Saturday, April 30, 2011

लोकपाल के पहले के ट्विस्ट

तो सरकार ऐसे चलती है

भारत आने से पहले मै इग्लैड में रह रही थी । मेरे पिता स्व. इकबाल नारायण मेनन की कंपनी क्राउन मार्ट इंटरनेशनल थी । और मैने पिता के साथ काम करके बिजनेस के बारे में काफी कुछ सिखा । मेरे ससुर की कंपनी एयर इंटरनेशनल थी । मैने उनके जरीये भी एविशन के क्षेत्र में खासी जानकारी हासिल की । मै चाहती थी मेरे बच्चे भारतीय संस्कृति और रीति-रिवाजो को जाने-समझे । तो मै 1994 में भारत आ गयी । यह कहानी मशहूर कारपोरेट लाबिस्ट नीरा राडिया की है । जो उसने सीबीआई को कही । संयोग से जिस वक्त सरकार भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये सिविल सोसायटी के नुमाइन्दो के साथ लोकपाल विधेयक पर चर्चा करने बैठी उसी वक्त राडिया की कहानी कहता सीबीआई का 25 पेजी दस्तावेज सामने आया । असल में नीरा राडिया से पूछताछ के यह दस्तावेज देश चलाने वालो की ऐसी कहनी बया करता है जिसमें कैबिनेट मंत्री से लेकर नार्थ-साउथ ब्लाक का संतरी और मंत्रालयो के सचिवो से लेकर टाप कारपोरेट घराने किस तरह कारपोरेट लाबिस्ट, नौकरशाह के बिचौलियो और राजनीतिक दलालो के जरीये एकजूट होकर देश की नीतियों को बेच या खरीदकर अपना-अपना मुनाफा बनाने में ही जुटते है । और चूकि चकाचौंघ विकास की सरकार की थ्योरी के दायरे में देश का राजस्व कौंन किस तरह हडप रहा है यह मायने नही रखता तो मुनाफा तंत्र भी धीरे धीरे एक ऐसी व्यूह रचना करती है जिसमें लाबिस्ट पहले जिन नौकरशाहो के जरीये मंत्री तक पहुंचती है और मंत्रियो को नौकरशाहो के जरीये ही भरोसा दिलाती है कि नीतियो का खाका उसके प्रिय कारपोरेट के लिये बनाने में कोई हर्ज नही है ।

बाद में मंत्रियो से करीबी का लाभ उठाकर नौकरशाहो को मनपसंद जगह पर नियुक्ति का काम भी यही लाबिस्ट करती है और रिटायर होने पर नौकरशाह को लाबिंग की नौकरी भी नीरा राडिया अपनी कंपनी में देती चली जाती है । इतना ही नहीं नौकरशाह भी कारपोरेट हित में कैसे बंटते चले जाते है और सरकार के भीतर नौकरशाहो की पहचान इसी से होने लगती है कि फला नौकरशाह टाटा के करीब का है या सुनिल मित्तल का हित साधता है । या फिर फंला सचिव अनिल की कंपनियो को फायदे में रखता है या मुकेश अंबानी का हित चाहता है । दरअसल सीबीआई के एएसपी विवेक प्रियदर्शी और राजेश चहल ने 21 दिसबंर और जनवरी में 25, 27, 29 को जो पूछताछ नीरा राडिया से 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के संदर्भ में की उसने उस लकीर से कही बडी लकीर खिच दी जो टेलिफोन टैप में सात महिने पहले आये थे । टेलीफोन टैप से उभरे तथ्यो पर सवालिया निशान नीरा राडिया ने भी लगाया कारपोरेट घरानो ने भी ।
यहा तक की ए राजा और कानीमोझी ने भी आवाज को टैंपर्ड करने की बात कही । लेकिन सीआरपीसी की धारा 161 के तहत जो बातचीत आमने-सामने बैठकर सीबीआई अधिकारियो ने नीरा राडिया से की और उसे रिकार्ड कर दस्तावेज की शक्ल दी । उसने 2001 से लेकर 2010 तक के दौर में सत्ता के उस चेहरे को ही सामने ला दिया जिसमें यह कहना किसी भी राजनीतिक दल के लिये मुश्किल काम होगा कि वह पाक-साफ है । क्योकि नीरा राडिया का सफर एनडीए यानी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से शुर होता है और देश के सामने लाबिस्ट का यह सफर यूपीए यानी मनमोहन सिंह सरकार के वक्त थमता है । यानी बीते दस बरस में जब देश के हर राजनीतिक दल ने गठबंधन का लाभ उठाकर सत्ता की मलाई चखी है तो फिर इस दौर में ईमानदार कौन रहा यह सवाल वाकई अबुझ है । क्योकि नीरा राडिया के मुताबिक वाजपेयी सरकार के मंत्री अंनत कुमार से करीबी का खेल सिर्फ इतना नहीं था कि तब एविएशन में उसकी रुची थी बल्कि सत्ता के गलियारे के भीतर घुसकर सत्ता के सामानांतर देश का सबसे पावरफुल काकस बनाने की तैयारी की शुरुआत भी तभी हुई थी ।

अंनत कुमार के जरीये दक्षिणी दिल्ली के पुथ्थुस्वामी मंदिर के निर्माण का समूचा फाइनेन्स कराकर तबके गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के बगल में खडा होकर नीरा राडिया ने अगर नौकरशाहो को रिझाया था तो प्रधानमंत्री वाजपेयी के दत्तक पुत्र रंजन भट्टाचार्य से भी करीबी गांठ कर कई मंत्रालयो में पैठ बनायी । और सत्ता के गलियारे की हर नयी दस्तक के साथ साथ एक के बाद एक नयी कंपनिया खोलती चली गयी । जिसे आगे बढाने का काम वही नौकरशाह करते जो कभी सरकार में थे । और नौकरशाह लाबी अपने पुराने साथी नौकरशाह के लिये काम करके अपने भविष्य का जुगाड भी करते चलती । और नौकरशाहो के इस नैक्सस से जुडने में किसी मंत्री को भी कोई परेशानी नहीं होती । जैसे 2005 में टेलीकाम सचिव बैजल से करीबी टाटा को लाभ पहुंचाने के लिये कैबिनेट मंत्री मारन की टेबल पर रखी फाइलो की जानकारी तक राडिया हासिल करती है फिर बैजल रिटायर होने के बाद मार्च 2007 में नीरा राडिया की कंपनी नोएसिस में डायरेक्टर हो जाते है । और यह कंपनी भी दो महिने पहले जनवरी 2007 में लांच की जाती है । और बैजल का काम यही होता है कि टेलिकाम में वह अपने पुराने नैक्सस का लाभ कंपनी के मातहत उन कारपोरेट घरानो को पहुंचाये जिनके लिये नीरा राडिया काम कर रही है । यह गोटी कितने दूर तक फेंकी जाती है , यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि ट्राई के अभी के चैयरमैन डा.शर्मा के संपर्क में पहली बार नीरा राडिया 2005 में आयी । और सीबीआई से बाचतीच में बेहद साफगोई से नीरा राडिया कहती भी है कि नौकरशाहो से एकबार दोस्ती का मतलब है कभी परेशानी ना आना । दस्तावेजो में 22 नौकरशाह , 9 कारपोरेट टायकून , 7 नेता-मंत्री और 9 मिडियाकर्मियो का नाम नीरा राडिया इस तरह लेती है जैसे यह सभी उसकी अंगुलियो के इशारे पर चलते रहे । या फिर टाटा, रिलांयस और यूनिटेक के कारपोरेट लाबिस्ट की भूमिका में लोकतंत्र के हर खम्भे को एक काकस में नीरा राडिया ने इस तरह समेट लिया जिसकी पाठशाला का पहला पाठ ही यही था कि जो नेता,नौकरशह,मंत्री , मिडियाकर्मी उसके कारपोरेट कलाइंट के अनुकुल है वह साथ है अन्यथा दुश्मन ।

दयानिधि मारन टाटा के अनुकुल नही है इसका एहसास 2005 में ही नीरा राडिया को हो गया । और तभी से दयानिधि मारन को हटाने या अपने अनुकुल परिस्थितियो को बनाने में कारपोरेट लाबिस्ट लगी रही । और इसमें हर उस नेता , नौकरशाह, मिडियाकर्मी की मदद ली जा रही थी जो उसे अनुकुल लगे । सत्ता के सामानातंर इस सत्ता के मायने क्या है यह बंगाल के एनआरआई प्रसून मुखर्जी के देश में नये घंघो में घुसने के लिये नीरा राडिया के साथ बैठको के दौर से भी समझा जा सकता है । जिसका मतलब यही है कि एनआरआई के लिये भी देश की नीतिया या सरकारी कानून से ज्यादा लाबिंग करने वाले कितने मायने रखते है । यानी 25 पेजी दस्तावेज एक पूरी तस्वीर एक ऐसी व्यवस्था की है जिसमें भ्रष्टाचार ही वयवस्था है और व्यवस्था ही सत्ता है । और ऐसी परिस्थियों में अगर यह कहा जाये कि लोकपाल के जरीये भ्रष्ट् व्यवस्था का खाका ठीक हो जायेगा तो नया नजरिया यह भी है कि सरकार भ्रष्टाचार को लेकर नतमस्तक नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले लोकपाल विधेयक पर अण्णा के आंदोलन के सामने झुकी । क्योकि देश का जनमानस इससे जुडा । वही इस आंदोलन को लेकर समूची राजनीति बिरादरी एकजूट होकर जिस तरह गुस्से में है , उसने यह भी सवाल खडा किया कि क्या पहली बार लोकपाल के सामने समूची राजनीतिक सत्ता खडी है । क्योकि सरकार के मंत्री और ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य कपील सिब्बल हो या सलमान खुर्शीद, या विपक्ष की कमान संभाले आडवाणी या सुषमा स्वराज, या फिर सपा के मोहन सिंह,राजद के रघुवंश प्रसाद, एनसीपी के तारिक अनवर या सत्ताधारी दल के दिग्विजय सिंह लोकपाल को लेकर कमोवेश सभी की भाषा एक सरीखी ही रही । यानी राजनीति में जो सुर कभी एक मुद्दे पर ना मिल पाये वह अण्णा हजारे के आंदोलन में एक हो गये । इसलिये सवाल अब यह भी नहीं है कि सिविल सोसायटी के नुमाइन्दे और राजनेताओ के बीच तलवारे खिंचेगीं और संघर्ष तेज होगा । बल्कि सवाल यह है कि जो जनमानस अण्णा के आंदोलन से देशभर में जुटा उसका दवाब क्या वाकई देश की संसदीय व्यवस्था मे एक ऐसी नाव का निर्माण करेगा जिसमें लोकपाल बैठा दिखेगा या नीरा राडिया की कहानी की तर्ज पर नाव में घास,बकरी,बाघ और लोकपाल सभी होगें ।

