Saturday, July 30, 2011

मर्डोक के आइने में भारतीय मीडिया

हमनें ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ इसलिये बंद किया क्योंकि अखबार की साख पर बट्टा लगा था। और साख न हो तो फिर खबरों की दुनिया में कोई पहचान नहीं रहती है। बल्कि वह सिर्फ और सिर्फ धंधे में बदल जाता है और मीडिया सिर्फ धंधा नहीं है। क्योंकि धंधे का मतलब हर गलत काम को भी मुनाफे के लिये सही मानना है। और न्यूज ऑफ द वर्ल्ड में यह सब हुआ, लेकिन मुझे निजी तौर पर इसकी जानकारी नहीं रही। इसलिये मैं दोषी नहीं हूं। ब्रिटिश संसद के कटघरे में बैठे रुपर्ट मर्डोक ने कुछ इसी अंदाज में खुद को पाक साफ बताते हुये कमोवेश हर सवाल पर माफी मांगने के अंदाज में जानकारी न होने की बात कहते हुये सबकुछ संपादक के मत्थे ही मढ़ा लेकिन जब जब सवाल मीडिया की साख का उठा तो मर्डोक ने सत्ता, सियसत,ताकत और पैसे के खेल के जरीय हर संबंध को गलत ही ठहराया।

जाहिर है मीडिया मुगल की हैसियत रखने वाले रुपर्ट मर्डोक 26 फीसदी पूंजी के साथ भारत के एक न्यूज चैनल से भी जुड़े हैं और जिस दौर में न्यूज ऑफ द वर्ल्ड के जरिए ब्रिटेन के सबसे पुराने टैबलायड के जरीये पत्रकारिता पर सवाल उठे हैं, उसी दौर में भारतीय मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का काम कठघरे में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। कह यह भी सकते हैं कि बात साख यानी विश्वसनीयता की है तो उसकी गूंज कहीं ना कहीं भारतीय मीडिया के भीतर भी जरुर गूंजी होगी। क्योकि इस वक्त भारतीय मीडिया न सिर्फ खबरों को लेकर कटघरे में खड़ा है बल्कि साख को दांव पर लगाकर ही धंधा चमकाने में लगा है। सरकार ही इसी को हवा दे रही है। कह सकते हैं आर्थिक सुधार के इस दौर में भारतीय समाज के भीतर के ट्रांसफॉरमेशन ने सत्ता की परिभाषा राजनेताओ के साथ साथ मीडिया और कॉरपोरेट के कॉकटेल से गढ़ी है। जिसमें हर घेरे की अपनी एक सत्ता है और हर सत्ताधारी दूसरे सत्ताधारी का अहित नहीं चाहता है। इसलिये लोकतंत्र के भीतर का चैक-एंड-बैलेंस महज बैलेंस बनाये रखने वाल हो गया है, जिसमें मीडिया की भूमिका सबसे पारदर्शी भ्रष्ट के तौर पर भी बनती जा रही है। सतही तौर पर कह सकते है कि भारतीय न्यूज चैनलों को लेकर सवाल दोहरा है। एक तरफ न्यूज चैनल को लोकप्रिय बनाने के लिये खबरों की जगह पेज थ्री का ग्लैमर परोसने का सच तो दूसरी तरफ न्यूज चैनल चलाने के लिये साख को ताक पर रखकर सत्ता के साथ सटने को ही विश्वसनीयता मानने का गुरुर पैदा करने का सरकारी खेल। यानी नैतिकता के वह मापदंड जो किसी भी समाज को जीवित रखते है या कहे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को बनाये रखने का सवाल खड़ा करते हैं , उसे ही खत्म करनी की साजिश इस दौर में चली है।

लेकिन मीडिया के भीतर का सच कही ज्यादा त्रासदीदायक है। मीडिया में भी उन्हीं कंपनियों के शेयर है, जो सरकार से तालमेल बनाकर मुनाफा बनाने के लिये देश की नीतियों तक को बदलने की हैसियत रखते हैं। देश के टॉप पांच कॉरपोरेट घरानों के 10 फीसदी से ज्यादा शेयर आधे दर्जन राष्ट्रीय न्यूज चैनलो में है। यहां सवाल खड़ा हो सकता है कि कॉरपोरेट और सरकार के गठजोड से बिगड़ने वाली नीतियों में वही मीडिया समूहों को भी शरीक क्यों ना माना जाये जब वह उनसे जुडी खबरो का ब्लैक आउट कर देते हैं। ब्रिटिश संसद ने तो न्यूज आफ द वर्ल्ड की सीईओ ब्रूक्स से यह सवाल पूछा कि किसी खबर को दबाने के लिये पीएम कैमरुन ने दवाब तो नहीं बनाया। लेकिन भारत में किसी मीडिया हाउस के सीईओ की ताकत ही इससे बढ़ जाती है कि पीएमओ ने लंच या डिनर पर बुलाया। और पीएमओ या गृहमंत्रालय किसी एडवाइरी का हवाला देकर किसी न्यूज चैनल के संपादक को कह दे कि फलां खबर पर ‘टोन डाउन’ रखे तो संपादकों को लगने लगता है कि उसकी अहमियत, उसकी तकत कितनी बड़ी है। और यही सोच सरकार पर निगरानी रखने की जगह सरकार से सौदेबाजी के लिये संपादकों को उकसा देती है। यानी यहां सरकार ने मीडिया के नियम ही कुछ इस तरह बना दिये हैं, जिसमें घुसने का मतलब है सत्ता के कॉकटेल में बनकर पीने वालो को ठंडक पहुंचाना। क्योंकि सरकार का नजरिया मीडिया में शामिल होने के लिये मीडिया को धंधा माने बगैर संभव नहीं होता। अगर न्यूज चैनल का लाइसेंस चाहिये तो फिर रास्ता सरकार से संबंध या फिर काले रास्ते से कमाई गई पूंजी को लूटाने की क्षमता पर तय होता है।

बीते दो बरस में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर 27 न्यूज चैनलों का लाइसेंस ऐसे धंधेबाजों को दे दिया गया जो सरकारी एंजेसियों में ही ब्लैक लिस्टेड है। रियल इस्टेट से लेकर चिट-फंड कंपनी चलाने वाले न्यूज चैनलों को जरिए किस साख को बरकरार रखते हैं या फिर मीडिया की साख के आड में किस रास्ते कौन सा धंधाकर खुद की बिगड़ी साख का आंतक फैलाने के लिये खेल खेलते हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। संकट सिर्फ धंधा बढ़ाने या बचाने के लिये न्यूज चैनल का रास्ता अख्तियार करने भर का नहीं है। अगर सत्ता ही ऐसे व्यक्तियों को लाइसेंस देकर मीडिया का विस्तार करने की सोचती है तो सवाल यह भी खड़ा हो सकता है कि सरकार उनके जरीये अपना हित ही साधेगी। मगर यह रास्ता यही नहीं रुकता क्योंकि बीते पांच बरस में देश में 16 ऐसे न्यूज चैनल है जो बंद भी हुये। एक के हाथ से निकल कर दूसरे के हाथ में बिके भी और संकट में पत्रकारो को वेतन देने की जगह खुले तौर पर चैनल के रास्ते धन उगाही का रास्ता अख्तियार करने के लिये विवश भी करते दिखे। सिर्फ दिल्ली में 500 से ज्यादा पत्रकारों की रोजी रोटी का सवाल खड़ा हुआ क्योंकि डिग्री लेने के बाद जब वह चैनलों से जुड़े तो वह खबरों की साख पर न्यूज चैनलों को तलाने की जगह मीडिया की साख को ही बेचकर अपने धंधे को आगे बढ़ाने पर लालायित दिखा। पत्रकारिता कैसे नौकरी में बदल दी गयी और नौकरी का मतलब किसी पत्रकार के लिये कुछ भी करना कैसे जायज हो गया यह भी ताकतवर दिल्ली में कॉरपोरेट के लिये काम करते पुराने घुरंधर पत्रकारों को देखकर समझा जा सकता है। वहीं कुछ न्यूज चैनलों के तो पत्रकारो की जगह सत्ता के गलियारे के ताकतवर लोगों के बच्चों को पत्रकार बनाने का नया रिवाज भी शुरु किया जिससे मीडिया हाउस को कोई मुश्किल का सामना ना करना पड़े।

