Friday, August 31, 2012
कोयलागेट से गहरी हो चली है राजनीतिक सत्ता की काली सुरंग
कोयला खादान को औने पौने दाम में बांटकर राजस्व को चूना लगाने के आंकड़े तो हर किसी के सामने हैं। लेकिन अभी तक अरावली की पहाड़ियों को खोखला बनाने, उडीसा में बाक्साइट की खादानों की लूट, मध्यप्रदेश में आयरन-ओर की लूट, कर्नाटक में कौड़ियों के मोल खनिज संपदा की लूट, झारखंड और बंगाल में कोयले के अवैध खनन के तरीके। इन सब का कच्चा-चिट्ठा अभी भी खुलकर सामने नहीं आ पाया है। कुछ मामले राज्यों के लोकायुक्त के पास हैं तो कुछ विधानसभाओं के हंगामे से लेकर अखबार के पन्नो में ही खो कर रहे हैं।
असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या संसद के भीतर खादानों को लेकर अगर राजनीतिक दलों से यह पूछा जाये कि कौन पाक साफ है तो बचेगा कौन। क्योंकि देश के 18 राज्य ऐसे हैं, जहां खादानों को लेकर सत्ताधारियों पर विपक्ष ने यह कहकर अंगुली उठायी है कि खादानो की लूट सत्ता ने की है। यानी आर्थिक सुधार के जरीये विकास की थ्योरी ने मुनाफा के खेल में जमीन और खादानों को लेकर झटके में जितनी कीमत बाजार के जरीये बढ़ायी, वह अपने आप आजादी के बाद देश बेचने सरीखा ही है। क्योंकि बाजार ने सरहद तोड़ी लेकिन उसमें बोली देश के जमीन और खनिज-संसाधन की लगी। इस दायरे में सबसे पहले सत्ता की ही कुहुक सुनायी दी। क्योंकि कोयलागेट के जरीये खादानों के बंदर-बांट की परतों को खोले तो कई सवाल एकसाथ खड़े होते हैं। मसलन, 9 राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कोयला खादान अपने मनपसंद को देने का आग्रह किया। 23 सांसदों ने कोयला खादान के लिये अपने करीबी निजी कंपनियो या कारपोरेट की वकालत की। हर किसी ने पार्टी की लकीर से इतर सत्ता की लकीर खींच कर खादानों के लाइसेंस में हिस्सेदारी की मांग विकास के नाम पर की। क्योंकि जो पत्र खादानों को पाने के लिये सरकार के पास गये, उसमें कांग्रेस से लेकर बीजेपी और वामपंथियों से लेकर तीसरे मोर्चे की कवायद करते सांसदो के पत्र भी हैं। हर किसी ने अपने संसदीय क्षेत्र या राज्य में विकास के लिये खादानों को जरुरी बताया और अपने करीबी की यह कहकर पैरवी की कि अगर खादान आवंटित हो जायेगी तो उनके क्षेत्र में विजली उत्पादन या स्टील इंडस्ट्री या फिर सीमेंट या अन्य उघोगों को लाभ होगा। यानी अभी तक मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार की बिसात पर ही राजनीति भी चलती रही और सत्ताधारियो ने कमाना भी सीखा। इसलिये संसद के भीतर अगर यह सवाल विश्वासमत के तौर पर उठ जाये कि कोयला खादान लाइसेंस रद्द होने चाहिये या नहीं। तो फिर वोटिंग की स्थिति में क्या होगा?
जाहिर है गठबंधन टूट भी सकते हैं। यहां तक की पार्टियों की दीवारें भी टूट सकती हैं और खादान के रखवाले एक साथ खड़े भी हो सकते हैं। ध्यान दें तो इससे पहले हर घोटाले में घोटाले को संजो में रखने वाले एकजूट हुये और ससंद की बहस में सारे घोटाले हवा-हवाई हो गये। इस बार हंगामा इसलिये अलग है क्योंकि विपक्षी राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि खादान गंवाकर सत्ता पायी जा सकती है। यानी घोटाले पर समझौता किये बगैर तेवर के साथ खडे होने से सरकार की डूबती साख और डूबेगी। इसलिये बीजेपी का राजनीतिक गणित समझे या तीसरे मोर्चे के समीकरण, दोनों को लगने लगा है कि मनमोहन सरकार गई तो सत्ता की कुंजी उनके हाथ में आनी ही है। इसलिये तर्को के आसरे संसदीय मर्यादा और राजनीतिक नैतिकता की परिभाषा अब मोटा-माल डकारने पर आ टिकी है । जेपीसी को कंगारु कोर्ट बनाकर खारिज किया जा रहा है। पीएसी हंगामे के बलि चढायी जा चुकी है। सीएजी पर तो प्रधानमंत्री को ही भरोसा नहीं है। तो कोयले की खादान से कही ज्यादा गहरी राजनीतिक सुरंग जाती कहा है। जरा इसे समझने के लिये देश चल कैसे रहा है और राजनीतिक तिकड़म या हंगामे का मतलब है क्या, समझना यह भी जरुरी है।
स्पेक्ट्रम के दौर में प्रधानमंत्री अपने ही कैबिनेट मनिस्टर से पल्ला यह कहकर झाड़ते है कि मजबूरी गठबंधन की है और क्रोनी कैपटलिज्म का रुझान मंत्रियो में है। लेकिन कोयला घोटाले की परिभाषा में ना तो गठबंधन की मजबूरी चलेगी ना क्रोनी कैपटलिज्म का तर्क। यहा तो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से निकले दस्तावेज हैं। नीतियों पर प्रधानमंत्री की टिप्पणी है। कोयला खादानो को निजी हाथों में सौप कर पावर सेक्टर में मजबूती लाने की समझ प्रधानमंत्री की है। 1973 में इंदिरा गांधी के कोयला खादानो का ऱाष्ट्रीयकरण कर मजबूत बनाये गये कोल इंडिया को कमजोर कर निजी भागेदारी को बढ़ावा देते हुये ज्यादा से ज्यादा कोयला निकलवाने का दवाब 2010 में मनमोहन सिंह के कार्यालय से निकली चिठ्ठी में है। फिर आंकड़ों से इतर कैग रिपोर्ट का विश्लेषण भी मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था के तौर तरीको पर ही यह समझाते हुये चोट करता है कि कैसे आर्थिक सुधार की थ्योरी ही मुनाफा बनाने वाली निजी कंपनियों के भ्रष्टाचार की जमीन पर खडी है। असल सवाल यही से शुरु होता कि क्या पीएम के इस्तीफे के जरीये विपक्ष आर्थिक सुधार की इसी थ्योरी की परतों को खोलना चाहता है या फिर इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाहता है। भाजपा पहले इस्तीफा चाहती है जबकि विपक्ष माइनस भाजपा सरकार से जवाब चाहता है। यानी जदयू से लेकर वामपंथी और मुलायम-माया से लेकर नवीन पटनायक तक की राजनीतिक जमीन भाजपा से अलग है।
भाजपा को छोड दें तो विपक्ष के हर राजनीतिक दल की जरुरत कमजोर होती कांग्रेस पर निशाना साध कर अपनी जमीन को पुख्ता बनाते जाना है। यानी मनमोहन सिंह जब तक निशाने पर रहे तबतक ठीक। लेकिन भाजपा के लिये सवाल राज्यों की राजनीति को साधने का नहीं है, उसके लिये "टोटल असाल्ट" वाली स्थिति है। यानी प्रधानमंत्री पर सीधा वार कर खुद को राजनीतिक विकल्प के तौर पर ऱखने की समझ। विकल्प की स्थिति संसद की चर्चा, पीएसी या जेपीसी के जरीये पैदा हो नहीं सकती। लेकिन दूसरी तरफ सवाल यह भी है क्या आर्थिक सुधार की परते वाकई संसद के भीतर प्रधानमंत्री के जवाब से उघडती चली जायेगी। जैसा विपक्ष माइनस भाजपा सोच रही है। जाहिर है यह संभव नहीं है। क्योंकि कारपोरेट के मुनाफे पर खड़े होकर विकास की लकीर खिंचने में कमोवेश हर राज्य की सत्ता लगी हुई है। इसमें कांग्रेस या भाजपा शासित राज्यों की ही बात नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव या उससे पहले मायावती। या फिर झारखंड, उड़ीसा या तमिलनाडु के विकास के खांचे में कैसे क्रोनी कैपटलिज्म सत्ता की जरुरत बन चुकी है, यह हर राज्य की योजनाओं के जरीये समझा जा सकता है। क्या संसद की बहस में इसकी कलई खुल सकती है। या फिर मुनाफे के खेल में राजनीतिक दल ही सहमति बनाते हुये अपनी अपनी राजनीति साधकर सबकुछ आम चुनाव में जनता के वोट के हवाले कर लोकतंत्र का राग अलापेंगे। असल में भ्रष्टाचार या घोटाले भी आर्थिक सुधार के जरीये कैसे लोकतंत्र के हिस्से बना दिये गये हैं अब यह खुल कर सामने आना लगा है। सबसे ज्यादा कमाई विकास के नाम पर इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने की दिशा में ही हो सकता है। क्योंकि इन क्षेत्रों में हर नयी योजना के लिये पूर्व में कोई निर्धारित रकम तय नहीं है। तो मनमोहन सिंह के मौजूदा मंत्रिमंडल में संचार [ए राजा तक],रेलवे, जहाजरानी, विमान [ प्रफुल्ल पटेल तक ] और 2009 तक सड़क भी गठबंधन के ही हाथ में रहा। और अगर इन मंत्रालयों के जरीये जितनी भी योजनाओं को अमल में बीते सात बरसो में लाया गया अगर उनकी फेरहिस्त निकाल कर देखें तो कारपोरेट को सौपी गई योजनाओ से आगे कोई फाइल जाती नहीं। देश के पांच टॉप कारपोरेट के जरीये ही हर मंत्रालय में फाइल निकली। आलम यह भी हो गया कि रेलगाडी में मिलने वाले खाने का टेंडर भी उन्हीं कारपोरेट के हवाले कर दिया गया जो देश में उर्जा और संचार का इन्फ्रास्ट्रक्चर देकर भरपुर मुनाफा बना रहे हैं। हां, जहाजरानी के क्षेत्र में देसी कारपोरेट पर बहुराष्ट्रीय कारपोरेट जरुर हावी रहा। लेकिन देश में बंदरगाहों की स्थिति क्या है यह गुजरात से लेकर आन्ध्र प्रदेश तक में देखा जा सकता है। वहीं कोयला, उर्जा , खादान , स्टील मंत्रालय मनमोहन सिंह के विकास के सबसे प्यारे और जरुरी मंत्रालय हुये तो उन्हें कांग्रेस के हक में रखा गया। लेकिन यहा भी रास्ता निजी हथेलियों के जरीये ही निकाला गया। अगर बारीकी से समझे तो सरकार ने अपनी भूमिका कमीशन ले कर निगरानी के अधिकार अपने पास रखने भर की ही की है। बकायदा सरकारी दस्तावेज बताते हैं 2005 से 2009 तक के दौर में किसी भी मंत्रालय की कोई भी फाइल