2014 तक यही रहा तो क्या होगा?
नरसिंह राव 1991 में मनमोहन सिंह को सत्ता में लेकर आये थे। मनमोहन उसी वक्त कांग्रेसी भी हुये। और उसी दौर में नरसिंह राव ने काग्रेसी परंपरा को दरकिनार कर अपने तरीके से जब सत्ता चलानी शुरु की तो फिर मनमोहन का आर्थिक सुधार हो या झारखंड मुक्ति मोर्चा के जरीये सत्ता की खरीद-फरोख्त या फिर बाबरी मसजिद विध्वंस या हिन्दुत्व प्रयोगशाला का अनूठा प्रयोग, जिस खामोशी से उस दौर में चलता गया और खांटी कांग्रेसी हाशिये पर पहुंचते गये, उसी का असर हुआ कि जब पांच बरस सत्ता भोग राव के सामने 1996 में जब चुनाव का वक्त आया तो कांग्रेसियों के हाथ खाली थे। आठ बरस सत्ता से बाहर रही कांग्रेस को 2004 में भी भरोसा नहीं था कि सत्ता उन्हें मिल जायेगी। तो क्या 2014 के बाद कांग्रेस दुबारा 1996 वाली स्थिति में आ जायेगी। और मनमोहन सिंह ने आखिरी मंत्रिमंडल विस्तार के जरीये नरसिंह राव की तर्ज पर उन खांटी कांग्रेसियों को इसके संकेत दे दिये कि पीएम को चुनौती देने वाले कांग्रेसियों का कद उनके लिये कोई मायने नहीं रखता है।
मनमोहन सिंह ने जिस सलीके से गवर्नेंस का सवाल अर्थव्यवस्था में उलझाया। मनमोहन सिंह ने जिस आसानी से अपनी सत्ता की ताकत न्यायपालिका को कवच बना कर किया। मनमोहन सिंह ने जिस व्यवस्थित तरीके कारपोरेट और मंत्रियों या कांग्रेसियों की दूरी बनाकर अपने दरवाजे पर ही हर कारपोरेट की सौदेबाजी को लाकर खड़ा कर दिया, उसमें मंत्रिमंडल विस्तार के बाद पहला सवाल तो यही निकला कि अब से ज्यादा ताकतवर पीएमओ इससे पहले कभी था नहीं। या फिर अब से पहले इतने कमजोर कांग्रेसी कभी थे नहीं। क्योंकि मंत्रिमंडल में शामिल गुलाम नबी आजाद या कमलनाथ को हाशिये पर रखने से लेकर मणिशंकर अय्यर जैसे तीखे नेता और सत्यव्रत चतुर्वेदी सरीखे साफगोई कांग्रेसी मनमोहन सिंह के खांचे में फिट बैठ नही सकते है। और मनमोहन का खांचा हर उस कांग्रेसी में उम्मीद जगाता है, जिसका अपना कोई आधार ना हो। कपिल सिब्बल अपने लोकसभा क्षेत्र के आगे जा नहीं सकते। यानी कांग्रेस के लिये बतौर प्रवक्ता रुतबा जमाने वाले सिब्बल मनमोहन मंत्रिमंडल में सबसे बडा रुतबा रखते हैं और कांग्रेसी इस पर रश्क करें या ताने दें, यह काग्रेसियो को समझना है, मनमोहन को नहीं। ए के एंटनी का काबिलियत सोनिया के विश्वासपात्र से आगे बढ़ती नहीं। चिदंबरम कांग्रेस कल्चर से ज्यादा तमिल सियासत में बेटे कार्तिकेय को कांग्रेसी जमीन दिलवाने की चाल के आगे काग्रेस में जाने नहीं जाते। एस एम कृष्णा कर्नाटक के हारे सिपाही हैं। सलमान खुर्शीद एक तरफ यूपी की कांग्रेसी जमीन गंवाने वालो में से एक कमांडर रह चुके हैं तो दूसरा अल्पसंख्यक समुदाय उन्हें सच्चर आयोग की रिपोर्ट पर उनके विचार से इतना आहत है कि उन्हें खलनायक कहने से भी नहीं चूक रहा। आनंद शर्मा की पहचान आज भी युवक कांग्रेस के बिग्रेड से आगे की नहीं है या कहें वह उसी छवि को आज भी भुना रहे हैं। यानी कांग्रेस के टिकट पर देश के किसी भी क्षेत्र से जीतना तो दूर उन्हें राज्यसभा में मनोनीत करने से भी हर राज्य का मुखिया पिछले दिनों हिचकिचाता ही रहा। लेकिन उन्हें दो मंत्रालय देकर उनकी अहमियत में चार चांद लगाने से मनमोहन सिंह नहीं चूके। कांग्रेसियों को ठिकाने लगाने की इस कतार को एक नयी परिभाषा राजीव शुक्ला और मिलिंद देवडा के जरीये भी दी। मुरली देवडा पर मुकेश अंबानी को कावेरी बेसिन में लाभ पहुंचाने वाली कैग रिपोर्ट कई कहानी उनके पेट्रोलियम मंत्री रहते हुये कहती है। यानी मुरली की अंबानी पोटली को अब मिलिंद संचार मंत्रालय में ऐसे वक्त ढोये जब रिलायंस 4जी के ताने बाने अभी से बुनना शुरु