Friday, October 28, 2011

राहुल गांधी...कलावती....और फॉर्मूला वन

2008 में जब राहुल गांधी ने संसद के भीतर विदर्भ की विधवा किसान कलावती का नाम लिया और कलावती के अंधेरे जीवन में उजाला भरने के लिये परमाणु करार का समर्थन किया तो कइयों ने तालियां बजायीं। कइयों ने राहुल की उस संवेदनशीलता को मान्यता दी, जिसमें आत्महत्या करते किसान लगातार हाशिये पर ढकेले जा रहे हों। ऐसे में परमाणु करार की चकाचौंध तले किसानों की त्रासदी को भी कलावती के जरिए परखने का एक रास्ता निकल सकता है, इसे व्यापक कैनवास में माना गया। लेकिन 26 सितंबर को कलावती की बेटी सविता ने कुदकुशी की तो राजनीति में चूं तक नहीं हुई न। मीडिया नही जागा। महाराष्ट्र के वह नौकरशाह और राजनेता भी कलावती के घर नहीं पहुंचे जो राहुल गांधी के नाम लेते ही तीन बरस पहले समूचे विदर्भ में कलावती को वीवीआईपी बनाये बैठे थे। तो झटके में यह सवाल भी खड़ा हुआ कि किसानों के संकट को अपनी सियासी सुविधा के लिये अगर राजनेता कलावती जैसे किसी एक को चुनकर घुरी बना देते है तो न सिर्फ किसानों का संकट और उलझ जाता है बल्कि कलावती सरीखे किसी एक धुरी का जीवन भी नर्क जैसे हो जाता है।

असल में राहुल गांधी के नाम लेते ही कलावती को पहचान तो समूचे देश में मिल गयी। लेकिन उसका हर दर्द पहचान की भेंट ही चढ़ गया। 2005 में जब कलावती के पति परशुराम सखाराम बंधुरकर ने किसानी खत्म होने पर खुदकुशी की तो कलावती के विधवा विलाप के साथ समूचा गांव था। और उस वक्त विदर्भ के दस हजार किसानों की विधवाओ में से कलावती एक थी लेकिन 2008 में राहुल गांधी ने जब कलावती से मुलाकात की और मुलाकात को संसद में सार्वजनिक कर दिया तो राहुल के जरिए सियासत की मलाई खाने की होड़ विदर्भ के कांग्रेसियो में मची। और झटके में कलावती का घर यवतमाल के जालका गांव में एकदम अकेला पड़ गया।

