Thursday, August 25, 2011

सरकार के भीतर के खोखलेपन को उभार दिया अन्ना के आंदोलन ने

अन्ना हजारे के आंदोलन ने कांग्रेस और सरकार के भीतरी सियासी दांव-पेंच को ना सिर्फ सतह पर ला दिया है बल्कि पहली बार सवाल यह भी खड़ा हो गया है कि सोनिया गांधी की अनुपस्थिति में मनमोहन सिंह के लिये कोई निर्णय राजनीतिक तौर पर लेना कितना मुश्किल है। दरअसल, जनलोकपाल पर बीते 24 घंटे में जिस तरह से सरकार ने बातचीत का रास्ता खोला और प्रणव मुखर्जी को वार्ताकार नियुक्त किया उससे लगा कि अब अन्ना हजारे का अनशन जल्द ही टूटेगा। लेकिन इन 24 घंटे के भीतर ही प्रणव मुखर्जी को भी उसी मनमोहन सिंह के कैबिनेट मंत्रियो ने सीसीपीए की बैठक में मनमोहन सिंह के घर पर मनमोहन सिंह के सामने खारिज कर दिया। इसका असर यही हुआ कि 24 घंटे पहले जो सलमान खुर्शीद अन्ना टीम को जनलोकपाल पर सहमति की हरी झंडी दिखा रहे थे, अब वही सलमान खुर्शीद 24 घंटे बाद बुधवार की सुबह जनलोकपाल के उस हिस्से पर भी वायदा देने से मुकर गये, जिस पर प्रणव मुखर्जी ने मंगलवार की रात हरी झंडी दे दी थी।

असल में अन्ना हजारे के आंदोलन से उमड़े जनसैलाब से घबरायी सरकार का भीतरी संकट यह है कि जो भी नेता या मंत्री अन्ना आंदोलन को सुलह के रास्ते ले जायेगा उसका कद झटके में सबसे बड़ा हो जायेगा। इसी सियासी बिसात पर अपनी अपनी चाल चलने में ही मनमोहन सिंह की कैबिनेट के वह मंत्री लग गये, जिनका प्रणव मुखर्जी से छत्तीस का आंकड़ा है। सीसीपीए की बैठक में प्रणव मुखर्जी के सुलह के हर रास्ते को पी चिदबरंम और कपिल सिब्बल ने यह कहकर खारिज किया कि जनलोकपाल के मसौदे को मानने का मतलब है संसदीय लोकतंत्र को संवौधानिक तौर पर खारिज करना। खासकर राज्यों के लोकायुक्त और नितले स्तर के नौकरशाही को लोकपाल के दायरे में लाना। इतना ही नहीं लोकपाल के अधिकारों को लेकर भी प्रणव की सहमति पर बैठक में अंगुली उठी।

इन सवालों के खड़े होने के बाद प्रणव मुखर्जी ने यही मुद्दा खड़ा किया कि आखिर किन शर्तो पर वह बातचीत को आगे बढ़ायें। ऐसे में प्रणव मुखर्जी को रास्ता यही सुझाया गया कि कोई निर्णय लेने से अच्छा है पहले अन्ना हजारे के अनशन को खत्म कराने की दिशा में यह कहकर कदम उठाये जायें कि अन्ना का जीवन अमूल्य है। और दूसरी तरफ अन्ना की टीम को संकेत यही दिये गये कि कोई निर्णय लेना मुश्किल है लेकिन बातचीत जारी रखनी भी जरुरी है। नहीं तो 'डेड लॉक' हो जायेगा । यानी पहली बार सरकार के भीतर से यह सवाल उठे कि वार्ताकार कितना भी अनुभवी या बड़ा मंत्री क्यों ना हो लेकिन निर्णय कोई नहीं लेगा।

खास बात यह भी है कि सलमान खुर्शीद ने यह सारे संकेत अपनी बैठक में अन्ना टीम को दे भी दिये। ऐसे में अन्ना की टीम के सामने सबसे बडी मुश्किल यही शुरु हुई कि अगर प्रणव मुखर्जी सरीखा नेता भी कोई निर्णय नहीं ले सकता है तो फिर वह बातचीत किससे करें और कहीं सरकार सिर्फ बातचीत के चक्रव्यूह में ही जनलोकपाल के समूचे आंदोलन को खत्म करने की दिशा में तो नहीं बढ़ रही है। जबकि आंदोलन किसी राजनीतिक सौदेबाजी के लिये नहीं शुरु हुआ। मगर उसकी दिशा सरकार से राजनीतिक सौदेबाजी की दिशा में ही ले जायी जा रही है। वहीं दूसरी तरफ सरकार के भीतर अन्ना के आंदोलन से सीधे टकराव से बचने के लिये सर्वदलीय बैठक में असहमति के सुर का सहारा लेने को ही आखिरी मंत्र करार दिया गया। ऐसे में पहली बार सवाल यह भी उठा कि क्या वाकई सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में सरकार और कांग्रेस के बीच का पुल टूटा हुआ है और मनमोहन सिंह की समूची सियासत कैबिनेट स्तर के मंत्रियों के आपसी टकराव पर आ टिकी हैं, जहां सरकार कोई निर्णय नहीं लेगी और बीतते वक्त के साथ ही लोगो का आक्रोष भी धीमा होता जायेगा और आखिर में मनमोहन सिंह बिना लड़े जीतेंगे और अन्ना लड़कर भी हारेंगे।

Wednesday, August 24, 2011

सियासी बिसात कैसे बिछी अन्ना के लिये

जनलोकपाल के जनतंत्र से हारा संसदीय लोकतंत्र

जनलोकपाल की लड़ाई क्या ऐसे मोड पर आ गई है, जहां कांग्रेस को अब अपने आप को बचाना है और बीजेपी को इस आंदोलन को हड़पना है। यानी आंदोलन के लिये उमड़े जनसैलाब ने सरकार को भी जनलोकपाल के पक्ष में खड़े होने को मजबूर किया है और बीजेपी भी इसके जरीये अपनी सियासत ताड़ना चाहती है। इसकी असल बिसात आज सुबह ही तब शुरु हुई जब एनडीए ने यह मान लिया कि जनलोकपाल को लेकर सरकार हरी झंडी कभी भी दे सकती है। ऐसे में भ्रष्टाचार के मुद्दे के जरीये अपनी राजनीतिक पहल करने की कोशिश अगर बीजेपी ने यह कहकर दी लेकसभा और राज्यसभा में प्रशनकाल की जगह भ्रष्ट्राचार पर बहस की जाये तो दूसरी तरफ जनलोकपाल पर अपनी रणनीति को आखरी खांचे में समेटने के लिये सरकार ने सभी पार्टियों को बुधवार की दोपहर का न्यौता यहकहकर दे दिया कि जनलोकपाल पर संसद में सहमति बनाना जरुरी है।