कर चुका हो। मुकेश अंबानी की यह कहानी राजीव शुक्ला पर भी आकर ठहरती है लेकिन मनमोहन ने संसद में काग्रेस की होती फजीहत को मैनेज करने के लिये एक नया पैमाना राजीव शुक्ला के ट्रबलशूटर की पहचान को खुले तौर पर मान्यता दे कर दिया है। जो संबंध में भाजपा नेता को भी घेरते है और मैनेज करने में कारपोरेट लॉबी से सटे नेताओ को भी हाक सकते है। यानी कांग्रेसी काबिलियत नये मिजाज में सरकार 2014 तक चलती रही उसके हर उपाय को मंत्री बनाना ही मनमोहन की नयी बिसात है। तो फिर कांग्रेसी टिकते कहां हैं? अगर सभी मनमोहन सरकार को बचाने वाले सिपाही है। इसका एक एहसास अगर सरकार के भीतर जयराम सरीखे मंत्रियो का ओहदा बढाकर कारपोरेट का रास्ता साफ करना है तो दूसरा एहसास दो साल में तीसरे मंत्री को ग्रामीण विकास मंत्रालय सौप कर कारपोरेट भारत से इतर काग्रेसी वोटर को ना सहेज पाने का संकट भी है।
लेकिन सात बरस से दिल्ली के तख्त पर बैठे मनमोहन सिंह के दर में सूबे कैसे बिना कांग्रेसी होते चले गये और किेसी ने इसकी फ्रिक्र करने की क्यो नहीं सोची या फिर मनमोहन सिंह ने जो सोनिया राग हर किसी को सुनाया उसमें हर काग्रेसी को ऐसा क्यों लगा कि पार्टी और संगठन के लिये संघर्ष करने वाला कांग्रेसी सबसे बेवकूफ होता है। असल में इसकी एक कहानी अगर दिग्विजिय सिंह के वाचाल रुप में छुपी है तो दूसरी कहनी हर सूबे से गायब कांग्रेसी नेताओ में छुपी है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, गुजरात, आध्रंप्रदेश, कर्नाटक , तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं जो काग्रेस के संगठन को बनाने में जुटा हो। जो काग्रेस के लिये राजनीतिक जमीन बना रहा हो। जो काग्रेस को चुनाव के वक्त में सत्ता तक पहुंचाने में सफल हो सके। यानी हर काग्रेसी ने मनमोहन सिंह के दौर में एक ही पाठ पढ़ा कि चुनाव के वक्त बस फिक्र अपनी सीट की होनी चाहिये। उसके बाद मनमोहन मंत्रिमंडल में शामिल होने का हुनर या तो कारपोरेट दरवाजा या फिर बिना आधार के चापलूसी में महारत या फिर गांधी परिवार का रस्ता। गुरुदास कामत जब पहली बार चुनाव जीते थे तब मिलिंद देवडा स्कूल में पढ़ा करते थे। मनमोहन ने दोनो को राज्यमंत्री रखा। और पिता मुरली देवडा महीन तरीके दिल्ली में फंसे तो मुंबई में कांग्रेस संगठन संभालने के नाम पर निकल पड़े । अब गुरुदास कामत क्या करें। असल में इसी का असर है कि देश के 365 सीटे ऐसी है जहां कांग्रेस का कोई ऐसा नेता नहीं जो कह दे कि वह जीत सकता है। और यह खेल कैसे महीन तरीके से फैलाया जा रहा है, यह गुरुदास कामत के जरीये भी दिखा।
जाहिर है दिग्विजय जानते हैं कि उन्हें रायगढ में बाबा रामदेव भी नही हरा सकते और मनमोहन सिंह भी उन्हें लड़ने से नहीं रोक सकत। और ऐसे में गांधी परिवार के किसी छोर को थाम लिया जाये तो फिर कांग्रेसी होने का रुतबा बढ़ता ही जायेगा। क्योंकि मनमोहन सिंह की सत्ता की जान भी गांधी परिवार में बसती है और कांग्रेस में अगर किसी का कुछ दांव पर लगा है तो वह गांधी परिवार है ना कि मनमोहन सिंह। लेकिन मनमोहन सिंह का दौर कांग्रेस के लिये कैसे अधियारी रात की तरफ बढ रहा है, यह सिर्फ न्यायपालिका के एक्टीविज्म से नहीं झलकता, जिसके निर्णय और निर्देश इस वक्त गवर्नेस की ओट में हो रहे है जो मनमोहन सरकार से होने चाहिये थे। मंत्री,कारोपोरेट,नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर निगरानी मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट रख रही है। विदेशो में जमा कालेधन पर होने वाली सरकारी कार्रवाई पर भी मनमोहन सिंह नहीं सुप्रीम कोर्ट निगरानी रखेगी। और इसके बीच कारपोरेट अपनी