कारपोरेट से इतर निकली नहीं । यह कैसे संभव है इसका जवाब भी उर्जा मंत्रालय से लेकर जहाजरानी और रेलवे तक की परिस्थितयों से समझा जा सकता है। क्योंकि इन मंत्रालयों में सरकार, मंत्री या नौकरशाहो ने कोई योजना शुरु नहीं करवायी बल्कि कारपोरेट ने अपनी सुविधा और मुनाफा देखकर अपने अनुकुल जो फाइल बढ़ायी, उसी पर नौकरशाहों और मंत्रियों ने चिड़िया बैठा दी। सीधे समझें तो जिस कारपोरेट की जिस क्षेत्र में पकड है और उस क्षेत्र को लेकर वही अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट मंत्रालयों को सौपता है। जिस पर मंत्रालय या कैबिनेट मुहर लगाती है। यानी आजादी के पैसठ बरस बाद भी देश में सरकार के पास अपना कोई इन्फ्रास्ट्रकचर नहीं है, जिसके तहत वह चाहे तो खुद किसी योजना को सरकारी स्तर पर पूरा कर दें। योजनाओं का अमलीकरण अगर मुनाफा बनाकर निजी कंपनियों को करना है तो बीते दस बरस में नयी रफ्तार देश ने यही पकड़ी कि सरकारी नौकरियों से रिटायर होकर निकले बाबूओं को कारपोरेट ने अपने यहा यहकर रखा कि जिस विभाग में वह जिन्दगी खपाकर निकले हैं, अब उस विभाग से जुड़े मंत्रालयों को चाहिये क्या उसकी रिपोर्ट वही तैयार करें। और फिलहाल हो भी यही रहा है कि जो काम सरकारी विभागो को करने चाहिये वह कारपोरेट दफ्तरों में हो रहा है। नीरा राडिया के चार कंपनिया इसकी मिसाल है, जहां संचार, विमान, उर्जा, इन्फ्रास्ट्रक्चर से लेकर सड़क परियोजनाओं तक की फाइल कारपोरेट घरानों के लिये बनती और वही फाइले सरकारी नीतियों के जरीये देश के विकास का खांका खींचती।
कहा जा सकता है कि नीरा राडिया तो आज की तारीख में प्रतिबंधित है। लेकिन सरकरी गलियारे में फिलहाल जिन 135 कंपनियों के सुझाव लिये जाते है, वह 135 कंपनियां भी सरकार के लिये नहीं बल्कि कारपोरेट की दलाली कर सरकार के अलग अलग मंत्रालयों के निर्णयों को अपने चहेते या क्लाइन्ट कारपोरेट के मुनाफे के लिये काम करती है। इसलिये इस देश में किसी आईएएस को सचिव स्तर पर पहुंचने के बाद भी तमाम सुविधाओं के साथ लाख रुपये भी नहीं मिल पाते है लेकिन कारपोरेट के लिये काम करते वक्त औसतन कमाई हर रिटायर या नौकरी छोड कर निजी कंपनी से जुड़ने पर सालाना एक करोड़ है। इसका मतलब है मौजूदा दौर में सत्ता किसके पास रहे या किससे खिसके उसके पीछे भी कारपोरेट लाबी की सक्रियता जबरदस्त होगी। और अगर ध्यान दे तो स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद पहली बार 2011-12 में एक दर्जन कारपोरेट घरानों ने मनमोहन सिंह के गवर्नेंस पर यह कहकर अंगुली उटायी है कि सरकार की नीतियां साफ नहीं हैं। जाहिर है पहला बार कारपोरेट घराने भी समझ रहे हैं कि अगर भारत कमाई का सबसे बड़ा बाजार बनता जा रहा है तो अब कोई नीति तो सरकार को अपनानी ही होगी जिससे काम शुरु हो। लेकिन मनमोहन सरकार की मुश्किल यह है कि पहली बार घोटालो में सिर्फ मंत्री नहीं बल्कि कारपोरेट, नौकरशाह और बिचौलिये भी फंसे हैं। इसलिये आर्थिक सुधार के पुराने रास्तो पर ब्रेक लग गयी है और किसी भी मंत्रालय से कोई फाइल निकल नहीं पा रही है। ऐसे मोड़ पर संसद के भीतर की बहस या प्रधानमंत्री का इस्तीफा किसे कितना राजनीतिक लाभ देगा, बात इससे आगे बढ़ती नहीं है। क्योंकि संसद ठप होने या प्रधानमंत्री के इस्तीफे के सवाल पर जन आंदोलन देश में खड़ा नहीं हो रहा बल्कि उन नीतियों को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं, जिससे जनता आहत है और उसके निदान का रास्ता किसी राजनीतिक दल के पास है नहीं। शायद इसीलिये सरकार के पास भी सरकार चलती रहे के अलावे कोई एंजेडा है नहीं और कांग्रेस या कहे सोनिया गांधी भी संसद के ठप होने में लोकतंत्र की उडती धज्जियो का राग ही अलाप रही हैं। यानी संसद चले और लोकतंत्र जीवित हो जायेगा, इसे सोचने का मतलब है पहली बार राजनीतिक सत्ता के संघर्ष में देश कितना बेबस है यह खुलकर नजर आ रहा है। लेकिन संसद चले या ना चले किन देश बेबसी या खामोशी से नहीं बल्कि सड़क के संघर्ष से लोकतंत्र का असल रास्ता देने को तैयार है तो फिर 2014 को लेकर एक नयी पटकथा लिखी जा सकती है। खामोश देश को देखे तो उसे संघर्ष का इंतजार है। और संघर्ष के इतिहास को टोटले तो बस एक चिंगारी की जरुरत है। क्योंकि पहली बार संसदीय ढांचे में ही संसदीय और संवैधानिक संस्थाओ की घज्जियां उड़ायी जा रही है।
Monday, August 27, 2012
जेएनयू और आईआईटी की बहस में है खामोश लुटियन्स की दिल्ली
लुटियन्स की दिल्ली में आम आदमी की आवाजाही रोक दी गई। मुख्यधारा की मीडिया को सरकार की एडवाइजरी मिली कि अन्ना-रामदेव को तरजीह ना दें। सोशल मीडिया की बेखौफ उड़ान रोकने के लिये ट्विटर-फेसबुक को नोटिस दिया गया। और अब भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत का नारा लगाते युवाओ की टोली को जंतर-मंतर में सीमित कर समूची दिल्ली में धारा 144 लगा दी गई। जाहिर है यह इमरजेन्सी नहीं है। लेकिन दिल्ली में घूमते-फिरते, चाय-ठेले पर चर्चा करते और कम्प्यूटर पर चैट करते वक्त हर किसी को क्यों लग रहा है कि कही तो बंदिश है। कहीं तो आजादी छिन रही है। कही तो राजनीति मनमानी पर उतर आयी है। यानी सरकार के काम-आराम में दखल ना हो इसके लिये दिल्ली में मुगलकालीन शासकों के नाम वाली सडकों पर आवाम की आवाजाही रोक दी जायेगी। संसद में हंगामा कर शान से हर राजनीतिक दल का नेता और सरकार के मंत्रियों का झुंड गलबहिया डाल कर राजपथ से लेकर जनपथ पर लाल बत्ती की गाड़ियों से निकलेंगे। लेकिन कहीं आह भी नहीं निकलेगी। आह निकलेगी तो घोटाले के खिलाफ आवाज उठाने पर।
यह सवाल दक्षिणी दिल्ली के बाबा गंगनाथ बाजार के काफी हाउस में छात्रों के बीच गूंजता सवाल है। आर के पुरम और जेएनयू के बीच मुनिरका के इस काफी हाउस की खासियत है रविवार को छात्र-छात्राओं का जमावड़ा। जेएनयू में रविवार रात बंद रहता है तो दोपहर बाद से छात्रों का जमावडा मुनिरका के इस बाजार में होता है। कल तक बात एजुकेशन को लेकर कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल के ए-बी-सी ग्रेड प्रयोग को लेकर होती थी तो आज बात सोशल मीडिया की उड़ान को रोकने को लेकर सरकारी कौअे की हो रही है। बचपन में सुना था कौआ कान ले गया तो कौअे को नहीं कान को देखें। और तकनीक को लेकर तो यही समझे कि तकनीक के जरीये खुद को नहीं बल्कि खुद के लिये तकनीक देखें। लेकिन सरकार तो सोशल मीडिया से भी हलकी हो गई। खुद को ठीक ना कर सोशल मीडिया को कसना चाहती है। अंतराष्ट्रीय राजनीति [ एसआईएस ]के छात्र संजीव बिहार के सहरसा के है और उनके सहयोही मोहनीश टाकले महाराष्ट्र के हैं, जो 127 बरस पुरानी कांग्रेस को महज छह बरस पुराने ट्विटर के सामने नतमस्तक होते देख रहे हैं। कहते भी है 2006 में जैक डार्सी ने पहली बार ट्विटर नाम की चिड़िया को इंटरनेट के खुले आसमान में उड़ने के लिये छोडा तो उन्हे उस वक्त इसका एहसास भी नहीं होगा कि यह नन्ही सी चिड़िया कू कू करते हुये दुनियाभर की कई सरकारों की जान आफत में डाल देगी। और यहां तो चिड़िया को बांधने के लिये सरकार कौआ बन रही है। छात्रों में घोटालों की फेहरिस्तसे लेकर कानून-व्यवस्था के राजनीतिकरण को लेकर भी सवाल हैं और संसद के ठप होने से लेकर अन्ना टीम की नयी पहल को लेकर भी जवाब है। आईआईटी गेट के ठीक सामने हौसखास के हाई-प्रोफाइल मार्केट की पहचान है आधुनिक काफी बार और मोमोज। आईआईटी के छात्रों के जमावड़े में अरविन्द केजरीवाल नायक हैं। कांग्रेस को तो कोई भी आइना दिखा सकता है लेकिन बीजेपी को भी उसी कटघरे में खड़ा कर विकल्प की राजनीति की नायाब पहल है पीएम और बीजेपी अध्यक्ष के घर की एक साथ घेराबंदीं। किरण बेदी तो बीजेपी का दिल्ली का चेहरा बनने को बेताब है। दिल्ली का पुलिस कमिश्नर ना बन सकी तो दिल्ली का सीएम बनकर काग्रेस से लेकर पुलिस महकमे में अपनी सियासत का संदेश देना चाहती हैं। लेकिन केजरीवाल राजनेताओं को पाठ पढ़ाना चाहते हैं। हो सकता है लेकिन किरण बेदी हाफती सरकार को बीजेपी के विरोध के जरीये आक्सीजन नहीं देना चहती हो। यह भी हो सकता है लेकिन तब दिल्ली में तो समूची राजनीति केन्द्रित नहीं की सकती। कैनवास तो बढ़ाना ही होगा । यह आईआईटी छात्रों की चर्चा है। यानी राजनीति साधने का रास्ता सिर्फ दिल्ली से नहीं निकलेगा यह कहने वाले फर्स्ट इयर के छात्र मानुष तो केजरीवाल के जरीये सोनभद्र के हालात को सुधारना चाहते हैं। केजरीवाल आईआईटी से निकल कर आंदोलन कर रहे है तो पहली बार आईआईटी के छात्रों की चर्चा भी कभी जेएनयू कैपंस के भीतर होने वाली बहस सरीखी हो चली है। पालिटिक्स और अल्ट्रा लेफ्ट के शब्द भी आईआईटी छात्र बोलने लगे हैं। औघोगिक तौर पर यूपी का हब है सोनभद्र है। लेकिन माओवाद की दस्तक भी वही पर है। और सोनभद्र से सटे सिंगरौली में नक्सली लगातार पहल बढ़ा रहे हैं। वहां सबसे ज्यादा स्थानीय किसान, आदिवासियों का शोषण है। अगर वहां केजरीवाल राजनीति पार्टियों के बदलाव नहीं बल्कि सत्ता के बदलाव का सवाल उठाये तो शायद इन इलाकों से कोई राजनीतिक विकल्प निकल सकता है। मानुष के ऐसे सवालों पर फर्स्ट इयर के कई छात्रों को अपने अपने गांव और वहां के हालात याद आते हैं। और किसानी खत्म कर विकास की अंधी गली में जाते हालात को लेकर कोस्टा या बरिस्ता की सत्तर रुपये की काफी में चर्चा गरम भी होती है और इंजिनियरिंग की पढ़ाई से देश के मौजूदा हालात पर टिप्पणी भी होती है।