इसी वक्त में अपनी रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने के लिये अपने सारे घोड़े भी खोल दिये, जिसका असर यह हुआ कि श्री श्री, जो लालकृष्ण आडवाणी के लिये सिविल सोसायटी के जरीये समूचे आंदोलन को हड़पने की तैयारी कर रहे थे और लगातार अन्ना की टीम को आडवाणी के दरवाजे तक ले जाने में जुटे थे। उनकी पहल से पहले ही सलमान खुर्शीद ने जनलोकपाल पर अपनी सहमति देते हुये अरविंद केजरीवाल को बातचीत का न्यौता यहकहकर दे दिया कि सरकार कमोवेश हर मुद्दे पर तैयार है। आप सिर्फ आकर मिल लें।

जाहिर है कांग्रेस और बीजेपी दोनो के लिये अन्ना का आंदोलन जनलोकपाल के मुद्दे से आगे इसलिये निकल चुका है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिये जितनी जरुरत जनता की होती है, उससे कहीं ज्यादा जनसैलाब को अन्ना हजारे ने बिना अपना राजनीतिकरण किये कर दिखाया। इतना ही नहीं अन्ना के आंदोलन का मंच शुरु से ही राजनीति को ठेंगा दिखाते हुये शुरु हुआ और रामलीला मैदान से जिस तरह ना सिर्फ सरकार बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस और बीजेपी को भी जनतंत्र का आईना दिखाया गया। उसमें आंदोलन को कौन अपने पक्ष में कर सकता है इसकी होड़ मची। प्रणव मुखर्जी को बीच में लाने का फैसला भी इसीलिये लिया गया कि एनडीए किसी भी तरह से सरकार के वार्ताकार प्रणव मुखर्जी पर निशाना नहीं साधेगा और भ्रष्टाचार को लेकर एनडीए जिन मुद्दो को संसद में उठा सकता है या फिर सर्वदलीय बैठक में उठायेगा उसका जवाब प्रणव मुखर्जी हर लिहाज से बेहतर दे सकते हैं।

लेकिन यही से संकट बीजेपी का शुरु होता है। उनकी रणनीति में जनलोकपाल को खुला समर्थन का फैसला यह सोच कर टाला गया कि अगर अन्ना टीम उनके दरवाजे को सरकार से पहले ठकठकाती है तो देश में संकेत यही जायेंगे कि जनलोकपाल को लेकर सरकार चाहे ना झुके लेकिन बीजेपी की अगुवाई में एनडीए संसद के भीतर जनलोकपाल का समर्थन करेगा। मगर राजनीतिक शह मात में बीजेपी इस हकीकत को समझ नहीं पायी कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आंदोलन उसी वक्त उसके हाथ से निकल जब सांसदो के घरों को घेरने निकले लोगों ने कांग्रेस और बीजेपी के सांसदो में फर्क नही किया। और कांग्रेस के भीतर से सांसदों ने अन्ना हजारे के पक्ष में बीजेपी के सांसदों से पहले ही पक्ष लेना शुरु कर दिया। यानी जिस लड़ाई में सरकार चारों तरफ से घिरी हुई है उसमें बीजेपी के रणनीतिकार यह नही समझ पाये उनकी हैसियत सियासी खेल में अभी विपक्ष वाली है और पहले उन्हे साबित करना है कि वह सरकार के खिलाफ मजबूत विपक्ष है। इसके उलट बीजेपी की व्यूहरचना खुद को सत्ता में पहुंचाने के ख्वाब तले उड़ान भरने लगी। इसका लाभ सरकार को यह मिला कि अन्ना के जनसैलाब के सीधे निशाने पर होने के बावजूद व्यूह रचने के लिये वक्त अच्छा-खासा मिल गया। और कांग्रेस के लिये राहत इस बात को लेकर हुई इस मोड़ पर भ्रष्ट्राचार की उसकी अपनी मुहिम भोथरी नहीं है, यह कहने और दिखाने से वह भी नहीं चुकी। यानी जिस रास्ते आरटीआई आया और काग्रेस इसे आज भी भुनाती है उसी तरह जनलोकपाल के सवाल को भी वह भविष्य में अपने लिये तमगा बना सके , दरअसल राजनीतिक बिसात इसी की बिछी। इसलिये सरकार जो रास्ता बातचीत के लिये खोल रही है और बीजेपी जिन रास्तों से जनलोकपाल के हक में खडे होने की बात करने की दिशा में बढ रही है वह वही संसदीय लोकतंत्र का चुनावी मंत्र है जिसपर प्रधानमंत्री ने 17 अगस्त को संसद में अन्ना के आंदोलन से खतरा बताया था।दूसरी तरफ अन्ना के आंदोलन को लेकर कांग्रेस और बीजेपी जिस मोड़ पर एकसाथ खड़े हैं, वह रामलीला मैदान में आमलोगो का छाती पर इस स्लोगन को लिखकर घुमना कि आई एम अन्ना एंड आई नाम नाट ए पालेटिशियन है।

इसे ही कांग्रेस-बीजेपी दोनों बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि दुनिया भर में संदेश यही जा रहा है कि बीते ते साठ बरस में पहली बार वही संसदीय राजनीति आम लोगों के निशाने पर जिसके आसरे दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश होने का तमगा भारत ढोता रहा। यह सवाल जनलोकपाल से ना सिर्फ आगे जा रहा है बल्कि मंत्रियों-सांसदों के घरों के बाहर बैठकर भजन करते अन्ना के समर्थन में उतरे लोग इस सवाल को खड़ा कर रहे है कि क्या लोकतंत्र का मतलब चुनाव के बाद पांच साल तक देश की चाबी सांसदों को सौप देने सरीखा है। या फिर इस दौर में संसदीय चुनाव के तरीके ही कुछ ऐसे बना दिये गये जिसमें सामिल होने के लिये न्यूनतम शर्त भी दस हजार की उस सेक्यूरटी मनी पर जा टिकी है जिसके हिस्से में देश के 80 करोड़ लोग आ ही नहीं सकते। और अगर चुनाव की समूची प्रक्रिया के बीतर झांके तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे छोटा हिस्सा ही चुनाव मैदान में उतर सकता है, क्योंकि चुनाव मुद्दो के आसरे नहीं वोट बैक और बैंक के बाहर जमा कालेधन के जरीये लड़ा जाता है। इसका पहला असर यही है कि मौजूदा लोकसभा में 182 सांसद ऐसे हैं, जिन पर भ्रष्टाचार या अपराध के मामले दर्ज हैं। और छह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के सर्वेसर्वा यानी अध्यक्ष ही भ्रष्टाचार के आरोप में फंसे हुये हैं और उनकी जांच सीबीआई कर रही है।

