शनिवार की रात अक्सर जेएनयू में जागरण की रात होती है। किसी मुद्दे पर चर्चा कर रात बिताने का मजा जेएनयू हॉस्टल की नयी परंपरा है। 16 अप्रैल को कोयना हॉस्टल जागा। मुद्दा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का था । लेकिन हवा में अन्ना हजारे के आंदोलन से पैदा हुई बहस थी। जेएनयू गेट पर ही आकाश मिला, जिसने देखते ही टोका अन्ना के आंदोलन ने संसदीय राजनीतिक सत्ता को नहीं चेताया है बल्कि उस वर्ग को घमकाया है जो मनमोहन सिंह की इकनॉमी में खूब फल-फूल रहा है। और आप भी यह ना दिखाये कि सारे भ्रष्ट नेता एकजुट है बल्कि यह बताइये कि जो बाजार अर्थव्यवस्था पर मजे लूट रहे हैं, उन्हे अन्ना खतरा लगने लगे हैं।
कुछ आगे ही सप्तर्षी कोयना हॉस्टल ले जाने के लिये खड़ा मिला। उसे साथ ले कर जैसे ही हॉस्टल गेट पर पहुंचे, एक छात्र ने फिर टोका अन्ना हजारे तो आरएसएस के हैं। कैसे। मंच पर भारत माता की तस्वीर बनाने की जरुरत क्यों पड़ी। हॉस्टल के गेट पर घेरा बनाकर खडे छात्रों में से एक दूसरे छात्र ने आरएसएस से अन्ना को जोडने पर बेहद तल्खी के साथ टोका, क्यों जेल की दीवार पर भगत सिंह ने भी तो भारत का नक्शा बनाया था। फिर अन्ना हजारे ने गांधी के साथ भगत सिह, राजगुरु, सुखदेव की भी तस्वीरे अन्ना के मंच के पीछे लगी थी लेकिन किसी ने अन्ना के तार अल्ट्रा-लेफ्ट से तो नहीं जोड़े। जितनी बार अन्ना ने भगत सिह का नाम मंच से लिया अगर कोई दूसरा आंदोलन होता तो सभी को सरकार नक्सलवादी करार देती। लेकिन यह आंदोलन सरकार के लिये फिट बैठ रहा था तो उसे हवा देने में कोई देर भी नही लगी। सरकार तो फंस गयी। उसे लाभ कैसे मिला। फंसी तो बाद में पहले तो सरकार को यही लगा कि भ्रष्टाचार में गोते लगाते कांग्रेसियों के लिये इससे बडी राहत क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार पर देशभर में आंदोलन है और उसमें वही विपक्ष नहीं है जिसने भ्रष्ट्चार के मुद्दे पर सरकार को घेरा और संसद ठप कर रखी थी। और आंदोलन ही अब सरकार से मांग कर रहा है कि भ्रष्टाचार पहले पर नकेल कसने के लिये जन-लोकपाल पर सहमति बनाइये।
जोर पकड़ती चर्चा के बीच हॉस्टल के अंदर से छात्र-छात्रायें निकल आये और कहा कि पहले स्पेक्ट्रम पर बहस शुरु कर लें। लेकिन पांच मिनट के औपचारिक शुरुआत के तुरुरंत बाद ही फिर मौका मिला की हॉस्टल के मेस के बाहर खड़े छात्रों से अन्ना पर चर्चा शुरु हो। क्योंकि कार्यक्रम के शुरु में पत्रकार प्रांजयगुहा ठाकुरता की 2जी स्पेक्ट्रम पर बनायी डाक्यूमेंट्री दिखायी जानी थी। रात के सवा दस बजे थे और डक्यूमेन्ट्री पचास मिनट की थी। तो बाहर निकलते ही आकाश सामने दिखा और मैंने बिना देर किये सीधे पूछा-यह जेएनयू की बीमारी अभी तक है कि वर्ग संघर्ष के दायरे में ही हर आंदोलन को देखा जाये। जबकि जंतर-मंतर ही नहीं देश भर में अन्ना हजारे के समर्थन में तो हर वर्ग के लोग थे। मैंने इससे कहां इंकार किया लेकिन अनशन टूटने के बाद क्या हो रहा है जरा इसे समझें। विरोध कौन कर रहे हैं। वही लोग