Monday, February 27, 2012

बंदूक के साथ कलम थामे हाथ : "स्क्रिप्टिंग द चेंज"

जब वामपंथी धारा बैचारिक तौर पर कमजोर लग रही हो,जब राइट की समूची सोच सत्ता को ही वैचारिक आधार मान रही है। जब अतिवाम का संघर्ष भी हिंसा की कहानी से आगे ना बढ़ पा रहा हो तब क्या कोई लेखन एक नयी धारा और वैचारिक सोच को धार दे सकती है। खास तौर से तीस बरस तक माओ की थ्योरी, सत्ता बंदूक की नली से निकलती है वाली धारा के साथ जुड़े रहे और मौत के बाद जो लेखन सामने आये वह राज्य सत्ता के लोकतंत्र को तानाशाही वाले चेहरे में देखे और बंदूक से इतर सामाजिक-आर्थिक कैनवास में देश को संजोकर एक बेहतर समाज की कल्पना। यह सब रोमानी लग सकता है लेकिन आर्थिक सुधार तले सरोकार की राजनीति को हाशिये पर ढकेल जब आम आदमी की रोटी से लेकर कॉरपोरेट के पांच सितारा जीवन को सत्ता विकास के अक्स से जोड़ने लगे तब यह रोमानीपन भी एक नयी विचारधारा हो सकती है। क्या इससे इंकार किया जा सकता है।

दरअसल यह तो आज के दौर में सत्ता अपने आप में सबसे बडी विचारधारा मान ली गई है। ऐसे वक्त में सुधार के सवाल ही विकल्प मान लिये जाते हैं। ऐसे वक्त में नक्सलवादी अनुराधा गांधी के लेखन राजनीतिक सत्ता के अर्थशास्त्र को चुनौती देती है और हर उस मुद्दे पर सवाल-जवाब करते हुये सत्ता को कटघरे में खड़ा करती है, जिन मुद्दों को सियासत अपने रंग में रंग कर देश के इतिहास को ही आर्थिक सुधार तले बेमानी करार दे रही हो, तो संकेत साफ है कि बदलाव की धारा देश में अब भी बची हुई है। खासकर जाति,आरक्षण, दलित, आदिवासी और मजदूरों से जुड़े उत्पादन का सवाल। देश की समूची राजनीति या कहे हर राजनीतिक दल की जमीन ही जब इन्हीं मुद्दों के आसरे अपनी सियासत को चमकाने में लगी हो ऐसे दौर में कोई किताब अगर जातीय व्यवस्था के पीछे की राजनीति पर एतिहासिक तथ्यों के आधार पर सवाल खड़ा करें। आरक्षण के पीछे राजनीतिक लाभ पर समाज को टिका कर संघर्ष कुंद किये जाने के तथ्यो को रखें। दलितों के सवाल को ज्योति बा फूले से लेकर आंबेडकर और ई वी रामास्वामी यानी पेरियार के आत्मसम्मान आंदोलन से लेकर कांशीराम के सियासी दलित सम्मान के आंदोलन में दलितों के निजपन को टटोलें। आदिवासियों को जंगल की तर्ज पर खत्म करने के ब्रिटिश व्यवस्था से लेकर मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार के दौर का विश्लेषण राजनीतिक संघर्ष को उकसाये। और इन सब के बीच मजदूर शब्द को ही खत्म कर बीपीएल और मनरेगा सरीखे योजनाओ में समेटने का प्रयास हो।

तो जाहिर है यह आहट विकल्प से ज्यादा परिवर्तन की है। असल में जो लिखा जा रहा है, जो पढ़ाया जा रहा है उससे हटकर एतिहासिक परिपेक्ष्य में देश के इन मुद्दो को समझने और समझाने पर तर्क करती किताब "स्क्रिप्टिंग द चेंज" है। अनुराधा गांधी के लिखे हुये पन्नों को समेटकर इसे किताब की शक्ल में लाने का काम मुंबई के मानवाधिकार कार्यकर्ता आनद तेलतुंबडे और नागपुर यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर शोमा सेन ने किया है ।

सत्तर,अस्सी,नब्बे के दशक में मुबंई के एलफिस्टोन कॉलेज से लेकर विदर्भ, बस्तर और झारखंड के जंगल तक के सफर के दौरान कलम और बंदूक साथ साथ उठाये देश को समझने और समझाने की ही जद्दोजहद करती अनुराधा गांधी की "स्क्रिप्टिंग द चेंज" लेखन और आंदोलन को लेकर नयी परिभाषा गढ़ती है। करीब 4 बरस पहले झारखंड के जंगलों में जानलेवा मलेरिया होने के बाद मुंबई के अस्पताल में मौत के बाद अनुराधा गांधी को लेकर माओवादी-नक्सलवादियों से लेकर सरकार के सामने यही तथ्य उभरे कि अनुराधा गांधी सीपीआई एमएल पीपुल्स वार में सेन्ट्रल कमेटी की पहली महिला सदस्य थी। महाराष्ट्र में सीपीआई एमएल को स्थापित करने वाले सदस्यो में से थी। और विदर्भ से लेकर बस्तर तक के जंगलों में आदिवासी महिलाओ और शहरी कामगारों के बीच काम करने से पहले मुंबई के आधुनिक एलफिस्टोन कालेज में दुनिया के हर मुद्दे पर चर्चा करते वक्त परिवर्तन की धारा की वकालत करने वाली लड़की थी। संयोग से "स्क्रिप्टिंग द चेंज" ऐसे वक्त सामने आयी है जब सीपीआई एमएल पीपुल्स वार का कमोवेश साठ फीसदी नेतृत्व या तो एनकाउंटर में मारा जा चुका है या फिर जेल में है। और विचारधारा या वैचारिक तौर पर देश की व्यवस्था में कोई प्रभाव डालने की स्थिति में भी आंदोलन नहीं है। साथ ही कोई राजनीतिक दल भी सत्ता के चुनावी तंत्र से इतर संसदीय राजनीति को जीने की स्थिति में भी नहीं है। और देश की मुनाफा केन्द्रित अर्थव्यवस्था से इतर कोई राजनीतिक व्यवस्था भी देश में मायने नहीं रख पा रही है। ऐसे में "स्क्रिप्टिंग द चेंज" पहला सवाल जातिय व्यवस्था की राजनीति पर करती है।

कैसे सामाजिक सुधार राष्ट्रवाद और वाम आंदोलन के दायरे में चला। कैसे जाति-विरोधी संघर्ष वर्ग-संघर्ष का हिस्सा बना और कैसे वर्ग संघर्ष जातीय हिंसा तले राजनीतिक जातीय व्यवस्था को मजबूत करते चला गया । इसी तरह आरक्षण भी कैसे सुधार नीति है जो राहत तो देती है लेकिन स्वतंत्रता नहीं। और किस तरह दलितों के हक को सफेदपोश नौकरी पाने की ललक में खत्म कर देती है। साथ ही मध्यम वर्ग से टकराव पैदा कर आरक्षण को राजनातिक मसाला बना दिया गया। और इससे सत्ताधारियों के खिलाफ कैसे वह आंदोलन सत्ता के ही औजार बन गये जिसे सत्ता के खिलाफ बाबा साहेब आंबेडकर खड़ा करना चाहते थे। दरअसल "स्क्रिप्टिंग द चेंज" की सबसे बडी महत्ता अतिवाम आंदोलन के सामानांतर वह लेखन है जो आंदोलन की कमजोरी के साथ साथ हर मुद्दे को एतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने को बाध्य करता है। यानी लोगों के बीच उन्ही के सवालों को लेकर संघर्ष करता कोई एक्टीविस्ट आंदोलन की सीमाओं से बाहर जा कर जिन रास्तों से परिवर्तन हो सकता है उसे पन्नों पर उकेरता भी है और उन रास्तो पर आंदोलन क्यों नहीं चल पा रहा है इसे महसूस भी करता है , ऐसे में लेखन किस तरह दस्तावेज की तरह बंद कमरे से बाहर संघर्ष को शब्द देते है यह "स्क्रिप्टिंग द चेंज" को पढ़ते वक्त बखूबी महसूस किया जा सकता है। चूंकि "स्क्रिप्टिंग द चेंज" में नक्सलवादी पत्रिकाओं के अलावे इक्नामिक एंड पालिटिकल वीकली और फ्रंटियर में छपे लेखों का संग्रह तो है ही इसके अलावे अनुराधा गांधी के उन लेखों को भी शोमा सेन ने सहेजा है जो नागपुर में अनुराधा गांधी की किताबों के ढेर और कागजों में हाथ से लिखे लेख और कही ना छपे कटे-फटे जेरोक्स लेखों का कॉपी है। इसमें नक्सली संगठन पीपुल्स वार यानी उच्च-मध्यम तबके के परिवार से निकली अनुराधा गांधी के जहन में आंदोलन करते करते बंदूक थामना और संसदीय लोकतंत्र की दुहाई देते हुये राजनीतिक सत्ता की तानाशाही पर मोहताज समाज में स्वतंत्र अभिव्यक्ति तक पर बंदिश के सवालों में उत्पादन से जुडे मजदूर को खत्म करने की सोच कैसे चल रही है।