लेकिन पहली बार दिल्ली की हर चर्चा में कांग्रेस की सियासत के हर दौर की महक सूघंने की कोशिश भी दिखायी दे रही है। शायद इसीलिये छात्रों से इतर आईआईएस यानी इंडियन इन्फारमेशन सर्विस के रिटायर अधिकारियों का जमावड़ा भी अंदर से हिला देता है। एनसीआर में रहने वाले पूर्व नौकरशाहों के जमावड़े के बीच बैठने से कैसे अब के दौर में खत्म होती सृजनता और इमरजेन्सी के दौर की ठोस समझ उभरती है, वह अदभूत है। किसे याद है कि इमरजेन्सी के दौर में सूचना प्रसारण मंत्रालय किस तरह काम कर रहा था। और कैसे इमरजेन्सी खत्म हुई तो डीएवी के प्रमुख सेठी साहब अपने दफ्तर में ही मृत पाये गये। सहयोगियों ने माना इमरजेन्सी में डीएवी के जरीये सरकार की छवि को सुधारने या ना बिगडने देने का हुनर ही इमरजेन्सी के बाद सेठी के पश्चाताप पर भारी पड़ गया। और उन्होंने खुदकुशी कर ली। याद कीजिये तो तब के दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर आईसीएस कृष्णचंदर ने भी खुदकुशी की। क्योंकि शाह कमीशन के वक्त जो पूछताछ होती और उस वक्त जिन सवालों को जस्टिस शाह लगातार कृष्णचंदर से पूछ रहे थे उसका जवाब दिल्ली के लेफ्टि गर्वनर के पास नहीं था। दिल्ली में जहा बुलडोजर चला उसके आदेश किसने दिये। उपर से आदेश था
। उपर का मतलब [इंदिरा गांधी] तो मैं समझ रहा हूं। आपने लिखित तौर पर क्यों नहीं लिया। यह कैसे संभव है। असल में सत्ता कैसे किस तरह लोकतंत्र की पीठ पर सवार होकर ही लोकतंत्र का गला घोटती है, इसका एक उदाहदरण तो संजय गांधी और तबके राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का भी है। और इन पूर्व नौकरशाहों के पास ऐसे किस्सों की भरमार है। दिल्ली में संजय गांधी के निर्णयों से परेशान राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने जब संजय गांधी से पूछा कि तुर्कमान गेट पर बुलडोजर क्यों चलवा दिया । तो संजय गांधी का जवाब था जब करोलबाग में बुलडोजर चला तब आपने सवाल क्यों नहीं किया। संजय गांधी का अपना पांच सूत्रीय कार्यक्रम था, जिसे वह हर सभा में रखते। और यह पांच सूत्रीय भी समाजसुधार से जुड़ा था। पेड़ लगाना हो या दहेज ना लेना या फिर नसबंदी। संजय गांधी सभी का जिक्र करते। लेकिन इमरजेन्सी में इंडियन इन्फारमेशन सर्विस में बतौर काम करते इन नौकरशाहों की माने तो इमरजेन्सी सही थी लेकिन दो काम गलत हुये, जिसे इंदिरा गांधी को भी बाद में यह एहसास हुआ कि अगर मीडिया पर पांबदी ना लगायी जाती और सभी बड़े नेताओ को जेल में एकसाथ ना ठूंसा जाता तो देश नियम-कायदे की रफ्तार पकड़ चुका था। 10 बजते बजते हर बाबू अपने दफ्तर की सीट पर दिखायी देता। रेलगाडी वक्त पर चलने लगी। सरकारी कामकाज में रफ्तार आ गई। यह अलग मसला है कि नाई से लेकर मोची भी अपनी दुकान पर इंदिरा के 20 सूत्रीय कार्यक्रम का बोर्ड टांग कर काम करता, जिस पर लिखा होता यहा बीस सूत्रीय कार्यक्रम के तहत बाल काटे जाते है या फिर जूते बनाये जाते हैं। उस दौर में दिल्ली में आकाशवाणी के लिये रिपोर्टिंग करते पूर्व नौकरशाह की मानें तो अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध इंदिरा को कितना भारी पड़ा यह 1977 में चुनाव के वक्त चुनावी यूपी की चुनावी रैलियो में सिर्फ सौ-डेढ सौ लोगों की मौजूदगी ने इंदिरा को दिखा दिया, जहां कोई अखबारवाला पहुंचता भी तो हार की रिपोर्ट तैयार करने के लिये और खाली मैदान की तस्वीरों को उतारने के लिये। इसलिये 1977 में जब इंदिरा हारी तो कमलापति त्रिपाठी ने तुलसीदास को याद कर कहा , "रहा न कुल कोई रोउ निहारा" [अब कुल में कोई रोने वाला भी नहीं रहा] । तो क्या देश 1977 की दिशा में जा रहा है। कह नहीं सकते लेकिन जो पीढ़ी सड़क पर संघर्ष कर रही है उसका जन्म भी 1977 के बाद ही हुआ है। और जेएनयू से लेकर आईआईटी तक में जो सवाल उठ रहे है उसका ताल्लुक सीधे मनमोहन के आर्थिक सुधार के द के हालात से जुड़े हैं। इसलिये अतीत के सवाल के जरीये वर्तमान के जवाब तो टटोले नहीं जा सकते लेकिन मौजूदा वक्त में अगर दिल्ली की चर्चा में प्रतिबंध, संघर्ष
और सियासत आम है तो फिर इसे खास होने में वक्त भी नहीं लगेगा।
Monday, August 20, 2012
टैम से आगे न्यूज चैनल का धंधा
टैम को लेकर सरकार की बैचेनी अचानक बढ़ गई है। प्रसार भारती से लेकर सूचना प्रसारण मंत्री भी यह बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है कि जब दूरदर्शन देश के 92 फिसदी हिस्से से जुडा हुआ है तो उसकी टीआरपी टैम की रेटिंग में झलकती क्यों नहीं है । पहली नजर में सरकार के तर्क सही लग सकते है। क्योंकि बात तो वाकई समूचे देश की होनी चाहिये। शहर शहर में फर्क और गांव शहर में फर्क कैसे टैम के मीटर कर सकते है, जबकि देश एक है और इन्हीं के आसरे जब न्यूज चैनलो की कमाई जुड़ी है। क्योंकि विज्ञापन देने वाली कंपनी टैम के मीटर से निकलने वाली टीआरपी को ही तो मुख्य आधार बनाते हैं।
जाहिर है एक सवाल यहा हर किसी के मन में उठ सकता है कि टैम के मीटर की तरह कही सरकार की नीतियां भी विकास का खाका तो नहीं खींच रही। और विकास की नीतियों की तर्ज पर ही न्यूज चैनलों चलाने वाले भी अपना विकास तो नहीं देख रहे। यह सवाल इसलिये क्योकि अगर वाकई सरकार को लगने लगा है टैम के
मीटर ने टीआरपी का नशा न्यूज चैनलो में ऐसा घोल दिया है जहा गांव से लेकर बीमार राज्य और हाशिये पर पडे बहुसंख्यक तबके से लेकर पिछडे समाज के सवालों को कोई जगह ही न्यूज चैनलों में नहीं मिल पा रही है । तो समझना यह भी होगा कि क्या सरकार की नीतियां भी टैम के मीटर से इतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और विकास का कोई पैमाना समूचे देश के लिये खड़ा कर रही है। सरकार इस बात को लेकर खुश है कि दुनिया के सबसे बडे बाजार के तौर पर भारत की पहचान बढ़ती जा रही है। क्योंकि आज की तारीख में 25 करोड़ भारतीय नागरिक उपभोक्ता में तब्दील हो चुके हैं। जबकि देश सवा सौ करोड़ का है और बाकि सौ करोड के लिये सरकार के पास कोई नीति नहीं बल्कि राजनीतिक पैकेज की फेरहिस्त है।
खाद्द सुरक्षा विधेयक से लेकर पक्का घर, पानी, बिजली, स्वास्थ्य सेवा, रोजगार, वालिका जननी से लेकर शिक्षा देने की योजनाओ की दो दर्जन से ज्यादा की फेरहिस्त महात्मा गांधी ,नेहरु , इंदिरा से लेकर राजीव गांधी तक के नाम के साथ जोड़ कर परोसी जा चुकी है। और अब गरीबी के रेखा से नीचे वाले भूखे-नंगों के हाथ में मोबाइल देने का भी ऐलान होने वाला है। यानी सरकार के विकास के नजरिये में अगर उपभोक्ता महत्वपूर्ण है तो फिर टैम के मीटर भी उन्हीं शहरों को घेरे हुये है। और सरकारी योजनाओं के जरीये पैकेज के राजनीतिक ऐलान के जरीये जो कल्याण सत्ता देश के नागरिकों का करना चाहती है उसी तरह उपभोक्ता और बाजार से कटे लोग, समाज और क्षेत्र की खबरों को दिखाने के लिये दूरदर्शन तो है ही। असल में यह एक नजर है जो सरकार के दोहरे नजरिये पर अंगुली उठा सकती है। लेकिन सवाल न्यूज चैनलों का है और टैम के मीटर का है तो फिर सरकार के गिरेबान में झांकना जरुरी है कि क्या वाकई सरकार का नजरिया न्यूज चैनलो के जरीये देश की असल खबरों को दिखाना है या फिर चैनल धंघे वालों के हाथ में सौपकर कमाई के खेल को धंघे से अलग कर सरकार अपनी सच्चाई से पल्ला झाड़ना चाहती है। न्यूज चैनल चाहकर भी कोई पत्रकार शुरु नहीं कर सकता। चैनल के लाइसेंस के फार्म को भरने के लिये पत्रकार के पास संपत्ति के तौर पर बीस करोड़ होने चाहिये। जो असंभव है। पहले लाइसेंस के लिये महज तीन करोड़ का टर्नओवर दिखाने से काम चल जाता था। लेकिन अब कंपनी का टर्नओवर 20 करोड़ का होना चाहिये। तो पहला सवाल है कि बीस करोड़ किसने पास होंगे। और जिनके पास बीस करोड़ होंगे वह न्यूज चैनल निकालने के लिये क्या सोच कर आयेंगे। बीते सात बरस में न्यूज चैनलों का लाइसेंस पाने वाले अस्सी फीसदी लोग बिल्डर, चिट-फंड चलाने वाले, रियल स्टेट के खेल में माहिर और भ्रष्टाचार या अपराध के जरीये राजनीति में कदम रख चुके नेता हैं। हरियाणा के पूर्व गृह