ऐसे में यह सवाल कभी नहीं उठा कि मीडिया को धंधा मान कर न्यूज चैनल शुरु करने वालो को ही इस दौर में लाइसेंस सरकार ने क्यों दिया। रुपर्ट मर्डोक ने तो ब्रिटिश हाऊस ऑफ कामन्स के सामने माना कि न्यूज आफ द वर्ल्ड जिस तरीके से सत्ता से जुड़ा, जिस तरीके से फोन टैपिंग से लेकर हत्यारे तक के साथ खड़ा होकर हुआ, जिस तरह नेताओ-सत्ताधारियों से संपादक-सीईओ ने संबध बनाये उसने मीडिया की उस नैतिक विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया, जिससे मीडिया को लड़ना पड़ता है। लेकिन इन्हीं आरोपों को अगर भारत के न्यूज चैनलो से जोड़ें तो पहला सवाल नेताओ-बिचौलियों के साथ ऐसे पत्रकारो के संबंध से उठ सकता है, जिसने 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के दौर में मीडिया को भी कटघरे में खड़ा किया। और संसद में लहराते नोटो के जरीये जब यह सवाल खड़ा हुआ कि सरकार बचाने के लिये सांसदो की खरीद-फरोख्त सासंद ही कर रहे है और कुछ मीडिया हाउसो की भागेदारी भी कहीं न कही सरकार को बचाने के लिये नतमस्तक होने की है या फिर सरकार को गिराने के लिये विपक्षी सांसदों के स्टिंग आपरेशन को अंजाम देने की पत्रकारिता करने में। मीडिया के आभामंडल की तसदीक ही जब सरकार में पहुंच से हो तो साख का मतलब होता क्या है यह समझना भी जरुरी है। किस मंत्री को कौन सा मंत्रालय मिले। किस कॉरपोरेट के प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल जाये। किस भ्रष्टाचार की खबर को कितने दिन तक दबा कर रखा जाये, मीडिया की इसी तरह की भूमिका को अगर पत्रकारो की ताकत मानने लगे तो क्या होगा। अछूता प्रिंट मीडिया भी नहीं है। निजी कंपनियों के साथ मीडिया हाउसो के तालमेल ने छपी खबरों के पीछे की खबर को सौदेबाजी में लपेट लिया तो कई क्षेत्रीय मीडिया मुगलो ने मुनाफा बनाने के लिये मीडिया से इतर पावर प्रोजेक्ट से लेकर खनन के लाइसेंस सरकार से लेकर ज्यादा कीमत में जरुरतमंद कंपनियों को बेचने का धंधा भी मीडिया हाउसों की ताकत की पहचान बनी तो फिर साख का मतलब होता क्या है यह समझना वाकई मुश्किल है। रुपर्ट मर्डोक की तो पहचान दुनिया में है। और ब्रिटिश संसद के कटघरे को भी दुनिया ने सार्वजनिक तौर पर मीडिया मुगल की शर्मिन्दगी को लाइव देखा। लेकिन क्या यह भारत में संभव है क्योकि भारत में जिस भी मीडिया हाउस पर जिस भी राजनीतिक दल या नेता से जुड़ने के आरोप जिन मुद्दो के आसरे लगे उसकी साख में चार चांद भी लगते गये। कहा यह भी जा सकता है कि जब सवाल संसद की साख पर भी उठे तो मीडिया की विश्वसनियता में नैतिकता का सवाल ताक पर रखकर साख बनाने को भी अब के दौर में नयी परिभाषा दी गयी। और सत्ता ने इस नयी परिभाषा को गढ़ने में मीडिया को बाजार हित में खड़ा करना सिखाया भी और गुरुर से जनता की जरुरतो को ताक पर रखकर सरकार से सटकर खड़े होने को ही असल मिडियाकर्मी या मिडिया हाउस बना भी दिया।

सवाल है ब्रिटिश संसद तो मर्डोक को बुला सकती है लेकिन क्या भारतीय संसद भी किसी भारतीय मीडिया मुगल को बुलाकर इस तरह सवाल खड़ा कर सकती है। क्योंकि साख तो सांसदो की भी दांव पर है।

Thursday, July 28, 2011

येदियुरप्पा के पीछे बीजेपी का सत्ता संघर्ष

10 महीने पहले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने ही येदियुरप्पा की कुर्सी बचायी थी तो क्या दस महीने बाद गडकरी येदियुरप्पा की कुर्सी लेने पर राजी हो चुके हैं। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अक्टूबर 2010 में भी लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगडे ने अवैध खनन को लेकर सीधे येदियुरप्पा पर ही निशाना साधा था और तब आरएसएस येदियुरप्पा के साथ खड़ी हो गई थी। और गड़करी ने खुले तौर पर येदियुरप्पा को क्लीनचीट दी थी। तो फिर दस महीने में ऐसा क्या हो गया जो बीजेपी के भीतर से ही येदियुरप्पा को हटाने की आवाज आने लगी। असल में येदियुरप्पा बीजेपी शासित राज्यो में सिर्फ भ्रष्टाचार के प्रतीक भर नहीं है बल्कि बीजेपी के भीतर चल रही सियासी बिसात के सबसे अहम प्यादे बन चुके हैं।

गडकरी इस प्यादे को बीजेपी की दिल्ली चौकडी तले कटने नहीं देना चाहते हैं तो दिल्ली की चौकडी ना सिर्फ येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार पर बनते राष्ट्रीय मुद्दे तले प्यादा बनाकर काटना चाहती है बल्कि भ्रष्टाचार में फंसी मनमोहन सरकार के खिलाफ येदियुरप्पा सबसे गाढ़ा दाग मनवाने के लिये बेताब है। असल में बीजेपी की इस दिल्ली लड़ाई के पिछे सवाल सिर्फ येदियुरप्पा का नहीं है। बल्कि भ्रष्टाचार की बिसात पर अपनी पैठ बनाने की सत्ता की अनूठी लड़ाई है। कर्नाटक में इस वक्त डेढ दर्जन से ज्यादा पावर प्लांट पाइप लाइन में है। जिसमें नौ निजी कंपनियां ऐसी है जो सीधे बीजेपी की अंदरुनी सियासी संघर्ष में फिलहाल सत्ता के करीबी हैं। कर्नाटक का जो सच लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में दिखाया है, वह चार बरस में 16 हजार 85 करोड के राजस्व का चूना लगने का है। लेकिन पावर सेक्टर का खेल बताता है कि निजी कंपनियो के जरीये पावर प्लांट लगाने के लाइसेंस के पीछे 50 हजार करोड़ से ज्यादा के वारे न्यारे हैं। इसीलिये कर्नाटक पावर कारपोरेशन को सिर्फ दो पावर प्लाट से जोड़ा गया है बाकि की फेरहिस्त में रिलायंस, इंडो-भारत पावर, मुकुंद लिमेटेड,सुराना पावर, एटलस पावर , कोस्टल कर्नाटक पावर, और पावर कंपनी आफ कर्नाटक का नाम है जिसके पीछे इस वक्त बीजेपी के वही कद्दावर है जो नहीं चाहते कि येदियुरप्पा कुर्सी छोड़ें।

इसी तरह हाउसिंग और राजस्व मंत्रालय में भी तीस हजार करोड़ से ज्यादा का खेल जमीन पर कब्जे को लेकर चल रहा है और संयोग से दोनो की मंत्रालय के मंत्रियों के नाम घोटाले में आये हैं। इसलिये बैगलूर में सत्ता का जो संघर्ष योजनाओं के खेल से उभारता है वह दिल्ली पहुंचते पहुंचते भ्रष्टाचार की सियासी चाल से जुड़ जरुर रहा है । मगर उसका रंग अब भी घंघे से कमाई का ही है। गडकरी बतौर बीजेपी अध्यक्ष पार्टी के भीतर सीधे संघर्ष के मूड में हैं। क्योंकि उन्हे लगने लगा है कि अगर येदियुरप्पा पर फैसला आडवाणी के घर से निकलेगा तो उनकी हैसियत घटेगी। इसलिये फैसले की नब्ज गडकरी अपने हाथ में रखना चाहते हैं, चाहे आडवाणी के घर बैठक से जो भी निकले। इसीलिये येदियुरप्पा भी जिस फार्मूले के साथ दिल्ली पहुंचे हैं, उसमें चेतावनी दिल्ली की चौकडी के लिये ही है, जो अनंत कुमार कर्नाटक की कुर्सी पर भैठाने के लिये बैचेन है, जिससे करोड़ों के वारे-न्यारे का पाला झटके में बदल जाये।

उधर येदियुरप्पा का फार्मूला सीधा है। लोकायुक्त की रिपोर्ट में उनका नाम बतौर मुख्यमंत्री है। जबकि भ्रष्टाचार के घेरे में जो चार मंत्री फंसे है उनमें से दो मंत्री अंनत के करीबी हैं। राज्य के राजस्व, स्वास्थ्य , हाउसिंग और पर्यटन मंत्री का नाम लोकायुक्त की रिपोर्ट में है। येदियुरप्पा का कहना है पहले तो चारो मंत्रियो को हटाना होगा। फिर लोकायुक्त की रिपोर्ट में चूंकि काग्रेस के राज्यसभा सांसद लाड और कुमारस्वामी का भी नाम है तो भ्रष्टाचार के फंदे में उन्हे फांसने के लिये कोई व्यूहरचना करना जरुरी है। और इसके लिये बीजेपी सांसद सदानंद गौडा की अगुवाई में पहल तुरंत शुरु करनी चाहिये। यहां यह जानना भी जरुरी है कि सदानंद का मतलब कर्नाटक की सियासत में येदियुरप्पा की छांव का होना है। तो येदियुरप्पा का अपना चक्रव्यूह अपनों के जरीये बीजेपी की दिल्ली चौकडी के ही पर कतर अपने विकल्प का भी ऐसा रास्ता बनाने की दिशा में है, जहा गद्दी जाने पर भी सत्ता की डोर येदियुरप्पा के ही हाथ में रहे। और इस पूरे खेल की सियासी बिसात नीतिन गडकरी अपनी हथेली पर खेलना चाहते है जिससे आडवाणी के घर बैठक करने वालो का यह एहसास हो कि रांची में अर्जुन मुंडा से लेकर बैगलूरु में येदियुरप्पा तक को कुर्सी पर बैठाने या हटाने के पीछे वही रहेंगे। क्योंकि अब बीजेपी में अंदरुनी सत्ता का संघर्ष है कही ज्याद तीखा हो चला है क्योंकि भ्रष्टाचार में घिरती सरकार के सामने खडी बीजेपी किसके कहने पर किस रास्ते चले जो असल नेता कहलाये संकट यही है। इसलिये येदियुरप्पा की चलेगी तो दिल्ली की बीजेपी चौकडी की पोटली हमेशा खाली ही रहेगी और बीजेपी अद्यक्ष नीतिन गडकरी की पोटली पर आंच आयेगी नहीं ।

