प्यार अगर आवारगी की शक्ल ले ले तो सवाल वाकई.......साली जिन्दगी का हो जाता है। और सुधीर मिश्रा ने इऱफान के जरिए इसी आवारगी को पकड़ने की कोशिश की है। इसलिये जो भागती-दौड़ती जिन्दगी में रोबोट हो चुके हैं, उन्हें यह फिल्म नहीं देखनी चाहिये। हां...जो प्यार की कसक में आंखो से पीने की चाहत लिये जीते हैं, उन्हें यह फिल्म जरुर देखनी चाहिये। तो .....यह साली जिन्दगी जीने-मरने, खूब कमाने या समाज से मान्यता चाहने वाली सोच से इतर है। यह फिल्म आवारा होकर भी संबंधों में इमानदारी बरतती है। इसलिये देखने वाले ऐसे प्यार में ताजा हवा के झोंके को महसूस कर सकते हैं। क्योंकि माशूका अगर अपराध करने पर मजबूर करती है तो उसकी चाहत अपराध करने में भी इमानदारी बरतती है और फिल्म भी अपराध-प्यार के कॉकटेल का ऐसा नशा पैदा करती है, जिसमें देखने वालो में सिनेमायी पर्दें पर अलग अलग चरित्रों को जीते कलाकार स्वाभाविक लगने लगते हैं। चूंकि फिल्म दिल्ली-हरियाणा के उस रुखे मिजाज के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, जहां पैसा कमाना ही सबसे अहम होता जा रहा है। और इस समाज के चंद हाथों में जितनी पूंजी है, उसका अंश भर भी किसी में भी रोमांच पैदा कर सकता है। इसलिये कमाने का यह दांव जीवनभर के सुकून के लिये हर कोई खेलना चाहता है।
और फिल्म में नये कलाकार के तौर पर एन्ट्री देने वाले अरुणोदय सिंह ने प्यार और अपराध के जरिए नोट बनाने की कश्मकश को कमाल का जीया है। वहीं अपराधी के प्यार से पत्नी बनी अदिती राव हैदरी ने भी जिन्दगी की जद्दोजहद में अपराधी पति के साथ रिश्तों को जिस हुनर से जीया है, वह आधुनिक समाज की उस बेबसी को ही दर्शाता है, जहां पकड़े गये तो अपराधी नहीं तो किंग। इसमें सुधीर मिश्रा के कौशल की तारिफ करनी होनी जो समाज के अन्तरद्वंदों को मवाद के साथ उबारते भी हैं और उससे गुदगुदी भी पैदा करने की कोशिश करते हैं। क्योंकि अपराधी बाप के लक्षण जिस मासूमी से बेटे में उभरते हैं और एक नन्हा बालक पहली बार डायलाग बोलता है तो यही कहता है....पता नहीं गुस्सा आ कहां से जाता है और हाथ उठ कैसे जाता है। अद्भुत है। हरियाणवी समाज के अपराध हों या युवाओ के लिये रखैल की तरह गालियों का श्रृंगार भरे संवाद...जिस बेखौफ तरीके से स्क्रीन पर रेंगते हैं, उसमें यह एहसास कभी नहीं जागता कि जिन्दगी साली क्यों है.....और फिल्म का यह बिंब क्यों चुना गया । हालांकि चित्रांगदा की खूबसूरती को बार बार सिल्वर स्क्रीन तमाशा बनाने की कोशिश करता लेकिन किसी सेंट की बोतल खोलने पर हवा में घुलती खुशबू सरीखी ही चित्रांगदा लगती है और इसी खूशबू को सूंघ कर इरफान जिस मदहोशी में उसके प्यार को जीते है वह कमाल का है। असल में फिल्म की जान इरफान ही हैं। फिल्म के सभी किरदार को कैमरे के सामने एक्टिंग करते है लेकिन इरफान कैमरे को आमंत्रित करते हुये दिखते हैं कि उनका पूरा शरीर बोल रहा है अब कैमरा जहां से चाहे उनकी एक्टिंग को पकड़ ले। इरफान ने मकबूल के बाद खुलकर ये साली जिन्दगी को जीया है। इरफान की अदाकारी को किसी ने पकड़ा तो वो सौरभ शुक्ला हैं। वो जब भी इरफान के साथ स्क्रीन पर आते हैं,तो उन्हें टक्कर देते लगते हैं।
और सुधीर मिश्रा का निर्देशन...ये साली जिन्दगी में फिल्म ‘इस रात की सुबह नहीं’ का अक्स भी बार बार दिखायी पडता है । चूंकि फिल्म आवारगी की चादर ओढ़कर इश्क में ईमानदारी का घोल घोलती है तो फिल्म का आखिरी सीन कई बिंबो को एकसाथ समेट कर ईमानदार जिन्दगी को भी आवारा होने का न्योता देता है।
aap to film ka bhi behatar anweshan kar rahen hai...jari rakhiye
ReplyDeleteआपने हम दोनों के तो खैर टिकट कटवा ही दिये, इस फिल्म के!
ReplyDeleteये साली जिन्दगी
ReplyDeleteJO PAGALPAN "ROG" ME DIKHA,WAISA TO IS FILM ME KAHI MAHSOOS HI NAHI HUAA....ABHDRA SHABD NA TO JINDAGI BANATE HAI AUR NA HI ASLILTA KO FILM ME DIKHAKAR RUMANIYAT PAIDA KI JA SAKTI HAI..GAUR KIJIYEGA "RAT BAKI HAI ABHI,RAT ME RAS BAKI HAI....PAKE TUJHO TUJHE PANE KI HAWAS BAKI HAI ABHI" YE MAHAJ SHABD HAI PAR IS KADAR FILMYA GAYA HAI KI SHABD KUCH AUR HAI VYAKT KARNE KE LIYE JIS SIDDAT SE CHEHRE PAR BHAWANAWO KO SAJAYA GAYA HAI..KAMAL KA HAI..WAHA KUCH BHI ASLIL NAHI PAR DEKHKAR SUNKAR INSAN KISI AUR DUNIYA ME JAROOR PAHUCH JAYEGA..
ReplyDeleteसर..वाकई बेहतरीन विश्लेषण.. अब तो फिल्म देखनी ही पड़ेगी..नव धनाड्य वर्ग की दुविधा को बखूबी आपने रेखांकित किया..
ReplyDeleteफिल्म का मज़ा वहां कितना आएगा ये तो नहीं जानते पर जिस खूबी से आपने इसका विश्लेषण किया है पढ़ कर मज़ा आ गया आपने कम समय में बहुत खूबसूरती से सारी कहानी सुना भी दी और हमारा समय भी बचा दिया |
ReplyDeleteशुक्रिया दोस्त |
एक यहाँ भी पढ़ी इस फिल्म की समीक्षा http://cinemanthan.com/tag/ye-saali-zindagi/
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