यह बेहद महीन तरीके से इससे पहले कहीं ना छपे लेखों में है। यानी जहां बंदूक चुक रही है या फिर बंदूक क्यों मजबूरी बना दी गई है और इन परिस्थितियो में कोई एक्टीविस्ट क्यों सोच रहा है जो बंधूक की बंदिशे लागू नहीं करा पाती और राज्य बंधूक को ही मुद्दा बनाकर असल मुद्दे से परिस्थितियों को अलग कर देता है । खासकर महिलाओं के संघर्ष के सवालो से लेकर ट्रेड यूनियन चलाने के दौरान कैसे ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत संरचना के लिये टाप कारपोरेट घरानों के उघोग-धंधो के बीच रहते हुये जूझना पड़ता है, यह नागपुर के नजदीक खापडखेडा से लेकर महाराष्ट्र की सीमा पर चन्द्रपुर-गढचिरोली तक के संघर्ष के दौरान के लेखन से समझा जा सकता है । असल में "स्क्रिप्टिंग द चेंज" बंदूक के मुकाबले कलम की ताकत का एहसास भी कराती है और जब विकल्प के सवाल गौण हो चुके हो तब परिवर्तन का माद्दा पाले कोई किताब वैचारिक तौर पर दूर एक टिमटिमाती रोशनी की तरह चमके तो कुछ तो बात होगी । यूं किताब की प्रस्तावना लिखते वक्त अरुणधंति राय भी मानती है कि उन्हे मलाल रहा गया कि उनकी मुलाकात अनुराधा गांधी से क्यों नहीं हुई ।

Tuesday, February 21, 2012

जल्दी में क्यों है मनमोहन सिंह ?

राहुल गांधी जिस तेजी से चुनाव प्रचार के जरिए यूपी को नाप रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा तेजी से मनमोहन सिंह इस वक्त आर्थिक सुधार के रास्ते पर चल निकले हैं। राहुल के निशाने पर यूपी का पिछड़ापन और विकास का नारा है, तो मनमोहन सिंह का रास्ता पहली बार हर मंत्रालय के कामकाज में तेजी लाने के लिये सीधे निर्देश देने में लगा है। राहुल गांधी के सामने यूपी में संकट अगर काग्रेस के संगठन का ना होना है तो मनमोहन सिंह के सामने विकास दर सात फीसदी से नीचे जाने का है। हालांकि राहुल गांधी के सामने परिणाम की तारीख 6 मार्च तय है, लेकिन मनमोहन सिंह के सामने कोई निश्चित तारीख नहीं है जहां वह ठहरकर कह सकें कि उनका काम पूरा हुआ और देश के सामने जो परिणाम वह देना चाहते थे वह आ गया। लेकिन इस दौर में पीएमओ कितना सक्रिय है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सीमेंट फर्मो को सर्टिफिकेट देने से लेकर कोयला उगाही तक के निर्देश पीएमओ ही दे रहा है।

पावर प्लांट, खनन, बंदरगाह, सडक से लेकर फॉर्मा सेक्टर और तेल गैस मंत्रालय तक को पीएमओ यह बता रहा है कि अगले तीन महीनों में कैसी रूपरेखा उसे बनानी है जिससे कारपोरेट या निजी क्षेत्र के निवेश में कोई रुकावट ना आये। इतना ही नहीं देश के इन्फ्रास्‍टक्‍चर के दायरे में हर उस परियोजना को भी कैसे लाया जाये जिससे रुकी हुई योजनायें रफ्तार भी पकड़ सकें और अंतराष्‍ट्रीय तौर पर अब यह संकेत भी ना जाये कि स्पेक्ट्रम घोटाले के उलझे तार में नौकरशाही कोई काम कर नहीं रही है। असल में सरकार के नीतिगत फैसलों के बावजूद बीते डेढ़ बरस से जिस तरह हर मंत्रालय से कोई फाइल आगे बढ नहीं रही कारपोरेट और निजी कंपनियो की किसी भी मंत्रालय में किसी भी फाईल पर नौकरशाह चिडि़या बैठाने से कतरा रहे हैं और मंत्री को यह भरोसा नहीं है कि नौकरशाह के नियम-कायदों पर हरी झंडी दिये बगैर वह कैसे किसी योजना को हरी झंडी दे दे।


इससे आहत मनमोहन सिंह ने अब सीधे कमोवेश हर उस मंत्रालय का काम अपने हाथ में ले लिया है जहां फाइल आगे बढ़ ही नहीं रही थी। इस वक्त देश में दो दर्जन से ज्यादा पावर प्लांट ऐसे है जिन्हें कोयला मिलने लगे तो वह अगले छह महीनों में बिजली पैदा करने की स्थिति में आ सकते हैं। लेकिन कोल इंडिया कोई निर्णय ले नहीं रहा। तो पीएमओ कोयला मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखकर निर्देश दे रहा है कि जिन विदेशी कंपनियों के साथ मिलकर देश में पावर प्लांट का काम ठप पड़ा है उन्हें तुरंत कोयला उपल्बध कराने के लिये विस्तार योजना फौरन बने और अगर जरूरी हो तो कोयला आयात किया जाये। इस तरह के निर्देश कमोबेश हर मंत्रालय के सचिव के पास आ चुके हैं। आलम तो यह है कि सीमेंट बनाने वाली कंपनियों के सर्टिफिकेट के मद्देनजर भी कारपोरेट अफेयर मंत्रालय के पास यह कहकर चिट्टी भेजी गई कि वह अपनी राय दें कि कौन सही है कौन गडबड़ी कर रहा है।

पीएमओ काम किस तेजी से करना चाहते है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि ऐसा ही पत्र एसआईएफओ और सीसीआई यानी सीरियस फ्रॉड इंवेस्टिगेशन ऑफिस और कंपीटिशन कमीशन ऑफ इंडिया को भी भेजा गया। लेकिन पीएमओ के कामकाज की इस तेजी को सिर्फ पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था को ठीक करने या फिर विकास दर को 8 फीसदी के पार पहुंचाने भर से देखना भी भूल होगी, क्योंकि जिन मंत्रालयों में अटकी फाइलो को निपटाने के लिये पीएमओ सक्रिय है उन योजनाओं में नब्बे फीसदी ऐसी है जो किसी ना किसी रूप में बहुराष्ट्रीय कंपनियो के मुनाफा कमाने को रोके हुये है. और अमेरिका सरीखे देश का रोजगार तक उन अटकी योजनाओं से अटका पड़ा है। मसलन मध्यप्रदेश के सिंगरौली में अगर पांच-पांच करोड़ रुपये खर्च कर भी चार पावर प्लांट कोयला ना मिलने से रुके हुये हैं तो रिलांयस के अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट को इसलिये हरी झंडी मिली है क्योंकि 40 हजार करोड के इस प्लांट में 1700 करोड रुपये एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक ऑफ अमेरिका का फंसा हुआ है।

अमेरिकी कंपनी बूसायरस रिलांयस के इस प्लांट को सारी मशीने बेच रही है। जिससे हजार से ज्यादा अमेरिकियों को रोजगार मिल रहा है। अमेरिकियों के बेरोजगारी का असर यह है कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण एनजीओ ग्रीनपीस ने जब सिगरौली के ग्रीन बैल्ट को लेकर पावर प्लांट पर अंगुली उठायी और वहां के कोयले में सल्फर की मात्रा ज्यादा होने के तथ्यों को सामने रखा तो पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने काम रुकवा दिया, लेकिन अमेरिका में जब एक्सोर्ट-इंपोर्ट बैक और बूसायरस केपनी ने अपनी लॉबिंग ओबामा तक यह कहकर कि इससे अमेरिका में रोजगार भी रुकेगें तो दिल्ली से प्लांट का काम शुरू करवाने में देर नहीं लगी और ना सिर्फ प्लांट में काम शुरु हुआ बल्कि रिलांयस के कोयला खादान भी चलने लगे। दरअसल इस वक्त मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और उड़ीसा में स्टील फैक्‍टरी से लेकर पावर प्लांट और खनन से लेकर सड़क-बदरगाह तक के इन्फ्रस्‍टक्‍चर से जुड़े 90 से ज्यादा योजनाओं के पीछे निवेश करने वाली कंपनियां या बैक ना सिर्फ बहुराष्ट्रीय हैं बल्कि आलम यह भी है उन इलाकों में अब चीन से लेकर जापान तक मजदूर भी काम कर रहे हैं। और यह योजनायें रुके नहीं इसके लिये खासतौर से हर उस मंत्रालय को निर्देश हैं जिसके दायरे में योजनायें आ रही हैं।

