को आपने अगर भूसा नहीं माना तो फिर भ्रष्ट्राचार पर नकेल भी मीडिया नहीं कस पायेगा । और उसके बाद आजतक के कार्यक्रम में जब्त करोडो नोटों को दिखाकर एसपी ने देश की बदहाली में भ्रष्ट्र मंत्री का कच्चा-चिट्ठा दिखाया। लेकिन दस बरस बाद उसी बदहाल देश में साढ़े चार हजार करोड के मुकेश अंबानी के मकान का ग्लैमर तमाम न्यूज चैनलो में यह कह कर परोसा गया कि दुनिया का सबसे रईस शख्स भी हमारे पास है। और इसके लिये देखिये नायाब व्हाइट हाउस। दिल्ली को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिये 14 बरस पहले जब उद्योगों को हटाने का एलान हुआ तो एसपी सिंह ऐसी खबर को बनाने में जुटे जिसमें प्रदूषण का मारा मजदूर हो और उसी मजदूर के घर का चूल्हा भी उसी उद्योग से चलता हो, जिससे उसकी तबियत बिगड़ी हो । और उस वक्त लुटियन्स की दिल्ली पर एसपी सिंह ने सीधा हमला किया था।
वहीं दस बरस पहले जब सैनिक फार्म पर एससीडी का बुलडोजर चल रहा था तब आजतक के ही संपादक उदय शंकर इस बात पर तैयार हो गये थे कि छतरपुर के फार्म हाउसों के भीतर की दुनिया से भी देश को परिचय कराया जाये। जहां आज नीरा राडिया का आकाश-गंगा फार्म-हाउस है और जिसपर सीबीआई ने छापा मारा। दस बरस पहले फार्म हाउस समाज की बदहाली में मलमल का पैबंद संपादक को नजर आते थे और दस बरस बाद संपादको को नीरा राडिया के फार्म हाउस में ग्लैमर और देश के विकास की चकाचौंध नजर आती है। किस तेजी से मीडिया का चरित्र बदला इसका अंदाज अब खबरों को पकड़ने और उसे दिखाने से भी लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में तीस फीसदी लोग गरीबी से नीचे हैं। अधिकतर बुनकर मौत के कगार पर हैं। कपास-गन्ने के किसान खुदकुशी कर रहे हैं। लेकिन इस दौर में औरगांबाद में सबसे ज्यादा मर्सीडिज गाड़ियां हैं इस पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलो ने स्पेशल कार्यक्रम बनाये। डीएलएफ के मालिक के पास सिर्फ दो सौ करोड़ की कारों का काफिला ही है, उस पर स्पेशल रिपोर्ट न्यूज चैनलो में चली। क्योंकि दस बरस में मीडिया हाउस का मतलब कारपोरेट समाज का पिलर बनना हो चुका है और पत्रकार का मतलब भी कारपोरेट समाज में बतौर ब्रांड बनना। यानी कीमत अब ब्रांड की है। न्यूज चैनल भी ब्रांड है और कोई पत्रकार अगर ब्रांड बन गया तो उसके लिये पत्रकारिता मायने नहीं रखती बल्कि उसके जरीये पत्रकारिता चल सकती है। दस बरस पहले ब्रांड का मतलब खबरों को लेकर विश्वसनीयता थी। पत्रकारीय एथिक्स थे । दस बरस बाद आज की तारीख में ब्रांड का मतलब सत्ता और कारपोरेट के समाज में पत्रकारीय एथिक्स बेचकर उनके मुनाफे को विश्वसनीय बनाना है, और खुद चकाचौंध के लिये विश्वसनीय बनना है। यानी दस बरस पहले जो पत्रकारीय समझ आम आदमी के हक उसकी जरुरत तले लोकतंत्र की महक खोजते थे और संविधान के दायरे में वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल खड़ा करने की ताकत दिखाते थे, वही सवाल दस बरस बाद आज लोकतंत्र को भी पूंजी-मुनाफे का गुलाम मानने से नहीं हिचकते। और मीडिया का यही चेहरा अब खुल्लम खुल्ला मान चुका है कि देश संसद से या संविधान के दायरे से नहीं बल्कि कारपोरेट समाज के जरीये चलता है। इसलिये दस बरस पहले मीडिया विकल्प के सवालों में देश की व्यवस्था को भी परखता था। लेकिन दस बरस बाद आज बदली हुई व्यवस्था और कारपोरेट समाज के लिये पत्रकारिता को ही विकल्प मान लिया गया है। यानी जिससे लड़ना था और जिस पर निगरानी करनी थी उसी की पूंछ बनकर सूंड होने का भ्रम नया पत्रकारीय मिशन हो चुका है।
Thursday, December 23, 2010
इंतजार कीजिये राजा आज (शुक्रवार) क्या कहेंगे !
जाहिर है ऐसे में सीबीआई उस सिरे को ही पकड़ना चाहेगी कि कहीं पूर्व टेलीकॉम मंत्री की भूमिका लाईसेंस के जरिये हवाला रैकेट में तो कुछ नहीं थी। क्योंकि यही सिरा राजा की गिरफ्तारी करवा सकता है और सीबीआई 90 दिनों में ऐसी चार्जशीट दाखिल कर सकती है जिसमें 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला प्रधानमंत्री के हद से बाहर निकल कर सीधे हवाला रैकेट से जुड़ता दिखायी दे। और समूची जांच की दिशा ही देशी-बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उस खेल को पकड़ने में लग जाये जो देश में आर्थिक सुधार के साथ मनमोहन इकनॉमिक्स के जरिये विदेशी पूंजी की आवाजाही से शुरू हुआ।
लेकिन ए.राजा अगर स्पेक्ट्रम घोटाले के तार कॉरपोरेट संघर्ष की मुनाफाखोरी से जोड़कर उसमें राजनीति का तडका लगा देते हैं, तब क्या होगा। क्या तब यह सवाल खड़ा होगा कि टाटा या मुकेश अंबानी के लिये जो रास्ता नीरा राडिया मंत्रालयो में घूम-घूम कर बना रही थी उसके सामानांतर सुनील मित्तल या अनिल अंबानी के लिये कोई रास्ता बन नहीं पा रहा था। इसलिये स्पेक्ट्रम का खेल बिगड़ा। और अगर स्पेक्ट्रम लाइसेंस के जरिये किसी कॉरपोरेट घराने को लाभ हुआ तो, जिसे घाटा हुआ उसने अदालत का दरवाजा क्यों नहीं खटखटाया। या फिर किसी भी कंपनी ने 2007-2009 के दौर में अदालत जाकर यह सवाल क्यों खड़ा नहीं किया कि जिन कंपनियों ने कभी टेलीकॉम के क्षेत्र में कोई काम नहीं किया उन्हें स्पेक्ट्रम का आबंटन क्यों किया गया। फिर कैसे लाख टके में कंपनी बना कर एक झटके में करोड़ों का वारे-न्यारे स्पेक्ट्रम लाइसेंस पाते ही कर लिया।
असल में अर्थव्यवस्था के सामने सरकार कैसे नतमस्तक होती चली गयी है। और कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे में ही देश की चकाचौंध या देश की बदहाली सिमटती जा रही है। यह भी सरकार की आर्थिक नीतियों से ही समझा जा सकता है जिसके दायरे में राजा या राडिया महज प्यादे नजर आते हैं। अगर राडिया देश के लिये खतरनाक है जैसा कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने बताया है , तो इसका जबाब कौन देगा कि जिन कंपनियों के लिये राडिया काम कर रही थी उनके मुनाफे के आधारों को क्या ईडी टोटलने की स्थिति में है। मुश्किल है। यह मुश्किल क्यों है इसे समझने से पहले जरा सरकार और कॉरपोरेट के संबंधों को समझना भी जरुरी है।
वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी खुद कहते है कि वह अंबानी बंधुओं को आज से नहीं बचपन से जानते हैं। यानी राजीव गांधी के दौर में जब धीरुभाई अंबानी मुश्किल में थे तब प्रणव मुखर्जी की कितनी करीबी धीरुभाई अंबानी से थी यह कांग्रेस की राजनीति का खुला पन्ना है। लेकिन नयी परिस्थिति में देश के तेल-गैस मंत्री मुरली देवडा मुकेश अंबानी के कितने करीबी हैं और देश के गृहमंत्री पी. चिदबरंम अनिल अंबानी से कितने करीबी हैं यह भी राजनीतिक गलियारे में किसी से छुपा नहीं है। 10 जनपथ से अनिल अंबानी की दूरी भी किसी से छुपी नहीं है और अनिल अंबानी के मुनाफे के लिये मुलायम सिंह ने समाजवादी राजनीति को कैसे हाशिये पर ढकेल दिया यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन मनमोहन की इकनॉमी में जब संसदीय राजनीति ही हाशिये पर है तो फिर सरकार से ऊपर कॉरपोरेट हो इससे इंकार कैसे किया जा सकता है।
हो सकता है ए. राजा सीबीआई को खुल्लम-खुल्ला यही कह दें कि सुनील मित्तल और अनिल आंबानी की लॉबी स्पेक्ट्रम लाईसेंस में नहीं चली इसलिये उन्हें बली का बकरा बनाया जा रहा है। या फिर सरकार में जब कामकाज का तरीका ही जब यही बना दिया गया है कि लॉबिस्टों के जरिये कॉरपोरेट काम करें और लॉबिस्टों को कॉरपोरेट का नुमाइंदा मानकर सरकार नीतियों को अमल में लाये, क्योंकि हर कॉरपोरेट से मंत्रियों के तार जुड़े हैं तो सीबीआई क्या करेगी। क्योंकि मनमोहन इकनॉमिक्स में तो नीरा राडिया सरीखे लॉबिस्टो को भी बकायदा मंत्रालयों में काम करने का लाइसेंस दिया जाता है। और 2008 में जब पहली बार नीरा राडिया को ब्लैकलिस्ट में डाला गया तो उस वक्त कुल 74 लॉबिस्ट काम कर रहे थे जिसमें ब्लैक लिस्ट के नाम में सिर्फ नीरा राडिया नहीं बल्कि 28 दूसरे लॉबिस्टो के भी नाम थे।
यह भी हो सकता है राजा सरकार के अलग अलग मंत्रालयों की उस पूरी भूमिका को लेकर चर्चा छेड़ दें कि कैसे मुंबई एयरपोर्ट के लिये अनिल अंबानी का नाम भी शॉर्टलिस्ट किया गया था, लेकिन आखिरी प्रक्रिया में इसे सुब्बीरामी रेड्डे के बेटे जीवीके रेड्डी को दे दिया गया। हो सकता है ए. राजा ऊर्जा मंत्रालय के जरिये बांटे जा रहे थर्मल पावर प्रोजेक्ट का कच्चा-चिट्टा देकर सवाल खडा करें कि लाइसेंस देने के लिये घूसखोरी तो एक कानूनी प्रक्रिया है। जैसे एनटीपीसी ने बीएचईएल को छत्तीसगढ़ में कितनी रकम लेकर पावर प्रोजेक्ट लगाने की इजाजत दी। और जो सवाल सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर उठाये हैं कि आखिर राष्ट्रीयकृत बैंकों ने भी कैसे स्पेक्ट्रम लाईसेंस के नाम पर टटपूंजिया कंपनियों को 10-10 हजार करोड़ रुपये लोन दे दिये। तो, हो सकता है ए.राजा सीबीआई को वह पूरी प्रक्रिया ही समझाने लगें कि कैसे विकास के नाम पर देश में अब कॉरपोरेट घराने ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट पर सरकार से हरी झंडी ले चुके हैं जिनका कोई बेंच मार्क ही किसी को पता नहीं है। जैसे दस साल पहले पावर प्रोजेक्ट लगाने के नाम पर सरकार से लाईसेंस लेकर बैकों से कितनी भी उधारी ले ली जाती थी और पावर प्रोजेक्ट का लाईसेंस पाने वाली कंपनी का अपना टर्नओवर चंद लाख का होता था।
लेकिन देश में बिजली चाहिये और बिना उसके विकास अधूरा है तो ऊर्जा मंत्री की उपलब्धि भी जब यह होती कि उसके जरिये कितने पावर प्रोजेक्ट आ सकते है तो फिर लेन-देन कितने का हो रहा है। बैंक कितना लोन किस एवज में दे रहा है, इसकी ठौर तो आज भी नहीं ली जाती है। अब सरकार की तरफ से सिर्फ इतना ही किया गया है कि पावर प्रोजेक्ट लगाने वाली कंपनी से पूछा जा रहा है कि वह प्रति यूनिट बिजली बेचेगी कितने में। जिसका आश्वासन आज भी कोई पावर प्रोजेक्ट कंपनी नहीं दे रही है। हो सकता है राजा स्पेक्ट्रम लाइसेंस के बंटवारे के दौर में एसईजेड के लाइसेंस के बंदर बांट का किस्सा भी छेड़ दें और बताने लगें कि कैसे राडिया एसईजेड को लेकर भी किस-किस कॉरपोरट के लिये किस-किस मंत्रालय में घूम-घूम कर लॉबिग कर रही थी। और कैसे निखिल गांधी जब सबसे पहले एसईजेड के प्रपोजल के साथ सरकार के दरवाजे पर पहुंचे थे, तो मुकेश अंबानी ने उस प्रपोजल को ही रुकवा कर सात सौ करोड़ में निखिल गांधी से एसईजेड का ब्लू-प्रिंट ही खरीद लिया था। यानी कब, कैसे किस-किस कॉरपोरेट घराने की तूती सरकार और मंत्री से गठजोड कर चलती रही है और विकास के नाम पर कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचा कर मंत्रालय की उपलब्धि बताने के अलावे कोई दूसरा रास्ता भी मनमोहन इकनॉमिक्स में नहीं है। क्योंकि नार्थ-साउथ ब्लॉक के बीच दुनिया की सबसे खूबसूरत रायसीना हिल्स पर अगर रेड कारपेट किसी के लिये बिछी है तो वह कॉरपोरेट के लिये। तो आज ए. राजा सीबीआई से पूछताछ में क्या कहेंगे जानना सभी यही चाहेगें। लेकिन हो सकता है कि सरकार ना चाहे कि राजा बहकें और पिर सीबीआई राजा को पूछताछ के साथ गिरफ्तार कर फिलहाल 90 दिनो के लिये स्पेक्ट्रम घोटाले का केस लाक कर दें। तो इंतजार कीजिये।
Thursday, December 16, 2010
भ्रष्ट नौकरशाहों के जरिये राडिया ने खेला खेल
दरअसल प्रदीप बैजल ने 2008 में रिटायर होने के बाद नीरा राडिया के जिस कंपनी नोएसीस में काम करना शुरु किया उसका मुख्य काम ही मुकेश गैस के जरिये रिलायंस को फायदा पहुंचाना था। और सीबीआई को जिन दस्तावेजों की तलाश है उसमें मामला 2जी स्पेक्ट्रम का नहीं बल्कि देश भर में गैस लाईन बिछाने की ग्रिड के लिये बने सरकारी पाइपलाईन रेगुलेटरी एंजेसी में रिलायंस के लोगों को नियुक्त कराना था। खास बात यह भी है कि सीबीआई, प्रदीप बैजल के जरिये एनडीए सरकार के दौर में बने डिसइन्वेस्टमेंट नीतियों के तहत जिन सरकारी कंपनियों या इमारतों को बेचा गया उसकी नब्ज भी पकडना चाह रही है। क्योंंकि 1966 बैच के प्रदीप बैजल ही पहले ड्सइनेवेस्टमेंट सचिव थे जिनके उपर उस वक्त कांग्रेस ने यह आरोप लगाया था कि सरकारी कंपनियों या होटल तक को कौडियों के मोल बेचकर खास निजी कंपनियों के लाभ पहुंचाया जा रहा है। चूंकि नीरा राडिया की चार कंपनियां चार क्षेत्रों में देश के बडे औद्योगिक घरानों के लिये फिक्सर का काम कर रही थीं, तो उन चारों क्षेत्र टेलीकॉम एविएशन, इन्फ्रस्ट्रचर और एनर्जी के मद्देनजर इन्ही से जुड़े नौकरशाहों पर सीबीआई नकेल भी कस रही है। राडिया के टेलीफोन टैपिंग में ये सारे मामले सामने भी आ रहे हैं। खासकर गैस की लड़ाई में पर्यावरण को लेकर कोई परेशानी रिलायंस को ना हो इसके लिये नीरा राडिया ने जिन रिटायर नौकरशाहों को काम पर लगाया था वह टेलीफोन टैप के जरिये अब सामने आ रहा है, कि किस तरह सुविधायें रिलायंस के जरिये बांटी जा रही थीं।
हाइड्रोकार्बन के डायेरेक्टर जनरल वीके सिब्बल के लिये बंगला खरीदने का जिक्र राडिया के साथ रिलायंस अधिकारियों के बीच बातचीत में दर्ज है। इसके लिये आरकॉम के जिन चार अधिकारियों को लगाया था उसकी फाइल सीवीसी दफ्तर में भी मौजूद है। लेकिन सीबीआई अब पर्यावरण प्रबंधन के नाम पर रिलायंस को लाभ पहुंचाने वाले नौकरशाहों की सूची भी बना रही है। इतना ही नही वित्त मंत्रालय के दो अधिकारियों ने उस दौर में कैसे रिलायंस को टैक्स माफ कराया जिसका आंकडा करीब 40 हजार करोड बताया जा रहा है उसकी फाइल भी अब सीबीआई ने अपने कब्जे में ले ली है। नीरा राडिया के फोन टैप से इंडियन एयरलाइंस के पूर्व सीएमडी सुनील अरोड़ा के जरिये सीबीआई बीजेपी को भी घेरने की तैयारी में है। क्योंयकि एयरलाइंस को लेकर जो भी गफलत सुनील अरोड़ा ने की वह तो राडिया फोन टैपिंग में सामने आया ही है आखिर कैसे सुनील अरोड़ा नीरा राडिया की पहुंच का इस्तेमाल कर एंडियन एयरलाइन्स के मैनेजिंग डायरेक्टर बनना चाहते थे। लेकिन सीबीआई की नजर सुनील अरोड़ा के जरिये राजस्थान में करोड़ों की जमीन को कुछ खास लोगों को दिलाने में कितनी भूमिका थी, इस पर है। क्यों कि सुनील अरोड़ा राजस्थान में तत्काखलीन मुख्यमंत्री के निजी सचिव थे। और तब सत्ता बीजेपी के पास थी। और बतौर निजी सचिव बिना सीएम के हरी झंडी के जमीनों को कौडियों के मोल खरीद कर बांटने की कोई सोच भी नही सकता है। उसी दौर में राजस्थान की कई जमीने कुछ खास नौकरशाहों को नीरा राडिया के जरिये मुफ्त या कौडियों के मोल बांटी गयी...यह भी टेलीफोन टैपिंग में सामने आ गय़ी है । खासकर गैस पर कब्जे को लेकर उस दौर में जमीन गिफ्ट में दी गयी और उसमें आरआईएल और एडीएजी में कौन नौकरशाह किस तरफ था इसे भी सीबीआई अब खंगाल रही है। क्योंीकि नीरा राडिया की चारों कंपनी में 16 ऐसे रिटायर्ड नौकरशाह काम कर रहे थे जो कि नौकरी के दौरान पहले भारत सरकार के लिय़े उन्हीं क्षेत्र में नीतियों को अमली जामा पहनाने में लगे थे जिसमें नीरा राडिया की रुचि थी, या कहें नीरा राडिया के जरिये कुछ खास कारपोरेट घराने अपना लाभ बनाना चाहते थे।
