नशा क्रिकेट के खेल कासट्टाबाजार की मानें तो क्रिक्रेट का विश्वकप जीतने के सबसे ज्यादा आसार भारत के हैं। लेकिन विश्वकप जीत की खुमारी में कोई भी तस्वीर भारत के माथे पर चस्पा है तो वह 1983 की कपिलदेव की टीम इंडिया है, जो सिर्फ एक लाख रुपये के खर्चे पर इंग्लैंड रवाना हुई थी। उसके पास उस वक्त जीतने के लिये वाकई दुनिया थी और गंवाने के लिये सिर्फ टीम इंडिया का कैप। जिसके एवज में दस हजार से ज्यादा की कमाई किसी खिलाड़ी की नहीं थी। लेकिन 2011 में जब टीम इंडिया रवाना हुई तो हर खिलाडी के पैरो तले दुनिया है और जीत-हार का मतलब उसके लिये सिर्फ खेल है।
1983 में समूचा विश्वकप महज चालीस लाख में निपटा दिया गया था और दुनिया कपिलदेव के वह आतिशी 175 रन भी नहीं देख पायी थी क्योकि उस दिन बीबीसी की हड़ताल थी। लेकिन 2011 में क्रिक्रेट दिखाने वाले टीवी चैनल में एक दिन की हडताल का मतलब है 500 करोड़ का चूना लगना। और इस बार विश्वकप का खर्चा है पचास करोड़ रुपये। 1983 में हर भारतीय खिलाड़ी के पीछे देश का बीस हजार रुपये लगा था। और खिलाडियो के जरीये प्रचार करने वाली कंपनियो से खिलाड़ियों को कुल कमाई महज पचास हजार थी। लेकिन आज की तारीख में खिलाड़ियों के जरीये प्रचार करने वाली कंपनियों से खिलाड़ियों की कमाई सिर्फ पैंतीस हजार करोड़ की है।
जी, यह आंकडा सिर्फ भारतीय खिलाडियों का है। जिसका असर यही है कि विश्वकप की टीम में नौ खिलाड़ी अरबपति हैं और बाकी करोड़पति। लेकिन सवाल यह नहीं है कि देश में क्रिक्रेट की खुमारी सिर्फ पैसों पर रेंगती है। सवाल यह है कि जिस दौर में क्रिकेट बाजार में बदला उसी दौर में बाजार के जरीये देश को चूना लगाने वाले कॉरपोरेट के लिये खिलाड़ी ही बाजार बन गया। जिस दौर में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की आंच में प्रधानमंत्री भी आये हैं और सीबीआई कारपोरेट घरानों की परेड करा रही है, उसी दौर में टीवी पर उन्हीं दागदार कारपोरेट के प्रोडक्ट का प्रचार करते वही क्रिक्रेटर भी नजर आ रहे हैं, जिनके माथे पर टीम इंडिया का कैप है और जर्सी पर दागदार कंपनियों का स्टीकर।
असल में दागदार टेलीकॉम कंपनियां ही नहीं, रीयल इस्टेट से लेकर देश के खनिज संपदा को लूटने में लगी कंपनियों के भी प्रचार में यही क्रिक्रेटर सर्वोपरी हैं। अगले मुकाबलों में जब टीम इंडिया मैदान पर होगी तो हर खिलाडी की जर्सी को गौर से देखियेगा। हर जर्सी पर दो कंपनियों के स्टीकर का मतलब महज बाजार को ढोना भर नहीं है बल्कि इसकी एवज में मिलने वाली रकम भी विश्वकप जीतने के बाद मिलने वाली रकम से भी कई गुना ज्यादा है। तो पहली बात तो यह तय हो गयी कि क्रिक्रेट विश्वकप में जीत का उस रकम से कुछ भी लेना देना नहीं है जो विश्वकप के साथ मिलेगी। तब जीत किसलिये।
जाहिर है क्रिक्रेट एक खेल है तो खिलाडी को मान्यता जीत से ही मिलती है। लेकिन देश के भीतर 20-20 के आईपीएल के धंधे ने तो इस मान्यता की भी बोली लगा दी, जहां खिलाडी की जिन्दगी में चकाचौंघ और पांच सितारा समाज में घूमने-फिरने की ऐंठ खेल से ज्यादा उस पावर पर आ टिकी जहां खिलाड़ी मशीन में बदल गया। और तीन से चार ओवर में चौके-छक्के मार कर झटके में लाखो के वारे-न्यारे कर ले जाये। उसके बाद मनमोहनोमिक्स के चुनिंदा कारपोरेट के साथ गलबहिया डालकर खिलाड़ियों का खिलाड़ी बन जाये। तो विश्वकप में जीत की भूख टीम इंडिया में जगेगी कैसे। जाहिर है यहां सवाल देश के उन करोड़ों लोगों के जोश-उत्साह और उमंग का होगा, जिनकी रगों में क्रिक्रेट देश भक्ति के आसरे दौड़ता है और जीत का मलतब दुनिया को अपने पैरो तले देखने की चाहत होती है। यानी जिस 80 करोड़ आम जनता के हक को अपनी हथेली पर समेटकर चकाचौंध की व्यवस्था में राजनेता-कारपोरेट और नौकरशाह का कॉकटेल देश के राजस्व को ही लूट रहे हैं, उनके लिये वही क्रिक्रेट खिलाड़ी जीतना चाहेंगे, जो लूट की पूंजी में खुद बाजार बनकर खिलाड़ी बने हुये हैं।
असल में देश के सामने सबसे बड़ा संकट यही है कि जो व्यवस्था देश को आगे बढाने के नाम पर अपनायी जा रही है, वह चंद हाथों में सिमटी हुई है और पहली बार देश की ही कीमत अलग अलग तरीके से हर वह लगा रहा है जिससे उसे विश्वबाजार में मुनाफा मिल सके। मामला सिर्फ टेलिकाम के 2जी स्पेक्ट्रम या इसरो के एस बैंड का नहीं है। सवाल आदिवासी बहुल इलाको की खनिज-संपदा के खनन का भी है और खेती की जमीन पर कुकुरमुत्ते की तरह उगते उघोगो का भी है। सवाल गांव के गांव खत्म कर शहरीकरण के नाम पर सड़क से लेकर पांच सितारा हवाईअड्डो के विस्तार का भी है और पर्यावरण ताक पर रखकर रईसी के लिये लवासा सरीखे शहर को बसाने का भी है। और इस उभरते भारत की गांरटी लिये अगर क्रिक्रेटर ही आमजन की भवनाओं को अपनी कमाई तले जगाने लगे तो सवाल वाकई देश की असल धड़कन का होगा। क्या वाकई देश के हालात इस सच को स्वीकारने के लिये तैयार है कि कल तक जो विदेशी निवेश देश की मजबूत होती अर्थव्यवस्था का प्रतीक था, आज उसमें हवाला और मनी-लॉड्रिंग का खेल क्यों नजर आ रहा है। कल तक जो कारपोरेट सरकारी लाइसेंस के जरीये देश का विकास करता हुआ दिखता था आज वह देश के राजस्व को लूटने वाला क्यों लग रहा है। कल तक जो नौकरशाह जिस किसी भी मंत्रालय में कारपोरेट की योजनाओ की फाइल पर मंत्रीजी के संकेत मात्र से "ओके" लिखकर विकास की दौड में अपनी रिपोर्टकार्ड में " ए " ग्रेड पा लेता था। अब वहीं नौकरशाह नियम-कायदो का सवाल उठाकर उसी कारपोरेट के नीचे से रेड कारपेट खिंचने को तैयार है क्योकि भ्रष्टाचार पर सीबीआई से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक की नजर है। तो क्या खुली बाजार अर्थव्यव्स्था की हवा के दौर में देश की सत्ता भी अब विकास की परिभाषा बदलने के लिये तैयार है। अगर हां तो फिर नयी परिभाषा तले विश्वकप खेलने के लिये तैयार टीम इंडिया को परखना होगा। जिसके पास न तो 1983 के खिलाड़ियों की तरह क्रिक्रेट जीने का जरीया नहीं कमाने का जरीया है। उस वक्त नंगे पांव हर मैच-दर-मैच क्रिकेटर खुद को चैपियन बनाने में लगे थे यानी टीम इंडिया विकसित होने की दिशा में थी। लेकिन 2011 में टीम इंडिया खेल शुरु होने से पहले ही ना सिर्फ खुद को चैंपियन माने हुये हैं बल्कि जिन्दगी से आगे हर चकाचौंघ को अपनी हथेली पर चमकते हुये देखने का नशा है। हालांकि टीम इंडिया की जीत को लेकर करोड़ों आमजन के नशे में अब भी तिरंगे के लहराने और देश का माथा उंचा रखना ही है । लेकिन पहली बार देश के हालात में सियासत का खेल ज्यादा रोंमाच भरा है और सरकार-विपक्ष के साथ साथ जनता भी अब महंगाई और भ्रष्टाचार को लेकर 20-20 खेलने के मूड में आक्रामक है। ऐसे में 50 50 ओवर का वन-डे विश्वकप कितना रोमांच पैदा कर पायेगा यह देखना भी देश को पहली बार समझने जैसा ही होगा। इसलिये सट्टेबाजों पर ना जाइये जो 5 हजार करोड से ज्यादा की रकम जीत हार पर लगाकर भारत को चैंपियन बता रहा है। बल्कि दुआ मनाईये कि वाकई इस बार खेल से खिलाड़ी निकले । न कि भ्रष्ट व्यवस्था में पैसो की जमीन पर खिलाड़ियों के खिलाडी !
Tuesday, February 22, 2011
Thursday, February 17, 2011
संकट देश का जवाब पीएम का
क्या किसी देश का कोई प्रधानमंत्री देश को इस आधार पर भी चला सकता है, जहां मंत्रियों को बनाने में उसकी न चले और वही मंत्री जब कोई नीतिगत फैसला ले तो उसकी जानकारी प्रधानमंत्री को न हो। क्या यह भी संभव है कि प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार को तो न रोक पाये लेकिन देश से इस बात पर क्लीन चीट चाहें कि भ्रष्टाचारियों का नाम सामने आते ही उनके खिलाफ कार्रवाई करने से वह नहीं हिचकते। क्या लोकतंत्र या मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी तले किसी प्रधानमंत्री को वाकई इसलिये मिस्टर क्लीन कहा सकता है कि साथी-सहयोगी मंत्री-मंत्रालयों ने प्रधानमंत्री को ही किसी निर्णय पर अंधेरे में रखा तो प्रधानमंत्री क्या करें।
क्या किसी प्रधानमंत्री को इस मासूमियत पर छोडा जा सकता है कि वह अपने किये की गलती तो बतौर पीएम मान रहा है या देश की बदहाल स्थितियों के लिये वह नैतिक जिम्मदारी तो ले रहा है मगर प्रधानमंत्री पद छोड़ने को बेवकूफी मानता है। और समाधान का रास्ता बतौर पीएम रहते हुये घोटाले के लिये किसी भी समिति के सामने पेश होने को भी तैयार है और सरकार को पटरी पर लाने के लिय मंत्रिमंडल में फेरबदल का ऐलान भी कर रहा है। यानी 360 डिग्री का ऐसा खेल, जिसमें चोर व्यवस्था चले भी और कोतवाल बनकर चोरों को पकड़ने का रुतबा भी दिखाया जाये। अगर यह सब जायज है तो यकीन करना होगा कि मनमोहन सिंह से बेहतर प्रधानमंत्री वाकई इस देश को नहीं मिल सकता। ऐसे में मनमोहन सिंह का विकल्प छोड़, उनके कामकाज के दौरान उनके अन्तविरोधो में देश की वर्तमान व्यवस्था को परखना ही एकमात्र रास्ता है। जो बताता है कि मनमोहन सिंह की खटपट वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से चरम पर है। यानी कॉरपोरेट के धंधेबाजों को ठिकाने लगाने से और कोई नहीं वित्त मंत्री ही अडंगा लगाये हुये हैं। जो खुल्लम खुल्ला कभी अंबानी बंधुओं को बचपन से जानने का दावा बतौर मंत्री करते हैं तो कारपोरेट घरानो को लाभ पहुंचाने की नीतियों को बेरोक-टोक जारी रखना चाहते हैं। चाहे वह स्पेक्ट्रम घोटाले के दायरे में ही क्यों न फंसे हुये हों। इसलिये मनमोहन सिंह पहली बार 2जी स्पेक्ट्रम के निर्णयो की जानकारी वित्त मंत्रालय को होने की बात कहने से नहीं चूकते।
इसरो के एस बैंड को बेचने की जानकारी पीएमओ को 2005 से 2009 तक नहीं मिली। यानी जो विभाग प्रधानमंत्री के ही अधीन है, उसी के निर्णय अगर पीएम तक नहीं पहुंचते तो प्रधानमंत्री को अंधेरे में कौन रख रहा है या प्रधानमंत्री से ताकतवर कौन है। इस सवाल का जवाब सिर्फ इतना है कि जानकारी मिलते ही पीएम ने करार रद्द करने की दिशा में कदम उठा लिये। तो क्या मंत्रीमंडल ही नहीं नौकशाही और कारपोरेट के काकस की भी एक सत्ता इसी दौर में बन चुकी है, जिस पर नकेल कसने की स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं हैं। और जिस ए राजा को लेकर भ्रष्टा चार के सवाल 2007 में ही उठे थे, उस ए राजा को 2009 में दुबारा कैबिनेट मंत्री बनाना सरकार बने रहने की जरुरत थी और मनमोहन सिंह की वहां भी नहीं चली। यकीनन यह सच है क्योंकि मनमोहन सिंह खुद मानते हैं कि गठबंधन पर उनका जोर नहीं है।
तो क्या देश को चलाने वाले यूपीए का सिर्फ एक सिर बल्कि दस सिर हैं। अगर हां तो जिस भ्रष्टाचार और महंगाई के सवाल पर नकेल कसने की बात मनमोहन सिंह कर रहे हैं, उसका कौन सा छोर पीएमओ पकड़ सकता है। समझना यह भी जरुरी है। दरअसल,देश के सामने मौजूद किसी भी मुद्दों के समाधान के लिये कोई समयसीमा देने के लिये पीएम तैयार नहीं है। लूटने वालो की फेरहिस्त में जब मंत्री ए राजा, कॉरपोरेट के शाहिद बलवा और नौकशाह पूर्व सचिव सिद्दार्थ बेहुरा सीबीआई के फंदे में फंस चुके है तो फिर ईमानदार पहल अब किस संस्थान से किस तर्ज पर होगी इसका जवाब भी पीएम के पास नहीं है। इतना ही नहीं देश के हर संस्थान के ही दामन पर दाग क्यों हैं और आम आदमी का भरोसा ही आखिर क्यों हर संस्थान से टूटने लगा है जब इसका जवाब मनमोहन सिंह के पास सिर्फ इतना ही हो कि सीजंर की पत्नी के तर्ज पर पीएम को शक के दायरे से उपर रखना होगा। तो सवाल वाकई पहली बार यही निकल रहा है कि क्या मनमोहन सिंह बतौर पीएम इतने अकेले हैं या खुद को अकेले दिखाकर अपने असहायपन की नीलामी देश की व्यवस्था सुधारने के नाम पर कर रहे हैं। जहां उनकी पहली और आखिरी प्रथामिकता प्रधानमंत्री बने रहने की है। और चूंकि देश के सामने वैकल्पिक व्यवस्था के तौर वही नौकरशाह,कारपोरेट और राजनेताओ का काकस है, जिसकी प्रथमिकता देश को लूटकर अपना खजाना भरने की है तो फिर भ्रष्टाचार की फेरहिस्त में आदर्श सोसायटी,कामनवेल्थ गेम्स, सीवीसी, कालाधन, स्पेक्ट्रम,एस बैंड या महंगाई क्या मायने रखेगी। क्योंकि लूट के हर चेहरे को जब कार्यपालिका,विधायिका या न्यायपालिका से ही निकलना है तो फिर प्रधानमंत्री कोई भी हो उसे बदलने की दिशा में कदम बढ़ेगा कैसे। यानी कानून के राज की परिभाषा ही जब हर कोई गढ़ने के लिये तैयार हैं तो फिर सवाल भ्रष्टाचार का नहीं सरकारी व्यवस्था का होगा जो आर्थिक सुधार के दौर में लूटने वाली संसथाओ से लेकर हर लूटने वाले शख्स के लिये रेड कारपेट बना हुआ है। और इसी व्यवस्था को विकसित होते इंडिया में चकाचौंघ भारत का नारा दिया गया। इसीलिये जो एफडीआई कल तक देश के विकास की जरुरत थी, आज उसे हवाला और मनी लॉडरिंग का हथियार माना जा रहा है। कल तक कॉरपोरेट की जो योजनायें देश की जरुरत थीं, आज उसमें देश के राजस्व की लूट दिखायी दे रही है। कल पीएमओ की जिस रिपोर्टकार्ड में हर मंत्रालय की उपलब्धि का ग्रेड कारपोरेट की योजनाओ तले रखा गया था, आज उसे भ्रष्टाचार माना जा रहा है। तो संपादको के सवालो पर प्रधानमंत्री का जवाब भी देश का आखिरी सच है कि पीएम बदलने से रास्ता नहीं निकलेगा। और इसके अक्स में छुपा हुआ जबाव यह भी है की पीएम के बरकारार रहने से उम्मीद और भरोसा और टूटेगा।
