कॉरपोरेट के लिये रेड कारपेट बिछाने वाले मनमोहन सिंह कॉरपोरेट के हितों को साधने वाले मंत्रियों पर निशाना भी साध सकते हैं, इसे मंत्रिमंडल विस्तार से पहले किसी मंत्री या कॉरपोरेट घराने ने सोचा नहीं होगा। लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर जो लकीर मनमोहन सिंह ने खींची, उसमें अगर एक तरफ निशाने पर कॉरपोरेट घरानों के लिये काम करने वाले मंत्रियों को लिया तो अब 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच में उन कॉरपोरेट घरानों को घेरने की तैयारी हो रही है, जिन्हें भरोसा है कि सरकार से करीबी ने अगर उन्हें मुनाफे का लाइसेंसधारक बनाया है तो उनपर कोई कार्रवाई हो नहीं सकती। पहले बात मंत्रियों की। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवडा को अंबानी के बच्चे गैस वाले अंकल के नाम से जानते हैं । और 2006 में जब मणिशंकर अय्यर को हटा कर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाया गया तो उनकी पीठ पर उन्हीं मुकेश अंबानी का हाथ था, जिनपर काग्रेस के करीबी होने का तमगा कांग्रेसियो ने ही लगा रखा था। इसलिये मुरली देवडा बतौर मंत्री भी अक्सर यह कहते रहे कि उनके लिये मुकेश अंबानी कितने अहम हैं। और तो और 2008 में जब अमेरिका में गैस की किमत 3.70 डॉलर थी, तब भी रिलायंस भारत में गैस की कीमत 4.20 डॉलर लगा रहा था और मुरली देवडा न सिर्फ राष्ट्रीय घरोहर को कौड़ियों के मोल मुकेश अंबानी को बेच रहे थे बल्कि उनके साथ आंध्रप्रदेश के त्रिमूला मंदिर में पूजा अर्चना करने से भी नहीं कतरा रहे थे।
यानी देश के सामने सीधे संकेत थे कि मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था में कॉरपोरेट घरानों को भरपूर लाभ पहुंचाकर विकास की लकीर खींचना ही विकसित देश होने की तरफ कदम बढ़ाना है। और मुरली देवडा के पीछे जब मुकेश अंबानी खड़े हों तो फिर उन्हे हटा कौन सकता है। यानी कांग्रेस की राजनीति को भी डगमगाने से कॉरपोरेट पूंजी से जोड़ा गया। इसीलिये जब तेल के साथ गैस की कीमत तय करने का हक भी निजी हाथो में सौपा गया तो पहली खुशी मुरली देवडा ने ही व्यक्त की। वही पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने राष्ट्रीय एयरलाइन्स को खोखला बना कर जिस सलीके से निजी एयरलाइन्स का साम्राज्य खड़ा किया और पहले जेट एयरवेज के नरेश गोयल फिर किंगफिशर के विजय माल्या को लाडला बनाया उससे भी देश के सामने यही सवाल खड़ा हुआ कि मनमोहन की थ्योरी तले निजी कंपनियो को लाभ पहुंचाने की सोच को ही प्रफुल्ल पटेल अंजाम देने में लगे हैं। इसलिये प्रफुल्ल पटेल ने जब विजय माल्या को सिविल एविएशन पर संसदीय समिति की स्टेडिंग कमेटी का स्थायी सदस्य बनवा दिया तो भी सवाल उठा क्या अब कॉरपोरेट ही देश के लिये नीतियो को भी बनायेंगे। यानी मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल और कारपोरेट मिलकर सरकार है और यही देश चला रहे हैं। और नागरिक उड्डयन मंत्रालय से तो कभी प्रफुल्ल पटेल को हटाया नहीं जा सकता। लेकिन पहली बार इन सब को मनमोहन सिंह ने अपनी छवि के खिलाफ माना। इसलिये 17 जनवरी को जब उन्होंने राष्ट्पति से मुलाकात कर मंत्रिमंडल विस्तार की जानकारी दी तो नये मंत्रियो के साथ ही मंत्रालयो में परिवर्तन की सूची भी सौप दी और चंद घंटों में ही राष्ट्रपति भवन से वह सूची दस जनपथ के लिये लीक हो गयी। इसलिये अगले ही दिन सोनिया गांधी के साथ प्रधानमंत्री की चर्चा मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर जो भी हुई मगर कॉरपोरेट घरानो के सवाल पर एक सहमति जरुर बनी कि मंत्रियो के कॉरपोरेट घरानो के साथ समझौते-सहयोग या दोस्ती को अब बर्दाश्त नहीं करना चाहिये। सवाल यह भी उठा कि कोई भी मंत्री संगठन के लिये काम करने वाले नेता से बड़ा न हो और संगठन से जुड़े नेता को यह ना लगे कोई मंत्री किसी कारपोरेट घराने के आसरे अपने आप में सत्ता हो जाये।
यह तभी संभव है जब कारपोरेट की पीठ पर सवार मंत्रियो के पर कतरे जाये और सरकार का कामकाज काग्रेस की राजनीति से जुड़े। इसलिये मंत्रिमंडल विस्तार में उन मंत्रियो को सीधे आइना दिखाया गया, जिनके संबंध कारपोरेट से जगजाहिर हैं और जो कारपोरेट के साथ अपना नाम जोड़ने में अपना बढ़ा हुआ कद मानते। मगर इस विस्तार के बाद दो सवाल सरकार और काग्रेस के सामने हैं। जिसमें काग्रेस के संगठन को एक धागे में बांधना और उस कारपोरेट पर लगाम लगाना है जो कही शरद पवार तो कही नरेन्द्र मोदी को अपनी बिसात पर मोहरा बनाकर कांग्रेस की राजनीति के साथ शह मात का खेल भी खेलने से नहीं कतराते है। संगठन का कामकाज मंत्री से न जुडे और कोई मंत्री संगठन या राज्यो की राजनीति में सीधी दखल ना रखे। फिलहाल चार मंत्री संगठन में महासचिव है और दो मंत्री मोईली और एंटनी राज्यो के प्रभारी हैं। यानी पार्टी संगठन हो या मंत्रीमंडल उसमें एकरुपता तभी रह सकती है जब सभी एक समान हो या सभी का ट्रीटमेंट एक सरीखा हो। यानी एक व्यक्ति एक पद। और नये पार्टी संगठन की सूची भी अब तैयार है। बस ऐलान होना है। जबकि दूसरी तरफ मनमोहन सिंह अब 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस के घेरे में फंसे उन बड़े कॉरपोरेट घरानों को भी बख्शना नहीं चाहते हैं, जिनकी साख चाहे अंतर्राष्ट्रीय तौर पर है। टाटा टेलीसर्विसेस, वोडाफोन-एस्सार,आइडिया से लेकर वीडियोकान हो या रिलांयस टेलीकाम या फिर स्पेक्ट्रम लाइसेंस के लिये बनी नयी कंपनियां। सभी को एक ही दायरे में रखकर अब इसके संकेत देने की कोशिश भी सरकार कर रही है कि सत्ता के करीब कोई कारपोरेट घराना नहीं है और कोई कारपोरेट अपने आप में कोई सत्ता नहीं है। असल में सरकार के लिये अगर बड़ा संकट कारपोरेट हित के लिये मनमोहन सिंह पर भी निशाना साधने वाले कृर्षि मंत्री शरद पवार है तो कांग्रेस के लिये कॉरपोरेट के लिये रेड कारपेट बिछाने वाले गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी हैं। और कॉरपोरेट घरानों ने भी जिस तरह कई मौको पर मोदी को विकास से जोड़ा है और पवार के जरीये मनमोहन सिंह को चेताने का काम किया है उसमें पहली बार मनमोहन-सोनिया दोनो का लगने लगा है कि उनकी बिसात पर कारपोरेट ही ज्यादा बडी सियासत खेल रहा है। और इन परिस्थितियो पर नकेल कसने के लिये ही अगले मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर अभी से कयास भी इसीलिये लगने लगे हैं क्योकि कारपोरेट घरानो से सबसे ज्यादा नजदीकी वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की सर्वव्यापी है और संयोग से बोफोर्स के मसले पर फाइल भी वित्त मंत्रालय के जरीये खुली और कालेधन पर सरकार ने अपने हाथ कैसे बांध रखे है यह भी वित्त मंत्रालय के सीबीडीटी के जरीये ही सामने आया। यानी सरकार या पार्टी का संकट सरकार या पार्टी के भीतर ही है। इसीलिये पहली बार मनमोहन सिंह एक तरफ मनमोहनइक्नामिक्स को सियासत से जोडने के लिये तैयार है तो दूसरी तरह इसी से सियासी निशाना साधने को भी तैयार है। बस इंतजार बजट सत्र के बीतने तक करना होगा।
Tuesday, January 25, 2011
Friday, January 21, 2011
मुंबई के कैनवास पर पोयट्री और पेंटिंग है धोबी घाट
यह फिल्म बिना इंटरवल की है। 95 मिनट की इस फिल्म में कोई इंटरवल नहीं होगा। आप फिल्म शुरू होने से पहले अपने खाने-पीने का ऑर्डर दे सकते हैं। हमारे एक्सक्यूटिव आपका आर्डर लेने के लिये हाल में ही मौजूद हैं। हमारी कैंटिन में हॉट डॉग, चिकन बर्गर, स्नीकर वेज बर्गर, मसाला डोसा, समोसा और चाकलेट क्रीम खास तौर से हैं। और आपका प्रिय कोक- ...सिर्फ 110 रुपये का है। आप ऑर्डर करें और शो का मजा लें। और इसके बाद ऑर्डर देने की चहल-पहल फुसफुसाहट के साथ तेज होती गई और इन सब के बीच अचानक 10 रील की फिल्म धोबी घाट सिल्वर स्क्रीन पर किसी पेंटिग या पोयट्री की तर्ज पर रेंगने लगी। यह धोबी घाट के पहले दिन का पहला शो है।
मुंबई अगर कैनवास है तो धोबी घाट वाकई कैनवास पर उकेरी गई किसीपेंटिंग की तरह शुरू होती है। जो धीरे धीरे किरण राव की निजी डायरी में लिखीकिसी कविता की तर्ज पर उभरने लगती है। फिल्म में मुंबई की बरसात को देख आलोकधन्वा की कविता जहन में उभरती है
....आदमी तो आदमी / मै तो पानी के बारे में भी सोचता था /
कि पानी को भारत में बसना सिखाउगां ...