असल में दस्तावेजों के जरिये अब यह भी सामने आ रहा है कि नौकरशाहों की फेरहिस्त में नीरा राडिया ने अपनी कंपनी से रिटायर्ड आईएएस नौकशाहो के साथ साथ राज्यो के नौकरशाहों को भी जोड़ा जिससे किसी भी काम को अमली जामा पहनाने में कोई परेशानी ना हो। दिल्ली के अलावा मुंबई, बेगलुरु, चेन्नई, कोलकत्ता, हैदराबाद और अहमदाबाद में अगर कंपनियों का टारगेट टाटा के हर 31 प्रोडक्ट को लाभ पहुंचाना था तो मुकेश अंबानी के रिलांयस के साथ साथ छह से ज्यादा उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी भारत में घुसाना था जो यहां के खनिज संस्थानो के खनन में रुचि रखते थे। और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काम में कोई रुकावट ना आये उसके लिये सहायक कंपनियां कोच्चि, लखनऊ, रांची और भुवनेश्वर में खोली गयीं। जिसमें राज्यों के रिटायर्ड उन प्रभावी नौकरशाहों को काम सौंपा गया जिनकी पहुंच राज्यों के मुख्यमंत्री तक या फिर मुख्यमंत्री कार्यालय में तैनात अपने पुराने साथी नौकरशाह के साथ थी।
असल में राडिया टैप के जरिये जो नजारा सीबीआई के सामने आ रहा है उसमें पहली बार बडा सवाल यह भी उभरा है कि अगर देश के लिये काम करने वाला कोई नौकरशाह रिटायर्ड होते ही या फिर रिटायरमेंट लेकर किसी निजी कंपनी को लाभ पहुंचाने में जुट जाये तो सरकार के पास क्या उपाय होगा। दूसरा बड़ा सवाल राजनीति के मद्दनजर उभरा है कि सरकार बदलने पर जैसे एनडीए के बाद यूपीए की सरकार केन्द्र में आयी या फिर झारखंड जैसे राज्य में मधु कोड़ा सरीखा एक निर्दलीय राजनीतिज्ञ के अंतर्विरोध की वजह से मुख्यमंत्री बन गया अगर वह किसी निजी कंपनी को लाभ पहुंचाने में जुट जाये तो उससे देश के राज्स्व को जो चूना लगेगा उसकी भरपाई कौन करेगा। यह खेल टाटा के लिये अगर झारखंड में हुआ तो वेदांत ग्रुप के लिये उड़ीसा में नवीन पटनायक ने भी किया। और केन्द्र में बडी मुश्किल यह हे कि एनडीए के बाद जब गठबंधन के दौर में मंत्रालय ऐसे-ऐसे क्षेत्रीय दलों के नेताओं के हिस्से में गये जिनके लिये मंत्रालय का मतलब ही पैसा उगाही था तो फिर नीरा राडिया सरीखे कारपोरेट फिक्सर को कौन कैसे रोकता।
जाहिर है यह सारे सवाल सीबीआई के पास दस्तावेजों में तो मौजूद हैं, लेकिन इन दस्तावेजों के जरिये कोई भी सरकार इस पहल को रोकने की दिशा में कदम उठयेगी या फिर इसे भी अपनी राजनीतिक सौदेबाजी का हिस्सा बना लेगी। अब देखना यही है क्योंकि पहली बार सत्ता ही एक कशमकश में नजर आ रही है, जहा दांव पर देश का लोकतंत्र है।
Saturday, December 11, 2010
बदलते दौर में कांग्रेस की मुश्किल
कांग्रेस की सबसे बड़ी मुसीबत क्या है। स्पेक्ट्रम घोटाला। कारपोरेट घरानों का फंसना। सीवीसी की नियुक्ति पर अंगुली उठना। कॉमनवेल्थ से लेकर आदर्श सोसायटी का घपला, कांग्रेसी नेताओं की अगुवाई में होना। आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी का बगावत करना। करुणानिधि का चेताना कि गठबंधन का टूटना दोनों के लिये घातक होगा। या फिर शरद पवार का सरकार को धमकाना कि कारपोरेट जगत के खिलाफ भ्रष्टाचार के नाम पर कार्रवाई सही नहीं है। या फिर मुश्किलों के इस दौर में कांग्रेस पार्टी में ही वह एकजुटता ना होना जैसा अक्सर इससे पहले के मुश्किल भरे मौके पर नजर आती थी। जाहिर है सोनिया गांधी ने सोचा भी ऐसा ना होगा कि 2004 के जनादेश से कहीं ज्यादा मजबूत होकर जब 2009 का जनादेश कांग्रेस के पक्ष में आने के बाद एक साल में संकट कुछ इस तरह आयेगा कि मनमोहन की मि. क्लीन छवि हो या "काग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' का नारा भी टूटता सा दिखने लगेगा।
असल में कांग्रेस की मुश्किलों या देश के सामने आये भ्रष्टाचार के संकट को समझने के लिये जरुरी है कि इस दौर में सरकार के कामकाज के तरीके और राजनीतिक दलों के संगठन के तौर-तरीकों को समझा जाये। अब सवाल सिर्फ जनता के बीच से निकले नेता के प्रधानमंत्री बनने की जगह सीईओ सरीखे एक नौकरशाह के प्रधानमंत्री बनने का नहीं है। बल्कि हर मंत्री की अपनी सत्ता है। और हर मंत्रालय के जरिये कोई भी मंत्री अरबों-खरबों का खेल जिस आसानी से विकास के नाम पर कर सकता है, उसमें किसी भी मंत्री के लिये राजनीतिक दल की जरूरत एक तमगे से अलग नहीं होती है। और यह सच केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों का है। यानी इस दौर में खुले बाजार को जिस माल की जरूरत है और वह उपभोक्ता से लेकर खनिज संसधानों और सस्ते मजदूर से लेकर सस्ते इन्फ्रास्ट्रचर में सिमटा हुआ है, और यह सब पूरा करने में भारत सक्षम है तो फिर हर सत्ताधारी की अपनी सत्ता हो ही जायेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
यहां सवाल सिर्फ ए.राजा का नहीं है जिन्होंने स्पेक्ट्रम के जरिये देश को चूना लगाया लेकिन पूंजी का जुगाड़ कर डीएमके में अपना कद बढाया और राजनीतिक तौर पर अपने भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया। बल्कि कांग्रेस के नेता जो भी मंत्री है या फिर पहले किसी ना किसी रूप में सत्ता संभाल चुके है, उनकी हैसियत पार्टी में कैसी है यह विलासराव देशमुख या गुलाम नबी आजाद या फिर दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं को देखकर समझा जा सकता है। क्या कोई यह सोच भी सकता कि महाराष्ट्र में शिवसेना की ही सत्ता क्यों ना आ जाये और मध्यप्रदेश में भाजपा की ही सत्ता क्यों ना हो लेकिन विलासराव देशमुख या दिग्विजय सिंह का काम उनके राज्यों में पूरा नहीं होगा। असल में सत्ता जिस तेजी से मंत्री या मुख्यमंत्री के लिये पूंजी की उगाही करती है और कारपोरेट के साथ नेटवर्किंग कराती हैं उसमें सत्ता जाने के बाद भी निजी सत्ता हर पूर्व मंत्री की बरकरार रहती है। यह सत्ता से आगे स्थायी सत्ता होती है।और बीते दस साल का सच यही है कि हर राजनीतिक दल ने सत्ता भोगी है। यानी सत्ताधारियों को लेकर विपक्ष के किसी नेता को देखकर यह सोचना भी बेमानी है कि विपक्षी नेता का काम आज की तारीख में हो नहीं सकता, क्योंकि वह सत्ता में नहीं है।
राजनीतिक गलियारे में हर कोई जानता है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज अपने किसी भी काम को लेकर और किसी का नहीं बल्कि सुपर पीएम सोनिया गांधी या राहुल गांधी से बात करने की ताकत रखती है। साथ ही काम पूरा कराने की ताकत भी। इसी राजनीतिक गलियारे में हर काग्रेसी भी जानते है कि पी.चिदंबरम का बेटा अब राजनीतिक मैदान में कूदने के लिये तैयार है और चिदंबरम भी इस तैयारी में है कि तमिलनाडु में अब कांग्रेस उनके हिसाब से चले। और पूंजी की कमी है नहीं। यह ठीक वैसे ही है जैसे कर्नाटक में येदियुरप्पा आरएसएस से निकलकर सीएम बनने के बाद भाजपा की दिल्ली चौकड़ी को भी चेताने से नहीं घबराते कि उन्हें बेदखल किया तो वह भाजपा को ही बेदखल कर देंगे।
असल में यहीं से जगन रेड्डी का सवाल भी खड़ा होता है और 10 जनपथ की कोटरी का भी। जगन रेड्डी अगर आंध्र प्रदेश में अब कांग्रेस के लिये एक चेतावनी है तो फिर इसी तरीके से भविष्य में हरियाणा या पंजाब में भी कोई चेतावनी खडी हो सकती है, क्योंकि आंध्रप्रदेश में जब वायएसआर ने अपने बूते कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचा दिया तो वायएसआर सिर्फ सीएम नहीं थे बल्कि आंध्र प्रदेश में काग्रेस के संगठन भी वही थे। यानी काग्रेस ने कभी इसकी तैयारी नहीं कि संगठन भी साथ-साथ खडा होना चाहिये । लेकिन कांग्रेस इस हकीकत को भी जानती समझती है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही असल में पार्टी-सरकार-संगठन है, इसलिये सोनिया की खामोशी के वक्त सीताराम केसरी ने कैसे कांग्रेस का बंटाधार किया यह भी किसी से छुपा नहीं है। और सोनिया के खड़े होते ही कैसे झटके में बिखरी कांग्रेस एक लगने लगी यह भी कांग्रेसियो ने ही देखा है। मगर सरकार के कारपोरेटिकरण के दौर में पार्टी जनता से जुडे रहे और मंत्री-सीएम भी इसकी काट किसी के पास है नहीं, इसलिये राज्यो में सीएम का मतलब सिर्फ सरकार नहीं होता बल्कि बल्कि पार्टी-संगठन भी होता है। इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य की आकूत संपत्ति पर सीएम का बैठना होता है और राज्य के लिये पूंजी प्रवाह ही कैडर को नेता से जोड़ता है। यह वैसे ही है जैसे हरियाणा में फिलहाल भूपिन्दर सिंह हुड्डा सर्वोसर्वा है और पंजाब में अमरिन्दर सिंह। वही पार्टी के नेता भी हैं और संगठन भी। यानी कल कोई संकट यहां खडा होगा तो सत्ता ना मिलने पर कांग्रेस के सामानांतर इन्हीं का कोई दूसरा खड़ा हो जायेगा।
वहीं मुश्किल यह है कि सोनिया गांधी की कटोरी में कोई ऐसा है नहीं जिसने राज्य संभाला हो। इसलिये किचन कैबिनेट के सर्वेसर्वा अहमद पटेल के लिये किसी भी राज्य को कांग्रेस के लिये चैक एंड बैलेस करने का मतलब चंद चेहरों पर निगरानी रखना या सौदेबाजी करना ही होता है। ऐसे में जब चेहरे ही सत्ता और 10 जनपथ के प्रतीक बन जाये तो फिर संगठन गायब हो जाता है और टकराव की स्थिति में इन चेहरों के लिये बगावत का मतलब सिर्फ अपने चेहरों को बनाये रखना भर ही होता है क्योंकि उनके पीछे समर्थकों की ऐसी फौज होती है जो उसी नेता के पूंजी प्रवाह पर टिकी होती है। और इस भीड़ को गंवाने का मोह कोई नेता छोडना नहीं चाहता है। क्योंकि उसे पता होता है कि उसका चेहरा बना रहा तो पिर पार्टी खुद ब खुद उससे सौदेबाजी कर लेंगी। और जब तक टकराव नहीं होता इन्हीं समर्थकों को संगठन और कैडर माना जाता है। टकराव हुआ तो शरद पवार या ममता बनर्जी का उदाहरण तो सामने हैं ही। यानी राजनीतिक पार्टी जो पहले संगठन के बल पर खडी होती थी अब वह सत्ता और नेता को महत्व देने लगी हैं। जबकि इन परिस्थितियों के बीच मनमोहन सिंह के इक्नॉमिक्स के असर को भी समझना होगा जिसके जरिये हर मंत्रालय को संभालने वाले मंत्री की एक अपना इम्फ्रास्ट्क्चर खुद-ब-खुद उसके पद संभालते ही बन जाता है। और जनता के बीच से निकल कर लुटियन्स की दिल्ली में पहुंचते ही उसके मंत्रालय की कीमत किस योजना को लेकर कितनी है यह बाहरी ताकतें तय करने लगती हैं।
मसलन, पहली बार जब 2004 में टीआरएस के चंद्रशेखर राव मंत्री बने तो वह अपने मंत्रालय को समझ भी पाते उससे पहले ही गुजरात के अलग पोर्ट को लेकर उनसे सौदे करने कारपोरेट की एक टीम हैदराबाद पहुंच गयी और डेढ हजार करोड का खुला ऑफर भी दे आयी। सौदा हुआ या नहीं यह तो सामने नहीं आया लेकिन मंत्री पर छोड जब दोबारा चन्ध्रशेखर राव अपनी पार्टी को बिखरने से रोकने के लिये संघर्ष में उतरे तो उनके पास जनाधार से ज्यादा पूंजी थी। यह स्थिति देश के किसी भी मंत्री या मुख्यमंत्री को लेकर कैसे हो सकती है यह राजा, येदियुरुप्पा, जगन से लेकर सीएम पहकर शिवसेना छोड़ने वाले नारायण राणे तक से समझा जा सकता है। लेकिन नेता और मंत्री पद के पूंजी प्रवाह से कही ज्यादा ताकतवर इस दौर में कारपोरेट घराने हुये है, जो असल में देश को "बनाना रिपब्लिक" की तरफ ले जा रहे है, इससे कांग्रेस या सरकार कैसे निपटेंगी बड़ा सवाल यहीं पैदा हो गया है। यह तो संयोग है कि नीरा राडिया के टेप एक ऐसे दौर में सामने आये जब देश में भ्रष्टाचार को लेकर संघर्ष तूल पकड रहा है और लोकतंत्र का हर खम्भा दागदार भी नजर आ रहा है और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ मैदान में हौले-हौले उतरने की कोशिश भी कर रहा है । इसमें सफलता कहां तक मिलेगी यह तो दूर की गोटी है, लेकिन कांग्रेस की अब बड़ी मुश्किल यह है कि जिस मनमोहन इक्नामिक्स ने कारोपरेट घरानों के लिये रेड कारपेट बिछायी वही कारपोरेट सत्ता-सरकार से लेकर पार्टी और संगठन तक में घुन की तरह जा मिला है। नौकरशाह की नियुक्ति से लेकर मंत्री बनाने और पार्टी में ओहदा दिलाने से लेकर संगठन खडा करने में चंदा देने तक में कारपोरेट शामिल हो चुका है।
सोनिया गांधी के लिये यह मुश्किल घड़ी इसलिये ज्यादा है क्योंकि उन्हें राजीव गांधी का वह दौर याद आ रहा होगा जब धीरुभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के संघर्ष में सरकार और जांच एंजेसी भी भागीदार बन गयी थी। तब के वित्त मंत्री वीपी सिंह से लेकर इन्वोस्मेंट टायरेक्ट्रोरेट के भुरेलाल की भी एक भूमिका थी और उस दौर में कैसे कारपोरेट युद्ध में दो तिहाई बहुमत वाली राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार पांच साल पूरे नहीं कर पायी और चुनाव हुये तो देश ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक नया नायक गढ दिया था। बाईस साल बाद कमोवेश वही स्थिति फिर फिर से खड़ी हो रही है क्योंकि कांग्रेस के सबसे कट्टर सहयोगी दुश्मन शरद पवार ही अब सरकार को पाठ पढा रहे है कि कारपोरेट घरानो को शक की बिला पर ना घेरें इससे गठबंधन की स्थायीतत्वता पर असर पड सकता है। यानी भ्रष्टाचार में फंसा कारपोरेट ही अब सियासत को ही अपनी बिसात बनाने की दिशा में ऐसे वक्त जा रहे हैं जब सोनिया गांधी या कहें काग्रेस राहुल गांधी को ताजपोशी के लिये तैयार कर रहा है। कारपोरेट अर्थव्यवस्था, चंदे पर टिका संगठन और चेहरों पर टिकी जो कांग्रेस कल तक मजबूत थी अब यही सब वजहें उसे को खोखला बना रही हैं।
Thursday, December 9, 2010
साल भर पहले यही भ्रष्ट्राचार ताकत थी