क्या किसी प्रधानमंत्री को इस मासूमियत पर छोडा जा सकता है कि वह अपने किये की गलती तो बतौर पीएम मान रहा है या देश की बदहाल स्थितियों के लिये वह नैतिक जिम्मदारी तो ले रहा है मगर प्रधानमंत्री पद छोड़ने को बेवकूफी मानता है। और समाधान का रास्ता बतौर पीएम रहते हुये घोटाले के लिये किसी भी समिति के सामने पेश होने को भी तैयार है और सरकार को पटरी पर लाने के लिय मंत्रिमंडल में फेरबदल का ऐलान भी कर रहा है। यानी 360 डिग्री का ऐसा खेल, जिसमें चोर व्यवस्था चले भी और कोतवाल बनकर चोरों को पकड़ने का रुतबा भी दिखाया जाये। अगर यह सब जायज है तो यकीन करना होगा कि मनमोहन सिंह से बेहतर प्रधानमंत्री वाकई इस देश को नहीं मिल सकता। ऐसे में मनमोहन सिंह का विकल्प छोड़, उनके कामकाज के दौरान उनके अन्तविरोधो में देश की वर्तमान व्यवस्था को परखना ही एकमात्र रास्ता है। जो बताता है कि मनमोहन सिंह की खटपट वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से चरम पर है। यानी कॉरपोरेट के धंधेबाजों को ठिकाने लगाने से और कोई नहीं वित्त मंत्री ही अडंगा लगाये हुये हैं। जो खुल्लम खुल्ला कभी अंबानी बंधुओं को बचपन से जानने का दावा बतौर मंत्री करते हैं तो कारपोरेट घरानो को लाभ पहुंचाने की नीतियों को बेरोक-टोक जारी रखना चाहते हैं। चाहे वह स्पेक्ट्रम घोटाले के दायरे में ही क्यों न फंसे हुये हों। इसलिये मनमोहन सिंह पहली बार 2जी स्पेक्ट्रम के निर्णयो की जानकारी वित्त मंत्रालय को होने की बात कहने से नहीं चूकते।
इसरो के एस बैंड को बेचने की जानकारी पीएमओ को 2005 से 2009 तक नहीं मिली। यानी जो विभाग प्रधानमंत्री के ही अधीन है, उसी के निर्णय अगर पीएम तक नहीं पहुंचते तो प्रधानमंत्री को अंधेरे में कौन रख रहा है या प्रधानमंत्री से ताकतवर कौन है। इस सवाल का जवाब सिर्फ इतना है कि जानकारी मिलते ही पीएम ने करार रद्द करने की दिशा में कदम उठा लिये। तो क्या मंत्रीमंडल ही नहीं नौकशाही और कारपोरेट के काकस की भी एक सत्ता इसी दौर में बन चुकी है, जिस पर नकेल कसने की स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं हैं। और जिस ए राजा को लेकर भ्रष्टा चार के सवाल 2007 में ही उठे थे, उस ए राजा को 2009 में दुबारा कैबिनेट मंत्री बनाना सरकार बने रहने की जरुरत थी और मनमोहन सिंह की वहां भी नहीं चली। यकीनन यह सच है क्योंकि मनमोहन सिंह खुद मानते हैं कि गठबंधन पर उनका जोर नहीं है।
तो क्या देश को चलाने वाले यूपीए का सिर्फ एक सिर बल्कि दस सिर हैं। अगर हां तो जिस भ्रष्टाचार और महंगाई के सवाल पर नकेल कसने की बात मनमोहन सिंह कर रहे हैं, उसका कौन सा छोर पीएमओ पकड़ सकता है। समझना यह भी जरुरी है। दरअसल,देश के सामने मौजूद किसी भी मुद्दों के समाधान के लिये कोई समयसीमा देने के लिये पीएम तैयार नहीं है। लूटने वालो की फेरहिस्त में जब मंत्री ए राजा, कॉरपोरेट के शाहिद बलवा और नौकशाह पूर्व सचिव सिद्दार्थ बेहुरा सीबीआई के फंदे में फंस चुके है तो फिर ईमानदार पहल अब किस संस्थान से किस तर्ज पर होगी इसका जवाब भी पीएम के पास नहीं है। इतना ही नहीं देश के हर संस्थान के ही दामन पर दाग क्यों हैं और आम आदमी का भरोसा ही आखिर क्यों हर संस्थान से टूटने लगा है जब इसका जवाब मनमोहन सिंह के पास सिर्फ इतना ही हो कि सीजंर की पत्नी के तर्ज पर पीएम को शक के दायरे से उपर रखना होगा। तो सवाल वाकई पहली बार यही निकल रहा है कि क्या मनमोहन सिंह बतौर पीएम इतने अकेले हैं या खुद को अकेले दिखाकर अपने असहायपन की नीलामी देश की व्यवस्था सुधारने के नाम पर कर रहे हैं। जहां उनकी पहली और आखिरी प्रथामिकता प्रधानमंत्री बने रहने की है। और चूंकि देश के सामने वैकल्पिक व्यवस्था के तौर वही नौकरशाह,कारपोरेट और राजनेताओ का काकस है, जिसकी प्रथमिकता देश को लूटकर अपना खजाना भरने की है तो फिर भ्रष्टाचार की फेरहिस्त में आदर्श सोसायटी,कामनवेल्थ गेम्स, सीवीसी, कालाधन, स्पेक्ट्रम,एस बैंड या महंगाई क्या मायने रखेगी। क्योंकि लूट के हर चेहरे को जब कार्यपालिका,विधायिका या न्यायपालिका से ही निकलना है तो फिर प्रधानमंत्री कोई भी हो उसे बदलने की दिशा में कदम बढ़ेगा कैसे। यानी कानून के राज की परिभाषा ही जब हर कोई गढ़ने के लिये तैयार हैं तो फिर सवाल भ्रष्टाचार का नहीं सरकारी व्यवस्था का होगा जो आर्थिक सुधार के दौर में लूटने वाली संसथाओ से लेकर हर लूटने वाले शख्स के लिये रेड कारपेट बना हुआ है। और इसी व्यवस्था को विकसित होते इंडिया में चकाचौंघ भारत का नारा दिया गया। इसीलिये जो एफडीआई कल तक देश के विकास की जरुरत थी, आज उसे हवाला और मनी लॉडरिंग का हथियार माना जा रहा है। कल तक कॉरपोरेट की जो योजनायें देश की जरुरत थीं, आज उसमें देश के राजस्व की लूट दिखायी दे रही है। कल पीएमओ की जिस रिपोर्टकार्ड में हर मंत्रालय की उपलब्धि का ग्रेड कारपोरेट की योजनाओ तले रखा गया था, आज उसे भ्रष्टाचार माना जा रहा है। तो संपादको के सवालो पर प्रधानमंत्री का जवाब भी देश का आखिरी सच है कि पीएम बदलने से रास्ता नहीं निकलेगा। और इसके अक्स में छुपा हुआ जबाव यह भी है की पीएम के बरकारार रहने से उम्मीद और भरोसा और टूटेगा।
Wednesday, February 16, 2011
देश का भट्टा बैठाकर सरकार बचाने की मनमोहनी कवायद
8 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में जब मुलायम सिंह के खिलाफ आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में अटॉर्नी जनरल ने मुलायम का पक्ष लिया तो कई सवाल एकसाथ खड़े हुये। क्या मनमोहन सिंह सरकार पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, जो सरकार के बाहर दोस्ती का दाना डालना शुरु किया गया है। चूंकि एक तरफ आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में सरकार ही सक्रिय है और वहीं अगर सरकार ही सुप्रीम कोर्ट में सीबीआई की पहल को खारिज कर रही है तो फिर यह दोस्ती न करने पर चेताना है या अपने उपर आये संकट के मद्देनजर पहले से तैयारी करना। और यही मामला मायावती के खिलाफ भी चल रहा है और उसकी सुनवायी, जो पहले 15 फरवरी को होनी थी, अब उसकी तारीख बढ़ाकर 15 मार्च कर दी गयी है। जिसे फैसले का दिन माना जा रहा है।
तो क्या मनमोहन सिंह मायावती के सामने भी अपनी दोस्ती का चुग्गा फेंक रहे हैं। लेकिन यूपीए से बाहर साथियों की तलाश और सीबीआई को इसके लिये हथियार बनाने की जरुरत मनमोहन सिंह के सामने क्यों आ पड़ी है, समझना यह जरुरी है । असल में पहली बार मनमोहन सिंह के सामने दोहरी मुश्किल है। एकतरफ सरकार की छवि के जरिये कांग्रेस के दामन को बचाना और दूसरी तरफ विकास की अपनी थ्योरी को नौकरशाहों के जरिये बिना लाग-लपेट लागू कराना । संयोग से खतरा दोनों पर मंडरा रहा है। नीरा राडिया टेप ने जहां संकेत दिये कि नेता-नौकरशाह-कॉरपोरेट के कॉकटेल के जरिए देश को लगातार चूना लगाया जा रहा है वहीं सीबीआई जांच की खुलती परतों के बीच जब सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में कदम बढ़ाया तो घेरे में राजनेता ए राजा, नौकरशाह सिद्दार्थ बेहुरा और कॉरपोरेट घराने के रतन टाटा ही आये।
यानी नेता,नौकरशाह और कारपोरेट के चेहरो में वही चेहरे उभरे जो मनमोहन सिंह सरकार और मनमोहनोमिक्स के करीब थे। लेकिन इसका असर कांग्रेस से ज्यादा यूपीए के सहयोगियों में हुआ । खासकर शरद पवार और करुणानिधि यानी कांग्रेस के दोनों बड़े सहयोगियों ने जिस तरह स्पेक्ट्रम घोटाले के तार पीएमओ से जोड़ने की पहल अपनी अपनी राजनीति में की, उसका असर यही हुआ कि कांग्रेस के भीतर भी यह हलचल बढ़ गयी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे का सारा दाग अकेले उसी के दामन पर कैसे लग सकता है। शरद पवार ने कॉरपोरेट का डर कैबिनेट की बैठक में कई तरीके से दिखाया और डीएमके ने ए राजा के क्लीन चीट देकर अपने राजनीतिक घेरे में मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा करने में कोई देरी नहीं लगायी। कांग्रेस के भीतर इसरो के एस-बैड घोटाले के उछलने के पीछे भी डीएमके का ही हाथ माना गया। क्योंकि डीएमके ने तमिलनाडु की राजनीति में यह कहने में देर नहीं लगायी कि जब पीएमओ के अधीन विभाग में घोटाले से पीएमओ पल्ला झाड़ सकता है तो फिर स्पेक्ट्रम में तो ए राजा के मत्थे सबकुछ मढ़कर मनमोहन सिंह पल्ला झाड़ेंगे ही। लेकिन मनमोहन सिंह ने इस भ्रष्टाचार के मद्देनजर कांग्रेस में जो संकेत दिये, उससे यूपीए के भीतर का घमासान कही ज्यादा तीखा हुआ। और सवाल यह भी उभरा कि क्या मनमोहन सिंह के खिलाफ कांग्रेस के भीतर प्रभावी मंत्रियों की लॉबी ही काम कर रही है। क्योंकि एस-बैंड पर पीएमओ की तरफ से कहा गया कि 2005 के समझौते की जानकारी ही 2009 में पीएमओ को लगी। इसलिये पीएमओ ने 2010 में ही इसे खारिज करने की दिशा में कदम बढ़ा दिये।
लेकिन पीएमओ का सवाल है कि आखिर इस दौर में उससे इस करार को छुपाया किसने। जाहिर है कि एस-बैड का मसला देश की सुरक्षा से जुड़ा है और अगर यह जानकारी पीएमओ को नहीं दी गयी तो पहला सवाल अगर विदेश और रक्षा मंत्रालय का हो तो दूसरा सवाल मनमोहनोमिक्स का भी है, जिसके घेरे में देश का हर माल बिकाऊ है। और इसरो भी इससे अलग नहीं है। क्योकि मनमोहन सिंह की आर्थिक थ्योरी बड़ी साफ है कि हर विभाग को अपना खर्चा खुद उठाना चाहिये चाहे वह इसरो के वैज्ञानिक ही क्यों न हों। और कमाई के लिये ही एस-बैंड देवास कंपनी को बेचा गया, यह भी सच है । ठीक इसी तर्ज पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर भी पीएमओ ने कांग्रेस से यही सवाल किया कि उन्हें लाइसेंस बेचे जाने की जानकारी तो दी गयी लेकिन बिना अनुभव की कंपनियो से लेकर लाइसेंस के शेयरो को एक हजार गुना ज्यादा की रकम पर बेच कर मुनाफा बनाने की जानकारी उनसे झुपायी गयी। पीएमओ का तर्क साफ है कि जब हवाला और मनी लॉडरिंग पर नजर रखने के लिये वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधीन विभाग काम कर रहे हैं तो फिर यह सारी जानकारी उस वक्त उन तक क्यो नहीं पहुंच पायी। यानी प्रणव मुखर्जी और एस एम कृष्णा ने पीएमओ को अंधेरे में क्यों रखा। मनमोहन सिंह का संकट सिर्फ इतना भर नहीं है कि काग्रेस की राजनीति और सरकार चलाने के मनमोहन सिंह के तौर तरीको में टकराव पैदा हुआ है।