Thursday, July 21, 2011

मुंबई 1993 से 2011 तक

1993 से 2011 तक के दौर में देश में सबकुछ बदल गया । 1993 में देश में माफिया और अडंरवल्र्ड रेंगता था । 2011 में कारपोरेट और नीजि कंपनियों का बोलबाला है । उस दौर में अंडरवर्ल्ड के निशाने पर रियल इस्टेट था तो अब रियल इस्टेट का घंघा ही अंडरवर्ल्ड ने संभाल रखा है । 1993 में कामगार-मजदूर का संघर्ष था तो दत्ता सांमंत की यूनियन भी थी । 2011 में उघोगों बंद हो चुके है , ताले लग चुके हैं और बाजार ही सबसे बडी इंडस्ट्री है तो कामगार मजदूर की जगह बिचौलियों और दलालों की भरमार है। महाराष्ट्र की इम्पेरस मिल की इमारतों में माल और आधुनिक रिहाइश का फैशन चल निकला है। और देखते देखते सियासत का रंग भी इन 18 बरस में कुछ ऐसा बदल गया कि 1993 में देश के वित्त मंत्री 2011 में ठसक और मजबूती के साथ देश की कमान थामे बीते सात बरस से प्रधानमत्री है ।

लेकिन इस दौर में अगर कुछ नहीं बदला है तो वह मुंबईकर की फितरत है। 1993 में दुनिया ने पहला सीरियल ब्लास्ट भी मुबंई में ही देखा। तब एक के बाद एक कर सात ब्लास्ट के पीछे उस सियासी प्रयोगशाला की आग थी जिसने लोगो को घर्म के खांचे में ऱखना शुरु किया था। और अंडरवर्ल्ड ने इसी सियासी पारे में अपने मुनाफे को अंजाम दिया और सौदेबाजी सीमापार से की। और 18 बरस बाद अंडरवर्ल्ड की जगह टैरररिस्ट ने ली । मगर बदला कुछ नहीं। निशाने पर फिर मुंबई ही आयी। वही सीरियल ब्लास्ट। वैसे ही खून से लथपथ झावेरी बाजार और दादर । मौतों में अपने परिजनो को खोजते-भटकते वैसे ही लोगो का हुजूम। और गुनाहगारों को सजा देने के वैसे ही वायदों के बीच खाली हाथ दिखाने की सरकारी फितरत।
दरअसल, बड़ा सवाल यही से खड़ा होता है कि बीते 18 बरस में अगर ब्लास्ट मुबंई की पहचान बना दी गयी , आंतकवादी हिंसा सियासी सौदेबाजी के दायरे में आ गयी और समूचा तंत्र फेल नजर आने लगा है तो फिर देश का रास्ता जाता किधर है। क्योंकि इस दौर में आर्थिक सुधार की जिस धारा ने अंडरवर्ल्ड को सतह पर ला दिया और विकास का तंत्र ही उस माफिया मंत्र को अपनाने लगा जहा सार्वजनिक सेक्टर की जगह कारपोरेट और निजी कंपनियों ने ली । माफिया और अंडरवर्ल्ड के जो तार बाहरी दुनिया से जुडकर अपने मुनाफे का रास्ता गैरकानूनी तरीके से बनाते-बढाते थे वही रास्ता 2011 में ना सिर्फ कानूनी हो गया बल्कि मारिशस, मलेशिया और यूएई के जरीये हवाला रैकेट की नयी थ्योरी ने देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर विकास नीतियो को भी अपनी गिरफ्त में लिया और देश की खुशहाली मापने वाले शेयर बाजार का सेंसक्स भी उसी विदेशी निवेश से घडकने लगा जो अंडरवर्ल्ड के कारपोरेटीकरण का मुनाफा तंत्र है । यानी आंतक का साया इक्नामी पर हमला करें तो कानूनी है लेकिन सिरियल ब्लास्ट की शक्ल में सामने आये तो चाहे गैरकानूनी हो मगर उसे रोकने की जो नैतिकता चाहिये, वह कहां से आयेगी यह सवाल जरुर इस वक्त देश के सामने है। क्योंकि इस वक्त भी 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच चल रही है और सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काम कर रही सीबीआई, सीबीडीटी और ईडी की रिपोर्ट बताती है मुनाफा बनाने के खेल में किस तरह देश को चूना लगाकर करोडों के वारे न्यारे किये जाते है और उसे ठीक वैसे ही फंड ट्रांसफर का नाम दे दिया जाता है। जैसे 1993 में सीरियल ब्लास्ट का मुख्य आरोपी अंडरवर्ल्ड डान दाउद इब्राहिम 2011 में यूएई की कंपनी एतिसलात के जरीये भारत की नीतियो में सेंघ लगाता है। सीबीआई की रिपोर्ट जब एतिसलात कंपनी के पीछे अंडरवर्ल्ड के तार देखती है तो सवाल यह भी खडा होता है कि जिस देसी कंपनी स्वान को लाइसेंस भारत के कैबिनेट मंत्री 1537 करोड में 2 जी लाईसेंस बेचते हैं। और चंद दिनो बाद ही स्वान करीब 4200 करोड में 45 फीसदी शेयर यूएई के एतिसलात को बेच देता है तो फिर मामला सिर्फ घोटाले का नहीं होता और कानूनी तौर पर आपराधिक या आतंक के दायरे में समूची कार्रवाई क्यों नहीं हो रही। इसी तरह यूनिटेक वायरलैस को स्पेक्ट्रम का लाइसेंस डीओटी से 1661 करोड में मिला और यूनिटेक ने नार्वे के टेलेनोर को 60 फीसदी शेयर 6120 करोड में बेच दिये। टेलेनोर के पीछे भी हवाला और मनी लैडरिंग की वहीं कहानी जांच में सामने आ रही है जो अंडरवर्ल्ड ने एतिसलात में अपनायी। इतना ही नहीं 1993 से 2011 के बीच देश में ढाई हजार से ज्यादा ऐसी निजी कंपनियां खड़ी हो गयी, जिनकी अपनी इकनॉमी विदेशी निवेश पर ही टिकी है। यानी हर कंपनी के तार किसी ना किसी विदेशी कंपनी से जुड़े हैं और विदेशी कंपनी का प्रोफाइल बार बार उसी दिशा में समूचे धंधे को ले जाता है जहां अंडरवर्ल्ड इकनॉमी का काला धंधा सफेद होता दिखता है।

अगर सीबीडीटी और ईडी की विदेशी कंपनियो के भारत के साथ गठजोड़ की रिपोर्ट को ही देखे तो बारस सौ विदेशी कंपनियां ऐसी हैं जो भारत की ही निजी कंपनियो के जरीये चलती हैं। यानी हवाला और मनी लैडरिंग का तंत्र ही कैसे देश में निजीकरण को आगे बढाता है यह उसकी कहानी है। वहीं सिर्फ दाउद इब्राहिम ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग अलग देशो के सौ से ज्यादा अंडरवर्ल्ड खिलाड़ियों ने कारपोरेट धंधे के जरीये अपने रंग को बदला है। और उनके तार भारत की खुली अर्थव्यवस्था के बाजार में लगातार सेंघ लगा रहे हैं। असल में आतंक की तस्वीर 1993 की हो या फिर 26/11 या फिर अब 2011 की । हर के तार पाकिस्तान में ही जा कर रुकते है और आतंक का सच यह भी है अंडरवर्ल्ड के बाद जो पहला आंतकी हमला कश्मीर के विधानसभा से होते हुये लालकिले और फिर संसद तक पहुंचा और उसके बाद हर शहर , हर सूबे को गिरफ्त में लेता चला गया, उसके सामानांतर सरकार के लिये भी पहले दाउद और फिर आतंकवादी संगठन लश्कर या जैश पाकिस्तान के साथ सौदेबाजी के दायरे में ही आये। यानी भारत कभी इसके लिये तैयार नहीं हुआ कि आंतक के साये को अपनी सुरक्षा व्यवस्था और नीतियों से नेस्तानाबूद करेगा बल्कि पाकिस्तान के साथ बातचीत की मेज पर पड़ोसी का धर्म निभाते हुये अपनी विदेश नीति को भी उसी दिशा में मोडा जहा पाकिस्तान के लिये ही आंतक के जरीये खुद को मजबूत करने और बताने का मौका मिला।

1993 से 2011 के सफर में भारत कैसे संप्रभु बाजार बना और कैसे इस बाजार को बनाये रखने के लिये सरकार की नीतियों ने शांति बनाये रखने की नीतियो को अमल में लाना शुरु किया यह भी किसी आतंकी हमले से कम त्रासदी वाला नहीं है। क्योंकि सुरक्षा का सौदा अमेरिकी बाजार से गढजोड़ में उभरा और अफगानिस्तान में अरबों रुपया बिना लक्ष्य के झोकने से भी सामने आ रहा है। और इन सबके बीच 26/ 11 के बावजूद पाकिस्तान के साथ महज सीबीएम यानी भरोसा जगाने के लिये बातचीत की अनोखी शुरुआत भी हुई। यानी एकतरफ खुद को बदलता हुआ दिखाना और दूसरी तरफ मुबंई के झावेरी बाजार से लेकर दादर के कबूतरखाने के इलाको को दांव पर भी लगाना और बाजार को उसी आंतक से धंधा करने वाली विदेशी कंपनियो को जगह भी देना। दोनो खेल साथ साथ चल नहीं सकते। यह सीख अमेरिका भी देता है और ब्रिटेन भी। लेकिन भारत इस सीढी पर क्यो पिसल जाता है यह ,समझने के लिये किसी जांच की जरुरत नहीं है बल्कि नीतियों के उस तंत्र को तोडने या कहे बदलने की जरुरत है जहां मंदी की चपेट में आकर डूबने से ठीक पहले लिहमैन ब्रदर्स का अरबों रुपया भारत पहुंचता भी है। और मंदी आने के बाद जो पूंजी नहीं पहुंच पायी, उसे दूसरे माध्यमों से मैनेज भी किया जाता है। और सरकार विकास की लकीर इन्हीं माध्यमों से खींचने में नहीं कतराती। और दूसरी तरफ पाकिस्तान को मुश्किल पड़ोसी मान कर बर्ताव भी एक आदर्श पडोसी बन कर करती है। लेकिन यह एहसास नहीं जागता कि विकास अगर डॉलर या यूरो से नहीं हो सकता तो फिर झावेरी या दादर में सिरियल बलास्ट भी उन्हीं जांच एंजेसियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता जिनकी रिपोर्ट भी सत्ता को सहलाती है या पिर कडक होने पर तंत्र ही अधिकारी को बाहर का रास्ता दिखा देता है । इसलिये ना तो झावेरी में सोने और हीरे का धंधा करने वालो की फितरत बदली है और ना ही देश को चकाचौंघ के सपने दिखाने का सब्जबाग।

Saturday, July 16, 2011

मनमोहन का विस्तार, कांग्रेस की हार

2014 तक यही रहा तो क्या होगा?

