Friday, March 23, 2012

राज्यसभा बिकाऊ क्यों है

झारखंड में बीजेपी की आत्मा जागी और उसने तय किया कि राज्यसभा चुनाव में विधायकों की खरीद-फरोख्त को देखते हुये वह चुनाव में वोट भी नहीं डालेगी। यानी झारखंड में राज्यसभा की दो सीटों के लिये पांच उम्मीदवारों की होड़ में उसके विधायक किसी को वोट नहीं डालेंगे। तो क्या यह मान लिया जाये कि चुनाव का बायकॉट बिगड़ी चुनावी व्यवस्था में सुधार का पहला कदम है। और आत्मा जगाकर खामोश बैठी बीजेपी का सच तो यही है कि जब चुनाव आयोग ने ही राइट टू रिजेक्ट का सवाल यह कहकर खड़ा किया कि ईवीएम में आखरी कालम खाली छोड़ा जाये तो ससंद के भीतर आडवाणी समेत संसद ने एक सुर में इसे नकारात्मक वोटिंग करार दिया था। इसके बाद मामला ठस हो गया।

असल में इस दौर में जिस तरह से संसदीय राजनीति में सत्ता के हर रंग को लोकतंत्र का रंग बना दिया गया है उसमें लोकतंत्र ही कैसे ठस हो गई है, यह राजयसभा की तस्वीर उभार देती है। पिछले साल राज्यसभा के कुल 245 सदस्यों में से 128 सदस्य उघोगपति, व्यापारी, बिल्डर या बिजनेसपर्सन रहे। यानी राज्यसभा के आधे सांसदो का राजनीति से सिर्फ इतना ही लेना-देना रहा कि राजनीतिक दलों का दामन पकड़कर अपने धंधो को फलने-फूलने के लिये संसद पहुंच गये। संसद सदस्य बनते ही सारे अपराध भी ढक गये और विशेषाधिकार भी मिल गये। यानी नोट के बदले कैसे राज्यसभा को ही धंधे के लाभ में बदला जा सकता है, उसका खुला नजारा नीतियों के जरीये ही उभरता है। मौजूदा वक्त में राज्यसभा के सांसद के तौर पर सबसे ज्यादा उद्योगपति और बिजनेस पर्सन हैं। इनकी तादाद करीब 86 है। जबकि बिल्डर और व्यापारियों की संख्या करीब 40 है । और इसमें से अधिकतर सांसदों की भूमिका राज्यसभा में पहुंचने से पहले किसी पार्टी विशेष के नेताओं के लिये हर सुविधा मुहैय्या कराने की ही रही है। और इस दायरे में क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी, हर क्षेत्रीय स्तर के राजनीतिक दल आये हैं। हालांकि वामपंथियों ने इस रास्ते से परहेज किया।

लेकिन राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के खाते में 54 सांसद ऐसे आते हैं जिन्हे धंधे के अक्स में राज्यसभा तक पहुंचाया गया। वहीं क्षेत्रीय दलों के जरीये करीब 70 सांसद राज्यसभा में विधायकों की कीमत लगाकर पहुंचे। इनमें से राज्यसभा के 20 सदस्य तो ऐसे हैं जो राजनीतिक दलो की बैठको से लेकर कार्यकर्ताओं के हवाई टिकट का जिम्मा लेकर लगातार पार्टी की सेवा का तमगा लगाकर राज्यसभा की जुगाड़ में लगे रहे और एक वक्त के बाद मान लिया गया कि यह पार्टी के ही सेवक हैं। इस परिभाषा में झारखंड के उद्योगपति आर के अग्रवाल से लेकर नागपुर के बिजनेसपर्सन अजय संचेती को डाला जा सकता है। दोनों ही अगले महीने राज्यसभा के सांसद के तौर पर शपथ लेंगे। लेकिन शपथ लेने के बाद धंधों से जुडे सांसदों के लिये राज्यसभा का मतलब है क्या, यह भी अलग अलग क्षेत्रों के लिये बनने वाली संसद की स्टैडिंग कमेटी के जरीये समझा जा सकता है। मसलन फाइनेंस की स्टैंडिंग कमेटी के कुल 61 सदस्यों में 19 सदस्य ऐसे हैं जिनके अपने फाइनेंस पर संकट गहरा सकता है अगर वह स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य ना हो तो। इसी तर्ज पर कंपनी अफेयर की स्टैडिंग कमेटी में राजयसभा के 6 सांसद ऐसे हैं जो द कई कंपनियों के मालिक हैं।

