Friday, January 21, 2011

मुंबई के कैनवास पर पोयट्री और पेंटिंग है धोबी घाट

यह फिल्म बिना इंटरवल की है। 95 मिनट की इस फिल्म में कोई इंटरवल नहीं होगा। आप फिल्म शुरू होने से पहले अपने खाने-पीने का ऑर्डर दे सकते हैं। हमारे एक्सक्यूटिव आपका आर्डर लेने के लिये हाल में ही मौजूद हैं। हमारी कैंटिन में हॉट डॉग, चिकन बर्गर, स्नीकर वेज बर्गर, मसाला डोसा, समोसा और चाकलेट क्रीम खास तौर से हैं। और आपका प्रिय कोक- ...सिर्फ 110 रुपये का है। आप ऑर्डर करें और शो का मजा लें। और इसके बाद ऑर्डर देने की चहल-पहल फुसफुसाहट के साथ तेज होती गई और इन सब के बीच अचानक 10 रील की फिल्म धोबी घाट सिल्वर स्‍क्रीन पर किसी पेंटिग या पोयट्री की तर्ज पर रेंगने लगी। यह धोबी घाट के पहले दिन का पहला शो है।

मुंबई अगर कैनवास है तो धोबी घाट वाकई कैनवास पर उकेरी गई किसीपेंटिंग की तरह शुरू होती है। जो धीरे धीरे किरण राव की निजी डायरी में लिखीकिसी कविता की तर्ज पर उभरने लगती है। फिल्म में मुंबई की बरसात को देख आलोकधन्वा की कविता जहन में उभरती है

....आदमी तो आदमी / मै तो पानी के बारे में भी सोचता था /
कि पानी को भारत में बसना सिखाउगां ...

चार किरदारो के ईर्द-गिर्द घूमती फिल्म जिन्दगी की तालाश में निराशा की पीठ पर सवार होकर किरदारों के भीतर दर्शकों को घुसाने की जद्दोजहद ही लगातार करती है। इसलिये जो चार चरित्र मुबंईया मंच पर जिन्दगी के तमाशे में एक-दूसरे से शगल करते हैं वह हर माहौल में खुद को इतना अलग-थलग करते हैं कि दर्शक भी किसी चरित्र में ना तो मुंबई का कोईअक्स देख पाता है और ना ही खुद को उससे जुडा हुआ महसूस कर पाता है।

अमेरिका से आई एक लडकी मुंबई के एक कलाकार से टकराती है। कलाकार यानी कैनवास पर मुंबई के अनछुये पहलुओं को उभारने वाला पेंटर आमिर खान। जो हर वातावरण में खामोशी भरा माहौल ही अपने इर्द-गिर्द बनाकर जीता है। और मुंबई में खो चुके धंधो पर रिसर्च करने अमेरिका से पहुंची इस लड़की को कलाकार कुछ अलग लगता है जो उसकी संवेदना को हिला देता है। लेकिन कलाकार की संवेदना जिस दर्द को तलाशती है, संयोग से वह उसे किराये के नये घर की एक अलमारी में रखी किसी की जिन्दगी में मिलते हैं। जो वीडियो टेप में है। वहीं कलाकार के करीब पहुंचने का माध्यम अमेरिका से आयी लड़की को एक धोबी में दिखायी देता है। जिसे स्मिता पाटिल के बेटे प्रतीक बब्‍बर ने जीया है। और कमाल का जीया है। इन्हीं चार किरदारों के उलझे तारों को जोड़ने में किरण राव की मुंबई डायरी मुंबई के हर उस रंग को पकड़ने में जुटती है जिसका कोई भी सिरा कभी ना कभी किसी मुंबईकर की जिन्दगी की तारों को छेड़ चुका हो। इसमें मुंबई पर बनी पुरानी हर फिल्म का एसेंस किसी बे-जरूरत के सामान की तरह सामने आता है और अगले ही पल गायब हो जाता है। चाहे वह पेज-थ्री का माहौल हो या फिर झोपड़पट्टी का मवाद। चाहे वह अंधेरे में चूहों को मारनेवाले की त्रासदी हो या ड्रग का धंधा करने वालों के सपने।