ऐसे में जनलोकपाल के दायरे में सांसदों या मंत्रियों के साथ साथ प्रधानमंत्री को लाने पर वही संसद कैसे मोहर लगा सकती है यह अपने आप में बड़ा सवाल है। लेकिन अन्ना के आंदोलन से खडे हुये जनसैलाब ने पहली बार संसदीय लोकतंत्र को जनलोकपाल जनतंत्र के जरीये वह पाठ पढाया जिसमें सरकार को भी इसका एहसास हो गया कि जनसैलाब की भाषा चाहे सियासी ना हो लेकिन सियासत को उसके पिछे तब तक चलना ही पडेगा जबतक यह भरोसा समाज में पैदा ना हो जाये कि सत्ता के सरोकार आम लोगो से जोड़े हैं। और बीते हफ्ते भर में अविश्वास की लकीर ही इतनी मोटी हुई कि उसने राजनीति को भी सीधी चुनौती दी। और यह चुनौती दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में कैसे ठहाका लगा कर लोकतंत्र पर सवालिया निशान लगा रही है यह प्रधानमंत्री या मंत्रियो या सांसदो के घरो के घेरेबंदी के वक्त लोग महसूस कर रहे हैं ।

दरअसल, अन्ना हजारे ने इसी मर्म को पकड़ा है, और जनलोकपाल के सवालो का दायरा इसीलिये बड़ा होता जा रहा है। और अन्ना की छांव में अब यही से वह राजनीतिक अंतर्विरोध भी उभरने लगे है जो सत्ता की होड में सरकार को घेरेने के लिये हर स्तर पर राजनीतिक दल को खड़ा करती है और सासंदो के भीतर उत्साह दिखाती है। कांग्रेस के संसदों के घर के बाहर संघ के स्वयंसेवक अन्ना की टोपी लगा कर बैठ रहे हैं तो बीजेपी के सांसदो के घर के बाहर कांग्रेस के कार्यकत्ता भी मै अन्ना हूं कि टी शर्ट पहन कर बीजेपी सांसद से सवाल कर रहे हैं कि आपका रुख जनलोकपाल को लेकर है क्या। पहले इसे बताये। यानी जनता के मुद्दो के जरीये राजनीति लाभ उटाने की कोशिश भी इस दौर में शुरु हो चुकी है। लेकिन जिस मोड पर अन्ना हजारे राजनीतक दलो को बैचेन कर रहे हैं। सासंदो को पशोपेश में डाल चुके हैं कि उनका रुख साफ होना चाहिये उस मोड पर एक सवाल यह भी है कि जिन जमीनी मुद्दो को लेकर अन्ना के साथ देश के अलग अलग हिस्सों से लोग जुडते चले जा रहे है, अगर इससे संसद के भीतर सांसदो की काबिलियत पर ही सवाल उठने लगे हैं तो फिर चुनाव का रास्ता किसी भी राजनीतिक दलो की वर्तमान स्थिति के लिये कैसे लाभदायक होगा। इस प्रक्रिया को राजनीतिक दल या सांसद समझ नहीं रहे है ऐसा भी नहीं है क्योकि उनकी पहल अभी तक यही बताती है कि सरकार अपने कामकाज में फेल । जबकि सडक पर बैठे जनसैलाब को यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वह चुनाव लड़ना नहीं चाहता , लेकिन चुनाव जीत कर पहुंचे संसद की गरिमा को भी अब घंघे में बदलने नहीं देगा। और यह सवाल आजादी के बाद पहली बार गैर राजनीतिक मंच से राजनीति को चुनौती देते हुये जिस तरह खडा हुआ है उसने संसदीय लोकतंत्र को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। और दिल्ली के जिस रामलीला मैदान पर 1975 में जेपी ने कहा था कि सिहासंन खाली करो की जनता आती है, उसी रामलीला मैदान में हजारों हजार लोग छाती पर यह लिख कर बैठे है कि माई नेम इड अन्ना एंज आई एम नाट ए पोलेटिशन।

Friday, August 19, 2011

जनसंघर्ष की मुनादी

मी शरद पोटले। रालेगन सिद्दि हूण आलो। रात साढ़े बारह बजे तिहाड़ जेल के गेट नंबर तीन पर अचानक एक व्यक्ति ने जैसे ही पीछे से हाथ पकड़ते हुये मराठी में कहा-मैं शरद पोटले । रालेगन सिद्दि से आया हूं। तो मुझे 1991 में महाराष्ट्र में अन्ना का वह आंदोलन याद गया जो नौकरशाही के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की शुरुआत कर उन्होंने राज्य सरकार को सीधे कहा था कि या तो भ्रष्ट अधिकारी हटाने होगे नहीं तो अनशन जारी रहेगा। हफ्ते भर के भीतर ही जिस तरह का समर्थन आम लोगो से अन्ना को मिला, उससे उस वक्त की कांग्रेस सरकार इतना दबाव में आयी कि उसने समयबद्द सीमा में जांच करवाने के आदेश दे दिये और उसके बाद 40 भ्रष्ट नौकरशाहों को बर्खास्त कर दिया।

उस आंदोलन में अन्ना हजारे को अनशन के बाद नीबू-पानी का पहला घूंट पिलाने वाला यही शरद पोटले था। उसी बरस स्कूल से कॉलेज में शरद पाटिल ने कदम रखा था और अन्ना हजारे ने पूछा था बनना क्या चाहते हो। तो शरद ने पढ़-लिखकर बड़ा बाबू बनने की इच्छा जतायी थी। और बीस बरस बाद जब तिहाड़ जेल के सामने शरद पोटले से पूछा कि कहा बाबूगिरी कर रहे हो तो उसने बताया कि पढ़ लिखकर भी खेती कर रहा है। और बाबू बनने का सपना उसने तब छोड़ा जब 199 में अन्ना ने महाराष्ट्र के भ्रष्ट्र मंत्रियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और उस वक्त की शिवसेना सरकार अन्ना के जान के पीछे पड़ गयी। तब रालेगन सिद्दि के पांच लोगों में से एक शरद पोटले भी था जो उन अपराधियों को अन्ना की सच्चाई बताकर उनकी जान की कीमत बतायी थी, जिन्हें अन्ना को जान से मारने की सुपारी दी गयी थी। और फिर अन्ना पर कोई अपराधी हाथ भी नही उठा सका। लेकिन पहली बार 16 अगस्त को दिल्ली पहुंचे शरद ने अन्ना की गिरपफ्तारी देखी तो उसे लगा कि दिल्ली में अपराध की परिभाषा बदल जाती है। मगर रात होते होते जब तिहाड़ जेल के बाहर युवाओ का जुनून देखा तो मुलाकात की पुरानी यादों को टटोलते हुये लगभग रोते हुये सिर्फ मराठी में इतना ही बोल पाया कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है।