Wednesday, April 27, 2011

यह वह सुबह नहीं, जिसका इंतजार है

जिस कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने का रिकार्ड भारत ने बनाया, उसी कॉमनवेल्थ गेम्स को भविष्य में इसलिये याद नहीं किया जायेगा कि भारत ने पदक तालिका में सैकड़ा पार किया य़ा फिर पहली बार स्वीमिंग और जिमनास्टिक में भी पदक जीता। बल्कि इतिहास में 2010 का कॉमनवेल्थ गेम्स भ्रष्टाचार के लिये जाना जायेगा। ऐसा भ्रष्टचार, जिसमें नैतिक जिम्मेदारी की सारी हदें पार की गयीं। आयोजन समिति ने कैसे तीन करोड़ के माल को 107 करोड़ का बना दिया। कैसे अधिकारियों के बीवी-बच्चों को भी नौकरी दे दी। कैसे मॉडल और बालीवुड के कलाकारों में खेल के नाम पर देश का पैसा बांटा। कैसे दिल्ली सरकार से लेकर केन्द्र सरकार के मंत्री, नौकरशाह भ्रष्टाचार का गढ्ढा खोदते हुये दसियों फलाईओवर से लेकर कौडियों के ठेके पर करोड़ों की मुहर मारते हुये गमलो में लगे फूलो की कीमत सवा तीन करोड तक बताकर दिल्ली को चकाचौंध में ढाल कर कामनवेल्थ गेम्स को हर हाल में कराने पर भिड़े रहे। कैसे खेल कराने या ना करा पाने की ब्लैकमेलिंग में 634 करोड का खेल सरकारी फाइल में साढे 37 हजार करोड़ का हो गया। और कैसे समूचा देश हर पदक पर यह जानते समझते हुये तालिया पीटता रहा कि कॉमनवेल्थ गेम्स एक ऐसी लूट है, जिसमें गुब्बारे से लेकर जीत तय करने वाली स्वीस टाईमिग मशीन तक में घपला हुआ है। और कैसे सबकुछ डकारने के बाद जब राजनीति ने ठडी सांस ली तो सीबीआई ने इस खेल के सर्वेसर्वा सुरेश कलमाडी को गिरफ्तार कर लिया। यानी भ्रष्टाचार का एक ऐसा मवाद जिसे पहले पाला-पोसा गया और फिर उसे हटाने में एक ऐसा ऑपरेशन शरु हुआ, जिससे लगे कि डाक्टर हुनरमंद है।

असल में जिस 534 पेजी शंगुलु कमेटी की रिपोर्ट को सीबीआई ने आधार बनाया है अगर उसके हर पन्ने को पलटे तो 18 बरस पुरानी सात सौ पेज की वोहरा कमेटी रिपोर्ट भी आंखों के सामने तैरने लग सकती है। और वहीं से यह सवाल खड़ा हो सकता है कि बीते 18 बरस में जब वोहरा कमेटी की रिपोर्ट को किसी सत्ताधारी ने कार्रवाई के काबिल नहीं समझा तो फिर अब भ्रष्टाचार को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों। और अगर शुंगलु कमेटी की रिपोर्ट इतनी ही प्रभावी है तो फिर इस घेरे में दिल्ली की मुख्यमंत्री और तबके शहरी विकास मंत्री कब आयेंगे। क्योंकि शंगुलु कमेटी की रिपोर्ट का पांचवा चैप्टर सीधे सीधे शीला दीक्षित को कटघरे में खड़ा करता है। और नौंवा अध्याय शहरी विकास मंत्रालयों के अधीन हुये कामकाज पर अंगुली उठाता है। घेरे में दिल्ली के उपराज्यपाल तेजीन्दर खन्ना समेत 18 नौकरशाह भी आते हैं। यानी एक पूरा कॉकस कैसे भ्रष्टाचार के किसी खेल को अंजाम देता है और एक-दूसरे को बचाने की प्रक्रिया में कैसे हर संस्थान को भ्रष्ट बनाया जाता है, इसका अनूठा सच है शुंगलू रिपोर्ट।

लेकिन यहीं से बड़ा सवाल खड़ा होता है कि इस दौर में ऐसा क्या है, जिसमें भ्रष्टाचार की कालिख वहीं पुती हुई दिखायी पड़ने लगी है जो आर्थिक सुधार के दौर में आदर्श रहे हैं। अब कलमाडी का रास्ता भी तिहाड़ जेल ही जा रहा है, जहा पर पहले से पूर्व कैबिनट मंत्री ए राजा के साथ कॉरपोरेट घरानो के ऐसे नगीने हैं, जिनपर भारत की आधुनिक युवा पीढी ही गर्व नहीं करती बल्कि वर्ल्ड इकनामिक फोरम से लेकर फोर्ब्स पत्रिका को भी गर्व रहा है।

यूनिटेक के संजय चन्द्रा डीबी रियल्टी के शाहिद बलवा की कारपोरेट छलांग तो आईआईएम में बतौर कोर्स भी रहा और अनिल अंबानी की कंपनी के तौर तरीके को लेकर आईआईटी-आईआईएम के कैंपस इंटरव्यू का हिस्सा भी रहा है। फिर जिस अर्थव्यवस्था के आसरे इस वक्त भी नागरिकों से ज्यादा उपभोक्ताओ को अधिकार और सुविधा मुहैया हो रही है, उसका संविधान भी उसी कारपोरेट भीड़ से निकला है जिसके दामन पर दाग पहली बार दिखायी दे रहा है। तो क्या गडबड़ी देश की आर्थिक नीति में है। या फिर सत्ता के तौर तरीको ने ही भ्रष्टाचार की जमीन पर चकाचौंध भारत का सपना पैदा कर दिया है,जिसकी आगोश में देश का युवा सपना संजोये हैं या फिर कारपोरेट की उडान अर्थव्यवस्था की देसी सीमा तोड़ते हुये अब विश्वबाजार में भी भारत की खरीद-फरोख्त करने लगी है। क्योंकि इसी दौर में देश के टाटा-रिलांयस समेत आधे दर्जन कॉरपोरेट घरानो की तीन दर्जन कंपनियां ने दुनिया की कई ऐसी कंपनियों को खरीद लिया जिनके सामने महज 10 बरस पहली इनकी हैसियत सिर्फ दो से दस फिसदी इक्विटी खरीदने भर की थी। इसी दौर में सत्ता से करीब कारपोरेट घरानों का टर्न-ओवर भी तीन सौ फीसदी तक बढ़ा । इसी दौर में देश में उच्च शिक्षा और पांच सितारा स्वास्थ्य सेवा के लिये ऐसी हरी झडी दी गयी कि दोनो क्षेत्र सबसे कमाऊ इंडस्ट्री के तौर पर पहचाने जाने लगे। जब देश में एक लाख 76 हजार करोड़ का सबसे बडा टेलिकॉम घोटाला सामने आया उसी दौर में स्वास्थ्य सेवा में इन्फ्रास्ट्रचर के बाद सबसे ज्याद पूंजी लगी और मुनाफा भी देने लगी। बीते मार्च में रीयल इस्टेट और टेलिकाम को भी हेल्थ सर्विस में लगने वाली पूंजी ने पछाड़ दिया। कमोवेश यही हालत शिक्षा को लेकर भी उभरी। प्रधानमंत्री की ही साइंस एडवाइजरी काउंसिल ने माना कि शिक्षा के क्षेत्र में जितना पैसा देश का बाहर जा रहा है उसे रोकने के लिये और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इन्वेस्टमेट लाने के लिये दुनिया के सौ टॉप इस्टीटयूट में से 10 तो भारत के होने ही चाहिये। इसीलिये बीते दो बरस में कुल 51 केन्द्रीय यूनिव्रसिटी,आईआईटी, आईआईएम.,और एनआईटी को हरी झडी दी गयी। जबकि इसमें जितना पैसा लगेगा उसके एक चौथाई के बजट से देश के वह तीन करोड़ बच्चे स्कूल जा सकते हैं, जिन्होने स्कूल होता क्या है यह भी आज तक नहीं जाना। और देश के तेरह करोड बच्चे 5वी या 8वी के आगे पढ़ नहीं सकते। इनकी आंखों में कौन से सपने होगे यह कहना वाकई मुश्किल है लेकिन हर साल देश के उच्च संस्थानों से निकलने वाले 6 से 8 लाख युवा सपनों में कारपोरेट की चकाचौंध के जरीये ही विकसित भारत बनाया जा सकता है यह समझना जरुरी है । जबकि कारपोरेट पूंजी ने एक ऐसा समाज भी इसी दौर में दे दिया जिसमें एक प्राथमिक अस्पताल खोलने में आने वाला पौने दो लाख रुपये सरकार के पास नहीं है। लेकिन पांच सितारा अस्पताल में दो लाख का मरीज का बेड जरुर पड़ा है। कमोवेश देश के 80 करोड लोगो की न्यूनतम जरुरत भी कैसे मुनाफेतंत्र का हिस्सा बनकर कमाई कराने लगी और इसे ही विकास की छड़ी मान लिया गया। यह सोच ही एक तरफ 510 रुपये पाने वाले शहरी व्यक्ति को गरीब नही मानती और 310 रुपये पाने वाले गांववाले को गरीब नहीं कहती लेकिन 10 लाख करोड का कालाधन छुपाने वालो के नाम बताने से सुप्रीम कोर्ट के सामने इंकार भी कर देती है। इस आईने में जो तस्वीर देश की सामने है उसमें ए राजा के जेल जाने के बाद आज कलमाडी और कल करुणानिधि की बेटी कानीमोझी के जेल में जाने से खुश होना चाहिये या दुखी संयोग से यह अदा भी नहीं बच रही है। क्योंकि यह कैसे माना जा सकता है कि सीबीआई और आईबी के डायरेक्टरों से युक्त 1993 में गृह सचिव वोहरा की अगुवाई वाली टीम ने जब अपनी रिपोर्ट में उसी वक्त लिख दिया ता कि देश में एक ऐसा तंत्र बन रहा है जो हथियार, नारको से लेकर हवाला और मनी लाडरिंग के जरीये सरकार के अंदर और सरकार के बाहर के प्रभावी लोगो के साथ साथ मीडिया में अपना प्रसार-संबंध बना रहा है। और इस पर नकेल नहीं कसी गयी तो यह देश की नीतियो को भी प्रभावित करते हुये चुनावी लोकतंत्र में भी सेंघ लगा देगा। लेकिन वोहरा कमेटी की यह रिपोर्ट हर सरकार ने ठडे बस्ते में डाल दी और मुश्किल यह भी है कि इस दौर में हर राजनीतिक दल सत्ता में भी आया इसलिये सवाल यह नहीं है कि राजनेता, नौकरशाह और कारपोरेट घंघेबाज पहली बार जेल जा रहे हैं। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार की इस सफाई में हर पहल के साथ आज भी राजनीतिक सत्ता की सहूलियत जुड़ी हुई है, जो अब किसी रिपोर्ट से नहीं जनभागेदारी से ही टूट सकती है । इसलिये इंतजार कलमाडी के जेल जाने का नहीं बल्कि 29 अप्रैल को अन्ना हजारे की बनारस की सभा का करना होगा जिसमें जनभागेदारी बढ़ी तो रास्ता उसी राजनीतिक विकल्प की दिशा में जायेगा जिसपर राजनीतिक सत्ता हमेशा लोकतंत्र का नारा लगाकर सेंध लगा देती है।

