Thursday, September 27, 2012

बेटी, भतीजा या दिल्ली में पावर


महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार ने जिस सियासी जूते को महज 38 बरस में पहन लिया, उस सियासी जूते को अजीत पवार 53 बरस की उम्र में शरद पवार की तर्ज पर ही पहनने निकले हैं। 1978 में शरद पवार ने इंदिरा गांधी को ठेंगा दिखा कर पहले कांग्रेस को तोड़ा फिर वंसतदादा पाटिल को हाशिये पर छोड़ कर विपक्षी जनता संघ के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाकर मुख्यमंत्री बन बैठे। और अब अजीत पवार महाराष्ट्र की राजनीति को डगमगाकर मुख्यमंत्री बनने के रास्ते को पकड़ने निकले हैं। शरद पवार अपने पिता गोविंदराव पवार की बनायी किसानों की सहकारी खारेडी बिक्री संघ के रास्ते राजनीति में आये तो अजीत पवार अपने चाचा शरद पवार की बनायी शुगर को-ओपरेटिव लॉबी और जिला सहकारी बैक को आधार बनाकर राजनीति में आये।

लेकिन संयोग से राजनीति के ऐसे मोड़ पर दोनों एक दूसरे के खिलाफ आ खड़े हुये हैं, जहां शरद पवार महाराष्ट्र के जरीये दिल्ली को साधना चाहते हैं और अजीत पवार दिल्ली के जरीये महाराष्ट्र को साधना चाहते हैं। शरद पवार फिलहाल केन्द्र की सत्ता में सौदेबाजी का आधार महाराष्ट्र में कांग्रेस को टिकाये रखकर करना चाहते हैं तो अजीत पवार महाराष्ट्र को कांग्रेस की मजबूरी बता कर अपनी सौदेबाजी का दायरा बढ़ाना भी चाहते हैं और महाराष्ट्र में खुद को एनसीपी के केन्द्र में खड़ा भी करना चाहते हैं। सीधे तौर पर महाराष्ट्र सत्ता का संघर्ष चाचा भतीजे के आपसी संघर्ष का नतीजा दिखायी दे सकता है। लेकिन यह स्थिति भी क्यों और कैसे आ गई यह अपने आप में एनसीपी की अनकही कहानी और महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार पर सियासी सहमति की अनकही कहानी की तरह है। असल में जिस सिंचाई योजनाओं के नाम पर  72 हजार करोड़ के घोटाले को लेकर हंगामा मचता है,उसके घेरे में सिर्फ अजीत पवार के दस बरस सिचाई मंत्री,जलसंसाधन मंत्री और ग्रामीण विकास मंत्री के तौर पर रहना भर नहीं है। या फिर सवाल सिर्फ उनके जरीये डैम परियोजनाओं की उन फाइलों पर चिड़िया बैठाने से पहले मुख्य सचिव से लेकर राज्य के वित्त, योजना, कृषि और जलसंसाधन मंत्रालयों के अधिकारियो की अनदेखी करना भर नहीं है। बल्कि विदर्भ से लेकर मराठवाडा और पश्चिमी महाराष्ट्र में डैम बनाने के नाम पर करीब 42निजी कंपनियों को ठेका देकर कमोवेश हर राजनीतिक दल के नेताओं को साथ खड़ा करना भी है, जिनका नाम उस श्वेत पत्र में आ सकता है जिसे लाने की धमकी पृथ्वीराज चौहाण दे रहे हैं। कृष्णा प्रकल्प में अगर शिवसेना के नेताओ ने पैसा खाया है तो विदर्भ के भंडारा के घोसीखुर्द में भाजपा का एमएलसी मितेश भंगेडिया और विदर्भ की ही तीन अन्य योजनाओं में भाजपा के राज्यसभा सांसद अजय संचेती का नाम है। विदर्भ में तो बकायाद महेन्द्र कन्सट्रक्शन ने कंपनी के साथ मिलकर एस जी भंगेडिया ने करोडो के वारे न्यारे किये।