चार किरदारो के ईर्द-गिर्द घूमती फिल्म जिन्दगी की तालाश में निराशा की पीठ पर सवार होकर किरदारों के भीतर दर्शकों को घुसाने की जद्दोजहद ही लगातार करती है। इसलिये जो चार चरित्र मुबंईया मंच पर जिन्दगी के तमाशे में एक-दूसरे से शगल करते हैं वह हर माहौल में खुद को इतना अलग-थलग करते हैं कि दर्शक भी किसी चरित्र में ना तो मुंबई का कोईअक्स देख पाता है और ना ही खुद को उससे जुडा हुआ महसूस कर पाता है।
अमेरिका से आई एक लडकी मुंबई के एक कलाकार से टकराती है। कलाकार यानी कैनवास पर मुंबई के अनछुये पहलुओं को उभारने वाला पेंटर आमिर खान। जो हर वातावरण में खामोशी भरा माहौल ही अपने इर्द-गिर्द बनाकर जीता है। और मुंबई में खो चुके धंधो पर रिसर्च करने अमेरिका से पहुंची इस लड़की को कलाकार कुछ अलग लगता है जो उसकी संवेदना को हिला देता है। लेकिन कलाकार की संवेदना जिस दर्द को तलाशती है, संयोग से वह उसे किराये के नये घर की एक अलमारी में रखी किसी की जिन्दगी में मिलते हैं। जो वीडियो टेप में है। वहीं कलाकार के करीब पहुंचने का माध्यम अमेरिका से आयी लड़की को एक धोबी में दिखायी देता है। जिसे स्मिता पाटिल के बेटे प्रतीक बब्बर ने जीया है। और कमाल का जीया है। इन्हीं चार किरदारों के उलझे तारों को जोड़ने में किरण राव की मुंबई डायरी मुंबई के हर उस रंग को पकड़ने में जुटती है जिसका कोई भी सिरा कभी ना कभी किसी मुंबईकर की जिन्दगी की तारों को छेड़ चुका हो। इसमें मुंबई पर बनी पुरानी हर फिल्म का एसेंस किसी बे-जरूरत के सामान की तरह सामने आता है और अगले ही पल गायब हो जाता है। चाहे वह पेज-थ्री का माहौल हो या फिर झोपड़पट्टी का मवाद। चाहे वह अंधेरे में चूहों को मारनेवाले की त्रासदी हो या ड्रग का धंधा करने वालों के सपने।
फिल्म बार-बार सपनों के शहर मुंबई से भागकर अंधेरे में जिन्दगी टटोटलती मुंबई में ही अपना अक्स देखना चाहती है। इसलिये हर चरित्र की मौजदूगी में आमिर खान अलग जान पडता है। कलाकार की संवेदनाओं को जीता आमिर खान, लगने लगता है कि वह एक्टिंग कर रहा है और उससे इतर स्मिता पाटिल का बेटा हो या अमेरिका से आई लड़की या फिर वीडियो टेप में कैद लडकी की जिन्दगी....यह सभी स्क्रीन पर समुद्र किनारे लगने वाली हवा सरीखे ताजे लगते हैं। जबकि पुराने मुंबई के दो कमरे के चाल में रहकर भी आमिर कलाकार नहीं लग पाते। जो किरण राव से ज्यादा आमिर खान की अदाकारी की हार है। किरण भागती-दौड़ती मुंबई में हर किसी को अकेला ही देखती है। जिस्म की जरुरत से ज्यादा संवेदनाओ की जरूरत को टटोलती फिल्म हर बार उस मोड़ पर कमजोर हो जाती है जहां संवेदना प्यार या सेक्स की सोच के सामने हारती हुई लगती है। यहां किरण राव हारती हैं। क्योंकि कैनवास पर उपन्यास नहीं लिखा जाता और कविता कभी भी कोई मूर्ति नहीं होती जिसे देखने वाला अपनी समझ के मुताबिक मस्तिष्क पर कुछ भी उकेर ले। इसलिये फिल्म हर किसी को समेटने में जब अकेले पड़ती है तो सभी चरित्रों को भी दोबारा उसी जगह जोड़ती है जहां से उनकी जिन्दगी कुलबुलाहट के साथ शुरू हुई।
निरा अकेलापन कितना भी घातक हो लेकिन आस जगाने के बाद के अकेलेपन से ज्यादा त्रासदीपूर्ण नहीं होता। और धोबी धाट का अंत भी इसीलिये बिना किसी संवाद के भी जल्दबाजी में संवाद कायम करने की असहज सी कोशिश लगती है। हालांकि मुंबई के हर रंग को पकडने की जल्दबाजी भी फिल्म के आखिर में धोबी बने प्रतीक बब्बर के पिछे धुंधला सा दिखायी देता महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का बोर्ड एक नयी मुंबई की आहट देता है। क्योंकि फिल्म का यह धोबी उत्तर भारतीय है, जो पेट की भूख मिटाने के लिए घर छोड़ मुंबई आ गया। इसलिये फिल्म खत्म होने के बाद सिनेमा हाल में ऑर्डर दिये गये खानपान की आवाज कहीं ज्यादा सुनायी देती है। और इस माहौल में किरण राव की हार-जीत दोनों दिखायी देती है। जीत इसलिये की बिना इंटरवल की फिल्म में कही रुक कर उबने का मौका किरण राव नहीं देती, जिसमें कोई खान-पान पर ध्यान दें। और हार इसलिये क्योंकि फिल्म खत्म होते ही दिमाग भी खाली लगता है और ऑर्डर मंगाने वाले खाने में जुट कर किरण राव पर यह कर चुटकी लेने से नहीं कतराते की फिल्म उनकी निजी डायरी है उसे सिल्वर स्क्रीन पर उकेरना आमिर खान का प्यार है ...देखनेवालों का नहीं। लेकिन यह फिल्म इसलिये भी देखनी चाहिये क्योकि अर्से बाद घोबी घाट देखनेवाले को ठहरा देती है। वह भूला देती है कि भागती-दौड़ती जिन्दगी में चुटकुले में तब्दील होती फिल्म के आलावे भी सिल्वर स्क्रिन पर कोई रंग भरा जा सकता है। और साथ ही महंगाई से जूझते भारत जैसे देश में डेढ घंटे भी दर्शक बिना खाये-पीये नहीं बैठ पाते।
मुंबई अगर कैनवास है तो धोबी घाट वाकई कैनवास पर उकेरी गई किसीपेंटिंग की तरह शुरू होती है। जो धीरे धीरे किरण राव की निजी डायरी में लिखीकिसी कविता की तर्ज पर उभरने लगती है। फिल्म में मुंबई की बरसात को देख आलोकधन्वा की कविता जहन में उभरती है
....आदमी तो आदमी / मै तो पानी के बारे में भी सोचता था /
कि पानी को भारत में बसना सिखाउगां ...