Monday, April 25, 2011

जेएनयू की हवा में अन्ना की खुशबू

शनिवार की रात अक्सर जेएनयू में जागरण की रात होती है। किसी मुद्दे पर चर्चा कर रात बिताने का मजा जेएनयू हॉस्टल की नयी परंपरा है। 16 अप्रैल को कोयना हॉस्टल जागा। मुद्दा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का था । लेकिन हवा में अन्ना हजारे के आंदोलन से पैदा हुई बहस थी। जेएनयू गेट पर ही आकाश मिला, जिसने देखते ही टोका अन्ना के आंदोलन ने संसदीय राजनीतिक सत्ता को नहीं चेताया है बल्कि उस वर्ग को घमकाया है जो मनमोहन सिंह की इकनॉमी में खूब फल-फूल रहा है। और आप भी यह ना दिखाये कि सारे भ्रष्ट नेता एकजुट है बल्कि यह बताइये कि जो बाजार अर्थव्यवस्था पर मजे लूट रहे हैं, उन्हे अन्ना खतरा लगने लगे हैं।

कुछ आगे ही सप्तर्षी कोयना हॉस्टल ले जाने के लिये खड़ा मिला। उसे साथ ले कर जैसे ही हॉस्टल गेट पर पहुंचे, एक छात्र ने फिर टोका अन्ना हजारे तो आरएसएस के हैं। कैसे। मंच पर भारत माता की तस्वीर बनाने की जरुरत क्यों पड़ी। हॉस्टल के गेट पर घेरा बनाकर खडे छात्रों में से एक दूसरे छात्र ने आरएसएस से अन्ना को जोडने पर बेहद तल्खी के साथ टोका, क्यों जेल की दीवार पर भगत सिंह ने भी तो भारत का नक्शा बनाया था। फिर अन्ना हजारे ने गांधी के साथ भगत सिह, राजगुरु, सुखदेव की भी तस्वीरे अन्ना के मंच के पीछे लगी थी लेकिन किसी ने अन्ना के तार अल्ट्रा-लेफ्ट से तो नहीं जोड़े। जितनी बार अन्ना ने भगत सिह का नाम मंच से लिया अगर कोई दूसरा आंदोलन होता तो सभी को सरकार नक्सलवादी करार देती। लेकिन यह आंदोलन सरकार के लिये फिट बैठ रहा था तो उसे हवा देने में कोई देर भी नही लगी। सरकार तो फंस गयी। उसे लाभ कैसे मिला। फंसी तो बाद में पहले तो सरकार को यही लगा कि भ्रष्टाचार में गोते लगाते कांग्रेसियों के लिये इससे बडी राहत क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार पर देशभर में आंदोलन है और उसमें वही विपक्ष नहीं है जिसने भ्रष्ट्चार के मुद्दे पर सरकार को घेरा और संसद ठप कर रखी थी। और आंदोलन ही अब सरकार से मांग कर रहा है कि भ्रष्टाचार पहले पर नकेल कसने के लिये जन-लोकपाल पर सहमति बनाइये।

जोर पकड़ती चर्चा के बीच हॉस्टल के अंदर से छात्र-छात्रायें निकल आये और कहा कि पहले स्पेक्ट्रम पर बहस शुरु कर लें। लेकिन पांच मिनट के औपचारिक शुरुआत के तुरुरंत बाद ही फिर मौका मिला की हॉस्टल के मेस के बाहर खड़े छात्रों से अन्ना पर चर्चा शुरु हो। क्योंकि कार्यक्रम के शुरु में पत्रकार प्रांजयगुहा ठाकुरता की 2जी स्पेक्ट्रम पर बनायी डाक्यूमेंट्री दिखायी जानी थी। रात के सवा दस बजे थे और डक्यूमेन्ट्री पचास मिनट की थी। तो बाहर निकलते ही आकाश सामने दिखा और मैंने बिना देर किये सीधे पूछा-यह जेएनयू की बीमारी अभी तक है कि वर्ग संघर्ष के दायरे में ही हर आंदोलन को देखा जाये। जबकि जंतर-मंतर ही नहीं देश भर में अन्ना हजारे के समर्थन में तो हर वर्ग के लोग थे। मैंने इससे कहां इंकार किया लेकिन अनशन टूटने के बाद क्या हो रहा है जरा इसे समझें। विरोध कौन कर रहे हैं। वही लोग हैं, जिन्हे एक खास मान्यता अपने अपने दायरे में मिली हुई है। उसमें नेता भी है और सरकारी कर्मचारी भी। उघोग घराने भी है और बुरा ना मानिये तो बडे-नामी कॉलमिस्ट पत्रकार भी हैं। इन सभी को दो बातें खाये जा रही हैं। पहली, आंदोलन चल निकला तो उनकी जरुरत कहां फिट बैठेगी। और दूसरी, जिस दौर में पैसा आया बाजार बढ़ा उसी दौर में भ्रष्टाचार के घेरे में अगर ज्यादा पैसा होना या बाजार थ्योरी का ही भ्रष्ट होना करार दे दिया गया तो उनकी रईसी पर टिकी उनकी मान्यता कहां टिकेगी।

नहीं लेकिन इतनी सरलता से विरोध को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। मैरेड हास्टल में रहने वाले शाहिद ने बीच में टोका। हांलाकि आकाश की बात वहा सही जरुर है जहा अच्छा-खासा जीवन जीने वालो को अचानक लगने लगा कि कोई इमानदारी की चादर लिये अचानक ऐसे सवाल खड़ा करने लगा, जिसके एवज में समूची अर्थव्यवस्था खड़ी है। लेकिन समझना यह भी होगा कि संसदीय लोकतंत्र का दायरा कितना तंग है या फिर खुली अर्थव्यवस्था का लाभ ही कितनों को मिला है। और अगर दोनो को मिला दिजिये तो पहली बार समझ में यह भी आयेगा कि समाज हर क्षेत्र में कितना बंटा हुआ है। नीतीश कुमार के पाल नैतिक साहस है, जो उन्हे जनता के वोट से मिला है इसलिये वह अन्ना के आंदोलन की हवा तेज करना चाहेंगे। लेकिन नरेन्द्र मोदी के लिये यह शातिरना राजनीति है,जिसमें वह अपनी राजनीतिक गोटी के दाग भी धोना चाहेंगे। जबकि देश के दूसरे नेताओ के पास पूंजी की शक्ति है। तो वह उस पर तब तक आंच नहीं आने देगे या कहे तबतक लडेंगे, जब तक देश में यह ना तय हो जाये कि सत्ता मिलने के तरीके क्या होंगे।

आप तरीके ईमानदार रखिये फिर आपको इसी समाज में सैकड़ों अन्ना हजारे मिल जायेंगे। लेकिन अरबपति शांति भूषण को लेकर आप क्या कहेंगे। हिन्दी विभाग से जुडे फर्ट् ईयर के छात्र ने सिविल सोसायटी के नुमाइन्दों की घोषित संपत्ति का सवाल उठाते हुये हास्टल की सीढ़ियों पर बैठे सभी से ही सवाल किया। अगर किसी धंधे में अरबों की कमाई होती भी है तो भी देश की हालत देखकर कोई कैसे अरबपति के आसरे भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की पहल को इमानदार कह सकता है। देश में जो हालात है उसमें सिर्फ कानून के जरीये ईमानदार होना चाहेगे तो फिर सबको बराबर खेलने देने का मौका भी आपको देना होगा। और यह कानून से नहीं सामाजिक समझ से संभव है। सही कह रहे है आप । शांतिभूषण की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं है । लेकिन जब सीधे राजनीति और संसद को पाठ पढ़ाने का सवाल जन-लोकपाल के जरीये जुडा है तो फिर पचास करोड़ दान करके कूदना चाहिये। लेकिन फिर वही सवाल है कि क्या उसके बाद तैयार ड्राफ्ट के जरीये देश में इमानदार पहल शुरु हो जायेगी।

