दिल्ली में जंतर-मंतर पर अन्ना के साथ मंच पर बैठे राजनीतिक दल के नेताओं में से एक ने जब लोकपाल के ढांचे पर अरविंद केजरीवाल से सवाल किया किया गया कि वह 40 से 50 ईमानदार कर्मचारी कहा से लायेंगे। तो केजरीवाल ने बेहद मासूमियत से जवाब दिया कि सवाल ईमानदार कर्मचारियो का नहीं है, बल्कि ईमानदार व्यवस्था का है। जैसे रेलवे में भ्रष्ट अधिकारी दिल्ली मेट्रो से जुड़ते ही ईमानदार कैसे हो जाता है। इसका मतलब है बदलाव कर्मचारियों में व्यवस्था बदलने के साथ ही होगा। जाहिर व्यवस्था बदलाव की इस सोच को अगर सीबीआई के अक्स में देखें तो एक नया सवाल खड़ा हो सकता है कि सीबीआई के स्वायत्त संस्था होने के बावजूद सत्ता ने जब चाहा अपने अनुकुल हथियार बना कर सीबीआई को पैनी धार भी दी और भोथरा भी बनाया। यानी सत्ता के तौर-तरीके अगर देश के बदले सत्ता में बने रहने या निजी लाभ के लिये काम करने लगे तो फिर कोई भी स्वायत्त सस्था भी कैसे सरकार के विरोध की राजनीति करने वाले को सत्ताधारियों के लिये दबा सकती है, यह सीबीआई के जरिए हर मौके पर सामने आया है।
सीबीआई को लेकर किसी के भी जेहन में बोफोर्स घूसकांड से लेकर बाबरी मस्जिद में नेताओं को फांसने और क्लीन चिट देना रेंग सकता है। बोफोर्स कांड में गांधी परिवार के करीबी क्वात्रोकी को लेकर सीबीआई ने तीन बार यू टर्न लिया। और बाबरी कांड में लालकृष्ण आडवाणी को क्लीन चिट देने की पहल कैसे रायबरेली कोर्ट में हुई यह भी किसी से छुपा नहीं है। लेकिन सत्ता के लिये कैसे सीबीआई सत्ता के निर्देश पर काम करता है यह कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ने ऐसे ऐसे प्रयोग किये हैं कि सीबीआई देश में जांच एजेंसी से ज्यादा पिंजरे में बंद शेर लगने लगा है। जिसे पिंजरे से खोलने का डर दिख कर सत्ता अपनी सत्ता बचाती है।
सीबीआई को सांप-सीढ़ी के खेल में कैसे बदला गया इसका पहला खुला नजारा अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए की सत्ता में 1998 में ही नजर आया था। तब सरकार बनाने में वाजपेयी के पीछे जयललिता भी खड़ी थी । तो एनडीए ने सत्ता में आते ही जो पहली चाल चली वह जयललिता के खिलाफ सीबीआई की उस जांच को रोक दिया जो जन्मदिन में मिली भेंट के तौर पर करोड़ों के डिमांड-ड्राफ्ट को लेकर 1996 में करुणानिधि सरकार ने शुरू की थी। तब जयललिता को जन्मदिन पर 89 डिमाड ड्राफ्ट मिले थे। जिसमें ब्रिटेन और अमेरिका से भी एक-एक ड्राफ्ट आया था। जांच इनकम टैक्स के डायरेक्टर जनरल ने शुरु की और मामला सीबीआई तक जा पहुंचा।
लेकिन वाजपेयी सरकार से जयललिता की खटपट भी जल्द शुरु हो गयी और अप्रैल 1999 में जब जयललिता ने समर्थन वापस ले लिया और उसके बाद वाजपेयी सरकार गिर गई। लेकिन संयोग से चुनाव बाद जैसे ही वाजपेयी सरकार को बहुमत मिला तो इस बार एनडीए के खिलाड़ी बदल गये और जयललिता की जगह करुणनिधि ने ले ली. इसके फौरन बाद सीहीआई को निर्देश दिया गया कि जयललिता की बंद फाइल खोल दी जाये। और इस बार सीबीआई ने अपने असली दांत दिखाये। 15 महीने में सीबीआई ने चार्जसीट तैयार कर ली। यह अलग मसला है कि फिर सरकार ने जयललिता के खिलाफ कार्रवाई पर ही रोक लगा दी।