चार किरदारो के ईर्द-गिर्द घूमती फिल्म जिन्दगी की तालाश में निराशा की पीठ पर सवार होकर किरदारों के भीतर दर्शकों को घुसाने की जद्दोजहद ही लगातार करती है। इसलिये जो चार चरित्र मुबंईया मंच पर जिन्दगी के तमाशे में एक-दूसरे से शगल करते हैं वह हर माहौल में खुद को इतना अलग-थलग करते हैं कि दर्शक भी किसी चरित्र में ना तो मुंबई का कोईअक्स देख पाता है और ना ही खुद को उससे जुडा हुआ महसूस कर पाता है।
अमेरिका से आई एक लडकी मुंबई के एक कलाकार से टकराती है। कलाकार यानी कैनवास पर मुंबई के अनछुये पहलुओं को उभारने वाला पेंटर आमिर खान। जो हर वातावरण में खामोशी भरा माहौल ही अपने इर्द-गिर्द बनाकर जीता है। और मुंबई में खो चुके धंधो पर रिसर्च करने अमेरिका से पहुंची इस लड़की को कलाकार कुछ अलग लगता है जो उसकी संवेदना को हिला देता है। लेकिन कलाकार की संवेदना जिस दर्द को तलाशती है, संयोग से वह उसे किराये के नये घर की एक अलमारी में रखी किसी की जिन्दगी में मिलते हैं। जो वीडियो टेप में है। वहीं कलाकार के करीब पहुंचने का माध्यम अमेरिका से आयी लड़की को एक धोबी में दिखायी देता है। जिसे स्मिता पाटिल के बेटे प्रतीक बब्बर ने जीया है। और कमाल का जीया है। इन्हीं चार किरदारों के उलझे तारों को जोड़ने में किरण राव की मुंबई डायरी मुंबई के हर उस रंग को पकड़ने में जुटती है जिसका कोई भी सिरा कभी ना कभी किसी मुंबईकर की जिन्दगी की तारों को छेड़ चुका हो। इसमें मुंबई पर बनी पुरानी हर फिल्म का एसेंस किसी बे-जरूरत के सामान की तरह सामने आता है और अगले ही पल गायब हो जाता है। चाहे वह पेज-थ्री का माहौल हो या फिर झोपड़पट्टी का मवाद। चाहे वह अंधेरे में चूहों को मारनेवाले की त्रासदी हो या ड्रग का धंधा करने वालों के सपने।
फिल्म बार-बार सपनों के शहर मुंबई से भागकर अंधेरे में जिन्दगी टटोटलती मुंबई में ही अपना अक्स देखना चाहती है। इसलिये हर चरित्र की मौजदूगी में आमिर खान अलग जान पडता है। कलाकार की संवेदनाओं को जीता आमिर खान, लगने लगता है कि वह एक्टिंग कर रहा है और उससे इतर स्मिता पाटिल का बेटा हो या अमेरिका से आई लड़की या फिर वीडियो टेप में कैद लडकी की जिन्दगी....यह सभी स्क्रीन पर समुद्र किनारे लगने वाली हवा सरीखे ताजे लगते हैं। जबकि पुराने मुंबई के दो कमरे के चाल में रहकर भी आमिर कलाकार नहीं लग पाते। जो किरण राव से ज्यादा आमिर खान की अदाकारी की हार है। किरण भागती-दौड़ती मुंबई में हर किसी को अकेला ही देखती है। जिस्म की जरुरत से ज्यादा संवेदनाओ की जरूरत को टटोलती फिल्म हर बार उस मोड़ पर कमजोर हो जाती है जहां संवेदना प्यार या सेक्स की सोच के सामने हारती हुई लगती है। यहां किरण राव हारती हैं। क्योंकि कैनवास पर उपन्यास नहीं लिखा जाता और कविता कभी भी कोई मूर्ति नहीं होती जिसे देखने वाला अपनी समझ के मुताबिक मस्तिष्क पर कुछ भी उकेर ले। इसलिये फिल्म हर किसी को समेटने में जब अकेले पड़ती है तो सभी चरित्रों को भी दोबारा उसी जगह जोड़ती है जहां से उनकी जिन्दगी कुलबुलाहट के साथ शुरू हुई।
निरा अकेलापन कितना भी घातक हो लेकिन आस जगाने के बाद के अकेलेपन से ज्यादा त्रासदीपूर्ण नहीं होता। और धोबी धाट का अंत भी इसीलिये बिना किसी संवाद के भी जल्दबाजी में संवाद कायम करने की असहज सी कोशिश लगती है। हालांकि मुंबई के हर रंग को पकडने की जल्दबाजी भी फिल्म के आखिर में धोबी बने प्रतीक बब्बर के पिछे धुंधला सा दिखायी देता महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का बोर्ड एक नयी मुंबई की आहट देता है। क्योंकि फिल्म का यह धोबी उत्तर भारतीय है, जो पेट की भूख मिटाने के लिए घर छोड़ मुंबई आ गया। इसलिये फिल्म खत्म होने के बाद सिनेमा हाल में ऑर्डर दिये गये खानपान की आवाज कहीं ज्यादा सुनायी देती है। और इस माहौल में किरण राव की हार-जीत दोनों दिखायी देती है। जीत इसलिये की बिना इंटरवल की फिल्म में कही रुक कर उबने का मौका किरण राव नहीं देती, जिसमें कोई खान-पान पर ध्यान दें। और हार इसलिये क्योंकि फिल्म खत्म होते ही दिमाग भी खाली लगता है और ऑर्डर मंगाने वाले खाने में जुट कर किरण राव पर यह कर चुटकी लेने से नहीं कतराते की फिल्म उनकी निजी डायरी है उसे सिल्वर स्क्रीन पर उकेरना आमिर खान का प्यार है ...देखनेवालों का नहीं। लेकिन यह फिल्म इसलिये भी देखनी चाहिये क्योकि अर्से बाद घोबी घाट देखनेवाले को ठहरा देती है। वह भूला देती है कि भागती-दौड़ती जिन्दगी में चुटकुले में तब्दील होती फिल्म के आलावे भी सिल्वर स्क्रिन पर कोई रंग भरा जा सकता है। और साथ ही महंगाई से जूझते भारत जैसे देश में डेढ घंटे भी दर्शक बिना खाये-पीये नहीं बैठ पाते।
Wednesday, January 12, 2011
सत्ता का लोकतंत्र
विनायक सेन का राजद्रोह न्यायपालिका के आईने में देखा जाये या राजनीति के आईने में। जो कानून छत्तीसगढ़ में लाया गया उसकी धारायें ही जब गुलाम भारत की याद दिलाती हैं। और न्यायपालिका को तो उन्हीं धाराओं के तहत पहल करनी है, तो क्या सिर्फ न्यायपालिका के भरोसे विनायक सेन का सवाल उठाना उचित है। काले कानून को छत्तीसगढ़ सरकार की कैबिनेट ने पास किया और उसपर दो तिहाई विधायकों में मोहर लगायी। तो इस कानून के तहत विनायक सेन क्या छत्तीसगढ़ में कोई व्यक्ति सरकार के नजरिये से इतर आदिवासियो के सवाल से लेकर मजदूरी के सवाल और ग्रामीण आदिवासी क्षेत्र में खनिज संसाधनों की लूट ही नही बल्कि नक्सलियों के सवालों के जवाब में राज्य की हिंसा का सवाल उठाकर दिखाये वह भी राजद्रोह के घेरे में आ सकता है। इसलिये बडा सवाल छत्तीसगढ़ की एक निचली अदालत के मैजिस्ट्रेट जज के फैसले को लेकर मचे बवाल का नहीं है बल्कि न्यायपालिका के दायरे में राज्य की तानाशाही पर खामोशी का है। या कहें समूची थ्योरी ही न्यायपालिका की उस प्रक्रिया पर थोपी जा रही है जहां विनायक सेन पर ऐसे हैरतहंगेज आरोप मढे गये जिसमें कोई भी पढ़ा-लिखा छात्र में बता सकता है कि ऐसा जानबूझकर किया गया। क्योंकि दिल्ली स्थित आईएसएसआई को पाकिस्तान की खुफिया एंजेसी मानना और कार्ल मार्क्स की दास कैपिटल पार्ट -3 के जरिये राज्य के खिलाफ हिंसा का पाठ पढ़ने का आरोप निचली अदालत में पुलिसवालो के रखे।