यही स्थिति मराठवाडा की है। आंकड़ों में घोटाले के सच को समझे तो डैम परियोजनाओ से 80 लाख किसान परिवारों को सीधा लाभ होना था। लेकिन कागजों में तैयार डैम जमीन पर बंजर और सूखी जमीन के तौर पर ही मौजूद है। लेकिन भ्रष्टाचार पर सहमति का नजारा यही नहीं रुकता। 2005 और 2009 में उन्हीं किसानों को सिचाई के लिये 5 हजार करोड़ देने पर विधानसभा में सहमति बनी, जिन्हें डैम योजना से सिंचाई की सुविधा मिल जानी चाहिये थी। यानी पृथ्वीराज चौहाण से पहले दो कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने इसपर कोई नजर नहीं डाला कि सिचाई के खेल में कौन करोड़ों कमा गया या राज्य को चूना लगा गया। असल में पहली बार पृथ्वीराज चौहाण ने जिस ईमानदारी का सवाल सिंचाई घोटाले पर श्वेत पत्र लाने को लेकर कहा है, उसने ना सिर्फ अजीत पवार बल्कि शरद पवार की सियासी जमीन को भी हिलाया है। क्योंकि इससे पहले एनसीपी नेता तटकरे और उसके बाद भुजबल भी भ्रष्टाचार के दायरे में हैं। और उन्हें घेरा पृथ्वीराज चैहाण ने ही है। यानी कांग्रेस अगर पृथ्वी राज चौहाण को बरकरार रखती है तो संकट एनसीपी पर गहरायेगा । शरद पवार की सियासत पर असर पड़ेगा। इसलिये सरकार पर संकट ला कर अजीत पवार और शरद पवार ने ना सिर्फ अपनी अपनी चाल चली है बल्कि उसके घेरे में कांग्रेस के साथ सीधी सौदेबाजी का दायरा भी खोला है। अजीत पवार अपने इस्तीफे से एनसीपी को अपने साथ खड़ा कर शरद पवार को कमजोर बता रहे हैं। और शरद पवार अजित पवार के इस्तीफे की सौदेबाजी कांग्रेस से कर रहे हैं। यानी जिन परिस्थतियों में अजीत पवार फंसे हैं, उसमें इस्तीफे के अलावा अजीत पवार के पास कोई विकल्प बचता नहीं था क्योकि राज्यपाल तक ने अंगुली उठा दी थी। और अजीत पवार को लेकर एनसीपी के मंत्री से लेकर निर्दलीय विधायक भी जिस तरह एकजुट हुये, उसमें कांग्रेस के सामने सरकार बचाने के लिये शरद पवार का दरवाजा खटखटाने के अलावे कोई विकल्प बचता नहीं है।

शरद पवार यहीं पर अपनी सियासी ताकत का इस्तेमाल कर दो तरफा चाल भी चल रहे हैं। एक तरफ कांग्रेस की सरकार गिरेगी नहीं इसका भरोसा तो दूसरी तरफ पृथ्वाराज चौहाण उनके मुताबिक चले इसका भरोसा चाहने की चाल। इसीलिये शरद पवार ने अजीत पवार के इस्तीफे पर तो अपनी मोहर लगायी लेकिन बाकि 19 मंत्रियों के इस्तीफे को भावनात्मक करार देकर अगले 48 घंटे का वक्त भी यहकर कर निकाल लिया कि शुक्रवार को वह खुद बात करेंगे। लेकिन इस कड़ी में पहली बार एक मोहरा सुप्रिया सुले भी हैं। जिनको लेकर यह कयास लगाये जा रहे हैं कि कही वह शरद पवार की विरासत ढोने की तैयारी में तो नहीं हैं। क्योंकि शरद पवार ने अपने राजनीतिक गुरु यशंवतराव चौहाण संस्थान का सबकुछ सुप्रिया सुले को सौंपा है और महाराष्ट्र में इसे एक राजनीतिक संकेत के तौर पर देखा जा रहा है। यहीं पर अजित पवार का इस्तीफा शरद पवार से बगावती मूड में दिखायी देता है जो शरद पवार के 1978 के तेवर की याद दिलाता है जो गठबंधन में भी नये सिरे बनाता है। इसलिये महाराष्ट्र की राजनीति में पहली बार एक सवाल यह भी है कि क्या एनसीपी के नये कर्ता-धर्ता अजीत पवार होंगे जो संगठन को मथ रहे हैं और शरद पवार के सबसे करीबी प्रफुल्ल पटेल पर यह कहकर निशाना साधते रहे हैं कि दिल्ली की सियासत में एनसीपी महाराष्ट्र में एक मंडी बन चुकी है। जहां सत्ता ना हो तो हर कोई एनसीपी छोड़ भाग जाये। और शरद पवार इसी सच को समझते हुये एनसीपी का मतलब सत्ता में बने रहना ही बनाये हुये हैं। और इस बार भी रविवार तक एक बार फिर समझौते और सौदेबाजी से ही एनसीपी की ताकत दिखायी देगी । जहां इंतजार सिर्फ इस बात का है कि शरद पवार अबकि बेटी के लिये जगह बनाते है या भतीजे का कद बढाते है या फिर दिल्ली के मनमोहन विस्तार में अपनी ताकत को बढाने की ढाई चाल चलते हैं।