गृहमंत्री चिदबंरम ने पिछले दिनों दिल्ली में शीपिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया के एक कार्यक्रम में पत्रकारों से कहा आप राडिया मीडिया के हैं। फिर कहा अगर आप राडिया के टेप नहीं है तो फिर मीडिया में कैसे हैं। जाहिर है पी.चिदंबरम ने यह बात मजाक में कही थी।
..लेकिन क्या चिदबरंम इस हकीकत से इंकार कर सकते हैं कि जिस 2जी स्पेक्ट्रम और ए. राजा को लेकर राडिया टेप बना, उस पर बतौर वित्त मंत्री पी.चिदबंरम ने 2008 में ही चार पन्नों की टिपप्णी लिखी थी। अपनी टिप्पणी में उन्होंने टेलीकॉम् मंत्री ए.राजा के 2जी स्पेक्ट्रम के खेल पर सीधे अंगुली उठाते हुये देश को लगते चूने की बात कही थी। और गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने 24 सिंतबर 2008 में उस फाइल पर से आंख मूंद लीं जिसमें पद्मभूषण से सम्मानित पत्रकार के राडिया से बातचीत का जिक्र भी था। असल में इन दो सवालों के जरिये समझना जरुरी है कि जो घपला-घोटाला या भ्रष्ट्राचार आज नजर आ रहा है वह एक-दो साल पहले क्यों अलग नजरिये से देखा जा रहा था। या फिर उस वक्त भ्रष्ट्राचार की परिभाषा में यह सब "पावर" का प्रतीक था।
तो पहले बात गृह मंत्री की। 15 नवबंर 2008 में पहली बार मुख्य सतर्कता आयुक्त ने संचार मंत्री ए.राजा को स्पेक्ट्रम घपले पर कारण बताओ नोटिस दिया और उसके तुरंत बाद अपनी जांच के आधार पर प्रधानमंत्री को विस्तृत रिपोर्ट भेजकर अभियोजन प्रक्रिया शुरू करने की मांग की। उस रिपोर्ट में वित्त मंत्री चिदबरंम की वह चार पेजी टिप्पणी भी नत्थी थी, जिसे वित्त मंत्री ने 2जी स्पेक्ट्रम में पहले आओ, पहले पाओ की पॉलिसी अपनाकर देश के राजस्व को चूना लगाना शुरु किया था। और वित्त मंत्रालय देश के बजट में जहां-जहां से देश के खजाने में कमाई आने का अंदेशा लगाये हुये था इसका भी बंटाधार होते हुये चिदबंरम देख भी रहे थे और गठबंधन के धर्म तले टिपण्णी से आगे जाने की हिम्मत भी नहीं दिखा पा रहे थे। क्योकि अगर याद कीजिये तो जब 3जी स्पेक्ट्रम से देश को कमाई हुई तो वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने पहली टिपण्णी यही की थी कि इस कमाई से मनरेगा से लेकर तमाम सामाजिक कार्यक्रमो को पूरा करने में सरकार का धाटा पूरा हो जायेगा।
लेकिन उस वक्त वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2जी स्पेक्ट्रम की कम कमाई पर कोई टिपण्णी नहीं की। यानी इस साल 27 फरवरी को बजट वाले दिन भी सरकार को यह नहीं लगा कि 2जी स्पेक्ट्रम को कौडि़यों के मोल बेचकर भारी घपला किया गया है। जबकि वित्त मंत्रालय ने ही 2008 में इस मामले में पहली टिप्पणी भेजी थी। यानी चिदंबरम 2008 में सिर्फ टिप्पणी कर सकते थे और 2010 में प्रणव मुखर्जी सिर्फ खामोशी बरत सकते हैं। लेकिन अब जब सीबीआई को 2जी स्पेक्ट्रम घपले पर ए.राजा की कार्रवाईयो को लेकर चार्जशीट दाखिल करनी है तो सीबीआई को ज्यादा मेहनत की जरुरत इसलिये नहीं है क्योकि तत्कालिन वित्तमंत्री की चार पेजी टिपण्णी ही सीबीआई के लिये काफी है। तो क्या इसीलिये चिदंबरम या प्रणव मुखर्जी अब स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी की मांग आते ही तुरंत खारिज करते है क्योंकि जेपीसी में इसकी जानकारी भी सभी के सामने आ जा जायेगी कि कैसे वित्त मंत्री को तो हर घपले की जानकारी थी। क्योंकि अक्टूबर 2009 में सीबीआई के केस दर्ज करने के अगले ही दिन 22 अक्टूबर 2009 को टेलीकॉम मंत्रालय में छापे मारने के बाद जब ए. राजा के खिलाफ सीबीआई ने कानूनी कार्रवाई करने की सोची तो वह सारे दस्तावेज सीबीआई के प्रोसीक्यूशन विंग को भेजे और उसमें वित्त मंत्रालय यानी तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम की चार पेजी टिप्पणी भी नत्थी थी। लेकिन प्रसीक्यूशन विंग चूंकि कानून मंत्रालय के अधीन आता है तो फिर सारी फाइलें भी सीबीआई के प्रसिक्यूशन विंग से कानून मंत्रालय और वहा से पीएमओ चली गयी।
इस पूरे दौर में वित्त मंत्रालय की तरफ आज तक इसका जिक्र नहीं जा रहा है कि 2008 में वित्त मंत्री चिदंबरम ने जो सवाल खडे किये थे उनका जवाब ना कानून मंत्रालय ने दिया ना ही पीएमओ ने। लेकिन महत्वपूर्ण है कि राडिया का टेलीफोन टैप करने के लिये सबसे पहले आयकर निदेशालय ने ही गृह सचिव से इजाजत मांगी थी। और तब सवाल टीडीएस का था। यानी टैक्स चोरी का। और राडिया फोन टैप की जानकारी तब भी वित्त मंत्रालय को थी। क्योंकि इन्कम टैक्स की फाइल तो वित्त मंत्रालय के जरिये ही गृहमंत्रालय पहुंची और उसी के बाद राडिया के फोन टेप हुये। चिदंबरम अब देश के गृहमंत्री हैं। अब दूसरा सवाल। पिछले साल जिस वक्त सरकार देश के महान विभूतियों को छांट कर उन्हे पद्मभूषण, पद्म विभूषण या पद्मश्री सरीखे सम्मान से सम्मानित करने का सोच रही थी उनके नाम किसी भ्रष्ट्राचार या अपराध में नहीं है इसके लिये समूची लिस्ट अलग-अलग जांच एंजेसियों को भी भेजी गयी। और सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में तब भी नीरा राडिया के साथ जिनकी बात फोन पर हो रही थी उनके नाम को सम्मानित किये जाने वाले नामो का मिलान किया था। और उस वक्त भी उन पत्रकारो के नाम सीबीआई ने गृहमंत्रालय को भेजकर यह टिप्पणी की थी कि सीबीआई 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जो जांच कर रही है और नीरा राडिया के फोन टेप से जो नाम निकल कर आ रहे है उनमे से कुछ नाम सरकार की सम्मानित सूची में भी हैं। इस मोस्ट अरजेंट फाइल पर गृह सचिव की नजर नहीं गई होगी ऐसा हो नही सकता है। क्योंकि राडिया का फोन टैप करने की इजाजत तत्तकालिन गृह सचिव मधुकर गुप्ता ने दी थी और पहले छह महीने के फोन टैप करने के बाद जब उसकी समय सीमा बढाने की बात आयी तो फिर से गृह मंत्रालय का दरवाजा खटखटाया गया। क्योंकि पोस्ट एंड टेलीग्राफ एक्ट के तहत हर छह महीने में इजाजत दोबारा लेनी जरुरी होती है। ऐसे में गृह मंत्रालय को यह जानकारी थी कि भ्रष्ट्राचार के मामले में ही नीरा राडिया का फोन टैप हो रहा है। बावजूद इसके मधुकर गुप्ता ने उस फाइल की अनदेखी की जिसमें नीरा राडिया से जुडे उघोगपतियो, नेताओ, नौकरशाह और पत्रकारों के नाम टेप में सामने आये थे। फिलहाल पत्रकारों में जो नाम खुलकर सामने आया है और जिन्हे पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया वह बरखा दत्त का है। जबकि सीबीआई ने इस फाइल में कई नाम का जिक्र किया है। कहा जा सकता है कि बाकियों के नाम अभी सामने नहीं आये हैं।
लेकिन बडा सवाल तो यह भी है कि गृह सचिव ने तब भ्रष्ट्राचार की नीरा राडिया फाइल पर आंख मूंदी थी या उस दौर में यह सोचना भी गुनाह था कि पद्मश्री, पद्मभूषण या पद्मविभूषण से सम्मानित लोगो की सरकारी सूची में किसी नाम को ब्लैक लिस्टेट करना अपराध माना जायेगा। या सरकार को आईना दिखाने वाले नौकरशाह अब बचे नहीं हैं। इसलिये राडिया टेप सामने आने के बाद या कहें देश में भ्रष्ट्राचार के खिलाफ माहौल बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी जिस तरह प्रधानमंत्री से लेकर सीवीसी तक को कटघरे में खडा करने में देर नहीं लगायी उसके अक्स में अगर 2008-09 के दौर को देखें तो मंदी से निपटते मनमोहन सिंह, चिदंबरम और प्रणव मुखर्जी की तिगड़ी खासी महत्वपूर्ण लगती थी। विकास दर के आंकडे दुनिया के सामने मनमोहन इक्नामिक्स को ही श्रेष्ठ माने हुये थे। लेकिन, अर्से बाद जब मनमोहन इक्नामिक्स तले भ्रष्टाचार की परते उघाड़ी जा रही हैं तो कौन इसके दायरे में है और कौन दायरे में आयेगा, यही सवाल जेपीसी तक जाने से हिचक रहा है। कयोंकि तब हर दल के नुमाइन्दे के पास कारपोरेट, राजनीति, मीडिया और बिचौलियों के सत्ताधारियों का कच्चा-चिट्टा होगा और बोफोर्स में तो एक कागज ने सत्ता पलट दी थी यहां तो पूरी फाइल होगी।
Friday, December 3, 2010
एक रुका हुआ फैसला
दो साल पहले गृह सचिव, आयकर निदेशालय और सीबीआई को इसका एहसास तक नहीं था कि जिस नीरा राडिया का वह टेलिफोन टैप करने जा रहे हैं, उस टेलिफोन पर लोकतंत्र का जनाजा हर दिन निकलता हुआ सुनायी देगा। मामला भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराध के तहत हवाला और एफडीआई का था । यानी फोन कॉल्स एक ऐसे आरोपी के टैप किये जा रहे थे, जो कई मंत्रालयो के जरिये देश के राजस्व को चूना लगा रहा था और आयकर महानिदेशालय पता यही लगाना चाहता था कि नीरा राडिया के तार कहां-कहां किस-किस से जुड़े हुये हैं।
लेकिन जब 5851 फोन कॉल्स को आठ हजार पन्नों में समेटा गया तो पहला सवाल हर के सामने यही् आया क्या जिन्होंने नीरा राडिया से फोन पर बातचीत की वह सभी देश को चूना लगाने में लगे थे-इसे माना जाये या नहीं। क्योंकि हर बात करने वाले का अपना अपना लाभ उसके अपने घेरे में था। लेकिन लोकतांत्रिक देश में विकास के यह चेहरे नीरा राडिया से कुछ निजी और बहुत सारी सार्वजनिक बातें जिस तर्ज पर कर रहे थे, उसमें यह सवाल उठना जायज ही था कि निजी संवाद को सार्वजनिक क्यों किया जाये और सार्वजनिक संवाद को क्यों छुपाया जाये । लेकिन सीबीआई,आईडी,एन्कम टैक्स अगर किसी को आरोपी मान रहा है तो फिर निजपन क्या हो सकता है। और लोकतंत्र के जो चेहरे अपराधी से निजपन रखते हैं, उनको किस रुप में देखा जाये।
क्या नीरा राडिया के अपराधी करार देने तक टेप पर पांबदी लग जाये और अपराधी साबित होने के बाद हर बातचीत करने वालों को भी देशद्रोही मानें। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम का फोन टैप करने पर उनसे बात करने वालों के खिलाफ सरकार क्या कदम उठाये। हाल में चिदंबरम ने इसके संकेत भी दिये कि आंतकवादियों से बात करने वाले पत्रकारों के खिलाफ भी कार्रवाई होगी। मीडिया में भी इसकी सहमति बनी और भाजपा ने तो इसका खुला समर्थन किया कि चिदंबरम कुछ गलत नहीं सोच रहे। अब सवाल है कि अगर दाउद से कोई उद्योगपति या संपादक बात करता है या फिर दाउद से किसी मंत्री के रिश्ते की बात सामने आती है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई होगी या सरकार खामोशी ओढ लेगी। ठीक इसी तरह अगर हवाला या अन्य माध्यमों से देश को राजस्व का चूना बकायदा मंत्रालयों के नौकरशाहो और मंत्रियों के जरीये लगाया जा रहा है और इसमें मीडिया के कुछ नामचीन चेहरे भी अपने अपने राजनीतिक प्यादों का खेल खेल रहे हों, तब कार्रवाई होगी या नहीं। इतना ही नहीं दाउद से बातचीत के टेप कोई पत्रकार सामने ले आये तो उसकी वाहवाही समूचा देश या सरकार या गृहमंत्री चिदबरंम या फिर देश का कारपोरेट जगत भी कैसे करेंगे, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है । और उस वक्त क्या कोई उघोगपति,संपादक या मंत्री जिसने दाउद से बाचतीच की हो यह कहने की हिम्मत भी रखेगा कि बातचीत तो निजी थी उसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिये।
इस आइने में अगर सबसे पहले रतन टाटा और राडिया की बातचीत के सामने आने के बाद टाटा के उठाये सवाल पर गौर करें तो उन्होंने बातचीत को निहायत निजी माना। और यह भी कहा कि बातचीत के टेप लीक करने वालो के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिये। अब सवाल है कि अगर मीडिया इस तरह के दस्तावेजों को सामने ना लाये या फिर कोई भी अधिकारी इस डर से हर उस सच को छुपा लें जो देश के लिये खतरनाक हो तो फिर लोकतंत्र का पैमाना क्या होगा। क्योकि एक तरफ आरटीआई के जरीये पारदर्शिता की बात सरकार कर रही है तो दूसरी तरफ मीडिया पर लगातार यह आरोप लग रहे हैं कि वह सरकार के साथ ही जा खड़ी हुई है। फिर मीडिया भी जब कारपोरेट सेक्टर में तब्दिल हो रही है तो किसी मीडिया संस्थान से यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि वह पत्रकारिता के आचरण में एथिक्स की बात करें।
असल में राडिया के फोन टैप से सामने आये सच ने पहली बार बडा सवाल यही खड़ा किया है कि अपराध का पैमाना देश में होना क्या चाहिये। लोकतंत्र का चौथा खम्भा, जिसकी पहचान ही ईमानदारी और भरोसे पर टिकी है उसके एथिक्स क्या बदल चुके हैं। या फिर विकास की जो अर्थव्यवस्था कल तक करोड़ों का सवाल खड़ा करती थी अगर अब वह सूचना तकनालाजी , खनन या स्पेक्ट्रम के जरीये अरबो-खरबो का खेल सिर्फ एक कागज के एनओसी के जरीये हो जाता है तो क्या लाईसेंस से आगे महालाइसेंस का यह दौर है। लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस तमाम सवालो पर फैसला लेगा कौन। लोकतंत्र के आइने में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका और संसद दोनो को मिलकर कर यह फैसला लेना होगा। लेकिन इसी दौर में जरा भ्रष्टाचार के सवाल पर न्यायापालिका और संसद की स्थिति देखें। देश के सीवीसी पर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि भ्रष्टाचार का कोई आरोपी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले पद सीवीसी पर कैसे नियुक्त हो सकता है। तब एटार्नी जनरल का जबाव यही आया कि ऐसे में तो न्यायधिशो की नियुक्ति पर भी सवाल उठ सकते हैं। क्योकि ऐसे किसी को खोजना मुश्किल है जिसका दामन पूरी तरह पाक-साफ हो। वही संसद में 198 सांसद ऐसे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप बकायदा दर्ज हैं और देश के विधानसभाओ में 2198 विधायक ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। जबकि छह राज्यो के मुख्यमंत्री और तीन प्रमुख पार्टियो के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ऐसी हैं, जिन पर आय से ज्यादा संपत्ति का मामला चल रहा है। वहीं लोकतंत्र के आईने में इन सब पर फैसला लेने में मदद एक भूमिका मीडिया की भी है। लेकिन मीडिया निगरानी की जगह अगर सत्ता और कारपोरेट के बीच फिक्सर की भूमिका में आ जाये या फिर अपनी अपनी जरुरत के मुताबिक अपना अपना लाभ बनाने में लग जाये तो सवाल खड़ा कहां होगा कि निगरानी भी कही सौदेबाजी के दायरे में नहीं आ गई। यानी लोकतंत्र के खम्भे ही अपनी भूमिका की सौदेबाजी करने में जुट जाये और इस सौदेबाजी को ही मुख्यधारा मान लिया जाये तो क्या होगा। असल में सबसे बड़ा सच इस दौर का यही है कि देश के लिये जिसे आरोपियों का कटघरा माना जाता है, उसी कटघरे में खड़े आरोपी ही देश का भविष्य बना सकते हैं यही माना जा रहा है । यानी देश में मान्यता उसी तबके की है जो सौदेबाजी के जरीये लोकतंत्र का जनाजा नीरा राडिया से फोन पर हर वक्त निकालता रहा। इसलिये मुश्किल यह है कारपोरेट ने नीरा राडिया को आगे रखा। नीरा राडिया ने मीडिया को । मीडिया ने राजनीति को। राजनति ने पीएम को और पीएम कारपोरेट को देश का सर्वोसर्वा बनाने पर तुले हैं। तो इस गोलचक्कर में रास्ता कहां से निकलेगा।