लेकिन शरद के इस जवाब ने बीते 20 घंटों की सियासी चाल और संसद से लेकर राजनीतिक दलों के भीतर की पहल कदमी ने पहली बार सवाल यह भी खड़ा किया कि अन्ना हजारे की जनलोकपाल के सवाल को लेकर शुरु हुई लड़ाई अब संसदीय लोकतंत्र को चुनौती भी दे रही है और राजनीति अन्ना को या तो अपना प्यादा बनाने पर आमादा है या फिर आंदोलन को हड़पने की दिशा में कदम बढ़ा रही है। क्योंकि एक तरफ सरकार ने चाहे अन्ना की हर शर्त मानते हुये रिहाई का रास्ता साफ किया लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर संसद के भीतर किसी सांसद ने अन्ना हजारे को मान्यता नहीं दी। मनमोहन सिंह ने अन्ना हजारे को संसदीय लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा खतरा भी बताया और अपनी विकास अर्थव्यवस्था के खांचे को पटरी से उतरने के लिये अन्ना के आंदोलन के पीछे अंतर्राष्ट्रीय साचिश के संकेत भी दिये। वहीं कमोवेश हर पार्टी के सांसदो ने जिस तरह अन्ना को मजाक में बदलने की कोशिश की संसद से सारे संकेत यही निकले की पहली बार संसदीय राजनीति को सड़क के आंदोलन से खतरा तो लग रहा है। क्योंकि जिस तादाद में शहर दर शहर हर तबके के लोग सड़क पर उतरे उसने उन पुराने आंदोलन के समानांतर एक तिरछी बड़ी रेखा खींच कर पहली बार इसके संकेत भी दिये कि राजनीतिक मंच से ज्यादा भरोसा गैर राजनीतिक मंच पर आम लोगो का आ टिका है। इसलिये अन्ना की महक 1974 के जेपी या 1989 के वीपी आंदोलन में खोजना भूल होगी। यह भूल ठीक वैसी ही है जैसे महात्मा गाधी का 1923 में अपनी गिरफ्तारी के विरोध में एक रुपये की जमानत लेने से भी इंकार करना था और जज को यह कहना पडा कि "अगले निर्णय तक वह बिना जमानत ही एम के गांधी को रिहा कर रहे हैं।" यह ठीक बैसे ही है जैसे अन्ना ने 16 अगस्त को जमानत लेने से इंकार कर दिया और मजिस्ट्रेट की पहल पर दिल्ली पुलिस ने सरकार के निर्देश पर बिना जमानत लिये ही अन्ना को रिहाई का वार्ट थमा दिया।

दरअसल यह वैसी ही समानता है जैसे 1974 में गुजरात की मंहगाई को लेकर जेपी से संघर्ष शुरु किया। मामला भ्रष्टाचार तक गया। गिरफ्त में बिहार भी आया। और गुजरात में मोरारजी देसाई अनशन पर भी बैठे। इंदिरा गांधी ने अपना दामन बचाने के लिये गुजरात में विधानसभा भंग भी की। लेकिन जेपी ने इंदिरा की चुनौती को जिस स्तर पर लिया और धीरे धीरे समूचा भारत उसकी गिरफ्त में आता गया और सत्ता परिवर्तन के बाद ही संघर्ष थमा । हो सकता है जंतर मंतर से तिहाड़ तक जा पहुंचे आंदोलन का रुख भी अब महज भ्रट्राचार का नहीं रहा और आंदोलन धीरे धीरे उस दिशा में बढता चला जाये जहा संसदीय राजनीति को चुनौती देते हुये संसदीय राजनीति में बडे सुधार की बात शुरु हो जाये। समझना यह भी होगा कि 74 में जेपी हो या 89 में तत्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती देकर सड़क पर उतरे वीपी सिंह। दोनों के मामले चाहे भ्रष्टाचार को लेकर सत्ता को चुनौती अभी की ही तरह देते दिखायी पड़े लेकिन दोनो नेताओ की पहचान राजनीतिक थी। अन्ना राजनेता नहीं हैं। आंदोलन के लिये रणनीति बनाती अन्ना की टीम राजनीतिक नहीं है। और इससे पहले के दोनों दौर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बेहद महीन तरीके से हड़पा। और इस बार भी उज्जैन के चिंतर शिवर से 24 घंटे पहले 16 अगस्त को ही हर स्वसंसेवक को यह निर्देश भी दे दिया गया कि उसकी भागेदारी आंदोलन में सड़क पर बैठे लोगो के बीच ना सिर्फ होनी चाहिये बल्कि संघर्ष का मैदान खाली ना हो इसके लिये हर तरह का संघर्ष करना होगा।

यह निर्देश भाजपा के कार्यकर्ता और युवा विंग को भी है। लेकिन पहली बार बड़ा सवाल यहीं से खड़ा हो रहा कि जो संसद अन्ना को अपने अंगुठे पर रखती है। जो सांसद अन्ना को संसदीय लोकतंत्र को चुनौती देने वाला मानते हैं। वह अन्ना से इसलिये सहमे हुये है क्योकि पहली बार सड़क पर अन्ना आंदोलन के समर्थन में देश भर में लोग जुटे हैं। और यह लोग चाहे उत्साह से अन्ना का साथ दे रहे हैं लेकिन उनके भीतर इस बात का आक्रोष है कि जो काम संसद को, जो काम सांसदो को और जो काम सरकार को करनी चाहिये वह कर नहीं रही है। इसलिये कॉलेज या कामगारो से इतर इस बार सडक पर वह कारपोरेट , बहुराष्ट्रीय कंपनी और आईटी सेक्टर में काम करते प्रोफेशनल उतरे हैं, जिनके सामने सवाल यह है कि टैक्स देने के बाद उनका जीवन त्रासदी में डूबा है। अगर कालाधन नहीं है तो सफेद रास्ता बढ़ती मुद्रास्फीती से बैंक के जरीये भी घाटा ही देगा । और मुनाफे का रास्ता सिर्फ जमीन या सोना खरीद पर आ टिकेगा।

यानी पहली बार देश का हर तबका अगर परेशान है तो पहली बार इसे अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक मंच में समाधान की जगह संसद को चुनौती देते हुये अपने आक्रोष को व्यक्त करने की खुली जगह मिली है। ऐसे मौके पर अगर प्रधानमंत्री संसद में अपने भाषण की समाप्ती यह कहकर करे कि , ' हम जनता के चुने हुये प्रतिनिधी है और हम अपने लोकतंत्र पर आंच आने नहीं देगे। " तो जेहन में सुपारी देने वालो से बचाने वाले शरद पोटले का चेहरा याद आ गया जो तिहाड़ के बाहर अब भी यह सोच कर बैढा है कि अब सवाल अन्ना का नहीं देश का है । और देश में पहली बार लोकतंत्र को लेकर ही संसद और सडक ना सिर्फ अलग अलग राह पकड़ रहे हैं। बल्कि संविधान में संसद सत्ता बड़ी है या जनतंत्र यह सवाल भी निशाने पर चुनावी व्यवस्था को ला रही है।