Saturday, September 22, 2012

जेपी वीपी तक के जनप्रयोग को बदल दिया मनमोहन ने


एक बार फिर आंकड़ों के सियासी खेल में राजनीतिक दलों की साख दांव पर है। भारतीय राजनीति के इतिहास में मौजूदा दौर अपनी तरह का नायाब वक्त है, जब एक साथ आधे दर्जन मंत्रियों के इस्तीफे के बाद सत्ता संभाले कांग्रेस खुश है। राहत में है। और उसे लगने लगा है कि पहली बार विपक्ष के वोट बैंक की उलझने उसे सत्ता से डिगा नहीं पायेंगी और आर्थिक नीतियों के  विरोध के बावजूद मनमोहन सरकार न सिर्फ चलती रहेगी बल्कि आर्थिक सुधार की उड़ान में तेजी भी लायेगी। जाहिर है यह मौका आर्थिक नीतियों के विश्लेषण का नहीं है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था जिन वजहों से डांवाडोल है, संयोग से उन्हें थामे हाथ को ही विकल्प देने हैं। तो भविष्य की दिशा होगी क्या इसे इस बार सामाजिक-आर्थिक तौर से ज्यादा राजनीतिक तौर पर समझना जरुरी है क्योंकि पहली बार न सिर्फ विपक्ष बंटा खड़ा है बल्कि पहली बार सत्ता की सहुलियत भोग रहे राजनीतिक दल भी बंटे हैं।

पहली बार समाजवाद या लोहियावाद से लेकर राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े राजनीतिक दल भी आपस में लड़ते हुये खोखले दिखे। यानी असंभव सी परिस्थितियों को ससंद से बाहर सड़क की राजनीति में देखा गया। वामपंथी सीताराम येचुरी से गलबहियां करते भाजपा के मुरली मनोहर जोशी। वामपंथी ए बी वर्धन खुले दिल से टीएमसी नेता ममता की तारीफ करते हुये और सीपीएम नेता प्रकाश करात न्यूक्लियर डील में समाजवादी पार्टी से शिकस्त खाने के चार बरस बाद एक बार फिर मुलायम को महत्वपूर्ण और तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने वाले नेता के तौर पर मानते हुये। जाहिर है राजनीति का यह रंग यहीं नहीं रुकता बल्कि नवीन पटनायक, बालासाहेब ठाकरे और राजठाकरे ने भी रंग बदला और नीतीश कुमार भी बिहार के विशेष पैकेज के लिये पटरी से उतरते दिखे। सभी अपने अपने प्रभावित इलाकों की दुहाई देते हुये विपक्ष की भूमिका से इतर बिसात बिछाने लगे। तो क्या इस सात रंगी राजनीति में ममता बनर्जी सरीखी नेता की सियासत कही फिट बैठती नहीं है। साफ है संसदीय राजनीति की जोड़-तोड़ पहली नजर में तो यही संकेत देती हैं कि ममता बनर्जी जिस रास्ते चल पडी वह झटके की राजनीति है। और मौजूदा वक्त हलाल की राजनीति में भरोसा करता है । जहां नीतियां, विचारधारा या सिद्धांत मायने नहीं रखते हैं। शायद इसीलिये भाजपा भी समझ नहीं पायी कि आर्थिक नीतियों का विरोध करे या फिर साख की राजनीति करते हुये खुद को चुनाव की दिशा में ले जाये, जहां आम नागरिक साफ तौर पर देख सके कि कौन नेता है कौन कार्यकर्त्ता।