रंजना ने सवाल किया तो जवाब छात्रा ने ही दिया। एसआईएस की छात्रा ने अन्ना के आंदोलन पर सवालिया निशान लगाते हुये ही पूछा , क्या आप सभी को नहीं लगता कि आंदोलन से किसी राजनीतिक समझ के बगैर ही शुरु हुआ लेकिन इसके विरोध के तरीको ने उसके मिजाज को राजनीतिक भी बना दिया है और यह संदेश भी देने की कोशिश की जा रही है कि इस आंदोलन में एकतरह की राजनीतिक शून्यता है। अंग्रेजी और हिन्दी के अखबारों की रिपोर्टिंग और उसमें छपने वाले आर्टिकल से भी यह समझा जा सकता है और राजनीतिक लाईन छोडकर कांग्रेस-भाजपा के एक सुर को भी हास्टल के मेस से बुलावा आया कि फिल्म खत्म हो गई। और अंदर जब 2जी स्पेक्ट्रम को जड़ से उघाडती डाक्यूमेन्ट्री को देखचुके छात्रो से संवाद शुरु हुआ तो सवाल घूमफिरकर अन्ना की हवा में जा घुसा, जहां सवाल सीधे और तल्खी भरे थे। क्या कानून के जरीये भ्रष्टाचार पर नकेल कसी जा सकती है , जब सत्ता पाने के तरीके भ्रष्ट हों। कहीं भ्रष्टाचार के मामले और अब नकेल कसने को हवा देना भी उस व्यवस्था की जरुरत तो नहीं है जिसपर से आम लोगो का भरोसा उठता जा रहा है । अगर राजा स्पेक्ट्रम के दोषी है तो एस बैंड के लिये पृथ्वीराज चौहान क्यो नहीं, जबकि पीएम ने बकायदा उनका नाम लिया। क्या सामाजिक परिस्थितियो में कोई बदलाव की जरुरत है या फिर अर्थव्यवस्था ने ही सामाजिक परिस्थितियों को बदल दिया है, जिसे हमारा एक तबका पचा नहीं पा रहा है । क्या ऐसा नहीं लगता कि एक बार फिर भ्रष्टाचार को लेकर शुरु हुई लडाई भी चंद चेहरो में सिमट गयी है और आम आदमी की पहलकदमी जानबूझ कर रोक दी गयी है । क्या हर बदलाव से भरोसा उठाने की कोशिश नहीं हो रही है। जाहिर है यह सारे सवाल ही है जो जेएनयू से निकले और आधी रात के बाद तक चली इस चर्चा में उठे। लेकिन अंत में झटका तब लगा जब चर्चा का आयोजन करने वाले तपस को चर्चा करवाने के लिये बधाई देते छात्रो ने कहा, यार सबकुछ है लेकिन इस बहस में कही लेफ्ट नहीं है। और वाम छात्र संगठन के तपस ने भी खामोशी ओढ़ ली।

Thursday, April 21, 2011

आंदोलन मीडिया को भी बदल देगा

अगर प्रिंट मीडिया से आगे की कड़ी न्यूज चैनल है तो फिर न्यूज चैनलों के आगे की कड़ी सोशल मीडिया है। और आईटी ने आंदोलन के दौर में जिस तेजी से जितनी सकारात्मक भूमिका निभायी है, उसमें न्यूज चैनल कही पिछड़ते तो नहीं चले गये। यह सवाल अगर अरब वर्ल्ड के आंदोलनों से शुरु हुआ तो दिल्ली के जंतर-मंतर पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन ने मीडिया को लेकर भी एक नया सवाल खड़ा किया कि जिस टेलीविजन मीडिया ने अण्णा हजारे के आंदोलन को घर-घर पहुंचाया, भविष्य में उसका विकल्प भी इसी तर्ज पर खड़ा होगा जैसे संसदीय चुनाव के जरीये जनता की नुमाइन्दगी का सवाल सिविल सोसायटी के नुमाईन्दो के सामने फीका पड़ने लगा है।

असल में भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में जो माहौल खड़ा हुआ और जिस तरह टीवी देखकर या सुनकर शहर-दर-शहर में आम लोगों का कारंवा बढ़ता गया, उसमें ग्राउंड जीरो पर पहुंचे लोगों की शिरकत के तौर तरीके हैं। जंतर-मंतर यानी ग्रउंड जीरो में न्यूज चैनल दिखायी नहीं दे रहे थे बल्कि वहा जो हो रहा था उसे दुनिया को दिखा रहे थे । और वहां खुद को दिखाने के लिये ही सही देश के हजारों हजार लोग बच्चों से लेकर बूढ़े, युवाओं से लेकर महिलाओं के रेले की आवाज सवाल एक ही खड़ा कर रही थी कि नेता-मंत्री-सरकार सभी भ्रष्ट हैं। अब यह बर्दाश्त नहीं है। इसलिये इन नारो की छांव में जब चौटाला और उमा भारती पहुंचे तो उन्हे जिस तरह हूट किया गया उसे मीडिया ने उसी तरलता से पकड़ा। यानी जो सवाल मीडिया को लेकर बीते दौर में भ्रष्ट्राचार को लेकर उठे और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया के चंद नामचीन पत्रकारो का नाम भी खुलकर सामने आया, उस दाग को मिटाने के लिये अण्णा के आंदोलन ने गंगाजल दे दिया, इससे इंकार भी नही किया जा सकता है। यानी जिस राजनितक सत्ता से गलबहिया डालने के आरोप मीडिया पर लगे उसी राजनीतिक सत्ता को आईना दिखाने के लिये वही मीडिया आम आदमी के आक्रोश के साथ खड़ी दिखी।

लेकिन यही आक्रोश जब इंडिया-गेट पर मीडिया के एक नामचीन चेहरे को लेकर यह कहते हुये उठा कि खुद भ्रष्टाचार को हवा देने वाले भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए अण्णा के आंदोलन की जीत में कैसे समा सकते है तो उसी मीडिया ने खामोशी बरत ली। इंडिया गेट पर माहौल ठीक वैसा ही था जैसा जंतर-मंतर पर चौटाला-उमा भारती को हूट करने वाला था। जंतर-मंतर पर मीडिया ने कोई अतिरिक्त मेहनत नहीं की। सिर्फ कैमरे का लैंस उस दिशा में घुमा दिया जिस दिशा में चौटाला और उभाभारती थीं। लेकिन इंडियागेट पर किसी न्यूज चैनल के कैमरे का लैंस उस दिशा में नहीं घूमा, जिस दिशा में मीडिया आम लोगो के हूट में निशाने पर थी। जबकि बिलकुल सटी हुई अवस्था में हर न्यूज चैनल अण्णा की जीत में निकले कैडिंल मार्च को कवर कर रहा था।

मुश्किल सवाल यही से खड़ा होता है। अण्णा हजारे के आंदोलन के खत्म होते ही समूची राजनीति अण्णा पर पिल पड़ी। पार्टी लाइन, विचारधारा,अपनी पहचान तक को ताक पर रखकर जिसतरह नेता,मंत्रियों ने अण्णा के आंदोलन को ही लोकतंत्र के लिये खतरनाक बताने में गुरेज नही किया। मनमोहन सिंह के कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल हो या सलमान खुर्शीद या विपक्ष की सियासत थामें लालकृष्ण आडवाणी हो या सुषमा स्वराज, या फिर एनसीपी के तारिक अनवर,सपा के मोहन सिंह या राजद के रघुवंश बाबू। सभी ने लोकपाल विधेयक से लेकर भ्रष्टाचार पर अण्णा की समझ को खारिज किया और लोकतंत्र पर ही खतरा बताने से नहीं चूके। यानी भ्रष्टाचार के सवाल ने अगर समूची संसदीय व्यवस्था को ही एक थैले में बदल दिया तो सभी नेता साथ खड़े हो गये। वहीं मीडिया के भ्रष्टाचार को लेकर जब उन्ही आम लोगो ने सवाल खड़े किये तो समूचा मीडिया खामोश होने में एकजुट हो गया। यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में बने वातवरण ने पहली सीख तो सभी को दी कि संस्थाओ की एकजुटता ही संविधान के चैक एंड बैलेंस का लोकतंत्र बिगाड़ चुकी है। यानी भ्रष्टाचार के दायरे में अगर संसदीय व्यवस्था है तो उसने बेहद महीन तरीके से हर उस संस्थान की सत्ता को अपने दायरे में समेटकर उसे भी सत्ता सुख दे दिया है, जिससे लोकतंत्र का हर पाया जन-लोकतंत्र को नहीं भ्रष्ट्चार के लोकतंत्र को संभाले और उसका बैंलेस बिगडे नहीं। इसीलिये आईपीएल का सट्टा घपला, कामनवेल्थ का चकाचौंध खेल घपला, आदर्श सोसायटी में सैनिक परिवारो का हक मारने वाला घपला, एस बैंड घपले में पीएमओ की आंख-मिचौली या फिंर सरकार बचाने के लिये खरीद-फरोख्त। और इन सबके बीच मंहगाई से पिसती जनता को अपने इशारे पर चलाते जमाखोर-मुनाफाखोर। और इन्हे शह देते देश के कैबिनेट मंत्री । अगर इस पूरे दौर में लोकतंत्र के हर पाये की स्थिति देखें, चाहे वह कारपोरेट घराने हों या नौकरशाह या फिर मीडिया समेत कानून तो हर किसी की भागेदारी भी भ्रष्टाचार से जुडेगी और उसी के जरीये भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के सवाल भी इस आसरे खड़े होगे, जहां खुद भ्रष्टाचार की गंगोत्री है।