यानी निचली अदालत में चुटकुले गढे जा रहे थे और काला कानून अपना काम कर रहा था। आखिर में एक मैजिस्ट्रेट जज ने जो फैसला सुनाया उस पर समूचे देश में हंगामा खडा हो गया। दरअसल किसी भी देश का लोकतंत्र जब कमजोर पडता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को संभालने वाले पाये ही कमजोर होते हैं। फिर यही पाये एक दूसरे का सहारा लेकर अपनी हुकुमत बनाये रखने की हिमाकत शुरु करते हैं। भारत का लोकतंत्र असल में इसी दौर से गुजर रहा है। जहां अपनी जरुरत बनाये रखने के लिये लोकतंत्र का हर पाया ही दूसरे कमजोर या घुन लग चुके पाये की जरूरत को सही ठहरा कर अपनी उपयोगिता को साबित करने में लगा है। भारत में तो संसदीय व्यवस्था को ही लोकतंत्र का पर्याय बनाया गया। यानी आम आदमी की नुमाइंदगी करती सरकार की नीतियों में ही आम जनता की जरूरत देखी गयी। लेकिन कार्यपालिका-विधायिका या न्यायपालिका के साथ साथ चौथा पाया मीडिया की भूमिका भी इस दौर में अपने से इतर दूसरे पाये की ही जरूरत बताती नजर आयी। यानी संसदीय लोकतंत्र पर आस बने रहे इसकी जद्दोजहद ही हर पाये ने अपने ऊपर से भरोसा उठने पर की। अगर छत्तीसगढ़ सरकार माओवादियों के नाम पर अपने खनन का रास्ता खोल कर करोड़ों के वारे न्यारे करना चाहती है, तो बंगाल की वामपंथी सरकार भी माओवाद के नाम पर अपनी उस राजनीति को सही ठहराना चाहती है जो जमीन, मजदूर, किसान से हटकर कैडर को लाभ पहुंचाने के लिये मुनाफे की थ्योरी तले कभी बाजारवाद तो कभी ओद्योगिकरण का राग अलापती है। यही खेल गुजरात में विकास तले मोदीत्व की राजनीति का अलख जगाने के लिये होता है और उसका भ्रष्ट चेहरा कर्नाटक में येदुरप्पा की नीतियों के जरिये उभरता है।
विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन तो दिल्ली पहुंच कर राज्य के आतंक को बयां भी कर पाती हैं। लेकिन सौराष्ट्र का मुसलमान और बेल्लारी के किसान तो अपने जिला मुख्यालय में कलेक्टर-एसपी या अदालत तक पहुंच कर यह बताने का दम नहीं रखता कि उसका जीना सत्ताधारी के आगे रेंगकर चलने के बाद भी संभव है। लेकिन यह आतंक लोकतंत्र का परचम लहराते हुये अक्सर न्यापालिका की दुहाई देने से नहीं कतराता। देश के गृहमंत्री चिदबरंम इलिना सेन को बहलाते हैं कि ऊपरी अदालत में अपील करने से विनायक का रास्ता निकल सकता है तो येदुरप्पा बेल्लारी के किसान-मजदूरो को फुसलाते है कि अगर उनकी जमीन पर कोई गैर कानूनी खनन कर रहा है तो अदालत का दरवाजा खटखटाये न्याय मिल जायेगा। जबकि राज्य व्यवस्था का पाठ पढ़े बगैर ही कोई भी यह जानता समझता है निचली अदालत के किसी जज का हाई कोर्ट के जज तक पहुंचने का रास्ता उसी मुख्यमंत्री के तले से गुजरता है जिसकी नीतियों को लागू कराने का काम पुलिस प्रशासन लगा रहता है। और अदालत भी कोई भी फैसला राज्य हित में कानून लागू करने के लिये देता है। लेकिन, कानून और राज्य हित ही अगर सत्ता बनाये रखने या सत्ता अपना मुनाफा बनाने के लिये शुरु कर दें तो फिर नकेल कसेगा कौन और न्याय की परिभाषा होगी क्या। यह सवाल विनायक सेन पर फैसले से लेकर महाराष्ट्र के दलित पत्रकार एक्टीविस्ट सुधीर धावले की गिरफ्तारी से भी उभरता है। विद्रोही नामक पत्रिका निकालने वाले सुधीर को पुलिस ने इसलिये पकड़ा क्योंकि वह विदर्भ से लेकर मुबंई तक में दलित से लेकर आम लोगो से जुडे मुद्दो में लोकतांत्रिक तरीके से शिरकत करता था। विदर्भ के खैरलांजी से लेकर मुंबई के रमाबाई अंबेडरनगर के आंदोलन से जुडा रहा। लोकतांत्रिक तरीके से लोगों को जोड़ा और दलितों के सवालों को हक के दायरे में रखकर संसदीय राजनीति से इतर अपने बूते अपने सवालों को उठाया।
असल में लोकतंत्र के हर पाये को यह बर्दाश्त नहीं है कि उसकी जरूरत को ही उसके घेरे में कोई मुद्दा खत्म कर दे। माओवाद संसदीय राजनीति के खिलाफ है। यानी एक दूसरी व्यवस्था का सवाल। लोकतांत्रिक आंदोलन अदालती प्रक्रिया के खिलाफ है यानी कानूनी तौर तरीकों से इतर सहमति के आधार पर सामाजिक फैसलों को मानवाधिकार के तहत मानने की सोच। मानवाधिकार पहल उस नौकरशाही के खिलाफ है जिसे लागू करने का काम राज्य का है लेकिन भ्रष्ट बाबूओं की वजह से ही जब संविधान में दर्ज न्यूनतम मौलिक अधिकार भी नहीं मिलते तो मानवाधिकार हनन के खिलाफ संघर्ष सड़क पर होता है और पुलिस प्रशासन कितने अमानवीय है यह सवाल लोगों के बीच रेंगने लगता है। और इन तमाम पहलुओ को जनता के बीच दिखाने-ले जाने के बदले मीडिया भी यह बताने से नहीं चूकता कि जब लोकतंत्र का हर पाया मौजूद है तब जमा होकर आंदोलन या मानवाधिकार के सवालों को उठाना राज्य की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना है। तभी यह सवाल खडा होता है कि लोकतंत्र की परिभाषा अब किस तरह गढ़ी जाये, क्योंकि कल तक संसदीय राजनीति ही लोकतंत्र का पर्याय थी लेकिन जब वही लोकतंत्रिक मूल्यों को खत्म कर तानाशाह के तौर पर अपनी हुकुमत को ही लोकतंत्र बताने लगेगी तो व्यवस्था बड़ी या आम आदमी यह सवाल उठेगा ही।
हाल के घपलों-घोटालों में कैबिनेट मंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री तक फंसे, भ्रष्टाचार के घेरे में जज से लेकर पूर्व चीफ जटिस्स तक का नाम आया। नौकरशाहों के फेरहिस्त में बीडीओ से लेकर केन्द्र में सचिव स्तर के अधिकारी तक फंसे। कारपोरेट जगत के सर्वेसर्वा से लेकर सिटी बैंक के सबसे बडे ऑफिसर तक ने घपला-घोटाला कर अपना लाभ बनाया। ज्यादातर मामलों में साफ-साफ दिखा कि देश को चूना लगाकर हर किसी ने कमाई की। लेकिन कभी कारपोरेट ने मंत्री की तो मंत्री ने न्यायपालिका की तो न्यायपालिका ने कानून मंत्रालय की तो कानून मंत्रालय ने लोकतंत्र की दुहाई देकर हर किसी की जरुरत देश में लोकतंत्र का नाम लेकर कानून का राज स्थापित करने की ऐसी-ऐसी परिभाषा दी जिसमें देश के प्रधानमंत्री भी यह कहने से नहीं चूके कि वह तो मि. क्लीन हैं अब उनके मातहत कोई भ्रष्ट है तो वह क्या करें। यानी शासन की समूची प्रक्रिया ही जब संविॆधान के दायरे में इस तरह बनायी गयी है जहा वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल हर तरक्की के लिये वी द गवर्मेंट, फार द गर्वमेंट हो जाये और गर्वमेंट का मतलब कही पीएम, कही सीएम तो कही टाटा और कही रिलायंस और कही बरखा वीर हो जाये तब आप क्या करेंगें। यानी लोकतंत्र का हर पाया एक सरीखा हो तभी वह प्रभावी पाया माना जाये तो क्या होगा। दरअसल संसदीय व्यवस्था का यही चेहरा अभी का नायाब लोकतंत्र है। जिसमें चैक एंड बैलेस का खेल सिर्फ बैंलस पर जा टिका है और हर क्षेत्र में लोकतंत्र का तमगा उसी की छाती पर टंगा है जो अपने घेरे में सत्ताधारी है। यानी निर्णय लेकर उसे अपनी शर्तों पर लागू कराने के हिम्मत रखता है।