नीरा राडिया एक ऐसे औजार के तौर पर इस दौर में सत्ता के सामने आयीं, जब देश में लाईसेंस राज के बदले महालाईसेंस का दौर शुरु हो चुका है। और खेल अब करोड़ों का नही अरबो-खरबो का होता हैं। खासकर खनन और सूचना तकनीक ऐसे क्षेत्र हैं, जहां सिर्फ कागज पर एक नो ऑब्जेकशन सर्टीफिकेट या एनओसी के लाइसेंस का मतलब ही होता है अरबो के मुनाफे का खेल। और कोई भी नेता जो जनता के रास्ते संसद तक पहुंचता है, मंत्री बनने के बाद उसे भी नीरा राडिया सरीखे फिक्सर की जरुरत अपने मंत्रालय की बोली लगाने के लिये बडे कैनवास में झाकने की जरुरत होती है। वहीं कारपोरेट जगत का रास्ता देश के बाहर के बाजार की कीमत से शुरु होता है जो देश में मंत्रियो को मुनाफे में साझीदार बनाने के लिये उस मीडिया को घेरते हैं, जिनके आसरे संसदीय लोकतंत्र की पताका फहराती रहती है। और मीडिया की इमारत भी अब विश्वनियता या ईमानदारी की जगह पूंजी के ऐसे ढांचे तले खडी हो रही है, जहां से आम आदमी की भूख की जगह उसका मनोरंजन और सत्ता-कारपोरेट की लूट की जगह विकास का रेड कारपेट ही मुनाफा देता नजर आता है। इसलिये पत्रकार अब जनता की राजनीति के लिये नहीं मुनाफे वाले कारपोरेट के लिये काम करना चाहते हैं और कारपोरेट नीरा राडिया के टेप से भी अपना निज बचाना चाहता है। इसलिये यह फैसला रुका है कि अपराधी सिर्फ दाउद है या घोटालेबाज और देश को अरबों के राजस्व का चूना लगाने वाले भी।
Monday, November 29, 2010
राडिया...राजा और टाटा बनाम मि. क्लीन प्रधानमंत्री का सच
त्तो जरा 2 जी स्पैक्ट्रम तले आर्थिक घोटाले और घोटाले तले लोकतंत्र की ही घज्जियां उड़ाती सत्ता की महक में मि. क्लीन को परखना जरुरी है। भ्रष्टाचार की गंगोत्री रायसिना हिल्स में साउथ ब्लॉक के सबसे किनारे वाला दप्तर पीएमओ है। जहां की मजबूत लाल दीवारों में उतने ही कमरे हैं, जितने देश में कैबिनेट मंत्री। हर मंत्रालय पर नजर रखने के लिये नौकरशाहो की पूरी फौज यहां से काम करती है। इसलिये सवाल यह नहीं है कि सुब्रमण्यम स्वामी के उस पत्र पर मि.क्लीन ने चुप्पी क्यों साधी, जिसमें स्वामी ने टेलीकॉम मंत्री ए राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की इजाजत प्रधानमंत्री से मांगी थी। सवाल स्वामी के पत्र से पहले जांच एंजेसियो की कार्रवाई पर भी मि. क्लीन की चुप्पी और देश की सत्ता की डोर थामे कारपोरेट के आगे नतमस्तक मि.क्लीन प्रधानमंत्री का है। स्वामी ने तो पहला पत्र 29 नबवंर 2008 को लिखा। लेकिन इस पत्र से एक हफ्ते पहले 21 नवबंर 2008 को ही सीवीसी यानी मुख्य सतर्कता आयुक्त ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर स्पैक्र्ट्रम घोटाले की समूची रिपोर्ट भेजते हुये ए राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की प्रक्रिया शुरु करने की मांग की थी। लेकिन पीएमओ ने इस तथ्य पर कोई ध्यान देना तो दूर पीएमओ के एक डायरेक्टर ने यहां तक टिप्पणी की सीवीसी सिर्फ वाच डाग है। वह जांच करने वाली एजेंसी खुद को ना माने। सीवीसी को आज तक पीएमओ से राजा के मामले में भेजी रिपोर्ट पर कोई जवाब नहीं मिला है। कमोवेश सीवीसी ने जो बात कही थी, वही तथ्य नत्थी करके सुब्रमण्यम स्वामी ने 29 नवबंर 2008 को पहला पत्र प्रधानमंत्री को यह सोच कर लिखा कि उनकी पहल से तमिलनाहु की राजनीति में उनके सौदेबाजी का दायरा बढ़ेगा । क्योंकि स्पैक्ट्रम को लेकर गरमाती दिल्ली की राजनीति से दूर तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि भी इस मुद्दे पर आमने-सामने खड़े थे और अभी भी खड़े हैं। और जयललिता का विरोध राजा को करुणनिधि की नजर में और बड़ा नेता ही बना रहा था। सुब्रमण्यम का पांसा तो कोई खेल राजनीतिक तौर पर नहीं कर पाया। इसलिये सुब्रमण्यम स्वामी पहले पत्र के बाद खामोश हो गये।
लेकिन 11 महिने बाद फिर 31 अक्टूबर 2009 को तभी जागे जब सीबीआई ने अपना खेल शुरु कर दिया। सीबीआई ने स्वामी की प्रधानमंत्री को भेजी दूसरी चिट्ठी से दस दिन पहले ही स्पैक्ट्रम घोटाले में ना सिर्फ इन्टैंट घोटाला की प्राथमिकी दर्ज की बल्कि छापा मारना भी शुरु किया। 22 अक्टूबर 2009 को सीबीआई ने डीओटी यानी डायरेक्ट्रोरेट आफ टेलिकाम्युनिकेशन के दिल्ली दफ्तर पर छापा मारा । जो फाइलें जब्त की, उसमें उन कंपनियो के दस्तावेज थे जिन्हे 2 जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस कौडिये के मोल दिया गया। खास कर वह आठ कंपनियां, जिन्होंने 20 से 25 सितंबर 2007 को कौडियो के मोल लाइसेंस लिया और ठीक एक साल बाद सिंतबर-अक्टूबर 2008 में लाखों करोडों की रकम का मुनाफा लेकर दूसरी कंपनियो को लाइसेंस बेचा । यूनिटेक वायरलेस, स्वान टेलिकाम,लूप टेलिकाम,सिस्टिमा,एलायंज,डाटा काम,श्याम टेलेलिंक लिं,टाटा टेलिसर्विसेस,आईडिया सेलुलर और स्पाइसलकम्युनिकेशन के दस्तावेज 22 अक्टूबर 2009 को ही सीबीआई ने अपने हाथ में ले लिये। और इसके अगले 24 घंटे के भीतर ही दिल्ली,मुबंई,चेन्नई,अहमदाबाद जयपुर, नोयडा, गुडगांव और मोहाली के 19 दफ्तरो पर छापा मारकर सीबीआई ने जो दस्तावेज जब्त किये उसने भ्रष्टाचार की उस नींव को ही हिला दिया। जिसमें टेलीकॉम मंत्री ने 22 अक्टूबर 2009 को डीओटी के दफ्तर में छापा पडने के बाद उसी दिन रात में पत्रकारों से यह कहा था कि उनका स्पेक्ट्रम को बांटने से सीधा कोई ताललुक सीबीआई ने नहीं बताया है। इसलिये इस्तीफा देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
लेकिन 23 अक्टूबर को पडे सीबीआई छापे में जो दस्तावेज मिले उसमें स्पैक्ट्रम के लाइसेंस पाने वाली कंपनियों के उस पत्र की भी प्रतिलिपी सीबीआई को मिली, जो साफ बताती थी कि कैसे यह कंपनियां आगे अपने कितने शेयर बेचेंगी और उससे नये कितने लाइसेंस टेलीकॉम मंत्रालय को जारी करने पडेंगें। इतना ही नहीं, पत्र ऐसे भी मिले जिसमें नये लाईसेंस बेचने की एवज में लाइसेंस आवंटन से दूरसंचार विभाग को कितनी रकम मिलेगी और बाजार मूल्य कितना ज्यादा होगा। जिसके बदले कितनी रकम कहां पहुंचेगी। छापे में सीबीआई को चेन्नई के स्टेल ग्रूप से 225 मिलियन डालर में बिटेल को बेचे गये 45 फिसदी के दस्तावेज भी मिले और श्याम टेलिसर्विसेस ने रुसी फार्म सिसटिमा को को जो 70 फिसदी शेयर चार सौ मिलियन डालर से ज्यादा में बेचा थी उसके दस्तावेज भी मिले । साथ ही स्वान के दफ्तर से यूएई की कंपनी एतिसालात के साथ 45 फिसदी अंश बेचकर 4195 करोड रुपये की डिल और यूनिटेक वायलेस का नार्वें की कंपनी टेलीनार के साथ 60 फिसदी अंश बेचने की एवज में 6120 करोड रुपये की डिल के दस्तावेज भी मिले। जबकि ए राजा ने इन सभी को डेढ़ से पौने दो हजार करोड़ रुपये के बीच लाइसेंस शुल्क ले कर लाइसेंस दे दिया था। वहीं सीबीआई को उस दस्तावेज से भी हैरानी हुई, जो उन्हें यूनिटेक और स्वान के दफ्तर से मिला...और उसमें जिक्र इस बात का था कि कैसे इन दोनो कंपनियो ने जितनी अंशपूंजी बेची है, उसके एवज में नौ नये 2 जी लाइंसेसो के लिये दूरसंचार को सिर्फ दस हजार सात सौ बहत्तर करोड़ 68 लाख मिलेंगे। जबकि बाजार में इसकी कीमत सत्तर हजार बाईस करोड 42 लाख है। और 59 249 करोड 74 लाख रुपये कहां कैसे कैसे किधर बांटेंगे। अब सवाल है जब देश की सबसे बडी जांच एंजेसी सीबीआई ही संचार मंत्री और संचार मंत्रालय के घोटालो को खोद खोद कर निकाल रही थी तो फिर जांच रुकी कहां और कानूनी कार्रवाई जो ए राजा के खिलाफ शुरु होनी थी, वह हुई क्यों नहीं। जबकि इस दौर में उस वक्त के वित्त मंत्री पी चिदबंरम हो या कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज, दोनों के मंत्रालय ने राजा के स्पेक्ट्रक्म बेचने के तरीको को लेकर भी अंगुली उठाय़ी और उससे देश को लगते चूने का आंकड़ा भी कैग के जरीये भेजा। कैग ने आज नहीं बल्कि 2007 के आखिर में ही एक लाख चालीस हजार करोड़ रुपये के राजस्व की क्षति की बात कही थी। वही वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट भी पीएमओ गयी थी। वित्त मंत्रालय ने ट्राई यानी भारतीय दूरसंचार नियमन प्राधिकरण के वह दिशा निर्देश भी प्रधानमंत्री को जानकारी के लिये भेजे गये पत्र में नत्थी किये थे...जिसमें ट्राई ने संचार मंत्रालय से कहा था कि स्पैक्ट्रम लाइसेंस देते वक्त प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये। क्योकि दूसरा कोई मापदंड है नहीं। वैसे भी 2001 में जहा सेलफोन के ग्राहक 40 लाख थे वह 2007 में बढ़कर चार करोड तक जा पहुंचे हैं। यह अलग बात है कि राजा ने ट्राई के दिशा निर्देश उसी दिन खारिज कर दिये जिस दिन यह जारी किये गये । लेकिन सवाल पीएमओ का है । जिसने वित्त मंत्रालय के सवालों पर भी खामोशी बरती। और इस दौर में संकेत हर किसी मंत्रालय को यही दिया गया दस्तावेजो की पड़ताल की जा रही हैं। लेकिन जांच को लेकर असल खेल फरवरी से शुरु हुआ। जब बजट तैयार करते वक्त हर घाटे की भरपायी को 3 जी स्पैक्ट्रम की कमाई से जोडा जाने लगा तो एक सवाल यह भी आया कि जब 3 जी स्पेक्ट्रम की कीमत इतनी ज्यादा है तो फिर 2 जी स्पेक्ट्रम की इतनी कम कमाई को लेकर भी सवाल उठेंगे । ऐसे में सीबीआई की इन्वेस्टिगेटिंग विंग ने ए राजा या कहे संचार मंत्रालय समेत जिन भी कॉरपोरेट हाउसों की कंपनियो के खिलाफ जो भी दस्तावेज अपने पास रखे हुये थे, उसे सरकार ने अपने कब्जे में करने के लिये सीबीआई की ही प्रासिक्यूशन विंग का सहारा यह कह कर लिया कि राजा के खिलाफ कानूनी कार्रावाई से पहले उस पर कानूनी राय जानना भी जरुरी है। जैसे ही दस्तावेज सीबीआई के प्रोसीक्यूशन विंग के पास पहुचें, वैसे ही कानून मंत्रालय ने तमाम दस्तावेज अपने पास मंगा लिये। यहां यह समझना जरुरी है कि सीबीआई तो स्वायत्त है लेकिन सीबीआई की प्रोसीक्यूशन विंग कानून मंत्रालय के अधीन आती है। और कानून मंत्री की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री को लेकर है। सीबीआई के छापो के बावजूद जब राजा ने खुद को पाक-साफ बताया तो विपक्ष ने संसद में खासा हंगामा किया और बजट सत्र के दौरान प्रधानमंत्री की मिं. क्लीन छवि को लेकर भी सवाल उठे।
याद कीजिये तो इसी साल मई के पहले हफ्ते में ही करुणानिधि जब दिल्ली पहुंचे और उन्होने 10 जनपथ जाकर सोनिया गांधी से मुलाकात की और पहले दिल्ली फिर चेन्न्ई पहुंच कर यही कहा कि राजा के इस्तीफा देने का सवाल ही पैदा नहीं होता । और राजा को हटाया गया तो समर्थन वापस ले लिया जायेगा।
जाहिर है समर्थन के मसले पर सोनिया गांधी को सियासत समझनी थी और राजा से लगे मंत्रीमंडल पर दाग को प्रधनमंत्री को साफ करना था। सोनिया ने डीएमके से समझौता किया और मिं क्लीन की छवि लिये प्रधानमंत्री ने कानून मंत्रालय से वह सारे दस्तावेज अध्ययन के लिये मंगा लिये, जिन्हे सीबीआई ने प्रोसीक्यूशन विंग से कानूनी राय के लिये भेजा था। जब सारे दस्तावेज पीएमओ चले गये तो फिर कानून मंत्रालय, प्रोस्क्यूशन विंग या फिर सीबीआई भी राजा पर कोई टिप्पणी कहा कर सकती है। सो हर कोई खामोश हो गया । पीएमओ में कानून मंत्रालय को देखने वाले डायरेक्टर ने बिना देर किये कानून मंत्रालय से ए राजा की सारी फाइल अपने पास मंगवा ली। कानूनी सलाह की हरी झंडी मिले बगैर सीबीआई इससे आगे जा नहीं सकती थी तो सीबीआई यही आकर रुक गयी। और यह जानकारी जब चेन्नई में डीएमके की तरफ से इस भरोसे के साथ लीक हुई की संचार मंत्री ए राजा के खिलाफ सीबीआई कानूनी कार्रवाई कर नहीं सकती है तो सुब्रमण्यम स्वामी हरकत में आये और तीसरा पत्र 8 मार्च को उन्होंने प्रधानमंत्री को भेजा। और उसके पांच दिनो बाद 13 मार्च 2010 को चौथा और आखिरी पत्र भेजकर राजा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की इजाजत पर हां-नहीं अन्यथा सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की घमकी दी। असल में सुब्रहमण्यम स्वामी के पत्र का पेंच सिर्फ इतना ही है कि राजा को लेकर सरकार कोई भी पहल बिना पत्र का जवाब दिये या फिर स्वामी के आरोपो का जिक्र किये बगैर आगे बढ़ नहीं सकती है। इसलिये स्वामी ने जवाब आते ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उधर स्वामी के इस आखिरी पत्र का असर यही हुआ कि हफ्ते के भीतर पीएमओ का जवाब वही आया जो सीवीसी से लेकर सीबीआई तक को मौखिक तौर पर दी गयी थी कि, " सबूतों का अध्ययन किया जा रहा है। कानूनी कार्रवाई की इजाजत देने पर विचार करना जल्दबाजी होगी। "