पूंजी के लिये अपना रास्ता अब देश से बाहर ले जाकर मारिशस, मलेशिया या यूएई की तर्ज पर देश के भीतर अपने हित के लिये सुप्रीम कोर्ट की निगरानी से बचने के लिये बनाने की दिशा में बढ़ रही है। यानी मनमोहन सिंह ने नयी परिस्थितियों में काग्रेस पीएम की कमजोरी से उपजे संवैधानिक चैक एंड बैलेस को ही अपनी ताकत बना कर कांग्रेसियों को डराना शुर कर दिया है जहा हर रास्ता सरकार बचाकर खुद को बचाने वाला हो। यानी मनमोहन सिंह को बचाकर सोनिया पर आंच ना आने वाला हो। इसीलिये मनमोहन सिंह जीते हुये लग रहे हैं और कांग्रेस हारती दिख रही है क्योंकि कांग्रेस में माहौल बना दिया गया है कि जो कांग्रेसी मनमोहन सिंह की नीतियों के खिलाफ गया, वह कांग्रेस हित नहीं बल्कि सोनिया अहित देख रहा है। शायद इसीलिये 2014 की कहानी का पहला पाठ मनमोहन सिंह के आखिरी मंत्रिमंडल विस्तार में झलका, जिसमें खांटी कांग्रेसी गायब है और हुनुरमंद मनमोहन के प्यादे बनकर भी बिसात के राजा बनने के जश्न में डूबे हैं।
hamesha ki tarah behad hi sooksma evam gahan visleshan.bahut achcha laga padhkar.mein itnai yogyta rakhta nahi ki aapke visleshan par kuch apna visleshan rakh saku isliye kewal itna hi kahunga ki mein bahut hi jyada prabhavit hoo aapse aur sayad bhavisya mein mere jeevan mein hone wale mahatwapoorna badlav ki wajah aap hi hongein.
ReplyDeleteek baar yaad karlo sir aapki wajah se ye jeevan sudhr jayega.
namaskar.
@जयराम सरीखे मंत्रियो का ओहदा बढाकर कारपोरेट का रास्ता साफ करना -
ReplyDeleteबस एकमात्र कारण यही था .... मंत्रिमंडल में फेरबदल करने का. क्योंकि न तो कुछ उम्मीद पहले थी, न ही अब है, पर वन और प्रयावरण जैसा मंत्रालय जिस प्रकार हरकत में आ गया था, और कई नामचीन प्रोजेक्टों पर तलवार लटकने लग गयी थी.... वो तलवार तो हटानी ही थी न.
दूसरे कांग्रेसी संस्कृति में चुनाव लड़ना और उसे जीतना उसी प्रकार नहीं सिखाया जाता जैसे मछली को तैरना ....
जहाँ कंग्रेस्सी कार्यकर्ता पुरे ४ साल जुए, दारू और अलग अलग गैर कानूनी कार्यों में उलझे रहते है .... वही चुनाव में सेनापति बन कर ऐसी बिसात दारू पैसे और दबंगई से बिसाते है कि सामने वाली पार्टी का उम्मीदवार इमानदारी और शराफत की दुहाई देते देते पस्त हो जाता है और घर में बैठ कर भाग्य को कोसता ... और कांग्रेसी सदन में बैठ कर उन्ही सेनापतियों को रसद पहुंचाने लग जाते है .......
ये कार्यप्रणाली कांग्रेसी द्वारा विकसित की गयी है और इन्ही पर लागू होती है गर कोई अन्य दल इसे अपनाता है तो फिर मीडिया में बैठे लोग शुचितावाद और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने बैठ जाते है.
अभी सुरेश चिपुलंकर जी की वो पोस्ट याद आ गयी
ReplyDelete"लड़ने की हिम्मत तो जुटा लोगे, लेकिन कमीनापन कहाँ से लाओगे…?"........
प्रसून जी गुरुदास कामत जब पहली बार चुनाव जीते थे तब मिलिंद देवडा स्कूल में पढ़ा करते थे ऐसे तर्क कुछ लोगो खुश करने के लिऐ तो हो सकते हैं पर क्या मनमोहन जी सब पत्रकारो से पुछ कर करे तो ही बेहतर कहे जाऐगे, हर बात को बेबात बना कर क्या टायर रिटायर वालो के लिऐ ही रास्ते बनाऐ जा रहे हैं........;
ReplyDeletePrasoonji, namaskar,main apka show Badi Baat Zee news@ 10 PM aksar dekhta hoon aur jis tarah se aap ise prastut karte hai woh apne aap mein behad rochak hota hai, kai baar to aisa lagta hai ki programe ka samay kam pad jata hai kyunki jitni gahrai aur tathyo se aap ka visleshan hota hai.
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