असल में मनमोहन सिंह का बड़ा संकट उस अर्थव्यवस्था को लागू कराने की मुश्किल भी है जो कारपोरेट के जरीये अभी तक अमल में लायी जा रही थी। जिस कारपोरेट के लिये लाल कारपेट बिछा कर मनमोहन विकास मंत्र का जाप कर रहे थे और सरकार के करीबी कारपोरेट का टर्न ओवर बीते चार साल में तीन सौ से दो हजार फीसदी तक लाईसेंस प्रणाली के जरीये बढे, उसके खिलाफ कार्रवाई करने के संकेत कांग्रेस से निकले यानी 10 जनपथ का इशारा साफ है कि कारपोरेट को मुनाफे पहुंचाने के लिये कांग्रेस की छवि से समझौता नहीं किया जा सकता है। खासकर तब जब सुप्रीम कोर्ट भी सक्रिय हो और विपक्ष की समूची राजनीति भी कांग्रेस के आम आदमी के नारे में सेंघ लगा रही हो। लेकिन मनमोहन सिंह संकट इतना भर नही है, भ्रष्टाचार के नैक्सस में जिस तरह नौकरशाही घेरे में आयी है और पूर्व सचिव सिद्दार्थ बेहुरा गिरफ्तार हुये और बैजल कभी भी गिरफ्तार हो सकते हैं, ऐसे में पहली बार मनमोहन सरकार के हर मंत्रालय में में किसी भी मंत्री के किसी भी योजना पर कोई नौकरशाह सीधे" ओके " लिखने से बच रहा है। यानी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने से पहले अगर बीते दो बरस में हर मंत्रालय से निकली फाइलों पर नजर डालें तो औसतन हर मंत्रालय से हर महीने तीन से पांच योजनाओं की फाइलें "ओके" होकर निकलती रही । यानी बीते दो बरस में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी 47 फाइल, औघोगिक विकास से जुडी 32 फाइल, ग्रामीण विकास से जुड़ी 45 फाइल और आदिवासी से लेकर पानी,शिक्षा,स्वास्थय से जुड़ी 63 से ज्यादा फाइलों पर नौकरशाहों ने ओके लिखा। खास बात यह है कि नब्बे फीसदी फाइलें कारपोरेट की योजनाओ से जुड़ी थीं। और हर मंत्रालय ने अपनी उपलब्धियों में कारपोरेट की इन तमाम योजनाओ को जोड़ा। जबकि बीते साढ़े तीन महिनों में अगर मंत्रालयों से निकलने वाली फाइलों पर गौर करें तो अंगुलियो पर गिने जाने वाली स्थिति आ जायेगी। हकीकत यह भी है कि इस दौर में किसी भी मंत्रालय से ऐसे कोई फाइल हरी झंडी के आसरे नहीं निकली, जिसमें मंत्रीजी ने ओके लिखा है । हर फाइल पर नियम-कायदो का हवाला हर स्तर पर नौकरशाह अब देने से नहीं कतरा रहा है। नौकरशाहों की माने तो जब सचिव स्तर के सिद्दार्थ बेहुरा को सीबीआई अपने शिकंजे में ले सकती है और बेहुरा के जरीये अपने कार्यों को अंजाम देने वाले कैबिनेट मंत्री जेल जा सकते हैं तो फिर भविष्य में इसकी गारंटी कौन लेगा कि किसी मंत्री पर आगे गाज नहीं गिरेगी और उस चपेट में नौकरशाह नहीं आयेगा।
असल में नौकरशाहो में ज्यादा घबराहट इस हकीकत को लेकर भी है कि राजा अपने चहेते बेहुरा को पर्यावरण मंत्रालय ले गये थे। जबकि राजा की नीतियों का विरोध करने वाले दो वरिष्ठ नेताओ को वीआरएस लेना पड़ा। तब नौकरशाहो में यह सवाल खड़ा हुआ था कि मनमोहन के राज में मंत्रियो का प्रिय होना ही ठीक है। लेकिन अब मंत्री के प्रिय होने से भी अब नौकरशाह कतरा रहे है और मनमोहन सिंह की थ्योरी तले विकास की लकीर खींचने में लगे मंत्री भी अब कारपोरेट से सचेत हो गये हैं। यानी मनमोहन सिंह विकास के लिये जिस कानून को घता बताते हुये अभी तक चकाचौंध का खेल खेल रहे थे, उस पर झटके में लगाम लगी है। वजह भी यही है बीते दौर में जो नियम-कायदे जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्रालय के नौकरशाहों को यह कहकर पढ़ाया कि नियम पहले देखें फिर योजना का लाभ। इसी तर्ज पर अब हर मंत्रालय में नौकरशाह अपने अपने मंत्रियों को सलाह दे रहा है। जाहिर है मनमोहन सिंह के सामने बीते साढ़े छह साल में पहली बार ऐसा संकट आया है जब मंत्रियों में सरकार और पार्टी के छवि को लेकर बंटवारा है और नौकरशाह मनमोहनोमिक्स तले सिर्फ कारपोरेट-नेता नैक्सस से मुनाफा बटोरने का खेल मानने लगे हैं। यानी सरकार की गाड़ी जिस पटरी पर मनमोहन सिंह दौड़ाना चाहते हैं, उसमें भी ब्रेक लगी है। और ब्रेक का परिणाम यही है कि कारपोरेट घरानो में अब सियासत की बिसात बिछाने की जरुरत कहीं ज्यादा तेज हो गयी है, जिसके लिये शरद पवार मंत्री की चाल चलने में माहिर है। वजह भी यही है कि शरद पवार की चाल की घेराबंदी शाहिद बलवा की गिरफ्तारी से हुई है। अगला निशाना यूनिटेक के चन्द्रा हो सकते हैं, जिन्हें टेलीकॉम के क्षेत्र में बिना किसी अनुभव लाइसेंस मिल गया। यह परिणाम मनमोहन सिंह के खुद को बचाने के लिये हैं। और खुद को पाक-साफ बताने की मनमोहन सिंह की यह समूची पहल दरअसल पहली बार उस आर्थिक सुधार पर अंगुली उठा रही है, जिसे टैक वन,टू, थ्री कहते हुये मंदी के दौर को यह कह कर पार किया गया कि देश का जीडीपी बुलंद है और उसका बैरोमीटर शेयर बाजार में बहार का लौटना है। लेकिन इस दौर में भ्रष्टाचार कैसे व्यवस्था में तब्दील हो गयी, यह खेल अब ना सिर्फ खुल कर सामने आ रहा है बल्कि नया सवाल यही है कि सरकार के कमोवेश अधिकतर मंत्रालय ही कारपोरेट को मुनाफा देकर अपना हित साधने में ही लगे रहे। यह स्थिति सिर्फ गृह मंत्रालय के आईएएस रवि इंदर सिंह की नहीं है, जो कारपोरेट हित के लिये सरकार की जानकारी डीबी कार्प के शाहिद बलवा को मुहैया कराते थे। और डीबी कार्प स्पेक्ट्रम मामले मं स्वान का प्रमोटर ही नहीं तमाम जानकारी देने वाला साझीदार था। और स्वान के तार संयुक्त अरब अभीरात में दाऊद तक से जुड़े हुये हैं और इस चक्रव्यूह में अपना लाभ बनाने के लिये देश के राजनेता भी नहीं चूक रहे थे। क्योंकि आधुनिक विकास का मंत्र देश की सुरक्षा नहीं मुनाफा देखता रहा है। और इस घेरेबंदी में अगर मनमोहन सिंह या यूपीए सरकार फंसी है तो नया सवाल कहीं ज्यादा गंभीर है जिसमें सत्ता से लाभ उठाने या खुद को बचाने की खातिर मुलायम, मायावती,जयललिता सरीखे देश के आधे दर्जन छोटे दलो से मनमोहन सिंह की सौदेबाजी जारी है। तो सरकार बचाये रखने के लिये भी अब सरकारी निर्णयों से अब मंत्रियों के समूह को जोड़ा जा रहा है। एस बेंड पर आखिरी निर्णय कैबिनेट कमेटी आन सेक्यूरिटी लेगी तो देश में कोयला खादान से लेकर खनन के हर मामले पर भी आखिरी निर्णय भी ग्रूप आफ मिनिस्टर ही लेंगे। यानी जयराम सरीखे किसी एक ईमानदार की जरुरत मनमोहन की सरकार में नहीं है। जिससे भविष्य में भ्रष्टाचार का दाग इतना फैले कि कोई यह ना कह सके कि उसका दामन साफ है।
तो क्या मनमोहन सिंह मायावती के सामने भी अपनी दोस्ती का चुग्गा फेंक रहे हैं। लेकिन यूपीए से बाहर साथियों की तलाश और सीबीआई को इसके लिये हथियार बनाने की जरुरत मनमोहन सिंह के सामने क्यों आ पड़ी है, समझना यह जरुरी है । असल में पहली बार मनमोहन सिंह के सामने दोहरी मुश्किल है। एकतरफ सरकार की छवि के जरिये कांग्रेस के दामन को बचाना और दूसरी तरफ विकास की अपनी थ्योरी को नौकरशाहों के जरिये बिना लाग-लपेट लागू कराना । संयोग से खतरा दोनों पर मंडरा रहा है। नीरा राडिया टेप ने जहां संकेत दिये कि नेता-नौकरशाह-कॉरपोरेट के कॉकटेल के जरिए देश को लगातार चूना लगाया जा रहा है वहीं सीबीआई जांच की खुलती परतों के बीच जब सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की दिशा में कदम बढ़ाया तो घेरे में राजनेता ए राजा, नौकरशाह सिद्दार्थ बेहुरा और कॉरपोरेट घराने के रतन टाटा ही आये।
यानी नेता,नौकरशाह और कारपोरेट के चेहरो में वही चेहरे उभरे जो मनमोहन सिंह सरकार और मनमोहनोमिक्स के करीब थे। लेकिन इसका असर कांग्रेस से ज्यादा यूपीए के सहयोगियों में हुआ । खासकर शरद पवार और करुणानिधि यानी कांग्रेस के दोनों बड़े सहयोगियों ने जिस तरह स्पेक्ट्रम घोटाले के तार पीएमओ से जोड़ने की पहल अपनी अपनी राजनीति में की, उसका असर यही हुआ कि कांग्रेस के भीतर भी यह हलचल बढ़ गयी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे का सारा दाग अकेले उसी के दामन पर कैसे लग सकता है। शरद पवार ने कॉरपोरेट का डर कैबिनेट की बैठक में कई तरीके से दिखाया और डीएमके ने ए राजा के क्लीन चीट देकर अपने राजनीतिक घेरे में मनमोहन सिंह को कटघरे में खड़ा करने में कोई देरी नहीं लगायी। कांग्रेस के भीतर इसरो के एस-बैड घोटाले के उछलने के पीछे भी डीएमके का ही हाथ माना गया। क्योंकि डीएमके ने तमिलनाडु की राजनीति में यह कहने में देर नहीं लगायी कि जब पीएमओ के अधीन विभाग में घोटाले से पीएमओ पल्ला झाड़ सकता है तो फिर स्पेक्ट्रम में तो ए राजा के मत्थे सबकुछ मढ़कर मनमोहन सिंह पल्ला झाड़ेंगे ही। लेकिन मनमोहन सिंह ने इस भ्रष्टाचार के मद्देनजर कांग्रेस में जो संकेत दिये, उससे यूपीए के भीतर का घमासान कही ज्यादा तीखा हुआ। और सवाल यह भी उभरा कि क्या मनमोहन सिंह के खिलाफ कांग्रेस के भीतर प्रभावी मंत्रियों की लॉबी ही काम कर रही है। क्योंकि एस-बैंड पर पीएमओ की तरफ से कहा गया कि 2005 के समझौते की जानकारी ही 2009 में पीएमओ को लगी। इसलिये पीएमओ ने 2010 में ही इसे खारिज करने की दिशा में कदम बढ़ा दिये।
लेकिन पीएमओ का सवाल है कि आखिर इस दौर में उससे इस करार को छुपाया किसने। जाहिर है कि एस-बैड का मसला देश की सुरक्षा से जुड़ा है और अगर यह जानकारी पीएमओ को नहीं दी गयी तो पहला सवाल अगर विदेश और रक्षा मंत्रालय का हो तो दूसरा सवाल मनमोहनोमिक्स का भी है, जिसके घेरे में देश का हर माल बिकाऊ है। और इसरो भी इससे अलग नहीं है। क्योकि मनमोहन सिंह की आर्थिक थ्योरी बड़ी साफ है कि हर विभाग को अपना खर्चा खुद उठाना चाहिये चाहे वह इसरो के वैज्ञानिक ही क्यों न हों। और कमाई के लिये ही एस-बैंड देवास कंपनी को बेचा गया, यह भी सच है । ठीक इसी तर्ज पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर भी पीएमओ ने कांग्रेस से यही सवाल किया कि उन्हें लाइसेंस बेचे जाने की जानकारी तो दी गयी लेकिन बिना अनुभव की कंपनियो से लेकर लाइसेंस के शेयरो को एक हजार गुना ज्यादा की रकम पर बेच कर मुनाफा बनाने की जानकारी उनसे झुपायी गयी। पीएमओ का तर्क साफ है कि जब हवाला और मनी लॉडरिंग पर नजर रखने के लिये वित्त मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधीन विभाग काम कर रहे हैं तो फिर यह सारी जानकारी उस वक्त उन तक क्यो नहीं पहुंच पायी। यानी प्रणव मुखर्जी और एस एम कृष्णा ने पीएमओ को अंधेरे में क्यों रखा। मनमोहन सिंह का संकट सिर्फ इतना भर नहीं है कि काग्रेस की राजनीति और सरकार चलाने के मनमोहन सिंह के तौर तरीको में टकराव पैदा हुआ है।
असल में मनमोहन सिंह का बड़ा संकट उस अर्थव्यवस्था को लागू कराने की मुश्किल भी है जो कारपोरेट के जरीये अभी तक अमल में लायी जा रही थी। जिस कारपोरेट के लिये लाल कारपेट बिछा कर मनमोहन विकास मंत्र का जाप कर रहे थे और सरकार के करीबी कारपोरेट का टर्न ओवर बीते चार साल में तीन सौ से दो हजार फीसदी तक लाईसेंस प्रणाली के जरीये बढे, उसके खिलाफ कार्रवाई करने के संकेत कांग्रेस से निकले यानी 10 जनपथ का इशारा साफ है कि कारपोरेट को मुनाफे पहुंचाने के लिये कांग्रेस की छवि से समझौता नहीं किया जा सकता है। खासकर तब जब सुप्रीम कोर्ट भी सक्रिय हो और विपक्ष की समूची राजनीति भी कांग्रेस के आम आदमी के नारे में सेंघ लगा रही हो। लेकिन मनमोहन सिंह संकट इतना भर नही है, भ्रष्टाचार के नैक्सस में जिस तरह नौकरशाही घेरे में आयी है और पूर्व सचिव सिद्दार्थ बेहुरा गिरफ्तार हुये और बैजल कभी भी गिरफ्तार हो सकते हैं, ऐसे में पहली बार मनमोहन सरकार के हर मंत्रालय में में किसी भी मंत्री के किसी भी योजना पर कोई नौकरशाह सीधे" ओके " लिखने से बच रहा है। यानी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने से पहले अगर बीते दो बरस में हर मंत्रालय से निकली फाइलों पर नजर डालें तो औसतन हर मंत्रालय से हर महीने तीन से पांच योजनाओं की फाइलें "ओके" होकर निकलती रही । यानी बीते दो बरस में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी 47 फाइल, औघोगिक विकास से जुडी 32 फाइल, ग्रामीण विकास से जुड़ी 45 फाइल और आदिवासी से लेकर पानी,शिक्षा,स्वास्थय से जुड़ी 63 से ज्यादा फाइलों पर नौकरशाहों ने ओके लिखा। खास बात यह है कि नब्बे फीसदी फाइलें कारपोरेट की योजनाओ से जुड़ी थीं। और हर मंत्रालय ने अपनी उपलब्धियों में कारपोरेट की इन तमाम योजनाओ को जोड़ा। जबकि बीते साढ़े तीन महिनों में अगर मंत्रालयों से निकलने वाली फाइलों पर गौर करें तो अंगुलियो पर गिने जाने वाली स्थिति आ जायेगी। हकीकत यह भी है कि इस दौर में किसी भी मंत्रालय से ऐसे कोई फाइल हरी झंडी के आसरे नहीं निकली, जिसमें मंत्रीजी ने ओके लिखा है । हर फाइल पर नियम-कायदो का हवाला हर स्तर पर नौकरशाह अब देने से नहीं कतरा रहा है। नौकरशाहों की माने तो जब सचिव स्तर के सिद्दार्थ बेहुरा को सीबीआई अपने शिकंजे में ले सकती है और बेहुरा के जरीये अपने कार्यों को अंजाम देने वाले कैबिनेट मंत्री जेल जा सकते हैं तो फिर भविष्य में इसकी गारंटी कौन लेगा कि किसी मंत्री पर आगे गाज नहीं गिरेगी और उस चपेट में नौकरशाह नहीं आयेगा।