लेकिन सबूत जो सीबीआई को मिले और सीबीआई ने जो दस्तावेज अपने तौर पर तैयार किये उसने झटके में पीएमओ की खामोशी के पीछे के उन तथ्यो को उघाड कर रख दिया जिसके आसरे सत्ता के कई चेहरे है । खासकर मनमोहन की इक्नामिक्स ने बाजार जरुर खोला लेकिन वह लाइसेंस राज से आगे महा-लाइसेंस राज की स्थिति में ले आया। और चूंकि इस दौर में मामला लाखो या करोड़ों का नही बल्कि अरबों-खरबों का हो चुका है तो उस पर लाईसेंस की निगरानी भी और कोई नहीं मंत्री ही रखना चाहते है। और मंत्रिमंडल के मुखिया प्रधानमंत्री की भूमिका इस महा-लाईसेंस राज में सर्वेसर्वा की भी हो गई। क्योकि सरकारी कान्ट्रैक्ट से लेकर खनन और इलेक्ट्रॉनिक का कैनवास जितना बडा होता जा रहा है, उसमें 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला तो एक शुरुआत है। जिसमें करुणानिधि गठबंधन की सौदेबाजी का दायरा बड़ा होता देख रहे हैं। वहीं ए राजा मंत्री बनने से लेकर लाइसेंस बांटने में जब बदनाम हुये तो जिन चेहरो ने राजा से मुनाफा पाया या कहे लाइसेंस पाया कारपोरेट के वही चेहरे राजा को दुबारा मंत्री बनवाने में जुटे। सीबीआई ने स्पैक्ट्रम घोटाले के दौर में सिर्फ नीरा राडिया का फोन टेप किया और करीब 5851 फोन कॉल को रिकार्ड में ला कर दस्तावेज का रुप दिया गया है, जो 8 हजार पन्नो का है। जाहिर है इन दस्तावेजो में वह सबकुछ है, जो लोकतंत्र के हर पाये को घोटाले से जोड़ता है। यानी सत्ता और कारपोरेट की फिक्सर के फोन टेप ने उन चेहरो को सामने ला दिया जो हमेशा से भ्रष्टाचार और फिक्सर के खिलाफ थे। 2009 में जब 22 मई को पहले कैबिनेट के मंत्रियो में ए राजा का नाम नहीं आया तो राजा को मंत्री बनवाने की मशक्कत उसी सत्ता ने की, जिनके मुनाफे तले देश को 1.76 लाख करोड़ का चूना लगा। कारपोरेट के दिग्गजो ने अपने चेहरे छुपाये और सामने बिचौलिये की भूमिका निभाने वाली नीरा राडिया को रखा। टेलीकाम,एवियशन,पावर और इन्फ्रास्ट्रक्चर जेसे क्षेत्रों में रिटायर्ड नौकरशाहो की फौज के जरीये चार कंपनियों की मालकिन नीरा राडिया ने ए राजा को मंत्री बनाने से लेकर संचार मंत्रालय दिलाने की जो सुपारी कारपोरेट दिग्गजो से ली। उसका असर यही हुआ रतन टाटा और मुकेश अंबानी से लेकर वित्तीय संस्थानो के प्रमुख और मीडिया के नामचीन चेहरे और न्यूज चैनल-अखबार तक का इस्तेमाल राजा को मंत्री बनाने से लेकर संचार मंत्रालय दिलाने तक में जुटा। भ्रष्टाचार कर देश को चूना लगाने के इस खेल में सिर्फ संचार मंत्रालय ही आया ऐसा भी नहीं है। अगर सीबीआई के दस्तावेजो को देखे तो टाटा किसी भी हालत में मुरोसोली मारन को संचार मंत्री बनने देना नहीं चाहते थे और सुनील मित्तल हर हाल में मारन को ही संचार मंत्री बनवाना चाहते थे। ऐसे में बिचौलियो या फिक्सर की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, इसका अंदाजा इससे भी लगता है कि नीरा राडिया, जो कि टाटा और मुकेश अंबानी ग्रुप के लिये काम कर रही थीं, उसे अपने साथ लाने के लिये सुनील मित्तल ने भी आफर किया। लेकिन नीरा राडिया ने टाटा का साथ नहीं छोड़ा और सुनिल मित्तल को ना कर दी। लेकिन देश को चूना लगाकार अपनी इंडस्ट्री को फैलाने का खेल भी इसी स्पैक्ट्रम घोटाले के दौर में सीबीआई को फोन काल टेप करने पर पता चले। मसलन फिक्की चैयरमैन तरुण दास जो कि हल्दिया पेट्रोकेम में सरकार के नुमाइन्दे थे , वह मुकेश अंबानी को हल्दिया पेट्रोकेम दिलाने में लग गये। ओर इसके तार भी नीरा राडिया के जरिये ही जुडे। मुकेश अंबानी के साथ मुबंई में डिनर से पहले सरकार के नुमाइन्दे नीरा राडिया से यह बात करते है कि वह किस तरह हल्दिया प्रोजेक्ट पर अंबानी का कब्जा करवा देंगे। सीबीआई की रिपोर्ट में इसका भी जिक्र है कि तरुण दास ने इसके लिये सीपीएम के नेताओ के पकड़ा और सीपीएम के निरुपम सेन ने सीपीएम महासचिव प्रकाश के साथ एक बैठक भी करवाई। भ्रष्टाचार का यह खेल सरकारी एजेंसियों में भी किस तरह घुसता जा रहा है, इसके संकेत भी सीबीआई द्वारा जब्त दस्तावेजो और फोन काल टेप में मिलते हैं कि पीइपलाइन रेगुलेटरी एंजेसी में भी रिलायंस के लोगो को घुसाया जाता है। और हाइड्रोकार्बन के डायरेक्टर जनरल वी के सिब्बल के लिये रिलायंस { आरआईएल } बंगाला भी खरीदता है। बातचीत में इसका जिक्र भी है कि आरकाम के 4 अधिकारियो के खिलाफ सीवीसी जांच कर रहा है उसे कैसे रोका जाये। या फिर मामले को कैसे रफा-दफा करवाया जाये । सरकार को चूना लगाने के इस खेल में नीरा राडिया वित्त मंत्रालय का भी दरवाजा खटकटाती है, जिससे रिलायंस गैस को खनिज तेल के निकालने में 7 बरस का टैक्स माफ हो जाये। इतना ही नहीं देश की संपत्ति गैस पर कब्जे की लडाई में जनहित याचिका को भी हथियार यही कारपोरेट अपने फायदे के लिये बनाते हैं। गैस युद्द में रिलायंस इंडस्ट्री लिं और एडैग {एडीएजी } एक दूसरे के खिलाफ जनहित याचिका का खेल भी खेलते हैं। और एक दूसरे अधिकारी को फंसाने के लिये स्टिंग ऑपरेशन को भी अंजाम देते हैं। कारपोरेट युद्द में एक दूसरे के खिलाफ कई एनजीओ को फांस कर पीआईएल दाखिल करवाने का काम बिचौलिया नीरा राडिया भी करवाती हैं। इस खेल में डीएलएफ का मामला भी आता है और रिल-आरपीएल के विलय का मामला भी। सीबीआई के अलावे ईडी और इन्कम टैक्स ने अब जब नीरा राडिया के खिलाफ केस दर्ज कर जांच शुरु की है तो उसमें नीरा राडिया की कंपनियो के बैंक एकाउंट और केश फ्लो भी कई नौकरशाहो और मीडिया के घुरन्धरों को कटघरे में खड़ा कर रहा है। खासकर नीरा राडिया की कंपनी वैश्नवी कारपोरट कंसलटेंट प्राईवेट लिं जो टाटा, यूनिटेक और मिडिया के एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रांड की सलाहकार थी। लेकिन इस कंपनी का ज्यादा काम मीडिया को मैनेज करना ही था। और ईडी के दस्तावेज इसके साफ संकेत देते है कि वैश्नवी के एकांउट से ही कइयो को चैक से लेकर घर, गाडी और अन्य सुविधाये दी गयीं। इन्वोर्समेंट डिपारटमेंट ने 24 नवबंर को नीरा राडिया को उन्ही एकाउंट की पूछताछ के लिये बुलाया भी। जाहिर है सीबीआई के यह समूचे दस्तावेज कहीं ना कही यह भी संकेत देते हैं कि काग्रेस के नेता हो या सरकार के मंत्री-नौकरशाह सभी उसी कॉकस का हिस्सा बन गये, जिसके प्रभाव से ए राजा मंत्री बने और मंत्री बनकर घोटाले करते रहें। इस कॉकस को परिभाषित करने के दौरान यह कहा जा सकता है मिं क्लीन को सही वक्त पर उचित जानकारी बाबुओं और कानून मंत्रालय ने नहीं दी। लेकिन सरकार या कांग्रेस की मुश्किल यही है कि अगर 2 जी स्पैक्ट्रम की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी करेगी तो यह परिभाषा भी सटीक नहीं बैठेगी क्योकि सारे दस्तावेज हर राजनीतिक दल के पास होंगे और फिर भ्रष्टाचार सिस्टम के हिस्से से निकल कर अपने आप में ही सिस्टम दिखायी देगा। और ईमानदारी का नारा काग्रेस के हाथ नहीं बचेगा साथ ही मिं क्लीन की छवि मनमोहन सिंह पर चस्पां नहीं हो पायेगी। ऐसे में जो नयी तस्वीर मनमोहन सिंह या मिं क्लीन की उभरेगी उसमें प्रधानमंत्री की हैसियत कुछ ऐसी हो जायेगी जैसे देश में किसी हादसे का उपाय प्रधानमंत्री के पास ना हो तो वह प्रधानमंत्री राहत कोष से रकम बांट कर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले। और बाद में पता यह चले कि हादसा करवाने के पीछे जो थे, उन्हीं की रकम ही प्रधानमंत्री राहत कोष में थी। ठीक इसी तरह स्पैक्ट्रम के जरीये देश को बेचने वालों में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने वाले भी हैं और आंकडों का जुगाड कर सत्ता बनाने वाले भी हैं। वहीं मनमोहन सिंह के चकाचौंघ भारत के सपने को पूरा करने वाले कारपोरेट भी है और उस चकाचौंध का गुणगाण करने वाला मीडिया भी ।
{पूरी रिपोर्ट पत्रिका "प्रथम प्रवक्ता" में }
Thursday, November 25, 2010
2जी स्पैक्ट्रम घोटाला मामले में विश्लेषण की आगे की कड़ी !
तो आप सोमवार को अगली कड़ी जरुर पढ़िए लेकिन उससे पहले एक बार वही पुरानी पोस्ट-कॉरपोरेट के आगे प्रधानमंत्री भी बेबस---
ठीक एक साल पहले प्रधानमंत्री अपने नये मंत्रिमंडल में जिन दो सांसदों को शामिल नहीं करना चाहते थे, संयोग से दोनो ही डीएमके के सांसद थे और दोनो पर ही भ्रष्टाचार के आरोप थे। असल में 2009 के आमचुनाव में जिस तरह कांग्रेस का आंकडा 200 पार कर गया और यूपीए गठबंधन को बहुमत मिला उसके पीछे मनमोहन सिंह की साफ छवि को एक बडा कारण बताया गया। मनमोहन सिंह के जेहन में भी यह सवाल था कि 2004 में चाहे वह कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी के आशीर्वाद से प्रधानमंत्री बन गये लेकिन 2009 में चुनावी जीत के पीछे उनकी मेहनत रंग लायी है और प्रधानमंत्री बने रहने के उनके दावे को कोई डिगा नहीं सकता। खुद सोनिया गांधी भी नहीं। इसीलिये 2004 के मंत्रिमंडल को बनाते वक्त जो मनमोहन सिंह खामोश थे, वही मनमोहन सिंह 2009 में अपने मंत्रिमंडल को लेकर कितने संवेदनशील हो गये थे, इसका अंदाज उनकी इस मुखरता से समझा जा सकता है कि उन्होंने साफ कहा कि मंत्रिमंडल में कोई दाग नहीं लगेगा। और डीएमके के टी.आर. बालू और ए राजा को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किये जाने के संकेत भी दे दिये।
लेकिन 22 मई 2009 को जिन 19 कैबिनेट मंत्रियों ने शपथ ली, उसमें टी आर बालू का तो नहीं लेकिन ए राजा का नाम था। उस वक्त कहा यही गया कि मनमोहन सिंह की यूपीए में सहयोगी दल डीएमके पर नहीं चली और डीएमके के सर्वसर्वा करुणानिधि ने बालू के नाम से तो पल्ला झाड़ लिया लेकिन अपनी तीसरी पत्नी राजाथी के अड़ जाने पर ए राजा को कैबिनेट मंत्री बनाने पर सहमति दे दी। जिसे मानना प्रधानमंत्री की मजबूरी थी। लेकिन प्रधानमंत्री की मजबूरी के संकेत यही नहीं रुके। जब पोर्टफोलियो यानी विभागों के बंटवारे की बात आयी तो डीएमके के हिस्से में कैबिनेट के जो तीन विभाग गये थे, उसमें टेक्सटाइल, संचार व सूचना तकनीक और कैमिकल-फर्टिलाइजर थे।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस हकीकत को समझ रहे थे कि सबसे संवेदनशील कोई मंत्रालय है तो वह संचार व सूचना तकनीक का है, जो न सिर्फ देश को आधुनिकतम सूचना क्रांति से जोड़ेगा बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास में तालमेल बनाये रखने के लिये जो पूंजी सरकार को चाहिये होगी, वह भी संचार मंत्रालय से ही आयेगी। क्योकि स्पेक्ट्रम के जरीये ही पूंजी बनायी जा सकती है। इसलिये प्रधानमंत्री यह भी नहीं चाहते थे कि ए राजा को यह मंत्रालय दिया जाये
, क्योकि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे राजा के जरीये संचार मंत्रालय को चलाने का मतलब यह भी था कि निजी मुनाफे के लिये एक लॉबी के अनुकुल ए राजा कार्रवाई करें। प्रधानमंत्री की यहां भी नहीं चली और ए राजा देश के संचार व सूचना तकनीक मंत्री बने। लेकिन प्रधानमंत्री की अगर यहां नहीं चली तो इसके पीछे डीएमके प्रमुख करुणानिधि या उनकी तीसरी पत्नी राजाथी का भी दबाव नहीं था। फिर कौन थे राजा के पीछे जो हर हाल में संचार मंत्रालय को अपने हक में देखना चाहते थे और जिनके सामने प्रधानमंत्री भी कमजोर पड़ गये?
देश के बड़े चुनिन्दा कॉरपोरेट जगत के महारथी, जिनकी जरुरत संचार मंत्रालय के जरीये अपने काम को बेरोक-टोक विस्तार देते हुये मुनाफा कमाना था, असल में राजा के पीछे वही लॉबी थी। लेकिन संचार मंत्रालय हथियाने से लेकर उसे अपनी जरुरतों के अनुकूल चलाने का खेल जिन माध्यमों के जरीये रचा गया, उसकी सीबीआई जांच के दस्तावेज बताते हैं कि सरकार के गलियारे में सबकुछ मैनेज करने के लिये कॉरपोरेट सेक्टर को वित्तीय सलाह देने वाली चार कंपनियो की सर्वेसर्वा नीरा राडिया को हथियार बनाया गया। और नीरा राडिया का मतलब है सरकार की नीतियों तक में परिवर्तन। सरकार को करोड़ों का चूना लगाकर कॉरपोरेट के हक में अंधा मुनाफा बनाने की परिस्थितियां बना देना। और इसके लिये एक ही लाइन मूल मंत्र- किसी भी कीमत पर।
नीरा राडिया टेलीकॉम,पावर,एविएशन और इन्फ्रास्ट्रचर से जुड़े कॉरपोरेट सेक्टरों को सरकार से लाभ बनाने और कमाने के उपाय कराती हैं। इसके लिये नीरा राडिया ने चार कंपनियों को बनाया है। जिसमें वैश्नवी कॉरपोरेट कंसलटेंट प्राइवेट लिमिटेड सबसे पुरानी है। जबकि नीरा राडिया की तीन अन्य कंपनियां नोएसिस कंसलटिंग, विटकॉम और न्यूकाम कंसलटिंग भी अपने कॉरपोरेट क्लाइंट को सरकारी मंत्रालयों से लाभ पहुंचाने में लगी रहती हैं। सीबीआई ने नीरा राडिया के खिलाफ पिछले साल 21 अक्टूबर को प्रिवेंशन ऑफ करपशन एक्ट 1988 के तहत मामला दर्ज किया है।
आईपीसी की धारा 120 बी के सेक्शन 13--2 , 13--1 डी के तहत आरसी डीएआई 2009 ए 0045 के तहत इम मामले को दर्ज करते हुये सीबीआई ने नीरा राडिया को बतौर बिचौलिये की भूमिका में पाया है। और उसकी कंपनी नोएसिस कंसलटेन्सी पर आपराधिक साजिश रचने का मामला दर्ज करते हुये जांच शुरु की है । खास बात यह है कि इस जांच की जानकारी की चिट्टी 16 नवंबर 2009 को सीबीआई के एंटी करप्शन ब्यूरो के डिप्टी इंसपेक्टर जनरल आफ पुलिस विनित अग्रवाल ने आयकर महानिदेशालय--- इन्वेस्टीगेशन में आईआरएस मिलाप जैन को भेजते हुये नीरा राडिया के बारे में अन्य कोई भी जानकारी होने की बात कहकर जानकारी मांगी। सिर्फ चार दिनों बाद यानी 20 नवंबर 2009 को इसका जवाब भी आ गया। यह जवाब आयकर महानिदेशालय में इन्कम टैक्स के ज्वाइंट डायरेक्टर आशिष एबराल ने विनित अग्रवाल दिया और यह जानकारी दी कि नीरा राडिया संदेह के घेरे में हैं। इस सरकारी पत्र में साफ लिखा गया कि सीबीडीटी की कुछ विशेष सूचनाओं के आधार पर नीरा राडिया और उनके कुछ सहयोगियो के टेलीफोन जांच के घेरे में लाये गये और टेलीफोन टेप करने के लिये बकायदा गृह सचिव से अनुमति ली गयी।
नीरा राडिया जिन चार कंपनियों की मालिक हैं, उन सभी कंपनियों के टेलीफोन टेप किये गये। आयकर निदेशालय के मुताबिक टेलीफोन टैप से जो बाते सामने आयी,उसमें अपने कॉरपोरेट क्लाइंट की व्यवसायिक जरुरतों को पूरा करने के लिये सरकार के कई विभागो के निर्णयो को बदला गया और कई मामलो में तो नीतिगत फैसलों को भी बदलवाकर अपने क्लाइंट को लाभ पहुंचाया गया। और खासकर संचार मंत्री ए राजा ने कई फैसलों को इसलिये बदल दिया क्योंकि उससे उन कॉरपोरेट घरानों को लाभ नहीं हो रहा था, जिसे नीरा राडिया लाभ पहुंचवाना चाहती थीं। फोन टैप के रिकार्ड बताते हैं कि
- -नीरा राडिया की सीधी पहुंच संचार मंत्री ए राजा तक है। और टेलीफोन भी सीधे राजा को ही किया जाता रहा । बीच में कभी कोई राजा का निजी सचिव भी नहीं आया।
- -राजा के ताल्लुकात नीरा राडिया के साथ जितने करीबी हैं, उसकी वजह नीरा राडिया के पीछे कुछ खास कॉरपोरेट घरानो का होना है। जिनकी कीमत पर मंत्रालय में कोई पत्ता भी नहीं खड़कता ।
- -इसलिये संचार मंत्रालय के जरीये नीरा राडिया ने चंद महिनों में करोड़ों के वारे न्यारे किए गए।
- -टेलिकॉम लाइसेंस से लेकर सरकार को आर्थिक चूना लगाने का काम किया गया।
- -नये टेलिकॉम आपरेटरों का मार्गदर्शन कर यह समझाया गया कि लाइसेंस लेकर किस तरह विदेशी इन्वेस्टरों से होने वाले आपार मुनाफे को सरकार से छुपाया जाये।
नीरा राडिया ने अपने काम को अंजाम देने के लिये मीडिया के उन प्रभावी पत्रकारों को भी मैनेज किया किया, जिनकी हैसियत राजनीतिक हलियारे में खासी है। यानी जिस नीरा राडिया को सीबीआई से लेकर आयकर महानिदेशालय बिचौलिया, दलाल, फ्रॉड सबकुछ कह रहा है और जांच की सुई आपराधिक साजिश रचने से लेकर सरकार के नीतिगत फैसलों को बदलवाने तक की भूमिका को लेकर कर रहा है, उसका सीधा टेलीफोन देश के संचार मंत्री के पास जाता है और संचार मंत्री एक-दो नही कई बार बातचीत भी करते हैं।