आधुनिक लोकतंत्र तले इसे सिंगल विंडो विकास यानी एक खिडकी लाईसेंस माना जाता है। यूपी में मायावती, गुजरात में नरेन्द्र मोदी, दिल्ली में शीला दीक्षित, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह यानी हर राज्य हर सीएम, केन्द्र में कैबिनेट मंत्री से लेकर पीएम और दस जनपथ, नार्थ-साउथ ब्लॉक में नौकशाहों की पूरी फौज वहीं शास्त्री भवन के बाबू लोग से लेकर कारपोरेट समूहो के लॉबिस्ट और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तले इलाहबाद हाईकोर्ट सरीखे अंकल जजों की फौज। इससे इतर लोकतंत्र कहा रेंगता है। लोकतंत्र तो नीतीश के सुशासन तले हाई प्रोफाइल भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद उभरे सवालों में भी दम तोडता नजर आता है। जिस बिहार में बीते पांच साल में 54 हजार अपराधियों के खिलाफ पुलिस-अदालत कार्रवाई करती है वहीं तीन साल से विधायक पर लगे यौन शोषण के आरोप पर पुलिस-प्रशासन खामोश रहती है और सत्ता इसे राजनीतिक साजिश करार देकर टालती है। उसका हश्र जब हत्या में तब्दील होता है और हत्यारी शिक्षिका बिना चेहरा छुपाये बेखौफ बोलती है कि उसे फांसी दे दी जाये तो समझना जरूरी है कि लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र के हर पाये के प्रभावी अपनी सत्ता की हिफाजत को ही लोकतंत्र क्यों कहने लगे हैं। अगर सत्ता का यह प्रभावी तबका खुद की गोलबंदी को ही लोकतंत्र कहने लगा है तो उसकी वजह क्या है। और लोकतंत्र की परिभाषा अगर सिर्फ सत्ता में बसा दी गयी है तो बड़ा सवाल अब लोकतंत्र का नहीं देश का है जिसके आगे संसदीय व्सवस्था भी छोटी है और संविधान भी कमजोर। इसलिये जो कानून विनायक सेन को राजद्रोही करार देता है उस कानून पर अंगुली उठाने से पहले सत्ता पर अंगुली उठाने की तमीज सीखनी होगी नहीं तो कल ऊंची अदालत विनायक सेन को रिहा कर देगा और फिर समूची बहस सत्ता की परछाई तले लोकतंत्र की परिभाषा तले दबकर सुधार का सवाल खड़ा कर खामोश हो जायेगी।
यानी निचली अदालत में चुटकुले गढे जा रहे थे और काला कानून अपना काम कर रहा था। आखिर में एक मैजिस्ट्रेट जज ने जो फैसला सुनाया उस पर समूचे देश में हंगामा खडा हो गया। दरअसल किसी भी देश का लोकतंत्र जब कमजोर पडता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को संभालने वाले पाये ही कमजोर होते हैं। फिर यही पाये एक दूसरे का सहारा लेकर अपनी हुकुमत बनाये रखने की हिमाकत शुरु करते हैं। भारत का लोकतंत्र असल में इसी दौर से गुजर रहा है। जहां अपनी जरुरत बनाये रखने के लिये लोकतंत्र का हर पाया ही दूसरे कमजोर या घुन लग चुके पाये की जरूरत को सही ठहरा कर अपनी उपयोगिता को साबित करने में लगा है। भारत में तो संसदीय व्यवस्था को ही लोकतंत्र का पर्याय बनाया गया। यानी आम आदमी की नुमाइंदगी करती सरकार की नीतियों में ही आम जनता की जरूरत देखी गयी। लेकिन कार्यपालिका-विधायिका या न्यायपालिका के साथ साथ चौथा पाया मीडिया की भूमिका भी इस दौर में अपने से इतर दूसरे पाये की ही जरूरत बताती नजर आयी। यानी संसदीय लोकतंत्र पर आस बने रहे इसकी जद्दोजहद ही हर पाये ने अपने ऊपर से भरोसा उठने पर की। अगर छत्तीसगढ़ सरकार माओवादियों के नाम पर अपने खनन का रास्ता खोल कर करोड़ों के वारे न्यारे करना चाहती है, तो बंगाल की वामपंथी सरकार भी माओवाद के नाम पर अपनी उस राजनीति को सही ठहराना चाहती है जो जमीन, मजदूर, किसान से हटकर कैडर को लाभ पहुंचाने के लिये मुनाफे की थ्योरी तले कभी बाजारवाद तो कभी ओद्योगिकरण का राग अलापती है। यही खेल गुजरात में विकास तले मोदीत्व की राजनीति का अलख जगाने के लिये होता है और उसका भ्रष्ट चेहरा कर्नाटक में येदुरप्पा की नीतियों के जरिये उभरता है।
विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन तो दिल्ली पहुंच कर राज्य के आतंक को बयां भी कर पाती हैं। लेकिन सौराष्ट्र का मुसलमान और बेल्लारी के किसान तो अपने जिला मुख्यालय में कलेक्टर-एसपी या अदालत तक पहुंच कर यह बताने का दम नहीं रखता कि उसका जीना सत्ताधारी के आगे रेंगकर चलने के बाद भी संभव है। लेकिन यह आतंक लोकतंत्र का परचम लहराते हुये अक्सर न्यापालिका की दुहाई देने से नहीं कतराता। देश के गृहमंत्री चिदबरंम इलिना सेन को बहलाते हैं कि ऊपरी अदालत में अपील करने से विनायक का रास्ता निकल सकता है तो येदुरप्पा बेल्लारी के किसान-मजदूरो को फुसलाते है कि अगर उनकी जमीन पर कोई गैर कानूनी खनन कर रहा है तो अदालत का दरवाजा खटखटाये न्याय मिल जायेगा। जबकि राज्य व्यवस्था का पाठ पढ़े बगैर ही कोई भी यह जानता समझता है निचली अदालत के किसी जज का हाई कोर्ट के जज तक पहुंचने का रास्ता उसी मुख्यमंत्री के तले से गुजरता है जिसकी नीतियों को लागू कराने का काम पुलिस प्रशासन लगा रहता है। और अदालत भी कोई भी फैसला राज्य हित में कानून लागू करने के लिये देता है। लेकिन, कानून और राज्य हित ही अगर सत्ता बनाये रखने या सत्ता अपना मुनाफा बनाने के लिये शुरु कर दें तो फिर नकेल कसेगा कौन और न्याय की परिभाषा होगी क्या। यह सवाल विनायक सेन पर फैसले से लेकर महाराष्ट्र के दलित पत्रकार एक्टीविस्ट सुधीर धावले की गिरफ्तारी से भी उभरता है। विद्रोही नामक पत्रिका निकालने वाले सुधीर को पुलिस ने इसलिये पकड़ा क्योंकि वह विदर्भ से लेकर मुबंई तक में दलित से लेकर आम लोगो से जुडे मुद्दो में लोकतांत्रिक तरीके से शिरकत करता था। विदर्भ के खैरलांजी से लेकर मुंबई के रमाबाई अंबेडरनगर के आंदोलन से जुडा रहा। लोकतांत्रिक तरीके से लोगों को जोड़ा और दलितों के सवालों को हक के दायरे में रखकर संसदीय राजनीति से इतर अपने बूते अपने सवालों को उठाया।
असल में लोकतंत्र के हर पाये को यह बर्दाश्त नहीं है कि उसकी जरूरत को ही उसके घेरे में कोई मुद्दा खत्म कर दे। माओवाद संसदीय राजनीति के खिलाफ है। यानी एक दूसरी व्यवस्था का सवाल। लोकतांत्रिक आंदोलन अदालती प्रक्रिया के खिलाफ है यानी कानूनी तौर तरीकों से इतर सहमति के आधार पर सामाजिक फैसलों को मानवाधिकार के तहत मानने की सोच। मानवाधिकार पहल उस नौकरशाही के खिलाफ है जिसे लागू करने का काम राज्य का है लेकिन भ्रष्ट बाबूओं की वजह से ही जब संविधान में दर्ज न्यूनतम मौलिक अधिकार भी नहीं मिलते तो मानवाधिकार हनन के खिलाफ संघर्ष सड़क पर होता है और पुलिस प्रशासन कितने अमानवीय है यह सवाल लोगों के बीच रेंगने लगता है। और इन तमाम पहलुओ को जनता के बीच दिखाने-ले जाने के बदले मीडिया भी यह बताने से नहीं चूकता कि जब लोकतंत्र का हर पाया मौजूद है तब जमा होकर आंदोलन या मानवाधिकार के सवालों को उठाना राज्य की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना है। तभी यह सवाल खडा होता है कि लोकतंत्र की परिभाषा अब किस तरह गढ़ी जाये, क्योंकि कल तक संसदीय राजनीति ही लोकतंत्र का पर्याय थी लेकिन जब वही लोकतंत्रिक मूल्यों को खत्म कर तानाशाह के तौर पर अपनी हुकुमत को ही लोकतंत्र बताने लगेगी तो व्यवस्था बड़ी या आम आदमी यह सवाल उठेगा ही।