असल में नौकरशाहो में ज्यादा घबराहट इस हकीकत को लेकर भी है कि राजा अपने चहेते बेहुरा को पर्यावरण मंत्रालय ले गये थे। जबकि राजा की नीतियों का विरोध करने वाले दो वरिष्ठ नेताओ को वीआरएस लेना पड़ा। तब नौकरशाहो में यह सवाल खड़ा हुआ था कि मनमोहन के राज में मंत्रियो का प्रिय होना ही ठीक है। लेकिन अब मंत्री के प्रिय होने से भी अब नौकरशाह कतरा रहे है और मनमोहन सिंह की थ्योरी तले विकास की लकीर खींचने में लगे मंत्री भी अब कारपोरेट से सचेत हो गये हैं। यानी मनमोहन सिंह विकास के लिये जिस कानून को घता बताते हुये अभी तक चकाचौंध का खेल खेल रहे थे, उस पर झटके में लगाम लगी है। वजह भी यही है बीते दौर में जो नियम-कायदे जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्रालय के नौकरशाहों को यह कहकर पढ़ाया कि नियम पहले देखें फिर योजना का लाभ। इसी तर्ज पर अब हर मंत्रालय में नौकरशाह अपने अपने मंत्रियों को सलाह दे रहा है। जाहिर है मनमोहन सिंह के सामने बीते साढ़े छह साल में पहली बार ऐसा संकट आया है जब मंत्रियों में सरकार और पार्टी के छवि को लेकर बंटवारा है और नौकरशाह मनमोहनोमिक्स तले सिर्फ कारपोरेट-नेता नैक्सस से मुनाफा बटोरने का खेल मानने लगे हैं। यानी सरकार की गाड़ी जिस पटरी पर मनमोहन सिंह दौड़ाना चाहते हैं, उसमें भी ब्रेक लगी है। और ब्रेक का परिणाम यही है कि कारपोरेट घरानो में अब सियासत की बिसात बिछाने की जरुरत कहीं ज्यादा तेज हो गयी है, जिसके लिये शरद पवार मंत्री की चाल चलने में माहिर है। वजह भी यही है कि शरद पवार की चाल की घेराबंदी शाहिद बलवा की गिरफ्तारी से हुई है। अगला निशाना यूनिटेक के चन्द्रा हो सकते हैं, जिन्हें टेलीकॉम के क्षेत्र में बिना किसी अनुभव लाइसेंस मिल गया। यह परिणाम मनमोहन सिंह के खुद को बचाने के लिये हैं। और खुद को पाक-साफ बताने की मनमोहन सिंह की यह समूची पहल दरअसल पहली बार उस आर्थिक सुधार पर अंगुली उठा रही है, जिसे टैक वन,टू, थ्री कहते हुये मंदी के दौर को यह कह कर पार किया गया कि देश का जीडीपी बुलंद है और उसका बैरोमीटर शेयर बाजार में बहार का लौटना है। लेकिन इस दौर में भ्रष्टाचार कैसे व्यवस्था में तब्दील हो गयी, यह खेल अब ना सिर्फ खुल कर सामने आ रहा है बल्कि नया सवाल यही है कि सरकार के कमोवेश अधिकतर मंत्रालय ही कारपोरेट को मुनाफा देकर अपना हित साधने में ही लगे रहे। यह स्थिति सिर्फ गृह मंत्रालय के आईएएस रवि इंदर सिंह की नहीं है, जो कारपोरेट हित के लिये सरकार की जानकारी डीबी कार्प के शाहिद बलवा को मुहैया कराते थे। और डीबी कार्प स्पेक्ट्रम मामले मं स्वान का प्रमोटर ही नहीं तमाम जानकारी देने वाला साझीदार था। और स्वान के तार संयुक्त अरब अभीरात में दाऊद तक से जुड़े हुये हैं और इस चक्रव्यूह में अपना लाभ बनाने के लिये देश के राजनेता भी नहीं चूक रहे थे। क्योंकि आधुनिक विकास का मंत्र देश की सुरक्षा नहीं मुनाफा देखता रहा है। और इस घेरेबंदी में अगर मनमोहन सिंह या यूपीए सरकार फंसी है तो नया सवाल कहीं ज्यादा गंभीर है जिसमें सत्ता से लाभ उठाने या खुद को बचाने की खातिर मुलायम, मायावती,जयललिता सरीखे देश के आधे दर्जन छोटे दलो से मनमोहन सिंह की सौदेबाजी जारी है। तो सरकार बचाये रखने के लिये भी अब सरकारी निर्णयों से अब मंत्रियों के समूह को जोड़ा जा रहा है। एस बेंड पर आखिरी निर्णय कैबिनेट कमेटी आन सेक्यूरिटी लेगी तो देश में कोयला खादान से लेकर खनन के हर मामले पर भी आखिरी निर्णय भी ग्रूप आफ मिनिस्टर ही लेंगे। यानी जयराम सरीखे किसी एक ईमानदार की जरुरत मनमोहन की सरकार में नहीं है। जिससे भविष्य में भ्रष्टाचार का दाग इतना फैले कि कोई यह ना कह सके कि उसका दामन साफ है।
Thursday, February 10, 2011
आवारगी में डूबी "ये साली जिन्दगी" की ईमानदारी
प्यार अगर आवारगी की शक्ल ले ले तो सवाल वाकई.......साली जिन्दगी का हो जाता है। और सुधीर मिश्रा ने इऱफान के जरिए इसी आवारगी को पकड़ने की कोशिश की है। इसलिये जो भागती-दौड़ती जिन्दगी में रोबोट हो चुके हैं, उन्हें यह फिल्म नहीं देखनी चाहिये। हां...जो प्यार की कसक में आंखो से पीने की चाहत लिये जीते हैं, उन्हें यह फिल्म जरुर देखनी चाहिये। तो .....यह साली जिन्दगी जीने-मरने, खूब कमाने या समाज से मान्यता चाहने वाली सोच से इतर है। यह फिल्म आवारा होकर भी संबंधों में इमानदारी बरतती है। इसलिये देखने वाले ऐसे प्यार में ताजा हवा के झोंके को महसूस कर सकते हैं। क्योंकि माशूका अगर अपराध करने पर मजबूर करती है तो उसकी चाहत अपराध करने में भी इमानदारी बरतती है और फिल्म भी अपराध-प्यार के कॉकटेल का ऐसा नशा पैदा करती है, जिसमें देखने वालो में सिनेमायी पर्दें पर अलग अलग चरित्रों को जीते कलाकार स्वाभाविक लगने लगते हैं। चूंकि फिल्म दिल्ली-हरियाणा के उस रुखे मिजाज के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जहां पैसा कमाना ही सबसे अहम होता जा रहा है। और इस समाज के चंद हाथों में जितनी पूंजी है, उसका अंश भर भी किसी में भी रोमांच पैदा कर सकता है। इसलिये कमाने का यह दांव जीवनभर के सुकून के लिये हर कोई खेलना चाहता है।
और फिल्म में नये कलाकार के तौर पर एन्ट्री देने वाले अरुणोदय सिंह ने प्यार और अपराध के जरिए नोट बनाने की कश्मकश को कमाल का जीया है। वहीं अपराधी के प्यार से पत्नी बनी अदिती राव हैदरी ने भी जिन्दगी की जद्दोजहद में अपराधी पति के साथ रिश्तों को जिस हुनर से जीया है, वह आधुनिक समाज की उस बेबसी को ही दर्शाता है, जहां पकड़े गये तो अपराधी नहीं तो किंग। इसमें सुधीर मिश्रा के कौशल की तारिफ करनी होनी जो समाज के अन्तरद्वंदों को मवाद के साथ उबारते भी हैं और उससे गुदगुदी भी पैदा करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि अपराधी बाप के लक्षण जिस मासूमी से बेटे में उभरते हैं और एक नन्हा बालक पहली बार डायलाग बोलता है तो यही कहता है....पता नहीं गुस्सा आ कहां से जाता है और हाथ उठ कैसे जाता है। अद्भुत है। हरियाणवी समाज के अपराध हों या युवाओ के लिये रखैल की तरह गालियों का श्रृंगार भरे संवाद...जिस बेखौफ तरीके से स्क्रीन पर रेंगते हैं, उसमें यह एहसास कभी नहीं जागता कि जिन्दगी साली क्यों है.....और फिल्म का यह बिंब क्यों चुना गया । हालांकि चित्रांगदा की खूबसूरती को बार बार सिल्वर स्क्रीन तमाशा बनाने की कोशिश करता लेकिन किसी सेंट की बोतल खोलने पर हवा में घुलती खुशबू सरीखी ही चित्रांगदा लगती है और इसी खूशबू को सूंघ कर इरफान जिस मदहोशी में उसके प्यार को जीते है वह कमाल का है। असल में फिल्म की जान इरफान ही हैं। फिल्म के सभी किरदार को कैमरे के सामने एक्टिंग करते है लेकिन इरफान कैमरे को आमंत्रित करते हुये दिखते हैं कि उनका पूरा शरीर बोल रहा है अब कैमरा जहां से चाहे उनकी एक्टिंग को पकड़ ले। इरफान ने मकबूल के बाद खुलकर ये साली जिन्दगी को जीया है। इरफान की अदाकारी को किसी ने पकड़ा तो वो सौरभ शुक्ला हैं। वो जब भी इरफान के साथ स्क्रीन पर आते हैं,तो उन्हें टक्कर देते लगते हैं।
और सुधीर मिश्रा का निर्देशन...ये साली जिन्दगी में फिल्म ‘इस रात की सुबह नहीं’ का अक्स भी बार बार दिखायी पडता है । चूंकि फिल्म आवारगी की चादर ओढ़कर इश्क में ईमानदारी का घोल घोलती है तो फिल्म का आखिरी सीन कई बिंबो को एकसाथ समेट कर ईमानदार जिन्दगी को भी आवारा होने का न्योता देता है।
और फिल्म में नये कलाकार के तौर पर एन्ट्री देने वाले अरुणोदय सिंह ने प्यार और अपराध के जरिए नोट बनाने की कश्मकश को कमाल का जीया है। वहीं अपराधी के प्यार से पत्नी बनी अदिती राव हैदरी ने भी जिन्दगी की जद्दोजहद में अपराधी पति के साथ रिश्तों को जिस हुनर से जीया है, वह आधुनिक समाज की उस बेबसी को ही दर्शाता है, जहां पकड़े गये तो अपराधी नहीं तो किंग। इसमें सुधीर मिश्रा के कौशल की तारिफ करनी होनी जो समाज के अन्तरद्वंदों को मवाद के साथ उबारते भी हैं और उससे गुदगुदी भी पैदा करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि अपराधी बाप के लक्षण जिस मासूमी से बेटे में उभरते हैं और एक नन्हा बालक पहली बार डायलाग बोलता है तो यही कहता है....पता नहीं गुस्सा आ कहां से जाता है और हाथ उठ कैसे जाता है। अद्भुत है। हरियाणवी समाज के अपराध हों या युवाओ के लिये रखैल की तरह गालियों का श्रृंगार भरे संवाद...जिस बेखौफ तरीके से स्क्रीन पर रेंगते हैं, उसमें यह एहसास कभी नहीं जागता कि जिन्दगी साली क्यों है.....और फिल्म का यह बिंब क्यों चुना गया । हालांकि चित्रांगदा की खूबसूरती को बार बार सिल्वर स्क्रीन तमाशा बनाने की कोशिश करता लेकिन किसी सेंट की बोतल खोलने पर हवा में घुलती खुशबू सरीखी ही चित्रांगदा लगती है और इसी खूशबू को सूंघ कर इरफान जिस मदहोशी में उसके प्यार को जीते है वह कमाल का है। असल में फिल्म की जान इरफान ही हैं। फिल्म के सभी किरदार को कैमरे के सामने एक्टिंग करते है लेकिन इरफान कैमरे को आमंत्रित करते हुये दिखते हैं कि उनका पूरा शरीर बोल रहा है अब कैमरा जहां से चाहे उनकी एक्टिंग को पकड़ ले। इरफान ने मकबूल के बाद खुलकर ये साली जिन्दगी को जीया है। इरफान की अदाकारी को किसी ने पकड़ा तो वो सौरभ शुक्ला हैं। वो जब भी इरफान के साथ स्क्रीन पर आते हैं,तो उन्हें टक्कर देते लगते हैं।
और सुधीर मिश्रा का निर्देशन...ये साली जिन्दगी में फिल्म ‘इस रात की सुबह नहीं’ का अक्स भी बार बार दिखायी पडता है । चूंकि फिल्म आवारगी की चादर ओढ़कर इश्क में ईमानदारी का घोल घोलती है तो फिल्म का आखिरी सीन कई बिंबो को एकसाथ समेट कर ईमानदार जिन्दगी को भी आवारा होने का न्योता देता है।
Wednesday, February 9, 2011
एसआईटी की रिपोर्ट 180 डिग्री में घूम जाती है गुजरात में
नरेन्द्र मोदी ने आखिर क्यों गुलबर्गा सोसायटी इलाके के विकास की बात कही? क्या मोदी कांग्रेस की राजनीति को जवाब देना चाहते हैं? क्या मोदी गुजरात से बाहर अपनी छवि को ठीक करना चाहते हैं? क्या मोदी अब गुजरात छोड़ राष्ट्रीय राजनीति में कदम रखने की सोच रहे हैं? यह सारे सवाल अहमदाबाद से लेकर राजकोट तक हर उस शख्स को परेशान किये हुये हैं, जिसकी जरा भी रुचि नरेन्द्र मोदी की राजनीति को लेकर है। संयोग से गांधीनगर से सौराष्ट्र के इलाके में एसआईटी की उस रिपोर्ट के असर को समझने पहुंचा, जिसमें मोदी सीधे कटघरे में खड़े हैं।
लेकिन जिस दिन एसआईटी की रिपोर्ट तहलका के जरिए लीक हुई और दिल्ली के अखबारो में गुजरात दंगों के लिये मोदी को दोषी माना गया, उसी दिन गुजरात के समाचार पत्रों में पहले पेज पर श्री श्री रविशंकर के साथ योगा करते नरेन्द्र मोदी की तस्वीर दिखायी दी। और एसआईटी की रिपोर्ट बड़े बेमन से अखबारों के एक किनारे कुछ इस तरह छपी दिखायी दी जैसे दिल्ली की जरुरत को पूरा करने के लिये एसआईटी रिपोर्ट को भी जगह दे दी गयी है।असल में नरेन्द्र मोदी को दिल्ली से देखने और गुजरात में खड़े होकर नरेन्द्र मोदी को समझना 180 डिग्री का फेर है। क्योकि एसआईटी जैसे ही मोदी पर सवालिया निशान लगाती है, वैसे ही ग्रामीण गुजराती सवाल करता है कि हमें पैसा-शोहरत तो नरेन्द्र भाई ने ही दी है। सौराष्ट्र की चार हजार एकड़ से ज्यादा जमीन उद्योगों के हवाले कर दी गई है। जिससे हजारों किसान के पास इस वक्त मुआवजे का इतना पैसा है कि सौराष्ट्र के केन्द्र राजकोट में साग-भाजी से लेकर दुकान खोलने की कीमत मुबंई के बराबर की है।
आलम यह है कि राजकोट सिर्फ हवाई रूट से जुडा है और मुबंई का हवाई भाड़ा भी 8 हजार रुपये से शुरु होता है और हर दिन तीन फ्लाईट सौराष्ट्रवासियों या उघोग लगाने वालो से भरी रहती हैं। जबकि अहमदाबाद से दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई या गुवाहाटी तक का किराया भी छह हजार से ज्यादा का नहीं है। असल में गुजरात के गांवों को शहरी मिजाज में जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने बदला है, उसमें हर किसी का हीरो मोदी हो गये हैं। यानी गुजरात की अर्थव्यवस्था का मर्म गुजरात को हाई प्रोफाइल बना कर हर चीज महंगा करना भी है और उसके एवज में गुजरातियों को ठसक भरा मुआवजा दिलाना भी है। इसलिये गुजरात में नरेन्द्र मोदी गांधीनगर से लेकर समुद्र पार बेट द्वारका तक के हर जिले के कलक्टर भी है और एसपी भी। राज्य के किसी भी होटल में बैठ जाइए और कहिये कि यहां का मालिक तो नरेन्द्र मोदी है तो इस पर कोई इंकार नहीं करेगा। पंचायत में किसी बीडीओ से लेकर गांव के जमींदार तक के अधिकार की बात करके देख लीजिये, अगर नाम नरेन्द्र मोदी का आ गया तो बीडीओ बोल पड़ेगा-जो है सो मोदी है और यही हाल जमींदार का भी है।