हैं, जिन्हे एक खास मान्यता अपने अपने दायरे में मिली हुई है। उसमें नेता भी है और सरकारी कर्मचारी भी। उघोग घराने भी है और बुरा ना मानिये तो बडे-नामी कॉलमिस्ट पत्रकार भी हैं। इन सभी को दो बातें खाये जा रही हैं। पहली, आंदोलन चल निकला तो उनकी जरुरत कहां फिट बैठेगी। और दूसरी, जिस दौर में पैसा आया बाजार बढ़ा उसी दौर में भ्रष्टाचार के घेरे में अगर ज्यादा पैसा होना या बाजार थ्योरी का ही भ्रष्ट होना करार दे दिया गया तो उनकी रईसी पर टिकी उनकी मान्यता कहां टिकेगी।
नहीं लेकिन इतनी सरलता से विरोध को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। मैरेड हास्टल में रहने वाले शाहिद ने बीच में टोका। हांलाकि आकाश की बात वहा सही जरुर है जहा अच्छा-खासा जीवन जीने वालो को अचानक लगने लगा कि कोई इमानदारी की चादर लिये अचानक ऐसे सवाल खड़ा करने लगा, जिसके एवज में समूची अर्थव्यवस्था खड़ी है। लेकिन समझना यह भी होगा कि संसदीय लोकतंत्र का दायरा कितना तंग है या फिर खुली अर्थव्यवस्था का लाभ ही कितनों को मिला है। और अगर दोनो को मिला दिजिये तो पहली बार समझ में यह भी आयेगा कि समाज हर क्षेत्र में कितना बंटा हुआ है। नीतीश कुमार के पाल नैतिक साहस है, जो उन्हे जनता के वोट से मिला है इसलिये वह अन्ना के आंदोलन की हवा तेज करना चाहेंगे। लेकिन नरेन्द्र मोदी के लिये यह शातिरना राजनीति है,जिसमें वह अपनी राजनीतिक गोटी के दाग भी धोना चाहेंगे। जबकि देश के दूसरे नेताओ के पास पूंजी की शक्ति है। तो वह उस पर तब तक आंच नहीं आने देगे या कहे तबतक लडेंगे, जब तक देश में यह ना तय हो जाये कि सत्ता मिलने के तरीके क्या होंगे।
आप तरीके ईमानदार रखिये फिर आपको इसी समाज में सैकड़ों अन्ना हजारे मिल जायेंगे। लेकिन अरबपति शांति भूषण को लेकर आप क्या कहेंगे। हिन्दी विभाग से जुडे फर्ट् ईयर के छात्र ने सिविल सोसायटी के नुमाइन्दों की घोषित संपत्ति का सवाल उठाते हुये हास्टल की सीढ़ियों पर बैठे सभी से ही सवाल किया। अगर किसी धंधे में अरबों की कमाई होती भी है तो भी देश की हालत देखकर कोई कैसे अरबपति के आसरे भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की पहल को इमानदार कह सकता है। देश में जो हालात है उसमें सिर्फ कानून के जरीये ईमानदार होना चाहेगे तो फिर सबको बराबर खेलने देने का मौका भी आपको देना होगा। और यह कानून से नहीं सामाजिक समझ से संभव है। सही कह रहे है आप । शांतिभूषण की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं है । लेकिन जब सीधे राजनीति और संसद को पाठ पढ़ाने का सवाल जन-लोकपाल के जरीये जुडा है तो फिर पचास करोड़ दान करके कूदना चाहिये। लेकिन फिर वही सवाल है कि क्या उसके बाद तैयार ड्राफ्ट के जरीये देश में इमानदार पहल शुरु हो जायेगी।