इसी तरह हेल्थ और मेडिकल एजूकेशन की स्टैडिंग कमेटी में 3 सांसद ऐसे हैं, जिनके या तो अस्पताल हैं या फिर मेडिकल शिक्षा संस्थान। जाहिर है यह खेल राज्यसभा में पहुंचकर कितने निराले तरीके से खेला जा सकता है, यह किंगफिशर के मौजूदा हालात को देखकर भी समझा जा सकता है। यूपीए-1 के दौर में जब प्रफुल्ल पटेल नागरिक उड्डयन मंत्री थे तब किंगफिशर के मालिक विजय माल्या राज्यसभा के सदस्य बनकर पहुंचे। उन्हें राज्यसभा पहुंचाने वालों में कांग्रेस और बीजेपी दोनो का ही समर्थन मिला। और प्रफुल्ल पटेल ने विजय माल्या को नागरिक उड्डयन की संसद की स्थायी समिति का सदस्य बनवा दिया। और जब तक विजय माल्या संसदीय कमेटी के सदस्य रहे तब तक इंडियन-एयरलाइन्स की जगह किंगफिशर ही सरकारी विमान बन गया। यानी सारी सुविधाएं किंगफिशर को मिलने लगी। और क्रोनी कैपटलिज्म की दुहाई देकर जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रफुल्ल पटेल का मंत्रालय बदला तो झटके में किंगफिशर का अंदरुनी सच सामेन आने लगा। यही हालात बतौर पेट्रोलियम मंत्री के तौर पर रिलायंस को लाभ पहुंचाकर मुरली देवडा ने किया और यही लाभ यूपीए-1 में कंपनी अपेयर मंत्री बने लालू के करीब उन्हीं के पार्टी के राज्यसभा सदस्य प्रेमचंद गुप्ता ने उठाया। राजनीति के ककहरे से दूर कई कंपनियों के मालिक प्रेमचंद गुप्ता की खासियत लालू यादव को सीढी बनाकर देश का मंत्री बनने का था। तो वह बन गये और आज भी लालू के पीछे खड़े होकर सांसद का तमगा साथ लिये है। लेकिन संकट इतना भर नहीं है। राज्यसभा सासंदों की फेरहिस्त में राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर एसएस अहलूवालिया सरीखे सांसद अंगुली पर गिने जा सकते हैं, जिन्होंने राज्यसभा में 16 बरस गुजारने के बाद भी अपने लिये एक घर भी नहीं बना पाया। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्यसभा में साठ फीसदी सदस्य छह बरस में कई कंपनियों के मालिक से लेकर अस्पताल, शिक्षण संस्थान या होटल के मालिक बन जाते हैं। यानी जो धंधे में नहीं होते वह भी राज्यसभा में आने के बाद धंधे शुरु कर लेते हैं। क्योंकि इनकी जिम्मेदारी आम जनता को लेकर कुछ भी नहीं होती। और संसद के बाहर सड़क पर आम आदमी कैसे जीवन जी रहा है, इसका कोई असर भी राज्यसभा के सदस्यों की सेहत पर नहीं पड़ता। यहीं से संसद की एक दूसरी कहानी भी शुरु होती है जो राज्यसभा सदस्यों के देश चलाने की थ्योरी और लोकसभा के सदस्यो के प्रेक्टिकल के बीच लकीर खिंचती है। गर मनमोहन सरकार पर नजर डाले तो दर्जन भर मंत्री ऐसे हैं जो राज्यसभा से आते हैं। इनके दरवाजे पर कभी आम वोटरो की लाइन नजर नहीं आयेगी जैसी लोकसभा में चुन कर पहुंचे सांसद या मंत्रियों के घर के बाहर नजर आती है। राज्यसभा सांसद-मंत्रियों से मिलने वाले 90 फीसदी लोग उनके पहचान वाले के बाद किसी न या फिर क्लाइंट होते हैं। मसलन वाणिज्य मंत्री आंनद शर्मा चाहे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में किसानों की बोली लगा दें, उनके घर या दफ्तर में कभी किसान नहीं पहुंचेगा। लेकिन जब कमलनाथ वाणिज्य मंत्री थे तो वह विश्व बैंक या डब्लूटीओ के सामने किसानों के सवाल पर नतमस्तक इसलिये नहीं हो सकते थे क्योंकि उन्हें कल अपने चुनाव क्षेत्र छिंदवाडा में ही किसानों के सवालों का जवाब देना मुश्किल होता। या फिर मंत्री रहते हुये लोकसभा सांसद को घेरने के लिये उसके चुनावी क्षेत्र में विपक्ष सक्रिय हो सकता है लेकिन राज्यसभा सांसद के मंत्री रहते किसी जनविरोधी निर्णय को लेकर कोई विरोध कहां हो सकता है।