हाल के घपलों-घोटालों में कैबिनेट मंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री तक फंसे, भ्रष्टाचार के घेरे में जज से लेकर पूर्व चीफ जटिस्स तक का नाम आया। नौकरशाहों के फेरहिस्त में बीडीओ से लेकर केन्द्र में सचिव स्तर के अधिकारी तक फंसे। कारपोरेट जगत के सर्वेसर्वा से लेकर सिटी बैंक के सबसे बडे ऑफिसर तक ने घपला-घोटाला कर अपना लाभ बनाया। ज्यादातर मामलों में साफ-साफ दिखा कि देश को चूना लगाकर हर किसी ने कमाई की। लेकिन कभी कारपोरेट ने मंत्री की तो मंत्री ने न्यायपालिका की तो न्यायपालिका ने कानून मंत्रालय की तो कानून मंत्रालय ने लोकतंत्र की दुहाई देकर हर किसी की जरुरत देश में लोकतंत्र का नाम लेकर कानून का राज स्थापित करने की ऐसी-ऐसी परिभाषा दी जिसमें देश के प्रधानमंत्री भी यह कहने से नहीं चूके कि वह तो मि. क्लीन हैं अब उनके मातहत कोई भ्रष्ट है तो वह क्या करें। यानी शासन की समूची प्रक्रिया ही जब संविॆधान के दायरे में इस तरह बनायी गयी है जहा वी द पीपुल, फार द पीपुल का सवाल हर तरक्की के लिये वी द गवर्मेंट, फार द गर्वमेंट हो जाये और गर्वमेंट का मतलब कही पीएम, कही सीएम तो कही टाटा और कही रिलायंस और कही बरखा वीर हो जाये तब आप क्या करेंगें। यानी लोकतंत्र का हर पाया एक सरीखा हो तभी वह प्रभावी पाया माना जाये तो क्या होगा। दरअसल संसदीय व्यवस्था का यही चेहरा अभी का नायाब लोकतंत्र है। जिसमें चैक एंड बैलेस का खेल सिर्फ बैंलस पर जा टिका है और हर क्षेत्र में लोकतंत्र का तमगा उसी की छाती पर टंगा है जो अपने घेरे में सत्ताधारी है। यानी निर्णय लेकर उसे अपनी शर्तों पर लागू कराने के हिम्मत रखता है।
आधुनिक लोकतंत्र तले इसे सिंगल विंडो विकास यानी एक खिडकी लाईसेंस माना जाता है। यूपी में मायावती, गुजरात में नरेन्द्र मोदी, दिल्ली में शीला दीक्षित, छत्तीसगढ़ में रमन सिंह यानी हर राज्य हर सीएम, केन्द्र में कैबिनेट मंत्री से लेकर पीएम और दस जनपथ, नार्थ-साउथ ब्लॉक में नौकशाहों की पूरी फौज वहीं शास्त्री भवन के बाबू लोग से लेकर कारपोरेट समूहो के लॉबिस्ट और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तले इलाहबाद हाईकोर्ट सरीखे अंकल जजों की फौज। इससे इतर लोकतंत्र कहा रेंगता है। लोकतंत्र तो नीतीश के सुशासन तले हाई प्रोफाइल भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद उभरे सवालों में भी दम तोडता नजर आता है। जिस बिहार में बीते पांच साल में 54 हजार अपराधियों के खिलाफ पुलिस-अदालत कार्रवाई करती है वहीं तीन साल से विधायक पर लगे यौन शोषण के आरोप पर पुलिस-प्रशासन खामोश रहती है और सत्ता इसे राजनीतिक साजिश करार देकर टालती है। उसका हश्र जब हत्या में तब्दील होता है और हत्यारी शिक्षिका बिना चेहरा छुपाये बेखौफ बोलती है कि उसे फांसी दे दी जाये तो समझना जरूरी है कि लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र के हर पाये के प्रभावी अपनी सत्ता की हिफाजत को ही लोकतंत्र क्यों कहने लगे हैं। अगर सत्ता का यह प्रभावी तबका खुद की गोलबंदी को ही लोकतंत्र कहने लगा है तो उसकी वजह क्या है। और लोकतंत्र की परिभाषा अगर सिर्फ सत्ता में बसा दी गयी है तो बड़ा सवाल अब लोकतंत्र का नहीं देश का है जिसके आगे संसदीय व्सवस्था भी छोटी है और संविधान भी कमजोर। इसलिये जो कानून विनायक सेन को राजद्रोही करार देता है उस कानून पर अंगुली उठाने से पहले सत्ता पर अंगुली उठाने की तमीज सीखनी होगी नहीं तो कल ऊंची अदालत विनायक सेन को रिहा कर देगा और फिर समूची बहस सत्ता की परछाई तले लोकतंत्र की परिभाषा तले दबकर सुधार का सवाल खड़ा कर खामोश हो जायेगी।
Friday, January 7, 2011
बोफोर्स का जिन्न सत्ता पलट सकता है
क्या बोफोर्स का जिन्न 22 बरस बाद फिर सत्ता पलट सकता है? भाजपा चाहे इसके कयास लगाने लगे लेकिन इन बीस बरस में भ्रष्टाचार कैसे देश की नसों में दौडने लगा है और विकास की अंधी दौड में हर सरकारी मंत्रालय के लिये भ्रष्टाचार अगर राहत का सबब बना है तो भ्रष्ट्राचार के आसरे विकास की लकीर खींचने को ही कॉरपोरेट समूह जायज भी मान चुके हैं। इसीलिये बोफोर्स का सवाल उठाने से पहले अभी के हालात समझ लें।
देश के सामने पहली बार कैबिनेट मंत्री से लेकर राज्यों के सीएम और बैंकों के अधिकारियों से लेकर केन्द्र में सचिव स्तर के नौकरशाह, साथ ही सरकारी नौरत्न से लेकर टाटा-अंबानी सरीखे बेशकीमती कॉरपोरेट समूह भ्रष्टाचार के घेरे में फंसते दिखे हैं और इनके भ्रष्टाचार के अक्स में देश का विकास देखने की हिम्मत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाले भी हुये हैं। यानी भ्रष्टाचार आर्थिक सुधार की जरुरत है। विकास का पर्याय है। और इसे सरकारी लाइसेंस देने में कुछ हर्ज नहीं है। कुछ इसी तरह की उदारवादी सोच भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ मनमोहन सिंह ने विकास की थ्योरी के जरिये जोड़ दी है। इसीलिये भ्रष्टाचार के जिन मामलो को लेकर देश में बवाल मचा हुआ है और भाजपा को अब यह लग रहा है भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बनाकर सत्ता पलटी जा सकती है उसकी हकीकत है क्या, इसे परखने से पहले जरा भ्रष्ट्राचार की नींव पर विकास और राहत की नीतियों को समझना जरुरी है, जिस पर किसी ने कोई हंगामा इस देश में नहीं मचाया। किसानों की राहत के लिये देश में ग्रामीण बैकों और राष्ट्रीयकृत बैंकों को सरकार ने नीतियों और पैकेज के तहत बीते दस बरस एक हजार आठ सौ करोड से ज्यादा की रकम पहुंची। लेकिन किसानों तक इस राहत का कितना अंश पहुंचा होगा, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि विदर्भ और तेलांगना क्षेत्र के किसानों को बीते पांच साल में औसतन राहत ढाई हजार रुपये प्रति किसान प्रति बरस की मिली। यानी हर महीने दो सौ आठ रुपये। जबकि सरकारी खाता बताता है कि उन्हें सालाना साठ हजार से सवा लाख रुपये तक मिलने थे तो बाकी रकम कहां गयी ?