यानी देश में बनती योजनायें कैसे भारत को सिर्फ बाजार मान रही है और इसी बाजार के आसरे कैसे भारत अपने विकास दर की छलांग को देख रहा है इसका सबसे अद्भुत नजरा बोकारो के करीब नक्सल प्रभावित क्षेत्र चंदनक्यारी में स्टील प्लाट के कामकाज को देखकर भी समझा जा सकता है. यहां साहूकार की भूमिका में अमेरिका है, विशेषज्ञ की भूमिका में ऑस्ट्रेलियाई आफिसरो की जमात है, और माल सप्लाई से लेकर कामगारों की भूमिका में चीन है। यहां आदिवासियों के बीच चीनी मजदूर पुलिस की खास सुरक्षा में काम करते हैं और जमीन गंवा चुके ग्रामीण आदिवासी विदेशी कामगारों की सेवा करते हैं। ऐसे में यह सवाल वाकई अबूझ है कि जिन विकास योजनाओं में तेजी लाने की जल्दबाजी में पीएमओ है उसकी वजह है क्या। क्योंकि यूपी के चुनाव परिणाम सिर्फ राहुल गांधी को प्रभावित करेंगे ऐसा भी नहीं है। जीत-हार दोनों ही परिस्थितियों की आंच केन्द्र सरकार तक भी पहुंचेगी इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

Monday, February 20, 2012

राजनीतिक अर्थशास्त्र की सत्ता

आर्थिक सुधार के साथ जिस अर्थशास्त्र के पाठ को देश के विकास के साथ जोड़ दिया गया है, उसके दायरे में सिर्फ महानगरीय जीवन और शहरी बाजार व्यवस्था ही क्यों हैं? और देश के सत्तर फीसदी लोग जो ग्रामीण भारत की व्यवस्था का हिस्सा है, उनके लिये यह आधुनिक अर्थशास्त्र मायने क्यों नहीं रखता। बावजूद इसके सत्ता का आधुनिक प्रतीक इसी अर्थशास्त्र को ही क्यों माना जा रहा है, जिसके सरोकार आम लोगो के साथ जुड़ नही पाते। यह सवाल अब इसलिये कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं क्योंकि अर्थशास्त्र के नये पाठ में न्यूनतम जरुरतों को भी मुनाफे के हाथ ही पूरा करने की समझ विकसित हो चली है। और यही समझ देश को हांकने के लिये कैसे काम करती है यह बजट तैयार करने के लिये देश के बारे में समझ रखने वाले जाने माने अर्शास्त्रियों के तथ्यों ने और ज्यादा उभार दिया। 2012-13 का बजट तैयार करने के लिये पारंपरिक तौर पर देश के जाने माने अर्थशास्त्रियों के साथ बैठकों का सिलसिला एक फरवरी से शुरु हुआ। यूं भी बजट के जरीये देश को समझना और देश को समझने की स्थिति में बजट बनाना दोनों दो परिस्थितियां है।

इसके प्रयोग नेहरु के दौर से वाजपेयी के दौर तक बजट तैयार करते वक्त होते रहे है। लेकिन मनमोहन सिंह के दौर में पहली बार जिस अर्थशास्त्र के जरीये देश को समझने का प्रयास लगातार हो रहा है, उसने अब यह संकट भी दिखाना शुरु किया है कि क्या वाकई आर्थिक सुधार की गति इतनी आगे बढ चुकी है कि देश का बहुसंख्यक हिस्सा पीछे छूट चुका है। और आधुनिक अर्थशास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता कि समूचे देश को साथ लेकर चला जाये। क्योंकि वित्त मंत्री के साथ बैठे देश के चुनिंदा जाने माने अर्थशास्त्रियों को लगने लगा है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर का घेरा अब बड़ा करने के जरुरत आ चुकी है। यानी अर्थशास्त्री यह मान रहे है कि आजादी के बाद जिन न्यूनतम जरुरतों को इन्फ्रास्ट्क्चर के दायरे में लाया गया, उस पर जितना काम होना था या तो हो गया या फिर देश के इन्फ्रास्ट्क्चर को नये तरीके से परिभाषित करने की जरुरत है। इसलिये अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि अब रियल इस्टेट के जरीये टाउनशीप की सोच को इन्फ्रास्टक्चर से जोड़ दिया जाये । और निजी कंपनियों की हवाई उड़ानों से जो एयरलाइन्स बाजार फल फुल रहा है, उसमें तेजी लाने के लिये भी इन्फ्रस्ट्क्चर के दायरे में एयरलाइन्स को भी ले आया जाये । यानी इन दो क्षेत्रों के विकास के लिये सबसे बड़ा संकट जमीन का है। और अगर यह दोनो सेक्टर इन्फ्रास्ट्क्चर के दायरे में आ जाते है तो सरकार के लिये भी इन क्षेत्रों के सामने जमीन की मुश्किल को दूर करने का रास्ता खुल जायेगा और निजी कंपनिया भी इस क्षेत्र में तेजी से पैर पसारेगी।

इसी तर्ज पर मनमोहन सिंह दौर के अर्थशास्त्री यह भी मानते है कि टैक्स के दायरे में खेती से होने वाली आय को भी लाना जरुरी है। यानी किसान ही नहीं बल्कि हर स्तर पर नकदी फसल से लेकर कारपोरेट फसल से होने वाली आय पर भी टैक्स लगना चाहिये। इससे देश के विकास दर में भी रफ्तार आयेगी। जाहिर है ऐसे बहुतेरे सुझाव देश के अर्थशास्त्रियो ने वित्त मंत्री को दिये। लेकिन जो सवाल इस बातचीत में नहीं उभरा वह उत्पादन को बढ़ने के तरीकों का है। खेती को उघोग की तर्ज पर इन्फ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने का है। ग्रामीण जीवन से रोजगार जोड़ने की दिशा में कदम बढाने का है । राष्ट्रीय खनिज संपदा के जरीये शहर और गांव के बीच बढती दूरी के पाटने का है। तमाम योजनाओं से लीक होने वाला पैसा जाता कहा है चर्चा इस पर भी नहीं हुई। यानी पहली बार समझ में यह भी आ रहा है आधुनिक अर्थशास्त्र का अर्थ बाजार, उपभोक्ता, कारपोरेट, निजीकरण और मुनाफे में ही समूचे देश के विकास का सच देख रहा है। यानी एक जगह से मुनाफा बनाना और दूसरी जगह उस मुनाफे का एक हिस्सा राजनीतिक लाभ देने में लगा देना। इसलिये राजनीतिक लाभ किस तबके को कितना दिया जाये यह मुनाफे की पूंजी पर टिका है। और मुनाफा कैसे बनाया जा सकता है अर्थशास्त्र इसी को कहते हैं। जाहिर है इस परिभाषा के दायरे में देश कैसे बन रहा है यह तो अब किसी से छुपा हुआ नहीं है। लेकिन यही से सवाल निकलता है कि आखिर अर्थशास्त्र का कौन सा पाठ इस दौर में भूला दिया गया और अब उसकी जरुरत आ पड़ी है।