असल में ए राजा को संचार मंत्री बनवाने वाली ताकतों का मुखौटा ही जब नीरा राडिया रहीं तो मंत्री महोदय की खासमखास नीरा राडिया क्यों नहीं होंगी। लेकिन नीरा राडिया के पीछे हैं कौन? वो इतनी ताकतवर हैं कैसे? यह नीरा राडिया के कॉरपोरेट क्लाइंट की फेरहिस्त से भी समझा जा सकता है और टेलीफोन टेप के दौरान बातचीत के जो अंश सीबीआई के इंटरनल विभागीय टॉप सीक्रेट दस्तावेज में दर्ज हैं, उससे भी जाना जा सकता है कि आखिर प्रधानमंत्री भी अपने मंत्रिमडल के विभागों को जिसे चाहते होंगे, उसे क्यो नहीं दे पाये या फिर राजा कैसे संचार मंत्री बन गये। जिस समय यूपीए-2 यानी 2009 में मनमोहन सिंह अपने मंत्रिंडल को लेकर जद्दोजहद कर रहे थे और राजा के मंत्रिमंडल में शामिल करने के खिलाफ थे, अगर उस दौर के नीरा राडिया के टेलीफोन से हुई बातचीत पर गौर किया जाये, जिसका जिक्र आयकर महानिदेशालय के टॉप सीक्रेट दस्तावेजों में है तो कॉरपोरेट सेक्टर को सलाह देने वाली नीरा राडिया और उसकी कंपनी राजा को संचार मंत्री बनवाने में लगी थी। कैबिनेट के शपथ ग्रहण से 11 दिन पहले यानी 11 मई 2009 से जो बातचीत नीरा राडिया टेलीफोन पर कर रही थी अगर उसे दस्तावेजों के जरीये सिलसिलेवार तरीके से देखे तो साफ झलकता है कि कॉरपोरेट लाबी राजा को संचार मंत्री बनवाने में लगी थी। और नीरा राडिया हर उस हथियार का इस्तेमाल इसके लिये कर रही थीं, जिसमें मीडिया के कई नामचीन चेहरे भी शामिल हुये, जो लगातार राजनीतिक गलियारों में इस बात की पैरवी कर रहे थे कि राजा को ही संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय मिले। मंत्रियों के शपथ से पहले नीरा राडिया और रतन टाटा के बीच बातचीत का लंबा सिलसिला चला। दस्तावेजों के मुताबिक टाटा किसी भी कीमत पर दयानीधि मारन को संचार मंत्री बनने देने के पक्ष में नही थे। टाटा की रुचि टेलिकॉम में एयरसेल की वजह से भी थी, जिसकी एक्वेटी पर मैक्सीस कम्युनिकेशन और अपोलो के जरीये टाटा का ही कन्ट्रोल था। और टाटा ने यहां तक संकेत दिये थे कि अगर मारन संचार मंत्री बनेंगे तो वह टेलिकॉम के क्षेत्र से तौबा कर लेंगे। टाटा इसके लिये वोल्टास के जरीये नीरा राडिया और रतनाम [करुणानिधी की पत्नी के सीए] से भी संपर्क में थे।
राडिया के फोन टेप से यह भी पता चलता है प्रिंट और टीवी न्यूज चैनल के कुछ वरिष्ट पत्रकार कांग्रेस के भीतर इस बात की लॉबिंग कर रहे थे कि राजा को संचार मंत्रालय मिल जाये। वहीं भारती एयरटेल यानी सुनील मित्तल लगातार इस बात का प्रयास कर रहे थे कि ए राजा किसी भी हालत में संचार मंत्री न बनें। मित्तल चाहते थे कि दयानिधी मारन संचार मंत्री बनें क्योकि मित्तल को लग रहा था कि अगर ए राजा संचार मंत्री बने तो स्पेक्ट्रम पर सीडीएमए लॉबी का पक्ष लेने को लेकर जीएसएम लॉबी सक्रिय हो जायेगी। राजा को बनाने या न बनने देने के इस कॉरपोरेट युद्द में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही नीरा राडिया की हैसियत कितनी बड़ी हो गयी इसका अंदाज इस बात से लग जाता है कि एक वक्त सुनील मित्तल ने भी राडिया की सेवायें लेने की गुजारिश की लेकिन राडिया ने यह कहकर सुनिल मित्तल को टरका दिया कि वह टाटा ग्रुप की सलाहकार हैं तो उनके हितो को पूरा करना उनकी पहली जरुरत है। ऐसे में टाटा और मित्तल के हित एक ही क्षेत्र में टकरा सकते हैं तो वह टाटा का ही साथ देंगी।
चूंकि नीरा राडिया अपनी सबसे पुरानी कंपनी वैश्नवी के जरीये टाटा ग्रुप से जुड़ी। टाटा के लिये मीडिया मैनेजमेंट से लेकर इन्वॉयरमेंट मैनेजमेंट तक का काम नीरा राडिया की वैश्नवी कंपनी ही देखती हैं। तो टाटा के हित की प्राथमिकता उसकी पहली जरुरत बनी। लेकिन राजा को संचार मंत्री बनवाने के बाद कॉरपोरेट जगत के एक लॉबी की किस तरह संचार मंत्रालय में चली इसका अंदेशा आयकर निदेशालय के टाप सीक्रेट दस्तावेजों से सामने आता है, जिसमें जांच विभाग की रिपोर्ट साफ कहती है कि स्वान टेलिकॉम
,एयरसेल,यूनिटेक वायरलैस और डाटाकॉम को लाइसेंस से लेकर स्पेक्ट्रम तक के जो भी लाभ मिले उसके पीछे वही लॉबी रही, जिसने राजा को संचार मंत्री बनाया। चूंकि नीरा राडिया की तमाम कंपनियों में रिटायर्ड नौकरशाह भरे पड़े हैं तो मंत्री को मैनेज करने के बाद नौकरशाहों को मैनेज करना राडिया के लिये खासा आसान हो जाता है। और कॉरपोरेट कंपनी भी सीधे नीरा राडिया की कंपनी के जरीये अपने धंधे को विस्तार देती है तो भ्रष्टाचार के आरोप के घेरे में कोई कॉरपोरेट आता भी नहीं।
दस्तावेजों के मुताबिक झारखंड में माइनिंग की लीज बढ़ाने के लिये एक वक्त राज्य के तत्कालीन सीएम मधुकोड़ा टाटा ग्रुप से 180 करोड़ रुपये की मांग रहे थे। लेकिन नीरा राडिया ने बिना पैसे के यह काम राज्यपाल से करवा लिया। इसकी एवज में नीरा राडिया को कितनी रकम दी गयी, इसका जिक्र तो दस्तावेजों में नहीं है लेकिन राडिया की जिस टीम ने इस काम को अंजाम तक पहुंचाया, उसे एक करोड़ रुपये बतौर इनाम दिया गया।
सीबीआई और आयकर निदेशालय के जांच दस्तावेजों को देखकर पहली नजर में यह तो साफ लगता है कि जिस नीरा राडिया को शिकंजे में लेने की तैयारी हो रही है उसकी पहुंच पकड़ का कैनवास खासा बड़ा है क्योंकि इसकी कंपनियां टाटा ग्रुप के अलावे यूनिटेक, मुकेश अंबानी के रिलांयस से लेकर कई मीडिया ग्रुप के लिये भी काम कर रही है। लेकिन दस्तावेजों के पीछे का सच यह भी उबारता है कि मनमोहन की अर्थव्यवस्था जिस कॉरपोरेट तबके के लिये हर मुश्किल आसान कर देश को विकास पर लाने के लिये आमादा है, असल में समूची व्यवस्था पर वही कॉरपोरेट जगत हावी हो गया है। और देश की जो लोकतांत्रिक संसदीय पद्धति है, अब वह मायने नही रख रही है क्योंकि सरकार किस दिशा में किसके जरीये कहां तक चले, यह भी कॉरपोरेट समूह तय करने लगे हैं। क्योंकि मुनाफा बनाने के खेल में किस तरह सरकार को चूना लगाकर करोड़ों के वारे न्यारे किये जाते हैं, यह फंड ट्रांसफर के खेल से समझा जा सकता है। स्वान को लाइसेंस 1537 करोड में मिला । लेकिन चंद दिनो बाद ही स्वान ने करीब 4200 करोड में 45 फीसदी शेयर यूएई के ETISALAT को बेच दिया। इसी तरह यूनिटेक वायरलैस को स्पेक्ट्रम का लाइसेंस डीओटी से 1661 करोड में मिला और यूनिटेक ने नार्वे के टेलेनोर को 60 फीसदी शेयर 6120 करोड में बेच दिये। इसी तर्ज पर टाटा टेलीसर्विसेस ने भी 26 फीसदी शेयर जापान के डोकोमो को 13230 करोड में बेच दिये।
खुली अर्थव्यवस्था के खेल में कॉरपोरेट की कैसे चांदी है, इसे
17 दिसबंर 2008 को स्वान टेलिकॉम प्राइवेट लिमिटेड के फंड ट्रासफर के तौर तरीको से समझा जा सकता है। स्वान ने महज चार महीने पहले बनी चेन्नई के जेनेक्स इक्जिम वेन्चर को 380 करोड के शेयर एलॉट कर दिये, वह भी महज एक लाख रुपये के मर्जर कैपिटल पर। वहीं यूनिटेक वायरलैस को टेलिकॉम लाइसेंस दिलाने के लिये नीरा राडिया ने अपने प्रभाव से मंत्रालय के नीतिगत फैसलो को भी बदलवा दिया। असल में कॉरपोरेट के खेल में सरकारें कितनी छोटी हो गयी है, इसका अंदाज अगर सिंगूर प्रोजेक्ट के फेल होने पर गुजरात जाने की कहानी में छुपी है तो हल्दिया प्रोजेक्ट को लेकर कॉरपोरेट के आगे झुकती सरकारों के साथ साथ विदेशी पूंजी के लिये बनाये गये रास्तों से भी लगता है। जहां मंदी की चपेट में आकर डूबने से ठीक पहले लिहमैन ब्रदर्स का अरबों रुपया भारत पहुंचता भी है और मंदी आने के बाद जो पूंजी नहीं पहुंच पायी, उसे दूसरे माध्यमो से मैनेज भी किया जाता है। यानी विदेशी पूंजी निवेश के नियमों की धज्जियां भी खुल कर उड़ायी जाती हैं। यह खेल सिर्फ संचार व सूचना तकनीक के क्षेत्र में हो रहा हो ऐसा भी नहीं है। बल्कि पावर, एविएशन और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में भी बिचौलियों के माध्यम से कॉरपोरेट हितों को साधना और पावर प्लाट लगाने के लाइसेंस से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये जमीन कब्जे में लेने की प्रक्रिया में किस तरह अलग अलग राज्यों के नौकरशाह लगे हुये हैं, यह भी सीबीआई जांच के दायरे में है। लेकिन सबसे खतरनाक परिस्थितियां देश की व्यवस्था के भीतर बन रही है जहा सत्ता--कॉरपोरेट जगत--नौकरशाह का कॉकटेल नीरा राडिया सरीखे बिचौलियो के जरीये बन रहा है और इसे तोड़ने वाला कोई नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हाथ इनके आगे बंधे हुये हैं। और जांच की शुरुआत करने वाला सीबीआई के एंटी करप्शन ब्रांच के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल आफ पुलिस विनित अग्रवाल का तबादला किया जा चुका है।
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Tuesday, November 16, 2010
2002 और 2010 यानी सुदर्शन बनाम सोनिया
पहली मंजिल पर एकदम बायीं तरफ के कमरे के बाहर ही सरसंघचालक सुदर्शन जी मिल गये। वैघ जी ने मेरा परिचय कराते हुये कहा गोधरा से भी खबरें आ रही हैं। क्या खबर है....जी गुजरात के अलग-अलग हिस्सों से छिट-पुट हिंसा की खबरें आ रही हैं। और....। और कुछ नहीं बजट का दिन है तो गुजरात की खबरें भी काफी कम हैं। लेकिन और क्या खबर आयी है। गुजरात के अलग अलग हिस्सों से आगजनी की तस्वीरे ही आयी हैं। दो या तीन लोगों के मरने की भी खबरे हैं। तीन ही मरे हैं...अभी इंतजार कीजिये । कुछ देर बाद हमारी प्रेस रिलीज जारी होगी । बजट की खबर ज्यादा चलेंगी नहीं। क्यों? आज का दिन तो बजट समीक्षा में ही जाता है। फिर हर घर की रसोई भी तो बजट से जुडी होती हैं। लेकिन गोधरा से तो राम मंदिर और जिन्दगी दोनों जुड़ी थी। प्रतिक्रिया तो होगी ही । साइंस तो पढा है न आपने। बजट नहीं गुजरात दिखाने की जरुरत है। उसके बाद सुदर्शन जी अपने कमरे में चले गये।
मैं वैघ जी के साथ उनके कमरे में चला आया। जहां प्रेस रिलीज की हाथ से लिखी कॉपी पड़ी थी। वैघ जी ने यह कहते हे प्रेस रिलीज की कापी मुझे पढ़वा दी कि मै एक घंटे बाद खबर चलवाऊं। मैंने भी आफिस जाने की जगह सड़क पर ही एक घंटा गुजारा और उसके बाद आफिस फोन कर संघ की प्रतिक्रिया देने के लिये फोन-इन लेने को कहा। आफिस वालों ने भी तुरंत लाइन एंकर को जोड़ते हुये कहा कि गुजरात की हिंसा में दस लोगो की मौत हो चुकी है और रिपोर्टर बता रहा है कि बड़े बुरे हालात हैं। फोन-इन में मैंने जैसे ही कहा आरएसएस का रुख गोधरा पर खासा कड़ा है और उसने विभाजन के बाद गोधरा हत्याकांड को सबसे जघन्य बताते हुये लोगो से संयम बनाने को कहा है। जाहिर था उसके बाद न्यूज चैनल की हेडलाइन बदलनी थी...सो बदली । और कहा गया, " संघ ने गोधरा कांड को विभाजन के बाद का सबसे जघन्य हत्याकांड करार दिया। स्वयंसेवको से की संयम बरतने की अपील।" यूं भी संघ की उस प्रेस रिलीज में जितना गुस्सा गोधरा कांड को लेकर जताया गया था। उसकी हर अगली लाईन में ठीक उसी प्रकार विरोध करते हुये संयम बरतने की सलाह स्वयंसेवको को दी गयी थी जैसे 11 नवंबर 2010 को कांग्रेस के प्रवक्ता जनार्दन द्दिेवेदी ने सुदर्शन के बयान पर काग्रेसी कार्यकर्त्ताओ को संयम में रहते हुये विरोध करने का ऐलान किया था।
2002 के संघ के संयम का असर यही हुआ कि गुजरात से एक ऐसा नरेन्द्र मोदी निकला, जिसके आगे प्रधानमंत्री का राजधर्म भी काफूर हो गया। और देश ने हिन्दुत्व की एक ऐसी प्रयोगशाला देखी, जिससे बाहर निकलने के लिये भाजपा आज भी कसमसा रही है। वहीं सुदर्शन के सोनिया गांधी पर चोट करने पर कांग्रेस के संयम भरे विरोध का असर भी यही हुआ कि कानून का राज काग्रेसियो के सोनिया प्रेम के आगे नतमस्तक हुआ। पंजाब से पोरबंदर तक और मुंबई से मणिपुर-अरुणाचल प्रदेश तक वही कानून राज अपाहिज लगा, जिसकी एक धारा उसी तरह सुदर्शन जेल पहुंचा सकती है जैसे 2002 में गोधरा कांड के दोषियों और उसके बाद "संयम" में रहे स्वयंसेवको को जेल में ठूंस कर गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनने से रोका जा सकता था।
असल में एमजी वैघ 28 फरवरी 2002 में भी संघ की प्रेस रिलिज जारी करते हुये समझ रहे थे कि संयम भरे विरोध का मतलब क्या होता है और 13 नबंबर 2010 को जब उन्होने नागपुर में कहा कि सुदर्शन के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के लिये सोनिया गांधी को मानहानि का मामला दर्ज करना चाहिये। तो भी वह समझ रहे हैं कि सोनियामय कांग्रेसियों के संयम भरे विरोध-प्रदर्शन का असर संघ के सामाजिक शुद्दीकरण पर कितना विपरीत पड़ रहा है। लेकिन यहा सवाल एमजी वैघ या जनार्दन दिवेदी का नहीं है । बल्कि 2002 में अगर सुदर्शन को गोधरा के जरिये ध्वस्त होते संघ को समेटने या हिन्दुत्व की उस धारा का जगाने का फार्मूला मिलता हुआ नजर आ रहा था, जिसका जिक्र उन्होने संघ का सरसंघचालक बनने के बाद 2000 में अपने पहले भाषण में ही कहा था , "...जबतक हिन्दू संगठित नहीं होते , तबतक वे अपनी आत्मरक्षा करने में भी सक्षम नहीं होंगे। इसलिये पहले हिन्दुओ को संगठित, बल संपन्न और सामर्थ्य संपन्न होना चाहिये। तभी भारत हिन्दु राष्ट्र बन सकता है ।.....और इस्लाम के मूल में तो राष्ट्रीयता की अवधारणा भी नहीं है।" तो 2010 में सोनिया गांधी को भी चकाचौंध अर्थव्यवस्था से समाज में बढते फासले और गरीबी,महंगाई से आम आदमी के लिये कांग्रेस के टूटते हाथ के साथ साथ अयोध्या फैसले से मुस्लिमों में पैदा हुये काग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व के सवाल का जवाब भी सुदर्शन चक्र के विरोध के फार्मूले में ही नजर आ रहा है।
इसलिये बड़ा सवाल यह नहीं है कि काग्रेस का संघ पर हमला कबतक चलेगा या फिर संघ पर प्रतिबंध लगाने की दिशा में सरकार आगे बढेगी या नहीं। बड़ा सवाल यह है कि क्या देश में मनमोहनइक्नामिक्स तले चकाचौंघ की अर्थव्यवस्था और उसकी छांव में विकास का खेल अब अपनी उम्र पूरी कर चुका है। जहां राजनीति को एक बार फिर ऐसी प्रयोगशालाएं चाहिये, जहां संघ मौतों की संख्या गिने और हिन्दु राष्ट्र का नारा लगाये और कांग्रेस देश भर में सांप्रदायिकता का सवाल खडा कर विरोध आगजनी में देश को झोंक कर सेक्यूलरइज्म का ऐसा झंडा बुंलद करे, जिसकी छांव में डरा हुआ मुस्लिम हिन्दुओं से गाढ़ी छांव पा ले।