इसलिये यह सवाल अभी तक गूंजता जरुर था कि भ्रष्टाचार देश को खत्म कर दे, उससे पहले भ्रष्टाचार को खत्म करना जरुरी है। लेकिन भ्रष्टाचार की हर लकीर से बड़ी लकीर जिस तरह खिचती गयी उसमें विकल्प की सोच भी कुंद पड़ी। और विक्लप का सवाल खड़ा करने पर समाज में ठहाका सुनायी देना ही देश के पंगु होने का सच हो लगा। इसलिये अण्णा की मुहिम को आंदोलन की शक्ल जब देश के आम नागरिको ने दी तो एक साथ कई सवाल मीडिया को लेकर उपजे। क्या भविष्य में सोशल मीडिया ही आंदोलन को हवा देगा। क्या न्यूज चैनलो का विकल्प भी इन्ही आंदोलन से निकलेगा। क्या न्यूज चैनलो को सिर्फ मुनाफा आधारित मशक्कत करने पर मनोरंजन के खांचे में डाल दिया जायेगा। क्या संसदीय व्यवस्था की नुमाइन्दगी को चुनौती देते सिविल सोसायटी के नुमाइन्दों की तर्ज पर सोशल मीडिया भी न्यूज चैनलो को चुनौती देगा।

जाहिर है अगर आंदोलन विकल्प की दिशा में बढेगा तो फिर घेरे में मीडिया भी आयेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योकि सूचना तकनीक में पहले अखबार और अब न्यूज चैनलो का रुतबा इसीलिये है क्योकि भारत की राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था भी उसी तरह की रही। न्यूज चैनलो के अब के दौर में राजनीति भी बाजार के पीछे चलती है और देश की नीतिया भी मुनाफा नीति को ही महत्व देती है। इसलिये मीडिया भी बाजार के आसरे मुनाफा तंत्र को सबसे महतवपूर्ण मानने लगा है। वजह भी यही है कि संसद में 25 फिसदी सांसद अपराध और भ्रष्टाचार के घेरे में होने का बावजूद संसदीय व्यवस्था में एकजुट हैं। टाप कॉरपोरट घराने लॉबिंग के जरीये देश को विकास तंत्र दिखाकर अपना मुनाफा बनाते हैं लेकिन सरकार के सामने इन्हे देश की अर्थववस्था का पाय मानने के अलावे कोई विकल्प नहीं बचता। नौकरशाहो की फेरहिस्त भ्रष्टाचार की मिसाले गढ़ती हैं, लेकिन संसदीय व्यवस्था के तंत्र का असल पावर हाउस भी नौकरशाहो ही बनी रहती हैं।

असल में यह पूरी प्रक्रिया ही मुनाफे तंत्र पर भरोसा करती है और अपने अपने घेरे में एकजुट होकर शक्तिशाली भी बनती है और वैकल्पिक परिस्थितियो को खत्म भी करती हैं। ऐसे में परिवर्तन मडिया में भी आया है। पहले संपादक पावरफुल होने पर संसद का रुख करना पंसद करते थे। लेकिन न्यूज चैनलो के दौर में संपादक न्यूज चैनल का मालिक बनकर कॉरपोरट के साथ उठना-बैठना पसंद करते हैं। और खुद पर कॉरपोरेट होने का ठप्पा लगने पर अपनी पत्रकारिय समझ को सफल मानते हैं। जाहिर है ऐसे में अगर अण्णा हजारे के जरीये खडे आंदोलन में संकट संसदीय व्यवस्था को नजर आ रहा है और बहस की दिशा विकल्प की तालाश खोज रही है। तो समझना यह भी होगा कि सिर्फ राजनीतिक सत्ता के तौर तरीके पर ही अंगुली नहीं उठेगी बलकि मीडिया भी फंदे में आयेगा और मुनाफा तंत्र के आसरे लोकतंत्र का गान मीडिया को भी बदलेगा।

Saturday, April 16, 2011

भगत सिंह...गांधी और अण्णा हजारे

“अगर यह आजादी का दूसरा आंदोलन है तो क्या आप दूसरे महात्मा हैं। मैं तो महात्मा गांधी के पांव की धूल भी नहीं हूं। लेकिन एक बात कहूंगा कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने जो एहसान हम देशवासियो पर छोड़ा है, उसका एक अंश भी अगर हम देश को बनाने में चुका दें तो बहुत बड़ी बात होगी। और हमारा संघर्ष यही है।“ आमरण अनशन तोड़ने के बाद अन्ना हजारे की इस सोच ने पहली बार संसदीय व्यवस्था के उस ताने-बाने को झटक दिया, जिसके सुर गांधी और कांग्रेस में समाये रहते थे। किसी संघर्ष को अंजाम तक पहुंचा कर भगत सिंह का नाम कोई गांधी के अहिंसा में घोल दें तो यह न तो वामपंथी कर पाये और न ही दक्षिणपंथी दल। और कांग्रेस भी गांधी के दांये-बांये देखने से ना सिर्फ बचती रही बल्कि गांधी की सोच में कांग्रेस की जमीन को खड़ा मान कर उसने हर बार देश के हर मुद्दे से बचने के लिये गांधी को ही ढाल बनाया।

लेकिन अन्ना हजारे ने गांधी के उन्हीं सवालों को नये तरीके से उछाला, जिन सवालो को कभी गांधी ने नेहरु को कहे थे। नेहरु के सरकार गठन के दौर में सिर्फ कांग्रेसियों को तरजीह दिये जाने पर गांधी ने नेहरु को यही समझाया था कि आजादी समूचे देश को मिली है, सिर्फ कांग्रेस को नहीं। और 63 बरस बाद अन्ना हजारे ने चुनी हुई मनमोहन सिंह की सरकार को यही कहा कि देश सवा सौ करोड़ लोगो का है और इतनी तादाद में लोगों की जरुरतों को संभालने और उसकी व्यवस्था करने के लिये सरकार चुनी जाती है न कि सरकार की जरुरत और सुविधा के मुताबिक सवा सौ करोड़ लोगों को चलना होगा।

यह वक्तव्य चाहे बहुत छोटा लगे लेकिन संसदीय व्यवस्था की वर्तमान तानाशाही के लिये इससे बड़ी चेतावनी और कोई हो नहीं सकती है। फिर गांधीवादी तरीके से दी गई चेतावनी में भगत सिंह के तेवर यानी संघर्ष की जुबान ऐसी जो बिना जनमानस को साथ जोड़े कोई इस देश में कहे और सरकार को खतरा लगने लगे तो उसके खिलाफ राजद्रोह की धारा भी लग जाये। लेकिन अन्ना हजारे ने जिस मासूमियत से भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिये जनलोकपाल विधेयक के आसरे चुनाव में सुधार के संकेत के लिये अगले संघर्ष की धुन छेड़ी, उसमें लोहिया से लेकर जेपी और भगत सिंह से लेकर गांधी तक की महक आ गयी। और इसी दायरे में हर उस व्यक्ति के छोटे-छोटे सपने जुड़ते गये जो दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर मुंबई के आजाद मैदान और देश के हर शहर जुटा और झटके में लोकपाल विधेयक का कैनवास भी बड़ा हो गया और आंदोलन का चेहरा भी।

मनरेगा में काम की एवज में सौ रुपये में से 40 रुपये सरकारी ठेकेदार को बतौर कमीशन देने से परेशान बुंदेलखंड के वीरेन्द्र हो या फिर बाहरी दिल्ली में उघोग चलाने का लाईसेंस लेने में तीन करोड़ की घूस देने की मजबूरी तले दबे अरुण कुमार। या फिर जॉब कार्ड मिलने के बाद भी राजस्थान में गंगापुर के बेरोजगार अशोक भाई हो या गुजरात के गांव पांगर घवडे के विठ्ठल रावडे, जो ग्रामपंचयत के भ्रष्टाचार से दुखी होकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर आ पहुंचे। सभी की आंखो में एक ही सपना है कि कोई तो ऐसा नायक हो जो देश को पहले माने और गड़बड़ी करने वालों के कान उमेठ दे या कानून सजा देने लगे।