असर यह हुआ कि पिछले बरस जब कलावती के दामाद संजय कलस्कर ने खुदकुशी की तो कलावती की विधवा बेटी के लिये गांव नहीं जुटा। वह अकेले पड़ गयी। गांववालों ने माना कि राहुल गांधी की कलावती के घर क्या जुटना, वहां तो नेता आयेंगे। लेकिन इन दो बरस में राहुल गांधी की सियासत भी कलावती से कहीं आगे निकल चुकी थीं और कांग्रसियों का कलावती प्रेम का बुखार भी उतर चुका था। तो कलावती के घर में विधवा विलाप मां-बेटी ने ही किया। कलावती के दामाद का संकट भी गरीबी और किसानी से दो जून की रोटी का भी जुगाड़ नही होना था। और बीते 26 सितबंर को जब कलावती की बेटी सविता ने खुदकुशी तो पुलिस इसी मशक्कत में लगी रही कि मामला किसान की गरीबी से ना जुड़े। कलावती की बेटी का दर्द यह था कि अपने पति के साथ वह भी किसान मजदूरी ही करती थी। लेकिन तबियत बिगड़ी तो खेत मजदूरी करना मुशकिल हो गया। आलम यह हो गया कि कि घर में नून-रोटी का जुगाड़ भी होना मुश्किल हो गया। वहीं तबियत बिगड़ी तो इलाज के लिये पैसे नहीं थे। आखिरी में गरीबी में बीमारी से तंग आकर सविता ने 16 सितंबर को आग लगी ली। सत्तर फीसदी जल गयी। डाक्टरों ने कहा नागपुर जा कर इलाज कराने पर बच जायेगी। लेकिन सविता और उसके पति के पास नागपुर जाने के लिये भी पैसे नहीं थे। तो 26 सितंबर को कलावती की बेटी ने दम तोड़ दिया। मामला नेताओं तक पहुंचा तो पुलिस ने आखिरी रिपोर्ट बनायी कि बीमारी से तंग आकर कलावती ने खुदकुशी की। यानी गरीबी की कोई महक कलावती से ना जुडे या उसके परिवार में खुदकुशी के सिलसिले में किसान होना न माना जाये इसका पूरा ध्यान दिया गया। और संयोग से कलावती की बेटी सविता की खुदकुशी के वक्त भी राहुल की कलावती अकेले ही रही। कोई नेता तो नहीं आया लेकिन पुलिस के आने पर कलावती फिर अकेले हो गयी। लेकिन सियासी तौर पर किसान का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिये कितना मायने रखता है यह सिर्फ कांग्रेस या राहुल गांधी के मिजाज भर से नहीं बल्कि बीजेपी या लालकृष्ण आडवाणी के जरीये भी समझा जा सकता है। रथयात्रा पर सवाल आडवाणी कलावती के गांव जालका से महज दो किलोमीटर दूर पांडवखेडा के बाइपास से निकले, लेकिन किसी बीजेपी कार्यकर्ता ने आडवाणी को यह बताने की जरुरत महसूस नहीं की कलावती की बेटी ने भी खुदकुशी कर ली। वहां जाना चाहिये।

इतना ही नहीं 2008 में राहुल गांधी के कलावती के घर जाने पर बीजेपी के नेता वैंकेया नायडू ने उस वक्त बड़ी बात कही थी कि किसी एक कलावती के जरिए किसानों के दर्द को नंही समझा जा सकता। लेकिन तीन बरस बाद आडवाणी जब रथयात्रा पर सवार होकर विदर्भ पहुंचे तो 24 घंटे के भीतर चार किसानो ने खुदकुशी की। लेकिन आडवाणी ने जिक्र करना भी ठीक नही समझा। या जानकारी देना विदर्भ के बीजेपी सिपहसालारो ने ठीक नहीं समझा। जबकि इस बरस विदर्भ में 642 किसान खुदकुशी कर चूके हैं और आडवाणी के विदर्भ में रहने के दौरान वाशिम के किसान की पत्नी साधना बटकल ने अपने दो बच्चो के साथ खुदकुशी की। जिनकी उम्र चार और छह बरस थी । यवतमाल के दिगरस के किसान राजरेड्डी निलावर ने खुदकुशी की। इसी तरह उदयभान बेले और निलीपाल जिवने ने खुदकुशी कर ली। हर किसान का संकट दो जून की रोटी है। यह सवाल महाराष्ट्र सरकार से लेकर केन्द्र सरकार तक नहीं समझ पा रही है कि अगर किसान के घर में ही अन्न नहीं है तो इसका मतलब है क्या। क्योंकि किसानों के लिये महाराष्ट्र में अन्त्योदय कार्यक्रम चलता नहीं है। नौकरशाहों का मानना है कि अन्न को किसान ही उपजाता है तो उसे अन्न देने का मतलब है क्या। लेकिन नौकरशाह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि खुदकुशी करने वाले ज्यादातक किसान कपास उगाते है और कपास न हो तो फिर किसानो में भुखमरी की नौबत आनी ही है।

वहीं महाराष्ट्र में किसानों के लिये स्वास्थ्य सेवा की भी कोई व्यवस्था नहीं है। और किसानी से चूके किसान सबसे पहले बीमारी से ही पीडि़त होते हैं। जहां इलाज के लिये पैसा किसी किसान के पास होता नहीं। तीसरा संकट किसान के बच्चो के लिये शिक्षा का है। इसकी कोई व्यवस्था महाराष्ट्र सरकार की तरफ से है नहीं। केन्द्र सरकार की भी शिक्षा योजना खुदकुशी करते किसानों के परिवार के बच्चो के लिये है नहीं। इसका असर दोहरा है। एक तरफ पिता की खुदकुशी के बाद अशिक्षित बच्चों के लिये बड़े होकर खुदकुशी करना सही रास्ता बनता जा रहा है। तो दूसरी तरफ जिस तरह क्रंक्रिट की योजनाएं खेती की जमीन हथियाने में जुटी हैं, तो औने-पौने मुआवजे में ही किसान के परिवार के बच्चे अपनी जमीन धंघा करने वालो को बेच देते हैं।