राज्यमंत्री गोपाल कांडा के पास पांच चैनलों के लाइसेंस हैं। यह वही कांडा है जो एयर होस्टेज गीतिका शर्मा के सुसाइड करवाने के पीछे मुख्य आरोपी हैं। और अब उनके धंघो की फेरहिस्त खुल रही है कि कैसे सड़क से राज्य के गृह मंत्री तक की स्थिति में आ पहुंचे। गोपाल कांडा का न्यूज चैनल हरियाणा और यूपी में चलता है। धर्म का भी एक चैनल चल रहा है। दो लाइसेंस इनके पास पडे हुये हैं। और हरियाणा की सियासी तिकड़म में यह राज्य के मुख्यमंत्री हुड्डा को यह कहते रहे है कि चुनाव आने से पहले वह राष्ट्रीय न्यूज चैनल भी निकाल लेंगे। तब उनका कद भी बढ जायेगा और हुड्डा को भी राष्ट्रीय राजनीति में कद्दवर बनाने में उनका राष्ट्रीय चैनल लग जायेगा। इस तरह के नेताओं की फेरहिस्त देखे तो मौजूदा वक्त में करीब 27 न्यूज चैनलो के लाइसेंस इसी तरह के नेताओ के पास है, जो झारखंड से लेकर मुबंई तक और आंध्र प्रदेश से लेकर हिमाचल तक में न्यूज चैनल चला रहे। और 32 न्यूज चैनलों के लाइसेंस ऐसे ही नेताओं के पास पड़े हैं और वह न्यूज चैनल को सियासी धंघे में बदलने के लिये बैचेन है। वहीं दूसरी तरफ 18 न्यूज चैनल चीट-फंड के जरीये गांव गांव में लूट मचा रही कंपनियों के जरीये दिल्ली,यूपी, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा में चल रहे हैं। न्यूज चैनलों के 16 लाइसेंस लेकर चीट फंड वाले इंतजार कर रहे हैं कि अब धंघे के लिये न्यूज चैनल चलाने का वक्त आ गया है। इसी तरह देश भर में 19 न्यूज चैनलों के लाइसेंस रियल इस्टेट से जुड़े लोगों के पास है या सीधे बिल्डरो के पास हैं। कुछ निकाल रहे हैं। कुछ लाइसेंस बेच कर तीन करोड़ तक कमाना चाहते हैं। मौजूदा वक्त में करीब दो दर्जन से ज्यादा न्यूज चैनलों के लाइसेंस बाजार में बिकने को तैयार हैं। और इनकी कीमत ढाई से साझे तीन करोड़ तक की है। यानी लाइसेंस ले लिया और निकाल नहीं पा रहे हैं या फिर लाइसेंस लिया ही इसलिये क्योंकि 10 से 15 लाख के खर्चे में लाइसेंस लेकर तीन करोड में बेच दें। और बीस करोड़ के टर्नओवर की कंपनी दिखाने के खेल को करोड़ों के वारे-न्यारे में बदल कर शुरुआत ही धंधे से हो जाये।
तो पहला सवाल यही कि क्या सरकार वाकई टैम के जरीये हो रहे धंधे को रोकना चाहती है या फिर जिस धंधे को लाइसेंस देने के नाम पर उसने शुरु किया है और जो लाइंसेस लेकर अपने अपने धंधे को न्यूज चैनल के जरीये सौदेबाजी करना चाहते है और कर रहे है उस तरफ लोगों की नजर ना जाये, इसलिये नैतिकता का पाठ पढना चाह रही है। क्योंकि टैम से जुड़े टीआऱपी का खेल तो उसी केबल सिस्टम पर टिका है, जिस पर ज्यादतर राज्यों में सत्ताधारी राजनेताओं का ही कब्जा है। और किसी फिया की तरह चल रहे केबल नेटवर्क को किसी न्यूज चैनल के जुडने के लिये जिस तरह ब्लैक मनी देनी पड़ती है, वह अनएंकाउटेंड है। क्योंकि टैम मीटर असल में कैबल के जरीये देखे जा रहे न्यूज चैनलो की ही रिपोर्ट देता है। और केबल सिस्टम पर जिसका कब्जा होगा अगर वही किसी न्यूज चैनल को अपने क्षेत्र या राज्य में ना दिखाये तोफिर मीटर की रीडिंग में वह न्यूज चैनल आयेगा कैसे। जाहिर है मुफ्त में तो कोई कैबल किसी न्यूज चैनल को दिखायेगा नहीं। खासकर तब जब न्यूज चैनलों की भरमार हो और सभी तमाशे को ही खबर मान कर परोस रहे हों। यानी कंटेंट की लड़ाई ही नहीं हो। तो कैबल से जुडने के लिये न्यूज चैनल को सालाना कोई एक रकम तो देनी ही होगी। और मौजूदा वक्त में अगर कोई राष्ट्रीय न्यूज चैनल आज शुरु होता है तो उसे देश भर से जुड़ने के लिये 30 से 35 करोड़ रुपये सिर्फ कैबल नेटवर्क से जुडने में लगेंगे । इसकी कोई रसीद कोई केबल वाला नहीं देता । यानी 30 से 35 करोड़ रुपया कहां से आया और न्यूज चैनल वाले ने इसे किसे दिया इसका कोई एकांउट नहीं होता। और संयोग से देश के सोलह टीआरपी वाले क्षेत्र या कहे टैम मिटर वाले प्रमुख 16 क्षेत्र के केबल पर और किसी की नहीं बल्कि राजनेताओं की ही दादागिरी है। यानी जिन केबल पर राजनीतिक सत्ताधारियो का कब्जा है, उनके खिलाफ कुछ भी हो जाये कोई न्यूज चैनल वाला खबर दिखा ही नहीं सकता। आजमाना हो तो पंजाब में प्रकाश सिंह बादल और छत्तिसगढ में रमन सिंह के खिलाफ कोई न्यूज चैनल हिम्मत करके दिखाये। जी वह चैनल केबल पर ब्लैकआउट हो जाता है। अगर इनसब के बावजूद सरकार को लगता है कि टैम का खेल रोकने से खबरे दिखायी जाने लगेगी। तो हरियाणा के हुड्डा और बिहार में नीतिश कुमार के मीडिया प्रेम को समझना जरुरी है। जो सरकार के प्रचार के बजट से ही खबरो के तेवर और कंटेट को जोडने की हैसियत रखते है, और अपने खिलाफ कुछ भी आन-एयर होने ही नहीं देते । यह स्थिति मध्यप्रदेश के शिवराजसिंह चौहान की भी है और राजस्थान के गहलोत भी इस ककहर को पढ़ने लगे हैं। यानी न्यूज चैनल के बीज में ही जब धंधा है तो फिर सवाल संपादक और मीडिया हाउस को लेकर भी उठ सकते हैं। और इनकी स्थिति को समझने के लिये सरकार के आर्थिक सुधार की हवा के रुख को समझना जरुरी है । जो विकास को लेकर सहमति बनाने के लिये संपादक और मीडिया हाउस को भी अपने साथ खड़ा करने से हिचक नही रही और संपादक भी साथ खडा होने में हिचक नहीं रहा । क्योंकि संपादक की महत्ता या उसका कद संयोग से उसी धंधे से जा जुडा है जो कही टीआरपी तो कही सत्ता के साथ सहमती बनाने पर आ टिकी है । इसलिये सरकार के निशाने पर टैम के जरीये इस सच को समझना होगा कि आखिर देश में वाकई कोई ऐसा राष्ट्रीय न्यूज चैनल क्यो नहीं है जो देश के मुद्दों को लेकर जनमत बना सके और उसमें काम करने के लिये पत्रकार लालियत हो । और काम करने वाले पत्रकारों को लेकर देश में एक साख हो। जिसकी खबरों को देखकर लगे कि वाकई लोकतंत्र के चौथे खम्भे को तौर पर मीडिया है और वह सरकार की निगरानी कर रहा है। यह सिर्फ टैम के 80 हजार मीटर लगाने से तो होगा नहीं। बल्कि न्यूज चैनल के धंधे को खत्म करना होगा। क्या सरकार इसके लिये तैयार है।
Saturday, August 18, 2012
कोयला खदान के लाइसेंस बांटने में किसके हाथ हैं काले
बापू कुटिया से लेकर टाइगर प्रोजेक्ट तक की जमीन तले कोयला खादान
इंदिरा गांधी ने 1973 में कोयला खदानों का ऱाष्ट्रीयकरण किया तो मनमोहन सिंह ने 1995 में ही बतौर वित्त मंत्री कोल इंडिया लिमिटेड से कहा कि सरकार के पास देने के धन नहीं है। और उसके बाद कोल इंडिया में दोबारा ठेके पर काम होने लगा। और पावर-स्टील उघोग के लिये कोयला खादान एक बार फिर निजी हाथों में जाने लगा। असल में कैग की रिपोर्ट इन्ही निजी हाथों में खदान देने के लिये अगर बोली ना लगाये जाने पर अंगुली उठाकर 1.86 लाख करोड़ के राजस्व के चूने की बात कर रही है। तो इससे इतर एक दूसरा सवाल इस घेरे में छिप भी रहा है और वह है खादान का लाइसेंस पाने की होड़ में ही कमाई खोजना। और पर्यावरण को ताक पर रखकर खदानों को बांटना। क्योंकि टाइगर रिजर्व के क्षेत्र में भी कोयला खनन होगा और झारखंड से लेकर बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों की जमीन पर कोयला खनन की इजाजत देकर आदिवासियों की कई प्रजातियो के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगेगा। इतना ही नहीं, महाराष्ट्र के वर्धा में जिस बापू कुटिया के लेकर देश संवेदनशील रहता है, उस वर्धा में साठ वर्ग की जमीन के नीचे खदान खोद दी जायेगी। असल में विकास की जिन नीतियों को सरकार लगातार हरी झंडी दे रही है उसमें पावर प्लांट से लेकर स्टील उघोग के लिये कोयले की जरुरत है। और कोयले से करोड़ों का वारा-न्यारा कर मुनाफा बनाने में चालिस से ज्यादा कंपनिया सिर्फ इसीलिये बन गयी जिससे उन्हें कोयला खादान का लाइसेंस मिल जाये। और 2005-09 के दौरान कोयला खादानों के लाइसेंस का बंदरबांट जिस तर्ज पर जिन कंपनियों को हुआ है, अगर उसकी फेरहिस्त देखे और लाइसेंस लेने-देने के तौर तरीके देखे तो पहला सवाल यही उठेगा कि लाइसेंस ले कर लाइसेंस बेचना भी धंघा हो गया। क्योंकि न्यूनतम पांच करोड़ के खेल में जब किसी भी कंपनी को एक ब्रेकेट खादान मिलता रहा है तो 2005-09 के दौरान देश भर में डेढ़ हजार से ज्यादा कोयला खदान के ब्रेकेट का लाइसेंस दिया गया है तो इन सभी को जोडने पर कितने लाख करोड़ के राजस्व का चूना लगा होगा इसकी कल्पना भर ही की जा सकती है। असल में पहले कोयला मंत्रालय खादानो को बांटता था और लाइसेंस लेने के बाद कंपनियो को पर्यावरण मंत्रालय से एनओसी लेना पड़ाता था। लेकिन अब जिसे भी कोयले खादान का लाईसेंस मिलेगा, उसे किसी मंत्रालय के पास जाने की जरुरत नहीं रहेगी। क्योंकि मंत्रियो के समूह में पर्यावरण मंत्रालय का एक नुमाइंदा भी रहेगा। लेकिन यह हर कोई जानता है कि मंत्रियों के फैसले नियम-कायदों से इतर बहुमत पर होते हैं। यानी पर्यावरण मंत्रालय ने अगर यह चाहा कि वर्धा में गांधी कुटिया के इर्द-गिर्द कोयला खादान ना हो या फिर किसी टाइगर रिजर्व में कोयला खादान ना हो तो भी उसे हरी झंडी मिल सकती है क्योकि मंत्रियों के समूह में वित्त ,वाणिज्य और कृर्षि मंत्री की इसपर सहमति हो कि कोयला खदानों के जरीये ही उघोग के क्षेत्र में विकास हो सकता है।