जाहिर है पांच दिनों में सिर्फ दिल्ली के जंतर मंतर पर अगर लाखों लोगों की आवाजाही होती रही तो फक्कड से लेकर करोड़पतियों के चेहरे भी वहीं दमके और बेरोजगार युवाओं के साथ साथ हर क्षेत्र में कामयाबी के पायदान चढते प्रोफेशनल भी नजर आये । यानी जिन्हें धन कमाना है और जिन्हें रोजगार चाहिये और जो धनी हैं, जो बेरोजगार नहीं है, सभी के सवाल पहली बार एक धागे में पिरोये नजर आये। क्योंकि हर के जहन में सवाल एक ही था कि ईमानदारी और विश्वसनीयता सत्ता-सरकार से जब गायब हो चुकी है तो फिर रास्ता कैसे निकलेगा। यानी अन्ना हजारे के आवरण अनशन से सरकार डर गयी यह कहने से पहले समझना यह भी होगा कि आम लोगों के जहन में संसदीय सत्ता की जो परछाई है, वह पहली बार सफेद-काले में नजर आयी। और सियासत का काला चेहरे देश के हर जतर-मंतर पर बितते वक्त के साथ यह सवाल खड़ा कर रहा था कि जन-लोकपाल से आगे का रास्ता क्या होगा। और इसी मोड़ पर यह सवाल भी उठा कि क्या आंदोलन अन्ना हजारे को चलायेगा या अन्ना के एकमात्र लोकपाल विधेयक को बनाने में जनता की भागेदारी के साथ ही आंदोलन भी खत्म होगा। असल में परिस्थितिया दोनों आयी और निर्णय भी दोनो ही हुये। जिस लोकपाल विधेयक पर उठे आंदोलन के सामने सरकार नतमस्तक हुई, उसी जनसमूह के आंदोलन के सामने अन्ना भी नतमस्तक हुये। इसीलिये बिना किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुये और सत्ता की आंकाक्षा से दूर अन्ना ने चुनाव सुधार की एक ऐसी गोटी आंदोलन खत्म करने के साथ फेंकी, जिसमें चुनाव के वक्त उम्मीदवारों की फेरहिस्त में एक खाना खाली भी हो और वह अन्ना हजारे का हो । यानी हर उम्मीदवार गड़बड़ है तो कोई मंजूर नहीं है पर ठप्पा लगा कर आम नागरिक उसी चेतावनी को दोहरा दे जो अन्ना हजारे ने जनलोकपाल विधेयक पर छिड़े आंदोलन से चेताया। यानी जन-भागेदारी के इस मंत्र में पहली बार समूची संसदीय राजनीतिक व्यवस्था को ही सत्ता में तब्दील कर अन्ना हजारे ने यही सवाल उठाया कि जो भूमिका सत्ताधारी और विपक्ष की होती है, वह इस दौर में खत्म हो चुकी है। नेता हो या मंत्री या कोई भी राजनीतिक दल। सभी आपस में एक दूसरे का विकल्प है। यानी संसदीय राजनीति में चैक एंड बैलेंस की जो समझ संविधान में मौजूद है, वर्तमान में चैक करने वाला तत्व गायब हो चुका है। अब चैक आम नागरिक को करना होगा और यह चैक सिर्फ चुनाव के नाम पर नहीं हो सकता है। क्योंकि भ्रष्टाचार की असल ट्रेनिंग राजनीतिक सत्ता से ही शुरु होती है और वोटर के सामने विकल्प नहीं है। इसलिये सवाल शरद पवार का नहीं है, जो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरेने के बावजूद सरकार के उस मंत्री समूह का हिस्सा बने रहे, जिसे भ्रष्टाचार पर नकेल कसनी है। लेकिन रास्ता यह भी नहीं है कि अंगुली उठने पर पवार पद छोड दें और फिर देश किसी दूसरे पवार के आने का इंतजार करें। इसलिय राइट टू रिकॉल का सवाल भी अन्ना हजारे नीतर यह सवाल उठाया । और नकेल कसने के लिये आम वोटर को हमेशा तैयार रहने को भी कहा। लेकिन इस प्रक्रिया में जो सबसे बड़ा सवाल संकेत के तौर पर उठा वह राजनीतिक शून्यता का है। चूंकि संसदीय व्यवस्था की समूची ट्रेनिंग ही संसद को सर्वोपरी मानती है और जन-लोकपाल विधेयक को भी इसी रास्ते गुजरना है तो फिर संसद के भीतर अलग अलग राजनीतिक दलो की भूमिका होगी क्या। अगर सरकार के पांच मंत्रियों के समूह के साथ सिविल सोसायटी की नुमाइन्दगी करने वाले पांच सदस्यों के समूह के ड्राफ्ट को संसद खारिज कर दें तो क्या होगा। यानी विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल अगर संसद के भीतर यह सवाल उठा दें कि किसी विधेयक को तैयार करने में अगर संसद के बाहर के पांच सदस्यो को लिया गया और उन्हे कोई संवैधानिक पद भी नहीं दिया गया तो इसे क्यों माना जाये। या फिर राजनीतिक दल सरकार पर यह आरोप लगाये कि अन्ना हजारे पर फैसला लेने से पहले सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलायी गयी। जबकि अन्ना हजारे ने अपने आंदोलन के जरीये सांसदो की नुमाइन्दगी पर ही सवालिया निशान लगा दिया। यानी आंदोलन की बुनियाद ही इस बात पर खड़ी है कि संसद भ्रष्टाचार के सवाल पर सही पहल करने में नाकाम रही।

दरअसल, संसद या सांसदो के जरीये यह सवाल मानसून सत्र में जनलोकपाल विधेयक रखते वक्त नहीं उछलेगा यह सोचना भी बचकानापन होगा, क्योकि पहली बार संसदीय व्यवस्था को आम नागरिको के आक्रोश ने अन्ना हजारे के जरीये खारिज किया है। या कहे संसदीय सत्ता को यह निर्देश दिया है कि आपका काम व्यवस्था बनाने और चलाने का है। उसके तौर तरीको को सत्ता या संसद के अनुकूल बनाने का नहीं है। लेकिन संसद की वर्तमान परिस्थितियों को देखकर अगर पहला सवाल यह खड़ा होता है कि महिला आरक्षण की तर्ज पर संसद का हंगामा लोकपाल विधेयक को भी लटका दें। यानी लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, मायावती या करुणानिधि या फिर शरद पवार सरीखे नेताओ के राजनीतिक दल अपने नेताओ के लोकपाल विधेयक के दायरे में आने के मद्देनजर संसद ही ना चलने दें। या कहे संसद के 145 सासंदो पर जब भ्रष्टाचार के मामले दर्ज है और संयोग से जिस महात्मा गांधी का नाम लेकर अन्ना हजारे ने आंदोलन शुरु किया तो उन्ही की जन्मभूमि पोरबंदर के कांग्रेसी सांसद विठ्टलभाई पर जब सबसे ज्यादा मामले दर्ज हैं तो अपने खिलाफ फाइल खोलने के लिये बनने वाले कानून पर यह संसद मुहर कैसे लगायेगी। लेकिन इसका जवाब भी पहली बार अन्ना हजारे के आंदोलन से निकला है कि संसदीय राजनीति के मूल में जब आम नागरिक या कहे वोटर है और वहीं संसदीय व्यवस्था के नियम कायदो को लेकर सडक पर होगा तो फिर संसदीय व्यवस्था को तौर-तरीके बदलेंगे या संसद भी आम नागरिक के आंदोलन के अनुकूल कार्ररवाई करने को बाध्य होगी। क्योंकि जब घोटालो में खुद मनमोहन सिंह फंसते है तो वह चुनाव में अपनी जीत और कटघरे में खड़े करने वाले राजनीतिक दलो की हार में आइना दिखाकर खुद को बचाने से नहीं कतराते। तो जब वही जनता अपने मुद्दो को लेकर सरकार और सासंदो के कान उमेठेगी तो संसद क्या करेगी, यह मानसून सत्र में देखना दिलचस्प होगा और 15 अगस्त के बाद कही ज्यादा खतरनाक भी। क्योंकि आजादी के बाद पहली बार कोई ऐसा नायक मुद्दो को लेकर जनता से जुड़ा है या जनता उससे जुड़ी है जो किसी राजनीतिक दल का नहीं है। चकाचौंध की अर्थव्यवस्था का नहीं है। और उसके पास गंवाने या पाने का कुछ भी नहीं है। सिवाय देश को ईमानदारी का सपना दिखाने के।

Wednesday, April 13, 2011

कौन डरता है अण्णा के सपने से

पहले भ्रष्टाचार पर नकेल, फिर चुनाव सुधार, उसके बाद चुने हुये नुमाइन्दो को वापस बुलाने का अधिकार और इन सबके साथ सत्ता का विकेन्द्रीकरण। यह सीधी लकीर अण्णा हजारे की है। जन-लोकपाल विधेयक के सवाल पर 97 घंटे के अनशन के दौरान समूचे देश की सड़क प्रतिक्रिया पर सरकार के नतमस्तक रुख ने अण्णा को यही हौसला दिया कि वह सरकार और जनता के बीच एक मोटी लकीर खींच दें।और आजादी के बाद पहली बार संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के तौर-तरीको पर सीधी अंगुली उठाते हुये आम नागरिक को झटके में कैसे सरकार से अलग-थलग कर हर उस सपने को अण्णा ने हवा दे दी, जो सरकार से इतर ना देख पाने की मजबूरी में या फिर हर पांच साल में चुनाव प्रक्रिया में शरीक होकर ही न्याय करने या होने के लोकतंत्र का पाठ पढ़ता रहा। यानी पहली बार अण्णा ने संसद को ही यह कहकर कटघरे में खड़ा कर दिया कि जिसका काम सवा सौ करोड़ लोगों की जरुरत और उसकी व्यवस्था में जुटना है, वह अपनी जरुरत और व्यवस्था बनाने में जुटी है। जिस संसद के भीतर सत्ता को बांधने के लिये विपक्ष है, वह भी विपक्ष की भूमिका छोड सत्ता में तब्दिल हो चुकी है।

लोकतंत्र के जो पाये चैक एंड बैलेंस के लिये हैं, सत्ता ने उसे भी अपने भीतर समा लिया है। यानी हर वह संस्था जो देश के आम नागरिकों के वोट की एवज में ऊपर से नीचे तक काम कर रही है, उसमें हर ऊपरी संस्था अपने मातहत संस्था को अपने ही रंग में कुछ इस तरह रंग चुकी है कि अपने अपने घेरे में हर कोई सत्ताधारी में बदल चुका है। इसलिये परिवर्तन चुनाव के जरीये होता है या होगा यह सोचना अब बचकानापन है। असल में अण्णा ने इतनी दूर तक सोचा या फिर जन-लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट को तैयार करने वाली कमेटी आगे इतनी दूर तर सोचेगी यह अभी कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन सिविल सोसायटी के नुमाइन्दो की पचास फीसदी भागेदारी के बगैर भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाला लोकपाल तबतक जन लोकपाल नहीं कहलायेगा, इस सोच के आधार पर समूचे देश में खडे हुये जनमानस ने पहली बार लोहिया और जेपी से आगे एक नयी समझ देश के सामने जरुर रखी कि असल संघर्ष संसद के कटघरे की जगह संसद को ही कटघरे में खड़ा कर पैदा किया जा सकता है। यानी लोहिया ने जिस ईमानदारी की मांग कांग्रेस और नेहरु से की। और किसान-मजदूर के श्रम मूल्य के आइने में सरकार की भ्रष्ट नीतियों को बकायदा आंकड़ों से घेरा। उस मांग में भी संसदीय राजनीति सर्वोपरि रही। या कहे विपक्ष से सत्ता में आकर सुधार का राजनीतिक नारा ही देश को सुनायी दिया । जेपी ने भी भ्रष्टाचार के सवाल को संसदीय राजनीति से जोड़ा और संपूर्ण क्रांति के मंत्र में भी कभी आम नागरिको को संसदीय व्यव्सथा से इतर नहीं जाने दिया। लेकिन अण्णा के साथ न तो लोग यह सोच कर जुड़े कि उन्हें संसदीय राजनीति में घुसना है या चुनाव लड़कर उसमें सुधार लाना है और न ही किसी ने यह माना की संसदीय व्यवस्था अपने आप में चैंक एंड बैलेंस कर लेगी।