सीबीआई को सांप सीढी बनाने का ऐसा ही खेल कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव को लेकर खेला। आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में जिस सीबीआई ने मुलायम को घेरा उसी सीबीआई ने मुलायम को बेदाग कहने में भी हिचक नहीं दिखायी। यह हुआ कैसे यह दुनिया के किसी भी खेल से ज्यादा रोचक है। नवंबर 2005 में मुलायम के खिलाफ जब वीएन चतुर्वेदी ने करोड़ों की संपत्ति बटोरने के तथ्य रखे तो कोर्ट ने मार्च 2007 में सीबीआई को प्राइमरी जांच का निर्देश दिया। सीबीआई ने अपनी कार्रवाई शुरू की और जांच के बाद माना कि मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार वालों के खिलाफ मामला बनता है। इसलिये केस दर्ज करने के लिये सीबीआई ने अदालत का दरवाजा खटकटाया। लेकिन इसी बीच मनमोहन सरकार परमाणु डील पर फंस गयी। वामपंथियों ने समर्थन वापस लिया तो मनमोहन सरकार को मुलायम की जरूरत आन पड़ी। जुलाई 2008 में लेफ्ट ने समर्थन वापस लिया। और जुलाई में ही मुलायम की बहू डिंपल का पत्र प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दफ्तर यह कहते हुये पहुंचा कि उन्हे फंसाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने मुलायम की बहू के पत्र का जवाब देने में देर नहीं की और सीबीआई से इस पर कानूनी सलाह लेने की बात कही। संसद में वोटिंग हुई तो सरकार बच गयी।
मुलायम की पार्टी ने मनमोहन सरकार का साथ दिया। तीन महीने बाद ही सोलिसिटर जनरल वाहनवति ने अदालत में दलील दी की मुलायम के परिवार की संपत्ति को जांच के दायरे में लाना ठीक नहीं। और बीस दिन के बाद दिसबंर 2008 में ही सीबीआई ने मुलायम के खिलाफ मामले में यू दर्न लेते हुये कोई मामला ना बनने की बात कही। और मुकदमा दर्ज करने की भी जरूरत से इंकार कर दिया। झटके में खेल बदल गया तो 10 फरवरी 2009 को मुलायम के मामले की सुनवाई कर रहे सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस सायरस जोसेफ को कहना पड़ा कि सीबीआई के कामकाज का तरीका ऐसा लगता है जैसे वह केन्द्र सरकार और कानून मंत्रालय के लिये काम कर रही है। लेकिन जब खिलाड़ी ही खेल बदलने लगें तो रेफरी क्या करे। फैसला सुरक्षित हो गया।
लेकिन मायावती को लेकर तो सीबीआई के जरिए सांप-सीढ़ी से आगे का खेल भाजपा और काग्रेस दोनों ने खेला। पहले वाजपेयी की अगुवाई वाले एनडीए ने , तो उसके बाद मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए ने। यह खेल कही ज्यादा ही रोचक रहा। ताजमहल के पीछे खुले आसमान में कॉरिडोर बनाने के मायावती के सपने को लेकर वाजपेयी सरकार तबतक आं,ा मूंदे रही जब तक मायावती का समर्थन मिलता रहा। लेकिन अगस्त 2003 में जैसे ही मायावती ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस लिया वैसे ही सीबीआई ने मायावती के खिलाफ 175 करोड़ के ताज प्रोजेक्ट के मद्देनजर ना सिर्फ केस रजिस्टर किया बल्कि घर और दफ्तर पर सीबीआई के ताबड़तोड़ छापे भी पड़ने लगे।