नरसिंह राव 1991 में मनमोहन सिंह को सत्ता में लेकर आये थे। मनमोहन उसी वक्त कांग्रेसी भी हुये। और उसी दौर में नरसिंह राव ने काग्रेसी परंपरा को दरकिनार कर अपने तरीके से जब सत्ता चलानी शुरु की तो फिर मनमोहन का आर्थिक सुधार हो या झारखंड मुक्ति मोर्चा के जरीये सत्ता की खरीद-फरोख्त या फिर बाबरी मसजिद विध्वंस या हिन्दुत्व प्रयोगशाला का अनूठा प्रयोग, जिस खामोशी से उस दौर में चलता गया और खांटी कांग्रेसी हाशिये पर पहुंचते गये, उसी का असर हुआ कि जब पांच बरस सत्ता भोग राव के सामने 1996 में जब चुनाव का वक्त आया तो कांग्रेसियों के हाथ खाली थे। आठ बरस सत्ता से बाहर रही कांग्रेस को 2004 में भी भरोसा नहीं था कि सत्ता उन्हें मिल जायेगी। तो क्या 2014 के बाद कांग्रेस दुबारा 1996 वाली स्थिति में आ जायेगी। और मनमोहन सिंह ने आखिरी मंत्रिमंडल विस्तार के जरीये नरसिंह राव की तर्ज पर उन खांटी कांग्रेसियों को इसके संकेत दे दिये कि पीएम को चुनौती देने वाले कांग्रेसियों का कद उनके लिये कोई मायने नहीं रखता है।

मनमोहन सिंह ने जिस सलीके से गवर्नेंस का सवाल अर्थव्यवस्था में उलझाया। मनमोहन सिंह ने जिस आसानी से अपनी सत्ता की ताकत न्यायपालिका को कवच बना कर किया। मनमोहन सिंह ने जिस व्यवस्थित तरीके कारपोरेट और मंत्रियों या कांग्रेसियों की दूरी बनाकर अपने दरवाजे पर ही हर कारपोरेट की सौदेबाजी को लाकर खड़ा कर दिया, उसमें मंत्रिमंडल विस्तार के बाद पहला सवाल तो यही निकला कि अब से ज्यादा ताकतवर पीएमओ इससे पहले कभी था नहीं। या फिर अब से पहले इतने कमजोर कांग्रेसी कभी थे नहीं। क्योंकि मंत्रिमंडल में शामिल गुलाम नबी आजाद या कमलनाथ को हाशिये पर रखने से लेकर मणिशंकर अय्यर जैसे तीखे नेता और सत्यव्रत चतुर्वेदी सरीखे साफगोई कांग्रेसी मनमोहन सिंह के खांचे में फिट बैठ नही सकते है। और मनमोहन का खांचा हर उस कांग्रेसी में उम्मीद जगाता है, जिसका अपना कोई आधार ना हो। कपिल सिब्बल अपने लोकसभा क्षेत्र के आगे जा नहीं सकते। यानी कांग्रेस के लिये बतौर प्रवक्ता रुतबा जमाने वाले सिब्बल मनमोहन मंत्रिमंडल में सबसे बडा रुतबा रखते हैं और कांग्रेसी इस पर रश्क करें या ताने दें, यह काग्रेसियो को समझना है, मनमोहन को नहीं। ए के एंटनी का काबिलियत सोनिया के विश्वासपात्र से आगे बढ़ती नहीं। चिदंबरम कांग्रेस कल्चर से ज्यादा तमिल सियासत में बेटे कार्तिकेय को कांग्रेसी जमीन दिलवाने की चाल के आगे काग्रेस में जाने नहीं जाते। एस एम कृष्णा कर्नाटक के हारे सिपाही हैं। सलमान खुर्शीद एक तरफ यूपी की कांग्रेसी जमीन गंवाने वालो में से एक कमांडर रह चुके हैं तो दूसरा अल्पसंख्यक समुदाय उन्हें सच्चर आयोग की रिपोर्ट पर उनके विचार से इतना आहत है कि उन्हें खलनायक कहने से भी नहीं चूक रहा। आनंद शर्मा की पहचान आज भी युवक कांग्रेस के बिग्रेड से आगे की नहीं है या कहें वह उसी छवि को आज भी भुना रहे हैं। यानी कांग्रेस के टिकट पर देश के किसी भी क्षेत्र से जीतना तो दूर उन्हें राज्यसभा में मनोनीत करने से भी हर राज्य का मुखिया पिछले दिनों हिचकिचाता ही रहा। लेकिन उन्हें दो मंत्रालय देकर उनकी अहमियत में चार चांद लगाने से मनमोहन सिंह नहीं चूके। कांग्रेसियों को ठिकाने लगाने की इस कतार को एक नयी परिभाषा राजीव शुक्ला और मिलिंद देवडा के जरीये भी दी। मुरली देवडा पर मुकेश अंबानी को कावेरी बेसिन में लाभ पहुंचाने वाली कैग रिपोर्ट कई कहानी उनके पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये कहती है। यानी मुरली की अंबानी पोटली को अब मिलिंद संचार मंत्रालय में ऐसे वक्त ढोये जब रिलायंस 4जी के ताने बाने अभी से बुनना शुरु कर चुका हो। मुकेश अंबानी की यह कहानी राजीव शुक्ला पर भी आकर ठहरती है लेकिन मनमोहन ने संसद में काग्रेस की होती फजीहत को मैनेज करने के लिये एक नया पैमाना राजीव शुक्ला के ट्रबलशूटर की पहचान को खुले तौर पर मान्यता दे कर दिया है। जो संबंध में भाजपा नेता को भी घेरते है और मैनेज करने में कारपोरेट लॉबी से सटे नेताओ को भी हाक सकते है। यानी कांग्रेसी काबिलियत नये मिजाज में सरकार 2014 तक चलती रही उसके हर उपाय को मंत्री बनाना ही मनमोहन की नयी बिसात है। तो फिर कांग्रेसी टिकते कहां हैं? अगर सभी मनमोहन सरकार को बचाने वाले सिपाही है। इसका एक एहसास अगर सरकार के भीतर जयराम सरीखे मंत्रियो का ओहदा बढाकर कारपोरेट का रास्ता साफ करना है तो दूसरा एहसास दो साल में तीसरे मंत्री को ग्रामीण विकास मंत्रालय सौप कर कारपोरेट भारत से इतर काग्रेसी वोटर को ना सहेज पाने का संकट भी है।

लेकिन सात बरस से दिल्ली के तख्त पर बैठे मनमोहन सिंह के दर में सूबे कैसे बिना कांग्रेसी होते चले गये और किेसी ने इसकी फ्रिक्र करने की क्यो नहीं सोची या फिर मनमोहन सिंह ने जो सोनिया राग हर किसी को सुनाया उसमें हर काग्रेसी को ऐसा क्यों लगा कि पार्टी और संगठन के लिये संघर्ष करने वाला कांग्रेसी सबसे बेवकूफ होता है। असल में इसकी एक कहानी अगर दिग्विजिय सिंह के वाचाल रुप में छुपी है तो दूसरी कहनी हर सूबे से गायब कांग्रेसी नेताओ में छुपी है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, गुजरात, आध्रंप्रदेश, कर्नाटक , तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं जो काग्रेस के संगठन को बनाने में जुटा हो। जो काग्रेस के लिये राजनीतिक जमीन बना रहा हो। जो काग्रेस को चुनाव के वक्त में सत्ता तक पहुंचाने में सफल हो सके। यानी हर काग्रेसी ने मनमोहन सिंह के दौर में एक ही पाठ पढ़ा कि चुनाव के वक्त बस फिक्र अपनी सीट की होनी चाहिये। उसके बाद मनमोहन मंत्रिमंडल में शामिल होने का हुनर या तो कारपोरेट दरवाजा या फिर बिना आधार के चापलूसी में महारत या फिर गांधी परिवार का रस्ता। गुरुदास कामत जब पहली बार चुनाव जीते थे तब मिलिंद देवडा स्कूल में पढ़ा करते थे। मनमोहन ने दोनो को राज्यमंत्री रखा। और पिता मुरली देवडा महीन तरीके दिल्ली में फंसे तो मुंबई में कांग्रेस संगठन संभालने के नाम पर निकल पड़े । अब गुरुदास कामत क्या करें। असल में इसी का असर है कि देश के 365 सीटे ऐसी है जहां कांग्रेस का कोई ऐसा नेता नहीं जो कह दे कि वह जीत सकता है। और यह खेल कैसे महीन तरीके से फैलाया जा रहा है, यह गुरुदास कामत के जरीये भी दिखा।

