Saturday, March 31, 2012

अमेरिकी दादागिरी को पहली बार खुली चुनौती दी 'ब्रिक्स' ने

अगर आधी दुनिया समेटे पांच देश अमेरिका की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ खड़े हो जाये तो दुनिया के नक्शे पर वर्ल्ड आर्डर बदल सकता है। इसके संकेत पहली बार दिल्ली में ब्रिक्स सम्मेलन के उस प्रस्ताव ने दे दिये, जिसमें ईरान से लेकर सीरिया और डब्ल्यूटीओ से लेकर आईएमएफ पर अमेरिकी नीति का खुला विरोध नजर आया। ईरान की जिस परमाणु नीति के खिलाफ अमेरिका और इजरायल दुनिया को अपने साथ करना चाहते हैं, उसका खुला विरोध ब्रिक्स ने इस प्रस्ताव के साथ किया ,' ईरान की परमाणु नीति पर टकराव से ना तो कोई रास्ता निकलेगा और ना ही किसी को लाभ होगा।' प्रस्ताव के मजमून ने यह भी जता दिया कि चीन, भारत और रुस ना सिर्फ संयुक्त राष्ट्र में ईरान को लेकर अमेरिकी नीति के खिलाफ हैं बल्कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को वह शांतिपूर्ण इस्तेमाल के तौर पर देखते हैं। और अगर अमेरिका को ऐसा नहीं लगता तो उसे आईएईए और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के तहत बातचीत और राजनयिक रास्ते से बात करनी चाहिये ना कि धमकी भरे अंदाज में। इतना ही नहीं ब्रिक्स के जरीये पहली बार भारत,चीन और रुस ने सीरिया की संप्रभुता,अखंडता और राजनीतिक स्वतंत्रता का सवाल खड़ा कर अमेरिकी राजनीतिक दखलअंदाजी को भी आईना दिखाया है। और अरब लीग के अमेरिका के साथ खड़े होने पर भी संयुक्त राष्ट्र में चीन-रुस के वीटो के अधिकार पर बारत के समर्थन की बात कहकर अमेरिकी विस्तार को रोकने के खुले संकेत भी दिये हैं।

दरअसल, अमेरिका ने जिस तरह ईरान से तेल खरीदने पर ही पाबंदी का सवाल भारत और चीन के सामने रखा था, उससे एक कदम आगे बढ़कर भारत और चीन ने ब्रिक्स के मंच के जरीये अमेरिकी अर्थनीति को भी चुनौती दे दी। महत्वपूर्ण है कि ईरान से तेल आयात बंद करने करने से इंकार करते हुये भारत ने पहले ही अपनी आर्थिक मजबूरी जतायी थी। और साफ कहा था कि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। लेकिन ब्रिक्स के मंच पर भारत के तेवर और कड़े हुये। और पहली बार ईरान से इतर अमेरिका ही नहीं पश्चिमी परस्त आर्थिक नीतियों का विरोध भी भारत और चीन ने यह कहकर किया कि जब मंदी की गिरफ्त में अमेरिका और विकसित देशो की विकास दर घटी तब भारत चीन ने ना सिर्फ विकास दर को बरकरार रखा बल्कि उसमें वृद्दि भी की, जिससे दुनिया की अर्थव्यवस्था पटरी पर रही। क्योंकि ब्रिक्स में शामिल पांच देश की जनसख्या अगर दुनिया की आधी है तो दुनिया के कुल जीडीपी का 40 फीसदी भी ब्रिक्स में ही समाया हुआ है।

असल में महत्वपूर्ण यह भी है कि पहली बार भारत चीन ने मिलकर माना कि डब्ल्यूटीओ की नीतियां सिर्फ विकसित देशो का हित साधती हैं। विश्व बैंक से लेकर आईएमएफ तक अमेरिकी परस्त हैं। इसलिये डवलपमेंटल बैंक की जरुरत है। यानी जिस अर्थनीति की चकाचौंध तले अमेरिका दुनिया को कई अंतराष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों के जरीये आर्थिक सुधार का पाठ पढ़ाता रहा है, उसका विरोध भारत ने अगर पहली बार किया तो ब्राजील,दक्षिण अफ्रीका ने भी अपने संकटों को जी-8 से लेकर जी -20 तक के घेरे में रखा। जिसका समर्थन चीन और रुस ने किया। यानी पहली बार विकल्प का सवाल अगर आर्थिक नीतियों के जरीये उठा तो अमेरिकी विस्तार नीति को रोकने के लिये ईरान और सीरिया के साथ एशिया के ताकतवर देश खड़े भी दिखे। यानी आतंक पर नकेल कसने के नाम पर इराक युद्द से लेकर अफगानिस्तान तक में जो अमेरिकी पैठ शुरु हुई और दुनिया अमेरिकी वर्ल्ड आर्डर के अनुरुप चलती दिखायी देती रही उसमें पहली बार सेंध चीन,रुस और भारत ने मिलकर लगायी है।

अब बड़ा सवाल यह है कि क्या अमेरिका का मिथ टूट रहा है या फिर अमेरिका दुनिया के नक्शे पर इजरायल और अरब लीग के जरीये कोई नयी लकीर खिंचने का प्रयास करेगा। यानी ब्रिक्स का जवाब जल्द आयेगा। क्योंकि ब्रिक्स के प्रस्ताव ने अमेरिका को एक साथ चार झटके दिये हैं। और झटको का जवाब नही आया तो नई विश्व व्यवस्था भी जल्द ही दुनिया के मानचित्र पर नजर आने लगेगी।

Thursday, March 29, 2012

बबुआ कह जगाने वाला खुद ही सो गया


प्रसून जी गुड मॉर्निंग..लोकमत समाचार में आज छपा विश्लेषण "गडकरी का बीजेपी खेल" अच्छा है , पर सवाल यह है कि बीजेपी ही कोई पहली बार"कांग्रेस की लीक"पर नहीं चल रही, कांग्रेस भी यही करती रही है। बाबरी मस्जिद के समय नरसिंह राव ने जो किया वह भाजपई कदम ही था और मुसलमानों के सामने इस "एतिहासिक चूक" को धोने की कोशिश कांग्रेस लगातार कर रही है। एक "सांपनाथ" तो दूसरा "नागनाथ" हमेशा रहे हैं। बीजेपी को हमेशा व्यापारियों की पार्टी कहा जाता है। आपने संचेती, अंशुमान जैसे उघोगपतियों ने नाम तो गिनाये लेकिन पूर्ती उद्योग समूह के मालिक गडकरी कैसे कम हैं। और यह वैश्वविक पूंजी है जो संघ और कांग्रेस दोनों की राजनीति तय करेगी।

महज 4 दिन पहले 22 मार्च की सुबह सुबह यह पहला एसएमएस जगदीश शाहू का था। जिसे पढ़कर जाना कि लोकमत समाचार ने मेरा आलेख छपा है और हमेशा की तरह शाहू जी के भीतर कुलबुलाहट बात करने को मचल रही है। जाहिर है उठते ही फोन किया और उधर से चिरपरिचित अंदाज में शाहू जी बोल पड़े, सो रहे थे बबुआ। मेरे लिखे-कहे शब्दों को लेकर शाहू जी के भीतर की कुलबुलाहट और मुझे सोने से जगाने की बबुआ कह कर उठाने की फितरत कोई आज की नहीं है। करीब 22 बरस पहले 1989-90 के दौर में भी अक्सर नागपुर के विवेकानंद सोसायटी के मेरे कमरे में सुबह सुबह शाहू जी दस्तक देकर पूछते-सो रहे हो बबुआ। काली चाय नहीं पिलाओगे। दिल्ली में जेएनयू छोड़ नागपुर में काली चाय से लेकर जाम और खबरों को कांटने-छापने की संपादकीय मजबूरी को लेकर मेरे हर आक्रोश को बहस में बदल देने वाले शाहू जी के भीतर कमाल का ठहराव था। इस ठहराव को 22 बरस पहले महसूस इसलिये नहीं कर सकता था क्योंकि मैं भी उस वक्त को जी रहा था। चाहे दलित संघर्ष हो या नक्सलियों की विदर्भ में आहट या फिर आरएसएस के हिन्दुत्व की प्रयोगशाला और नागपुर से चार सौ किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश {अब छत्तीसगढ} के दल्ली राजहरा में शंकरगुहा नियो का संघर्ष। मैं रोजमर्रा की खबरों से इतर विकल्प की तरह खुद को पेश करती खबरों को पकड़ना चाहता और शाहू जी सरलता से विकल्प शब्द पर ही यह कहकर बहस छेड़ देते कि इन्हें विकल्प कहने से पहले इनके दायरे में घुस कर इन्हें समझना चाहिये। और शाहू जी की वह सरलता मेरे लिये एक चैलेंज बन जाती। क्योंकि खबरों के बीच घुसकर पत्रकार एक्टिविस्ट हुये बगैर भी पत्रकार रह सकता है और खबर निचोड़ सकता है, यह मुझे बार बार लगता और शाहू जी इसे ही नहीं मानते।
दलित के भीतर आक्रोश को समझने के लिये दलित रंगभूमि चलाते संजय जीवने से जुड़ा। उसे खंगाला। जनसत्ता में एक बड़ा लेख लिखा । 6 दिसबंर 1992 की आहट में संघ मुख्यालय का चक्कर लगाते हुये सरसंघचालक देवरस से कई बार बातचीत की। उसे जनसत्ता ने छापा। नक्सलियों की विदर्भ में आहट को सामाजिक संदर्भ में देखते देखते चन्द्रपुर-गढ़चिरोली के जंगलों से लेकर नागपुर में आईजी रैंक के पहले नक्सलविरोधी कैंप में पहले आईजी कृष्णन के साथ लंबी बहस की। और दिल्ली से निकलते संडे आब्जर्वर, संडे मेल और जनसत्ता में लेख लिखकर खामोश हो गया।