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीते 2004 से 2009 तक में 342 खदानों के लाइसेंस बांटे गये। जिसमें 101 लाइसेंसधारकों ने कोयले का उपयोग पावर प्लांट लगाने के लिये लिया। लेकिन इन पांच सालों में इन्हीं कोयला खादानो के जरीये कोई पावर प्लांट नया नही आ पाया। और इन खदानों से जितना कोयला निकाला जाना था अगर उसे जोड़ दिया जाये तो देश में कही भी बिजली की कमी होनी नहीं चाहिये। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यानी एक सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या कोयला खदान के लाइसेंस उन कंपनियों को दे दिये गये, जिन्होने लाईसेंस इसी लिये लिये कि वक्त आने पर खादान बेचकर वह ज्यादा कमा लें। तो यकिनन लाइसेंस जिन्हें दिया गया उनकी सूची देखने पर साफ होता है कि खदान का लाइसेंस लेने वालों में म्यूजिक कंपनी से लेकर गुटका, गंजी और अखबार निकालने से लेकर मिनरल वाटर का धंधा करने वाली कंपनी भी है।
इतना ही नही, दो दर्जन से ज्यादा ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हे ना तो पावर सेक्टर का कोई अनुभव है और ना ही कभी खादान से कोयला निकालवाने का कोई अनुभव। कुछ लाइसेंस धारकों ने तो कोयले के दम पर पावर प्लांट का भी लाइसेंस ले लिया और अब वह उन्हें भी बेच रहे हैं। मसलन सिंगरौली के करीब तीन पावर प्लांट और छह खदाने बिकने को तैयार हैं। एस्सार इन्हें खरीदना चाहता है और जो बेचना चाहते है वह लगायी जा रही कीमत से ज्यादा मुनाफा चाहते हैं। वही बंगाल, महाराष्ट्र,छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, गोवा से लेकर उडिसा तक कुल 9 राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने कामिशियल यूज के लिये कोयला खादानो का लाइसेंस लिया है। और हर राज्य खदानों को या फिर कोयले को उन कंपनियों या कारपोरेट घरानो को बेच रहा है, जिन्हें कोयले की जरुरत है। इस पूरी फेरहिस्त में डोमको स्मोक लैस फ्यूल लिं., श्री बैघनाथ आर्युवेद भवन लिं, जय बालाजी इडस्ट्री लिमेटेड, अक्षय इन्वेस्टमेंट लिं, महावीर फेरो, प्रकाश इडस्ट्री, पवनजय स्टील, श्याम ओआरआई लि.. समेत 42 कंपनिया ऐसी हैं, जिन्होंने कोयला खदान का लाइसेंस लिया है लेकिन उन्होंने कभी खादानो की तरफ झांका भी नहीं। और इनके पास कोई अनुभव ना तो खदानो को चलाने का है और ना ही खदानो के नाम पर पावर प्लांट लगाने का। यानी लाइसेंस लेकर अनुभवी कंपनी को लाइसेंस बेचने का यह धंधा भी आर्थिक सुधार का हिस्सा है। ऐसे में मंत्रियों के समूह के जरीये फैसला लेने पर सरकार ने हरी झंडी क्यो दिखायी यह समझना भी कम त्रासदीदायक नहीं है। जयराम रमेश ने 2010 में सिर्फ एक ही कंपनी सखीगोपाल इंटीग्रेटेड पावर कंपनी लिं, को ही लाइसेंस दिये जाने पर सहमती जतायी। लेकिन उनके पर्यावरण मंत्री बनने से पहले औसतन हर साल 35 से 50 लाइसेंस 2005-09 के दौरान बांटे गये। असल में जयराम रमेश के बतौर पर्यावरण मंत्री की आपत्तियों को भी समझना होगा कि उन्होंने अडानी ग्रूप का लाइसेंस इसलिये रद्द किया क्योकि वह ताडोबा के टाइगर रिजर्व के घेरे में आ रहा था। लेकिन अब हालात उल्टे है क्योकि इस वक्त कोयला मंत्रालय के पास 148 जगहों के खदान बेचने के लिये पड़े हैं। इसमें मध्यप्रदेश के पेंच कन्हान का वह इलाका भी है जहा टाइगर रिजर्व है। पेंच कन्हान के मंडला ,रावणवारा,सियाल घोघोरी और ब्रह्मपुरी का करीब 42 वर्ग किलोमीटर में कोयला खदान निर्धारित किया गया है । इसपर कौन रोक लगायेगा यह दूर की गोटी है। लेकिन कोयला खदानो को जरीये मुनाफा बनाने का खेल वर्धा को कैसे बर्बाद करेगा, इसकी भी पूरी तैयारी सरकार ने कर रखी है। महाराष्ट्र में अब कही कोयला खादान बेचने की जगह बची है तो वह वर्धा है। इससे पहले वर्धा में बापू कुटिया के दस किलोमीटर के भीतर पावर प्लांट लगाने की हरी झंडी राज्य सरकार ने दी। तो अब बापू कुटिया और विनोबा भावे केन्द्र की जमीन के नीचे की कोयला खादान का लाइसेंस बेचने की तैयारी हो चुकी है। वर्धा के 14 क्षेत्रों में कोयला खादान खोजी गयी है।
किलौनी, मनौरा,बांरज, चिनौरा,माजरा, बेलगांवकेसर डोगरगांव,भांडक पूर्वी,दक्षिण वरोरा,जारी जमानी, लोहारा,मार्की मंगली से लेकर आनंदवन तक का कुल छह हजार वर्ग किलोमिटर से ज्यादा का क्षेत्र कोयला खादान के घेरे में आ जायेगा। यानी वर्धा की यह सभी खादानो में जिस दिन काम शुरु हो गया उस दिन से वर्धा की पहचान नये झरिया के तौर पर हो जायेगी। झरिया यानी झारखंड में धनबाद के करीब का वह इलाका जहा सिर्फ कोयला ही जमीन के नीचे धधकता रहता है। और यह शहर कभी भी ध्वस्त हो सकता है इसकी आशंका भी लगातार है। खास बात यह है कि कोयला मंत्रालय ने वर्धा की उन खादानो को लेकर पूरा खाका भी दस्तावेजों में खींच लिया है। मसलन वर्धा की जमीन के नीचे कुल 4781 मिट्रिक टन कोयला निकाला जा सकता है। जिसमें 1931 मिट्रिक टन कोयला सिर्फ आनंदवन के इलाके में है। इसी तरह आदिवासियों के नाम पर उडीसा में खादान की इजाजत सरकार नहीं देती है लेकिन कोयला खदानों की नयी सूची में झरखंड के संथालपरगना इलाके में 23 ब्लाक कोयला खादान के चुने गये हैं। जिसमें तीन खादान तो उस क्षेत्र में है जहा आदिवासियो की लुप्त होती प्रजाति पहाड़िया रहती है। राजमहल क्षेत्र के पचवाडा,और करनपुरा के पाकरी व चीरु में नब्बे फीसदी आदिवासी हैं। लेकिन सरकार अब यहा भी कोयला खादान की इजाजत देने को तैयार है। वहीं बंगाल में कास्ता क्षेत्र में बोरेजोरो और गंगारामाचक दो ऐसे इलाके हैं जंहा 75 फिसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। वहां पर भी कोयला खादाना का लाइसेंस अगले चंद दिनो में किसी ना किसी कंपनी को दे दिया जायेगा। कैग रिपोर्ट आने के बाद किसी घोटाले का कोई आरोप कोयला मंत्रालय पर ना लगे इसके लिये 148 कोयला खदानो के लिये अब बोली लगाने वाला सिस्टम लागू किया जा रहा है। लेकिन जिन इलाको में कोयला खोजा गया है इस बार वहीं इलाके कटघरे में हैं।
Monday, August 13, 2012
हिन्दी न्यूज चैनल की पत्रकारिता
जंतर-मंतर की आवाज 10 जनपथ या 7 रेसकोर्स तक पहुंचेगी। देखिये इस बार भीड़ है ही नहीं। लोग गायब हैं। पहले वाला समां नहीं है। तो जंतर-मंतर की आवाज या यहां हो रहे अनशन का मतलब ही क्या है। तो क्या यह कहा जा सकता है कि अन्ना आंदोलन सोलह महीने में ही फेल हो गया। थोड़ा इंतजार करना है। यह अन्ना टीम के अनशन की शुरुआत पर न्यूज चैनल में संवाद का हिस्सा है। और चार दिन बाद जब अन्ना हजारे खुद अनशन पर बैठे तो...जंतर-मंतर पर आज क्या हाल है। देखिये लोग जुट रहे हैं। लेकिन वह समां अब भी नहीं है जो रामलीला मैदान में था। तो क्या इसे फेल माना जाये । देखिये सरकार तो बातचीत करने के दिशा में कुछ भी नहीं कह रही है तो फेल ही मानिये।
मारुति के जीएम को जिन्दा जलाया गया है। इसका असर क्या है। असर तो अच्छा खासा है। पुलिस बंदोबस्त जबरदस्त बढ़ गया है। मारुति पर ताला चढ़ा दिया गया है। पुलिस लगातार पूछताछ कर रही है। तो क्या यहा काम शुरु नहीं होगा। कह नहीं सकते। लेकिन पुलिस बंदोबस्त लगातार बढा हुआ है। कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं। यह दिल्ली से सटे मनोसर में मारुति प्लांट में हुई हिंसा के बाद न्यूज चैनल में संवाद का शुरुआती क्षण हैं। और चार दिन बाद जब मारुति के गुजरात जाने की खबर आने लगी । तो क्या मारुति प्लांट अब गुजरात शिफ्ट हो जायेगी। यह तो तुरंत कहना मुश्किल है । लेकिन पुलिस बंदोबस्त बताता है कि सरकार हरकत में आयी है। यहां धारा 144 भी लगा दी गई गई है। अब कोई गडबड़ी होने देना नहीं चाहती सरकार। फिर प्लांट शुरु कब से होगा। यह तो कहा नहीं जा सकता । लेकिन जबरदस्त पुलिस बंदोबस्त है। कुछ जापानियों को बेहद डरे हुये हमने देखा।
जिस तरह कोकराझार में हिंसा हुई क्या उसे रोकने के कोई उपाय नही किये जा रहे है। यह तो कहना मुश्किल है, लेकिन हिंसा अब भी जारी है। 19 लोग मर चुके है । 50 हजार से ज्यादा विस्थापित हो चुके है । हालात है कैसे।बहुत बुरे है। लगातार हिंसा जारी है। लोग हरे हुये है । पुलिस के साथ साथ सेना को भी बुलाया गया है। यह असम के कोकराझार में हिंसा की खबरों के बीच पहले दिन न्यूज चैनल का अपने संवाददाता से संवाद है। और चार दिन बाद । अब कोकराझार के हालात कैसे है । बहुत कठिन हालात हैं। पुलिस बंदोबस्त लगातार बढाया गया है। सेना की 18 कंपनियां भी तैनात हैं। लेकिन हिंसा छिटपुट लगातार जारी है। लोग परेशान हैं। मरने वालों की संख्या बढकर 40 पहुंच गई है। तो फिर पुलिस सेना या सरकार क्या कर रही है। वह फ्लैग मार्च कर रही है। लेकिन हिंसा लगातार जारी है । शरणार्थी कैंप में 2 लाख से ज्यादा लोग पनाह लिये हुये हैं। कोई शांति का रास्ता तो दिखायी दे रहा नहीं है।