अभी सीटी बैंक के 300 करोड़ के घोटाले को लेकर हंगामा मचा है कि ग्राहकों का पैसा कैसे बिना पूछे बाजार में बैंकों के अधिकारियो ने लगा दिया। लेकिन छह दस बरस में राष्ट्रीयकृत बैकों ने उघोगों को बसाने और चलाने के नाम पर पचपन लाख करोड से ज्यादा का लोन अपने बूते दिया। लेकिन इस लोन की एवज में देश को उघोगों का काफिला मिल गया ऐसा भी नहीं है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा दस लाख करोड़ का लोन उघोगों को शुरु करने और फिर बीमार बताकर डकारने का खेल बैंकों के अधिकारियों और उघोगपतियों के साझी सहमति के बीच हुआ। इतना पैसा कहां गया, इसका जवाब बैकों की यूनियन आज भी पूछती है तो कोई जबाव नहीं मिलता। रिजर्व बैंक ने भी कई सवाल इस पर खड़ा किये लेकिन गोल-मोल जवाब का अर्थ यही निकला कि कोई उद्योग बीमार हो जायेगा इसकी जानकारी पहले से कैसे लगेगी। संयोग से एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम के तहत बीते दस बरस में तीस हजार से ज्यादा उद्योग बीमार यानी सीक यूनिट में तब्दील हो गये। लेकिन इस सीक यूनिट का खेल यही नहीं रुका बल्कि दोबारा एमआईडीसी की नयी जमीन पर उसी उघोगपति ने दोबारा उघोग नये नाम से लगाया और बैंको ने उसे फिर से लोन दिया। चूंकि हर उद्योगपति के रिश्ते राजनीति से हैं या राजनेता ही उघोगपति है तो बैंको का दोहन रोक कौन सकता है।
पुणे के पिपरीं चिंचवाड से लेकर नागपुर के बूटीबोरी के एमआईडीसी इलाके में एनसीपी,काग्रेस, भाजपा,शिवसेना सभी के नेताओ के उद्योग लगे, बीमार हुये और फिर दूसरे नाम से उन्ही मशीनो के आसरे चल पड़े, जो बैको के दस्तावेजो में पहले बीमार हो चुके थे। मुंबई के आदर्श सोसायटी और पुणे की लवासा सीटी की जमीन को लेकर राजनीतिक हंगामा जो भी मचा लेकिन उघोग और जनहितकारी योजनाओ के नाम पर नेताओ ने ही खेती की जमीन सरकार से कैसे और कितनी हडपी इसकी सूची हर राज्य में इतनी लंबी है कि उसका ओर-छोर पकडने वाला भी उसमें शरीक दिखायी देता है, इसलिये यह मामला कहीं उठता ही नहीं।
महाराष्ट्र के तीस राजनेताओ के पास तीन हजार एकड़ की अवैध खेती योग्य जमीन है। इन्होने अलग-अलग योजनाओ के नाम पर यह जमीन ली। योजना कोई शुरु हुई नहीं और जमीन पर नेता के परिवार का धंधा चल पडा । मध्यप्रदेश में 21 नेताओ के नाम सरकारी फाइलों में हैं, जिन्होंने खेती ही नहीं आदिवासियो की जमीन भी विकास के नाम पर हथियाई है। यह जमीन छिंदवाडा, जबलपुर, देवास, सतना, दामोह तक फैला है। यहा कोई उघोग , कोई योजना शुरु हुई नहीं। हां, जबलपुर जैसी जगह पर योजना के नाम की जमीन रीयल स्टेट में तब्दील जरुर हो गयी। कॉमनवेल्थ गेम्स में पैसा बनाने के लिये कैसे सात सौ करोड की योजना एक लाख करोड तक जा पहुंची इसको लेकर जो भी हंगामा मचा हो लेकिन देश में पावर प्रोजेक्ट लाने के लिये जिन जिन लोगो या कंपनियों को बीते दस बरस में ठेके मिलते चले गये और पावर प्रोजेक्ट के नाम पर जो लोन बैको से उन्होने उठाया अगर उसी को जोड़ दिया जाये तो देश के सारे घोटालो की सारी रकम भी पार कर जायेगी। चूकि उससे पावर प्रोजेक्ट को लेकर कोई रकम निर्धारित रही नहीं या कहे किसी को पता नहीं थी, इसलिये पावर प्रोजेक्ट के नाम पर ही औसतन दो सौ करोड से ज्यादा पहली किश्त देश के अलग अलग बैको ने साठ से ज्यादा प्रोजेक्ट को लेकर दी है। महाराष्ट्र , आध्रंप्रदेश, कर्नाटक, उडीसा में सबसे ज्यादा पावर प्रोजेक्ट के लाइसेंस बंटे। हालांकि, आज की तारीख में भी पावर प्रोजेक्ट की तय रकम की जानकारी बैको के पास नहीं है और सरकार भी अब पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस देने से पहले सिर्फ इतना ही पूछती है कि पावर प्रोजेक्ट बनने के बाद वह प्रति यूनिट बिजली कितने में बेचेंगे। जिसपर आज भी कोई आखिरी निर्णय नहीं लिया जा सका है। लेकिन जिन्हे भी पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस मिला, उसका दूसरा सच यही है कि 2 जी स्पेक्ट्रम की तर्ज पर लाइसेंस लेने वालो ने लाउसेंस ही दो सौ करोड से पांच सौ करोड़ तक में उन कंपनियो को बेचा, जो पावर प्लांट बनाने और चलाने में अनुभवी थी।
यानी यह सवाल दूर की गोटी है कि नीरा राडिया सरीखे बिचौलिये कैसे किस योजना का लाइसेंस सरकार के किस मंत्रालय से किस-किस के लिये कितनी रकम देकर निकाल लेते हैं और मंत्री उन्ही लाइसेंसो के जरीये देश को बताता है कि विकास की फलां लकीर वह फलां योजना के तहत ला रहा है। इसी पर देश भी खुश होता है और प्रधानमंत्री भी मंत्री की पीठ ठोंकते हैं। फिर वही लाइसेंस बाजार में बेचा जाता है। छत्तीसगढ में बन रहा बीएचईएल का पावर प्लांट कितने में कैसे एनटीपीसी ने दिया यह सिर्फ इसका एक नमूना मात्र है। लेकिन पावर प्लांट का सवाल बैंकों के लोन से शुरु हुआ था तो उसका असर यही है कि जितने लाइसेंस बांटे गये, उसका सिर्फ नौ फिसदी पावर प्रोजेक्ट ही अभी तक शुरु हुये हैं। और लोन की रिकवरी का कोई अता-पता किसी को नहीं है। यही हाल एसईजेड के सवा तीन सौ लाइसेंसो का है। जिन्हें विकास की आधुनिक रेखा माना गया। खुद प्रधानमंत्री ने भी एसआईजेड से देश की तस्वीर बदलते हुये देखी। तो वाणिज्य मंत्रालय से लेकर वित्त मंत्रालय ने गरी झंडी देनी शुरु की।
लेकिन अरबो के वारे-न्यारे कर जमीन भी हथियाई गई और जमीन हथियाने को विकास से भी जोड़ा गया। लेकिन छह बरस में एसईजेड का बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा नहीं हो पाया। घपलों-घोटालों की यह फेरहिस्त कितनी लंबी हो सकती है, यह पूछना जायज इसलिये नहीं है क्योकि देश की अर्थव्यवस्था को ही जब भ्रष्टाचार से जोड़ दिया गया है तो फिर किसे कौन भ्रष्ट कहे और किसे ना कहे यह सवाल बेमानी है। क्योकि जांच करने वाली सीबीआई के कान अदालत ने उस बोफोर्स मामले में ऐंठें है, जिसके जरीये दो तिहाई बहुमत पर बैठे राजीव गांधी की सत्ता पलट गयी थी। ऐसे में बोफोर्स तोप खरीदी में घूस का सवाल 22 साल पहले के राजनीतिक नास्टेलिजिया को जगाकर सत्ता पलट सकता है, यह कहने से पहले किसी भी राजनीतिक दल को पहले ईमानदार होना होगा। जिसका लाइसेंस कहीं नहीं मिलता। यह फ्री में जनता देती है। और फिलहाल यह किसी राजनीतिक दल के पास है नहीं।
देश के सामने पहली बार कैबिनेट मंत्री से लेकर राज्यों के सीएम और बैंकों के अधिकारियों से लेकर केन्द्र में सचिव स्तर के नौकरशाह, साथ ही सरकारी नौरत्न से लेकर टाटा-अंबानी सरीखे बेशकीमती कॉरपोरेट समूह भ्रष्टाचार के घेरे में फंसते दिखे हैं और इनके भ्रष्टाचार के अक्स में देश का विकास देखने की हिम्मत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाले भी हुये हैं। यानी भ्रष्टाचार आर्थिक सुधार की जरुरत है। विकास का पर्याय है। और इसे सरकारी लाइसेंस देने में कुछ हर्ज नहीं है। कुछ इसी तरह की उदारवादी सोच भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ मनमोहन सिंह ने विकास की थ्योरी के जरिये जोड़ दी है। इसीलिये भ्रष्टाचार के जिन मामलो को लेकर देश में बवाल मचा हुआ है और भाजपा को अब यह लग रहा है भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बनाकर सत्ता पलटी जा सकती है उसकी हकीकत है क्या, इसे परखने से पहले जरा भ्रष्ट्राचार की नींव पर विकास और राहत की नीतियों को समझना जरुरी है, जिस पर किसी ने कोई हंगामा इस देश में नहीं मचाया। किसानों की राहत के लिये देश में ग्रामीण बैकों और राष्ट्रीयकृत बैंकों को सरकार ने नीतियों और पैकेज के तहत बीते दस बरस एक हजार आठ सौ करोड से ज्यादा की रकम पहुंची। लेकिन किसानों तक इस राहत का कितना अंश पहुंचा होगा, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि विदर्भ और तेलांगना क्षेत्र के किसानों को बीते पांच साल में औसतन राहत ढाई हजार रुपये प्रति किसान प्रति बरस की मिली। यानी हर महीने दो सौ आठ रुपये। जबकि सरकारी खाता बताता है कि उन्हें सालाना साठ हजार से सवा लाख रुपये तक मिलने थे तो बाकी रकम कहां गयी ?