यानी गुजरात का मतलब जब मोदी है तो फिर एसआटी रिपोर्ट का कटघरा जो दिल्ली से दिखायी देता है वह गुजरात में फूलों का हार है या मोदी की बिसात यह कोई भी गुजराती हमेशा ताल ठोंक कर कहने की स्थिति में है । लेकिन पहली बार यह सवाल सभी को परेशान किये हुये है कि नरेन्द्र मोदी ने दस दिन पहले गुजरात के विकास से इतर गुलबर्गा इलाके के विकास की बात अलग से क्यों कही। राजकोट के राम सपारा हो या अहमदाबाद के मनीन्द्र। उनके सवाल सीधे हैं कि जब गुजरात का बच्चा बूढ़ा खुद को गुजरात से ज्यादा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ समझने लगा है तो गुलबर्गा सोसायटी के इलाके में विकास की बात अलग से मोदी ने क्यों कही। क्या मोदी पहली बार बिहार चुनाव परिणाम से हिले हुये हैं, जहा उन्हें पहले नीतीश ने खारिज किया और फिर भाजपा ने भी नीतिश के सुर में सुर मिलाने में देरी नहीं की। यानी जिस वैचारिक समझ के आसरे नीतीश ने झटके में भाजपा के सबसे कद्दावर मोदी को ही आइना नहीं दिखाया बल्कि भाजपा को भी अपनी छांव में खड़ा रहने के लिये मजबूर कर दिया , वह समझ नरेन्द्र मोदी अब अपने में विकसित करना चाहते हैं। या फिर मोदी भाजपा के भीतर अपनी छवि में राष्ट्रीय पैनापन लाना चाहते हैं। क्योंकि भाजपा ने इस दौर में तीनों महत्वपूर्ण मुद्दो पर मोदी को कहीं फटकने नहीं दिया । अयोध्या मुद्दे पर अदालत के फैसले के दिन मोदी गांधीनगर में ही थे। केन्द्र के हिन्दु आतंकवाद के मुद्दे पर मोदी को जवाब देने नहीं दिया गया और तिरंगा यात्रा के दौर में भाजपा के साथ संघ परिवार भी सक्रिय हुआ लेकिन नरेन्द्र मोदी खामोश रहे।
तो क्या मोदी की मुस्लिम बहुल इलाको का नाम लेकर विकास से जोड़ने की पहल गुजरात से बाहर एक नयी राजनीति लकीर खिंचने की वैसी ही कवायद है, जैसी 2002 में मुस्लिम बहुल इलाको पर निशाना साधने को लेकर एसआईटी ने उठायी है। यानी गुजरात में जो राजनीति कांग्रेस करना चाहती है, उसी का जवाब पहले से ही मोदी तैयार कर रहे हैं। क्योकि इससे पहले मोदी ने हमेशा गुजरात के विकास को ही अपनी सियासत का हिस्सा बनाया और उसमें अलग से मुस्लिम इलाको का कभी जिक्र यह कहकर नहीं किया कि वह पिछडे हैं। मोहन ढोलकिया की मानें तो नरेन्द्र मोदी की ताकत जब वाइब्रेंट गुजरात के मौके पर अंबानी बंधुओं के भाषण तक को अपने मुताबिक लिखाने की है। और मंच से समूचा कारपोरेट अगर मोदी में प्रधानमंत्री की छवि देख कर ऐलान करने से नहीं कतराता तो फिर भाजपा के भीतर की कश्मकश को समझना चाहिये, जहां दिल्ली में बैठे भाजपा के राष्ट्रीय नेता अपनी कतार से मोदी को दूर रखना क्यों चाहते हैं। तो क्या मोदी का हर प्रयोग सिर्फ गुजरात के लिये है और गुजरात में बंधे मोदी अब गुजरात के विकास के नये पैमाने में राजनीति का छौंक लगाने के लिये तैयार हैं । सौराष्ट्र के सबसे बडे जमींदारो में से एक प्रवीण भाई की माने तो नरेन्द्न मोदी राजनीति के देवराहा बाबा { इंदिरा गांधी से लेकर विहिप नेता अशोक सिंघल तक के गुरु } सरीखे हैं, जहा कॉरपोरेट और सियासत करने वाले अपने अपने लाभ के लिये जमा होते हैं और मोदी हर किसी की जरुरत जो दूसरे से पूरी होती है, उसमें पुल का काम करते हैं। और इस भूमिका को बनाये रखने के लिये गुजरात की सत्ता मोदी का रास्ता बनाती है और मोदी गुजरात के लिये। यानी गुजरात के भीतर मोदी का कोई विकल्प है नहीं और गुजरात के बाहर मोदी किसी का विकल्प है नहीं। ऐसे में एसआईटी की कोई भी रिपोर्ट क्यो ना हो वह गुजरात में दंगो या मौतो की वजह से नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी की वजह से जानी जाती है। यानी 2002 में जो शख्स गुजरात दंगो का मोदी था 2011 में वह गुजरात का मोदी हो चुका है।
लेकिन जिस दिन एसआईटी की रिपोर्ट तहलका के जरिए लीक हुई और दिल्ली के अखबारो में गुजरात दंगों के लिये मोदी को दोषी माना गया, उसी दिन गुजरात के समाचार पत्रों में पहले पेज पर श्री श्री रविशंकर के साथ योगा करते नरेन्द्र मोदी की तस्वीर दिखायी दी। और एसआईटी की रिपोर्ट बड़े बेमन से अखबारों के एक किनारे कुछ इस तरह छपी दिखायी दी जैसे दिल्ली की जरुरत को पूरा करने के लिये एसआईटी रिपोर्ट को भी जगह दे दी गयी है।असल में नरेन्द्र मोदी को दिल्ली से देखने और गुजरात में खड़े होकर नरेन्द्र मोदी को समझना 180 डिग्री का फेर है। क्योकि एसआईटी जैसे ही मोदी पर सवालिया निशान लगाती है, वैसे ही ग्रामीण गुजराती सवाल करता है कि हमें पैसा-शोहरत तो नरेन्द्र भाई ने ही दी है। सौराष्ट्र की चार हजार एकड़ से ज्यादा जमीन उद्योगों के हवाले कर दी गई है। जिससे हजारों किसान के पास इस वक्त मुआवजे का इतना पैसा है कि सौराष्ट्र के केन्द्र राजकोट में साग-भाजी से लेकर दुकान खोलने की कीमत मुबंई के बराबर की है।
आलम यह है कि राजकोट सिर्फ हवाई रूट से जुडा है और मुबंई का हवाई भाड़ा भी 8 हजार रुपये से शुरु होता है और हर दिन तीन फ्लाईट सौराष्ट्रवासियों या उघोग लगाने वालो से भरी रहती हैं। जबकि अहमदाबाद से दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई या गुवाहाटी तक का किराया भी छह हजार से ज्यादा का नहीं है। असल में गुजरात के गांवों को शहरी मिजाज में जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने बदला है, उसमें हर किसी का हीरो मोदी हो गये हैं। यानी गुजरात की अर्थव्यवस्था का मर्म गुजरात को हाई प्रोफाइल बना कर हर चीज महंगा करना भी है और उसके एवज में गुजरातियों को ठसक भरा मुआवजा दिलाना भी है। इसलिये गुजरात में नरेन्द्र मोदी गांधीनगर से लेकर समुद्र पार बेट द्वारका तक के हर जिले के कलक्टर भी है और एसपी भी। राज्य के किसी भी होटल में बैठ जाइए और कहिये कि यहां का मालिक तो नरेन्द्र मोदी है तो इस पर कोई इंकार नहीं करेगा। पंचायत में किसी बीडीओ से लेकर गांव के जमींदार तक के अधिकार की बात करके देख लीजिये, अगर नाम नरेन्द्र मोदी का आ गया तो बीडीओ बोल पड़ेगा-जो है सो मोदी है और यही हाल जमींदार का भी है।
यानी गुजरात का मतलब जब मोदी है तो फिर एसआटी रिपोर्ट का कटघरा जो दिल्ली से दिखायी देता है वह गुजरात में फूलों का हार है या मोदी की बिसात यह कोई भी गुजराती हमेशा ताल ठोंक कर कहने की स्थिति में है । लेकिन पहली बार यह सवाल सभी को परेशान किये हुये है कि नरेन्द्र मोदी ने दस दिन पहले गुजरात के विकास से इतर गुलबर्गा इलाके के विकास की बात अलग से क्यों कही। राजकोट के राम सपारा हो या अहमदाबाद के मनीन्द्र। उनके सवाल सीधे हैं कि जब गुजरात का बच्चा बूढ़ा खुद को गुजरात से ज्यादा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ समझने लगा है तो गुलबर्गा सोसायटी के इलाके में विकास की बात अलग से मोदी ने क्यों कही। क्या मोदी पहली बार बिहार चुनाव परिणाम से हिले हुये हैं, जहा उन्हें पहले नीतीश ने खारिज किया और फिर भाजपा ने भी नीतिश के सुर में सुर मिलाने में देरी नहीं की। यानी जिस वैचारिक समझ के आसरे नीतीश ने झटके में भाजपा के सबसे कद्दावर मोदी को ही आइना नहीं दिखाया बल्कि भाजपा को भी अपनी छांव में खड़ा रहने के लिये मजबूर कर दिया , वह समझ नरेन्द्र मोदी अब अपने में विकसित करना चाहते हैं। या फिर मोदी भाजपा के भीतर अपनी छवि में राष्ट्रीय पैनापन लाना चाहते हैं। क्योंकि भाजपा ने इस दौर में तीनों महत्वपूर्ण मुद्दो पर मोदी को कहीं फटकने नहीं दिया । अयोध्या मुद्दे पर अदालत के फैसले के दिन मोदी गांधीनगर में ही थे। केन्द्र के हिन्दु आतंकवाद के मुद्दे पर मोदी को जवाब देने नहीं दिया गया और तिरंगा यात्रा के दौर में भाजपा के साथ संघ परिवार भी सक्रिय हुआ लेकिन नरेन्द्र मोदी खामोश रहे।
तो क्या मोदी की मुस्लिम बहुल इलाको का नाम लेकर विकास से जोड़ने की पहल गुजरात से बाहर एक नयी राजनीति लकीर खिंचने की वैसी ही कवायद है, जैसी 2002 में मुस्लिम बहुल इलाको पर निशाना साधने को लेकर एसआईटी ने उठायी है। यानी गुजरात में जो राजनीति कांग्रेस करना चाहती है, उसी का जवाब पहले से ही मोदी तैयार कर रहे हैं। क्योकि इससे पहले मोदी ने हमेशा गुजरात के विकास को ही अपनी सियासत का हिस्सा बनाया और उसमें अलग से मुस्लिम इलाको का कभी जिक्र यह कहकर नहीं किया कि वह पिछडे हैं। मोहन ढोलकिया की मानें तो नरेन्द्र मोदी की ताकत जब वाइब्रेंट गुजरात के मौके पर अंबानी बंधुओं के भाषण तक को अपने मुताबिक लिखाने की है। और मंच से समूचा कारपोरेट अगर मोदी में प्रधानमंत्री की छवि देख कर ऐलान करने से नहीं कतराता तो फिर भाजपा के भीतर की कश्मकश को समझना चाहिये, जहां दिल्ली में बैठे भाजपा के राष्ट्रीय नेता अपनी कतार से मोदी को दूर रखना क्यों चाहते हैं। तो क्या मोदी का हर प्रयोग सिर्फ गुजरात के लिये है और गुजरात में बंधे मोदी अब गुजरात के विकास के नये पैमाने में राजनीति का छौंक लगाने के लिये तैयार हैं । सौराष्ट्र के सबसे बडे जमींदारो में से एक प्रवीण भाई की माने तो नरेन्द्न मोदी राजनीति के देवराहा बाबा { इंदिरा गांधी से लेकर विहिप नेता अशोक सिंघल तक के गुरु } सरीखे हैं, जहा कॉरपोरेट और सियासत करने वाले अपने अपने लाभ के लिये जमा होते हैं और मोदी हर किसी की जरुरत जो दूसरे से पूरी होती है, उसमें पुल का काम करते हैं। और इस भूमिका को बनाये रखने के लिये गुजरात की सत्ता मोदी का रास्ता बनाती है और मोदी गुजरात के लिये। यानी गुजरात के भीतर मोदी का कोई विकल्प है नहीं और गुजरात के बाहर मोदी किसी का विकल्प है नहीं। ऐसे में एसआईटी की कोई भी रिपोर्ट क्यो ना हो वह गुजरात में दंगो या मौतो की वजह से नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी की वजह से जानी जाती है। यानी 2002 में जो शख्स गुजरात दंगो का मोदी था 2011 में वह गुजरात का मोदी हो चुका है।
Saturday, February 5, 2011
जो सवाल पत्रकारीय कौशल में दफन हो गये
रेलगाडी पर हजारों की तादाद में चीटिंयो और चूहों की तरह अंदर बाहर समाये बेरोजगार नवयुवकों को देखकर आंखों के सामने पहले ढ़ाका में मजदूरों से लदी ट्रेन रेंगने लगी जो हर बरस ईद के मौके पर नजर आती है। वही जब बेरोजगार युवकों से पटी ट्रेन पटरी पर रेंगने लगी और कुछ देर बाद ही 19 की मौत की खबर आयी तो 1947 में विभाजन की त्रासदी के दौर में खून से पटी रेलगाडियों की कहानी और द्दश्य ही जेहन में चलने लगा। कई राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर भी यही दृश्य चलते हुये भी दिखायी दिये.....और यूपी में देशभर के लाखों बेरोजगारो की बेबाकी सी चलती भी स्क्रीन पर रेंगती तस्वीरो के साथ ही दफन हो गयी। यानी कोई सवाल पत्रकारीय माध्यमों में कहीं नहीं उठा कि सवा चार सौ धोबी-नाई-कर्मचारी की नियुक्ति के लिये बरेली पहुंचे सवाल चार लाख बेरोजगारों की जिन्दगी ऐसे मुहाने पर क्यों आ कर खडी हुई है जहां ढ़ाई से साढ़े तीन हजार की आईटीबीपी को नौकरी भी मंजूर है। ना अखबार ना ही न्यूज चैनलों ने बहस की कि जो बेरोजगार मारे गये वह सभी किसान परिवार से ही क्यों थे। किसी ने गांव को शहर बनाने की मनमोहनइक्नामिक्स की जिद पर सवाल खड़े कर यह नहीं पूछा कि सवा चार लाख बेरोजगारों में साढे तीन लाख से ज्यादा बेरोजगार किसान परिवार के ही क्यों थे। यह सवाल भी नहीं उठा कि कैसे विकास के नाम पर किसानी खत्म कर हर बरस किसान परिवार से इसतरह आठवीं पास बेरोजगारों में सत्तर लाख नवयुवक अगली रेलगाड़ी पर सवार होने के लिये तैयार हो रहे हैं।