अन्ना, मारुति और कोकराझार की खबरों को लेकर अगर हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों को टोटले या फिर इस दौर में जितनी भी महत्वपूर्ण खबरें आपको याद आती हो। चाहे वह गुवाहाटी में लडकी के साथ की गई बदसलूकी हो या फिर पुणे में सिरियल ब्लास्ट। एंकर-रिपोर्टर के बीच का संवाद खबरों को लेकर जिस स्तर का होता है वह आपके सामने एक प्रशनचिन्ह लगा सकता है कि आखिर हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के जरीये कोई भी दर्शक किसी खबर के पीछे की परिस्थियां या खबर के कैनवास को समझना चाहे तो उसे मुश्किल होगी । लगातार जानकारी का दोहराव। जो कैमरे से दिखायी दे रहा है उसे ही शब्दों में ढाल कर बताने का प्रयास। बहुत तेजी से खबरों को बताने की होड़। लगभग खबरों जैसा ही खुद को ढालने की अदाकारी। यानी विस्फोट की खबर है तो हाफंता हुआ रिपोर्टर। कोई हादसा हुआ है तो दर्द से कराहता रिपोर्टर।हिंसा हुई है तो पुलिसिया अंदाज में अपनी मौजूदगी का एहसास कराता रिपोर्टर। यानी किसी घटना के बाद अगर खबर को राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में या फिर घटना क्यों महत्वपूर्ण है इसे देखने-समझने की कुबुलाहट देखने वाले में है तो वह झुझला सकता है कि सीमित जानकारी में कोई रिपोर्टर और एंकर कैसे घंटों निकाल देते हैं। और उन्हे इस सच से कोई मतलब नहीं होता कि खबर के बारे में जानकारी के दायरे को बढ़ाने की जरुरत भी है।
असल सवाल यही से शुरु होता है कि आखिर हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलों का स्तर लगातार गिर क्यों रहा है। अगर भूत-प्रेत या तमाशा से निजात मिलती भी है तो राजनीतिक या सामाजिक खबरें भी किसी तमाशे की तरह क्यों सामने रखी जाती है। खबर बताने की जल्दबाजी या तेजी से बताने की सोच हर खबर को ब्रेकिंग न्यूज तले चलाते हुये क्या खबरों को लेकर न्यूज चैनलों की साख बरकरार रखी जा सकती है। लेकिन अगर कोई संपादक आपसे यह कहे कि साख की परिभाषा है क्या। तो आप क्या कहेंगे। जाहिर है समझ का दायरा खबरों को परोसने के तरीके से लेकर खबर को खबर समझने या खबर को खबर से इतर तमाशे की तरह रखने दिखाने में जब जा सिमटा हो तब पत्रकारिता का मतलब बचेगा कहां। असल में न्यूज चैनलों के भीतर मीडियाकर्मी होने की साख की परिभाषा भी बदल दी गई है क्योंकि पत्रकार की साख उसे खबरों की तह तक तो पहुंचा सकती है लेकिन तह की खबरों को बताने में जितना वक्त चाहिये संयोग से उतना वक्त भी न्यूज चैनल किसी साख वाले रिपोर्टर को देने के लिये तैयार नहीं है।
सेकेंड और मिनट को गुथते हुये हर आधे घंटे की प्रोग्रामिंग की सफलता उसी के मत्थे चढ़ती है जो लगातार सनसनाहट भरा स्वाद खबरो के जरीये परोसता रहे । जिसमें मनोरंजन का तड़का हो। जिसमें रिपोर्टर की जोकरई या एंकर की नासमझी भी देखने वालो में अगर उत्सुकता जगा दें तो भी चलेगा। जाहिर है इन परिस्थितयों के लिये दोष न्यूज चैनलों के भीतर की अर्थव्यवस्था को संभालने में लगे संपादक की समझ पर भी मढ़ा जा सकता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। असल में 2003 से 2008 तक ज्यादातर भर्ती हर न्यूज चैनल में उन छात्रों की हुई, जिन्हें मशीन पर काम करने का ज्ञान था या कहें टीवी तकनालाजी को समझते थे। क्योंकि एचआर यानी ह्यूमन रिसोर्स विभाग की प्राथमिकता ऑफिस टू कोस्ट यानी किसी की भर्ती के साथ ही किस कर्मचारी पर कितना खर्ज न्यूज चैनल को करना पड़ेगा, उसका सरल उपाय यही निकाला गया कि मशीन या कही तकनालाजी को समझने वाला तो तुरंत काम में आ जायेगा। और धीरे धीरे वह खबरों का ज्ञान भी पा लेगा। लेकिन खबरों के ज्ञान वाले की भर्ती हो गई तो उसे तकनालाजी सिखने में लंबा वक्त लगेगा। उसके खर्चे का भार तो न्यूज चैनल पर ही आयेगा। जाहिर है इस प्रक्रिया में स्क्रीन पर क्या दिखाया जा रहा है और वह कैसा लगता है। स्क्रिन का रंग। ग्राफिक्स डिजाइन। खबर के साथ विज्ञापन भी चलाने की होड़। इसी में सारी ताकत न्यूज रुम की लगने लगी । अधिकतर न्यूज चैनलो में संपादको ने इसी समझ को विकसित किया। इसलिये न्यूज गैदरिंग यानी खबरों को लाने पर खर्चा कमोवेश हर न्यूज चैनल में अन्य खर्चो से सबसे कम होता गया है। इसका एक असर अगर तमाशा दिखा कर वाह वाह करने वाले रिपोर्टर या डेस्क की ताकत का बढना हो गया तो दूसरी तरफ राजनीतिक-सामाजिक या आर्थिक विसंगतियों को पकड़ने वाले रिपोर्टर पीछे छूटते चले गये। और जब जब ऐसे मौके आये जब किसी खबर ने देश को हिलाया तो रिपोर्टर स्क्रीन पर खबर का विश्लेषण करते वक्त तमाशा करता हुआ सा ही दिखा । और उसकी बडी वजह चंद रुपये में सबसे ज्यादा टीआरपी पाने वाले कार्यक्रमों का बनना भी है। दाउद की पार्टी में बालीवुड के सितारों का नाचना गाना या फिर खली की पहलवानी की सीडी जब मेरठ या बुलंदशहर के खुले बाजार में 50 रुपये में मिल जाती है और उसे सीधे दिखा कर किसीएंकर-रिपोर्टर को मजा लेते रहना है और इसकी टीआरपी अगर सबसे ज्यादा होगी तो फिर रिपोर्टर की सफलता खबर लाने में होगी या फिर सीडी जुगाड करने में । रिपोर्टर मेरठ के सीडी बाजार के भीतर का सच बताने की जद्दोजहद करे या फिर मेरठ से सीडी ले आये। जाहिर है यहा से नया सवाल टीआरपी का भी जुड़ता है। यानी टैम के जिन मीटरों के आसरे टीआरपी की गणना होती है, अगर वह मीटर आर्थिक तौर पर निम्न या निम्न मध्यम तबको के घरों में ही लगे हो तो फिर उनकी पंसद के कार्यक्रम कौन से होंगे। तो राष्ट्रीय न्यूज चैनल को जहन में रखना होगा कि देश की समस्या या हाशिये पर पड़े समाज से जुड़ी खबरें टीआरपी मीटर लगे घरों के लिये मायने रखेगी या फिर जिस वक्त कोई न्यूज चैनल कोई गंभीर विषय पर काम कर रहा है और उसी वक्त पांच सिर वाले नाग-देवता किसी चैनल के स्क्रीन पर दिखायी देने लगे तो क्या होगा। यह सारे टकराव न्यूज चैनलो के पर्दे पर खूब हुये हैं। एक राष्ट्रीय चैनल ने एक वक्त अल्पसंख्यकों की मुश्किलातों पर कार्यक्रम किया। तो उसी वक्त एक दूसरे राष्ट्रीय न्यूज चैनल के स्क्रीन पर सांप नाचने लगा। लाखो रुपये खर्च कर बना अल्पसंख्यकों का कार्यक्रम सांप के आगे टीआरपी में टिक ना सका। और अलंपसंख्यकों को दिखाने वाले चैनल के संपादक ने भी मुनादी करा दी कि जो तमाशा ला कर देगा वही सबसे बडा रिपोर्टर होगा। तो पर्दे पर रिपोर्टर का हुनर ही बदलने लगा। लेकिन इसके सामानांतर एक तीसरी जमात भी तेजी से पनपी जो टीआरपी को लेकर चैनलो के संपादको पर भारी पड़ने लगी। वह टैम के मीटर में सेंध लगाने वाली है। इस जमात का काम टैम के मीटर वाले घर में जाकर टीआरपी नोट करने वाले घरो को पकड़ना हो गया। और जिस भी घर में मीटर पकड़ाया उससे सौदा कर एक घंटे का स्लाट किसी खास चैनल के किसी कार्यक्रम को चलाने का हो गया। यानी बाकी वक्त मीटर लगे घर वाला अपने कार्यक्रम देखे लेकिन सिर्फ एक घंटा सेंघ लगाने वाले के चलाये। यग सेंध टीआरपी इलाको में लगी। और सेंध लगाने वाले चैनलो की नौकरी छोड़ अपनी कंपनी बनाकर मौजूदा दौर में न्यूज चैनलों के साथ सौदा करने में भिड़े हैं। सेंध से किसी भी चैनल की टीआरपी में 2 से 3 टीआरपी के बढने का असर तुरंत दिखायी देता है। यह बीते चार बरस में जमकर हुआ है और फिरलहाल भी जारी है। यानी कोई संपादक अगर किसी नये न्यूज चैनल में जाता है तो टीआरपी बढाने के अपने हुनर की ही सौदेबाजी करता है और इसके बाद कार्यक्रम की क्लाविटी कैसे गिरती है या फिर न्यूज रुम में पत्रकार होने पर कैसे आउट-पुट यानी डेस्क के लोग कैसे मजाक उड़ाते है यह किसी से छुपा नहीं है।