पहली नजर में लग सकता है कि सवाल सिर्फ पाठ भर का नहीं है बल्कि अर्थशास्त्र के जो नियम समाज में आर्थिक पिरामिड बना रहे हैं, जरुरत तो उसे ही उलटने की है। क्योंकि जब देश में न्यूनतम इन्फ्रास्ट्रक्चर भी बीते साठ बरस में बन नहीं पाया है तो फिर आने वाले दौर में न्यूनतम की जरुरतों में फंसे तबके को ही मिटाने की दिशा में आधुनिक अर्थशास्त्र क्यों नहीं सोचेगा। अगर देश में चल रहे आर्थिक नियम-कायदों को समझें तो आजादी के बाद आर्थिक सुधार ने कुछ क्रांतिकारी बदलाव समाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में ला दिया है। मसलन इन्फ्रस्ट्रक्चर की जरुरतें भी सरकार से हटकर कॉरपोरेट हाथों में पहुंच चुकी हैं। मसलन पीने का पानी,शिक्षा, प्राथमिक इलाज, सडक-बस से सफर भी ऐसे सेक्टर में तब्दील हो चुका है जो सुविधाओं के दायरे में है। और इसके जरीये सबसे ज्यादा मुनाफा बनाने की स्थिति में निजी कंपनियां हैं। वहीं दूसरी तरफ जो सुविधायें मानी जाती थी्ं, उन्हें न्यूनतम जरुरतों में इन्फ्रास्ट्रक्चर को बिगाड़कर तब्दील किया जा चुका है। मसलन शहर में रहने वाले के पास दोपहिया गाड़ी या कार, कपडा धोने की मशीन, फ्रीज, टीवी, मोबाईल यह सब न्यूनतम जरुरतें बना दी जा चुकी है। यानी बाजार अर्थव्यवस्था ने उस अर्थसास्त्र को ही बदल दिया, जिसके आसरे किसी भी देश में न्यूतम का संघर्ष पूरे देश के लिये एक सरीखा होता था। अब निचले वर्ग की जरुरत और मझोले वर्ग की जरुरत और उच्च वर्ग की भी न्यूनतम जरुरतें हैं। इतना ही नहीं किसान की जरुरत से लेकर कारपोरेट घरानों की भी जरुरते हैं। अगर किसान को बीज,खाद,सिंचाई से लेकर बाजार तक खाद्दन्न को पहुंचाने का रास्ता चाहिये तो कॉरपोरेट को खनिज संपदा, जमीन और उघोग के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये, जिसके उपर वह विकास का चकाचौंध खड़ी कर सके। मुश्किल यह है कि जो कॉरपोरेट को चाहिये, वह तो सरकार अपनी सियासी सौदबजी के जरीये लाइसेंस या योजनाओं के जरीये बांटती है। लेकिन जो किसान को चाहिये वह भी मुनाफे के सौदेबाजी तले निजी कंपनिया सरकार से ले लेती है और उसके बाद किसान को अपनी अंगुलियों पर ना सिर्फ कीमतों को लेकर बल्कि खेती के तरीको और फसल तक को लेकर नचाती है। यानी कीमत सरकार नहीं निजी कंपनियां तय करती हैं। चाहे वह बीज हो या खाद। और सिंचाई के इन्फ्रास्ट्रक्चर की तो बात ही दूर है। उल्टे खेती की जमीन को ही टाउनशीप से लेकर पावर प्रोजेक्ट और स्टील-सीमेंट फैक्ट्री से लेकर एसआईजेड के लिये हड़पने का सिलसिला ऐसा चला दिया गया है कि खेती की सिचाईं के लिये जो प्रकृतिक व्यवस्था जमीन के नीचे पानी की थी वह भी किसान से दूर हो चुकी है। जमीन के नीचे का पानी आधुनिक क्रंक्रीट की योजनाओं तले इतना नीचे चला गया है कि उससे किसानी करने के लिये इन्हीं निजी हाथों को मुनाफा देकर डीजल खरीदकर मोटर चलाना है।

यानी योजनाओं के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर खेती के इन्फ्रास्ट्रक्चर को खत्म कर रहा है। लेकिन देश को हांकने की स्थिति में यह मुद्दे सरकार के साथ साथ कैसे अर्थशास्त्र के पाठ से भी अलग हो चुके हैं, यह योजना आयोग में बैठे अर्शास्त्रियों से लेकर वित्त मंत्रालय को सुझाव देने वाले अर्थशास्त्रियों के उन सुझाव से समझा जा सकता है, जिनकी प्राथमिकता भारत में निवेश करने वालों के लिये आधारभूत संरचना तैयार करना है। और निवेश का मतलब बाजार का विस्तार है। और विस्तार का मतलब भारत की अर्थव्यवस्था की देसी कीमत को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर आंकते हुये बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कच्चे माल से लेकर कच्चे श्रम को सस्ते में उपलब्ध कराना है। यानी जिस खनिज-संपदा का मोल भारत में कौड़ियो का है, उसे अंतराष्ट्रीय बाजार में भेजने के लिये हर वह उपाय सरकार ही निजी कंपनियो के लिये करती है जो ज्यादा से ज्यादा
मुनाफा विश्व बाजार में बना सके। इसकी एवज में सरकार सिवाय राजनीतिक सौदेबाजी से इतर कुछ कर भी नहीं पाती है। क्योंकि आर्थिक सुधार के बाद से देश में विकास के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर अलग अलग योजनाओं की फेहरिस्त में अस्सी फीसदी काम निजी कंपनियो या कारपोरेट ने किया है। सार्वजनिक उपक्रम को चलाया कैसे जाता है और उसके जरीये लोगों के लिये विकास योजनाओ कैसे बनायी जाती है, यह पाठ आधुनिक अर्थशास्त्र से गायब है। अर्थशास्त्र की नयी समझ यह मानने को तैयार नहीं है सरकार के सरोकार आम लोगों से भी हो सकते है और योजनाओ के जरीये पूंजी की उगाही के साथ साथ रोजगार से लेकर खनिज-संपदा को भी अपने बूते सरकार उपयोग में ला सकती है। सवाल सिर्फ बेल्लारी से लेकर मध्यप्रदेश, झारखंड और उड़ीसा की खनिज संपदा की लूट भर का नहीं है। जहां से करीब पचास लाख करोड़ से ज्यादा के राजस्व का चूना सरकारों की कॉरपोरेट नीति या सबकुछ निजी कंपनियो के हवाले कर विकास के ढोल पिटना भर है। दरअसल आर्थिक सुधार के बाद से कैसे बाजार की हवा में बहने वालों के लिये सबकुछ अपनी हथेलियों पर सिमटना आसान हो गया और कैसे देश का भविष्य भी निजी कंपनियों के हाथो गिरवी होता जा रहा है, यह वैकल्पिक उर्जा के क्षेत्र में लगी पूंजी से समझा जा सकता है। मनमोहन सिंह चाहे परमाणु उर्जा को लेकर बेहद आशावान हो और दुनिया भर की कंपनियों के भारत में परमाणु प्लांट लगाने से विकास दर में भी कुलाचे मारने वाली स्थिति देख रहे हों लेकिन दुनिया के तमाम देश यहल जान चुके हैं कि एक वक्त के बाद सूर्य और हवा के जरीये पैदा होने वाली उर्जा खासी जरुरी भी होगी और मुनाफा भी देगी। और भारत की त्रासदी यह है कि वैकल्पिक उर्जा के नाम पर कैबनेट स्तर का मंत्री भी है और भरा-पूरा मंत्रालय भी काम कर रहा है लेकिन उसका काम सिर्फ वैकल्पिक उर्जा वाले क्षेत्रो को कमीशन ले कर बेचना भर है । समुद्र इलाके की वह सारी जमीन जहा पवन चक्की चल सकती है और जहा सूर्य की तीक्ष्ण उर्जा होती है, वह सब निजी कंपनियों को बेचा जा चुका है । और यह सभी अभी से एनटीपीसी को बिजली बेचते हैं। और दस बरस बाद जब इसकी जरुरत और कीमत दोनो आसमान छूएंगे तो सरकार भी निजी कंपनियों की मनमानी कीमत के सामने वैसे ही नतमस्तक होगी जैसे आज अंबानी के हाथ में गैस और निजी कंपनियो को पेट्रोल-डीजल को सौंपकर सियासी चालो में ही देश की जरुरत की सौदेबाजी कर रही है। ऐसे बहुतेरे तथ्य यह सवाल खड़ा कर सकते हैं कि क्या सरकार के पास वाकई कोई अपना अर्थशास्त्र नहीं है, जिसके जरीये लोगों की जरुरत के अनुकुल देश को आगे बढ़ाया जा सके। या फिर आर्थिक सुधार के जरीये देश इतना आगे जा चुका है कि उसके साथ उपभोक्ताओं से इतर सभी नागरिकों को भी साथ लेकर चलना अब नामुमकिन है।

Thursday, February 16, 2012

क्या दिल्ली धमाके ने कोल्ड-वार की दस्तक दे दी?