बरेली में बेरोजगारों के इतने बडे समूह को देखकर पत्रकारीय समझ ने बिंबों के आसरे मिस्र के तहरीर चौक का अक्स तो दिखाया , मगर यह सवाल कहीं खडा नहीं हो पाया कि बाजार अर्थव्यवस्था से बडा तानाशाह हुस्नी मुबारक भी नहीं है। और बीते एक दशक में देश की 9 फीसदी खेती की जमीन विकास ने हड़पी है जिसकी एवज में देश के साढ़े तीन करोड़ किसान परिवार के किसी बच्चे का पेट अब पीढियों से पेट भरती जमीन नहीं भरेगी बल्कि इसी तरह रेलगाडियो की छतों पर सवार होकर नौकरी की तालाश में उसे शहर की ओर निकलना होगा। जहां उसकी मौत हो जाये तो जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी। अगर यह सारे सवाल पत्रकारीय माध्यमों में नहीं उठे तो यह कहने में क्या हर्ज है कि अब पत्रकारीय समझ बदल चुकी है। उसकी जरूरत और उसका समाज भी बदल चुका है । लेकिन पत्रकारिय पाठ तो यही कहता है कि पत्रकारिता तात्कालिकता और समसामयिकता को साधने की कला है। तो क्या अब तात्कालिकता का मतलब महज वह दृश्य है जो परिणाम के तौर पर इतना असरकारक हो कि वह उसके अंदर जिन्दगी के तमाम पहलुओं को भी अनदेखा कर दे।
अगर खबरों के मिजाज को इस दौर में देखे तो किसी भी खबर में आत्मा नहीं होती। यानी पढ़ने वाला अपने को खबर से जोड़ ले इसका कोई सरोकार नहीं होता। और हर खबर एक निर्णायक परिणाम खोजती है। चाहे वह बेरोजगारों की जिन्दगी के अनझुये पहलुओं का सच तस्वीर के साये में खोना हो । या फिर ए राजा से लेकर सुरेश कलमाड़ी, अशोक चव्हाण , पी जे थॉमस सरीखे दर्जनो नेताओं के भ्रष्टाचार पर सजा के निर्णय के ओर सत्ता को ठकेलना ब्रेकिंग न्यूज और सजा का इंतजार राजनीति संघर्ष यानी निर्णय जैसे ही हुआ कहानी खत्म हुई । कॉमनवेल्थ को सफल बनाने से जुडे डेढ़ हजार से ज्यादा कर्मचारियों को कलमाड़ी की वजह से वेतन रुक गया यह खबर नहीं है। आदर्श सोसायटी बनाने में लगे तीन सौ 85 मजदूरों को पगार उनके ठेकेदार ने रोक दी। यह खबर नहीं है। असल में इस तरह हर चेहरे के पीछे समाज के ताने-बाने की जरुरत वाली जानकारी अगर खबर नहीं है तो फिर समझना यह भी होगा कि पत्रकारीय समझ चाहे अपने अपने माध्यमों में चेहरे गढ़ कर टीआरपी तो बटोर लेगी लेकिन पढ़ने वालों को साथ लेकर ना चल सकेगी। ना ही किसी भी मुद्दे पर सरकार का विरोध जनता कर पायेगी। और आज जैसे तमाम राजनेता एक सरीखे लगते हैं जिससे बदलाव या विकल्प की बयार संसद के हंगामे में गुम हो जाती है। ठीक इसी तरह अखबार या न्यूज चैनल या फिर संपादक या रिपोर्टर को लेकर भी सिर्फ यही सवाल खडा होगा। यानी अब वह वक्त इतिहास हो चुका है जब सवाल खड़ा हो कि साहित्य को पत्रकारिता में कितनी जगह दी जाये या दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं। या फिर पत्रकारिता या साहित्य की भाषा आवाम की हो या सत्ता की । जिससे मुद्दों की समझ सत्ता में विकसित हो या जनता सत्ता को समझ सके।
दरअसल यह मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। लेकिन अब पत्रकारिता धन और रोजी पर टिकी है क्योकि वैकल्पिक समाज को बहुत तेजी से उस सत्ता ने खत्म किया जिसे अपने विस्तार में ऐसे माध्यम रुकावट लगते हैं जो एकजुटता का बोध लिये जिन्दगी जीने पर भरोसा करते हैं। यह सत्ता सियासत भी है और कारपोरेट भी। यह शहरी मानसिकता भी है और एकाकी परिवार में एक अदद नौकरी की धुरी पर जीने का नजरिया भी। यह संसद में बैठे जनता की नुमाइन्दगी के नाम पर सत्ता में दोबारा पहुंचने के लिये नीतियों को जामा पहनाने वाले सांसद भी है और किसी अखबार या न्यूज चैनलो के कैबिन में दरवाजा बंद कर अपनी कोठरी से अपने संपादक होने के आतंक पर ठप्पा लगाने में माहिर पत्रकार भी। यह सवाल कोई दूर की गोटी नहीं है कि आखिर क्यों देश में कोई लीडर नहीं है जिसके पीछे आवाम खड़ी हो या कोई ऐसा संपादक नहीं जिसके पीछे पत्रकारों की एक पूरी टीम खड़ी हो। दरअसल इस दौर में जिस तरह सवा चार लाख बेरोजगार एक बडी तादाद होकर भी अपने आप में अकेले हैं। ठीक इसी तरह देश में किसी ट्रेन दुर्घटना में मरते सौ लोग भी अकेले हैं और देश में रोजगार दफ्तर में रजिस्ट्रड पौने तीन करोड़ बेरोजगार भी अकेले ही हैं। कहा यह भी जा सकता है कि पत्रकारीय समाज के बडे विस्तार के बावजूद संपादक भी निरा अकेला ही है। और साहित्यकर्म में लगा सहित्यकार भी अकेला है ।
इसलिये पत्रकारिता से अगर सरोकार खत्म हुआ हो तो साहित्य से सामुहिकता का बोध लिये रचनाकर्म। इसलिये पहली बार मुद्दों की टीले पर बैठे देश का हर मुद्दा भी अपने आप में अकेला है। और उसके खिलाफ हर आक्रोश भी अकेला है। जो मिस्र, जार्डन,यूनान, ट्यूनेशिया को देखकर कुछ महसूस तो कर रहा है लेकिन खौफजदा है कि वह अकेला है। और पत्रकारीय समझ बिंबों के आसरे खुद को आईना दिखाने से आगे बढ नही पा रही है।
बरेली में बेरोजगारों के इतने बडे समूह को देखकर पत्रकारीय समझ ने बिंबों के आसरे मिस्र के तहरीर चौक का अक्स तो दिखाया , मगर यह सवाल कहीं खडा नहीं हो पाया कि बाजार अर्थव्यवस्था से बडा तानाशाह हुस्नी मुबारक भी नहीं है। और बीते एक दशक में देश की 9 फीसदी खेती की जमीन विकास ने हड़पी है जिसकी एवज में देश के साढ़े तीन करोड़ किसान परिवार के किसी बच्चे का पेट अब पीढियों से पेट भरती जमीन नहीं भरेगी बल्कि इसी तरह रेलगाडियो की छतों पर सवार होकर नौकरी की तालाश में उसे शहर की ओर निकलना होगा। जहां उसकी मौत हो जाये तो जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी। अगर यह सारे सवाल पत्रकारीय माध्यमों में नहीं उठे तो यह कहने में क्या हर्ज है कि अब पत्रकारीय समझ बदल चुकी है। उसकी जरूरत और उसका समाज भी बदल चुका है । लेकिन पत्रकारिय पाठ तो यही कहता है कि पत्रकारिता तात्कालिकता और समसामयिकता को साधने की कला है। तो क्या अब तात्कालिकता का मतलब महज वह दृश्य है जो परिणाम के तौर पर इतना असरकारक हो कि वह उसके अंदर जिन्दगी के तमाम पहलुओं को भी अनदेखा कर दे।
अगर खबरों के मिजाज को इस दौर में देखे तो किसी भी खबर में आत्मा नहीं होती। यानी पढ़ने वाला अपने को खबर से जोड़ ले इसका कोई सरोकार नहीं होता। और हर खबर एक निर्णायक परिणाम खोजती है। चाहे वह बेरोजगारों की जिन्दगी के अनझुये पहलुओं का सच तस्वीर के साये में खोना हो । या फिर ए राजा से लेकर सुरेश कलमाड़ी, अशोक चव्हाण , पी जे थॉमस सरीखे दर्जनो नेताओं के भ्रष्टाचार पर सजा के निर्णय के ओर सत्ता को ठकेलना ब्रेकिंग न्यूज और सजा का इंतजार राजनीति संघर्ष यानी निर्णय जैसे ही हुआ कहानी खत्म हुई । कॉमनवेल्थ को सफल बनाने से जुडे डेढ़ हजार से ज्यादा कर्मचारियों को कलमाड़ी की वजह से वेतन रुक गया यह खबर नहीं है। आदर्श सोसायटी बनाने में लगे तीन सौ 85 मजदूरों को पगार उनके ठेकेदार ने रोक दी। यह खबर नहीं है। असल में इस तरह हर चेहरे के पीछे समाज के ताने-बाने की जरुरत वाली जानकारी अगर खबर नहीं है तो फिर समझना यह भी होगा कि पत्रकारीय समझ चाहे अपने अपने माध्यमों में चेहरे गढ़ कर टीआरपी तो बटोर लेगी लेकिन पढ़ने वालों को साथ लेकर ना चल सकेगी। ना ही किसी भी मुद्दे पर सरकार का विरोध जनता कर पायेगी। और आज जैसे तमाम राजनेता एक सरीखे लगते हैं जिससे बदलाव या विकल्प की बयार संसद के हंगामे में गुम हो जाती है। ठीक इसी तरह अखबार या न्यूज चैनल या फिर संपादक या रिपोर्टर को लेकर भी सिर्फ यही सवाल खडा होगा। यानी अब वह वक्त इतिहास हो चुका है जब सवाल खड़ा हो कि साहित्य को पत्रकारिता में कितनी जगह दी जाये या दोनो एक दूसरे के बगैर अधूरे हैं। या फिर पत्रकारिता या साहित्य की भाषा आवाम की हो या सत्ता की । जिससे मुद्दों की समझ सत्ता में विकसित हो या जनता सत्ता को समझ सके।
दरअसल यह मिशन से शुरू हुई पत्रकारिता के कौशल में तब्दील होने का सच है। यानी जिस जमाने में देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था और पत्रकारिता उसकी तलवार थी तब वह मिशन हो सकती थी। उसमें धन और रोजी नहीं थी। लेकिन अब पत्रकारिता धन और रोजी पर टिकी है क्योकि वैकल्पिक समाज को बहुत तेजी से उस सत्ता ने खत्म किया जिसे अपने विस्तार में ऐसे माध्यम रुकावट लगते हैं जो एकजुटता का बोध लिये जिन्दगी जीने पर भरोसा करते हैं। यह सत्ता सियासत भी है और कारपोरेट भी। यह शहरी मानसिकता भी है और एकाकी परिवार में एक अदद नौकरी की धुरी पर जीने का नजरिया भी। यह संसद में बैठे जनता की नुमाइन्दगी के नाम पर सत्ता में दोबारा पहुंचने के लिये नीतियों को जामा पहनाने वाले सांसद भी है और किसी अखबार या न्यूज चैनलो के कैबिन में दरवाजा बंद कर अपनी कोठरी से अपने संपादक होने के आतंक पर ठप्पा लगाने में माहिर पत्रकार भी। यह सवाल कोई दूर की गोटी नहीं है कि आखिर क्यों देश में कोई लीडर नहीं है जिसके पीछे आवाम खड़ी हो या कोई ऐसा संपादक नहीं जिसके पीछे पत्रकारों की एक पूरी टीम खड़ी हो। दरअसल इस दौर में जिस तरह सवा चार लाख बेरोजगार एक बडी तादाद होकर भी अपने आप में अकेले हैं। ठीक इसी तरह देश में किसी ट्रेन दुर्घटना में मरते सौ लोग भी अकेले हैं और देश में रोजगार दफ्तर में रजिस्ट्रड पौने तीन करोड़ बेरोजगार भी अकेले ही हैं। कहा यह भी जा सकता है कि पत्रकारीय समाज के बडे विस्तार के बावजूद संपादक भी निरा अकेला ही है। और साहित्यकर्म में लगा सहित्यकार भी अकेला है ।
इसलिये पत्रकारिता से अगर सरोकार खत्म हुआ हो तो साहित्य से सामुहिकता का बोध लिये रचनाकर्म। इसलिये पहली बार मुद्दों की टीले पर बैठे देश का हर मुद्दा भी अपने आप में अकेला है। और उसके खिलाफ हर आक्रोश भी अकेला है। जो मिस्र, जार्डन,यूनान, ट्यूनेशिया को देखकर कुछ महसूस तो कर रहा है लेकिन खौफजदा है कि वह अकेला है। और पत्रकारीय समझ बिंबों के आसरे खुद को आईना दिखाने से आगे बढ नही पा रही है।
Tuesday, February 1, 2011
स्पेक्ट्रम की कमाई को मात देता कोयला खदान का लाइसेंस
कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल राज्य मंत्री से न सिर्फ कैबिनेट मंत्री हो गये बल्कि उन्हें प्रमोशन देकर भी उसी मंत्रालय में प्रधानमंत्री ने रखा। यानी पहला संकेत तो यही है कि मनमोहन सिंह कोयला खनन को लेकर श्रीप्रकाश जायसवाल से खासे खुश हैं। लेकिन इस संकेत के पीछे कुछ ऐसे सवाल हैं, जो देश में कोयला खनन को लेकर सरकार की नीतियों पर सवाल उठा रहे हैं और अब लग भी यही रहा है कि इन्हीं नीतियों को अमल में लाने के लिये श्रीप्रकाश जायसवाल को कैबिनेट स्तर पर लाया गया है। नयी परिस्थितियों में कोयला खनन की इजाजत देश में पर्यावरण की नीतियों को हाशिये पर रख कर की जायेगी। टाइगर रिजर्व के क्षेत्र में भी कोयला खनन होगा और झारखंड से लेकर बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियो की जमीन पर कोयला खनन की इजाजत देकर आदिवासियो की कई प्रजातियो के आस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा। इतना ही नहीं महाराष्ट्र के वर्धा में जिस बापू कुटिया के लेकर देश संवेदनशील रहता है, उस वर्धा में साठ वर्ग की जमीन के नीचे खदान खोद दी जायेगी। असल में विकास की जिन नीतियो को सरकार लगातार हरी झंडी दे रही है, उसमें पावर प्लांट से लेकर स्टील उद्योग के लिये कोयले की जरुरत है। लेकिन कोयला जब तक राष्ट्रीय घरोहर बना रहेगा और सिर्फ सरकारी कोल इंडिया के कब्जे में रहेगा तब तक मनमोहन सिंह के विकास की थ्योरी अमल में लाना मुश्किल होगा।