Saturday, August 13, 2011

आजादी इन हालातों में मनायेंगे

हो सकता है यह संयोग हो, लेकिन 5 अगस्त को जब कॉमनवेल्थ गेम्स की पोटली कैग ने खोली और पीएमओ का नाम लिया तो एक पत्रकार ने सवाल पूछा, आप मनमोहन सिंह का नाम क्यों नहीं लेते हो? तो उक्त अधिकारी ने कहा? नाम आप लीजिये हम तो संस्था बताते हैं। कुछ इसी तरह का सवाल 19 बरस पहले 1992 में सिक्योरिटी स्कैम यानी हर्षद मेहता घोटाले के वक्त जब पीएमओ का नाम आया तो एक पत्रकार ने पूछा आप पीवी नरसिंह राव क्यों नहीं कहते हैं, तो जवाब मिला नाम आप बताईये। लेकिन, उस वक्त जो नाम अखबारों की सुर्खियों में आया वह तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह और वाणिज्य राज्य मंत्री पी. चिदबरंम का था। और संयोग देखिये 19 बरस बाद कॉमनवेल्थ से लेकर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले तक में जो नाम सुर्खियो में है उसमें मनमोहन सिंह और चिदबरंम का ही नाम है। और स्वास्‍थ्‍य मंत्री बी.शंकरानंद का भी नाम था. 19 बरस पहले चिदबरंम को इस्‍तीफा देना पड़ा था। लेकिन, हर्षद मेहता के काले दामन का असल दाग तब भी वित्त मंत्रालय पर ही लगा था। सिर्फ मनमोहन सिंह नही बल्कि उनके जूनियर रामेश्वर ठाकुर भी फंसे थे।

लेकिन, इन 19 बरस में क्या-क्या कुछ कैसे-कैसे बदल गया, अगर उसके आईने में तब के वित्त मंत्री और अब के प्रधानमंत्री को फिट कर दिया जाये सिक्के के दोनों तरफ एक ही तस्वीर नजर आयेगी और संयोग शब्द कमजोर भी लगने लगता है। क्योंकि अभी जिस तरह टेलीकॉम, पेट्रोलियम, फूड, फर्टिलाईजर, कोयला और वित्त मंत्रालय से लेकर पीएमओ तक अलग-अलग घोटालों में फंसे दिखायी पड़ रहे हैं। अगर इसके उलट पीवी नरसिह राव के दौर यानी 1991-96 के वक्त मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार के आईने में घोटाले और उसकी कहानियों को देखें तो अभी के वक्त पर सवाल खड़ा हो सकता है। अभी के कैश-फोर-वोट के उलट जेएमएम घूसकांड का सच जब कई हिस्‍सों में सामने आया तो पता यही चला कि सांसदों को खरीदा गया।

और उस वक्त रुपया जुगाड़ा पेट्रोलियम मंत्री सतीश शर्मा ने। हुआ यह कि सतीश शर्मा ने तब पेट्रोलियम सचिव खोसला को पेट्रोलियम डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट के नाम पर कुछ खास कंपनियों को तेल के कुएं देने को कहा। खोसला ने निर्णय लिया तो ओएनजीसी के वरिष्ट अधिकारियो ने इसका विरोध किया। मंत्री सतीश शर्मा इस लड़ाई में कूदे और तेल के कुएं एस्सार, वीडियोकॉन और रिलांयस को बांटे गये। एक महीने बाद ही पेट्रोलियम सचिव खोसला ने पद से इस्‍तीफा दे रिलायंस का दामन थाम लिया। खोसला को एस्सार ने 7 करोड़, रिलांयस ने 4 करोड़ और वीडियोकॉन ने 2 करोड़ दिये। जिसमें से साढ़े तीन करोड़ तो जेएमएम कांड में बांटे गये बाकी डकार लिये गये।

जाहिर है इस आईने में कुछ दिन पहले तक रहे पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा के रिलायंस प्रेम में गैस बेसिन बांटना भी देखा जा सकता है और पेट्रोल की कीमत किस तरह निजी कंपनियों के हवाले कर दी गयी यह भी समझा जा सकता है। 2जी स्पेक्ट्रम लाईसेंस को लेकर चाहे अब यह सवाल खड़ा होता हो कि सूचना तकनीक तो अभी ही दिखायी दे रही है तो फिर एनडीए के दौर की नीति पर चलने का मतलब क्या है। लेकिन सच यह भी है कि देश की आजादी के बाद 44 बरस में जितने टेलीफोन इस देश में थे उससे ज्यादा टेलीफोन 1991-95 के दौर में लगे। 1991 तक सिर्फ 50 लाख फोन थे। लेकिन 1995 में इसका संख्य एक करोड पांच लाख हो गई। और टेलीकॉम का असल घोटाला भी इसी वक्त हुआ। जब सुखराम के घर में बोरियो में साढ़े तीन करोड़ जब्त भी हुये और 5 बरस में 1000 करोड़ के काम में से सिर्फ 5 फीसदी काम ही पूरा हुआ। और डीओटी के अधिकारियों ने भी देश को चूना लगाया क्योंकि हर साल 4 हजार करोड़ के कल-पुर्जे इस दौर में पांच साल तक खरीद में दिखाये गये। लेकिन जैसे अभी 2जी लाईसेंस के खेल के पीछे कारपोरेट का मुनाफा पाने के लिये ए. राजा को मंत्री बनाने तक का खेल रहा।

उसी तर्ज पर उस दौर में भी डेढ़ लाख करोड़ में से 85 हजार करोड़ का काम बिना बिड के सुखराम ने अपने मातहत कंपनी हिमाचल फुटुस्टिक कम्युनिकेंसन लि. यानी एचपीसीएल को दे दी। जिसके संबंध इजरायल के कंपनी बेजेक्यू टेलीकॉम से जुड़े थे । उस वक्त रिलायंस यह सौदा चाहता था। लेकिन उसके हाथ खाली रहे, तो उसने अपने करीबी सासंदो को जरिये दस दिनो तक संसद ठप करवा दी। और कारपोरेट तंत्र ने सरकार को भी टेलीकॉम घोटाले को पकड़ने के लिये मजबूर किया। यह अलग बात है 2011 में इसी रिलांयस के बडे अधिकारी भी तिहाड़ जेल में स्पेक्ट्रम घोटाले की वजह से बंद हैं। महंगाई में कृषि मंत्री शरद पवार की चीनी माफिया को मदद पहुंचाने के आरोप बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस भी लगाती रही है।