दिल्ली की सड़क पर इजरायली दूतावास की गाड़ी में धमाके के महज 48 ङंटे बाद ही यह संकेत मिलने लगे हैं कि मध्य-पूर्व का शीत युद्द अब भारत में दस्तक देने को तैयार है। क्योंकि एक तरफ ईरान के राजदूत ने दिल्ली में घटना के 48 घंटे बाद जहां इजरायल के आरोप को खारिज कर भारतीय जांच पर भरोसा जता दिया वही इजरायल के राजदूत ने भी इसके तुरंत बाद विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से मुलाकात दोनों देशों के कूटनीतिक दायरे में जांच को लेकर अपना पक्ष भी रखा। यानी भारत के सामने अब अगर इजरायल और ईरान के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों की समीक्षा का वक्त आ रहा है तो भारत की जमीन पर दोनों देशों का युद्द दस्तक ना दें इसके लिये संतुलन बनाये रखने की चुनौती भी बनने लगी है। ऐसे में भारत के सामने संकट तिहरा है।

पहला संकट किसी भी हाल में कोई दूसरा हमला भारत की जमीन पर नहीं होने देने का है। क्योंकि ईरान या इजरायल कोई भी दिल्ली में निशाने पर किसी भी स्तर पर आया तो मोसाद और हिजबुल्ला की लड़ाई जो अभीतक अमेरिका,यूरोप और अरब वर्ल्ड में नजर आती रही है, उसकी नयी जमीन भारत भी बन सकता है। दूसरा संकट हमले की जांच को इतना पुख्ता बनाकर परिणाम देना है जिससे कोई देश जांच को लेकर अंगुली नहीं उठा सके। जबकि इससे पहले हर आतंकवादी हमले की जांच में दिल्ली पुलिस से लेकर एनआईए तक को लेकर इतने सवाल उठे हैं कि किसी भी आतंकवादी हमले की तह में भारत की जांच जा नहीं पायी है।

और इस बार जांच में जरा सी चूक ईरान या इजरायल के साथ रिश्तों में दरार डाल सकती है। हमले के बाद भारत के सामन तीसरा बड़ा संकट इजरायल और ईरान के आपसी जुबानी जंग में भारत के कूटनीतिक रिश्तों को निभाने का बार है । जो संयोग से एक तय-शुदा वक्त में जांच का परिणाम चाहेगी। यानी भारत एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहां समूची दुनिया की निगाहें भारत पर सिर्फ इसलिये आ टिकी हैं क्योंकि ईरान के परमाणु हथियार को पाने के लक्ष्य को लेकर अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के विरोध की बिसात पर दिल्ली का हमला ट्रिगर का काम कर रहा है। यह हालात ठीक वैसे ही है जैसे दूसरे विश्व युद्द के बाद अमेरिका और रुस में शीत युद्द शुरु हुआ था और दुनिया के हर देश को अपनी कूटनीति से यह तय करना पड़ रहा था कि वह कहा-किधर खड़ा है। तब भारत की कूटनीति गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जरीये आगे बढ़ी थी। लेकिन याद कीजिये तो वियतनाम युद्द [ 1959-1975 ] और अफगानिस्तान [ 1979-1989 ] में रुसी फौजों की मौजूदगी ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था। इस बार ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिकी ऱुख कही ज्यादा तल्ख है क्योंकि रुस की तर्ज पर चीन अमेरिका को दुनिया के सामने चुनौती दे नहीं रहा है।

इसका असर यह है कि पन्द्रह दिनों पहले 28-29 जनवरी को वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी की ईरान को लेकर हां से हां मिलाने से यह कहकर इंकार किया था," भारत ईरान से संबंध तोड़ नहीं सकता है। क्योंकि कच्चे तेल की पूर्ति में ईरान भारत का अहम सहयोगी है। भारत दूसरे देशों से भी कच्चा तेल आयात करता है लेकिन ईरान से सबसे ज्यादा करता है और यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिये बेहद अहम है।" जाहिर है प्रणव मुखर्जी के इस बयान के बाद अमेरिका ने खामोशी ही बरती थी। लेकिन दिल्ली में इजरायली दूतावास की गाड़ी के निशाने पर आते ही अमेरिका ने भी 48 घंटे में ही सुर बदलते हुये भारत को बुधवार को सीधे कहा कि अमेरिका के सभी सहयोगियो और साथी देशों को ईरान से संबंध तोड़ने होंगे । तभी ईरान के परमाणु हथियार पाने के लक्ष्य को रोका जा सकेगा । यह बात व्हाईट हाउस के सचिव जे कारन्हे ने चीन का नाम लेकर भी कही कि उसे भी ईरान से कच्चा तेल लेना बंद करना चाहिये। और संयोग से दिल्ली हमले के बाद इसी दौर में तेल-अवीब में भी इजरायल भी यह प्रतिक्रिया देना से नहीं चूका कि ईरान जिस तरह कट्टरवादी शिया आंतकवादी गुट हिजबुल्ला को समर्थन और आर्थिक सहयोग दे रहा है वैसे में ईरान अगर परमाणु कार्यक्रम को पूरा करता है तो हिजबुल्ला भी परमाणु ताकत से परिपूर्ण होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यानी इजरायल ने भी दिल्ली हमले को अमेरिकी की ईरान विरोधी परमाणु नीति का ट्रिगर बना दिया है। वहीं ईरान ने भी यूरोपियन यूनियन के छह देशों को कच्चे तेल की सप्लाई रोक कर इसके संकेत द् दिये हैं कि अगर दिल्ली विस्फोट को ट्रिगर बनाकर उसके परमाणु कार्यक्रम पर नकेल कसने की पश्चिमी देशों की तैयारी है तो फिर तेल की ताकत उसके लिये ट्रिगर है। यानी दिल्ली जांच की सुई जिधर झुकी उसी दिशा से भारत की जमीन को मध्य-पूर्व के शीत युद्द को झेलना होगा। क्योंकि बीते एक दशक में भारत की आर्थिक नीति अमेरिकी पटरी पर दौड़ रही है और इसी दौर में ईरान के साथ व्यापारिक संबंधों में 16 फीसदी का इजाफा भी हुआ है और इराक के अमेरिकी फौजों तले ढहने के बाद ईरान के साथ संबंधों को मजबूत कर अरब वर्ल्ड में अपनी साख भी बनायी है। इस बिसात पर दिल्ली जिस तरह नर्व सेंटर बन चुका है उसमें विस्फोट की जांच से ज्यादा भारत की कूटनीतिक कुशलता ही मायने रखेगी इससे इंकार नहीं जा सकता। अन्यथा पहली बार "कोल्ड-वार " का नर्व सेंटर भारत होगा ।

Wednesday, February 8, 2012

यूपी की बिसात पर गांधी परिवार की कश्मकश

यह पहला मौका है जब किसी चुनाव प्रचार के दौरान गांधी परिवार के भीतर की राजनीतिक कश्मकश खुल कर उभर रही है। गांधी परिवार कांग्रेस और चुनावी तौर तरीकों को लेकर नये तरीके से परिभाषा भी गढ़ रहा है और गांधी परिवार के अक्स में कांग्रेस ही नहीं समूची चुनावी बिसात को देखने की उम्मीद भी जगा रहा है। सिर्फ सोनिया या राहुल गांधी नहीं बल्कि प्रियंका गांधी, रॉबर्ट बढेरा के साथ साथ मेनका गांधी औक वरुण गांधी ने भी मोर्चा संभाल रखा है। यानी पहली बार यूपी के लिये गांधी परिवार के छह सदस्य चुनाव प्रचार के लिये मैदान में हैं और इन छह में से कोई भी विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ रहा। फिर भी यह एक नायाब प्रयोग हो रहा है जो कांग्रेस के पहले परिवार के परंपरा को तोड़ भी रहा है और नयी लीक बनाने की जद्दोजहद भी कर रहा है। नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में अगर गांधी-नेहरु परिवार के अक्स में कांग्रेस की सियासत को देखे तो सोनिया गांधी के दौर में बहुत कुछ एकदम अलग नजर आ सकता है।

यह पहला मौका है कि समूचा गांधी परिवार ही चुनावी प्रचार के मैदान में है। यह पहला मौका है कि गांधी परिवार का हर कोई सक्रिय राजनीति में कूदने के लिये आमादा है। और यह भी पहला मौका है कि कांग्रेस के सत्ता होते हुये भी गांधी परिवार का कोई शख्स सीधे सत्ता को भोग नहीं रहा। अगर कांग्रेस के पन्नों को पलटें तो नेहरु के दौर में इंदिरा गांधी ने कभी सक्रिय राजनीति में आने की सोची जरुर लेकिन खुला इजहार कभी नहीं किया। नेहरु के सहायक के तौर पर ही इंदिरा गांधी उनके दफ्तर से देश संभालने तक पहुंची और कांग्रेस दोनों को समझती रही। 1964 में नेहरु के निधन के बाद ही राज्यसभा के जरीये इंदिरा गांधी लालबहादुर शास्त्री के कैबिनेट में शामिल हुई। और उसके बाद 1967 का चुनाव इंदिरा की अगुवाई में कांग्रेस ने लड़ा तो फिर 1984 तक गांधी परिवार का कोई दूसरा शख्स चुनावी राजनीति के जरीये सामने नहीं आया। संजय गांधी भी सक्रिय राजनीति से इतर एक अपनी लकीर खिंचने में लगे रहे जो इंदिरा गांधी की मुश्किलों को इमरजेन्सी के दिनों में इंदिरा गांधी को हिम्मत दे रहा था। ना इंदिरा गांधी ने चाहा और ना ही संजय गांधी ने इंदिरा के 'औरा' को कम आंका, इसलिये संजय गांधी चुनावी मैदान में नहीं कूदे।