जाहिर है दिग्विजय जानते हैं कि उन्हें रायगढ में बाबा रामदेव भी नही हरा सकते और मनमोहन सिंह भी उन्हें लड़ने से नहीं रोक सकत। और ऐसे में गांधी परिवार के किसी छोर को थाम लिया जाये तो फिर कांग्रेसी होने का रुतबा बढ़ता ही जायेगा। क्योंकि मनमोहन सिंह की सत्ता की जान भी गांधी परिवार में बसती है और कांग्रेस में अगर किसी का कुछ दांव पर लगा है तो वह गांधी परिवार है ना कि मनमोहन सिंह। लेकिन मनमोहन सिंह का दौर कांग्रेस के लिये कैसे अधियारी रात की तरफ बढ रहा है, यह सिर्फ न्यायपालिका के एक्टीविज्म से नहीं झलकता, जिसके निर्णय और निर्देश इस वक्त गवर्नेस की ओट में हो रहे है जो मनमोहन सरकार से होने चाहिये थे। मंत्री,कारोपोरेट,नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर निगरानी मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट रख रही है। विदेशो में जमा कालेधन पर होने वाली सरकारी कार्रवाई पर भी मनमोहन सिंह नहीं सुप्रीम कोर्ट निगरानी रखेगी। और इसके बीच कारपोरेट अपनी पूंजी के लिये अपना रास्ता अब देश से बाहर ले जाकर मारिशस, मलेशिया या यूएई की तर्ज पर देश के भीतर अपने हित के लिये सुप्रीम कोर्ट की निगरानी से बचने के लिये बनाने की दिशा में बढ़ रही है। यानी मनमोहन सिंह ने नयी परिस्थितियों में काग्रेस पीएम की कमजोरी से उपजे संवैधानिक चैक एंड बैलेस को ही अपनी ताकत बना कर कांग्रेसियों को डराना शुर कर दिया है जहा हर रास्ता सरकार बचाकर खुद को बचाने वाला हो। यानी मनमोहन सिंह को बचाकर सोनिया पर आंच ना आने वाला हो। इसीलिये मनमोहन सिंह जीते हुये लग रहे हैं और कांग्रेस हारती दिख रही है क्योंकि कांग्रेस में माहौल बना दिया गया है कि जो कांग्रेसी मनमोहन सिंह की नीतियों के खिलाफ गया, वह कांग्रेस हित नहीं बल्कि सोनिया अहित देख रहा है। शायद इसीलिये 2014 की कहानी का पहला पाठ मनमोहन सिंह के आखिरी मंत्रिमंडल विस्तार में झलका, जिसमें खांटी कांग्रेसी गायब है और हुनुरमंद मनमोहन के प्यादे बनकर भी बिसात के राजा बनने के जश्न में डूबे हैं।

Monday, July 11, 2011

कटघरे में खड़े मनमोहन सिंह की त्रासदी

यह पहला मौका है जब सरकार की की जांच -एंजेसियो के सबसे बड़े नौकरशाहो की फौज से बनी हाई-प्रोफाइल टीम पर भी सुप्रीम कोर्ट ने भरोसा नहीं किया। वहीं पहली बार प्रधानमंत्री की बात को भी उनके अपने कैबिनेट मंत्री यह कहते हुये खारिज कर रहे हैं कि मामला संस्थान बनाने का है, ऐसे में प्रधानमंत्री की अपनी सोच मायने नहीं रखती। पहला मामला कालेधन का है और दूसरा भ्र्रष्टाचार का। पहले मामले में देश की सभी बड़ी नौ बड़ी एंजेसिया यानी सीबीआई, आईबी, ईडी, सीबीडीटी, रेवेन्यू इन्टेलिजेन्स, फॉरेन इन्टेलिजेन्स ऑफिस, फारेन ट्रेड, नारकोटिक्स कन्ट्रोल और आरबीआई के डायरेक्टर और चैयरमैन पद पर बैठे नौकरशाहो की टीम बनाकर कालेधन पर नकेल कसने की सरकारी कवायद को भी अगर असरकारक सुप्रीमकोर्ट ने नहीं माना और इन सभी को दो रिटार्यड जजो के अधीन कर विशेष जांच टीम बना दी, तो पहला संकेत अगर देश के तमाम संस्थानो पर सरकारी शिंकंजे का उठा तो दूसरा संकेत सरकार की नियत को लेकर उठे।

वहीं लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री पद को लाने पर सहमति देने वाले मनमोहन सिंह के उलट उनके अपने कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल का यह कहना कि जब मनमोहन सिंह पीएम नहीं रहेगे तो फिर दूसरी पार्टियो की सोच क्या है, उसपर सहमति भी जरुरी है। यानी पहली बार मुद्दो से लेकर देश चलाने के तरीकों को लेकर सरकार की बिसात में ही प्यादो के जरीये शह-मात हो रहा है या फिर हर कद को प्यादे में तब्दीलकर उस राजा को छुपाया जा रहा है, जिसकी घेरा-बंदी ना हो जाये। लेकिन इस सियासी बिसात ने आर्थिक सुधार की उस लकीर को ही शह दे दी है जिसके आसरे अभी-तक देश को यही पाठ पढ़ाया गया कि उत्पादन से महत्वपूर्ण है सेवा [ सर्विस सेक्टर ] और सेवा का मतलब है जेब भरी हो तो सुविधाओ का भंडार सामने होगा। यानी बाजार व्यवस्था का ऐसा खाका, जिसमें कॉरपोरेट की पहल ही देश में उर्जा लायेगी, वही हवाई क्षेत्र में बदलाव करेगी, उसी की पहल एसआईजेड या माल संसकृति को बिखेरेगी , बंदरगाहो की सूरत भी कारपरेट बदलेगा , घर-गाडी-शिक्षा-स्वास्थय के क्षेत्र में तरक्की भी कारपोरेट लायेगा। और देश की तरक्की का मीटर यानी शेयर बाजार में हर सोमवार या शुक्रवार सेंसक्स उपर जायेगा या नीचे यह भी विदेशी निवेशक तय करेंगे जिनके पास खूब पैसा है।

यानी देश को आगे बढ़ाने के नियम ही ऐसे तय कर दिये हैं, जहां भरी जेब ही किसी को भी देश में मान्यता दिलाये और सुविधाभोगी समाज का निर्माण करें। और इस पहल में जनता की चुनी सरकार की पहली प्राथमिकता उन्ही कारपोरेट या निजी सेक्टर के सामने आने वाली रुकावटो को दूर कर उनके मुनाफे में कही भी सेंध ना लगने देने के काम में जुटना हो जो अपने बढते टर्न-ओवर का मापकर ही देश के हर सेक्टर में घुस रही है। और लगातार अपनी पूंजी में इजाफा कर दुनिया में अपनी पहचान बनाने में जुटी हो। अगर बीते दस बरस में देश के टाप दस निजी कंपनियो के फैलते कारोबार और टर्न-ओवर को देखे तो टर्न-ओवर में तीन सौ फीसदी का औसत इजाफा भी नजर आता है और दुनिया के चालीस देश की अलग अलग कंपनियो को खरीदकर बहुराष्ट्रीय कंपनियो की कतार में कद बढ़ाना भी है। वहीं, इस दौर में खुद सोनिया गांधी की अगुवाई वाली एनएसी यानी राष्ट्रीय सलाहकार समिति का भी मानना है देश की सत्तर फीसदी जनसंख्या को दो जून की रोटी मुफ्त में बांटे बिना फूड सिक्यूरटी बिल का कोई मतलब नहीं होगा। इसके लिये अगर सरकार पर 1.1 ट्रिलियन रुपये का भार पड़ता है तो भी उसे इसे लागू करना होगा। यानी देश विकास की राह पर है और बहुसंख्य जनता भूख मिटाने के लिये मुफ्त सरकारी पैकेज पर टिकी है तो समझना यह भी होगा इतने बडे देश की वह कौन सी इक्नामी है जो दुनिया के बाजारो में भारत का झंडा भी बुंदल किये हुये है और अफ्रीकी देशो से कही बदतर स्थिति को भी ढो रही है। सिर्फ बीते पांच बरस में देश की एक हजार से ज्यादा छोटी-बडी कंपनियो के हवाला रैकेट में करीब 80 लाख करोड से ज्यादा की रकम पकड़ में आयी।