लेकिन जिस दिन शंकर गुहा नियोगी की हत्या हुई और एक पूरा पेज लोकमत समाचार में मैंने खुद लिखकर निकाला, उस सुबह शाहू जी ने बिना दस्तक दिये ही मुझे सोये हुये ही गले से लगाकर बोले-"कमाल है। बबुआ कमाल का लिखा है। लगता ही नहीं है कि नागपुर का अखबार है। मै आज ही विजय बाबू से बात करता हूं कि जो आप दिल्ली-मुबंई के अखबारों में लिखते है, उसे लोकमत समाचार में क्यों नहीं छापा जा सकता।"

अरे-अरे आप ऐसा ना करिये। मेरी रईसी तो रहने दीजिये। दिल्ली से जो पैसा आता है वह बंद हो गया तो फिर "प्रिंस {हमारा प्रिय बार प्रिंस }"कौन जायेगा । तो शर्त है बबुआ सोइए नहीं। यह भी मत सोचिये कि एक बार विषय को जान-समझ कर लिख दिया बस काम खत्म। लिखने का वोमिट करना छोड़िये। आपको जूझना होगा खबरों के लिये नही बल्कि विकल्प नजर आने वाली खबरों को खबर बनाने के लिये। आज ही मैं पत्नी से आपके लिये हरी मिर्च का डिब्बे भर आचार बनवाता हूं।

सादी ब्रेड में हरी मिर्च के आचार को रख खाकर जीने का सुकून मेरे भीतर कितना है और इसके जरीये मैं खबरों को टोटलने निकल सकता हूं। यह शाहू जी को बखूबी पता था कि खाने की जद्दजहोद अगर आसान हो जाये तो मेरी लिये 24 घंटे सिर्फ पत्रकारिता के हैं। और शाहू जी टीस थी कि बच्चों के बड़े होने से पहले अगर झोपड़ीनुमा कच्चा मकान पक्का हो जाये तो जिन्दगी पत्रकारिता और लेखन के जरीये कैसे भी काटी जा सकती है। ट्रैक्टर भर ईंट और बालू की कीमत क्या है । नल और पाइप की कीमत क्या है। मजदूर रोज की दिहाड़ी कितनी लेते हैं। सबकुछ 1990-93 के बीच मैं जानता रहा और शाहू जी का घर पक्का होना शुरु हुआ । एक दिन सुबह सुबह हरी मिर्च का डिब्बे भर आचार लेकर पहुंचे और बड़े गर्व से बोले आज बबुआ नहीं...प्रसून जी घर का एक कमरा पक्का हो गया और बाकी के हिस्से में ढलाई का काम शुरु हो गया। अब बरसात में भीगेंगे नहीं । और तुरंत पूछ बैठे आपका मेधा पाटकर के आंदोलन को लेकर क्या सोचना है। यह रास्ता ठीक है या फिर अनुराधा गांधी का। शाहूजी मेधा पाटकर और अनुराधा को क्यों मिला रहे हैं। इसलिये क्योंकि एक का रास्ता घर छोड़ कर हथियार के जरीये संघर्ष का है तो दूसरा लोगों के बी उनके घरों को बचाने का प्रयास है।

शाहू जी आप घर का मसला छोड़िये और यह देखिये कि दोनों ही संघर्ष सरकार से कर रही हैं, जिसका पहला काम आम लोगों का घर ना उजड़ने देने का भी है और हक दिलाना भी है। तो आप बतायेंगे नहीं। इसमें बताने जैसा कुछ नहीं है, यह वैसा ही है कि जैसे विनोद जी आपका लिखा छाप देते है और मेरे लिखे को रोक देते हैं। जबकि मैंने तो अमरावती में कुपोषण से मरे बच्चों की पूरी सूची ही दे दी थी। अरे बबुआ अपनी पत्रकारिता में संपादक को क्यों देखते हैं, यह बताइये ढाई सौ रुपये हैं। आज गिट्टी गिरवानी है। अरे शाहू जी हो जायेगा। रात में दे देंगे। कमोवेश हर रात और हर दिन साइकिल से नागपुर को मापते शाहूजी। कभी आंदोलनों को लेकर छटपटाहट तो कभी अनुवाद से लेकर कोई भी लेखन की खोज, जिससे चंद रुपयों का जुगाड़ हो सके। और कभी सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग करने की धुन। और इसी धुन के बीच बीते 22 बरस से जवाहललालजी दर्डा से लेकर विजय दर्डा और एस एन विनोद से लेकर अच्युतानंदन होते हुये गिरीष जी के जरीये लोकमत समाचार की यादों के आसरे कैसे जीने की आदत शाहू जी ने मेरी भी बना दी, इसको देखने समझने के लिये हम दोनों ने 24 अप्रैल 2012 की तारीख तय की थी। इस दिन शाहू जी के सबसे छोटे बेटे कुंदन की शादी रामटेक में होनी तय हुई। शाहू जी ने कहा विजय बाबू से लेकर हर किसी को इस शादी का न्यौता दे रहे हैं। जो हमारे नागपुर में अतीत के साझे ऑक्सीजन रहे हैं। लेकिन जिन्दगी की त्रासदी देखिये जो 22 बरस से बबुआ सो रहे हो कहकर जगाता रहा, उसके ही लाडले ने 27 मार्च को सुबह सुबह फोन पर कहा कि पिताजी नहीं रहे।

Friday, March 23, 2012

राज्यसभा बिकाऊ क्यों है

झारखंड में बीजेपी की आत्मा जागी और उसने तय किया कि राज्यसभा चुनाव में विधायकों की खरीद-फरोख्त को देखते हुये वह चुनाव में वोट भी नहीं डालेगी। यानी झारखंड में राज्यसभा की दो सीटों के लिये पांच उम्मीदवारों की होड़ में उसके विधायक किसी को वोट नहीं डालेंगे। तो क्या यह मान लिया जाये कि चुनाव का बायकॉट बिगड़ी चुनावी व्यवस्था में सुधार का पहला कदम है। और आत्मा जगाकर खामोश बैठी बीजेपी का सच तो यही है कि जब चुनाव आयोग ने ही राइट टू रिजेक्ट का सवाल यह कहकर खड़ा किया कि ईवीएम में आखरी कालम खाली छोड़ा जाये तो ससंद के भीतर आडवाणी समेत संसद ने एक सुर में इसे नकारात्मक वोटिंग करार दिया था। इसके बाद मामला ठस हो गया।

असल में इस दौर में जिस तरह से संसदीय राजनीति में सत्ता के हर रंग को लोकतंत्र का रंग बना दिया गया है उसमें लोकतंत्र ही कैसे ठस हो गई है, यह राजयसभा की तस्वीर उभार देती है। पिछले साल राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में से 128 सदस्य उघोगपति, व्यापारी, बिल्डर या बिजनेसपर्सन रहे। यानी राज्यसभा के आधे सांसदो का राजनीति से सिर्फ इतना ही लेना-देना रहा कि राजनीतिक दलों का दामन पकड़कर अपने धंधो को फलने-फूलने के लिये संसद पहुंच गये। संसद सदस्य बनते ही सारे अपराध भी ढक गये और विशेषाधिकार भी मिल गये। यानी नोट के बदले कैसे राज्यसभा को ही धंधे के लाभ में बदला जा सकता है, उसका खुला नजारा नीतियों के जरीये ही उभरता है। मौजूदा वक्त में राज्यसभा के सांसद के तौर पर सबसे ज्यादा उद्योगपति और बिजनेस पर्सन हैं। इनकी तादाद करीब 86 है। जबकि बिल्डर और व्यापारियों की संख्या करीब 40 है । और इसमें से अधिकतर सांसदों की भूमिका राज्यसभा में पहुंचने से पहले किसी पार्टी विशेष के नेताओं के लिये हर सुविधा मुहैय्या कराने की ही रही है। और इस दायरे में क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी, हर क्षेत्रीय स्तर के राजनीतिक दल आये हैं। हालांकि वामपंथियों ने इस रास्ते से परहेज किया।

लेकिन राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के खाते में 54 सांसद ऐसे आते हैं जिन्हे धंधे के अक्स में राज्यसभा तक पहुंचाया गया। वहीं क्षेत्रीय दलों के जरीये करीब 70 सांसद राज्यसभा में विधायकों की कीमत लगाकर पहुंचे। इनमें से राज्यसभा के 20 सदस्य तो ऐसे हैं जो राजनीतिक दलो की बैठको से लेकर कार्यकर्ताओं के हवाई टिकट का जिम्मा लेकर लगातार पार्टी की सेवा का तमगा लगाकर राज्यसभा की जुगाड़ में लगे रहे और एक वक्त के बाद मान लिया गया कि यह पार्टी के ही सेवक हैं। इस परिभाषा में झारखंड के उद्योगपति आर के अग्रवाल से लेकर नागपुर के बिजनेसपर्सन अजय संचेती को डाला जा सकता है। दोनों ही अगले महीने राज्यसभा के सांसद के तौर पर शपथ लेंगे। लेकिन शपथ लेने के बाद धंधों से जुडे सांसदों के लिये राज्यसभा का मतलब है क्या, यह भी अलग अलग क्षेत्रों के लिये बनने वाली संसद की स्टैडिंग कमेटी के जरीये समझा जा सकता है। मसलन फाइनेंस की स्टैंडिंग कमेटी के कुल 61 सदस्यों में 19 सदस्य ऐसे हैं जिनके अपने फाइनेंस पर संकट गहरा सकता है अगर वह स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य ना हो तो। इसी तर्ज पर कंपनी अफेयर की स्टैडिंग कमेटी में राजयसभा के 6 सांसद ऐसे हैं जो द कई कंपनियों के मालिक हैं।