यही हाल राजीव गांधी का रहा जो संजय गांधी की 1980 में आकस्मिक मौत के बाद भी संजय की तर्ज पर राजनीति करने के घेरे से हमेशा बाहर ही रहे। जबकि उस वक्त देश की मानसिकता भी ऐसी थी कि गांधी परिवार और कांग्रेस को चाहने वाले यह मान बैठे थे कि राजीव गांधी को अब सक्रिय राजनीति में आ ही जाना चाहिये। और 1984 में जब इंदिरा गांधी की आकस्मिक मौत हुई तो खुद ब खुद राजीव गांधी को कांग्रेस की कतार में सबसे आगे सभी ने देखा। इस दौर में कभी गांधी परिवार के किसी शख्स ने यह नहीं कहा कि वह प्रधानमंत्री बनना नहीं चाहता है। यहां तक कि 1998 में सक्रिय राजनीति में आने के बाद सोनिया गांधी भी प्रधानमंत्री बनने के लिये इतनी उत्साह में थीं कि जब वाजपेयी सरकार गिरी तो समर्थन का आंकड़ा जोड़े बगैर ही सत्ता बनाने के लिये दस्तक दे दी। तब मुलायम ने ही समर्थन झटका और सोनिया गांधी को झटका लगा। लेकिन नया सवाल यह है कि केन्द्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार है लेकिन गांधी परिवार का कोई उसकी सीधी कमान थामे हुये नहीं है। जबकि 2004 में चुनाव के दौरान सोनिया गांधी को ही कांग्रेस ने बतौर
प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट किया था। लेकिन अब बात सोनिया से आगे राहुल गांधी यानी चौथी पीढ़ी की इसलिये है क्योंकि झटके में गांधी परिवार को लेकर देश यह आंकलन कर रहा है कि चुनाव के वक्त किसका औरा ज्यादा असरकारक है। जबकि गांधी परिवार की परंपरा बताती है कि एक वक्त एक ही व्यक्ति की महत्ता या औरा रहा है। लेकिन सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में आने के बाद जो पहला दांव फेंका वह राहुल गांधी को चुनाव मैदान में उतारना था। यानी 2004 में गांधी परिवार के दो शख्स सोनिया-राहुल के सक्रिय राजनीति में होने के बावजूद प्रधानमंत्री के पद पर दोनों नहीं बैठे। ध्यान दें तो
2004 से लेकर 2009 के दौरान सोनिया और राहुल की महत्ता मनमोहन सिंह के उसी दांव के वक्त बनी जब जब सरकार पर संकट गहराया। वामपंथियों के समर्थन वापसी से लेकर परमाणु समझौते और खुली बाजार नीतियो से लेकर मंदी के दौर में बैंकों के संकट के मद्देनजर सोनिया गांधी की पहल ने अगर मनमोहन सिंह को राजनीतिक तौर पर बचाया तो राहुल गांधी की पहचान भी इस दौर में युवाओं को राजनीति में आने के लिये प्रेरणा देने और दलित के घर रात बिताने से आगे नहीं जा सकी।

यानी 2009 में जब दोबारा गांधी परिवार प्रधानमंत्री के पद पर बैठ सकता था तो मनमोहन सिंह की अर्थशास्त्री की बेदाग छवि और सरकार के कामकाज की छाव में ही गांधी परिवार के समूचे कामकाज के रहने ने फिर सत्ता से गांधी परिवार को जुड़ने नहीं दिया। और कांग्रेस का इतिहास ही इस दौर में पहली बार बदलता दिखा। क्योंकि जो गांधी परिवार सत्ता से लेकर पार्टी तक पर अपनी लगाम रखता था वही गांधी परिवार सत्ता पर सीधी लगाम तो दूर पार्टी संगठन को भी परिवार के कई हिस्से में बांट कर देखने लगा। और इसकी वजह सोनिया गांधी से इतर कही राहुल गांधी तो कहीं प्रियंका और धंधे में मशगूल कई कांग्रेसियों ने राबर्ट बढेरा की लीक पकड़ी। गांधी परिवार के इसी चौरस्ते ने नेहरु से लेकर राजीव गांधी तक की परंपरा को उलटा दिया। सिर्फ केन्द्र ही नहीं राज्यों में भी गांधी परिवार की छांव तले ही कांग्रेसी अपनी उम्मीद भी देखने लगे और कांग्रेसियों की उम्मीद बरकरार रहे इसलिये दिल्ली छोड क्षेत्रीय स्तर के राजनीतिक दलो के साथ भी गांधी परिवार की चौसर उपयोगिता को लेकर बनने-बिगडने लगी। बनी इसलिये क्योंकि कांग्रेस की पहचान ही हर स्तर पर गांधी परिवार में सिमटी। और बिगड़ी इसलिये क्योंकि गांधी परिवार को देश से इतर राज्य स्तर पर कांग्रेस के लिये सियासी दांव खेलने पड़े। इन परिस्थितियों ने गांधी परिवार की चौथी पीढी के सामने नये अंतर्विरोध भी पैदा कर दिये। मसलन कांग्रेस का आस्तित्व गांधी परिवार के बगैर कुछ भी नहीं है और गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस कुछ भी नहीं है, ऐसे में केन्द्र से लेकर राज्य तक में गांधी परिवार का मतलब क्या है अगर वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का पद नहीं संभालता है तो। केन्द्र में मनमोहन सिंह की नीतियां अगर कांग्रेस को राजनीति में मुश्किल खड़ी करती है तो फिर गांधी परिवार के अक्स में किसी भी कांग्रेसी को देखने को मान्यता कितनी दी जाये, यह सवाल कांग्रेस के पारंपरिक वोटरों के जेहन में लगातर गूंज रहा है। संकट यह भी है कांग्रेस की नेहरुवादी धारा मनमोहन सिंह के दौर में इतनी बदल चुकी है कि गांधी परिवार को लेकर कांग्रेस का पारंपरिक मन भी बदल रहा है। और गांधी परिवार भी मनमोहन सिंह के दौर में धंधे की जमीन और कांग्रेस की सियासी जमीन से तालमेल बैठाने में मुश्किल भी पा रहा है। असर इसी का है अमेठी में प्रचार करते करते राबर्ट बढेरा भी झटके में कह जाते हैं कि अगर जनता ने चाहा तो वह भी चुनाव लड़ने को तैयार है। जाहिर है राबर्ट बढेरा का ऐसा बयान गांधी परिवार के तिलिस्म को तोड़ता भी है और 50 के दशक के गांधी परिवार से 21वी सदी की चौथी पीढी को अलग-थलग भी करता है। पचास के दशक में फिरोज गांधी बकायदा नेहरु से वैचारिक लड़ाई लड़कर रायबरेली से चुनाव लड़ने उतरे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी वाकई गूंगी गुड़िया ही थीं। लेकिन अब राबर्ट बढेरा के बयान के महज नब्बे मिनट बाद ही प्रियंका गांधी सार्वजनिक तौर पर यह कहकर राबर्ट वढेरा को बौना बना देती हैं कि राबर्ट अपने धंधे में खुश हैं। वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। जरुर उन्हें पत्रकारो ने सवालो में उलझा दिया होगा।

लेकिन यहा सवाल राबर्ड से आगे प्रियकां का भी आता है कि वह खुद राजनीति में आने के लिये जितना मचल रही है , उसके पीछे गांधी परिवार के टूटते तिलिस्म में अपने औरे को मापना है या फिर सोनिया-राहुल के राजनीतिक पहल में खुद को जोडकर गांधी परिवार को मजबूती देने की मंशा है। हो जो भी लेकिन यह परिस्थितियां पहली बार गांधी परिवार को सड़क से सियासत करने की ऐसी ट्रेनिंग दे रही हैं, जिससे कांग्रेस मनमोहन सिंह के दौर में चूक गई है। यानी जो सियासत कांग्रेसियों को सड़क से करनी चाहिये थी वही कांग्रेसी 10 जनपथ और राहुल -प्रियकां के ग्लैमर से लेकर राबर्ट के धंधे से ही जोड़कर खुद को कांग्रेसी मनवा भी रहे हैं और कांग्रेस पर मजबूत पकड़ भी बनाये हुये हैं। असर इसी का है कि यूपी में काग्रेस के संगठन से लेकर उम्मीदवारों को जिताने या उन्हें मंच से पहचान देने के लिये भी गांधी परिवार को ही मशक्कत करनी पड़ रही है। या फिर मेनका गांधी और वरुण गांधी की चुनावी सभा भी गांधी परिवार को निशाने पर लेकर ही महत्ता पा रही है। इसीलिये यूपी की बिसात में गांधी परिवार की चौथी पीढी के सामने संकट खुद के संघर्ष से ज्यादा संघर्ष करने वाले काग्रेसियो को मान्यता देकर खडे करने का है। नहीं तो आने वाले वक्त में समूचा गांधी परिवार ही प्रचार से इतर चुनाव मैदान में ही नजर आयेगा।