मौजूदा हालात में यह सवाल मनमोहन सिंह को लेकर भी उठ सकते है और उसका एक कटघरा कांग्रेस के राजनीतिक एजेंडे से दूर सरकार के कामकाज से भी झलक सकता है। जहां खांटी कांग्रेस परेशान दिखेंगे कि सरकार की नीतिया उनके वोटबैंक से दूर होती जा रही हैं। जो भविष्य में कांग्रेस को संकट में डाल सकती है और राज्यों के चुनाव में डालना शुरु कर दिया है। मगर इस पूरी कवायद में देश कितना पीछे छूटता जा रहा है और संसदीय लोकतंत्र का मतलब ही कैसे सत्ता समीकरण हो चला है। और सत्ता ही लोकतंत्र है। क्योंकि राज्यसभा से इतर चुनाव प्रक्रिया भी झारखंड में ही बिना किसी विचारधारा बिना किसी राजनीतिक दल के एक निर्दलीय विधायक को मुख्यमंत्री बना देती है। और मधुकोडा दो बरस तक मुख्यमंत्री भी रहते हैं और 200 करोड से ज्यादा की लूटपाट भी करते हैं। जेल भी जाते हैं और वर्तमान में मनमोहन सरकार को समर्थन देकर सरकार बचाने की कवायद करते हुये संसद में शान से बैठे हुये नजर भी आते हैं। तो अपराधी है कौन संसदीय राजनीति या लोकतंत्र की परिभाषा। क्योंकि दोनो दायरे में संविधान ही विशेषाधिकार देता है। जिसे आम आदमी चुनौती भी तभी दे सकता है जब वह खुद दागदार होकर इस दायरे में खड़ा होने की ताकत जुटा ले।

9 comments:

  1. super like sir a big fan of you sir

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  2. पुण्य प्रसून जी , राज्यसभा नहीं बिकाऊ है। बिकाऊ तो वो तथाकथित नेता है ,जो की अपनी दुकान जाति और धर्म के नाम पर चला रहे है । वो सभी राज्यसभा की सीटो को अपने लाभ के लिए ऐसे लोगो को दे रहे है जिनका की देश के उच्चसदन मे रहना केवल-केवल अपने खुद के और अपने व्यवसायिक लाभ के लिए है। सत्तारूढ़ दल भी इसमे कम नहीं है,वो भी इस सदन मे जो 12 सदस्य विभिन्न क्षेत्रों से नामित होते ,मे भी उद्योग जगत या अपने दलो के लोगो को भेजते है । शायद देश के संविधान निर्माताओ ने इस स्तिथियों की परिकल्पना ही नहीं की होगी ,वरना वो राज्यसभा को बनाते ही नहीं । बिकाऊ तो वो तथाकथित नेता ही है। और यह देश के लिए तथा देश की जनता के लिए वाकई दुखद है ।

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  3. ईवीएम में आखरी कालम खाली छोड़ा ही जाऐ क्‍योकी ऐ बुरे को नकारना दूसरे बुरे का समर्थन हो जाता हैं

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  4. क्या राज्य सभा को खत्म नहीं कर देना चाहिए सर....?

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  5. हमेशा की तरह जानकारियों से भरी लेखनी.