लेकिन 19 बरस पहले चीनी का खेल कल्पनाथ राय ने किया था। 650 करोड़ के चीनी घोटाले के बाद कल्पनाथ राय को हवालात भी जाना पडा था और उसके बाद अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद के साथ संबंधों के मद्देनजर आतंकवादी कानून टाडा भी लगा था। डेढ़ बरस पहले मनमोहन सिंह के ही मंत्रीमंडल में फर्टीलाईजर मंत्री भी यूरिया घोटाले में फंसे। लेकिन यूरिया का असल घोटाला तो पीवी नरिसंह राव के दौर में हुआ। जब उनके बेटे प्रभाकर राव और रामलखन सिंह यादव के बेटे फर्टीलाईजर मंत्री प्रकाश चन्द्र यादव ने 133 करोड का यूरिया टर्की की कंपनी कर्सन से मंगाया। और नेशनल फर्टीलाईजर लिंमेटेड के दस्तावेजों में 133 करोड का यूरिया ले भी लिया. लेकिन वह यूरिया कभी आया ही नहीं। और मामला पीएम के बेटे से जुड़ा था तो तत्कालिक वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की खामोशी में मामले को ही रफा-दफा किया गया। तीन महीने पहले दिल्ली के कनाट-प्लेस की एक कंपनी से 70 करोड़ रुपये कैश पकड़ाये तो सीबीआई और सीबीडीटी के अधिकारियों ने कहा कि यह हवाला और मनीलॉडरिंग का रुपया है।

और देश की छोटी बडी सौ से ज्यादा कंपनियों के तार इससे जुड़े हुये हैं। इसमें राजनेताओं और नौकरशाहों के भी नाम आने की बात कही गयी। लेकिन बीते तीन महीने में हर कोई इस हवाला रैकेट को भूल गया। लेकिन 1995 का हवाला रैकेट आज भी देश को याद है। उस वक्त मध्यप्रदेश के व्यवसायी एस. के. जैन के हवाला खेल में देश के 31 टॉप राजनेता और 16 बडे नौकरशाहों का नाम आया था। राव कैबिनेट के 15 मंत्रियों के नाम थे। और सीबीआई को मिले जैन के घर से छापे में 58 लाख रुपये नकद। दो लाख की विदेशी करेंसी। 15 लाख के इंदिरा विकास पत्र। दो डायरियां और नोटबुक। याद कीजिये उस वक्त जैन डायरी में किस-किस का नाम लिखा था जिसे लेकर देश भर में हंगामा मचा। राजीव गांधी भी थे और आडवाणी भी। प्रणव मुखर्जी भी थे और यशंवत सिन्हा भी। आर. के. धवन भी थे और अरुण नेहरु भी। कमलनाथ भी थे और विजय कुमार मल्‍होत्रा भी। कैबिनेट सचिव नरेश चन्द्र भी थे और एनटीपीसी चैयरमैन पीएस बामी भी। जैन से पूछताछ में घेरे में पीएमओ भी आया और वित्त मंत्री पर भी अंगुली उठी।

उस दौर में भी यह माना गया कि पीवी नरसिंह राव ने संसद की जसंवत सिंह की अध्यक्षता वाली प्रावकलन कमेटी की सिपारिशो को ठंडे बस्ते में रखकर सीबीआई को संवैधानिक दर्जा नहीं दिया जा रहा था। क्योंकि 4 मार्च से 12 मार्च 1995 में जैन ने जो सीबीआई के सामने कबूला उससे नरसिंह राव ही हवाला शिंकजे में फंस रहे थे। जैन का वह बयान आज भी अपराध दंड संहिता की धारा 161 के तहत दर्ज है। जाहिर है इस आईने में स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच में पूर्व कैबिनेट मंत्री ए. राजा के बयान झलक सकते हैं। लेकिन देखिये उस वक्त हवाला की कुल रकम 69 करोड थी। और बीते तीन बरस में हवाला के तहत देश में 7 अरब से ज्यादा रुपया जब्त किया जा चुका है। लेकिन देश में कोई हरकत नहीं है।

घोटाले की फेरहिस्त की अब तो खनन की जमीन को निजी कंपनियो को बांटना और बेल्लारी सरीखी लूट सियासी जरुरत और विकास का मंत्र बन चुकी है। लेकिन यह खेल 1995 में भी खेला गया। तब कोयला मंत्री संतोष मोहन देव ने 240 करोड की बैलेडिला कोयला खादान महज 16 करोड में निजी कंपनी निप्पन डेन्ड्रो को दे दी थी। चूंकि निप्पन से पीएम की करीबी थी तो वित्त मंत्री ने भी उस वक्त कोई अंगुली नहीं उठायी। कुछ इसी का खेल शहरी विकास मंत्री शीला कौल ने दो हजार सरकारी घरों को बांट कर किया। दरअसल राव के दौर में जिस आर्थिक सुधार की लकीर मनमोहन सिंह बतौर वित्त मंत्री देश में खींच रहे थे और अब बतौर प्रधानमंत्री उसी लकीर पर देश को दौड़ा रहे हैं असल में उसका असर भी उसी अनुरुप दिखायी देने लगा है। इसलिये 1996 में आर्थिक घोटालो के लिये सीबीआई के फंदे में 200 कंपनियों के नाम थे। और आज 1100 कंपनियो के नाम हैं।

उस दौर में आईटीसी ने 350 करोड़ का फेरा उल्लघन किया था। गोल्डन टबैको के संजय डालमिया 400 करोड़ के खेल में फंसे थे। शा वैलेस के एमआर छाबरिया 100 करोड़ के इक्मानिक अफेन्स में तो गणपति एक्सपोर्ट के ओपी अग्रवाल 90 करोड़ की मनी लॉन्‍डरिंग में फंसे थे। लेकिन आज के हालात ऐसे है कि शेयर बाजार की औसतन हर तीन में से एक कंपनी की आर्थिक जुगाली पर सीबीआई नजर रखे हुये है। 1150 कंपनियों की बकायदा हवाला और मनीलैंडरिंग की जांच कर रही है। एफडीआई का रास्ता ही मारीशस और मलेशिया वाला है जिसे सरकार ही हवाला रुट मानती है। इन्ही रास्तों से विदेशी निवेश को दिखाने वाली भारतीय कंपनियों ने ही खुद की व्यूह रचना तैयार की है जिससे 50 लाख करोड़ से ज्यादा की पूंजी का ओर-छोर है क्या यह पकड़ पाना मुश्किल ना भी हो लेकिन इसे पकड़ा गया तो मनमोहन इक्नामिक्स का वह ढांचा चरमराने लगेगा जिसपर खड़े होकर भारतीय कंपनियों ने अब दुनिया में इनवेस्ट करना शुरू किया है।