रियल इस्टेट की 200 कंपनियो पर फर्जी तरीके से जमीन हथियाने का मामला अदलत तक पहुंचा। सौ से ज्यादा चिट-फंड की कंपनियो ने आम आदमी को करीब दो हजार करोड का चूना सीधे साधे लगाया। और इसी लकीर पर 2जी स्पेक्ट्रम में फंसे कारपोरेट या निजी कंपनियो के जो तर्क अदालत के सामने आये उसमें कहा यही गया कि संचार मंत्रालय ने ही बकायदा लाभ के नियम बनाये। फिर कैग की रिपोर्ट में मंत्री फंसा तो उसने उन्ही कंपनियो को चेताया कि इसपर लीपा-पोती करने की पहल करें। और जब वह भी नहीं हुआ तो वहीं कंपनियों अब अपनी साख और पैसे को लगाकर अदालत में अपने खिलाफ मुकदमे को सलटाने में लगी है। और इस फेर में देश के टाप-मोस्ट कारपोरेट के छह नामचीन तिहाड़ जेल में बंद है। यही धारा संचार मंत्रालय में सचिव के पद पर रहे बेहुरा ने भी उठाये। जब विकास के नियम सरकार बना रही है और मंत्री बकायदा पीएमओ को पत्र से जानकारी देते हुये निजी कंपनियो को स्पेक्ट्रम बेच रहा है तो फिर नौकरशाह की भूमिका क्या होगी। इन परिस्थितियो में अगर कारपोरेट सेक्टर की तमाम निजी कंपनिया ही नहीं बल्कि शेयर बाजार और सरकारी योजनाओ को खरीदने वाली कंपनियो का रास्ता भी मलोशिया,मॉरीशस या यूएई की तरफ गया तो आर्थिक सुधार के दौर में सरकारी नीतियो ने ही इस रास्ते को मंजूरी दी। क्योंकि सिर्फ शोयर बाजार में लगी पूंजी का पचास फीसदी इन्हीं रास्तो से आया है और देश में आयात-निर्यात के खेल में जुड़ी दो सौ से ज्यादा कंपनियो की चालीस फीसदी पूंजी का रास्ता भी उसी मारिशस, मलेशिया से निकला है जिसे अब हवाला का रास्ता बताया जा रहा है। यानी आर्थिक सुधार की जिस लकीर को खिंच कर विकास दर से लेकर मंदी के दौर में कृषि उत्पादन को खारिज कर अपनी हवाला नीति को ही प्रोत्साहित किया गया , अब उन्हीं नीतियों पर जब यह सोच कर मठ्टा डाला जा रहा है कि इससे कालेधन और भ्र्रष्टाचार पर पैदा हुई राजनीतिक लड़ाई जीती जा सकती है।

दरअसल, नया संकट यही है कि जिस कालेधन के रास्ते नीतियों में बदले हुये थे और उसकी निगरानी भी सरकार ही करती रही, पहली बार वह सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में चला गया। यानी देश की वह नौ एंजेसियां या संस्थान जो आरबीआई से लेकर सीबीआई तक हैं, अब उनकी कालेधन पर पहल क्या होगी इसपर ना सिर्फ सुप्रिमकोर्ट की निगरानी होगी बल्कि डबल टैक्ससेशन सरीखे समझोते दूसरे देशो से क्या नहीं हुये और स्विस सरकार से भी नया समझौता यह क्यो हुआ कि समझौते के बाद के स्विस बैंक के खातो की वह जानकारी देगा पहले के नहीं। एसआईटी इसको भी परखेगी और दुनिया के 38 देशो के बैकों में जमा कालाधन किनके नाम पर है, उस पर भी नयी पहल सरकार की तरफ से ना होकर जस्टिस रेड्डी और जस्टिस शाह करेंगे।

जाहिर है इसके पहले असर का मतलब कारपोरेट और सरकारी तंत्र के गठबंधन का खत्म होना भी है और आर्थिक सुधार की उस लकीर का रुकना भी है जो कारपोरेट की जरुरत के मुताबिक अलग अलग मंत्रालय नियम बनाते रहे और नौकरशाह मंत्रियो की उस सोच को ही आगे बढाते रहे जहा विकास की धारा एक तबके में सिमटे और उससे पैदा होने वाला बाजार दुनिया के तरक्कीपसंद देशो में मानने लगे । मगर अब अगर कारपोरेट की कमाई पर ब्रेक लग सकती है तो नौकरशाहों का मंत्रियो के कहे मुताबिक काम करना भी रुक सकता है। जो नौकरशाह बेहुरा के जेल में जाने के बाद कई मंत्रालयों में रुका चुका है , क्योंकि सचिव स्तर के अधिकारी भी यह सोचने लगे हैं कि राजनीतिक भ्र्रष्टाचार का खामियाजा अगर उन्हें भुगतना पडेगा तो किसी भी योजना को आगे बढाने पर हस्ताक्षर कर वह निर्णय क्यो लें। संयोग से सरकार के अलग अलग मंत्रालयों में इस वक्त 200 से ज्यादा निर्णय[फाईलें] रुके हुये है, क्योंकि नौकरशाह हरी झंडी के लिये फाइले मंत्री के पास भेज रहे हैं और मंत्री कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री खुले तौर पर कारपोरेट के साथ मंत्रियो के ताल्लुकात देखना नहीं चाहते है जो क्रोनी कैपटिलिज्म को बढावा देता नजर आये।

इसकी एक बड़ी वजह भ्र्रष्टाचार पर जनलोकपाल के मुद्दे को उठाकर सिविल सोसायटी के आंदोलन का सरकार पर दवाब होना भी है। और बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आंदोलन के सामने अपनी छवि साफ रखने की भी है। लेकिन ऐसे मे वह सरकार कैसे चलेगी जिसे विकास का ककहरा ही कारपोरेट मुनाफा तंत्र में पढ़ाया गया। वजह भी यही है कि सिब्बल लोकपाल के दायेर में पीएम को लाने के खिलाफ तर्को में संस्थानिक संकट देख रहे हैं और मनमोहन सिंह सरकार बचाने के लिये अपनी छवि देख रहे हैं। इसलिये पहली बार सरकार का संकट रणनीति का हिस्सा ना लगकर उन नीतियों का संकट दिखा रहा है जिसके आसरे 2004 की सफलता 2009 में दोहरायी गयी और यूपीए-2 मजबूत दिखी । मगर यह मजबूती 2014 तक कायम रहेगी यह सवाल अब कांग्रेसी भी प्रधानमंत्री से पूछने लगे हैं।

Saturday, July 9, 2011

खेती की जमीन पर राज्य करें धंधा

"सरकार से कौन लड़ सकता है । पहले भी कुछ नहीं कर पाये और अब भी कुछ नहीं कर सकते। आमदार-खासदार तो दूर सरपंच भी धोखा दे गया तो किसे भला-बूरा कहें। अब सरकार ही दलाल हो जाये तो किसान की क्या बिसात । एक शास्त्री जी थे, जिन्होंने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था । उस वक्त देश पर संकट आया था तो पेट काट कर हमने भी सरकार को दान दिया था। मेरी बीबी ने उस समय अपने गहने भी दान कर दिये थे। लेकिन अब सरकार ही हमें लूट रही है। किसानी से भिखारी बन गये हैं। बेटा-बहू उसी जमीन पर दिहाड़ी करते हैं, जिस पर मेरा मालिकाना हक था। जिस जमीन पर मैने साठ पचास साल तक खेती की । परिवार को खुशहाल रखा। कभी कोई मुसीबत ना आने दी । सभी जानते थे कि जमीन है तो मेहनत से फसल उगा कर सर उठा कर जी सकते हैं। लेकिन सरकार ने तो अपनी गर्दन ही काट दी...."

एक सांस में सेवकराम झांडे ने अपने समूची त्रासदी को कह दिया और फकफका कर रोने लगे। बेटे, बहू, नाती पोतो के लिये यह ऐसा दर्द था कि किसी को कुछ समझ नहीं आया कि इस दर्द का वह इलाज कैसे करें । 72 साल के सेवकराम झाडे की जिन्दगी जिस जमीन पर अपने पिता और दादा के साथ खड़े होकर बीती और जिस जमीन के आसरे सेवकराम खुद पिता और दादा-नाना बन गये, उसी जमीन का टेंडर सरकार निकाल कर बेच रही है। असल में नागपुर में मिहान-सेज परियोजना के घेरे में 6397 हेक्टेयर जमीन आयी है और इस घेरे में करीब दो लाख किसानो के जीने के लाले पड़ गये हैं। क्योंकि महज डेढ लाख रुपये एकड़ मुआवजा दे कर सरकार ने सभी से जमीन ले ली है। लेकिन पहली बार एमएडीसी यानी महाराष्ट्र एयरपोर्ट डेवलपमेंट कों लिमिटेड की तरफ से अखबारों में विज्ञापन निकला कि 8 एकड जमीन 99 साल की लीज पर दी जा रही है। और विज्ञापन में जमीन का जो नक्शा छपा वह मिहान-सेज परियोजना के अंदर का है। और उसमें जिस जमीन के लिये टेंडर निकाला गया, असल में बीते सौ वर्षो से उस जमीन पर मालिकाना हक सेवकराम झाडे के परिवार का रहा है। एमएडीसी,वर्ल्ड ट्रेड सेंटर बिल्डिग, कफ परेड, मुबंई की तरफ से निकाले गये राष्ट्रीय अखबारो में अंग्रेजी में निकाले गये इस विज्ञापन को जब हमने सेवकराम को दिखाया और जानकारी हासिल करनी चाही कि आखिर उनकी जमीन अखबार के पन्नो पर टेंडर का नोटिस लिये कैसे छपी है, तो हमारे पैरों तले भी जमीन खिसक गयी कि सरकार और नेताओ का रुख इतनी खतरनाक कैसे हो सकता है।