इसका मतलब यह कि जिस संसदीय लोकतंत्र के नारे को ढाल बनाकर तमाम राजनीतिक दल एक बेहतर व्यवस्था की बात करते रहे हैं और अभी भी करते हैं, अण्णा के आमरण उपवास की छांव में पहली बार समूचे देश में स्वत-स्फूर्त बने जंतर-मंतर में जमा हुये जन-सैलाब ने लोकतंत्र के इस नारे को ही खारिज कर दिया। न तो अण्णा को सियसत में जाना है और ना ही भ्रष्टाचार की मुहिम में शामिल लोगों को। लेकिन बिना जन-भगेदारी के सरकार की किसी पहल पर भरोसा करना मुश्किल है तो पहली बार सवाल यह भी उठा कि फिर सांसद या मंत्री को लेकर नया नजरिया क्या हो। क्योंकि अभी तक जनता या आम नागरिकों की नुमाइन्दी करने वालो को नेता कहा जाता है, जो चुनाव लड़कर देश की नीतियों को अमलीजामा पहनाते। लेकिन सरकार के मंत्रियो या सर्वदलीय बैठक के निर्णय पर भी जब सवाल जनता ने ही अण्णा हजारे को समर्थन देकर उठाये तो अब सवाल यह उठेगा कि कैसे संसदीय राजनीति जनता से टकराती है। चूंकि सरकार में शामिल राजनीतिक दलों के अलावे किसी राजनीतिक दल की अहमियत झटके में गौण हो गई है। और अण्णा के आंदोलन के पांच दिनो के दौर में किसी राजनीतिक दल ने अपना मुंह तक नहीं खोला।

इतना ही कोई राजनेता इतनी हिम्मत भी नहीं दिखा सका कि वह अण्णा के साथ जंतर-मंतर पर मंच पर आ सके । कैसे आंदोलन ही कभी कभी मुद्दों को भी बनाता है और अण्णा को भी आंदोलन के पीछे चलना पडा, यह अण्णा के उमा भारती को बुलावे के बाद भी आम लोगो के विरोध से उभरा। और अण्णा वहां माफी मांगने के आलावा कुछ नहीं कर पाये। उमा भारती को खाली हाथ लौटना पड़ा। नया सवाल यही है कि संसदीय प्रणाली में जो व्यवस्था बनी हुई है उसे अण्णा के आंदोलन ने तो खारिज कर दिया लेकिन जनलोकपाल विधेयक जब संसद में जायेगा तब कांग्रेस से इतर दूसरे राजनीतिक दलो की प्रतिक्रिया कैसी होगी। क्योंकि संसदीय राजनीति के सामने दोहरा संकट है । एक तो भ्रष्टाचार का मुद्दा पहली बार राजनीतिक सत्ता को भी उलट-पुलट रहा है। और बिहार में चुनाव के जरीये यह खुल कर सामने आया। वहीं भ्रष्टाचार के इस दौर में कटघरे में वही कांग्रेस सबसे ज्यादा खड़ी रही, जिनके मंत्री लोकपाल विधेयक का ड्राप्ट तैयार करेंगे। और विपक्ष की भूमिका नगण्य होगी।

जाहिर में ऐसे में संसद के भीतर एक तरफ जहा विपक्ष सरकार को भ्रष्टाचार पर घेरकर लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट पर अंगुली उठायेगा, वह कांग्रेस सिविल-सोसायटी के आंदोलन की आड़ लेकर खुद को भ्रष्टाचार से मुक्त बतायेगी। और इस झगड़े के बीच सवाल उन राजनीतिक दलों का भी होगा, जिनके मुखिया लोकपाल के लागू होते ही शिकंजे में फंसेगे। शरद पवार, प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, मायवती,करुणानिधि चंद ऐसे नाम हैं, जिनकी पार्टियो के सांसद जन-लोकपाल को संसद के हंगामे में गुम करने की कोशिश भी करेंगे। क्योंकि भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले कानून के दायरे में सांसद भी आयेंगे। और सिर्फ लोकसभा के आंकड़े बताते हैं कि 543 में से 145 सांसद ऐसे हैं, जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले हैं। तो अपने ही खिलाफ देश के लिये कानून पर सहमति देने की ताकत सांसदों में है या अण्णा के आंदोलन से निकली चिंगारी में फैसला इसका भी होना है। जाहिर है कानून ना बनने पर या मानसून सत्र में ही लोकपाल विधेयक को पास ना कराने की स्थिति में 15 अगस्त का अल्टीमेटम अण्णा ने दिया ही है। यानी संसद को भी इसका एहसास है कि लोकपाल बिल को पास न कराने के दोषियो के खिलाफ 15 अगस्त के बाद सड़क पर समूचे देश में आम नागरिको का आक्रोश फूट सकता है। और उसके बाद संसदीय व्यवस्था को लेकर नये सवाल अण्णा के जरीये ही आंदोलन की शक्ल में सामने आ सकते हैं। यानी पहली बार तिरसठ बरस से चली आ रही संसदीय व्यवस्था के उस खांचे पर सवालिया निशान है, जिसके जरीये भारत दुनिया को सबसे बड़े लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते आया है। लेकिन अबकि बार इसी लोकतंत्र की परिभाषा फिर से गढ़ने की बात यह कहते हुये उठी है कि सत्ता मदहोश है। वह शासक की तरह जनता पर हुकूमत करने पर उतारु है। यानी जो मनमोहन सरकार विकिलिक्स के खुलासे में सरकार बचाने के लिये सांसदो की खरीद-फरोख्ती के आरोपों को यह कहकर खारिज करती हो कि उसके बाद चुनाव में तो उन्हें जनता ने ही चुना और विपक्ष खामोश हो जाये। जैसे संघ परिवार अयोध्या राग के बाद सत्ता में आने की दुहाई दें और भाजपा जनता की सहमति से जोड़े। नरेन्द्र मोदी भी चुनावी जीत के जरीये राजघर्म को भूलने की हिमाकत करे। यानी संसदीय राजनीति में सत्ता का समूचा मंत्र ही नहीं बल्कि हर पाप को घोने के लिये भी जब चुनाव में जीत को ही सबकुछ यह कह कर माना जाता हो कि जनता उनके साथ है। और पहली बार जनता ही अण्णा के साथ खडे होकर कहे कि हम आपके साथ है। और अण्णा चुनाव की जीत को भी भ्रष्टाचार के दायरे में लाकर सवाल उठाये कि अब चुनाव सुधार जरुरी है। देशहित में काम ना करने पर नुमाइन्दो को बुलाने का अधिकार {राईट टू रिकाल} जरुरी है और ग्राम सभा तक सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा। तो जाहिर है इसके बाद के कदम चुनाव आयोग के साथ सिविल-सोसायटी के नुमाइन्दो की टीम भी नजर आयेगी जो तय करेगी कि चुनाव लडने वाले दस उम्मीदवारो के अलावे एक ग्यारहवा कालम भी होगा जो खाली होगा और वही कालम वर्तमान संसदीय चुनाव प्रणाली में बिना सियासत किये अण्णा का होगा या कहें सिविल सोसायटी का होगा। जिसमें ज्यादा ठप्पे लगे तो चुनाव रद्द समझा जाये। यानी पहली बार सिसायत की ऐसी लकीर खींचने का सपना अण्णा ने समूचे देश में जगाया है, जिसमें हर छोटे-बड़े ईमानदार सपनों की जगह है। और यह सपने पहली बार 63 बरस की संसदीय राजनीति पर भारी पड़ रहे हैं।

Thursday, April 7, 2011

अन्ना-मनमोहन का 15 मिनट का संवाद !