भाजपा उलझी रही तो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार पर आरएसएस का हिन्दुत्व भारी पड़ गया। यानी राजनीति अगर मिल-जुल कर नही हो सकती है तो फिर विरोध कर खुद को राजनीतिक तौर पर दर्ज कराने से आगे बात जाती नहीं है। यानी परिस्थितियां ही ऐसी बनी हैं, जहां कोई एक दल अपने बूते सत्ता में आ नहीं सकता और सत्ता के लिये गठबंधन का पूरा समूह चाहिये और उसके बाद अगुवाई करने वाले चेहरे पर हर किसी की मोहर चाहिये। इस कडी में हर नेता के चेहरे को पढ़ना जरुरी है। मुलायम सिंह यादव का कद बडा इसलिये है क्योंकि उनके हक में फिलहाल उत्तर प्रदेश की सियासत है। जहां सबसे ज्यादा 80 लोकसभा की सीटे हैं। यानी उम्मीद कर सकते हैं कि मुलायम के पास सबसे ज्यादा मौका होगा, जब उनकी सीट किसी भी क्षत्रपों की तुलना में बढ़ जायें। लेकिन क्या वामपंथी और क्या ममता बनर्जी कोई भी मुलायम के पीछे खड़े होने को तैयार होंगे। दोनों धोखा खा चुके हैं तो अपना लीडर तो मुलायम को नहीं ही बनायेंगे। दूसरा चेहरा नीतीश कुमार है। जिन्हें बिहार में चुनौती देने के लिये उनके अपने सहयोगी भाजपा हैं। हालांकि भाजपा उनके पीछे खड़ी हो सकती है लेकिन भाजपा के अलावा मुलायम और वामपंथी नीतीश कुमार के पीछे खड़े होने को क्यों तैयार होंगे। अगर हां तो फिर भाजपा के साथ खड़े होने पर जो लाभ नीतीश कुमार को मिलता है वह चुनाव के वक्त कैसे मिलेगा, अगर नीतीश गैर भाजपा खेमे में जाने को तैयार हो जायें। तीसरा चेहरा ममता बनर्जी का है। जाहिर है मनमोहन सरकार से बाहर होकर ममता ने अपना एक नया चेहरा गढ़ा है, जो बंगाल के पंचायत चुनाव से लेकर आम चुनाव तक में वामपंथियों से लेकर कांग्रेस तक को उनके सामने बौना बना रहा है। सत्ता में रहकर विरोध के स्वर को जिस तरह ममता ने हाईजैक किया उससे हर किसी झटका भी लगा और सियासी लाभ पाने की राजनीति में सेंध लगी। इसका लाभ भी ममता को जरुर मिलेगा। लेकिन क्या ममता के पीछ वामपंथी खड़े हो सकते हैं। या फिर ममता को आगे कर तीसरे मोर्चे का कोई भी चेहरा पीछे खड़ा हो सकता है।