Thursday, November 4, 2010
सवा सौ साल की कांग्रेस की ईमानदारी
लेकिन विदर्भ का मतलब ही जब मणिकराव ठाकरे हो गया तब बेटे के व्यापार से बड़ा किसी उद्योग का प्लांट और निजी मुनाफे से बड़ा विकास का सवाल कैसे हो सकता है। इसलिये यह मुहावरा अब छोटा है कि कभी इंदिरा को इंडिया कहा गया। अब तो कांग्रेस भी पिरामिड की तरह ऊपरी चेहरे पर टिकी है। देश के लिये यह चेहरा सोनिया गांधी का हो सकता है लेकिन हर प्रदेश में सोनिया या राहुल का अक्स लिये कोई ना कोई चेहरा कांग्रेसी पहचान का है, जिसमें अपनी तस्वीर ना देखने का मतलब है बगावत। ऐसे में काग्रेसी नजरिये से भ्रष्टाचार को परिभाषित करना सबसे मुश्किल है। क्योंकि चकाचौंध भारत में तो लाइसेंस का आधार पूंजी है। और पूंजी पार्टी लाइन से उपर मानी जाती है। लेकिन अंधियारे भारत में से चकाचौंध निकालने का लाईसेंस सिर्फ सत्ताधारी ही पाते हैं। यानी जहां भाजपा की सत्ता है, वहा भाजपाई या संघी और जहां कांग्रेस की सत्ता है, वहां कांग्रेसियों के रिश्तेदार या खुद कांग्रेसी ।
चूंकि एआईसीसी सम्मेलन में सोनिया गांधी से महज दस हाथ से भी कम दूरी पर महाराष्ट्र के वही सीएम बैठे थे जो भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद अपना इस्तीफा दो दिन पहले ही सोनिया गांधी को थमा आये थे। और पूरे सम्मेलन में सभी की नजर उन्हीं पर ज्यादा भी थी और कांग्रेसी उन्हीं को सबसे ज्यादा टटोल भी रहे थे कि मैडम ने कहा क्या। यानी मुंबई की जिस आदर्श इमारत ने काग्रेस की आदर्श सोच की बखिया उधेड़ दी, उसके खलनायक ही मंच पर नायक सरीखे लग रहे थे। और ऐसे में काग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने जब देश में बनते दो देशों का सवाल खड़ा किया, तब भी उनकी नजर अशोक चव्हाण की तरफ गयी या नहीं, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन कांग्रेसी चकाचौंध के लिये कैसे अंधेरिया भारत को और अधेंरे में लेजाते है यह महाराष्ट्र में बीते पन्द्रह बरस की काग्रेसी सत्ता के सरकारी आंकड़ों से भी समझा जा सकता है।
इन 15 बरस में 70 फीसदी उद्योग बीमार होकर बंद हुये। रिकॉर्ड 90 लाख युवाओं के नाम रोजगार दफ्तर में दर्ज हुये। गरीबो की तादाद में 12 फीसदी का इजाफा हुआ। बीपीएल परिवार में 7 फीसदी का इजाफा हुआ। 15 बरस में सवा लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली। खेती की विकास दर औसतन उससे पहले के 15 बरस की तुलना में 7 फीसदी तक घटी। सुनहरा कपास ऐसा काला हुआ कि सिर्फ विदर्भ के 30 लाख किसानों का जीवन सरकारी पैकेज पर आ टिका। यह सवाल अलग है कि विकास से पहले की न्यूनतम जरुरत पीने का साफ पानी, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और मध्यम दर्जे की शिक्षा अब भी 35 फीसद आबादी से दूर है। जबकि समूचे विदर्भ और मराठवाडा के वह हिस्से, जहां से अशोक चव्हाण, विलासराव देसमुख और सुशील कुमार शिंदे आते हैं, के करीब सत्तर फीसद कांग्रेसी नेताओ की औसतन संपत्ति डेढ़ करोड पार की है। जबकि इन क्षेत्रो में औसतन आय अभी सालाना 22 हजार तक नही पहुंची है। और ग्रामीण क्षेत्र में यह आय 12 हजार से ज्यादा की नहीं है।
समझना होगा कि कैसे कांग्रेसी सफेद झक खादी पहन कर एआईसीसी की बैठक में नजर आते हैं। मराठवाडा और विदर्भ में करीब सत्रह सौ लाइसेंस माइनिंग के बांटे गये। जिसमें से 36 छोटे-बड़े उघोगों को निकाल दिया जाये तो सभी लाइसेंस वैसे ही कांग्रेसियों को दिये गये, जैसे यवतमाल में अतुल टाकरे या फिर कांग्रेसी विधायक के बेटे प्रवीण कासावर या कांग्रेसी लतीफ उदीम खानाला को। इसी तरह हर जिले में एमएईडीसी यानी महाराष्ट्र ओघोगिक विकास निगम की जमीन भी करीब 50 हजार से ज्यादा कांग्रेसियो को ही बांटी गयी, उसमें सासंद भी है और पार्टी के लिये पूंजी जुगाड़ने वाले स्थानीय व्यापारी नेता भी। कुल 54 कॉलेज इस दौर में खुले, जिसमें से 45 के मालिक कांग्रेसी हैं। असल में सत्ता का कैडर या कार्यकर्ताओ का जुगाड़ ही लाइसेंस के बंदरबांट से होता है और उसके आईने में विकास का पैमाना नापना होता है, उसे राहुल कितना समझते है, यह कहना वाकई मुश्किल है।
लेकिन विकास का चेहरा केन्द्र से चल कर गांव की जमीन पर क्या असर दिखाता है, इसे किसानों को लेकर प्रधानमंत्री के करोड़ों के पैकेज से भी समझा जा सकता है। 2006 से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस बात पर गर्व कर रहे है कि उन्होंने साढ़े पांच हजार करोड़ का पैकेज विदर्भ के किसानो को दिया। लेकिन इस दौर में ग्रामीण बैंक के अधिकारी और बैक के कर्मचारी भी क्यों कांग्रेसी हो गये यह किसी ने नहीं जाना। क्यों कांग्रेसी विधायक से लेकर कांग्रेसी कार्यकर्ता की धाक उसी दौर में किसानों पर बढ़ी, जिस दौर में करोड़ों रुपये का पैकेज किसानों के लिये आना शुरु हुआ। बुलढाणा के कांग्रेसी विधायक दिलिप सानंदा तो एक कदम आगे बढ़ गये और किसानों के पैकेज के पैसे को ही किसानो में ब्याज पर बांटने लगे। असल में बुलढाणा के खामगांव में विधायक सानंदा का बंगला देखकर ही राहुल गांधी समझ सकते हैं कि देश के भीतर बनते दो देशों में अंधियारे के बीच भी कैसी चकाचौंध हो सकती है।
खामगांव जैसे गांव में बने इस बंगले को देखकर तो लुटियन्स की दिल्ली भी शर्मा जाये। जबकि बुलढाणा में 78 फीसद ग्रामीण बीपीएल है । कुल 85 फीसदी गरीब है। असल में एआईसीसी की बैठक में दिल्ली के 10 जनपथ और 7 रेसकोर्स को छोड दें तो हर नेता बुलढाणा या यवतमाल सरीखे जिले से ही निकल कर मुबंई या दिल्ली की सत्ता तक पहुंचा है। ऐेसे में मंच पर अशोक चव्हाण हो या मंच के नीचे बैठे सुरेश कलमाडी या फिर सोनिया गांधी के ठीक पीछे बैठे मणिकराव ठाकरे और बायीं तरफ स्थायी आमंत्रित सदस्य विलासराव देसमुख। समझ सभी रहे थे कि असल में भ्रष्टाचार की गंगोत्री कांग्रेस में गांधी परिवार का नाम जपने के साथ मिलने वाले तोहफे से ही शुरु हो जाती है। इसीलिये महाराष्ट्र के सीएम भ्रष्ट है या नही इसकी जांच देश में पुलिस या कानून नहीं बल्कि कांग्रेस की ही प्रणव-एंटोनी कमेटी करती है। जिसके सर्टीफिकेट से तय होगा भ्रष्टाचार हुआ या नहीं। यानी कांग्रेस सर्वोपरि । इसीलिये राहुल गांधी ने भी मंच से सही ही कहा कि देश की एकमात्र पार्टी कांग्रेस है बकी सभी तो प्रांत-धर्म और जाति में सिमटे है।
Tuesday, November 2, 2010
बिहार की लिखी जा रही है नई इबारत
जेपी की संपूर्ण क्रांति के नारे ने अगर पांच साल के भीतर ही बिहार के युवाओं का भ्रम तोडा और निराशा के अवसाद में ही युवाओं को अपना कैरियर बर्बाद होना दिखा। तो मंडल की आंच की गर्माहट खत्म होने में दस साल का वक्त लगा। और बीते एक दशक के दौरान (1999-2010) बिहार के हर तबके के सामने सबसे बडा सवाल यही रेंगता रहा कि उसकी जरुरत है क्या। उसका रास्ता जाता किधर है। और आंदोलनों से देश को करवट लेने के लिये मजबूर करने वाले बिहारियों का लक्ष्य है क्या। क्योंकि इस दौर में आर्थिक परिस्थितियों के बदलने से देश परंपराओं को तोड़ एक नयी राह जरुर बना रहा था। इस दौर में पूंजी का वर्चस्व संसदीय लोकतंत्र तक पर छाया। चुनी गयी सरकारों की सत्ता कारपोरेट सत्ता के आगे कमजोर दिखी। वोट की ताकत से चाहे सत्ता बदल जाये लेकिन इस ताकत से बडी ताकत पूंजी की बनी और उसमें इतनी पारदर्शिता आ गयी कि वोट डालने या आंदोलन खड़ा करने के बाद भी सौदेबाजी का दायरा पूंजी के मुनाफे से होता हुआ ही सत्ता को छूता दिखा।
केन्द्र में अगर मनमोहन सिंह की आर्थिक चकाचौंध ने लोकतंत्र का हर पाये को अपने उपर निर्भर बना दिया। और संविधान का चैक-एंड-बैलेंस काफूर होता दिखा। तो गुजरात में नरेन्द्र मोदी का उग्र हिन्दुत्व विकास के इन्फ्रास्ट्रक्चर तले छुप गया। कश्मीर से लेकर केरल तक और महाराष्ट्र से लेकर मणिपुर तक आर्थिक चकाचौंध तले विचारधारा या आंदोलनों को देश के खिलाफ सरकारी सत्ता ने कुछ इस तरह खडा किया जिसमें या तो चकाचौंध नहीं तो अपराधी वाली समझ ही रेंगने लगी। लेकिन इस दौर में बिहार की भूमिका कहीं बढी तो वह रोजगार के लिये पलायन। बाहुबलियों से निजात पाने के लिये पलायन। मुनाफा बनाने के लिये पूंजी का पलायन। शिक्षा के लिये पलायन और तो और विवाह के लिये बेटियों का पलायन। लड़कियां भी उस लड़के को दी जाने लगीं जो बिहार का होकर भी बिहार के बाहर ही काम कर रहा था। 1995 से 2006 तक के दौर में बिहार में हर घर की हकीकत यही रही कि जब भी समूचा परिवार जुटा तो बिहार के बाहर का रास्ता ही अलग अलग जरुरतों के लिये खोजना शुरु किया। 1990-2000 के दौर में घपले-घोटाले या अदालत का कहना जंगल राज। इसका मतलब सिर्फ भ्रष्ट्राचार या आपराधियों का बोलबाला नहीं था। बल्कि राज्य में इन्फ्रस्ट्रचर पर ध्यान ना देना और जातीय नेतृत्व का मतलब जात के अंदर बाहुबली की पहचान बनाना भी था।
बाहुबल सिर्फ कानून व्यवस्था को ताक पर रखना भर नहीं हुआ बल्कि इस खेल ने पिछड़े-अगड़े की लकीर भी मिटाई। राजन तिवारी हो या आंनद मोहन और पप्पू यादव हो या शहाबुद्दीन जातीय घेरे में चाहे सभी अलग-अलग हों लेकिन पहचान एक सरीखी ही सभी की रही। इसलिये जब अपराधियों पर नकेल कसने की शुरूआत नीतीश कुमार ने की उसके आईने में जातीय समीकरण या जाती य संघर्ष नहीं उभरा बल्कि अपराध खत्म करने और कानून व्यवस्था का राज लागू होने का संवाद उभरा। फिर इसी दौर में जातीय तनाव की वह परिस्थितियां भी कम होने लगीं जो सिर्फ खेती और भूमि को लेकर संघर्ष की लकीर बिहार में खिंचती थी। जिसके आसरे राजनीति भी जातियों खेमो में अपना दम दिखाकर वोट बटोरने से नहीं कतराती थी।
चूंकि भूमि और खेती ही बिहार में जातियों को बांटती और उसी आधार पर जातियों के संघर्ष को पेट से जोडती। लेकिन जिस तरह पलायन ने बिहार के बाहर के समाज को भी नयी पीढ़ी के जरिये बिहार को नये तरीके से जोड़ना शुरू किया। उसमें छात्र से लेकर विवाहिता और मजदूर से लेकर व्यापारी तक जब जब बिहार लौटे तब तब परिवारों में बिहार के बाहर की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को लेकर तुलना जरुर हुई। अपराधियों या कहें बाहुबलियों पर नीतीश सरकार की कार्रवाई ने सिर्फ कानून व्यवस्था का दायरा नहीं बढाया बल्कि इसने जातीय तनाव को भी कम किया और उन आर्थिक परिस्थितियों को भी बदल दिया जिनके आधार पर जातीय विभाजन आसानी से नजर आता था। खासकर आय के साधनों में सामूहिकता के बोध ने हर जाति के भीतर इस सोच को विकसित किया कि उसके जीने की जरूरत रोजगार है ना कि जातीय समीकरण।
चूंकि 2001 से 2006 के दौरान आर्थिक सुधार की हवा ने जातीय घेरे में ही जीने की सोच को कई स्तर पर बदला। मसलन माल संस्कृति ने जातीय आधार पर धंधे की सोच खत्म की, तो बाजार संस्कृति ने धंधे पर कोई आंच आने पर उसके विरोध की जमीन को जातीय आधार के बदले कानून व्यवस्था के दायरे में देखा। यानी सत्ता की जो सोच पहले जातीय समीकरण के आधार पर सत्ता की मलाई खाने के लिये होती थी वह अब सत्ता के जरिये अपने धंधे को चलाये रखने के लिये वातावरण खोजने लगी। यानी सत्ता का मतलब जातीय दबंगई ना होकर सुशासन हो गया। और इस सोच के घेरे में वह सभी जातियां आयीं जो कल तक खुद को जातीय समीकरण के आसरे अपनी सत्ता को बनते या बिगडते देखने की सोच पाले हुईं थी।
यानी बिहार चुनाव में अगर पहली बार विकास मुद्दा बना है तो उसके पीछे वह तमाम परिस्थितियां हैं जिसके आसरे वह समाज अपनी जरुरतों को पूरा होता देख रहा है जो जरुरतें एक दशक पहले तक सत्ता के साथ जातीय समीकऱण बैठाने पर ही पूरी होती थी। यानी दलित हो या ब्राह्मण या फिर राजपूत हो या कुर्मी । उसकी जरुरतें सामूहिक घेरे में बिना किसी सामाजिक आंदोलन के इस दौर में एक सरीखी होती चली गयीं। हालांकि महादलित और मुस्लिम समुदाय चुनावी दौर में अभी भी उन रास्तो को टटोल रहे हैं जहां उनकी जरुरतें सत्ता की नीतियों और सरकार की योजनाओं के आसरे पूरी हों। लेकिन 2010 में भी सत्ता या कहे सरकारें अभी भी नीतियों के आसरे महादलित या मुस्लिमों को खुद पर आश्रित किये हुये हैं, इसलिये महादलित अगर अपने अनुकूल सरकार बनाने की दिशा में है तो मुस्लिम अपनी एकजुटता से जीतने वाले के साथ खडा होकर खुद को किंग-मेकर की भूमिका में रहना चाहता है।
दरअसल सत्ता के तौर तरीकों ने बिहार में जातियों के उग्रपन को भी सत्ता से डिगाया है। मसलन एक दौर में अगर श्री बाबू के मुख्यमंत्री रहते हुये बिहार में भूमिहार जाति खासी दबंग और उग्र हुई तो लालू प्रसाद यादव के दौर में यादव भी दबंग और उग्र हुआ। इसी का असर है कि जाति के उग्र चेहरे को सरकार बनाने की दिशा में मान्यता दुबारा कभी मिली नहीं। श्री बाबू के बाद कोई भूमिहार मुख्यमंत्री नहीं बना तो लालू यादव के बाद यह खतरा यादवो को लेकर भी पैदा हुआ। इसका एक नजारा 2005 और इस बार यानी 2010 के चुनाव के दौरान छपरा में नजर आया। 2005 में छपरा के धर्मनाथ जी के मंदिर के ठीक सामने धर्मनाथ दुबे के परिवार के लोगों ने कैमरे पर कोई प्रतिक्रिया इस डर से नहीं दी कि कोई यादव अगर सुन लेगा तो उनका जीना मुहाल हो जायेगा। वहीं इस बार धर्मनाथ दुबे परिवार खुले तौर पर चुनाव पर अपनी प्रतिक्रिया बिना हिचक देने के लिये सामने आया। ऐसा भी नहीं है कि इस बाद उसी गली में यादवो में कोई हिचक थी।
खुले तौर पर हर कोई अपने उम्मीदवारों को लेकर अपनी बात कहने की हिम्मत दिखा रहा था। असल में यह चेहरा विकास का नहीं विकास की दिशा में कदम उठने से पहले उस सोच के घेरे का है जो किसी भी समाज के आगे बढ़ने की पहली जरुरत होती है। यानी पहली बार चुनाव में सरकार पर निर्भरता बिना जातीय समीकरण को लेकर बढी है। इसलिये सवाल नीतीश कुमार या लालू यादव का नहीं है बल्कि सवाल उन परंपराओं के टूटने के बाद बने उस माहौल का है जिसमें पहली बार अपने आस्तिव को बाजार या रोजगार के जरिये लोग टोटल रहे हैं। इसका असर ही है कि चुनाव प्रचार के केन्द्र में नीतिश कुमार के पांच बरस के शासन से ज्यादा लालू-राबडी के वह पन्द्रह साल बार बार गूंज रहे है। यानी लालू पहली बार नीतीश के नकारात्मक विकल्प के तौर पर चुनाव मैदान में ज्यादा नजर आ रहे हैं। जबकि कांग्रेस उन दोनो मोर्चो पर विफल है जिसके आसरे बिहार कांग्रेस को लेकर लकीर खींच सकता था।