इसलिये 37 साल बाद दुबारा कोयला खादान को निजी हाथो में सौपने की तैयारी में सरकार जुटी है। और कोयले से करोड़ों का वारा-न्यारा कर मुनाफा बनाने में चालीस से ज्यादा कंपनिया सिर्फ इसीलिये बन गयी, जिससे उन्हें कोयला खदान का लाइसेंस मिल जाये। बीते पांच बरस में कोयला खदानो के लाइसेंस का बंदर बांट जिस तर्ज पर जिन कंपनियो को हुआ है, अगर उसकी फेहरिस्त देखें और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके देखें तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला पीछे छूट जायेगा। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्रेकेट खदान मिलता रहा है तो बीते पांच साल में देश भर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्रेकेट का लाइसेंस दिया गया है। इन सभी को जोड़ने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा, इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है। लेकिन यह पूरा खेल कैसे खेला जा रहा है और अब इसमें तेजी आयेगी इसे समझने के लिये इसके पन्ने भी शुरु से पलटने होंगे। कोयला तो काला सोना है, इसे दुनिया के पर्यावरणविद् चाहे यह कहकर न माने कि विकास के आधुनिक दौर में कोयला वाकई काला है और यह पर्यावरण के लिये फिट नहीं बैठता । लेकिन भारत में कोयला खदानो के जरीये न बड़ा खेल खेला जा रहा है, उसमें यह कहने से कोई नहीं कतराता कि यह वाकई काला सोना है। और इसकी कमाई में कोई अड़चन न आये या हाथ काले न हो यह कैबिनेट की उस मोहर से भी सामने आ गया, जिसमें कोयला खदानो को लेकर अब सिर्फ पर्यावरण मंत्रालय की दादागिरी से अधिकार छीनकर मंत्रियों के समूह को यह फैसला लेने का अधिरकार दे दिया गया कि वह जिसे चाहे उसे कोयला खदान देने और खादान से कोयला निकालने की इजाजत दे सकता है। असल में अभी तक कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियो को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ता था। लेकिन अब जिसे भी कोयले खदान का लाइसेंस मिलेगा उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरुरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियो के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा । लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियो के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं । यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खादान ना हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खादान ना हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योंकि मंत्रियों के समूह में वित्त ,वाणिज्य और कृषि मंत्री की इस पर सहमति हो कि कोयला खादानो के जरीये ही उघोग के क्षेत्र में विकास हो सकता है। यानी मनमोहन सिंह की विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था की रफ्तार में पर्यावरण सरीखे मुद्दे रुकावट ना डाले इसकी बिसात बिछा दी गयी है। लेकिन खुली अर्थव्यवस्था के खेल में अगर यह कोयला खादानो का पहला सच है तो इसकी पीछे की हकीकत कही ज्यादा त्रासदीपूर्ण है। क्योंकि कोयला खादानो को लेकर देश में खेल क्या चल रहा है और यही खेल कैसे रफ्तार पकड़ेगा, इसे समझने के लिये कोयला खदान को लेकर मनमोहन सिंह की उन नीतियों के पन्ने उलटने होंगे जो 1995 में उन्होने बतौर वित्त मंत्री रहते हुये बनायी थी। लेकिन उससे पहले याद कीजिये 1979 में बनी फिल्म कालापत्थर को। जिसमें कोयला खदानो से मुनाफा बनाने के लिये निजी मालिक मजदूरो की जिन्दगी दांव पर लगाता है। असल में यह फिल्म भी झारखंड की उस चासनाला कोयला खादान के हादसे पर बनी थी, जिसमें कोयला निकालते सैकड़ों मजदूरों की मौत खादान में पानी भरने से हुई थी। और जांच रिपोर्ट में यह पाया गया था कि कोयला निकालने का काम खादान में जारी रखने पर पानी भर सकता है, इसकी जानकारी भी पहले से खादान मालिक को थी।
असल में निजी कोयला खादानो में मजदूरो के शोषण को देखकर ही 1973 में इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया। लेकिन 1995 में बत्तौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कोल इंडिया के सामने यह लकीर खींच दी कि सरकार कोल इंडिया को अब मदद नहीं देगी बल्कि वह अपनी कमाई से ही कोल इंडिया चलाये तो 1995 से कोल इंडिया भी ठेकेदारी पर कोयला खादान में काम कराने लगा और मजदूरों के शोषण या ठेकेदारी के मातहत काम करने वाले मजदूरो के हालात कितने बदतर है, यह आज भी झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश में देखा जा सकता है। यानी आर्थिक सुधार की बयार में यह मान लिया गया कि कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को कोई लाभ मनमोहन की इक्नामिक थ्योरी तले देश को हो नहीं सकता। यानी देश के खदान मजदूरों को लेकर जो भी खाका सरकार ने खींचा, वह खुली अर्थव्यवस्था में फेल मान लिया गया। क्योंकि ठेकेदारी प्रथा ज्यादा मुनाफा देने की स्थिति में है।
लेकिन संकट सिर्फ इतना भर नहीं है कि नयी परिस्थितियों में कोयला खदान के जरीये कैसे मुनाफे का रास्ता लाइसेंस पाने के साथ ही खुलता है और लाइसेंस लेना ही सबसे बडा धंधा हो जायेगा। न सिर्फ यह सामने आ रहा है बल्कि कोयले की इस लूट में राज्य सरकारें भी शामिल है और किसी भी कारपोरेट के लाइसेंस पर कोई आंच नही आये इसकी व्यवस्था भी मनमोहन सिंह सरकार ने कर दी है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते छह साल में 342 खदानो के लाइसेंस बांटे गये, जिसमें 101 लाइसेंसधारको ने कोयला का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन छह सालो में इन्ही कोयला कादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानो से जितना कोयला निकाला जाना था, अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खादान के लाइसेंस उन कंपनियो को दे दिये गये, जिन्होंने लाइसेंस इसलिए लिए कि वक्त आने पर खदान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकीनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खादान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर अंडरवियर-जांघिया बेचने वाली कंपनिया भी हैं और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी । इतना ही नही दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें न तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और न ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाईसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरैनी के करीब एस्सार ग्रूप तीन पावर प्लांट को खरीदने के लिये सौदेबाजी कर रही है, जिनके पास खादान और पावरप्लाट का लाइसेंस है, लेकिन वह पावर सेक्टर को व्यापार के जरीये मुनाफा बनाने का खेल समझती है।
वहीं बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उड़ीसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामर्शियल यूज के लिये कोयला खदानों का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानों को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेहरिस्त में श्री बैघनाथ आयुर्वेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री समेत 42 कंपनियां ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खादान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खदानो की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव न तो खादानो को चलाने का है और न ही खदानो के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाईसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियो के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यों दिखायी, यह समझना भी कम त्रासदीदायक नहीं है।
जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लि. को लाइसेंस दिया। लेकिन इससे पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाईसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गये। असल में पर्यावरण मंत्रालय की आपत्तियों को भी समझना होगा उसने अडानी ग्रुप का लाइसेंस इसलिये रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन क्या अब ऐसे हालात में पर्यावरण मंत्रालय कोई निर्णय ले पायेगा। असल में यह सोचना भी नामुमकिन है। क्योंकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिये पड़े हैं । और इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है, जहा टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खादान निर्धारित किया गया है। इस पर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खादानो को जरीये मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है। महाराष्ट्र में अब कही कोयला खादान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के दस किलोमीटर के भीतर पॉवर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी। तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रो में कोयला खादान खोजी गयी है।
किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा,माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव,भांडक पूर्वी,दक्षिण वरोरा,जारी जमानी, लोहारा,मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा। यानी वर्धा की यह सभी खदानों में जिस दिन काम शुरु हो गया, उस दिन से वर्धा की पहचान नये झरिया के तौर पर हो जायेगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहा सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है। और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है। खासबात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खादानो को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों में खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मीट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है। जिसमें 1931 मिट्रिक टन कोयला सिर्फ आंनदवन के इलाके में है। असल में मनमोहन सिंह लगातार चाहते है कि कोयला खादान पूरी तरह निजी हाथों में आ जाये, इसके लिये विधायक भी सरकार के एंजेडे में पडा है जो बजट सत्र के दौरान भी संसद में रखा जा सकता है। क्योंकि कोयले के निजीकरण से पावर सेक्टर और निर्माण क्षेत्र में लगने वाला सीमेंट और लौहा उघोग भी जुड़ा है। और सरकार भी इस सच को समझ रही है कि ज्यादा मुनाफे का रास्ता अगर उन उघोगों के लिये नहीं खोला गया तो विकास की जो लकीर मनमोहनोमिक्स देश पर लादना चाहती है, उसे रफ्तार नहीं मिल पायेगा। लेकिन इसमें भी सियासत का खेल खुल कर खेला जा रहा है। आदिवासियो के नाम पर उडीसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खादानो की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लॉक कोयला खादान के चुने गये हैं। जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में हैं, जहां आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़ियां रहती हैं। राजमहल क्षेत्र के पचवाड़ा और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फीसदी आदिवासी है। लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है। वहीं बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं, जहां 75 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। वहां पर भी कोयला खदान का लाइसेंस अगले चंद दिनों में किसी न किसी कंपनी को दे दिया जायेगा।
खास बात यह है कि कोयला खदानों के सामानांतर पावर प्रजोक्ट के लाइसेंस भी बांटने की एक पूरी प्रक्रिया इसी तर्ज पर किसी भी कंपनी को दी जा रही है। जो लाइसेंस पाने के बाद खुले बाजार में उसी तरीके से लाइसेंस की सौदेबाजी करते है जैसे 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंसधारको ने किया। यानी कोयला खादान के लाइसेंस देने की एवज में मंत्री-नौकरशाहो के वारे-न्यारे जो अभी तक होते आये अब उसमें एक नयी तेजी आयेगी क्योकि पर्यावरण मंत्रालय पर तो ग्रुप आफ मिनिस्टर की नकेल तय है। फिर 2जी स्पेक्ट्रम की तरह किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर ना लगे, इसके लिये 148 कोयला खदानों के लिये अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है । यानी विकास के लिये सूचना का ऐसा खुला खेल जिसमें हर कोई शरीक हो और यह भी ना लगे कि कोयला काला सोना है, जिसकी पीठ पर बैठकर करोड़ों के धंधे की सवारी की जा रही है। और हर उस प्रभावी को जिसके पास पूंजी और सत्ता से जुडने की साख है कोयला खनन का लाइसेंस ले सकता है।