इस दौड़ में देश के टॉप कारपोरेट भी हैं जिन्होंने इस दौर में 47 बिलियन डॉलर बिदेश में निवेश किया जबकि भारत में सिर्फ 22 मिलियन डॉलर। इसलिये बडा सवाल यही से खड़ा होता है कि जब आर्थिक भ्रष्टाचार की जमीन पर ही आर्थिक सुधार चल पडा है तो फिर इसे सरकारी व्यवस्था के ढांचे में कैसे रोका जा सकता है। और इसे रोकने के लिये जो अपराधिक कानून लागू करने से लेकर सजा देने का ढांचा तैयार होगा अगर उसके घेरे में उसमें सरकार, सांसद और प्रधानमंत्री नहीं आये तो फिर संसद के बिकने में कितने दिन लगेगें । और तब यह सवाल जागेगा कि क्या वाकई हम आजाद है और आजादी का जश्न मनाये।

Tuesday, August 9, 2011

तो खबरें दिखायी देगी न्यूज चैनलों पर

केबल इंडस्ट्री के धंधे पर नकेल

हर बरस एक हजार करोड़ से ज्यादा ऑफिशियल कालाधन केबल इंडस्ट्री में जाता है। हर महिने सौ करोड रुपये केबल इंडस्ट्री में अपनी धाक जमाने के लिये अंडरवर्ल्ड से लेकर राज्यों के कद्दावर नेता अपने गुर्गों पर खर्च करते हैं । हर दिन करीब एक करोड रुपये केबल-वार में तमंचों और केबल वायर पर खर्च होता है, जिनके आसरे गुंडा तत्व अपने मालिकों को अपनी धाक से खुश रखते हैं कि उनके इलाके में केबल उन्हीं के इशारे पर चलता है और बंद हो सकता है। इन्ही केबलों के आसरे बनने वाली टीआरपी किसी भी न्यूज या मनोरंजन चैनल की धाक विज्ञापन बाजार से लेकर सरकार तक पर डालती है जो चैनल की साख चैनल को देखने वाले की टीआरपी तादाद से तय करते हैं। तो खबर यही से शुरु होती है। करोड़ों का कालाधन और कही से नहीं चैनल चलाने वाले देते हैं। चाहे खबरिया चैनल हों या मनोरंजन चैनल उसकी प्रतिस्पर्धा चैनलों के आपसी कंटेंट में पैसा लगाने से कही ज्यादा केबल पर दिखायी देने में खर्च होते हैं। और टीवी पर केबल के माध्यम से सिर्फ 60-70 चैनल ही एक वक्त दिखाये जा सकते है तो फिर बाकि चैनल खुद को स्क्रीन तक पहुंचाने में कितना रुपया फूंक सकते है और रुपया फूंकना ही जब टीआरपी के खेल से जुड़ जाये तो फिर करोडो कैसे मायने नहीं रखते यह सीबीडीटी की रिपोर्ट देखने से पता चलता है।

सरकार इसी केबल इंडस्ट्री पर ताला लगाने की पूरी तैयारी कर रही है। सूचना प्रसारण मंत्रालय की फाईल नं. 9/6/2004- बीपी एंड एल [ वोल्यूम छह] में 78 पेज की रिपीर्ट में केबल सिस्टम को डिजिटल में बदलते हुये उसके प्रसार और कानूनी ढांचे को सरकारी हद में लाने का प्रस्ताव तैयार किया गया है। कैबिनेट के सामने रखे जाने वाले इस प्रस्ताव को जानने से पहले जरा चैनलो और केबल के खेल को समझना जरुरी है। क्योंकि एक तरफ सीबीडीटी की रिपोर्ट बताती है कि देश के जिन टॉप पांच टैक्स चोरों पर उसकी नजर है, उसमें रियल स्टेट, बिल्डर लाबी, चीटफंड, ट्रांसपोटर के अलावा केबल इंडस्ट्री है। और केबल वालो के कालेधन का नंबर तीन है। वही सरकार ने बीते पांच बरस में जिन-जिन कंपनियो को चैनलों के लाईसेंस बांटे उसमें सबसे ज्यादा रियल स्टेट, बिल्डर , चीट-फंड चलाने वालो के ही ज्यादातर नाम है। यानी एकतरफ केबल इंडस्ट्री के काले धंधे पर सीबीडीटी नकेल कसने के लिये फाइल तैयार कर रही है तो दूसरी तरफ कालेधंधे करने वालो को सरकार चैनलों के लाइसेंस बांट रही है।

यह भ्रष्टाचार का सरकारी लोकतांत्रिकरण है। जिसका असर यह हुआ है कि किसी भी खबरिया चैनल को राष्ट्रीय स्तर पर दिखने के लिये सालाना 35 से 40 करोड कालाधन बांटना ही पड़ेगा। जो केबल वालो की फीस है। मगर इसकी कोई रसीद नहीं होती। इस कैश को देने के लिये हर कोई राजी है, क्योकि बिना केबल पर दिखे विज्ञापन के लिये तैयार होने टैम रिपोर्ट से चैनल का नाम गायब होगा। और देश में फिलहाल जब साढे छह सौ चैनल हो और केबल टीवी पर एक वक्त में 60 से 70 चैनल ही दिखाये जा सकते हों तो फिर बाकि चैनल चलाने वाले क्या करेंगे। जाहिर है वह खुद को दिखाने के लिये रुपया लुटायेंगे। क्योकि क्षेत्रवार भी हर राज्य में औसतन 145 चैनल चलाने वाले चाहते है कि केबल के जरीये उनके चैनल को दिखाया जाये। एक तरफ यह धंधा सालाना 900 करोड़ से ज्यादा का है तो इसके सामानांतर कालेधन की दूसरी प्रतिस्पर्धा केबल के जरीये टीवी पर पहले 15 चैनलो के नंबर में आने के लिये होता है। इसमें हर महिने 60 से 90 करोड रुपया बांटा जाता है। यानी हर कोई रुपया लुटाने को तैयार हो तो फिर चैनलो के पास कालाधन कितना है या कहे कालाधन बांटकर विज्ञापन और साख बनाने को खेलने की कैसी मजबूरी बना दी गई है यह चैनलो की मार-काट का पहला हिस्सा है। दूसरा हिस्सा कहीं ज्यादा खतरनाक हो चला है। क्योंकि नये दौर में जब धंधेबाजों को ही चैनलों का लाइसेंस क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर दिया गया तो चैनलों में सबसे बडा हुनरमंद टीआरपी मैनेज करने वाला बन गया। चैनलों में सबसे ज्यादा वेतन उसी शख्स को मिलता है जो टीआरपी मैनेज करने का भरोसा देता है और करके भी दिखा देता है। लेकिन इस खेल का दवाब संपादको पर भी पड़ा है। टीआरपी मैनेज कर खुद को बडा हुनर मंद बनाने का ही चक्कर है कि दो राष्ट्रीय नयूज चैनलों के संपादकों से इनकम टैक्स वाले लगतार पूछताछ भी कर रहे है औरं इनकी टीआरपी भी हाल के दौर में आश्चर्यजनक तरीके से तमाशे के जरीये कुलांचे भी मार रही है। असल में करोड़ों के इस खेल में कितना दम है और इस खेल के महारथियों को रोकने के लिये सरकार की नीयत कितनी साफ है इसके एसिड-टेस्ट का वक्त अब आ गया है। क्योंकि कैबिनेट के लिये तैयार सूचना प्रसारण मंत्रालय की सीक्रेट रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस एनॉलाग सिस्टम पर केबल के जरीये टीवी तक चैनल दिखाये जाते है, उससे अगले तीन बरस में पूरी तरह डिजिटल में बदलना जरुरी है । इसके लिये बकायदा समयसीमा भी तय की गयी है। सबसे पहले 31 मार्च 2012 तक चार महानगर दिल्ली , मुंबई ,कोलकत्ता और चेन्नई में समूचा सिस्टम डिजिटल हो जायेगा। यानी केबल सिस्टम खत्म होगा । उसके बाद दस लाख से ज्यादा की आबादी वाले शहरो में 31 मार्च 2013 तक केबल सिस्टम की जगह डिजिटल सिस्टम शुरु होगा और तीसरे फेज में सितंबर 2014 तक सभी शहर और आखिरी दौर यानी चौथे फेज में दिसबंर 2014 तक समूचे देश में केबल का एनालाग सिस्टम खत्म कर डिजिटल सिस्टम ले आया जायेगा। जिसके बाद डीटीएच सिस्टम ही चलेगा। रिपोर्ट में इन सबके लिये कुल खर्चा 40 से 60 हजार करोड़ का बताया गया है।