विज्ञापन देखकर छलछलाये आंसुओ और भर्राये गले से सेवकराम ने बताया कि 2003 में पहली बार खापरी गांव के सरपंच केशव सोनटक्के ने गांववालो को बताया कि उनकी जमीन हवाई-अड्डे वाले ले रहे हैं। क्योंकि यही पर अंतर्राष्ट्रीय कारगो हब बनना है। साथ ही वायुसेना को भी इसमें जगह चाहिये होगी। इसलिये जमीन तो सभी की जायेगी। उसके कुछ महिनो बाद गांव में बीजेपी के आमदार चन्द्रशेखर बावनपुडे आये। उन्होने नागपुर के हवाई-अडड् की परियोजना की जानकारी देते हुये कहा कि गांववाले चिन्ता ना करें और उन्हें वह मोटा मुआवजा दिलवायेंगे। फिर 2004 में बीजेपी आमदार के साथ नागपुर के ही उस वक्त बीजेपी के प्रदेशअध्यक्ष नीतिन गडकरी आये। उन्होंने कहा कि जो मुआवजा मिल रहा है वह ले लें और, बाद में और मिल जायेगा। 2004 में ही चुनाव के वक्त कांग्रेस के खासदार विलास मुत्तेमवार भी गांव में आये और उन्होने भरोसा दिलाया कि कि मुआवजा अच्छा मिलेगा। सरकार ही जब देश के लिये योजना बना रही है और वायुसेना भी इससे जुड़ी है तो कोई कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि सरकार देशहित में तो किसी की भी जमीन ले सकती है। और 2005 में खापरी गांव के तीन हजार से ज्यादा लोग जो जमीन पर टिके थे उनकी जमीन सरकार ने परियोजना के लिये ले ली।

खापरी गांव की कुल 426 हेक्टेयर जमीन परियोजना के लिये ली गयी। जिसमें सेवकराम झाडे और उनके भाई देवरावजी झाडे की 11 एकड जमीन भी सरकार ने ले ली। मुआवजे में सरकार ने एक लाख 40 हजार प्रति एकड के हिसाब से सेवकराम के परिवार को 14 लाख 35 हजार रुपये ही दिये। क्योंकि सरकारी नाप में 11 एकड जमीन सवा दस एकड़ हो गयी। लेकिन जमीन जाने के बाद सेवकराम के परिवार पर पहाड़ दूटा। भाई देवराजजी झाडे की मौत हो गयी। सेवकराम की बेटी शोभा विधवा हो गयी। दामाद की मौत इसलिये हुई क्योकि खेती की जमीन देखकर उसने सेवकराम के घर शादी की। जमीन छिनी तो समझ नही आया कि किसानी के अलावे क्या किया जाये। भरे-भूरे परिवार को कैसे संभाले, उसी चिन्ता में मौत हो गयी। सेवकराम के तीनो बेटो के सामने भी रोजी रोटी के लाले पड़ गये। छोटे बेटे विष्णु ने किराना की दुकान शुरु की। बीच वाले बेटे विजय ने दिहाडी मजदूरी करके परिवार का पेट पालना शुरु किया तो बडे बेटे वासुदेव को उसी मिहान योजना में काम मिल गया जिस योजना में उसकी अपनी जमीन चली गयी। घर की बहू और बडे बेटे की पत्नी सिंधुबाई ने भी मिहान में नौकरी पकड़ ली। तीनो बेटे और विधवा बेटी से सेवक राम को 12 नाती-पोते हैं। सभी कमाने निकलते है तो घर में खाना बन पाता है , जबकि पहले सेवकराम किसानी से ना सिर्फ अपने परिवार का पेटे पालते बल्कि शान से दूसरो की मदद भी करते। लेकिन जमीन जाने के बाद सेवकराम ने अपने परिवार का पेट पालने के लिये पशुधन भी बेचना पड़ा है। बीस भैस और नौ गाय बीते दो साल में बिक गयीं। एक दर्जन के करीब बकरिया भी बेचनी पड़ी। आज की तारीख में सेवकराम के घर में संपत्ति के नाम पर तीन साइकिल और एक गैस सिलिंडर है, जो 14 लाख 35 हजार मिले थे वह खर्च होते-होते 80 हजार बचे है। जबकि सेवकराम के भाई देवराजजी झांडे के परिवार की माली हालत और त्रासदीदायक है।

गांधी भक्त देवराजजी की मौत के बाद घर कैसे चले इस संकट में बडा बेटा शंकर दारु भट्टी में काम करने लगा है तो छोटा बेटा राजू नीम-हकीम हो गया । इसके अलावे तीन बेटियों की किसी तरह शादी हुई और फिलहाल परिवार में 15 नाती-पोतो समेत 23 लोग हैं, जिनकी रोटी रोटी के लिये हर समूचे परिवार को मर-मर कर जीना पड़ता है। आर्थिक हालत इतनी बदतर हो चुकी है कि घर का कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता। वहीं सेवकराम झाडे की जमीन पर निकले टेंडर फार्म की किमत ही लाख रुपये हैं। यानी जो भी टेंडर भरेगा उसे लाख रुपये वापस नहीं मिलेंगे। इस तरह की अलग अलग जमीन के टेंडर फार्म बेच कर महाराष्ट्र एयरपोर्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन लि. ने पांच सौ करोड से ज्यादा बना लिये। जबकि राज्य की तरफ से कुल 35 हजार किसानों को सवा सौ करोड मुआवजे में निपटा दिया गया। यूं भी बीते दस बरस का सच महाराष्ट्र के किसानो के लिये कितना क्रूर साबित हुआ है, इसका अंदाज इसी से मिल सकता है कि करीब 78 लाख किसानों की जमीन सरकारी योजनाओ के नाम पर कॉरपोरेट या रियल इस्टेट वालो को दे दी गयी। किसानी पर टिके करीब दो करोड छोटे-किसान और मजदूर अपनी जमीन-घर से विस्थापित हो गये। सवा लाख किसानों ने खुदकुशी कर ली। औसतन विदर्भ, मराठवाडा और पश्चिम महाराष्ट्र में दिल्ली से सटे ग्रेटर नोयडा के किसानो की संख्या से पांच गुना ज्यादा किसान-मजदूर को जमीन से इसलिये बेदखल कर दिया गया क्योंकि देश के टाप कारपोरेट घरानों की योजनाओं के लिये जमीन चाहिये। और महाराष्ट्र में उसी कांग्रेस की सत्ता है, जिसका भविष्य राहुल गांधी के हाथ में है और वह दिल्ली से सटे यूपी में किसानों की जमीन का सवाल मुआवजे की थ्योरी तले उठा रहे हैं। लेकिन जमीन हड़पने वालों को अगर गिफ्ट देकर राज्य ही सम्मानित करने लगे तो क्या होगा। यह नागपुर के सेवकराम सरीखों की जमीन हड़पने वालो को देखकर समझा जा सकता है। मसलन खापरी गांव के सरपंच केशव सोनटक्के, जिनके कहने पर सेवकराम ने पहली हामी भरी थी, उसे हिंगना औघोगिक इलाके में 30 एकड माइनिंग का पट्टा फ्री में दे दिया गया। इसी तरह कुलकुही और तलहरा के 9625 परिवारों से 844 हेक्टेयर जमीन सरकार को दिलाने वाले सरपंच प्रमोद डेहनकर को भी 30 एकड माईनिंग का पट्टा फ्री में दिया गया। जबकि बीजेपी के नागपुर ग्रामीण क्षेत्र की नुमाइन्दगी करने वाले कामठी के आमदार चन्द्शेखर बावनपुडे के काले-पीले चिठ्ठे को संभालने वाले सुनील बोरकर को भी 30 एकड माइनिंग का पट्टा देने के अलावे सड़क और पुल के ठेके मिल गये। नागपुर से कांग्रेस के सासद के भी पौ बारह कई योजनाओं में करीबियो को ठेके दिलाकर हुये। और आखिरी सच यह है कि जिस सेवकराम को प्रति एकड एक लाख चालीस हजार रुपये दिये गये थे, उसकी कीमत मिहान परियोजना बनने के दौर में अभी 4 करोड रुपये एकड हो चुकी है क्योकि इस दौर में बीसीआई के नये स्टेडियम और पांच सितारा होटल से लेकर कारपोरेट घरानो का समूह वहां बैठ चुका है। इसलिये सरकार अब ऐसे घंघेबाज को जमीन देना चाहती है जो किसानो को दिये पचास करोड की एवज में 500 करोड बना ले। और मनमोहन इक्नामिक्स यही कहती है कि जिस धंधे में मुनाफा हो वही बाजार नीति और देश की नयी आर्थिक नीति है फिर अपराध कैसा।

Wednesday, July 6, 2011

जयललिता-करुणानिधि और रजनीकांत

तमिलनाडु के 40 लाख छात्रों को अम्मा के लैपटाप का इंतजार है और 60 लाख बच्चों को किताबों का इंतजार है । 15 जुलाई तक बारहवीं और उससे उंची शिक्षा कर रहे छात्रों को कॉलेज के जरिये अम्मा सरकारी लैपटाप बांटेंगी। और 15 जुलाई तक ही सरकार की नौ सदस्यीय कमेटी तय करेगी कि बच्चों को किस तरह की पढ़ाई करनी चाहिए जिसके बाद सरकारी स्कूलों के लिये सरकार किताबें छापेगी। लैपटॉप अगर चुनावी वादा है तो स्कूली शिक्षा राजनीति का ऐसा पाठ जो सियासत का ककहरा भी सिखाती है और मुनाफे का मंत्र भी। यानी करुणानिधि से जयललिता का मतलब सिर्फ डीएमके से एआईएडीएमके के सत्ता में आना भर नहीं है या फिर स्पेक्ट्रम के घोटाले में रंगे करुणानिधि के सत्ता के रंग को उतारना भर नही है, तमिलनाडु में इसका मतलब बच्चे के नामकरण, उसकी शिक्षा, पुत्री के विवाह, छात्रों की उच्च शिक्षा, घरेलू महिलाओं की जिन्दगी को प्रभावित करने से लेकर दलित- ब्राह्मण के मानसिक संघर्ष को सियासी ठौर देना भी है।