Friday, February 3, 2012

लाइसेंस रद्द हो सकता है सिस्टम नहीं

साढ़े चार बरस पहले ट्राई के जिन नियमों की अनदेखी मनमोहन सरकार ने थी, साढे चार साल बाद वही मनमोहन सरकार ट्राई से उन्हीं नियमों को बनवाने की बात कह रही है। अंतर सिर्फ इतना है कि तब ए राजा मंत्री थे और आज कपिल सिब्बल हैं। तब ए राजा ने बतौर संचार मंत्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर यह जानकारी दी थी कि वह ट्राई के नियमों को नहीं मान रहे और आज कपिल सिब्बल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिलकर मीडिया के सामने आये तो ट्राई के जरीये अगले 10 दिनो में उन्हीं नियमों को बनवाने की बात कह गये जो पहले से ही संचार मंत्रालय के दफ्तर में पड़े पड़े धूल खा रही है।

असल में 28 अगस्त 2007 में ही भारतीय दूरसंचार नियमन प्राधिकरण यानी ट्राई ने स्पेक्ट्रम लाइसेंस की कीमतों का निर्धारण करने के लिये प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया को अपनाने का आग्रह संचार मंत्रालय से किया था। और इस बारे में 32 पेज की एक व्याख्या करती हुई रिपोर्ट भी तब के संचार मंत्री ए राजा को सौपी थी। लेकिन संचार मंत्रालय ने बिना देर किये छह घंटों के भीतर ही 28 अगस्त 2007 को ही ट्राई के आग्रह को खारिज करते हुये 2001 की बनाई नीति पहले आओ-पहले पाओ पर चल पड़े। दरअसल ऐसा भी नही है कि उस वक्त संचार मंत्रालय में बैठे किसी भी अधिकारी ने ए राजा के इस कदम का विरोध नहीं किया और ऐसा भी नहीं है कि पीएमओ इन सारी बातों से एकदम दूर था। बकायदा दूरसंचार विभाग के सचिव और वित्तीय मामलों के सदस्य के विरोध करने पर दोनो की फाइल पीएमओ भी गई और एक को सेवानिवृत होना पड़ा तो दूसरे को इस्तीफा ही देना पड़ा। यह सब दिसंबर 2007 में हुआ और इसकी आंच कहीं संचार मंत्रालय में ना सिमटी रहे, इसके लिये राजा ने प्रधानमंत्री को नयी टेलीकॉम नीति के मद्देनजर पत्र भी लिखा और दिल्ली के विज्ञान भवन में एक भव्य कार्यक्रम भी किया।

ऐसा भी नहीं है कि जो हो रहा था वह सिर्फ संचार मंत्रालय और पीएमओ की जानकारी में था। बकायदा उस वक्त के कानून मंत्री हंसराज भारद्राज के मंत्रालय से भी यह नोट पहुंचा था कि जिन्हें लाइसेंस दिया जा रहा है उनके गुण-दोष को परखना जरुरी है साथ ही राजस्व का घाटा तो नहीं हो रहा इसे भी देखना जरुरी है। लेकिन राजस्व के सवाल को उस वक्त के वित्त मंत्री पी चिदबरंम की उस टिप्पणी तले दबा दिया गया कि जिन्होंने राजस्व की फिक्र के बदले 2001 के खुले नियम पहले आओ-पहले पाओ को ही आधार बनाने पर ए राजा का साथ लिया। यानी कानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और पीएमओ की नजरों तले संचार मंत्रालय काम कर रहा था। इसलिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब सवाल यह नहीं है कि सिर्फ 9 हजार करोड़ में वैसी कंपनियों को लाइसेंस बांट दिये गये जो टेलिकाम के क्षेत्र में सिर्फ स्पेक्ट्रम लाइसेंस ले कर मुनाफा बनाने के लिये ही आये। असल में सवाल यह है कि विकास के जिन नियमों को पीएमओ ने बनाया और यूपीए-1 के दौरान हर मंत्रालय ने उसे अपनाया वह सिर्फ मुनाफा बनाने की विस्तारवादी नीति का ही चेहरा है। क्योंकि 15 नंवबर 2008 को जब सीवीसी ने संचार मंत्री को नोटिस भेजा और पीएमओ को इससे अवगत कराया तो पीएमओ के एक डायरेक्टर ने सीवीसी को यह कहकर चेताया कि वह सिर्फ वॉच-डाग की भूमिका निभाये। और दिसबंर 2008 में जब मंत्रालयों के कामकाज को लेकर प्रधानमंत्री ग्रेड दे रहे थे तो उसमें दो ही काम का खासतौर से जिक्र उपलब्धियों के साथ किया गया जिसमें एक टेलीकॉम था तो दूसरा खनन। तीसरे नंबर पर पावर यानी ऊर्जा को रखा गया। और संयोग देखिये टेलीकॉम का लाइसेंस पाने वालो में रियल इस्टेट से लेकर ग्लैमर की दुनिया से जुडे धंधेबाज जुडे तो खनन का लाइसेंस पाने वालो में गीत-संगीत का कैसट बेचने वालो से लेकर गंजी-जांगिया और कार बनाने वाली कंपनियां जुड़ गयीं। इतना ही नहीं न्यूनतम जरुरतो पर काम कर रहे मंत्रालयों ने भी जिन निजी हाथों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी से लेकर किसानी के लिये बीज और खाद दिये, संयोग से उस फेरहिस्त में भी लाइसेंस वैसे हाथो में सिमटा जिनका इन तमाम क्षेत्रो से कभी कोई जुड़ाव नहीं रहा। लेकिन पीएमओ की निगाह में उस वक्त वही मंत्री महान था जो अपने मंत्रालयों के जरीये निजी क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा दुकान खुलवा पाने में सक्षम हुआ। और इसकी एवज में ज्यदा से ज्याद पैसा बाजार में आया। यानी विकास की थ्योरी को बाजारवाद के जरीये फैलाने में मंत्रालयों की भूमिका ही बिचौलिये वाली होती चली गई।

दरअसल, बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस नजरीये की मार्केटिंग को करना अगर देश के मंत्रियो को उनके कामकाज के पैमाने को नापने के डर से सिखाया या कहें अपनाने की दिशा में बढ़ाया तो समझना यह भी होगा कि खुद प्रधानमंत्री ने भी अपनी सफलता का रास्ता इसी लीक पर चल कर पकड़ा। यूपीए-1 के दौर में 12 बार अमेरिकी यात्रा पर गये मनमोहन सिंह की काबिलियत को अमेरिका में बताने के लिये कोई भारतीय प्रतिनिधिमंडल या भारत की चकाचौंध काम नहीं कर रही थी बल्कि अमेरिकी लाबिंग कंपनी बार्बर ग्रिफ्रिथ एंड रोजर्स { बीजीआर } काम कर रही थी। 2005 में इस कंपनी को करीब साढ़े तीन करोड़ सालाना दिये जाते थे। और देश के भीतर प्रधानमंत्री की हर अमेरिकी यात्रा के बाद जो उपलब्धि गिनायी हतायी जाती रही, उसके पीछे बीजीआर की लांबिग ही काम करती रही। यहां तक की 26/11 मुद्दे पर प्रस्ताव के लिये सीनेट और प्रतिनिधि सभा से संपर्क भी इसी बीजीआऱ कंपनी ने किया जिसके बाद अमेरिकी संसद से प्रस्ताव आया और जब ओबामा राष्ट्रपति बने तो भी उस वक्त भारत के राजदूत रोनेन सेन की ओबामा से मुलाकात कराने के लिये सारी मशक्कत लाबिंग कंपनी बार्बर ग्रिफिथ एंड रोजर्स ने ही किया।

जाहिर है इसी तरीके को भारत में भी मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद मंत्रालयों में अपनाया गया। और हकीकत यह है कि हर मंत्री के पास उसके मंत्रालय में कॉरपोरेट या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिये लाबिंग करने के लिये बकायदा लॉबिंग कंपनियों की सूची रहती है। फिलहाल इस फेहरिस्त में 124 लाबिंग कंपनियां काम कर रहीं हैं। जिसमें 38 लॉबिंग कंपनियो को तब ब्लैक-लिस्ट किया गया जब राडिया टेप और दस्तावेजो ने 2009 में यूपीए-2 के दौर में ए राजा को दुबारा टेलीकॉम मंत्री बनाने के पीछे के कॉरपोरेट का खेल को देश के सामने आया। इसलिये सवाल 11 निजी कंपनियों के 122 लाइसेंस रद्द करने के बाद का है। जहां प्रतिस्पर्धा के जरीये भी आपसी खेल से देश के राजस्व को चूना लगेगा और विकास की बाजारवादी दौड़ में कोई ऐसा खिलाड़ी सामने आ नहीं पायेगा। और यही लाइसेंस ज्यादा बोली के साथ या तो इन्हीं कंपनियों के पास चले जाएंगे या फिर 3 जी और 4 जी की विकसित टेक्नालाजी का आईना दिखाकर 2जी की बोली पहले से भी कम में लगेगी। उस वक्त कोई कैसे कहेगा कि घोटाला हुआ।

Thursday, February 2, 2012

क्या पुणे में अण्णा को धीमा जहर दिया जा रहा था?