अब जरा सोचिये कि हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनल पर अगर किसी विस्फोट, किसी हिंसा या किसी आंदोलन की कवरेज होगी तो कैसी होगी। कोई राजनीतिक घटनाक्रम देश की सियासत को प्रभावित कर रहा होगा तो उसका विशलेषण सिवाय नेताओं का नाम लेकर या उनके मुह में माईक ठूंस कर कुछ भी उगलवाना ही एक्सक्लूसिव खबर के तौर पर ही तो चलेगी। एक्सक्लूसिव खबर के तौर पर नेताओं को पकड़ना ही रिपोर्टर की फितरत बनती चली जा रही है। यानी जिस नेता के साथ जिस न्यूज चैनल के रिपोर्टर के संबंध है और वह उसे अपने मुताबिक किसी घटना विशेष को लेकर इंटरव्यू या बाईट दे देता है तो झटके में वह रिपोर्टर हीरो हो जाता है। यानी राजनीतिक समझ की नहीं राजनेताओं से संबंध की जरुरत ही रिपोर्टर को विशेष संवाददाता और धीरे धीरे संपदक बना दें तो फिर दर्शकों को क्या देखने को मिलेगा यह समझा जा सकता है। इसलिये हिन्दी के राष्ट्रीय न्यूज चैनलो को देखते हुये हर किसी के जहन में यह आ सकता है कि देश को तो वाकई एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल की जरुरत है। जो सही मायने में खबरों की पड़ताल करें। किसी भी खबर पर जनमत तैयार करने की स्थिति को पैदा करें। जो सरकार पर निगरानी का काम भी करें और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रुप में चैक एंड बैलेंस की भूमिका में रहे। जिसमें काम करने वाले पत्रकार को अपनी जिम्मेदारी का भी एहसास हो और गर्व भी करें कि वह राष्ट्रीय न्यूज चैनल में काम कर रहा है। और देखने वाले भी खबरों को विश्वसनीय माने। यानी देश में साख हो। यहां यह सवाल बेमानी है कि हिन्दी पर हमेशा अंग्रेजी पत्रकारिता हावी रही है इसलिये हिन्दी न्यूज चैनल की अपनी ऐसी साख हो सकती है। लेकिन याद कीजिये वीपी सिंह के दौर में क्षेत्रीय पत्रकारिता ही थी खास कर उस वक्त जनसत्ता और नवभारत टाइम्स की रिपोर्टिंग ने सत्ता को डिगाया भी और वीपी को प्रधानमंत्री पद के दरवाजे पर ला खडा किया भी। यह अलग सच है कि मंडल-कंमडल के बाद जिस आर्थिक सुधार की परवान चढी उसने राजनीति और पत्रकारिता को उस अर्थव्यवस्था से अलग कर दिया जो अर्थव्यवस्था धीरे धीरे मीडिया हाउस और राजनीतिक घरानों की जरुरत बना दी गई। शायद इसीलिये बीते बीस बरस में एक चुनाव ऐसा नहीं हुआ जो आर्थिक सुधार के सवाल पर लड़ा गया हो। जबकि अब जो सत्ता और कारपोरेट की लूट भ्रष्टाचार के जरीये सामने आ रही है उसके मर्म में वही आर्थिक सुधार है जिसपर अन्ना आंदोलन भी अभी अंगुली रख नहीं पा रहा है। इसलिये जंतर मंतर से निकले राजनीतिक विकल्प को लेकर कोई चैनल इस दिशा में नहीं जाता कि विकल्प हमेशा जड़ को बदलता है। चेहरे या नकाब बदलने को विकल्प नहीं कहा जा सकता। शायद यह मौजूदा दौर के पत्रकारिता की हार है।
Thursday, August 9, 2012
नजर लागी राजा 2014 पर
2014 तक राजनीतिक विकल्प का सपना संजोये अन्ना हजारे के पहले ही कदम से अन्ना टीम सकते में है। यूपीए को 2014 में घराशायी कर सत्ता में आने का स्वर्ण अवसर माने बैठी बीजेपी अपने ही लाल बुझक्कड लाल कृष्ण आडवाणी के ब्लॉग संदेश से सकते में है। ब्लॉग संदेश को अपने लिये 2014 में सत्ता का ताज पहनने सरीखा मान रहे मुलायम सिंह यादव सहज हो नहीं पा रहे इसलिये 6 अगस्त को सोनिया गांधी के भोज में मनमोहन सिंह से चुटकी ले आये कि आज आप मुश्किल है तो हम साथ खड़े हैं। कल हम मुश्किल में होंगे तो सत्ता में पहुंचाने का जुगाड़ आपको करना होगा। वहीं 2014 को लेकर कांग्रेस सुकुन में है कि जहां उसे गेम से बाहर मान लिया जाना चाहिये था, वहां उसकी अहमियत बरकरार है।
तो क्या 2014 का रास्ता एक ऐसे चौराहे पर जाकर रुक गया है जहां से आगे का रास्ता राजनीतिक दलों या आंदोलनों के कामकाज या भी किसी नायक की खोज के बाद निकलेगा। या हर रास्ते के राजनीतक मशक्कत के बाद ही तय होगा कि कौन सा रास्ता सही है। असल में रास्ता सही कौन सा है यह कहना और सोचना शायद देश के सामने मुंह बाये खड़े मुद्दों को लेकर आइना देखने-दिखाने के समान होगा। जरा सिलसिलेवार परखें। जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे सामाजिक संघर्ष का बिगुल फूकते रहे, उस संघर्ष को कंधे पर उठाने वाले कुल जमा सात चेहरे ही पहले दिन से आखिरी दिन तक नजर आये। यानी डेढ बरस के आंदोलन की कवायद का सच यह भी है कि जो मंच पर टिका रहा, वही चेहरा बन गया। जबकि आंदोलन को देश के राजनीतिक मिजाज से जोड़ने का सुनहरा मौका बार बार आया। यहां यह कहना बेमानी होगा कि राजनीति तो अब शुरु हुई। असल में राजनीति को प्रभावित करने की दिशा में अन्ना हजारे का आंदोलन तो पहले दिन से ही जोर पकड़ चुका था। और ऐसा कोई आंदोलन होता नहीं जो राजनीति से इतर सिर्फ सामाजिक शुद्दीकरण की बात कहे। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जरुर अपने बनने के 87 बरस बाद भी कहती रहती है कि उसका रास्ता राजनीतिक नहीं है। लेकिन संघ के जिस ककहरे को पढ़कर श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक सियासत करने निकले, वह संघ राजनीति नहीं कर रहा है यह कहना और सोचना राजनीति की परिभाषा में सिर्फ चुनाव को मानना ही होगा। क्या संघ सरीखी राजनीति के रास्ते पर ही अन्ना हजारे तो नहीं। जो चुनाव लड़ने या पार्टी बनाने को ही राजनीति मानते हुये देश को राजनीतिक विकल्प के लिये तैयार करना चाहते है। अन्ना हजारे की मुश्किल यही से नजर आती है। क्योंकि जनलोकपाल के लिये बनायी गई कमेटी और राजनीतिक मैदान में उतरने की तैयारी की कमेटी में अंतर होगा ही। और अन्ना का सच यही है कि जनलोकपाल का सवाल उठाने वाली टीम अन्ना हजारे को रालेगणसिद्दी से दिल्ली के जंतर-मंतर तक तो ले आयी। लेकिन जब आंदोलन की समूची साख ही अन्ना पर टिक गई तो वह दोबारा रालेगण सि्द्दी इसलिये लौट गये क्योंकि उन्हें भरोसा है कि अब जो टीम उन्हे रालेगणसिद्दी से दिल्ली के दरवाजे पर ला खड़ा करेगी उसके पास राजनीतिक विकल्प देने का सपना होगा।
यानी अपनी साख को रालेगण की पोटली में समेट कर अन्ना बैठे रहेंगे और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को चुनावी राजनीति के लिये नये चेहरो को गढ़ना भी होगा और जोड़ना भी होगा। तभी अन्ना चुनाव को आंदोलन से जोड़ पायेंगे और 2014 का रास्ता उनके मुताबिक निकलेगा। लेकिन 2014 के लिये बीजेपी को तो ना गढ़ना है ना जोड़ना है। बल्कि उसे एकजुट रहकर अपने नायक को खोजना है और उसके पीछे खड़े हो जाना है। लेकिन बीजेपी की मशक्कत बताती है कि उसे बनते चेहरों को ढहाना है और ढहाने वालों को खुद को बनाना है। यह रास्ता गुजरात में केशुभाई पटेल से लेकर आडवाणी तक के जरीये समझा जा सकता है। आरएसएस की दिल्ली बिसात नरेन्द्र मोदी को लेकर है। और संघ के खांटी स्वयंसेवक रहे केशुभाई पटेल को यह मंजूर नहीं । केशुभाई गुजरात में ही मोदी के सामने परिवर्तन के गड्डे खोदकर दिल्ली कूच से रोकना चाहते हैं और संघ के लाड़ले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी इसपर खामोशी बरतते हैं। जिस लड़ाई को महज एकजुट होकर जीता जा सकता है, उस संघर्ष को जीतने के बदले अपनी हार में बदलने की कवायद ब्लॉग संदेश से समझी भी जा सकती है और संदेश को ताकत मानने की सकारात्मक समझ से परखा भी जा सकता है। आडवाणी के ब्लॉग चिंतन को पार्टी के कैडर के लिये पहले से ही जीत ना मान लेने का संदेश बताने का सिलसिला चल पड़ा है। यानी 2004 में जीत मानने की जो गलती हुई उसे 2014 में कैडर यह सोचकर ना दोहरा दें कि सत्ता मिलनी तो तय है। लेकिन एक लाइन में आडवाणी यह भी बिना लिखे कह गये कि दौड़ में वही है और उन्हें खारिज करने का सपना ना पालें।
तो क्या आडवाणी का ब्लॉग तीसरे मोर्चे के झंडाबरदारों के लिये लिखा गया। और सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्य के कर्णधार मुलायम सिंह यह माने बैठे हैं कि 5 कालीदास मार्ग पर बेटे को बैठा कर 7 रेसकोर्स का रास्ता वही तय कर सकते हैं। यकीनन सीटों के लिहाज से मुलायम अगर यूपी में मायावती को आगे बढ़ने से रोकते हैं और 50 सीट तक पा लेते है तो जयललिता, नवीन पटनायक, जगन रेड्डी और वामपंथियो के साथ साथ ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल और बालासाहेब ठाकरे को भी सोचना होगा कि उनका रास्ता किधर जायेगा । क्योंकि इन सभी क्षत्रपो को तो पचास से कम सीटो पर अपना भाग्य ही आजमाना है। लेकिन यह रास्ता महज चुनावी बिसात का है। यानी कोई मुद्दा नहीं। कोई आंदोलन नहीं। सीधे आज की परिस्थति में 2014 का चुनाव। लेकिन यह समझ ब्लॉग चितंन की तो हो सकती है मगर जनीतिक तौर पर क्या वाकई 2014 तक देश ऐसे ही घसीटेगा। बेहद मुश्किल है यह रास्ता। क्योंकि कांग्रेस इस सच को समझ रही है कि आर्थिक सुधार के रास्ते देश संभल नहीं सकता। महंगाई जिन वजहों से है उस पर नकेल कस पाने का नैतिक साहस उसमें बच नहीं पा रहा है। बाजारवाद के रास्ते खनन से लेकर संचार और कोयले से लेकर पावर प्रोजेक्ट तक की किमत जब लगायी जा रही है तो मुनाफे की लूट और घोटालों के खेल को आर्थिक सुधार का जामा पहनाने से इतर सरकार देख नहीं सकती।