निश्चित तौर पर यह असंभव है। और इन परिस्थितियों में वामपंथियों की अपनी हैसियत खासी कम है। यानी नयी परिस्थितियों में वामपंथी एक सहयोगी के तौर पर तो फिट है लेकिन अगुवायी करने की स्थिति में वह भी नहीं हैं। इसके अलावा अपनी अपनी राजनीति जमीन पर तीन चेहरे ऐसे हैं, जिनका कद आमचुनाव होने पर बढ़ेगा चाहे चुनाव 2014 में ही क्यों ना हो लेकिन इन तीन चेहरो को राष्ट्रीय तौर पर मान्यता देने की स्थिति में कैसे बाकि राजनीतिक दल आयेंगे यह अपने आप में सवाल है। उडीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता और आंध्रप्रदेश में जगन रेड्डी। इन तीनो की हैसियत भी आने वाले वक्त में आंकड़ों के लिहाज से बढ़ेगी ही। यानी बढ़ते आंकड़ों के बावजूद तीसरे मोर्चे को लेकर कोई एक सीधी लकीर खींचने की स्थिति में कोई नहीं है। और मौजूदा दौर की यही वह परिस्थितियां हैं, जहां कांग्रेस लाभालाभ में है। क्योंकि कांग्रेस जो भी कदम उठायेगी या मनमोहन सरकार जो भी कदम उठा रहे हैं, वह पहली बार उनके अपने सहयोगियो की राजनीति के खिलाफ जा रहा है। यानी नीतियों को लेकर सहयोगियों के साथ मनमोहन सरकार का कोई बंदर बांट नहीं है बल्कि सीधा टकराव है। सीधा विरोध है मगर साथ खड़े होकर है। यानी वोट बैंक को लेकर भी पहली बार कांग्रेस ने एक अलग रास्ता बनाना शुरु किया है, जहा किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक या दलितो को कोई नीति बनाने की बात नहीं है बल्कि राज्यो में बंटे क्षत्रपो की राजनीति को गवर्नेंस का आईना दिखाने की सियासत है। सीधे कहें तो कांग्रेस अब यह दिखाना बताना चाहती है कि सरकार चलाना भी महत्वपूर्ण है चाहे नीतियों को लेकर विरोध हो मगर आंकड़े साथ रहे। यानी राजनीतिक हुनरमंद होने की ऐसी तस्वीर पहली बार सरकार चलाते हुये कांग्रेस दिखा रही है, जहां हर कोई एक दूसरे की सियासत से टकरा रहा है मगर कांग्रेस सबसे अलग बिना किसी के वोट बैक पर हमला बोले मजे में है। कहा जा सकता है कि यह कमाल देश के सीईओ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ही है कि उनकी गद्दी को बचाने वाले दो बडे राजनीतिक दल सपा और बसपा के आंकड़े उत्तर प्रदेश से निकले हैं। दोनो एक दूसरे के खिलाफ है लेकिन चैक एंड बैलेंस ऐसा है कि दोनो ही कांग्रेस की नीतियों को जनविरोधी मानकर भी एक साथ खड़े होकर राजनीतिक सत्ता की सहमति बनाकर मनमोहन सरकार के साथ खड़े हैं। यानी पहली बार ऐसी राजनीति ने दस्तक दे दी है, जहां ममता बनर्जी की साख भी मायने नहीं रखती है और मनमोहन सरकार के दौर के घोटाले भी। यहां समाजवादी सिद्धांत भी बेमानी और हिन्दुत्व राग भी बेमतलब का है । यानी जेपी से वीपी तक के राजनीतिक जनप्रयोग से मजबूत दिखने वाली संसदीय राजनीति की जड़ों को ही मनमोहन सिंह ने बदल दिया है और तमाम पार्टियां मुगालते में है कि वह जनता के साथ खडे होकर सत्ता में हैं।

Friday, September 14, 2012

सिल पर पड़त निशान


"करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात से सिल पर पड़त निशान।" झारखंड के संथाल परगना से निकलने वाली एक आदिवासी पत्रिका में दोहे की इन्हीं पंक्तियों के जरीये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर प्रहार किया गया है। लेख में घोटाले और भ्रष्टाचार को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्तीफा मांगते विपक्ष को दोहे की याद दिलाते हुये कहा गया है कि आप अपने काम में लगे रहें, कभी-न-कभी तो प्रधानमंत्री पर असर पड़ेगा ही, जैसे कुँए से पानी निकालते-निकालते रस्सी के दाग पत्थर पर भी उभर आते हैं। आदिवासी बहुल इलाके झारखंड में "हम आदिवासी" नाम की यह पत्रिका खूब पढ़ी जाती है। महज 16 पन्नों की इस पत्रिका का मिजाज बताता है कि पहली बार मनमोहन सिंह का असर आदिवासी भी महसूस करने लगे हैं। यहां उन सवालों में खोने का वक्त नहीं है कि क्या एक वक्त सिर्फ कांग्रेस को ही भारत की एकमात्र पार्टी मानने वाले आदिवासी भी अब कांग्रेस को भूल रहे हैं।