जयललिता के गद्दी संभालने के बाद के पहले सौ दिनों तक जो भी बच्चा जन्म लेगा उसे पहली सरकारी भेंट देने की जिम्मेदारी उस इलाके के विधायक या सबसे बड़े एआईएडीएमके नेता की है। जो लड़की भी ब्याही जायेगी उसे 4 ग्राम सोने का सरकारी मंगलसूत्र पहुंचाने की जिम्मेदारी विधायक की है। घर में बैठी महिलाओं को 15 जुलाई तक सरकारी ग्राइंडर बांटने की जिम्मेदारी क्षेत्रवार नेताओं की है। और ग्राइंडर के लिये हर महीने 20 किलो चावल देने के जिम्मेदारी राशन दुकानों की है। जिस स्कूली शिक्षा को पांच बरस पहले करुणानिधि ने यह कह कर बदला कि सरकारी शिक्षा का सिलेबस ही हर स्कूल में चलेगा उस सिलेबस में छह लकीर खींच कर जयललिता ने मुनादी करा दी कि पूरे राज्य में हर छात्र का विकास एक सरीखा कैसे हो सकता है। इसे छात्रों की हैसियत और स्कूल चलाने वालों की मानसिकता के अनुकूल बदलना होगा। यानी अपना सिलेबस, अपनी किताबें।

अपनी सुविधा, अपनी फीस वसूली। तो मुनाफे बनाने के इस रास्ते को भी जयललिता ने खोला और एमजीआर के नये चैप्टर स्कूली शिक्षा में डाल एमजीआर को समाज सुधारक के तौर पर ऱखने की पहल भी शुरू की। पांच बरस पहले करुणानिधि को लगा था कि सरकारी स्कूल ही निजी स्कूलों के आधार बना दिये जायें तो फीस बढोत्तरी रुक जायेगी। शिक्षा का धंधा थम जायेगा। लेकिन सत्ताधारियो ने ही इस दौर में सरकारी शिक्षा को भी धंधे में बदल दिया, तो पांच बरस बाद जयललिता ने निजी शिक्षा संस्‍थानों को धंधे की छूट देने की पहल शुरू कर दी असर यही हुआ कि नये सिलेबस के इंतजार में सरकारी स्कूल 1 जून को खुले, तो 15 जून तक बंद हो गये। फिर 15 जून को खुले तो स्कूली शिक्षकों को फरमान जारी हुआ सिलेबस बिना पढ़ाना शुरु कर दें। पांच बरस पहले करुणानिधि को लगा कि इंजीनियरिंग के छात्रों को मुफ्त में लैपटाप देना चाहिये, तो पांच बरस बाद जयललिता को लगा कि बारहवीं के बाद हर उच्च शिक्षा पाने वाले को सरकारी लैपटाप दे दिया जाये।

असर यही हुआ कि कालेज ने फीस स्ट्रक्चर में फ्री लैपटाप जोड़ दिया। और इन सब के बीच ब्राह्मण और पिछड़े तबके में सत्ता के अनुकूल या प्रतिकूल समझ का तड़का भी कुछ इस तरह डाला गया है कि राज्य में सियासी समझ सिर्फ डीएमके या एआईटीएमके के इर्द-गिर्द ही घुमड़ेगी। यानी अभी अगर विजयकांत चमके है और जयललिता के बगैर उनकी चमक मायने नहीं रखती तो पांच बरस बाद एमडीएमके चमकेगी और उस वक्त उसकी चमक भी डीएमके के बगैर मायने नहीं रखेगी। हो सकता है इस दौर में कोई नया भी पार्टी बनाकर चमके, लेकिन हर कोई बिना डीएमके-एआईएडीएमके के पल-बढ़ नहीं सकते, यह सियासत तमिलनाडु की पहचान है। इस सियासी समझ की व्यवस्था पांच बरस पहले अगर करुणानिधि ने दलित-पिछड़ों के रोजगार को लेकर किया तो अब जयललिता ब्रह्मणो में तंजावुर, श्रीरंगम, रामेश्वरम, मदरै से लेकर करीब 25 से ज्यादा मंदिरों के शहर में ब्राह्मण के अहम को जगाकर कर रही है। तंजावुर से छह किलोमिटर की दूरी पर श्रीरंगम जयललिता का विधानसभा क्षेत्र हैं। समूचे विधानसभा की अर्थव्यवस्था या तो किसानी है या फिर मंदिर। किसानी का मतलब जमींदारी है। जमीन के मालिक ऊंची जाति के लोग हैं। और मंदिरो में वर्चस्व भी ब्राह्मणों का है। मंदिर का मतलब सिर्फ पूजा-पाठ नहीं है। बल्कि नारियल से लेकर फूल और पीतल ढ़ले पूजा के बर्तनों से लेकर मूर्तियों की खरीद-फरोख्त का महीने का दस हजार करोड़ का बिजनेस भी है।

और सत्ता में आने के बाद पहली बार 18-19 जून को जब जयललिता यहां पहुंचीं तो पहला संवाद यही किया कि ब्राह्मणों के बगैर कोई भी सत्ता कितनी महत्वहीन है। इससे पहले जयललिता मदुरै जिले के आंडिपट्टी से चुनाव लड़ती थी। जहां की सियासी समझ अपनी सहेली शशिकला के जरिये जयललिता ने बनायी। लेकिन इस बार भ्रष्टाचार मुद्दा बना तो शशिकला की छाप वाले आंडिपट्टी को छोड़ जयललिता ने शशिकला के भष्टाचार से दामन छुडाया और श्रीरंगम में इसबार करुणानिधि के भष्ट्राचार को भी ब्राह्मण विहिन करार दिया। यानी ब्राह्मण की राय लेकर करुणानिधि सत्ता चलाते तो राज्य का विकास होता, लेकिन वह सिर्फ परिवार चलाने में लगे रहे तो राज्य व्यवस्था ही भष्ट्र हो गयी। वहीं हार के बाद पहली बार जब करुणानिधि अपने विधानसभा क्षेत्र और पैतृक गांव तिरुवरुर पहुंचे तो उन्होने श्रीरंगम के पिछड़ेपन की वजह मंदिरों के नाम पर ब्राह्मण सियासत करने वाली जयललिता की राजनीति का जिक्र किया। और अपने सत्ता में लौटने के लिये तिरुवरुर के प्रसिद्द साहित्यकार सर त्यागरायर की कविता का जिक्र किया। कर्नाटक संगीत के पुरोधा के तौर पर त्यागरायर की पहचान समूचे तमिलनाडु में है, लेकिन जयललिता त्यागरायर का नाम ना लेकर इवे रामास्वामी नायकर यानी पेरियार का नाम लेकर ही अपनी ब्राह्मण सियासत में पिछडेपन का तड़का लगाती हैं। इसलिये करणानिधि या जयललिता का मतलब सिर्फ एक-दूसरे के उलट होना भर नहीं है, बल्कि सत्ता परिवर्तन का मतलब सामाजिक-आर्थिक ढांचे में बदलाव भी है।

मसलन रामेश्रवरम से लेकर कन्याकुमारी तक में हर रोज सुबह समुद्र किनारे बड़े-बड़े डिब्‍बों में इडली भर कर बेचने वाले सैकडों परिवारों के लिये सरकारी चावल ही रोजगार है। चावल मुफ्त बंटता है तो दस रुपये में पांच इडली बेचने पर भी इन्हें छह रुपये का मुनाफा हो जाता है। और अम्मा के मुफ्त ग्राईंडर मिलने का मतलब है मुनाफा आठ रुपये तक हो जाना। यह एक ऐसी महीन अर्थव्यवस्था है जो चुनावी परिणाम के साथ ही हर पांच साल बाद सरकारी डिब्बे में बंद होकर हर घर को लुभाती है। इसलिये हर घर के स्टोर रुम में या ड्राइंग रुम में किसी अलमारी के उपर गार्वमेंट आफ तमिलनाडु के नाम का कोई ना कोई डब्बा दिखायी दे ही जाता है। जिसमें कभी मुफ्त किताबे, साईकिल, लैपटाप, साड़ी, टीवी या फिर घर की जरूरत का कोई भी सामान सरकारी डिब्बे में बंद दिखायी दे ही जाता है।

भष्ट्राचार के पहाड पर खड़े होकर गिफ्ट लुटाने या वोटरों की इस छीना झपटी में करुणानिधि और जयललिता के बीच छत्तीस का आंकड़ा कैसे काम करता है इसका नया एहसास जयललिता का चेन्नई में करुणानिधि के 1200 करोड़ में बनाये नये सचिवालय में काम करने से इंकार करना है। जयललिता समूचा सचिवालय ही पुरानी इमारत फोर्ट सेंट जार्ज में शिफ्ट कर रही हैं। लेकिन इस तीखे विरोध के बीच सिर्फ एक व्यक्ति ही है जिसपर दोनों में कोई विरोध नहीं है और वह है फिल्म कलाकार रजनीकांत। दोनों ने एक बराबर ही रजनीकांत के लिये दुआ की और रजनीकांत ने भी 18 जून को अपने चेहतों को भेजे खुले पत्र में जयललिता और करुणानिधि को भी बराबर की तरजीह दी। और समूचे तमिलनाडु में सिर्फ रजनीकांत की हैसियत करुणानिधी-जयललिता से ऊपर इसलिये है, क्योंकि तंजावुर या श्रीरंगम हो या तिरुवरुर या मदुरै या चेन्नई से लेकर कन्याकुमारी के बीच का कोई भी इलाका, हर जगह के हर भगवान से रजनीकांत के लिये दुआ मांगने वालों की भीड़ है। पोस्टर से लेकर टेम्पों और बस के पीछे लिखे स्‍लोगन में रजनीकांत को शक्ति देने की मां से दुआ इतनी प्रभावशाली है कि करुणानिधि- जयललिता की समूची सियासत ही छोटी लगने लगती है ।