इसी तरह हेल्थ और मेडिकल एजूकेशन की स्टैडिंग कमेटी में 3 सांसद ऐसे हैं, जिनके या तो अस्पताल हैं या फिर मेडिकल शिक्षा संस्थान। जाहिर है यह खेल राज्यसभा में पहुंचकर कितने निराले तरीके से खेला जा सकता है, यह किंगफिशर के मौजूदा हालात को देखकर भी समझा जा सकता है। यूपीए-1 के दौर में जब प्रफुल्ल पटेल नागरिक उड्डयन मंत्री थे तब किंगफिशर के मालिक विजय माल्या राज्यसभा के सदस्य बनकर पहुंचे। उन्हें राज्यसभा पहुंचाने वालों में कांग्रेस और बीजेपी दोनो का ही समर्थन मिला। और प्रफुल्ल पटेल ने विजय माल्या को नागरिक उड्डयन की संसद की स्थायी समिति का सदस्य बनवा दिया। और जब तक विजय माल्या संसदीय कमेटी के सदस्य रहे तब तक इंडियन-एयरलाइन्स की जगह किंगफिशर ही सरकारी विमान बन गया। यानी सारी सुविधाएं किंगफिशर को मिलने लगी। और क्रोनी कैपटलिज्म की दुहाई देकर जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रफुल्ल पटेल का मंत्रालय बदला तो झटके में किंगफिशर का अंदरुनी सच सामेन आने लगा। यही हालात बतौर पेट्रोलियम मंत्री के तौर पर रिलायंस को लाभ पहुंचाकर मुरली देवडा ने किया और यही लाभ यूपीए-1 में कंपनी अपेयर मंत्री बने लालू के करीब उन्हीं के पार्टी के राज्यसभा सदस्य प्रेमचंद गुप्ता ने उठाया। राजनीति के ककहरे से दूर कई कंपनियों के मालिक प्रेमचंद गुप्ता की खासियत लालू यादव को सीढी बनाकर देश का मंत्री बनने का था। तो वह बन गये और आज भी लालू के पीछे खड़े होकर सांसद का तमगा साथ लिये है। लेकिन संकट इतना भर नहीं है। राज्यसभा सासंदों की फेरहिस्त में राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर एसएस अहलूवालिया सरीखे सांसद अंगुली पर गिने जा सकते हैं, जिन्होंने राज्यसभा में 16 बरस गुजारने के बाद भी अपने लिये एक घर भी नहीं बना पाया। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्यसभा में साठ फीसदी सदस्य छह बरस में कई कंपनियों के मालिक से लेकर अस्पताल, शिक्षण संस्थान या होटल के मालिक बन जाते हैं। यानी जो धंधे में नहीं होते वह भी राज्यसभा में आने के बाद धंधे शुरु कर लेते हैं। क्योंकि इनकी जिम्मेदारी आम जनता को लेकर कुछ भी नहीं होती। और संसद के बाहर सड़क पर आम आदमी कैसे जीवन जी रहा है, इसका कोई असर भी राज्यसभा के सदस्यों की सेहत पर नहीं पड़ता। यहीं से संसद की एक दूसरी कहानी भी शुरु होती है जो राज्यसभा सदस्यों के देश चलाने की थ्योरी और लोकसभा के सदस्यो के प्रेक्टिकल के बीच लकीर खिंचती है। गर मनमोहन सरकार पर नजर डाले तो दर्जन भर मंत्री ऐसे हैं जो राज्यसभा से आते हैं। इनके दरवाजे पर कभी आम वोटरो की लाइन नजर नहीं आयेगी जैसी लोकसभा में चुन कर पहुंचे सांसद या मंत्रियों के घर के बाहर नजर आती है। राज्यसभा सांसद-मंत्रियों से मिलने वाले 90 फीसदी लोग उनके पहचान वाले के बाद किसी न या फिर क्लाइंट होते हैं। मसलन वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा चाहे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में किसानों की बोली लगा दें, उनके घर या दफ्तर में कभी किसान नहीं पहुंचेगा। लेकिन जब कमलनाथ वाणिज्य मंत्री थे तो वह विश्व बैंक या डब्लूटीओ के सामने किसानों के सवाल पर नतमस्तक इसलिये नहीं हो सकते थे क्योंकि उन्हें कल अपने चुनाव क्षेत्र छिंदवाडा में ही किसानों के सवालों का जवाब देना मुश्किल होता। या फिर मंत्री रहते हुये लोकसभा सांसद को घेरने के लिये उसके चुनावी क्षेत्र में विपक्ष सक्रिय हो सकता है लेकिन राज्यसभा सांसद के मंत्री रहते किसी जनविरोधी निर्णय को लेकर कोई विरोध कहां हो सकता है।

मौजूदा हालात में यह सवाल मनमोहन सिंह को लेकर भी उठ सकते है और उसका एक कटघरा कांग्रेस के राजनीतिक एजेंडे से दूर सरकार के कामकाज से भी झलक सकता है। जहां खांटी कांग्रेस परेशान दिखेंगे कि सरकार की नीतिया उनके वोटबैंक से दूर होती जा रही हैं। जो भविष्य में कांग्रेस को संकट में डाल सकती है और राज्यों के चुनाव में डालना शुरु कर दिया है। मगर इस पूरी कवायद में देश कितना पीछे छूटता जा रहा है और संसदीय लोकतंत्र का मतलब ही कैसे सत्ता समीकरण हो चला है। और सत्ता ही लोकतंत्र है। क्योंकि राज्यसभा से इतर चुनाव प्रक्रिया भी झारखंड में ही बिना किसी विचारधारा बिना किसी राजनीतिक दल के एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री बना देती है। और मधुकोडा दो बरस तक मुख्यमंत्री भी रहते हैं और 200 करोड से ज्यादा की लूटपाट भी करते हैं। जेल भी जाते हैं और वर्तमान में मनमोहन सरकार को समर्थन देकर सरकार बचाने की कवायद करते हुये संसद में शान से बैठे हुये नजर भी आते हैं। तो अपराधी है कौन संसदीय राजनीति या लोकतंत्र की परिभाषा। क्योंकि दोनो दायरे में संविधान ही विशेषाधिकार देता है। जिसे आम आदमी चुनौती भी तभी दे सकता है जब वह खुद दागदार होकर इस दायरे में खड़ा होने की ताकत जुटा ले।

Wednesday, March 21, 2012

बदलने लगी संघ की चाल और बीजेपी का चेहरा

आरएसएस ने पहली बार राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहे स्वयसेवकों को संगठन के भीतर जगह दी है, तो बीजेपी पहली बार अपने ही कद्दावर नेताओं को खारिज कर पैसेवाले उघोगपतियों को जगह दे रहा है। आरएसएस को लग रहा है कि आने वाले वक्त में संघ को राजनीतिक दिशा देने का काम करना होगा। तो बीजेपी को लग रहा है कि चुनावी सत्ता की नैया खेने के लिये आने वाले वक्त में सबसे जरुरी पैसा ही होगा। आरएसएस ने अपनी कार्यकारिणी में ऐसे छह नये चेहरों को जगह दी है जो इमरजेन्सी से लेकर मंडल-कमंडल के दौर में खासे सक्रिय रहे। सह-सरकार्यवाहक बने डा कृष्णा गोपाल तो 1975 में मीसा के तहत 19 महीने जेल में रहे। और मदनदास देवी की जगह आये सुरेश चन्द्रा तो अयोध्या आंदोलन के दौर में स्वयंसेवकों को राम मंदिर का पाठ ही कुछ यूं पढ़ाते रहे जिससे बीजेपी की राजनीतिक जमीन के साथ समूचा संघ परिवार खड़ा हो।