जाहिर है सूचना-प्रसारण मंत्रालय की 78 पेज की इस रिपोर्ट को सिर्फ कैबिनेट की हरी झंडी मिलने का इंतजार है। जिसके बाद यह कहा जा सकता है खबरों के नाम पर जो तमाशा चल रहा है, उसकी उम्र सिर्फ आठ महीने है। क्योंकि चार महानगर भी केबल के जरीये टीआरपी के गोरखधंधे पर खासा वजन रखते हैं और अगर वाकई 31 मार्च 2012 तक सिस्टम डिजिटल हो गया तो खबरों के क्षेत्र में क्रांति हो जायेगी। लेकिन जिस सरकार की नीयत में दागियो को चैनल का लाइसेंस देना हो और उसी सरकार के दूसरे विभाग इन दागियो को पकड़ने के लिये जाल बिछाता दिखे तो ऐसे में यह क्यों नहीं कहा जा सकता है कि सरकार की हर पहल के पीछे पहले सत्ताधारियों का लाभ जुड़ा होता है और वह मुनाफा काला-सफेद नहीं देखता। यहां यह बात उठनी इसलिये जरुरी है क्योंकि केबल इंडस्ट्री पर कब्जा सत्ताधारियो का ही है। पंजाब में बादल परिवार की हुकूमत केबल पर चलती है तो तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार की। कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां राजनेताओ की सीधी पकड केबल पर नहीं है। और यही पकड़ उन्हें मीडिया के चंगुल से बचाये रखती है क्योंकि किसी भी सीएम या सत्ताधारी के खिलाफ खबर करने पर अगर उस चैनल को केबल ही दिखाना बंद कर दें तो फिर खबर का मतलब होगा क्या। एक वक्त छत्तीसगढ के कांग्रेसी सीएम रहे अजित जोगी ने अपनी ठसक इसी केबल धंधे के बल पर बेटे के कब्जे से बनायी। तो आंध्रप्रदेश में वाएसआर के मौत पर जिस न्यूज या मनोरंजन चैनल ने वाएसआर की तस्वीर दिखाकर वायएसआर का गुणगान नहीं किया उस चैनल का उस वक्त आन्ध्र प्रदेश में ब्लैक-आउट कर दिया गया। मुंबई में तो केबल वार अंडरवर्लड की सत्ता का भी प्रतीक है। इसलिये मुंबई का हिस्सा केबल के जरीये दाउद और छोटा राजन में आज भी बंटा हुआ है। और देश में सबसे ज्यादा सालाना वसूली भी मुंबई में ही चैनलो से होती है क्योंकि टैम के सबसे ज्यादा डिब्बे यानी पीपुल्स मीटर भी मुंबई में ही लगे हैं। किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनल को यहां सालाना आठ करोड रुपये देना ही पड़ता है। और क्षेत्रीय चैनल को पांच करोड़। करीब बीस हजार लड़के केबल पर कब्जा रखने के लिये काम करते हैं। और देश भर में इस केबल इंडस्ट्री ने करीब सात लाख से ज्यादा लड़को को रोजगार दे रखा है। खुद सूचना प्रसारण मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि देश में 60 हजार लोकल केबल ऑपरेटर हैं । जबकि सात हजार स्वतंत्र केबल आपरेटर। और हर केबल आपरेटर के अंदर कम से कम पांच से 20 लड़के तक काम करते हैं। फिर टैम रिपोर्ट जुगाड करने वाले दस हजार लड़कों से ज्यादा की तादाद और टैम के लड़कों से सैटिंग करने वाले बडे बिचौलियों की तादाद जो चैनलों से मोटी रकम वसूल टीआरपी के खेल को अंजाम देते हैं। इस पूरे कॉकस को क्या सरकारी डिजिटल सिस्टम तोड देगा और वाकई अपने मंत्रालय की जिस सीक्रेट रिपोर्ट पर अंबिका सोनी बैठी हैं क्या कैबिनेट की हरी झंडी मिलने के बाद वाकई केबल-टीआरपी की माफियागिरी पर ताला लग जायेगा। फिलहाल तो यह सपना सरीखा लगता है क्योकि अब के दौर में चैनल का मतलब सिर्फ खबर नही है बल्कि सत्ता से सौदेबाजी भी है और केबल पर कब्जे का मतलब सत्ताधारी होना भी है। और इस सौदेबाजी या सत्ता के लिये सीबीडीटी की वह रिपोर्ट कोई मायने नहीं रखती, जो हजारों करोड़ के काले धंधे को पकडने के लिये उसी सरकार की नौकरी को कर रही है जो सरकार चैनल का लाइसेंस देने के लिये धंधे के दाग नहीं लाइसेंस की एवज में धंधे की रकम देखती है। लेकिन सरकार की यह कवायद न्यूज चैनलों पर नकेल कस सरकारी तानाशाही होने वाली स्थिति भी दिखाती है। क्योंकि देशहित के नाम पर किसी भी जिलाधिकारी का एक आदेश चैनल का दिखाना बंद करवा सकता है।