इसका असर इस हद तक पड़ा है कि नागपुर शहर में बन रहे अंतरर्राष्ट्रीय कारगो के लिये मिहान परियोजना के अंतर्ग्रत 600 किसान परिवार ऐसे हैं, जिनके बच्चों ने जमीन के बदले मोटरसाइकिल या फिर एक जीप की एवज में पीढि़यो को अन्न खिलाती आई जमीन को परियोजना के हवाले कर दिया। जिसपर रियल इस्टेट से लेकर हवाई अड्डे तक का विस्तार हो रहा है। यानी मुआवजा उचित है या नहीं इस पचडे से बचने के लिये धंधेबाजों ने अशिक्षित बच्चो को टके भर का सब्जबाग दिखाया। किसानों की यह त्रासदी कैसे सियासी गलियारे से होते हुये रिसी के खेल में बदल जाती है इसका नया नजारा दिल्ली से सटे उसी ग्रेटर नोएडा में फार्मूला रेस वन के जरीये समझा जा सकता है, जहां मायावती ने किसानों की जमीन हथियाकर रातों रात लैंड यूज बदल दी और राहुल गांधी ने भट्टा परसौल के किसानों के दर्द को उठाकर यूपी की राजनीति को गरम कर दिया। नोयडा और ग्रेटर नोयडा के सारे किसानो का दर्द मुआवजे के आधार पर एक हजार करोड़ के अतिरिक्त मदद से निपटाया ज सकता है। लेकिन इतनी रकम ना तो रियलइस्टेट वाले निकालना चाहते हैं ना ही अलग अलग योजना के जरीये पचास लाख करोड़ का खेल करने वाले विकास के धंधेबाज चेहरे। वहीं दूसरी तरफ किसानों की जमीन पर 28 से 30 अक्टूबर तक जो फार्मूंला वन रेस होनी है, उसमें सिर्फ 500 बिलियन डालर दांव पर लगेंगे।

वैसे, रेस के लिये तैयार 5.14 किलोमीटर ट्रैक तैयार करने में ही एक अरब रुपये से ज्यादा खर्च हो चुका है। ग्रेटर नोयडा में तैयार इस फार्मूला रेस ग्राउड से 10 किलोमीटर के दायरे में आने वाले 36 गांव में प्रति व्यक्ति आय सालाना औसतन दो हजार रुपये है। लेकिन देश का सच यह है कि फार्मूला रेस देखने के लिये सबसे कम कीमत की टिकट ढाई हजार रुपये की है जबकि तीस हजार लोगो के लिये खास तौर से बनाये गये पैवेलियन में बैठ कर रफ्तार देखने के टिकट की कीमत 35 हजार रुपये है और कारपोरेट बाक्स में बैठकर फार्मुला रेस देखने के लिये ढाई लाख रुपये का टिकट हैं। ऐसे में अगर भट्ट-परसौल में आंदोलन के दौर में किसानों के बीच राहुल गांधी को याद कीजिए तो राहुल उस वक्त किसानो के बीच विकास का सवाल फार्मूला रेस के जरीये ही यह कहकर खड़ा कर रहे थे कि मायावती सरकार तो किसानों की जमीन छीन रही है जबकि केन्द्र सरकार फार्मूला रेस करवा रही है। जिसका असर हुआ कि करोड़ों के वारे न्यारे करने वाली रेस को सफल बनाने के लिये सरकार ने फार्मूला वन को भी खेल की कैटगरी दे दी। लेकिन किसानों की खेती की जमीन कुछ इसी तरह के विकास मंत्र के जरीये हडप कर किसान की कैटगरी बदल कर मजदूर कर दी। इसलिये देश का नया सच कलावती या भट्टा परसौल नहीं है बल्कि नागपुर का मिहान प्रोजेक्ट या ग्रेटर नोयडा का फार्मूला रेस वन है जो किसानों की जमीन पर किसान को ही मजदूर बनाकर चकाचौंध फैला रहा है।