फिल्‍म बार-बार सपनों के शहर मुंबई से भागकर अंधेरे में जिन्दगी टटोटलती मुंबई में ही अपना अक्स देखना चाहती है। इसलिये हर चरित्र की मौजदूगी में आमिर खान अलग जान पडता है। कलाकार की संवेदनाओं को जीता आमिर खान, लगने लगता है कि वह एक्टिंग कर रहा है और उससे इतर स्मिता पाटिल का बेटा हो या अमेरिका से आई लड़की या फिर वीडियो टेप में कैद लडकी की जिन्दगी....यह सभी स्‍क्रीन पर समुद्र किनारे लगने वाली हवा सरीखे ताजे लगते हैं। जबकि पुराने मुंबई के दो कमरे के चाल में रहकर भी आमिर कलाकार नहीं लग पाते। जो किरण राव से ज्यादा आमिर खान की अदाकारी की हार है। किरण भागती-दौड़ती मुंबई में हर किसी को अकेला ही देखती है। जिस्म की जरुरत से ज्यादा संवेदनाओ की जरूरत को टटोलती फिल्‍म हर बार उस मोड़ पर कमजोर हो जाती है जहां संवेदना प्यार या सेक्स की सोच के सामने हारती हुई लगती है। यहां किरण राव हारती हैं। क्योंकि कैनवास पर उपन्यास नहीं लिखा जाता और कविता कभी भी कोई मूर्ति नहीं होती जिसे देखने वाला अपनी समझ के मुताबिक मस्तिष्‍क पर कुछ भी उकेर ले। इसलिये फिल्म हर किसी को समेटने में जब अकेले पड़ती है तो सभी चरित्रों को भी दोबारा उसी जगह जोड़ती है जहां से उनकी जिन्दगी कुलबुलाहट के साथ शुरू हुई।

निरा अकेलापन कितना भी घातक हो लेकिन आस जगाने के बाद के अकेलेपन से ज्यादा त्रासदीपूर्ण नहीं होता। और धोबी धाट का अंत भी इसीलिये बिना किसी संवाद के भी जल्दबाजी में संवाद कायम करने की असहज सी कोशिश लगती है। हालांकि मुंबई के हर रंग को पकडने की जल्दबाजी भी फिल्म के आखिर में धोबी बने प्रतीक बब्बर के पिछे धुंधला सा दिखायी देता महाराष्ट्र नव निर्माण सेना का बोर्ड एक नयी मुंबई की आहट देता है। क्योंकि फिल्म का यह धोबी उत्तर भारतीय है, जो पेट की भूख मिटाने के लिए घर छोड़ मुंबई आ गया। इसलिये फिल्म खत्म होने के बाद सिनेमा हाल में ऑर्डर दिये गये खानपान की आवाज कहीं ज्यादा सुनायी देती है। और इस माहौल में किरण राव की हार-जीत दोनों दिखायी देती है। जीत इसलिये की बिना इंटरवल की फिल्म में कही रुक कर उबने का मौका किरण राव नहीं देती, जिसमें कोई खान-पान पर ध्यान दें। और हार इसलिये क्योंकि फिल्म खत्म होते ही दिमाग भी खाली लगता है और ऑर्डर मंगाने वाले खाने में जुट कर किरण राव पर यह कर चुटकी लेने से नहीं कतराते की फिल्म उनकी निजी डायरी है उसे सिल्वर स्क्रीन पर उकेरना आमिर खान का प्यार है ...देखनेवालों का नहीं। लेकिन यह फिल्म इसलिये भी देखनी चाहिये क्योकि अर्से बाद घोबी घाट देखनेवाले को ठहरा देती है। वह भूला देती है कि भागती-दौड़ती जिन्दगी में चुटकुले में तब्दील होती फिल्म के आलावे भी सिल्वर स्क्रिन पर कोई रंग भरा जा सकता है। और साथ ही महंगाई से जूझते भारत जैसे देश में डेढ घंटे भी दर्शक बिना खाये-पीये नहीं बैठ पाते।

5 comments:

  1. prasun ji aapki bebak lekhani ka yeh andaj bhi koi chitrakari se kam thode hi hai. kiran rao ki kavita aur aamir ka pyar bas yahi dhobhighat hai. vaise bhi aamir ab bharatiya darskon ke liye kam aur oskar ke liye jyada filme bana rahe hain. jhopadpatti ka kutta karodpati shayad yahi hindi mayne hai oaskar jitne wali film ka. so ek hi film me is tarah ki chitrakari mumbaiya rango se rangkar dikhane per bhale hi darsak na dekhe oskar wwale jaroor dekhenge.

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  2. शुक्रिया.....कई जगह पढ़ा इसके बारे में ......पर आप ने इसे शायद सही एक्सप्लेन किया

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  3. The movie is like the emperor's cloth.It has only been created to exploit the frenzy created by last year block buster three idiots and perhapts to court a controversy by calling Mumbai Bombay repeatedly.Could anyone help me in locating a link between Amir's wife divorcing her and the lady in the video ending her life after being ditched by her Husband.Only touching part of the movie is the last few lines spoken by the girl in her third letter.

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  4. prasun ji aap hamesha badi khaber me bolte hai. bada mushkil hai is desh ko samajanaa... bus aap hamare under aag laga dete hai..par ghusa kese nikale koi rasta to bataiy

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