अन्ना के आखिरी उपवास के पीछे का दर्द

सिर्फ पन्द्रह मिनट की बातचीत ने ही अन्ना हजारे और प्रधानमंत्री के बीच लकीर खींच दी। मामला भ्रष्टाचार पर नकेल कसने का था। और उस पर लोकपाल विधेयक के उस मसौदे को तैयार करने का था, जिससे आम लोगों का संस्थाओं पर से उठता भरोसा दोबारा जागे। 15 मिनट की बाचतीच कुछ इस अंदाज में हुई-
सरकार भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना चाहती है और इसमें आपकी मदद चाहिये। हम तो तैयार हैं। हमने यही लड़ाई लड़ी है। लोकपाल विधेयक के जरीये यह काम हो सकता है, आप हमें बतायें उसमें कैसे आगे बढ़ें, जिससे सहमति बने और विधेयक अटके भी नहीं। प्रधानमंत्री जी जब तक इसके दायरे में हर संस्था नहीं आयेगी और जब तक कार्रवाई करने के बाद परिणाम जल्द से जल्द सामने लाने की सोच नहीं होगी, तब तक लोकपाल का कोई मतलब नहीं है। क्या आप चाहते है कि जो स्वायत्त संस्थाये हैं, उन्हे भी इसके दायरे में ले आयें। जी , बहुत जरुरी है। जैसे सीबीआई एक स्वायत्त जांच एजेंसी है लेकिन उसपर किसी का भरोसा नहीं है और सत्ता अपनी अंगुली पर उसे नचाती है और वह ना नाचे तो फिर सीबीआई के बाबुओं की भी खैर नहीं। चलिये ठीक है, लेकिन इसपर सरकार के भीतर भी तो सहमति बननी चाहिये। और सरकार के आठ मंत्री बकायदा भ्रष्टाचार को लेकर मसौदा तैयार कर रहे हैं । तो उन्हे प्रस्ताव तैयार करने दिजिये और आप अपने सुझाव दे दीजिये। नही, प्रस्ताव तैयार करने में सरकार के बाहर जनता की भागेदारी भी होनी चाहिये। तभी पता चलेगा कि सरकार से बाहर लोग क्या सोचते है और भ्रष्टाचार की सूरत में सत्ता में बैठे लोगो के खिलाफ कैसे कार्रवाई हो सकती है। लेकिन मंत्री भी तो जनता के ही नुमाइन्दे हैं । और आप अलग से जनता के नुमाइन्दों को कहां से लायेंगे। नुमाइन्दी का मतलब सिर्फ संसदीय चुनाव नहीं होता । शांतिभूषण जी कानून मंत्री रह चुके हैं और उन्होने सुप्रीम कोर्ट के भ्रष्टाचार तक पर अंगुली उठायी। जनता भी सोचती थी कि न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर किस दिन कौन कहेगा। सरकार के तो किसी मंत्री ने कुछ नहीं कहा। लेकिन शांतिभूषण जी ने ताल ठोंककर कहा। तो इस तरह जो लोग अलग अलग क्षेत्रों से जुड़े हुये हैं और लोगों की भावना के करीब हैं, उन्हे लोकपाल विधेयक के मसौदे को तैयार करने में जोड़ा जायेगा। और अपन का तो मानना है कि प्रस्ताव तैयार में आधे सरकार के मंत्री हो और आधे असल जनता के नुमाइन्दे, जो उन सवालो को उठा रहे हैं, जिस पर से सत्ता ने आंखे मूंदी हुई है। यह कैसे संभव है। जब देश के आठ वरिष्ठ मंत्री भ्रष्टाचार को रोकने के लिये बनी कमेटी में काम कर रहे हैं तो उनके बराबर कैसे किसी को भी अधिकार दिये जा सकते हैं। प्रधानमंत्री जी आपको याद होगा जब जवाहरलाल नेहरु मंत्रिमंडल बना रहे थे और तमाम कमेटियां बनायी जा रही थी, तब महात्मा गांधी ने नेहरु से एक ही बात कही थी कि आजादी समूचे देश को मिली है सिर्फ कांग्रेस को नहीं। और यह बात लोकपाल विधेयक को लेकर भी समझनी चाहिये क्योंकि भ्रष्टाचार का मामला समूचे देश का मुद्दा है , यह सिर्फ सरकार का विषय नहीं है। लेकिन सरकार और मंत्री की जवाबदेही तो जनता के प्रति ही होती है। फिर आप गृहमंत्री, वित्तमंत्री, कानून मंत्री,कृषि मंत्री , मानव संसाधन मंत्री ,रेल मंत्री,रक्षा मंत्री से लेकर पीएमओ के मंत्री तक पर भरोसा क्या नहीं कर सकते।

हम इसकी व्यवस्था कर देते है कि चार मंत्री बकायदा आप लोगो के विचारो से लगातार अवगत होते रहे। और लोकपाल का स्वरुप भी उसी अनुकूल हो जैसा आप चाहते हैं। प्रधानमंत्री जी यह कैसे संभव है। देश का समूचा कच्चा-चिट्ठा तो आपको भी सामने है। आप ही जिन मंत्रियो के जरीये लोकपाल या भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की बात कह रहे है, जरा उसकी तासिर तो देखिये। गृह मंत्री पी चिदबंरम का नाम विकिलीक्स खुलासे में आया कि कैसे शिवगंगा में चुनाव के दैराव उनके बेटे कार्त्ती ने नोट के बदले वोट का खेल किया। कारपोरेट घराने वेदांता के साथ उनके संबंध बार बार उछले हैं और वेदांता को इसका लाभ खनन के क्षेत्र में कितना मिला है, यह भी खुली किताब है। स्पेक्ट्रम मामले में अनिल अंबानी की पेशी सीबीआई में हो रही है और उनसे भी कैसे रिश्ते चिदंबरम के हैं, यह मुंबई में आप किसी से भी जान सकते हैं। प्रणव मुखर्जी तो देश के वित्त मंत्री रहते हुये अंबानी बंधुओं के झगड़े सुलझाने से लेकर उन्हें देश के विकास से जोड़ने के लिये खुल्लम-खुल्ला यह कहने से नही कतराते कि वह अनिल-मुकेश अंबानी को बचपन से जानते हैं।

अन्ना हजारे जी मैं खुद क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ हूं और इसका जिक्र मैंने 2007 में फिक्की के एक समारोह में किया था। इसके संकेत आपको पिछले मंत्रिमंडल विस्तार में दिखायी दिया होगा। जी, सवाल संकेत का नहीं है। वक्त कार्रवाई का है। आपको तो जन लोकपाल में ऐसी व्यवस्था करनी है कि लोकपाल के खिलाफ भी शिकायत आये तो उसका निस्ताराण भी एक माह के भीतर हो जाये। यह सिर्फ सरकार के आसरे कैसे संभव है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को आपने ही टेलीकाम का प्रभार ए राजा के फंसने के बाद दिया। जाहिर है वह काबिल हैं तभी आपने अतिरिक्त प्रभार दिया। लेकिन हुआ क्या, सरकार का दामन बचाने के लिये उन्होने 2 जी स्पेक्ट्रम में कोई घोटाला भी हुआ है, इसे ही खारिज कर दिया और तर्को के सहारे कैग की रिपोर्ट को भी बेबुनियाद करार दिया। फिर कृषिमंत्री शरद पवार जी को आपने भ्रष्टाचार की रोकथाम वाली कमेटी में रखा है। अब आप ही बताईये हम उनसे क्या बात करेंगे। क्या यह कहेंगे कि लोकपाल में इसकी व्यवस्था होनी चाहिये किसी कैबिनेट मंत्री पर अवैध तरीके से जमीन हथियाने का आरोप लगता है तो इस पर फैसला हर हाल में महीने भर के भीतर आ जाना चाहिये। साबित होने पर देश को हुये घाटे की पूर्ति के साथ साथ कडी सजा की व्यवस्था होनी चाहिये।

कोई मंत्री अगर मुनाफाखोरो के हाथ आम आदमी की न्यूनतम जरुरतों को बेच देता है और बिचौलिया या जमाखोर उससे लाभ उठाते हैं और यह आरोप साबित हो जाये तो उस मंत्री के चुनाव लड़ने पर रोक लग जानी चाहिये। हम कौन सी बात पवार जी से कहेंगे, आप ही बताइये क्योंकि आप क्रोनी कैपटलिज्म के खिलाफ हैं और कांग्रेस खुले तौर पर कहती है कि शरद पवार कारपोरेट घरानो को साथ लेकर सियासत करते हैं। जिसका लाभ कारपोरेट को बीते पांच बरस में इतना हुआ है जितना आजादी के बाद कभी नहीं हुआ। सरकार और मंत्रियो के साथ खड़े कारपोरेट घरानो के टर्न ओवर में तीन सौ से लेकर तीन हजार फिसदी तक की बढोतरी अगर इस दौर में हुई और हर कारपोरेट ने अपने पैर देश के बाहर फैलाये तो उसके पीछे की अर्थव्यवस्था की जांच कौन करेगा। और लोकपाल बिल में यह सब कैसे आयेगा। फिर काग्रेस ने ही मंहगाई की जड में जब कृषि मंत्री को बताया और इसी दौर में जब कोई कड़ा कानून नहीं बनाया गया तब कैसे कानून मंत्री वीरप्पा मोईली अब लोकपाल को लेकर सक्रिय हो जायेंगे। प्रधानमंत्री जी यह सारे सवाल इस दौर में आपकी ही सरकार के मद्देनजर उठे हैं। इसलिये हमारे सामने सवाल लोकपाल बिधेयक को भी जन लोकपाल विधेयक में बदलने का है। इसीलिये हम जनता की भागीदारी का सवाल उठा रहे हैं।

अन्ना जी आपके कहे हर वाक्य की अहमियत मैं समझता हूं । लेकिन सरकार के कामकाज का अपना तरीका होता है और उस पर बिना सहमति बनाये कोई कार्य आगे बढ़ नहीं सकता। फिर सरकार सिर्फ कांग्रेस की नहीं है आपको समझना यह भी होगा। यह लोकतांत्रिक ढांचा है। मै आपको एक बात याद दिलाना चाहता हूं प्रधानमंत्री जी कि जब देश का संविधान तैयार हो रहा था तो उसका आखिरी ड्राफ्ट लेकर राजेन्द्र प्रसाद महात्मा गांधी के पास गये थे। तब गांधी जी ने एक ही सवाल राजेन्द्र बाबू से पूछा था। इस संविधान में गरीबो और पिछड़ों के लिये क्या है। और राजेन्द्र प्रसाद कोई जवाब दे नहीं पाये थे। मगर उसके बाद ही पिछड़ों को आरक्षण और गरीबो को राहत देने की बात संविधान में जुड़ी। अब लोकपाल और लोकायुक्त संस्था की स्थापना में आधी भागेदारी जनता की नहीं होगी तो फिर देश का मतलब तो वही सत्ता हो गयी जहां से भ्रष्टाचार की लौ फूट रही है। इसलिये मैं जनता के बीच इस मुद्दे को लेकर जाउंगा। अन्ना हजारे जी आप जैसा ठीक समझे आप बुजुर्ग हैं और हमें आपका मार्ग दर्शन चाहिये। मैं भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हूं और चाहता हूं कि आप सरकार को सहयोग दें।

और इस 15 मिनट की बातचीत के बाद अन्ना हजारे खामोश हो गये और वही पीएमओ की ड्योडी से उतरते उतरते उन्होंने मान लिया कि जन लोकपाल का रास्ता मनमोहन सिंह के रास्ते से नहीं निकलेगा बल्कि जनता के बीच से ही रास्ता निकालना होगा। तय किया कि इसलिये जिन्दगी के आखिरी उपवास पर आमरण बैठना ही गांधी का रास्ता अपना कर देश को रास्ते पर लाना होगा। और सत्ता को सीख देगी होगी।