इसी तर्ज पर एक दूसरे सहसरकार्यवाहक बने। केरल के के सी कन्नन ने स्वयंसेवकों की तादाद बढ़ाते हुये हिन्दुत्व की धारा को लेकर दक्षिण में तब जमीन बनायी जब वामपंथी धारा पूरे उफान पर थी। लेकिन इसके ठीक उलट बीजेपी ने अरबपति
एनआरआई अंशुमान मिश्रा और नागपुर के अरबपति अजय कुमार संचेती को अपना नुमाइन्दा बनाया है। एनआरआई अंशुमान लंदन में रहते हैं। पर्चा भरते वक्त पत्रकारों के कुरेदने पर यह कहने से नहीं चूकते जब झरखंड संभाले चौकडी अर्जुन मुंडा,बीजेपी के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ और वैकैया नायडू के अलावा वर्तमान अध्यक्ष नीतिन गडकरी का ही साथ हो तो फिर राजयसभा कितनी दूर होगी। वहीं उद्योगपति अजय कुमार संचती हर उस जगह बीजेपी के पालनहार बने जहा पैसे की जरुरत रही। संयोग से झारखंड में अर्जुन मुंडा की सरकार बन जाये उसमें भी नागपुर से उडकर रांची में असल बिसात संचेती ने ही बिछायी थी। इतना ही नही नीतिन गडकरी के बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर हर छोटे-बडे बैठकों के लिये पैसे का इंतजाम उन्हीं पैसेवालों ने किया जो नीतिन गडकरी के करीब थे। यहां तक की पटना में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद ना तो सुशील मोदी ना ही रविशंकर जैसे नेताओं ने पैसे का जुगाड कर पाये। आखिरकार रास्ता गडकरी ने ही दिखलाया। वहीं संघ के मुखिया मोहन भागवत को अण्णा आंदोलन के दौर सें लगा कि अगर सामाजिक तौर पर अण्णा सरीखा कोई शख्स देश को झकझकोर सकता है तो फिर आने वाले वक्त में आरएसएस की उपयोगिता पर भी सवाल उठेंगे।

और जब बीजेपी के पास समूचा राजनीतिक संगठन है और संघ के स्वयंसेवकों को महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और कालेधन के सवाल पर बीजेपी के आंदोलन के साथ जुडने का निर्देश था, फिर भी सफलता बीजेपी को क्यो नहीं मिली । असल में 16-17 मार्च को नागपुर में संघ
के राष्ट्रीय अधिवेशन में यही सवाल उठा। और चितंन-मनन की प्रक्रिया में पहली बार आरएसएस ने माना ने बीजेपी की राजनीतिक दिशा कांग्रेस की लीक पर चलने वाली ही हो चुकी है । इसलिये आरएसएस को ही राजनीतिक बिसात बिछानी होगी । और इसी रणनीति के तहत पहली बार संघ की कार्यकारिणी राजनीति के उस महीन धागे को पकड़ना चाह रही है जहा से बीजेपी की साख दोबारा बने । यानी संघ यह मान रहा है कि बीजेपी के नेताओ की साख नहीं बच रही इसलिये संगठन भी भोथरा नजर आ रहा है। वहीं नेताओं का मतलब नीतिन गडकरी सीधे दिल्ली की उस तिकडी पर डाल रहे हैं जो संसद से सडक और मीडिया से आम लोगों के ड्राईंग रुम तक में चेहरा है। बीजेपी ही नहीं संघ का भी मानना है कि लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली राजनीतिक तौर पर बीजेपी की पहचान है । लेकिन इन नेताओं की पहचान के साथ आरएसएस की खुशबू गायब है । इसका लाभ नीतिन गडकरी को मिल रहा है। और नीतिन गडकरी के रास्ते का लाभ आरएसएस को मिल रहा है। क्योंकि संघ के भीतर गडकरी को लेकर पहचान मोहन भागवत के ऐसे सिपाही के तौर पर है जो मुहंबोले हैं। जिसने अब की कमान संभाले संघ कार्यकारिणी के हर उस शख्स को नागपुर में देवरस के उस दौर से देखा जब सभी रेशमबाग के इलाके में कदमताल करते हुये सदा-वस्तले गाया करते थे। उसमें मोहन भागवत भी रहे हैं। तो बीजेपी के चेहरों को खत्म करने की राजनीति में बीजेपी ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहां लोकसभा में प्रतिपक्ष के तौर पर बीजेपी की नेता सुषमा स्वराज के साथ बीजेपी अध्यक्ष की धुन बिगड चुकी है

राजयसभा में प्रतिपक्ष के बीजेपी के नेता के तौर पर अरुण जेटली के साथ नीतिन गडकरी की किसी मुद्दे पर साथ बैठते नहीं। लाल कृष्ण आडवाणी के घर का रास्ता भी गडकरी भूल चुके हैं। ऐसे में दिल्ली में डेरा जमाये दूसरी कतार के नेताओ की फौज चाहे रविशंकर प्रसाद से लेकर अनंत कुमार तक हो या शहनवाज हुयैन से लेकर मुख्तार अब्बास नकवी या रुढी की हो सभी गडकरी के पीछे आकर खड़े हो गये हैं। ऐसे में बीजेपी के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वैकैया नायडू बेहद शालिनता से दिल्ली की तिकडी का साथ छोड़ गडकरी के पैसेवालो की चौसर के ऐसे पांसे बन गये जहा बीजेपी का मतलब गडकरी का खेल है। इसलिये उत्तराचल में काग्रेसी रावत के बगावत से जरा सी उम्मीद भी बीजेपी में जागती है तो निशंक के साथ गडकरी रात बारह बजे के बाद भी चर्चा करने से नहीं कतराते और राज्यसभा की सीट पर राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर अहलूवालिया का पत्ता कैसे कटे इसकी बिसात झारखंड में पहले जमेशदपुर के उघोगपति आर के अग्रवाल के नाम से सामने आती है तो फिर एनआरआई
अंशुमान मिश्रा के जरीये मात मिलती है। वहीं खेल बिहार में भी खेला जाता है जहा अहलूवालिया का नाम छुपाकर सुरक्षा एंजेसी चलाने वाले आर के सिन्हा के नाम को आगे कर बिहार बीजेपी के भीतर ही लकीर खिंच कर जेडियू को मौका दिलाया जाता है । अगर इतने बडे पैमाने पर लकीरें खिंची जा रही है तो सवाल यह नहीं है कि है कि क्या संघ से लेकर बीजेपी बदल रही है । सवाल यह है कि आगे जिस रास्ते को संघ और बीजेपी पकडने वाले है उसका असर देश की राजनीति पर पड़ेगा या फिर बदलती राजनीति ने ही बीजेपी-संघ को बदलने पर मजबूर कर दिया है।

Tuesday, March 13, 2012

राष्ट्रपति का अभिभाषण और मायके का सच

देश के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 1952 में सिर पर मैला ढोने वालों का जिक्र कर इसे भारतीय सामाजिक-सासंकृतिक परंपराओं की गुलामी करार दिया था और कहा था कि पहली पंचवर्षीय योजना के तहत इसे पूरी तरह समाप्त करने का बीड़ा देश को उठाना होगा। लेकिन त्रासदी देखिये राजेन्द्र बाबू के अभिभाषण के साठ बरस बाद भी न तो मैला ढोने वाले खत्म हुये और न ही राष्ट्रपति के भाषण में कोई परिवर्तन आया। जिस गुलामी को खत्म करने का जिक्र देश की पहली लोकसभा के सामने पहली पंचवर्षीय योजना के सामने चुनौती के रुप में राजेन्द्र बाबू ने रखा। उस गुलामी का जिक्र साठ बरस बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 15 वीं लोकसभा के बजट सत्र की शुरुआत के अपने अभिभाषण में 12 वीं पंचवर्षीय योजना को समवेशी विकास के साथ किया।

साठ बरस पहले इस काम को खत्म करने का सवाल था और साठ बरस बाद सिर पर मैला ढोने वालो को राहत और सुविधा देने की बात है। यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि परंपराओं के आसरे देश का लोकतंत्र मजबूत होते देखने की परंपरा ही वोटरों की बढ़ती तादाद के दायरे में सिमटा दी गयी। और यह परंपरा कैसे गुलाम हो रही है यह भी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के संसद में आखिरी संबोधन में ही झलका। 70 मिनट के संबोधन में मनमोहन सरकार के 36 मंत्रालयों की उपलब्धियों की दो-दो लाइनों से लेकर दो दो पेज तक को ही राष्ट्रपति ने यह जानते-समझते हुये पढ़ा कि उनकी सरकार का कद जनादेश के तौर पर इतना छोटा हो चुका है कि अपनी मर्जी के शख्स तक को वह अगला राष्ट्रपति नहीं बनवा सकतीं।