12 comments:

  1. जिसे जहां दांव लगता है लहा ले रहा है, किसान मरे या जिये काहे को फिकर करें ये लोग।

    हम ही लोग कौन से कम हैं ।चाहे अनचाहे एकाध फ्लैट सस्ते में लहाना चाहते हैं ताकि फ्यूचर इन्वेस्टमेंट चकाचक रहे। हां ये आत्महत्या वाली प्रवृत्ति चौंकाती जरूर है कि क्या वजह है कि पूर्वी उ प्र वाला या बुंदेलखंड वाला बाहर जाकर कमाने का रास्ता तलाशता है जबकि ये लोग आत्महत्या की ओर बढ जाते हैं।

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  2. विचारनीय एवं गंभीर आलेख

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  3. वाह हमारे नेताओं…जानकारी तो बहुत गम्भीर थी…इसे फ़ेसबुक पर बाँटता हूँ…कलावती को कौन पूछे, यहाँ तो मनमोहन सिंह भी कहीं आकर ठहर जाएँ तो कुछ दिन बाद कुत्ता भी नहीं पूछेगा, क्योंकि चुनाव और सत्ता के चालबाजों के लिए इसका कोई अर्थ नहीं होता, जैसे फिल्म वाले हर किसी के लिए महान बने फिरते हैं वैसे ही ये सत्ताधीश लोग हैं…महाराष्ट्र तो अन्ना का है…

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  4. प्रसून जी आप लो इन विषयो पर मिशन बना कर काम करो तो बेहतर होगा....

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  5. अफ़सोस है की इन नेताओ पैर नकेल कसने के लिए कोई नहीं है, आखिर election के बाद बस जनता तमाशे का बन्दर बनती है और बाकि तमाशा देखने वाले,
    समाधान क्या है इन सबका ?

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  6. मौकापरस्त कौन नहीं?

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  7. बेमिसाल, ये लहजा और इतनी बारिक पकड़ की उम्मीद आपसे ही की जा सकती है और विसे भी अप तो विधर्भ को नजदिक से जानते है सर .....

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  8. बड़ी अजीब तस्वीर है सियासत की । ऐसी ही तस्वीर को बनाने राहुल यूपी दौरे पर निकल रहे हैं। विधानसभा चुनाव में राहुल को यूपी में भी एक कलावती की जरुरत हैं जो प्रदेश में राहुल फैक्टर को साबित कर सके।

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  9. ye india vs bharat ka khel hai aur tasveer bhie india vs bharatke hi apne dikhai hai.

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  10. ye india vs bharat ka khel hai aur tasveer bhie india vs bharatke hi apne dikhai hai.

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  11. आदरणीय महोदय,
    अमृता जी का हौज खास वाला घर बिक गया है। कोई भी जरूरत सांस्कृतिक विरासत से बडी नहीं हो सकती। इसलिये अमृताजी के नाम पर चलने वाली अनेक संस्थाओं तथा इनसे जुडे तथाकथित साहित्यिक लोगों से उम्मीद करूँगा कि वे आगे आकर हौज खास की उस जगह पर बनने वाली बहु मंजिली इमारत का एक तल अमृताजी को समर्पित करते हुये उनकी सांस्कृतिक विरासत को बचाये रखने के लिये कोई अभियान अवश्य चलायें। पहली पहल करते हुये भारत के राष्ट्रपति और पंजाब सरकार के संस्कृति सचिव को मै इस संदर्भ में एक पत्र अवश्य भेज रहा हुँ। a href="http://fresh-cartoons.blogspot.com/"एक पहल आप भी अवश्य करें!!/a

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