अन्ना हजारे स्वास्थ्य लाभ और नेचुरोपेथी के लिए अब बेंगलुरु पहुंच गए हैं। दिल्ली में वह महज तीन दिन में ठीक हो गए, जबकि पुणे के संचेती अस्पताल में एक महीने में उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। उलटा बिगड़ती गई। तो ऐसा क्या हुआ। अन्ना ने खुद अपने स्वास्थ्य के बारे में क्या कहा और यह पूरा माजरा था क्या। पढ़िए इस रिपोर्ट में।



क्या पुणे के संचेती अस्पताल में अण्णा हजारे को भविष्य में आंदोलन ना कर पाने की स्थिति में लाने की तैयारी की जा रही थी। क्या राजनीतिक तौर पर संचेती अस्पताल को इस भरोसे में लिया गया कि अगर वह अण्णा हजारे को पांच राज्यों में चुनाव के दौरान मैदान में ना उतरने देने की स्थिति ला सकता है तो अस्पताल चलाने वालों का ख्याल रखा जायेगा। क्या पुणे के एक व्यवसायी को भी राजनीतिक तौर पर इस भरोसे में लिया गया कि वह अण्णा से अपनी करीबी का लाभ कांग्रेस को पहुंचाये तो सरकार उसे भी इनाम देगी। क्या अण्णा के सहयोगियों को भी सुविधाओं से इतना भर दिया गया कि वह भी अण्णा को उसी राजनीति के हाथ का खिलौना बना बैठे जिस राजनीति के खिलाफ अण्णा संघर्ष कर रहे थे। यह सारे सवाल अगर रालेगण सिद्दी से लेकर पुणे और मुंबई में अण्णा आंदोलन से जुडे लोगों के बीच घुमड़ रहे हैं तो दिल्ली से सटे गुडगांव के वेदांता अस्पताल से इसके जवाब भी निकलने लगे है। यह सब कैसे और क्यो हुआ। इसे जानने से पहले यह जरुरी है कि इस खेल की एवज में पहली बार क्या क्या हुआ उसकी जानकारी ले लें। पहली बार अण्णा रालेगण के अपने सहयोगी के बिना ही दिल्ली ईलाज के लिये पहुंचे। पहली बार संचेती अस्पताल के कर्ता-धर्ता कांति लाल संचेती को सीधे पद्म विभूषण से नवाज दिया गया। पहली बार अण्णा के करीबी पुणे के व्यवसायी अभय फिदौरिया के भाई काइनेटिक के चैयरमैन अरुण फिरदौरिया को पदमश्री से नवाजा जायेगा। 74 बरस की उम्र के जीवन में पहली बार अण्णा ने यह महसूस किया कि संचेती अस्पताल में ईलाज के दौरान उनसे खुद उठना -बैठना नहीं हो पा रहा है।
दरअसल पिछले दो दिनो से गुडगांव के मेंदाता में ईलाज कराते अण्णा के शरीर से करीब तीन किलोग्राम पानी बाहर निकला है। और दो दिन के भीतर ही अण्णा अपना काम खुद कर सकने की स्थिति में आ गये है और मंगलवार को अण्णा को आईसीयू से सामान्य कमरे में शिफ्ट भी कर दिया गया। लेकिन इससे पहले पुणे के संचेती अस्पताल में नौ दिन { 31 दिसबंर 2011 से 8 जनवरी 2012 } भर्त्ती रहे अण्णा को बीते महिने भर से जो दवाई दी जा रही थी वह इलाज से ज्यादा बीमार करने की दिशा में किस तरह बढ़ रही थी य़ह अस्पताल की ही ब्लड और यूरिन रिपोर्ट से पता चलता है । संचेती अस्पताल में 6 जनवरी को अण्णा की ब्लड / यूरिन की रिपोर्ट [ ओपीडी / आईडीनं. 1201003826 ] में सब कुछ सामान्य पाया गया । लेकिन हर दिन जिन आठ दवाईयों को खाने के लिये दिया गया उसमे स्ट्रीआईड का ओवर डोज है। और एंटीबायटिक की चार दवाईयां इतनी ज्यादा मात्रा में शरीर पर बुरा असर डाल सकती है कि किसी भी व्यक्ति को इसे खाने के बाद उठने में मुश्किल हो। असल में ईलाज ऐसा क्यो किया जा रहा था इसका जवाब तो किसी के पास नहीं है लेकिन इस इलाज तो गुडगांव के मेंदाता में तुरंत बंद इसलिये कर दिया क्योकि यह सारी दवाईया अण्णा हजारे के शरीर में घीमे जहर का काम कर रही थीं।

खास बात यह भी है कि संचेती अस्पताल की डिस्चार्ज रिपोर्ट में डां कांति लाल संचेती के बेटे डा पराग लाल संचेती के हस्ताक्षर के साथ यह लिखा गया कि एक महिने यानी 8 फरवरी तक अण्णा हजारे को सिर्फ आराम ही करना है । कोई काम नहीं करना है । खासकर अस्पताल छोडते वक्त 8 जनवरी को अण्णा बजारे को संचेती अस्पताल के डाक्टर ने यह भी कहा कि लोगो से मिलना-जुलना बंद रखे ।
लेकिन अण्णा का इलाज बदला और अन्ना दो दिन में कासे ठीक हुये । पेट से लेकर मुह, हाथ , पांव की सूजन खत्म हुई तो 31 जनवरी की सुबह 10 बजे पुणे से डा पराग संचेती अण्णा से मिलने गुडगांव के मेंदाता अस्पताल आ पहुंचे । करीब एक घंटे तक जब उन्होंने आईसीयू के कमरे में अकेले बैठकर अपने संबंधों का रोना रोया और पुणे से लेकर मुंबई तक संचेती अस्पताल पर लगते दाग का दर्द बताया । अपने पिता कांति लाल संचेती को पद्म विभूषण सम्मान पर उठती अंगुलियों का जिक्र किया तो अण्णा हजारे ने उन्हे माफ करने के अंदाज में सबकुछ भूल जाने को कहा । तो डां पराग संचेती ने इस बात पर जोर दिया जब तक अण्णा अपने हाथ से लिखकर कोई बयान जारी नहीं करते तबतक उन्हें मुश्किल होगी । ऐसे में अण्णा ने लिखा, "मुझे नही लगता कि दवाईया गलत नियत से दी गई थी । शायद मेरा शरीर उसे बर्दाश्त नहीं कर पाया । और डां संचेती के पद्मविभूषण को मेरे ईलाज से जोड़ना गलत है। " सवाल है अण्णा का यह बयान कुछ दूसरे संकेत भी देता है। क्योकि अण्णा पहली बार गुडगांव के अस्पताल में बिना किसी रालेगण के सहायक के हैं। जबकि बीते एक बरस के दौरान जंतर मंतर हो या रामलीला मैदान या फिर मुंबई । उनके साथ रालेगण के उनके सहयाक सुरेश पठारे हमेशा रहे। लेकिन इसी दौर में अण्णा के करीबियो के पास व्लैक बेरी और एप्पल के आई फोन समेत बहुतेरी ऐसी सुविधायें आ गयी जिसकी कीमत लाख रुपये से ज्यादा की है। यह सुविधा रालेगण में अण्णा को घेरे कई सहायकों के पास है। और अण्णा के रालेगण में रहने के दौरान पुणे के व्यवसाय़ी की पैठ यह सबसे ज्यादा हो गयी। जबकि इस दौर में पुणे से लेकर मुंबई तक में चर्चा यही है कि पुणे के जिस व्यवसायी को पदमश्री और जिस डाक्टर को पदम-विभूषण मिला उनका नाम इससे पहले पुणे के सांसद सुरेश कलमाडी ने प्रस्तावित किया था लेकिन कलमाडी के दागदार होने के बाद इनकी फाइल बंद कर दी गयी लेकिन जैसे ही अण्णा का संबंध इनसे जुडा तो सरकारी चौसर पर दोनो ने अपने अपने संबंधो की सौदेबाजी के पांसे फेंक कर सम्मान पा लिया।