दरअसल जातीय समीकऱण पर विकास का सवाल छाने के बाद नये तबके के तौर पर युवा और महिला का उबार तो हुआ है लेकिन इनकी अगुवाई करने की ताकत करने नाला कोई नेता बिहार में किसी दल के पास नहीं है। राहुल गांधी और सोनिया गांधी इस दिशा में एक आस भर हैं। जो विश्वास में तब्दील इसलिये नहीं हो सकते क्योंकि अभी कांग्रेस के अनुकूल ना तो बिहार बना है और ना ही मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था को बिहार में मान्यता मिली है। लेकिन नीतीश की सत्ता पर अंकुश कांग्रेस दिल्ली से भी लगा सकती है, यह सोच जरुर उभरी है। यानी बिहार चुनाव के परिणाम कांग्रेस के विपक्षी दल के तौर पर मान्यता दिला सकते हैं। इन परिस्थितियों में सबसे मौजू वह सवाल है जो इस चुनाव में गायब है। नीतीश कुमार का सकारात्मक विकल्प। यानी 15 बरस का विकल्प तो सकारात्मक तौर पर 5 बरस मौजूद रहा। मगर 5 बरस का सकारात्मक विकल्प इस चुनाव में गायब है। ऐसे में पहली बार बूढ़ी हो चुकी जेपी की पीढी हो या चालीस पार मंडल की पीढी इन दोनों के आंदोलन बिहार की जवां पीढी की रगों में नहीं दौडती। क्योंकि जेपी और मंडल से निकले बिहारियों ने राजनीतिक जीवन छोड़ चुनावी हिसाब से चलना शुरू कर दिया था। और चुनावी गणित ही राजनीति का मंत्र बन गया।
इसलिये नयी पीढी ना तो राजनीति या चुनाव के हिसाब से जीने को तैयार है ना ही लालू या नीतीश में अपना अक्स देख नहीं पा रहे है। बल्कि यह जवां पीढी मनमोहन सिंह के चकाचौंध को भी अपना सच नहीं मानती। और तो और जेपी या मंडल भी इस नये बिहार की जरुरत नहीं है। इसलिये चुनाव परिणाम ना तो चौकाने वाले होगें और ना ही आखरी सच ।
Wednesday, October 27, 2010
गांधी से गांधी परिवार का फर्क
पहला भारत वर्धा में मौजूद है जहां की प्रति व्यक्ति आय सालाना 18 से 20 हजार रुपये है। यानी महीने का डेढ हजार। लेकिन, सरकारी आंकड़ा यह भी बताता है वर्धा में साठ फीसदी ग्रामीण गरीबी की रेखा से नीचे हैं। कुल 32 फीसदी लोग बीपीएल में हैं। और यहां नरेगा से भी बडा काम या कहें रोजगार अपनी जमीन को किसी बिल्डर या उद्योगपति के हवाले कर कंस्ट्रक्शन मजदूरी करना है। खेती के लिये बीज और खाद से सस्ता और सुलभ सीमेंट और लोहा है। वर्धा शहर में सिर्फ 18 दुकानें बीज खाद की हैं मगर सीमेंट-लोहे की छड़ या कंस्ट्रक्शन मैटेरियल की नब्बे से ज्यादा दुकानें यहां चल रही हैं। खासकर बीते तीन साल में यहां जब से थर्मल पावर प्रोजेक्ट का काम शुरु हुआ है तब से खेतीहर किसानों के मजदूर में बदलने की रफ्तार में 20 फीसदी की तेजी आ गयी है। पहले वर्धा के बारबडी गांव की जमीन को यूजीसीएल ने सौदेबाजी में हड़पा। फिर दुकान-मकान का खेल इसके अगल-बगल के छह गांव को निगल रहा है।
करीब साढ़े सात सौ किसानों ने अपनी जमीन सरकारी बाबूओं के कहने पर बेच डाली की अब यहां खेती हो नहीं सकती। यह अलग मसला है कि कभी राजीव गांधी ने वर्धा के ही भू-गांव में यह कह कर स्टील प्लांट लगने नहीं दिया था कि वर्धा बापू की पहचान है और यहां खेती नष्ट की नहीं जा सकती। इसलिये कंक्रीट की इजाजत नहीं दी जायेगी। उसी का असर है कि बापू कुटिया हैरिटेज साइट बन गया। और नरसिंह राव के दौर तक में किसी कंपनी की हिम्मत नहीं हुई कि वह वर्धा में उद्योग लगाने की सोचे जिससे खेती नष्ट हो या फिर वहां के पर्यावरण पर असर पड़े।
लेकिन दूसरे भारत का आधुनिक नजारा सोनिया गांधी की रैली में तब नजर आया जब बीस लाख से सवा करोड की गाडि़यां वर्धा में दौड़ती दिखीं और मंच से सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी सरकार भूख से लडने के लिये तैयार है। लिवोजीन से लेकर उच्च कवालिटी वाली मर्सिडिज और स्पोर्ट्स कार से लेकर दुनिया की जो भी बेहतरीन गाड़ी कोई भी सोच सकता है वह सभी गाडियां 15 अक्टूबर को वर्धा पहुंचीं। दर्जनों अरबपति और हजारों करोडपति कांग्रेसी नेता-कार्यकर्ताओं की फौज जो विदर्भ की है वह सभी एकजूट हो जाये तो देश की चकाचौंध कितनी निखर सकती है इसका खुला नजारा नागपुर से वर्धा की सड़क पर नजर आ रहा है। लेकिन वर्धा का नाम सेवाग्राम भी है और रैली झंडा यात्रा थी तो अरबपति दत्ता मेधे हो या फिर करोडपति शैला पाटिल। और इन सब के बीच में हजारों कांग्रेसी करोडपति कार्यकर्ता।
करीब दो से चार किलोमीटर सभी पैदल चले। यह देश के लिये कुछ सेवा करने का कांग्रेसी जज्बा था। कुछ करोडपति कार्यकर्ता तो जनता के बीच भी बैठे। संयोग से यह भी खबर बनी और करोडपति कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के अखबारों में यह छपवाने में भी कोताही नहीं बरती कि वह दो किलोमीटर चरखा छपा तिंरगा लेकर चले। लेकिन किसी ने भी यह नहीं बताया कि नागपुर से वर्धा का 70 किलोमिटर का रास्ता चय करने के लिये उन्होने मुबंई, नासिक, पुणे,औरगाबंद से लेकर हर जिले से अपनी अपनी गाडि़यां पहले ही नागपुर हवाई अड्डे पर लगवा ली थी। और महाराष्ट्र सरकार का पूरा कांग्रेसी मंत्रिमंडल ही उस दिन नागपुर से वर्धा के बीच सोनिया गांधी को सलामी देने जुटा जिसमें राज्य सरकार का खजाना किताना खाली हुआ इसका ना कोई हिसाब है और नाही किसी ने कैमरे के सामने इसकी उस तरह गुफ्तगु की जैसी रैली के लिये दस करोड जुगाडने की गुफ्त-गु प्रदेश अध्यक्ष मणिकराव ठाकरे और नागपुर के कांग्रेसी नेता सतीश चतुर्वेदी ने हल्के अंदाज में कर ली।
लेकिन इस दो भारत से इतर भी एक तीसरे भारत की तस्वीर भी उभरी। जब देश के रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू अचानक बिना कार्यक्रम नागपुर पहुंचे और नागपुर के सोनेगांव वायुसेना स्टेशन से लेकर अम्बाझरी के आयुध फैक्ट्री में इस बिना पर घुम आये कि जिस वायुसेना के जहाज को लेकर वह दिल्ली से नागपुर पहुंचे उसकी उपयोगिता कुछ दिखायी जा सके। यानी किसी सरकारी बाबू की तरह सरकारी वाहन का इस्तेमाल कर फाइल भरने सरीखा काम ही रक्षा राज्य मंत्री पल्लमराजू ने किया। असल में वायुसेना का विमान देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर दिल्ली से नागपुर पहुंचा था तो आरोपों से बचने के लिये रक्षा राज्य मंत्री भी नागपुर चल पडे। और नागपुर के रक्षा विभाग में जहां-जहां वह पहुंचे वहां अधिकारी कम और कुर्सियां ही ज्यादा थी। सोनिया ने पौने दो घंटे वर्धा में बिताये तो रक्षा राज्य मंत्री ने कुर्सियों के साथ बैठक और नागपुर शहर में कार से सफर में पौने दो घंटे बिताये। सोनिया वर्धा से नागपुर लौटीं और वापस वायुसेना के विमान में सवार होकर दिल्ली लौट आयीं।
यानी किसान-मजदूर पर भारी नेता-मंत्री और उसपर भारी केन्द्र सरकार -सोनिया गांधी। इस तीन भारत में किस से कौन सा सवाल ऐसा किया जा सकता है जिसमें यह लगे कि कोई तो है जो इन दूरियों को पाटने की हैसियत रखता है। या फिर तीन भारत की इमारत ही जब ऊपर से शुरू होती है तो फिर नीचे के किसान-मजदूर सेवाग्राम में जाकर बापू के सामने क्या कहते होगें। क्योकि वर्धा पहुंच कर सबसे पहले सोनिया गांधी भी बापू कुटिया ही गई थी, जहां उन्होंने चरखा कातते बापू भक्तों को देखा। बापू को याद किया। मिट्टी और घास-फूस से बने बापू कुटिया के दर्शन किये। उन तस्वीरों को देखा जो 1936 से 1943 तक सेवाग्राम में रहते हुये बापू काम किया करते थे। आत्याधुनिक हवाई गाडियों पर सवार कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने माना कि दस करोड रुपये में झंडा रैली सफल हुई क्योंकि बापू से कांग्रेस को जोडकर इससे बेहतर याद करने का कोई तरीका हो ही नहीं सकता है। सेवाग्राम के किसान मजदूर भी गांधी परिवार की शख्सियत सोनिया गांधी को देखकर तर गये क्योकि उन्होने माना कि बापू कुटिया में लिखी बापू की उस टिपप्णी को भी सोनिया गांधी ने जरुर पढा होगा जहां लिखा है , देश को असली आजादी तभी मिलेगी जब किसान का पेट भरा होगा और देश स्वाबलंबी होगा।
Friday, October 22, 2010
पूर्व मु्ख्यमंत्रियों के बच्चों की रेस में गुम है बिहार
समस्तीपुर से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ रहे रामानाथ ठाकुर आज भी अपनी चुनावी सभा में गाहे-बगाहे कर्पूरी ठाकुर का जिक्र कुछ इसी अंदाज में करते हैं , जिससे कर्पूरी की महक अब के दौर में भी आने लगे। वहीं समस्तीपुर का किसान-मजदूर तबका अब भी कर्पूरी ठाकुर के दौर की महक याद करने के लिये रामानाथ ठाकुर से कुछ ऐसे सवाल जरुर करता है जो आज के दौर में काफुर हो चुके हैं । मसलन खेत में सिंचाई नहीं है। बीज-खाद महंगे है । साग-सब्जी बाजार तक ले जाने का साधन नहीं हैं । अन्न की कीमत कुछ है नहीं। मजदूरी में जो मिलता है, उससे पेट भरता नहीं। दवाईखाने में कोई डाक्टर बाबू नहीं रहता। थानेदार मारता -पीटता है। और रामानाथ ठाकुर की सभा किसी शिकायत केन्द्र की खिड़की बन जाती है।
80 बरस के रामाधार को तो यह भी याद है, कैसे 1970 में मुख्यमंत्री बनने से पहले कर्पूरी ठाकुर एक चुनावी सभा में लगे हर वोटर की कमाई ओर खर्चे का हिसाब करने। रामाधार की बारी आई तो हिसाब जोडने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें बीस रुपये पच्चतर पैसे गुटका-पान का खर्चा कम करने को कहा। और हमनें खर्चा कम भी कर दिया। फिर दिसंबर 1970 में कर्पूरी जब पहली बार सात महीने के लिये सीएम बने तो गांव में आकर फिर पूछा गुटका-पान कम हुआ कि नहीं। तो क्या रामानाथ ठाकुर भी कर्पूरी सरीखे हैं। नहीं रामानाथ में कर्पूरी ठाकुर का कोई गुण नही है, वह तो पैतृक घर छोड गांव में ही शानदार हवेली बनाये हुये हैं। लेकिन उनमें कर्पूंरी ठाकुर को देखने से तसल्ली तो मिलती ही है। आखिर कर्पूरी ठाकुर का बेटा है। लेकिन इस बार चुनाव में बेटों को देखने का चलन और साठ-सत्तर के दशक के दौर को याद करने की खुमारी भी खूब रेंग रही है। कांग्रेस के दमदार भूमिहार नेता एलपी साही की बेटी उज्ज्वला हाजीपुर से चुनाव लड रही हैं । कभी एल पी साही के बगैर बिहार में कांग्रेस में चूं-चपड नहीं होती थी। लेकिन बेटी को टिकट सोनिया गांधी के दरबार में आंसू बहाने के बाद मिला।
हाजीपुर के भूमिहार अब उज्जवला में एलपी साही के दौर को देखने की कोशिश कर रहे हैं । वैशाली के ट्रांसपोर्टर सत्येन्द्र नारायण क के मुताबिक हालांकि एलपी साही की पुत्रवधु वीणा साही पहले से ही लालू यादव के जरीये वैशाली से चुनाव मैदान में रही है। लेकिन बेटा-बेटी में बाप के गुण देखने का मतलब अलग है। और उज्जवला ने साही जी का उठान बचपन से देखा है तो कुछ गुण तो बाप का झलकेगा ही। लेकिन संघ परिवार तो पूरे परिवार को ही एक सरीखा मानता है। इसलिये आरएसएस के पुराने स्वयंसेवक खुश है कि कभी बिहार में भीष्मपितामह कहे जाने वाले कैलाशपति मिश्र की पुत्रवधु दिलमानो देवी ब्रह्मपुर से चुनाव लड़ रही हैं। कैलाशपति मिश्र आरएसएस के उन स्वयंसेवकों में से एक रहे हैं, जिन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद जेल में डाल दिया गया था। और उससे पहले गांधी के भारत छोड़ों आंदोलन में भी भागेदारी की थी।
अब वह दौर तो नहीं है लेकिन परिवार का कोई व्यक्ति चुनाव मैदान में आता है तो आस तो बंधती ही है। संघ के पुराने स्वयंसेवक अखिलेश तिवारी इस बात से खफा है कि स्वयंसेवकों को बिहार में नीतिश कुमार के पीछे चलना पड़ रहा है । लेकिन कैलाशपति के परिवार का कोई भी चुनाव लड़े तो संघ पीछे तो हमेशा खड़ा ही रहेगा । वहीं 1970 में दस महिने मुख्यमंत्री रहे दारोगा प्रसाद राय की पहचान सबसे बडे यादव नेता के तौर पर है। लेकिन लालू यादव के दौर में यादवों का उनसे बड़ा नेता कोई माना नहीं जाता है । लेकिन लालू की फिसलन में यादव अब जब पुराने यादव नेताओ को याद कर रहे हैं तो परसा से आरजेडी के टिकट पर लड रहे दारोगा प्रसाद राय के बेटे चन्द्रिका और कांग्रेस के टिकट पर अमनौर से लड रहे दूसरे बेटे विनानचन्द्र राय में ही दारोगा राय के गुण-दोष देखने को अभिशप्त है।
वहीं यादवो में सबसे ठसक नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले लालू यादव के ठीक पहले रामलखन यादव ही थे। रामलखन यादव की तूती बिहार में कितनी जबरदस्त थी इसका जिक्र पालीगंज के महेन्द्र यादव करते हुये बताते है कि 1981 में गांधी मैदान की एक सभा में रामलखन यादव ने यादवों की सभा में जब ऐलान किया कि अब वक्त आ गया है कि यादव एक साथ दो कदम आगे बढाये तो हजारो की तादाद में बैठे सभी यादव गांधी मैदान में ही खड़े होकर दो कदम आगे बढ़ाकर बैठ गये। अब रामलखन यादव के पौत्र जयवर्द्वन यादव पालीगंज से चुनाव लड रहे हैं तो महेन्द्र यादव उन्हीं में रामलखन यादव की यादों को खोज रहे है।
कुछ यही हाल 1973 से 1975 कर मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर के पौत्र आशिक गफूर का है। जो कांग्रेस के टिकट पर बरौली से चुनाव मैदान में है और 1979-80 में मुख्यमंत्री रहे रामसुंदर दास के बेटे संजय कुमार दास का है, जो कि जदयू के टिकट पर राजापाकड क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं। हर पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे-बेटियों के जरीये अगर पुराने दौर के नेताओ को यादकर बिहार की पुरानी यादों की महक को सूंघने का प्रयास हो रहा है तो कुछ एहसास ताजे ताजे भी हैं, जिसमें कांग्रेस के आखरी दमदार सीएम जगन्नाथ मिश्र के बेटे-भतीजे से लेकर पूर्व मुखयमंत्री राबडी देवी के भाइयों के चुनाव मैदान में होने से लेकर खुद राबडी देवी के दो जगह चुनाव लड़ ने का भी खेल है, जो पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के दौर में पहले सीएम नही फिर नेता। और अब दो जगहों से चुनाव लड़ रही हैं । और इन सब के बीच रामविलास पासवान के फिल्मी बेटे और लालू के क्रिकेटर बेटे जिस तरह चुनाव प्रचार में नजर आ रहे हैं, उसमें कर्पूरी ठाकुर अब बिहार में किसी को सपने में भी दिखायी देंगे, यह सोचना ही 2010 के चुनावी गणित को बिगाड़ना होगा।