राष्ट्रपति के अभिभाषण की ऐसी परंपरा तले जब बजट सत्र राजनीतिक तौर पर मंगलवार [13 मार्च] से खुलेगा तो फिर जिन मुद्दो को सफलता के साथ राष्ट्रपति ने रखा है उसकी धज्जियां जब तथ्यों के आसरे उड़ेगी तो उसे लोकतंत्र का हिस्सा माना जायेगा या झूठ का अभिभाषण। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि भ्रष्टाचार,कालाधन, आंतरिक सुरक्षा, और ई-गवर्नेंस से इतर शिक्षा, स्वास्थ्य , खेती और हर पेट के लिये अनाज के सवाल को समाधान की लीक पर लाने की जो सोच राष्ट्रपति के अभिभाषण में उभरी उसके हर पायदान पर इतना बड़ा छेद है कि उसको समेटे हर राजनेता और कारपोरेट अपने आप में शहंशाह हैं। क्या बजट सत्र शुर होते ही इंतजार रेल बजट और आर्थिक सुधार की पटरी पर दौड़ते आम बजट का ही होगा जो अगले 100 घंटों में देश के सामने होगा। या फिर संसद के भीतर कोई यह सवाल भी उठायेगा कि देश के आमलोगों की न्यूनतम जरुरतों को ही जब चंद हथेलियो में सिमटा दिया गया है तो फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती और मुफ्त अनाज देने का सब्जबाग संसद की मर्यादा को ताक पर रखकर क्यों दिखाया जा रहा है। ऐसी कौन सी परंपरा राष्ट्पति को सच के सामने आंख मूंद कर भाषण देने को मजबूर करती है, जबकि उनके अपने मायके में सबसे बदतर हालात हैं। ऱाष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के मायके जाने के लिये नागपुर हवाई अड्डे पर उतरना ही पड़ेगा। और आंखे खुली हों तो उतरते जहाज की खिड़की से ही हवाई अड्डे के उस विस्तार को देखा जा सकता है जिसके दायरे में गांव, घर, खेती सबकुछ आ जाता है। और हवाई अड्डे से बाहर कदम रखते ही महज 500 मीटर के बाद नियान रोशनी से नहाये मिहान[ मल्टीमाडल इंटरनेशनल कारगो हेडलिंग] नाम की वह परियोजना बोर्ड पर लिखी नजर आती है, जिसके दायरे में अंतराष्ट्रीय कारगो से लेकर अत्याधुनिक टाउनशीप और आधुनिक बाजार का वह चेहरा है जो आर्थिक सुधार का अनूठी खिड़की है। लेकिन नजरों में अगर चकाचौंध तले अंधेरे को देखने की हिम्मत हो तो फिर नागपुर हवाई अड्डे से पांच सौ मीटर दूर जाने की भी भी जरुरत नहीं है। हवाई अड्डे की दीवार पार करते ही शिवणगांव के रास्ते पर टंगे ब्लैक बोर्ड को देखा जा सकता है। इस पर लिखा है, "वेलकम टू मिहान, शेतकरयांचे श्मशान'" यानी [ मिहान में स्वागत, किसानों का श्मशान]। और संयोग से नागपुर से राष्ट्रपति के मायके अमरावती जाते वक्त अगर हाई-वे छोड़ गांवों की पगडंडी पकड़ें तो शिवण गांव, चिंचभुवन गांव, तेलहरा गांव , दहेगांव, कुलकुही गांव समेत दर्जनों गांव ऐसे पड़ते हैं, जिनकी करीब तीन हजार हेक्टेयर जमीन मिहान परियोजना तले ले ली गई है। और 50 हजार से ज्यादा किसान परिवार खेती-मजदूरी से भी गये और दो जून की रोटी के लाले सभी के सामने है। क्योंकि बीते दस बरस के खेती जमीन के हड़प के दौर में अब किसी परिवार के पास ना तो मुआवजे का एक रुपया बचा है और ना ही दो जून की रोटी जुगाड़ करने का काम।

सवाल यह भी नहीं है कि राष्ट्रपति ने सबको-शिक्षा की जो दुहाई अपने अभिभाषण में दी उसका असल चेहरा उन्हे अपने मयके विदर्भ में दिखायी ना देता हो। शिक्षा को लेकर सरकार का बजट 55 हजार करोड़ का हो। लेकिन विदर्भ का सच यह है कि यहा आज भी प्राथमिक शिक्षा का मतलब मिड-डे मील है। और उच्च शिक्षा का मतलब नेताओं के प्राईवेट स्कूल कॉलेज। 27 नेताओं के इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेज यहां पर है। करीब 42 नेताओं के स्कूल विदर्भ में हैं। यह स्कूल कॉलेज हर राजनीतिक दल से जुडे नेता-मंत्री के हैं। जिनके जरीये औसतन मुनाफा हर बरस करीब 500 करोड़ का है। यानी शिक्षा कितना बडा धंधा है, यह राष्ट्रपति के मायके में घड़ल्ले से चलता भी है और घड़ल्ले से देखा भी जा सकता है। अभिभाषण ने संकेत दे दिये कि अब सरकार का मिशन स्वास्थ्य सेक्टर को लेकर है, जो एनएचआरएम यानी ग्रामीण क्षेत्र के बाद शहरों में जोर पकड़ेगा। और यह बजट में नजर भी आयेगा। लेकिन अगर राष्ट्रपति के मायके में झांक कर अस्पतालों और इलाज का हाल देख लें तो समझा जा सकता है कि देश में इलाज होता किसका है। विदर्भ के नौ जिलों में कुल 191 सरकारी अस्पताल है जो पेड़ के नीचे से लेकर झोपड़ी तक में चलते हैं। जबकि पूरे विदर्भ में 1095 निजी अस्पताल हैं। जहां इलाज के लिये जेब में कम से कम 500 रुपये जरुर होने चाहिये। जबकि 70 फिसदी लोगो की महीने भर की आय पांच सौ रुपये नहीं है। यहा सरकारी अस्पताल का मतलब है नब्ज पकड कर घरेलू दवाई का सुझाव देना या फिर बचे 16 जिला अस्पताओं में इलाज के लिये भेजना। राष्ट्रपति की आंख में संसदीय मर्यादा कैसे पट्टी बांध देती है, यह अभिभाषण में मुफ्त अनाज बांटने की सरकार की सोच या आर्थिक पैकेज के जरीये पेट और पीठ एक किये लोगो की राहत देने के एलान के दायरे में विदर्भ के सच से भी समझा जा सकता है। क्योंकि प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने के बाद जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विदर्भ गये तो 22 हजार करोड़ के पैकेज का ऐलान कर चले आये। लेकिन 2007 के बाद राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल करीब दो दर्जन बार अपने मायके गई और नागपुर हवाई अड्डे से लेकर अमरावती में घर तक में हजारों कागज राष्ट्रपति के हाथ तक पहुंचे, जिसमें सिर्फ इतना ही दर्ज था कि प्रधानमंत्री जो कहकर गये वह नहीं मिला। पैकेज का पैसा तो दूर मवेशियों तक को गिरवी रखना पड़ रहा है जिससे पैकेज का पैसा पाया जा सके। बैंक के कर्मचारी और सरकारी अधिकारी बिना घूस या कमीशन प्रधानमंत्री के पैकेज का एक पैसा भी नहीं देते। सरकारी खाद, बीज भी नहीं मिलता। इस बार तो पानी भी नहीं हुआ। कपास की खेती खत्म हो चुकी है। किसानों का कहना है कि जमीन हड़पने वालों के चंगुल से हमें बचायें। हम पीढियो का पेट भरती आई जमीन किसी को नहीं देना चाहते है। किसी तरह बेटे -बहु को कोई काम मिल जाये। और फलां तारीख को खुदकुशी करेंगे। यह सारे वक्तव्य उन दस्तावेजों का सच है, जो गाहे-बगाहे राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के पास विदर्भ के लोगों ने पहुंचाये। कभी अकेले। करीब समुदाय में। लेकिन इस सच पर कृषि मंत्रालय के कागजी दस्तावेज या सरकार की नीतियों का फरेब कैसे भारी पड़ जाता है, यह भी राष्ट्रपति के अभिभाषण ने झलका दिया। जिसमें ऐसा कोई लफ्ज संसद में
राष्ट्रपति ने नहीं बोला जिसके अक्स में आम आदमी यह महसूस करता कि उसके दर्द उसकी त्रासदी या फिर उसके जीने के सच के साथ कोई सरोकार-संवाद भी संसद कर पा रही है। ऐसे में यह सवाल कितना बड़ा या कितना छोटा है कि पांच राज्यों के जनादेश तले संसद के बजट सत्र से क्या निकलेगा। और सरकार अब तो आर्थिक सुधार की उड़ान छोड जनता की नब्ज को पकड़ेगी। जबकि राष्ट्रपति को यह गर्व है कि सरकार का हर मंत्रालय देश के विकास में लगा हुआ है।

दरअसल, सरकार और आम आदमी के बीच की खाई कितनी बड़ी है यह कपास के निर्यात पर से प्रतिबंध उठान से लेकर खनिज संस्थानों के खनन को निजी हाथों में सौंपने के खेल से भी समझा जा सकता है। संयोग से राष्ट्रपति के पास आखिरी पर्चा विदर्भ के किसानों ने यह कहकर पहुंचाया था कि कपास उगाने के बाद उन्हें आधी कीमत भी नहीं मिलती और अब निर्यात के लिये रास्ता खुला है तो कीमत एक चौथाई भी नहीं मिलेगी क्योंकि सरकार की नीति से किसानों का नहीं उन निर्यातकों को फायदा होगा, जिनकी अंटी में रुपया भरा पड़ा है। वहीं खनन को निजी हाथों में सौंपने पर चन्द्रपुर के खनन मजदूरों ने गुहार लगायी थी कि उन्हें मनरेगा से भी कम मजदूरी मिलती है। सिर्फ 45 से 85 रपये रोज। और उसपर सरकार कोई न्यूनतम नियम बना दें तो उन्हें राहत मिले। संयोग से यह अर्जी भी राष्ट्रपति को ही चन्द्रपुर के मजदूरों ने यह सोच कर सौपी की राष्ट्रपति तो सरकार या नेताओ से ऊपर है। लेकिन अभिभाषण ने जतला दिया कि देश में नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह के काल तक या फिर पहली पंचवर्षीय योजना से लेकर 12 वी पंचवर्षीय योजना तक के दौर में सवाल वही अनसुलझे हैं, जिसे साठ बरस पहले ही सुलझाना था। अंतर सिर्फ इतना ही है कि 1952 में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद चुनी हुई सरकार को सुझाव भी देते थे लेकिन 2012 में राष्ट्रपति चुनी हुई सरकार के गीत ही गाते हैं।