जाहिर है ऐसे में एक रास्ता राहुल गांधी के दरवाजे से टकराता है और दूसरा रास्ता आरएसएस के नरेन्द्र मोदी बिसात से। युवा भारत के सपने को राहुल गांधी कितना भूना सरके है यह अपने आप में पहेली है। क्योंकि अन्ना टीम अगर 2014 तक अपनी बिसात बिछा लेती है तो युवा मन अन्ना टीम के साथ विकल्प खड़ा करने का मन बनायेगा ना कि राहुल गांधी के साथ खड़ा होने का। ऐसे में सवाल नरेन्द्र मोदी का होगा। बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के लिये नरेन्द्र मोदी जरुरत होंगे। मोदी के मैदान में उतरने का मतलब है मुस्लिमों का एकजुट होना और जब देश के मुस्लिम एकजुट होंगे तो यूपी का मुस्लिम मुलायम सिंह यादव को नहीं कांग्रेस को देखेगा। यानी मुस्लिम तीसरे मोर्चे में खदबदाहट पैदा करने के लिये अपना वोट नहीं गंवायेगा बल्कि राष्ट्रीय लड़ाई में निर्णायक जीत की तरफ कदम बढ़ायेगा। यहां सवाल खडे हो सकते हैं अगर नरेन्द्र मोदी का मतलब सीधे कांग्रेस और आरएसएस की टक्कर है तो फिर बीजेपी के भीतर गडकरी के प्यादा बने केशुभाई और आडवाणी के छाया युद्द में जेटली-सुषमा के साथ का मतलब क्या है। तो क्या यह मान लिया जाये कि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को कांग्रेस का मुलायम हिन्दुत्व यनी सॉफ्ट हिन्दुत्व तो मंजूर है लेकिन नयी परिस्थितयों में ना तो अन्ना हजारे के राजनीतिक विकल्प की सोच मंजूर है और ना ही तीसरे मोर्चे यानी मुलायम या नीतीश सरीखे सेक्यूलरवादी। यानी जो रास्ता आरएसएस का है वहीं कांग्रेस का है। संघ को लगता है क्षेत्रीय दलो के हाथ सत्ता आयी तो घोटाले-घपलो और कारपोरट लूट ज्यादा बढ़ेगी यानी राष्ट्र और ज्यादा बिकेगा। वहीं काग्रेस को लगता है कि तीसरा मोर्चा आया तो सवालिया निशान गांधी परिवार की साख पर उठेंगे और फिर उनका नंबर 2019 में भी नहीं आयेगा। इसीलिये आरएसएस मोदी को लाने को तैयार है और कांग्रेस अब राहुल गांधी को मैदान में उतारने को तैयार है। दोनों ही ऐसे नाम हैं, जिनके जिक्र भर से देश भर के किसी भी कोने में हर वोटर अपनी प्रतिक्रिया देगा ही। यानी बीजेपी और कांग्रेस दोनो जगह और कोई नेता नहीं जिसके जिक्र के साथ ही राजनीतिक कंरट लगे। असल में अन्ना हजारे को राजनीतिक विकल्प देने के लिये इसी मिथ को तोड़ना है, जहां नेता का नाम या कद नहीं बल्कि देश के आम बहुसंख्यक हाशिये पर पड़े वोटरों की जरुरतों को चुनावी राजनीति से जोड़ना है। यानी पहली बार विकल्प के तौर पर उस राजनीति को जगाना है जो मनमोहन सिंह के उदारवादी अर्थव्यवस्था को चुनौती देते हुये राजनीतिक मुद्दा बना सके। लेकिन सवाल यही है कि जब जनलोकपाल की कमेटी भंग होने से ही अन्ना टीम को अपना रास्ता ही नहीं सुझ रहा है तो फिर 2014 का रास्ता कैसे और कौन बनायेगा।
Saturday, August 4, 2012
राजनीतिक विकल्प का सपना
जो लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून की मांग करते हुये जंतर-मंतर से शुरु हुई वही लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ अब खुद राजनीतिक लड़ाई के लिये उसी जंतर मंतर पर तैयार है। तो क्या वाकई राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे विकल्प देने को तैयार हैं। और अगर सामाजिक संघर्ष का रास्ता राजनीति की राह पकड़ने को तैयार है तो क्या संसदीय राजनीति के भीतर घुसकर अन्ना हजारे चुनावी जीत की उस व्यवस्था को तोड़ देंगे, जो धन-बल से लेकर जातीय समीकरणों के आसरे बनी हुई है। यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अन्ना आंदोलन भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उठा रहा है और मौजूदा दौर में भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह सरकार नतमस्तक है, उसकी एक बड़ी वजह राजनीतिक आंदोलन और सामाजिक संघर्ष की वह धारा ही है, जिसने नवउदारवाद या आर्थिक सुधार या फिर लूट की अर्थवयवस्था की तरफ से आंख मूंद कर चुनावी राजनीति के संघर्ष की जीत हार में ही देश को देखना शुरु कर दिया। सीधे कहें तो जेपी आंदोलन के बाद जनता प्रयोग के फेल होने के बाद से जब किसी राजनीतिक आंदोलनों की गोलबंदी किसी भी स्तर पर हुई तो उसे सत्तालोलुपता ही करार दिया गया। और मंडल आयोग के लागू होने के बाद सामाजिक संघर्ष राजनीतिक लाभ पाने में खो गया।
मंडल से निकले जातीय समीकऱण के चुनावी दायरे में कभी आर्थिक सुधार के वह मुद्दे नहीं आये जो दिल्ली से तय होते और गांव को शहर में तब्दील करने से लेकर विकास के नाम पर खेती की जमीन को भी हड़प लेते। इसके उलट चुनावी राजनीति का मतलब वोटरों के लिये सत्ता से सुविधा पाने या फिर न्यूनतम जरुरतों तक के लिये एक नीति बनवाना या पैकेज पाने पर ही जा टिका। यानी राजनीतिक तौर पर बीते बीस बरस में कभी कोई चुनाव इस आधार पर लड़ा ही नहीं गया कि जिस अर्थव्यवस्था को देश की नींव बनायी जा रही है वह गांवों को कंगाल और शहरों को गरीब बना रही है। ध्यान दें तो अन्ना हजारे राजनीतिक विकल्प का सवाल उठाते हुये पहली बार कुछ नये संकेत दे रहे हैं। जो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार को चुनौती देता है। ग्राम सभा की गोलबंदी ही नहीं बल्कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जरीये ग्राम सभा को दिल्ली के निर्णय में दखल देने के सवाल को भी अन्ना जिस तर्ज पर उठा रहे हैं, वह एक नयी राजनीतिक लकीर है। क्योंकि विकास की चकाचौंध में पहली जरुरत जमीन की है और जमीन का मतलब है खेती की जमीन यानी किसानो को मजदूर में बदलने की सोच। आर्थिक सुधार की धारा में इसका कोई विकल्प नौजूदा सरकार के पास नहीं है।
लेकिन अन्ना टीम जब हर ग्राम सभा को ही यह अधिकार देना चाहती है कि जमीन दी जाये या नहीं , निर्णय वही ले तो इसका एक मतलब साफ है कि अन्ना का राजनीति वर्तमान संसदीय चुनावी धारा को 180 डिग्री में घुमाना भी चाहते हैं और आर्थिक सुधार को राजनीतिक चुनौती भी देना चाहते हैं। असल सवाल यही से खड़ा होता है कि क्या वाकई जंतर-मंतर से राजनीतिक विक्लप की धारा निकल पायेगी जो संसद के अभीतक के तौर तरीको को बदल दे। क्योंकि इसका प्रयास इससे पहले कभी किसी आंदोलन में नहीं हुआ जहां संविधान को आधार बनाकर जनता के हक के सवाल खड़े किये जा रहे हैं। जहां चुनी हुई सरकार को जनता के सेवक के तौर पर काम करने की दिशा में यह कहते हुये ले जाया जा रहा है कि यह संविधान का आधार है। अगर ध्यान दें तो जेपी ने भी जनता पार्टी के चुनावी मैनीफेस्टो में उन बातों का जिक्र किया था जो बकायदा संविधान के जरीये आम लोगो के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। जबकि अन्ना आंदोलन संविधान को ही अपना मैनिफेस्टो मान कर काम कर रहा है। यानी अलग से कोई ऐलान करने की जरुरत नहीं है सिर्फ लोकतंत्र के अर्थ को ही अन्ना हजारे परिभाषित कर रहे हैं। क्योंकि अन्ना जिस राजनीतिक लकीर को खींच रहे हैं उसके दायरे में किसान, मजदूरों के सवाल हैं। देश की खनिज संपदा के लूट के सवाल हैं। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले संस्थानों के भ्रष्ट होने के सवाल हैं। यानी पूरी प्रक्रिया में ईमानदारी की राजनीति का सवाल खड़ा होता है।
यहां सवाल वोटरों की इमानदारी और चुनावी राजनीति से मिलने वाली सत्ता की इमानदारी से आगे का है। क्या राजनीतिक विकल्प की सोच इस इमानदारी को चुनावी लड़ाई में मान्यता दे देगी। क्योंकि इमानदारी का चुनावी प्रयास जमानत जब्त करने की दिशा में भी जाती है और जमानत जब्त भी करवाता है। मालवंकर ने तो पोस्ट कार्ड के जरीये वोटरों को अपनी ईमानदारी से चुनाव लड़ने का सच बताया लेकिन गुजरात में वह हार गये। जनरल एस के सिन्हा आर्मी चीफ ना बनाये जाने पर 1984 में पटना से चुनाव मैदान में खड़े हुये लेकिन उनकी जमानत जब्त हो गई। लेकिन इसके उलट 1957 में पटना में नामी अर्थशास्त्री और समाजवादी डा. ज्ञानचंद की जमानत जब्त और किसी ने नहीं बल्कि पटना के बाकरगंज इलाके में पंसारी की दुकान चलाने वाले रामशरण साहू ने करवा दी। यानी राजनीतिक विकल्प सिर्फ चुनावी जीत से तय नहीं हो सकती बल्कि समाज के भीतर उन आंकाक्षाओं को बदलने से तय होगी, जिसे बीते बीस बरस में राजनीतिक सत्ता के जरीये ही इस तरह जगायी गई है जहा सत्ता पाना या सत्ता की मलाई भर मिल जाने में ही जीवन तृप्त माना जाने लगा है। ऐसे में अन्ना के सामने जंतर-मंतर से आगे का रास्ता सिर्फ राजनीतिक पार्टी बनाने या ईमानदार उम्मीदवारों को खोजने भर का नही है बल्कि राजनीतिक तौर पर मौजूदा परिस्थितियों से उस जनता को जोड़ने का भी है, जो हाशिये पर है। इसलिये पहली बार अन्ना हजारे के देश नवनिर्माण पार्टी [अगर यह पार्टी का नाम हो तो ] का काम महात्मा गांधी और विनोबा भावे के सपने को जगाना भी है और जेपी की अधूरी पडी संपूर्ण क्रांति और मंडल आयोग से पैदा हुई सियासी राजनीति से आगे ले जाकर उस आर्थिक सुधार को चुनौती देनी है, जिसकी विंसगतियों से पहली बार पूरा देश आहत है लेकिन किसी दूसरे राजनीतिक दल के पास अभी तक कोई विकल्प नहीं है।