Thursday, February 16, 2012

क्या दिल्ली धमाके ने कोल्ड-वार की दस्तक दे दी?

दिल्ली की सड़क पर इजरायली दूतावास की गाड़ी में धमाके के महज 48 ङंटे बाद ही यह संकेत मिलने लगे हैं कि मध्य-पूर्व का शीत युद्द अब भारत में दस्तक देने को तैयार है। क्योंकि एक तरफ ईरान के राजदूत ने दिल्ली में घटना के 48 घंटे बाद जहां इजरायल के आरोप को खारिज कर भारतीय जांच पर भरोसा जता दिया वही इजरायल के राजदूत ने भी इसके तुरंत बाद विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से मुलाकात दोनों देशों के कूटनीतिक दायरे में जांच को लेकर अपना पक्ष भी रखा। यानी भारत के सामने अब अगर इजरायल और ईरान के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों की समीक्षा का वक्त आ रहा है तो भारत की जमीन पर दोनों देशों का युद्द दस्तक ना दें इसके लिये संतुलन बनाये रखने की चुनौती भी बनने लगी है। ऐसे में भारत के सामने संकट तिहरा है।

पहला संकट किसी भी हाल में कोई दूसरा हमला भारत की जमीन पर नहीं होने देने का है। क्योंकि ईरान या इजरायल कोई भी दिल्ली में निशाने पर किसी भी स्तर पर आया तो मोसाद और हिजबुल्ला की लड़ाई जो अभीतक अमेरिका,यूरोप और अरब वर्ल्ड में नजर आती रही है, उसकी नयी जमीन भारत भी बन सकता है। दूसरा संकट हमले की जांच को इतना पुख्ता बनाकर परिणाम देना है जिससे कोई देश जांच को लेकर अंगुली नहीं उठा सके। जबकि इससे पहले हर आतंकवादी हमले की जांच में दिल्ली पुलिस से लेकर एनआईए तक को लेकर इतने सवाल उठे हैं कि किसी भी आतंकवादी हमले की तह में भारत की जांच जा नहीं पायी है।

और इस बार जांच में जरा सी चूक ईरान या इजरायल के साथ रिश्तों में दरार डाल सकती है। हमले के बाद भारत के सामन तीसरा बड़ा संकट इजरायल और ईरान के आपसी जुबानी जंग में भारत के कूटनीतिक रिश्तों को निभाने का बार है । जो संयोग से एक तय-शुदा वक्त में जांच का परिणाम चाहेगी। यानी भारत एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहां समूची दुनिया की निगाहें भारत पर सिर्फ इसलिये आ टिकी हैं क्योंकि ईरान के परमाणु हथियार को पाने के लक्ष्य को लेकर अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के विरोध की बिसात पर दिल्ली का हमला ट्रिगर का काम कर रहा है। यह हालात ठीक वैसे ही है जैसे दूसरे विश्व युद्द के बाद अमेरिका और रुस में शीत युद्द शुरु हुआ था और दुनिया के हर देश को अपनी कूटनीति से यह तय करना पड़ रहा था कि वह कहा-किधर खड़ा है। तब भारत की कूटनीति गुटनिरपेक्ष आंदोलन के जरीये आगे बढ़ी थी। लेकिन याद कीजिये तो वियतनाम युद्द [ 1959-1975 ] और अफगानिस्तान [ 1979-1989 ] में रुसी फौजों की मौजूदगी ने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया था। इस बार ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर अमेरिकी ऱुख कही ज्यादा तल्ख है क्योंकि रुस की तर्ज पर चीन अमेरिका को दुनिया के सामने चुनौती दे नहीं रहा है।

इसका असर यह है कि पन्द्रह दिनों पहले 28-29 जनवरी को वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी की ईरान को लेकर हां से हां मिलाने से यह कहकर इंकार किया था," भारत ईरान से संबंध तोड़ नहीं सकता है। क्योंकि कच्चे तेल की पूर्ति में ईरान भारत का अहम सहयोगी है। भारत दूसरे देशों से भी कच्चा तेल आयात करता है लेकिन ईरान से सबसे ज्यादा करता है और यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिये बेहद अहम है।" जाहिर है प्रणव मुखर्जी के इस बयान के बाद अमेरिका ने खामोशी ही बरती थी। लेकिन दिल्ली में इजरायली दूतावास की गाड़ी के निशाने पर आते ही अमेरिका ने भी 48 घंटे में ही सुर बदलते हुये भारत को बुधवार को सीधे कहा कि अमेरिका के सभी सहयोगियो और साथी देशों को ईरान से संबंध तोड़ने होंगे । तभी ईरान के परमाणु हथियार पाने के लक्ष्य को रोका जा सकेगा । यह बात व्हाईट हाउस के सचिव जे कारन्हे ने चीन का नाम लेकर भी कही कि उसे भी ईरान से कच्चा तेल लेना बंद करना चाहिये। और संयोग से दिल्ली हमले के बाद इसी दौर में तेल-अवीब में भी इजरायल भी यह प्रतिक्रिया देना से नहीं चूका कि ईरान जिस तरह कट्टरवादी शिया आंतकवादी गुट हिजबुल्ला को समर्थन और आर्थिक सहयोग दे रहा है वैसे में ईरान अगर परमाणु कार्यक्रम को पूरा करता है तो हिजबुल्ला भी परमाणु ताकत से परिपूर्ण होगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यानी इजरायल ने भी दिल्ली हमले को अमेरिकी की ईरान विरोधी परमाणु नीति का ट्रिगर बना दिया है। वहीं ईरान ने भी यूरोपियन यूनियन के छह देशों को कच्चे तेल की सप्लाई रोक कर इसके संकेत द् दिये हैं कि अगर दिल्ली विस्फोट को ट्रिगर बनाकर उसके परमाणु कार्यक्रम पर नकेल कसने की पश्चिमी देशों की तैयारी है तो फिर तेल की ताकत उसके लिये ट्रिगर है। यानी दिल्ली जांच की सुई जिधर झुकी उसी दिशा से भारत की जमीन को मध्य-पूर्व के शीत युद्द को झेलना होगा। क्योंकि बीते एक दशक में भारत की आर्थिक नीति अमेरिकी पटरी पर दौड़ रही है और इसी दौर में ईरान के साथ व्यापारिक संबंधों में 16 फीसदी का इजाफा भी हुआ है और इराक के अमेरिकी फौजों तले ढहने के बाद ईरान के साथ संबंधों को मजबूत कर अरब वर्ल्ड में अपनी साख भी बनायी है। इस बिसात पर दिल्ली जिस तरह नर्व सेंटर बन चुका है उसमें विस्फोट की जांच से ज्यादा भारत की कूटनीतिक कुशलता ही मायने रखेगी इससे इंकार नहीं जा सकता। अन्यथा पहली बार "कोल्ड-वार " का नर्व सेंटर भारत होगा ।

2 comments:

  1. Sir u hadnt written a blog on Justice katju remark on media??I have searched all ur articles but didnt find any..!!plz provide a link if u have written else plz write a article on Justice Katju's Remark

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