इसलिये 37 साल बाद दुबारा कोयला खादान को निजी हाथो में सौपने की तैयारी में सरकार जुटी है। और कोयले से करोड़ों का वारा-न्यारा कर मुनाफा बनाने में चालीस से ज्यादा कंपनिया सिर्फ इसीलिये बन गयी, जिससे उन्हें कोयला खदान का लाइसेंस मिल जाये। बीते पांच बरस में कोयला खदानो के लाइसेंस का बंदर बांट जिस तर्ज पर जिन कंपनियो को हुआ है, अगर उसकी फेहरिस्त देखें और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके देखें तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला पीछे छूट जायेगा। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्रेकेट खदान मिलता रहा है तो बीते पांच साल में देश भर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्रेकेट का लाइसेंस दिया गया है। इन सभी को जोड़ने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा, इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है। लेकिन यह पूरा खेल कैसे खेला जा रहा है और अब इसमें तेजी आयेगी इसे समझने के लिये इसके पन्ने भी शुरु से पलटने होंगे। कोयला तो काला सोना है, इसे दुनिया के पर्यावरणविद् चाहे यह कहकर न माने कि विकास के आधुनिक दौर में कोयला वाकई काला है और यह पर्यावरण के लिये फिट नहीं बैठता । लेकिन भारत में कोयला खदानो के जरीये न बड़ा खेल खेला जा रहा है, उसमें यह कहने से कोई नहीं कतराता कि यह वाकई काला सोना है। और इसकी कमाई में कोई अड़चन न आये या हाथ काले न हो यह कैबिनेट की उस मोहर से भी सामने आ गया, जिसमें कोयला खदानो को लेकर अब सिर्फ पर्यावरण मंत्रालय की दादागिरी से अधिकार छीनकर मंत्रियों के समूह को यह फैसला लेने का अधिरकार दे दिया गया कि वह जिसे चाहे उसे कोयला खदान देने और खादान से कोयला निकालने की इजाजत दे सकता है। असल में अभी तक कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियो को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ता था। लेकिन अब जिसे भी कोयले खदान का लाइसेंस मिलेगा उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरुरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियो के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा । लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियो के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं । यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खादान ना हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खादान ना हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योंकि मंत्रियों के समूह में वित्त ,वाणिज्य और कृषि मंत्री की इस पर सहमति हो कि कोयला खादानो के जरीये ही उघोग के क्षेत्र में विकास हो सकता है। यानी मनमोहन सिंह की विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था की रफ्तार में पर्यावरण सरीखे मुद्दे रुकावट ना डाले इसकी बिसात बिछा दी गयी है। लेकिन खुली अर्थव्यवस्था के खेल में अगर यह कोयला खादानो का पहला सच है तो इसकी पीछे की हकीकत कही ज्यादा त्रासदीपूर्ण है। क्योंकि कोयला खादानो को लेकर देश में खेल क्या चल रहा है और यही खेल कैसे रफ्तार पकड़ेगा, इसे समझने के लिये कोयला खदान को लेकर मनमोहन सिंह की उन नीतियों के पन्ने उलटने होंगे जो 1995 में उन्होने बतौर वित्त मंत्री रहते हुये बनायी थी। लेकिन उससे पहले याद कीजिये 1979 में बनी फिल्म कालापत्थर को। जिसमें कोयला खदानो से मुनाफा बनाने के लिये निजी मालिक मजदूरो की जिन्दगी दांव पर लगाता है। असल में यह फिल्म भी झारखंड की उस चासनाला कोयला खादान के हादसे पर बनी थी, जिसमें कोयला निकालते सैकड़ों मजदूरों की मौत खादान में पानी भरने से हुई थी। और जांच रिपोर्ट में यह पाया गया था कि कोयला निकालने का काम खादान में जारी रखने पर पानी भर सकता है, इसकी जानकारी भी पहले से खादान मालिक को थी।
असल में निजी कोयला खादानो में मजदूरो के शोषण को देखकर ही 1973 में इंदिरा गांधी ने कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण किया। लेकिन 1995 में बत्तौर वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कोल इंडिया के सामने यह लकीर खींच दी कि सरकार कोल इंडिया को अब मदद नहीं देगी बल्कि वह अपनी कमाई से ही कोल इंडिया चलाये तो 1995 से कोल इंडिया भी ठेकेदारी पर कोयला खादान में काम कराने लगा और मजदूरों के शोषण या ठेकेदारी के मातहत काम करने वाले मजदूरो के हालात कितने बदतर है, यह आज भी झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश में देखा जा सकता है। यानी आर्थिक सुधार की बयार में यह मान लिया गया कि कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण से सरकार को कोई लाभ मनमोहन की इक्नामिक थ्योरी तले देश को हो नहीं सकता। यानी देश के खदान मजदूरों को लेकर जो भी खाका सरकार ने खींचा, वह खुली अर्थव्यवस्था में फेल मान लिया गया। क्योंकि ठेकेदारी प्रथा ज्यादा मुनाफा देने की स्थिति में है।
लेकिन संकट सिर्फ इतना भर नहीं है कि नयी परिस्थितियों में कोयला खदान के जरीये कैसे मुनाफे का रास्ता लाइसेंस पाने के साथ ही खुलता है और लाइसेंस लेना ही सबसे बडा धंधा हो जायेगा। न सिर्फ यह सामने आ रहा है बल्कि कोयले की इस लूट में राज्य सरकारें भी शामिल है और किसी भी कारपोरेट के लाइसेंस पर कोई आंच नही आये इसकी व्यवस्था भी मनमोहन सिंह सरकार ने कर दी है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते छह साल में 342 खदानो के लाइसेंस बांटे गये, जिसमें 101 लाइसेंसधारको ने कोयला का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन छह सालो में इन्ही कोयला कादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानो से जितना कोयला निकाला जाना था, अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खादान के लाइसेंस उन कंपनियो को दे दिये गये, जिन्होंने लाइसेंस इसलिए लिए कि वक्त आने पर खदान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकीनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खादान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर अंडरवियर-जांघिया बेचने वाली कंपनिया भी हैं और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी । इतना ही नही दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें न तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और न ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाईसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरैनी के करीब एस्सार ग्रूप तीन पावर प्लांट को खरीदने के लिये सौदेबाजी कर रही है, जिनके पास खादान और पावरप्लाट का लाइसेंस है, लेकिन वह पावर सेक्टर को व्यापार के जरीये मुनाफा बनाने का खेल समझती है।
वहीं बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उड़ीसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामर्शियल यूज के लिये कोयला खदानों का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानों को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेहरिस्त में श्री बैघनाथ आयुर्वेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री समेत 42 कंपनियां ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खादान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खदानो की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव न तो खादानो को चलाने का है और न ही खदानो के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाईसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियो के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यों दिखायी, यह समझना भी कम त्रासदीदायक नहीं है।
जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लि. को लाइसेंस दिया। लेकिन इससे पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाईसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गये। असल में पर्यावरण मंत्रालय की आपत्तियों को भी समझना होगा उसने अडानी ग्रुप का लाइसेंस इसलिये रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन क्या अब ऐसे हालात में पर्यावरण मंत्रालय कोई निर्णय ले पायेगा। असल में यह सोचना भी नामुमकिन है। क्योंकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिये पड़े हैं । और इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है, जहा टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खादान निर्धारित किया गया है। इस पर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खादानो को जरीये मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है। महाराष्ट्र में अब कही कोयला खादान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के दस किलोमीटर के भीतर पॉवर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी। तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रो में कोयला खादान खोजी गयी है।
किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा,माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव,भांडक पूर्वी,दक्षिण वरोरा,जारी जमानी, लोहारा,मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा। यानी वर्धा की यह सभी खदानों में जिस दिन काम शुरु हो गया, उस दिन से वर्धा की पहचान नये झरिया के तौर पर हो जायेगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहा सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है। और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है। खासबात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खादानो को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों में खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मीट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है। जिसमें 1931 मिट्रिक टन कोयला सिर्फ आंनदवन के इलाके में है। असल में मनमोहन सिंह लगातार चाहते है कि कोयला खादान पूरी तरह निजी हाथों में आ जाये, इसके लिये विधायक भी सरकार के एंजेडे में पडा है जो बजट सत्र के दौरान भी संसद में रखा जा सकता है। क्योंकि कोयले के निजीकरण से पावर सेक्टर और निर्माण क्षेत्र में लगने वाला सीमेंट और लौहा उघोग भी जुड़ा है। और सरकार भी इस सच को समझ रही है कि ज्यादा मुनाफे का रास्ता अगर उन उघोगों के लिये नहीं खोला गया तो विकास की जो लकीर मनमोहनोमिक्स देश पर लादना चाहती है, उसे रफ्तार नहीं मिल पायेगा। लेकिन इसमें भी सियासत का खेल खुल कर खेला जा रहा है। आदिवासियो के नाम पर उडीसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खादानो की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लॉक कोयला खादान के चुने गये हैं। जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में हैं, जहां आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़ियां रहती हैं। राजमहल क्षेत्र के पचवाड़ा और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फीसदी आदिवासी है। लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है। वहीं बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं, जहां 75 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। वहां पर भी कोयला खदान का लाइसेंस अगले चंद दिनों में किसी न किसी कंपनी को दे दिया जायेगा।
खास बात यह है कि कोयला खदानों के सामानांतर पावर प्रजोक्ट के लाइसेंस भी बांटने की एक पूरी प्रक्रिया इसी तर्ज पर किसी भी कंपनी को दी जा रही है। जो लाइसेंस पाने के बाद खुले बाजार में उसी तरीके से लाइसेंस की सौदेबाजी करते है जैसे 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंसधारको ने किया। यानी कोयला खादान के लाइसेंस देने की एवज में मंत्री-नौकरशाहो के वारे-न्यारे जो अभी तक होते आये अब उसमें एक नयी तेजी आयेगी क्योकि पर्यावरण मंत्रालय पर तो ग्रुप आफ मिनिस्टर की नकेल तय है। फिर 2जी स्पेक्ट्रम की तरह किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर ना लगे, इसके लिये 148 कोयला खदानों के लिये अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है । यानी विकास के लिये सूचना का ऐसा खुला खेल जिसमें हर कोई शरीक हो और यह भी ना लगे कि कोयला काला सोना है, जिसकी पीठ पर बैठकर करोड़ों के धंधे की सवारी की जा रही है। और हर उस प्रभावी को जिसके पास पूंजी और सत्ता से जुडने की साख है कोयला खनन का लाइसेंस ले सकता है।