Monday, March 12, 2012

मुलायम की समाजवादी चौसर पर अखिलेश को सत्ता

लखनऊ के 5 कालिदास मार्ग में चाहे अखिलेश यादव रहें लेकिन जो बिसात मुलायम ने अपनी मौजूदगी से बिछायी है उसकी आंच अब 5 विक्रमादित्य मार्ग से ही नजर आयेगी। 15 मार्च को मुख्यमंत्री पद की शपथ अखिलेश यादव लेंगे और समूचे प्रदेश की नज़रें सबसे कम उम्र के अखिलेश के सीएम बनने पर होगी लेकिन इसी
शपथ-ग्रहण समारोह में दिल्ली की नजर मुलायम पर होगी। क्योंकि मुलायम की अगली बिसात के संकेत शपथ-ग्रहण समरोह के वक्त आमंत्रित नेतओं की कतार के चेहरों से मिलेगी। जिसमें तीसरे मोर्चे की संभवना दिख सकती है। क्योंकि ममता बनर्जी से लेकर बीजू पटनायक और नीतीश कुमार से लेकर जयललिता नजर आ सकती है। यानी एक साथ दो डोर को पकड़ मुलायम अब समाजवाद की सत्ता की वह परिभाषा गढ़ने को तैयार हो रहे हैं, जहां लोहिया का गैर कांग्रेसवाद और मौलाना मुलायम का गैर भाजपावाद एक साथ चले। उसकी छांव में अखिलेश की सत्ता उत्तरप्रदेश में युवा लीक भी बना दे। और मुलायम के पुराने समाजवादी साथी देश की सियासत में उस लीक को गढ़ने में लग जायें, जिसे यूपी के वोटर ने कांग्रेस को खारिज कर अपना जनादेश दिया है। मुलायम समझ रहे हैं कि राहुल गांधी ने भट्टा परसौल के जरीये भूमि अधिग्रहण के सवाल उठाये।

एफडीआई के जरीये चकाचौंध दिखाने की कोशिश की। बुंदेलखंड से लेकर बुनकरों के सवालों को आर्थिक पैकेज में ढाला और मुस्लिमों को आरक्षण का चुग्गा फेंक बटला हाउस पर दोहरी तलवार का खेल खेला। अगर यूपी ने कांग्रेस या राहुल के इन मुद्दो को खारिज किया है तो फिर यह मुद्दे क्षत्रपों के लिये ऑक्सीजन का काम कर सकते हैं जो कांग्रेस से टक्कर ले रहे हैं या फिर जो केन्द्र में भी तीसरे मोर्चे के जरीये अपनी शिरकत की धार समझ रहे हैं। यानी अर्से बाद मुलायम सिंह यादव की बिसात ऐसे राजनीति अखाड़े को बना रही है, जहां वह सियासत के दांव पेंच सीधे खेलें। और इसका पहला पाठ जो विधायक दल की बैठक में आजम खान के प्रस्ताव के मजमून से सामने आया उसने जतला दिया कि समाजवाद का नया चेहरा सत्ता पाने के बाद रचा जा सकता है ना कि सत्ता से पाने से पहले। विधायक दल की बैठक में मुलायम कुछ नही बोले सिर्फ बेटे को नेता चुने जाने के बाद आजम को गले लगाकर ताल ठोंकी। और आजम खान ने भी स्पीकर की जगह खुद को सक्रिय राजनीति में रखने की मंशा साफ करते हुये मुलायम सिंह को भी याद दिलाया कि मुलायम सिंह यादव भूलें नहीं कि वह वही मुलायम हैं जिन्हे रतन सिंह, अभय सिंह, राजपाल और शिवपाल की जगह अखाडे में ले जाने के लिये पिता ने चुना था। और मुलायम को भी पिता की याद आयी कि खुद पिता ही मुलायम की वर्जिश कराते और दंगल में जब मुलायम बड़े बड़े पहलवानों को चित्त कर देते तो बेटे की मिट्टी से सनी देह से लिपट जाते और उसमें से आती पसीने की गंध को ही मुलायम की असल पूंजी बताते।

कुछ इसी
तर्ज पर अखिलेश यादव के सिर पर मुलायम ने यह कहकर हाथ फेरा कि संघर्ष और संगठन पूंजी होती है। दरअसल इस पूंजी का एहसास लोहिया ने 1954 में मुलायम को तब करवाया जब उत्तर प्रदेश में सिंचाई दर बढ़वाने के लिये किसान आंदोलन छेड़ा। लोहिया इटावा पहुंचे और वहां स्कूली छात्र भी मोर्चा निकालने लगे। मुलायम स्कूली बच्चों में सबसे आगे रहते। लोहिया ने स्कूली बच्चों को समझाया कि पढ़ाई जरुरी है लेकिन जब किसान को पूरा हक ही नहीं मिलेगा तो पढ़ाई कर के क्या होगा। इसलिये पसीना तो बहाना ही होगा। लेकिन लोहिया से मुलायम की सीधी मुलाकात 1966 में हुई। तब राजनीतिक कद बना चुके मुलायम को देखकर लोहिया ने कल का भविष्य बताते हुये उनकी पीठ ठोंकी और कांग्रेस के खिलाफ जारी आंदोलन को तेज करने का पाठ यह कह कर पढ़ाया कि कांग्रेस को साधना जिस दिन सीख लोगे उस दिन आगे बढने से कोई रोक नहीं सकेगा। मुलायम ने 1967 में जसवंतनगर विधानसभा में कांग्रेस के दिग्गज लाखन सिंह को चुनाव में चित्त कर कांग्रेस को साधना भी साबित भी कर दिया। कांग्रेस को साधने का यही पाठ अखिलेश यादव ने अब याद किया है। इसलिये काग्रेस को लेकर तल्खी अगर एक तरफ अखिलेश समेत तमाम युवा समाजवादी विधायकों में हो तो दूसरी तरफ आजम खान के जरीये मुलायम गैर भाजपावाद के पाठ को दुबारा नयी तरीके से परिभाषित करना चाहते हैं। मुलायम सिंह ने 1992 में यह कहते हुये लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की थ्योरी को बदला था कि "..अब राजनीति में गैरकांग्रेसवाद के लिये कोई गुजाइंश नहीं रह गई है। कांग्रेस की चौधराहट खत्म करने के लिये डां लोहिया ने यह कार्यनीतिक औजार 1967 में विकसित किया था।....अब कांग्रेस की सत्ता पर इजारेदारी का क्षय हो चुका है। इसलिये राजनीति में गैर कांग्रेसवाद की कोई जगह नहीं है। इसका स्थान गैरभाजपावाद ने ले लिया है।" लेकिन तब उत्तर प्रदेश की राजनीतिक जमीन पर समाजवादी पार्टी के जरीये बीजेपी को शिकस्त देकर बीएसपी के साथ सत्ता
पाने के खेल में जातिय राजनीति को खुलकर हवा देते हुये मुलायम ने उस जातीय राजनीति में सेंध लगाने की कोशिश भी कि जो जातीय आधार पर बीएसपी को मजबूत किये हुये थी। उस वक्त मुलायम ने अतिपिछड़ी जातियों मसलन गडरिया,नाई,सैनी,कश्यप और जुलाहों से एकजुट हो जाने की अपील करते हुये बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह सरीखे नेताओं का नाम लेकर कहा, " कर्पूरी ठाकुर की जात के कितने लोग बिहार में रहे होंगे लेकिन वह सबसे बड़े नेता बने। दो बार सीएम भी बने। चरण सिंह तो सीएम-पीएम दोनो बनें। वजह उनकी जाति नहीं थी। बाबू राजेन्द् प्रसाद अपने बूते राष्ट्पति बने। जेपी हो या लोहिया कोई अपनी जाति के भरोसे नेता नहीं बना। राजनारायण भी जाति से परे थे।"

मुलायम उस दौर में
समझ रहे थे कि एक तरफ बीजेपी है दूसरी तरफ बीएसपी यानी जातियों की राजनीतिक गोलबंदी करते हुये उन्हे राष्ट्रीय राजनीति के लिये जातियों की गोलबंदी से परे जाने की राजनीति को भी समझना और समझाना होगा। लेकिन अब मुलायम के सामने मुस्लिमों को साधने के लिये कांग्रेस के ही वह हथियार है जो रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट और सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से निकले हैं। मुलायम मुस्लिमों की डोर थामकर आजम खान के जरीये दलितों से भी बदतर हालात में जी रहे तबकों के भीतर पैठ बनाना चाहते हैं। और इसके लिये अखिलेश की सत्ता और आजम की तकरीर कैसे काम करेगी यह तो आने वाले वक्त में पता चलेगा लेकिन आजम खान ने विधायक दल की बैठक के बाद जब एक रिपोर्टर के सवाल पर यह कहा कि वह अब ऐसा कम करेंगे जो कोई नहीं कर रहा तो सकेत यह भी निकले कि मुलायम सिंह यादव अब मुस्लिमों को लेकर कांग्रेस के तुष्टिकरण की सोच से आगे निकलना चाहते हैं। यानी न्यूनतम जरुरतों से लकर विकास के मॉडल को अगर यूपी में अखिलेश नये सिरे से खड़ा करते है तो फिर कांग्रेस को लेकर मुसलमानों को फिर सोचना होगा उन्हें लगातार धोखा दिया गया है। इसलिये अब हर मोर्चे पर मैदान साफ हो गया है। अब सेक्यूलर और कम्यूनल शक्तियों की लड़ाई नहीं बल्कि भूख-रोजगार और साख की लड़ाई है। लखनऊ से दिल्ली के लिये लकीर खींचने की ख्वाहिश पाले मुलायम अब अपने संघर्ष को भी पैना करना चाहते हैं। जिसमें मकसद साफ नजर आये। इसलिये यूपी के प्यादो से इतर राष्ट्रीय बिसात पर प्यादा बने राजनीतिक दलो के जरीये भी मुलायम दो तरफा खेल खेलना चाहते हैं। जिससे अखिलेश यादव की सत्ता को केन्द्र से मदद भी मिलती रहे और केन्द्र को क्षत्रपों की सत्ता के जरीये घेरा भी जा सके। यानी संसदीय राजनीति में विचारधारा से इतर समीकरण को ही वैचारिक आधार दे कर सत्ता कैसे बनायी जा सकती है, इसका पाठ पढाने में कोई चूक मुलायम नेना विधायक दल की बैठक में की और ना ही यह चूक 15 मार्च को अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह के वक्त करना चाहते हैं। यानी मुलायम का राजनीतिक प्रयोग राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों का ऐसा आइना है, जिसमें अखिलेश को सत्ता सौंपने के बाद भी परिवारवाद नहीं बल्कि समाजवादी संघर्ष ही दिखायी दे।