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  6. जागो भारत जागो! जागो भारत जागो!
    सब राजनेतिक पार्टीयों की भ्रष्टाचार और देश की 121 करोड़ जनता को लूटने की दुकान बंद हो जागी न इस लिए कोई भी पार्टी नहीं चाहती की एक मजबूत लोकपाल बिल बने....एक ही तरीका हैं देश की 121 करोड़ जनता को सड़कों पर उतरना पड़ेगा और जब तक हमरे देश की संसद एक मजबूत लोकपाल नहीं बना देती तब तक सड़कों पर, सांसदों के घरों पर, हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में हाथ लहराते हुए हर जिंदा और लाश को "इंकलाब जिंदाबाद", "भारत माता की जय" का उद्घोषणा करते हुए मजबूती से खड़ा रहना होगा... फिर चाहे कोई कुछ भी कहे की ये ब्लैकमेल हैं या कुछ और ये कहता कोन हैं इन भ्रष्टाचारियों के दलाल ही न उन की परवा किए बिना फिर चाहे 1 दिन लगे या 100 दिन जब तक लोकपाल बिल पास नहीं हो जाता देश की हर जनता को सड़कों पर ही अपना घर बनाना होगा.... आज 45 साल हो चुके हैं इस पर चर्चा करते करते सब जानते है क्या हैं क्या नहीं सब की सब पार्टी बेबकूफ बना रही हैं की और वक़्त चाहिए एकमत बनाने के लिए जब इन को अपनी तनख्वा बढ़नी होती हैं वो 1 दिन में हो जाता हैं और भ्रष्टाचार के लिए कानून बनाने के लिए 45 साल सोचए जरा! सोचए जरा! आज भी रोज तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख कल ही एक नया घोटाला सामने आया हैं 10.7 लाख करोड़ का कहते हैं ये लगभग 26 लाख करोड़ क्या अब भी नहीं जागना हैं ये तो चाहते ही हैं के आप सोते रहे एक दूसरे से लड़ते रहे और हम तुम को लूटतें रहे। ॥ जागों भारत जागों ॥ अब तो ये बिल सड़क से ही बन सकता हैं फिर चाहे 1 दिन लगे या 100 दिन जब तक लोकपाल बिल पास नहीं हो जाता देश की हर जनता को सड़कों पर ही अपना घर बनाना होगा ॥ जागों भारत जागों ॥
    हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
    इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
    आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
    शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
    हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
    हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
    सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
    मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
    हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
    लोकपाल पर गतिरोध कायम, सर्वदलीय बैठक रही बेनतीजा
    जागो भारत जागो! जागो भारत जागो!

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  7. Prasunji Sargarbhit lekh ke liye Sadhuvad!

    Hindustan mai Rajniti sirf swahit evam esh desh ke 1% se bhi kam logoun ke hit ke liye hoti hai !

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  8. rajya sabha k sadasya bikau is liye hai kyun k ham kabhi do rotiyon k liye to kabhi do mithe bolon k liye bikte huye bade hote hain. hamari ye bikne ki pariwriti hikharidaron ko rupaiyon se hamare iman ko kharidne k liye akarshit karti hai ya fir kabhi khud ham hi kharidar kharidar ban jate hain.aor us par turra ye k kanun ko kamzor kahte huye bhrashtachar ki duhai dene lagte hain jab k kanun to kanun hota hai kamzor to us k rakhwale hote hain. agar rakshak mazbuti se kanun ka palan karta hai ya karwata hai to beimano k pasine chhutne lagte hain. is ka udahran jhar khand k rajya sabha chunao ka raddh hona darshata hai.

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  9. मुझे यह तो नही पता कि आप जनभावना से कितना जुड़े हैं या इस प्रतिक्रिया से आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे पर यह तो तय है कि इस व्यवस्था के खिलाफ़ उठने वाली हर आवाज को दबाने के लिये मीडिया और उसमे सक्रिय तथाकथित विद्वान जुट जाते है। यथास्थिती बरकरार रखने की जीवटता आपके जी न्यूस के संपादक सतीश के सिंग से लेकर नई दुनिया के संपादक तक अलग अलग स्तर मे दिखाई देती है। कोई खुद को पाक साफ़ दिखा मुद्दो की आड लेता है और तो कोई महाबेशर्मी से बयानबाजी पर उतर आता है। लेकिन यह भी सच है कि चैनलो को देखने वाले और इन के आधार पर मत बनाने वाले लोग यह सरकार नही चुनते। चुनाव की शर्त यह होती है कि कौन थाने पटवारी से हमे बचायेगा। जाहिर है सिब्बल का दंभ कि काम तो हम ही आते है बुरा कितना भी लगे लेकिन सत्यता के बेहद करीब है किसी भी मीडिया रिपोर्ट से भी ज्यादा करीब। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना ये बाते बेमानी है और आपकी बाते खुद को समझदार इंसान समझने वाले क्लास के लिये देश की हालत पर शोक मनाने का पास टाईंम भी।

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