2004 में यूपीए की सत्ता बनने का मौका आया तो सोनिया गांधी ने मायावती का दरवाजा खटखटाया और सत्ता में मनमोहन सिंह के आते ही ताज कोरिडोर मामले पर सीबीआई खामोश हो गयी। राज्यपाल टीवी राजेश्वर ने मायावती के खिलाफ ताज फाइल बंद करवा दी। लेकिन 2007 में जैसे ही मायावती की यूपी की सत्ता में घमाकेदार वापसी हुई वैसे ही कांग्रेस को लगा कि माया की कोई ना कोई पूंछ तो पकड कर रखनी ही होगी। नहीं तो जयललिता की तर्ज पर यह भी कभी भी फिसल सकती है। तो सत्ता मे आने के बाद के जश्न में मने जन्मदिन के मौके पर सरकार ने घेराबंदी की। केस रजिस्टर हुआ। मामला आगे बढ़ा। मनमोहन सरकार 2010 में कट मोशन के दौरान सदन में फंसी तो 23 अप्रैल 2010 को इनकम टैक्स और सीबीआई माया के खिलाफ सक्रिय हो गई। 27 अप्रैल को सरकार कट मोशन मे मायावती के समर्थन से बची तो तुरंत ही इनकम टैक्स ने मायावती को आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में अपनी तरफ से क्लीन चिट दे दी। लेकिन अब यूपी के विधानसभा चुनाव करीब हैं और राहुल गांधी कांग्रेस की नैया पार लगाने में यूपी के हर नुक्कड़-चौराहे पर मायावती को घेर रहे हैं तो सितबंर 2011 में सीबीआई ने इन्कम टैक्स विभाग से अपनी जांच को अलग रखते हुये कोर्ट में बयान दिया कि इनकम टैक्स के कहने भर से मायावती की फाइल बंद नहीं की जा सकती। जो धन मायावती के पास आया है उसकी जांच जरूरी है, कहीं यह पूंजी अपराधिक गठजोड से तो नहीं आई। तो, जो मामला इनकम टैक्स विभाग के जरिए सीबीआई तक पहुंचा उसी मामले में इनकम टैक्स को ओवरटेक कर सीबीआई ने अपनी जांच के पैंतरे को बदल दिया।
हुआ यह कि 18 नवंबर 2011 को सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला आया तो सुनवाई की अगली तारीख 1 फरवरी 2012 तय की गई। यानी ऐसी तारीख जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचार चरम पर होगा। वैसे मोके पर मायावती के खिलाफ मामला जाये या समर्थन में दोनों परिस्थितियो में यह तो तय है कि चुनाव के केन्द्र में मायावती ही होगी। यानी सांप-सीढी का ऐसा खेल जिसमें सीबीआई के घेरे में जो आया वह ऊपर जा कर भी नीचे आयेगा और नीचे से ऊपर की चढ़ान भी डर से चढ़ ही लेगा। अब ऐसे खेल में लोकपाल की कितनी ज्यादा जरूरत देश को है और देश के सामने वह कौन सा फार्मूला है जिसमें सत्ताधारी भविष्य में अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये नहीं बल्कि देश में ईमानदारी बचाने के लिये खेल खेलेंगे। और जो सवाल जंतर-मंतर पर ईमानदार कर्मचारी का उठा वह नये तरीके से संसद में कल नहीं उटेगा इसकी गांरटी कौन ले सकता है।
चतुर वकीलों को बाडीगार्ड बनाये, जो माफिया पूरी ताकत से अपने आप को बचाने की जुगत में लगा है वह अपने इस शस्त्र को इतनी आसानी से हाथ से नहीं जाने देगा।
ReplyDeleteलोकपाल बिल पास नहीं होगा, हंगामा अब 2012 में खिसकेगा ।
वकीलों के गिरोह का सरगना वकील अगर 7 जनवरी को गिरफ्त में आया तो फिर खेल का रुख बदलेगा !!
प्रसून जी ईमानदारी का सवाल हमारे मनोविज्ञान और संस्कार से जुडा हैं, देश में आलपिन से लेकर पुरे खजाने को लुटने के लिऐ कानून हैं, पर उपयोग कौन कैसा करता हैं,सी बी आई का इस्तमाल होता हैं ये बाते क्या सी बी आई को महसूस होने वाला तमाचा पही हैं, क्या अनपढ नेताओ के सामने हमारा आई एस आई पी एस नमस्तक नही हैं,कहां मर जाता हैं आत्मस्वाभिवान, इसलिऐ लोकपाल एक लोकलुभावना नारे के सिवा कुछ नही , हम बेहतर शिक्षा संस्कार की बाते करे तो बेहतर होगा,
ReplyDeleteआपने आर्टिकल तो बहुत अच्छा लिखा है पर पड़कर दुःख हुआ!
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