Tuesday, March 6, 2012

प्यादे से वजीर और सरोकार को नजीर बनाने का फैसला

दिल्ली के 24 अकबर रोड [कांग्रेस हेडक्वार्टर] से लखनऊ के 5 विक्रमादित्य रोड (मुलायम सिंह यादव का घर) की दूरी चाहे 500 किलोमीटर की हो लेकिन यूपी के चुनाव परिणामों ने झटके में लखनऊ के 5 कालिदास मार्ग को दिल्ली के10 जनपथ को करीब ला खड़ा कर दिया है। यह देश में बदलते राजनीतिक मिजाज का ऐसा जायका है जो संकेत दे गया कि अब चकाचौंध की सियासत आमआदमी हजम करने को तैयार नहीं है। राहुल गांधी का 'औरा' यूपी ने अखिलेश यादव की सादगी तले तोड़ा। या फिर पैराटूपर की राष्ट्रीय राजनीति करने वाले कांग्रेसी और बीजेपी के सियासी भ्रम को तोड़ा। या भ्रष्टाचार में गोते लगाकर सोशल इंजीनियरिंग की चुनावी परिभाषा गढ़ने वाली मायावती को आइनादिखाया। हुआ जो भी लकीर यही खिंची कि अगर सत्ता प्यादे को वजीर बना देती है तो वोटर वजीर को प्यादा बनाकर लोकतंत्र का जाप कर लेगा, चाहे उसके सामने चुनावी विकल्प का मतलब राजनीतिक हमाम ही क्यों ना हो।

सिर्फ चुनाव के वक्त राजनीतिक बिसात बिछा कर कांग्रेस का बेडा करने की यूपी की बिसात से लेकर उत्तराखंड और पंजाब के कांग्रेसियो को दिल्ली दरबार के आसरे ही
राजनीति करने का जो पाठ बार बार गांधी परिवार की कोटरी ने पढ़ाया उसको बेपर्दा अगर पंजाब के चुनावी इतिहास को बदल कर आकालियों ने किया तो अण्णा के खंडूरी समर्थन ने कांग्रेस के भीतर की कसमसाहट के बीच चुनावी जीत की झटपटाहट को भी बेपर्दा कर दिया। पंजाब के 46 बरस के इतिहास में पहली बार कोई पार्टी दोबारा सत्ता में आयी। जबकि बेरोजगारी,ड्रग्स से लेकर स्वास्थ्य,शिक्षा, बिजली,कानून-व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर के मुद्दों के बीच भ्रष्टाचार को लेकर नारे यही लगते रहे कि चीते,बगूले,नीले मोर / यह भी चोर तो ते भी चोर। यानी लोकल चोर तो चलेगा लेकिन दिल्ली की डोर से बंधा चोर नहीं चलेगा। पंजाब के कांग्रेसी कैप्टन का जहाज असल में पंजाब के ही तीन बादलों के आपसी टकराव से ज्यादा दिल्ली के उन बादलों में क्रैश कर गया जहां से कभी कोई सीधी लकीर पंजाब की राजनीति के लिये इस दौर में खींची नहीं गयी। कांग्रेस के इसी तौर तरीके ने उत्तराखंड से लेकर गोवा तक में कांग्रेस की स्थानीय पहचान के सामानांतर केन्द्र की राजनीति की ऐसी मोटी लकीर खींच दी कि खंडूरी ने अपने ही भ्रष्ट सीएम निशंक से जब सत्ता ली तो अण्णा के जनलोकपाल का लागू कर ऐसा हंटर चलाया कि उसकी गिरफ्त में निशंक के बदले काग्रेस का अण्णा विरोधी रुख ही सामने आया। और उत्तरांचल के बेरोजगारी, पलायन, विकास और फंड के घपलों सरीखे घाव इस सियासत में छुप गये। यानी जिन प्रदेशों में जो मुद्दे जहा खडे थे, वह वहीं मौजूद है लेकिन संसदीय राजनीति का तकाजा है कि इसी में लोकतंत्र की स्वतंत्रता को महसूस कर लिया जाये।

इसका एक बड़ा चेहरा गांधी परिवार के अक्स में रायबरेली और अमेठी ने भी दिखलाया। जहां इतिहास में पहली बार सोनिया गांधी,राहुल गांधी,प्रियंका गांधी,राबर्ट बढेरा और प्रियंका अपने दोनो बच्चों के साथ पहुंची। लेकिन लोकतंत्र ने पारंपरिक मुहं दिखायी भी गांधी परिवार को चुनावी फैसलों के जरीये नहीं दी। यानी नजीर बना दी कि सरोकर ना हो तो फिर औरा भी फुस्स होगा। फिर यह पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पहली बार किसी को सत्ता में लाने या हटाने से ज्यादा केन्द्र सरकार की उन नीतियों की तरफ भी इशारा कर रहे हैं, जिसकी बुनियाद सियासत पर नहीं आर्थिक सुधार पर खड़ी है । और जो आर्थिक सुधार सरोकार की जगह अभी तक मुनाफा ही टटोलते रहें। इसलिये अब कांग्रेस की मुश्किल सियासी राजनीति से ज्यादा सरकार की उन नीतियों को लेकर है जिस रास्ते प्रधानमंत् मनमोहन सिंह चलना चाहते हैं और चुनावी परिणाम काग्रेस को इसकी इसकी इजाजत नहीं देते। मसला अब यह नहीं है चुनाव में जीत के लिये बुनकरों को आर्थिक पैकेज से लेकर मुस्लिम आरक्षण का चुग्गा फेंक कर कांग्रेस मस्त हो जाये।

मसला यह भी नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी अयोध्या का दाग धोने के लिये यूपी में नायाब सोशल इंजीनियरिंग [उमा भारती से कुशवाहा तक ] कर संघ परिवार को ही समझाने लगे कि चुनाव तो जीतने के लिये लड़े जाते हैं। और टकराव में फंसी बीजेपी के पहचान वाले चेहरों को अपने धंधे के तराजू में यह कहकर तौलने लगे कि कार्यकर्त्ता का काम है पार्टी का झंडा उठाना, टिकट तो समीकरण के आसरे बांटे जाते हैं। वहीं मायवती दलित वोट बैंक को ही घृतराष्ट्र की भूमिका में मानकर अपने घृतराष्ट्र होने की पट्टी यह कहकर ना घोलें कि आंबेडकर से लेकर कांशीराम तक की मूर्तियों तले ही विकास देखना जरुरी है। लेकिन अब बड़े सवाल यहीं से खड़े होते हैं कि मायावती की बहुमत वाली सोशल इंजीनियरिंग सिर्फ पांच बरस ही क्यों टिक पायी। दलितों को दलित होने का एहसास कराकर राहुल गांधी का राजनीति करना और बिना जाति जाने या पूछे अखिलेश यादव का नये सरोकार बनाना। यानी य पी का फैसला क्या जाति बंधन तोड़ने की दिशा में बढ रहा है। या फिर जातियां खुद को वोटबेंक की सौदेबाजी के दायरे से अलग करने को झटपटा रही है। भ्रष्टाचार की संस्कृति लखनउ-दिल्ली को मिलाकर गंगा-जमनी के तर्ज पर देखने वाली हो चुकी है। यानी सवाल सिर्फ लखनउ, देहरादून,चंडीगढ या पंजिम भर का नहीं है उसमें दिल्ली की सियासत के भ्रष्टाचार का छौंक लगेगा ही। और जो नीतियां सब्सिडी काट कर कॉरपोरेट को मुनाफा देते हुये विकास की बात कहेगी उसपर चलने के लिये अब चुनावी राजनीति तैयार नहीं है। यानी आने वाले वक्त में एफडीआई से लेकर बीमा क्षेत्र को खुला करने का फैसला कांग्रेस ले नहीं सकती। और फिर भी मनमोहनोमिक्स चलेगा तो बड़ा फैसला कांग्रेस के साथियों से निकलेगा। जिन्हें अगर एहसास हो गया कि कांग्रेस की नैया 2014 में ले डूबेगी तो शरद पवार का रास्ता सौदेबाजी से आगे निकलेगा और ममता बनर्जी के तेवर घमकी से आगे जायेंगे। सोचेंगे करुणानिधि भी। और अदालती पचड़े में फंसे मुलायम और मायावती भी सौदेबाजी का दायरा बढायेंगे। क्योंकि फैसले ने हर दल को आगाह कर दिया है कि सत्ता के आसरे प्यादे से वजीर तो बना जा सकता है लेकिन जनता से सरोकार जोड़कर अगर अब काम ना ये तो वजीर से प्यादा बनाने में भी वोटर देर नहीं करेगा।