अभी सीटी बैंक के 300 करोड़ के घोटाले को लेकर हंगामा मचा है कि ग्राहकों का पैसा कैसे बिना पूछे बाजार में बैंकों के अधिकारियो ने लगा दिया। लेकिन छह दस बरस में राष्ट्रीयकृत बैकों ने उघोगों को बसाने और चलाने के नाम पर पचपन लाख करोड से ज्यादा का लोन अपने बूते दिया। लेकिन इस लोन की एवज में देश को उघोगों का काफिला मिल गया ऐसा भी नहीं है। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा दस लाख करोड़ का लोन उघोगों को शुरु करने और फिर बीमार बताकर डकारने का खेल बैंकों के अधिकारियों और उघोगपतियों के साझी सहमति के बीच हुआ। इतना पैसा कहां गया, इसका जवाब बैकों की यूनियन आज भी पूछती है तो कोई जबाव नहीं मिलता। रिजर्व बैंक ने भी कई सवाल इस पर खड़ा किये लेकिन गोल-मोल जवाब का अर्थ यही निकला कि कोई उद्योग बीमार हो जायेगा इसकी जानकारी पहले से कैसे लगेगी। संयोग से एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगम के तहत बीते दस बरस में तीस हजार से ज्यादा उद्योग बीमार यानी सीक यूनिट में तब्दील हो गये। लेकिन इस सीक यूनिट का खेल यही नहीं रुका बल्कि दोबारा एमआईडीसी की नयी जमीन पर उसी उघोगपति ने दोबारा उघोग नये नाम से लगाया और बैंको ने उसे फिर से लोन दिया। चूंकि हर उद्योगपति के रिश्ते राजनीति से हैं या राजनेता ही उघोगपति है तो बैंको का दोहन रोक कौन सकता है।
पुणे के पिपरीं चिंचवाड से लेकर नागपुर के बूटीबोरी के एमआईडीसी इलाके में एनसीपी,काग्रेस, भाजपा,शिवसेना सभी के नेताओ के उद्योग लगे, बीमार हुये और फिर दूसरे नाम से उन्ही मशीनो के आसरे चल पड़े, जो बैको के दस्तावेजो में पहले बीमार हो चुके थे। मुंबई के आदर्श सोसायटी और पुणे की लवासा सीटी की जमीन को लेकर राजनीतिक हंगामा जो भी मचा लेकिन उघोग और जनहितकारी योजनाओ के नाम पर नेताओ ने ही खेती की जमीन सरकार से कैसे और कितनी हडपी इसकी सूची हर राज्य में इतनी लंबी है कि उसका ओर-छोर पकडने वाला भी उसमें शरीक दिखायी देता है, इसलिये यह मामला कहीं उठता ही नहीं।
महाराष्ट्र के तीस राजनेताओ के पास तीन हजार एकड़ की अवैध खेती योग्य जमीन है। इन्होने अलग-अलग योजनाओ के नाम पर यह जमीन ली। योजना कोई शुरु हुई नहीं और जमीन पर नेता के परिवार का धंधा चल पडा । मध्यप्रदेश में 21 नेताओ के नाम सरकारी फाइलों में हैं, जिन्होंने खेती ही नहीं आदिवासियो की जमीन भी विकास के नाम पर हथियाई है। यह जमीन छिंदवाडा, जबलपुर, देवास, सतना, दामोह तक फैला है। यहा कोई उघोग , कोई योजना शुरु हुई नहीं। हां, जबलपुर जैसी जगह पर योजना के नाम की जमीन रीयल स्टेट में तब्दील जरुर हो गयी। कॉमनवेल्थ गेम्स में पैसा बनाने के लिये कैसे सात सौ करोड की योजना एक लाख करोड तक जा पहुंची इसको लेकर जो भी हंगामा मचा हो लेकिन देश में पावर प्रोजेक्ट लाने के लिये जिन जिन लोगो या कंपनियों को बीते दस बरस में ठेके मिलते चले गये और पावर प्रोजेक्ट के नाम पर जो लोन बैको से उन्होने उठाया अगर उसी को जोड़ दिया जाये तो देश के सारे घोटालो की सारी रकम भी पार कर जायेगी। चूकि उससे पावर प्रोजेक्ट को लेकर कोई रकम निर्धारित रही नहीं या कहे किसी को पता नहीं थी, इसलिये पावर प्रोजेक्ट के नाम पर ही औसतन दो सौ करोड से ज्यादा पहली किश्त देश के अलग अलग बैको ने साठ से ज्यादा प्रोजेक्ट को लेकर दी है। महाराष्ट्र , आध्रंप्रदेश, कर्नाटक, उडीसा में सबसे ज्यादा पावर प्रोजेक्ट के लाइसेंस बंटे। हालांकि, आज की तारीख में भी पावर प्रोजेक्ट की तय रकम की जानकारी बैको के पास नहीं है और सरकार भी अब पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस देने से पहले सिर्फ इतना ही पूछती है कि पावर प्रोजेक्ट बनने के बाद वह प्रति यूनिट बिजली कितने में बेचेंगे। जिसपर आज भी कोई आखिरी निर्णय नहीं लिया जा सका है। लेकिन जिन्हे भी पावर प्रोजेक्ट का लाइसेंस मिला, उसका दूसरा सच यही है कि 2 जी स्पेक्ट्रम की तर्ज पर लाइसेंस लेने वालो ने लाउसेंस ही दो सौ करोड से पांच सौ करोड़ तक में उन कंपनियो को बेचा, जो पावर प्लांट बनाने और चलाने में अनुभवी थी।
यानी यह सवाल दूर की गोटी है कि नीरा राडिया सरीखे बिचौलिये कैसे किस योजना का लाइसेंस सरकार के किस मंत्रालय से किस-किस के लिये कितनी रकम देकर निकाल लेते हैं और मंत्री उन्ही लाइसेंसो के जरीये देश को बताता है कि विकास की फलां लकीर वह फलां योजना के तहत ला रहा है। इसी पर देश भी खुश होता है और प्रधानमंत्री भी मंत्री की पीठ ठोंकते हैं। फिर वही लाइसेंस बाजार में बेचा जाता है। छत्तीसगढ में बन रहा बीएचईएल का पावर प्लांट कितने में कैसे एनटीपीसी ने दिया यह सिर्फ इसका एक नमूना मात्र है। लेकिन पावर प्लांट का सवाल बैंकों के लोन से शुरु हुआ था तो उसका असर यही है कि जितने लाइसेंस बांटे गये, उसका सिर्फ नौ फिसदी पावर प्रोजेक्ट ही अभी तक शुरु हुये हैं। और लोन की रिकवरी का कोई अता-पता किसी को नहीं है। यही हाल एसईजेड के सवा तीन सौ लाइसेंसो का है। जिन्हें विकास की आधुनिक रेखा माना गया। खुद प्रधानमंत्री ने भी एसआईजेड से देश की तस्वीर बदलते हुये देखी। तो वाणिज्य मंत्रालय से लेकर वित्त मंत्रालय ने गरी झंडी देनी शुरु की।
लेकिन अरबो के वारे-न्यारे कर जमीन भी हथियाई गई और जमीन हथियाने को विकास से भी जोड़ा गया। लेकिन छह बरस में एसईजेड का बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर भी खड़ा नहीं हो पाया। घपलों-घोटालों की यह फेरहिस्त कितनी लंबी हो सकती है, यह पूछना जायज इसलिये नहीं है क्योकि देश की अर्थव्यवस्था को ही जब भ्रष्टाचार से जोड़ दिया गया है तो फिर किसे कौन भ्रष्ट कहे और किसे ना कहे यह सवाल बेमानी है। क्योकि जांच करने वाली सीबीआई के कान अदालत ने उस बोफोर्स मामले में ऐंठें है, जिसके जरीये दो तिहाई बहुमत पर बैठे राजीव गांधी की सत्ता पलट गयी थी। ऐसे में बोफोर्स तोप खरीदी में घूस का सवाल 22 साल पहले के राजनीतिक नास्टेलिजिया को जगाकर सत्ता पलट सकता है, यह कहने से पहले किसी भी राजनीतिक दल को पहले ईमानदार होना होगा। जिसका लाइसेंस कहीं नहीं मिलता। यह फ्री में जनता देती है। और फिलहाल यह किसी राजनीतिक दल के पास है नहीं।