रंजना ने सवाल किया तो जवाब छात्रा ने ही दिया। एसआईएस की छात्रा ने अन्ना के आंदोलन पर सवालिया निशान लगाते हुये ही पूछा , क्या आप सभी को नहीं लगता कि आंदोलन से किसी राजनीतिक समझ के बगैर ही शुरु हुआ लेकिन इसके विरोध के तरीको ने उसके मिजाज को राजनीतिक भी बना दिया है और यह संदेश भी देने की कोशिश की जा रही है कि इस आंदोलन में एकतरह की राजनीतिक शून्यता है। अंग्रेजी और हिन्दी के अखबारों की रिपोर्टिंग और उसमें छपने वाले आर्टिकल से भी यह समझा जा सकता है और राजनीतिक लाईन छोडकर कांग्रेस-भाजपा के एक सुर को भी हास्टल के मेस से बुलावा आया कि फिल्म खत्म हो गई। और अंदर जब 2जी स्पेक्ट्रम को जड़ से उघाडती डाक्यूमेन्ट्री को देखचुके छात्रो से संवाद शुरु हुआ तो सवाल घूमफिरकर अन्ना की हवा में जा घुसा, जहां सवाल सीधे और तल्खी भरे थे। क्या कानून के जरीये भ्रष्टाचार पर नकेल कसी जा सकती है , जब सत्ता पाने के तरीके भ्रष्ट हों। कहीं भ्रष्टाचार के मामले और अब नकेल कसने को हवा देना भी उस व्यवस्था की जरुरत तो नहीं है जिसपर से आम लोगो का भरोसा उठता जा रहा है । अगर राजा स्पेक्ट्रम के दोषी है तो एस बैंड के लिये पृथ्वीराज चौहान क्यो नहीं, जबकि पीएम ने बकायदा उनका नाम लिया। क्या सामाजिक परिस्थितियो में कोई बदलाव की जरुरत है या फिर अर्थव्यवस्था ने ही सामाजिक परिस्थितियों को बदल दिया है, जिसे हमारा एक तबका पचा नहीं पा रहा है । क्या ऐसा नहीं लगता कि एक बार फिर भ्रष्टाचार को लेकर शुरु हुई लडाई भी चंद चेहरो में सिमट गयी है और आम आदमी की पहलकदमी जानबूझ कर रोक दी गयी है । क्या हर बदलाव से भरोसा उठाने की कोशिश नहीं हो रही है। जाहिर है यह सारे सवाल ही है जो जेएनयू से निकले और आधी रात के बाद तक चली इस चर्चा में उठे। लेकिन अंत में झटका तब लगा जब चर्चा का आयोजन करने वाले तपस को चर्चा करवाने के लिये बधाई देते छात्रो ने कहा, यार सबकुछ है लेकिन इस बहस में कही लेफ्ट नहीं है। और वाम छात्र संगठन के तपस ने भी खामोशी ओढ़ ली।
kuch nahi hona sir,bhushan se chali ye aag anna tak bhi pahuchegi,congress se par pana bahut tedi kheer hai.
ReplyDeleteblog hamesha ki tarah tarkik hai,mere jaiso ko to samajhne ke liye bhi ekagra hona padta hai
ReplyDeleteएक बात तो फिर भी रह गई सर जी कि आखिर अन्ना और भूषण की ओर जाती इस बहस में वही सब बात छाई रही जो बाहर की हवा मे तैरा दी गई है, मुझको तो यह भी ऐसा ही लग रहा है जैस छद्म सिकुलरिज्म के नाम पर कई अच्छे बातों को दफन कर दी गई। मुद्दा तो है जन लोकपाल आना चाहिए या नही पर कांग्रेस के ंसिपहसलारों ने इसे अन्ना और भुषण के इर्द गिर्द लाकर छोड़ दिया है।
ReplyDeleteबहस को इतने नजदीक से समझाने के लिए धन्यवाद, मुझ जैसे गांव मे रहने वालों को आपके द्वारा ही इतनी अच्छी खुराक मिल पाती है।
बाजपेयी सर,
ReplyDeleteअच्छी खुराक।
arun bhai ka hi shabda.
sg chaudhari,
ahmedabad- 99980 43238.
कुछ यु किसी ने आस जगाई है
ReplyDeleteन कोई दल न मजहब
न जाती की लड़ाई है
अन्ना तेरी जिद ने
गाँधी की नयी तस्वीर बनाई है
बाजपेयी जी मैं इस शीर्षक पर पूरी कविता आपको पोस्ट करूँगा अभी कविता पूरी नहीं हुई है लिख रहा हूँ
मैं हरदम आपका ब्लॉग पढता हु और बड़ी खबर देखता हु