Thursday, March 1, 2012

आरएसएस की नाक तले जिन्ना से आगे की बिसात बिछा दी गडकरी ने

संघ की राजनीतिक बिसात पर मुस्लिम लीग भी

या तो राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ ने खुद को बदल लिया है या फिर बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी की चुनावी बिसात ने सत्ता के लिये पहली बार संघ की विचारधारा को ही रिज कर दिया है। हो जो भी लेकिन आरएसएस के गढ़ नागपुर में ही नगरपालिका में अपनी सत्ता के लिये जो मास्टरस्ट्रोक नीतिन गडकरी ने खेला है, उसने कांग्रेस तक की हवा निकाल दी है। बीजेपी और मुस्लिम लीग एक साथ कैसे खड़े हो सकते हैं और संघ की विचारधारा ही नहीं बल्कि संघ के स्वयंसेवकों की जमात के साथ मुस्लिम लीग के पार्षद भी सत्ता में एक साथ भागीदारी कर सकते है, इसका नजारा नागपुर नगरपालिका में देखा जा सकता है। असल में 145 सदस्यों वाले नगर पालिका में बहुमत के लिये बीजेपी [ 62 ] और शिवसेना [6] पार्षद को जोड़ भी बहुमत से 5 सीट पीछे था। तो सत्ता के लिये गडकरी ने शिवसेना को दरकिनार कर दस निर्दलीय पार्षद और मुस्लिम लीग के दो पार्षदों के साथ मिलकर 74 की संख्या के जरीये सत्ता पर दावेदारी ठोंक दी।

खास बात यह भी है गडकरी ने यह समूची बिसात ही कुछ इस तरह बिछायी, जिससे संघ परिवार के भीतर पहला संकेत यही जाये कि संघ की सोच को नागपुर में जब तक मान्यता नहीं मिलेगी तबतक देश का रास्ता नापने की सोचना सपने से आगे का किस्सा नहीं है। इसलिये मुस्लिम लीग के पार्षदों के समर्थन पर आरएसएस के भीतर जबतक सवाल उठते तबतक सरसंघचालक मोहन भागवत ने इस पर खामोशी बरतने के संकेत दे दिये। ऐसे में नागपुर में संघ मुख्यालय के भीतर बैठा वह तबका, जिसने कभी जिन्ना को लेकर लालकृष्ण आडवाणी को बाहर का रास्ता दिखाने की कवायद की थी, वह भी गडकरी के इस कदम पर कदमताल नहीं कर सका। जबकि बीजेपी के 62 पार्षदों में 27 पार्षद तो खांटी संघ के स्वयंसेवक हैं और जिन्ना के सवाल पर आडवाणी के खिलाफ खुले तौर पर यह कहते हुये विरोध कर रहे थे कि संघ ने जब हिन्दुत्व का सवाल ही जिन्ना विरोध का साथ खड़ा किया तो आडवाणी के जिन्ना प्रेम को कैसे मान्यता दी जा सकती है।

दरअसल, आरएसएस के भीतर आज भी इस बात को लेकर कही ज्यादा गुस्सा है कि दिल्ली में बैठे स्वयसेवक जो बीजेपी के मंच से राजनीति करते हैं, वह संघ को कोई महत्व ही नहीं देते हैं। ऐसे में गडकरी की बिसात के पीछे संघ का वह धड़ा भी चल पड़ा है जो बीजेपी की राजनीति को तो संघ के लिये घातक मानता है लेकिन गडकरी के जरीये राजनीति की अपनी परिभाषा गढने में मजा ले रहा है। क्योंकि इससे नागपुर के स्वयंसेवक का कद बढ़ रहा है। लेकिन संघ के भीतर की इस कवायद के साथ साथ नागपुर के जमीनी हालात संघ की विचारधारा तले मुस्लिम लीग के साथ खड़े होने से कैसे बदल रहे हैं, यह गडकरी की 2014 के लिये खुद के लोकसभा चुनाव का रास्ता बनाने की कवायद से समझा जा सकता है। 6 दिसबंर 1992 में जब अयोध्या में संघ के स्वयंसेवक जुटे और बाबरी मस्जिद ढहायी गई तब संघ मुख्यालय में तब के सरसंघचालक देवरस ने अयोध्या के जरीये संघ परिवार में एकजुटता देखी। और इस रास्ते को सही करार दिया। जिसका पहला विरोध नागपुर में संघ मुख्यालय से महज दो किलोमीटर दूर मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में शुरु हुआ। 6 दिसंबर को मोमिनपुरा के मुस्लिम सिर्फ विरोध प्रदर्शन करते हुये मुख्य सड़क तक आना चाहते थे। लेकिन तब के पुलिस कमिश्नर ईनामदार ने फायरिंग के आदेश दे दिये। इस हादसे में 13 मुस्लिम मारे गये और उस घटना के बाद से कभी बीजेपी के किसी भी उम्मीदवार [पार्षद से लेकर विधायक और सांसद तक] ने मोमिनपुरा जाने की हिम्मत नहीं दिखायी।

लेकिन बीस बरस बाद 2012 में पहली बार नीतिन गडकरी ने मोमिनपुरा के मुस्लिम चेहरे जैतुन बी अंसारी को बीजेपी के साथ जोड़ा और चुनाव में बतौर बीजेपी पार्षद जीत दिला दी। जैतुन बी मुस्लिम लीग छोडकर बीजेपी में शामिल हुईं। अगली कवायद में गडकरी ने मोमिनपुरा-गांधीबाग से जीते मुस्लिम लीग के इशरत अंसारी और जनगर टेका से जीते असलम खान को सत्ता के लिये बीजेपी गठबंधन का हिस्सा बना लिया। यानी जो संघ कभी सोच भी नहीं सकता है कि उसकी अपनी जमीन जिस विरोध के उपर बनी उसी जमीन के साथ उसे सत्ता में भागेदारी भी करनी पड़ेगी। क्या यह संघ की विचारधारा के खत्म होने की शुरुआत है या फिर संघ की नयी राजनीतिक धारा बनने की शुरुआत। क्योंकि नागपुर आरएसएस को बनाने वाले हेडगेवार की जमीन होने के बावजूद यहा पर कभी जनसंघ या बीजेपी का वर्चस्व नहीं रहा। लोकसभा में बीजेपी की हार के पीछे नागपुर के वोटरों का गणित है जो संघ समर्थित किसी उम्मीदवार को जीतने दे नहीं सकता। क्योंकि 18 लाख वोटरों में करीब साढ़े चार लाख दलित तो चार लाख मुस्लिम वोटर है। और यह गणित बीजेपी को यहा से जीत दिला नहीं सकता है। ऐसे में पहली बार नागपुर के नीतिन गडकरी का कद भी दिल्ली में तभी बढ़ सकता है जब नागपुर से वह लोकसभा चुनाव जीत लें। गडकरी इस हकीकत को समझते हैं कि वह नागपुर में विधानसभा चुनाव भी नहीं जीत पाये हैं। इसलिये संघ के उपर यह दाग भी है कि जो शखस विधानसभा चुनाव नहीं जीत सकता उसे बीजेपी का अध्यक्ष बनाकर संघ ने अपनी हेकड़ी ही दिखायी है। ऐसे में 2014 के चुनाव में लोकसभा का चुनाव जीतकर गडकरी अपने कद को बढ़ाना भी चाहते है और दिल्ली की सियासत में मान्यता भी चाहते हैं। इसलिये नागपुर के तमाम मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा से लेकर हसनबाग और सक्करधरा से लेकर जाफरनगर तक में बीजेपी पार्षदों की जीत के साथ मुस्लिम वोटबेंक को साथ लेने की नयी बिसात गडकरी ने बिछायी है। यह बिसात आने वाले वक्त में कांग्रेस के लिये कितनी घातक साबित हो सकती है संयोग से इसके संकेत भी नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस के एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार की हार ने दे दिये। यानी पहली बार मुस्लिम बहुल इलाके में कांग्रेस का मुस्लिम उम्मीदवार हारा और बीजेपी का मुस्लिम उम्मीदवार जीत गया । जिसे नागपुर में संघ के स्वयंसेवकों ने अयोध्या पर मुस्लिमों के बदलते रुख से तौला वही मुस्लिमों मे यह सवाल खड़ा हुआ कि आने वाले वक्त में अपने अनुकुल रास्ता उन्हें खुद ही बनाना होगा और नगरपालिका की सत्ता में बीजेपी के साथ खड़े होकर नागपुर के पिछड़े मुस्लिम बहुल इलाकों का विकास करना होगा। इसलिये गडकरी से मुस्लिम लीग ने सौदेबाजी यही की नगरपालिका की स्टेडिंग कमेटी में उनका पार्षद भी सदस्य होगा। और जिस पर गडकरी ने मोहर भी लगा दी। ऐसे में दिल्ली से संघ को राजनीति का आइना दिखाने वाले बीजेपी के कद्दावर नेता हो संघ के पुराने कट्टर हिन्दुवादी स्वयंसेवक उन्हें संघ की यह नयी राजनीतिक परिभाषा रास नही आ रही है।