सवाल यह है कि इसी दौर में पश्चिमी मीडिया ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आर्थिक सुधार को लेकर ना सिर्फ सीधा निशाना साधा बल्कि इतिहास के पन्नो में असफल प्रधानमंत्री की दिशा में बढ़ते कदम की लकीर भी खींच दी। 8 जुलाई को टाइम मैग्जीन ने मनमोहन सिंह को कवर पर छाप कर अंडरएचीवर का तमगा दिया। हफ्ते भर बाद ही 16 जुलाई को ब्रिटेन के अखबार द इंडिपेन्टेंट ने आर्थिक सुधार के पुरोधा के तौर पर वित्त मंत्री के पद से शुरु हुये मनमोहन सिंह को एक कमजोर और बंधे हाथ के साथ पीएम की कुर्सी पर बैठे देखा। वहीं 5 सितंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने तो मनमोहन सिंह की खामोशी में एक त्रासदीदायक पीएम की छवि देखी,  जो दांत के डाक्टर के पास जाकर भी मुंह नहीं खोलते हैं। तो अब माना क्या जाये कि देश के सबसे पिछड़े इलाके संथाल परगना से लेकर दुनिया के सबसे विकसित देश अमेरिका तक में जब मनमोहन सिंह ही मनमोहन सिंह है तो यह लोकप्रियता है या फिर त्रासदी। यह सवाल इसलिये क्योंकि मौजुदा वक्त में देश की मुख्यधारा की मीडिया में भी अस्सी फीसदी हिस्सा मनमोहन सिंह के ही इर्द-गिर्द रचा हुआ है। राष्ट्रीय पत्रिका इंडिया टुडे तो कवर पेज पर "सरकार का मुंह काला" तक लिखती है। लेकिन क्या कांग्रेस सरकार आह तक नहीं करती। आह करती है तो टाइम मैग्जीन या वाशिंगटन पोस्ट पर, उसकी रिपोर्ट को लेकर, जिसकी कुल जमा आठ हजार कापी ही भारत आती हैं। जबकि "हम आदिवासी" तीस हजार छपती-बंटती है। और देश भर में जितनी पत्र पत्रिकाओं में मनमोहन सिंह निशाने पर हैं, अगर उसका आंकड़ा जमा करे तो दस करोड़ पार कर जायेगा। तो क्या यह माना जा सकता है कि मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री होकर भी भारत के भीतर भारत से इतर एक नया समाज बनाने में लगे रहे। जिसकी जमीन आर्थिक सुधार पर खड़ी है। यह सवाल इसलिये क्योंकि टाइम, इंडिपेन्डेंट और वाशिंगटन पोस्ट के निशाने पर मनमोहन सिंह आर्थिक सुधार को ना चला पाने को लेकर ही है। यह तमाम पत्रिकायें ही मनमोहन सिंह का सच यह कहकर बताती हैं कि 24 जुलाई 1991 में भारत के दरवाजे जिस तरह वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने दुनिया के लिये खोले वह अपने आप में एक अद्भभूत कदम था। हर रिपोर्ट दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत की मौजूदगी दर्ज कराने के लिये मनमोहन सिंह को ही तमगा देती है। चाहे न्यूक्लियर डील हो या एक दर्जन सरकारी सेक्टर का दरवाजा विदेशी निवेश के लिये खोलने की पहल। वाह-वाही मनमोहन सिंह की पश्चिमी मीडिया झूम झूम कर करता है। लेकिन झटके में 2009 के बाद जब राडिया टेप से कलाई खुलनी शुरु होती है कि असल में देश में सरकार बनी तो नागरिकों के वोट से है लेकिन सारी नीतियां कारपोरेट के लिये कारपोरेट ही अपने कैबिनेट मंत्रियों की जरीये बना रहा है,  चला रहा है तो कई सवाल देश के भीतर भी खड़े होते है और कारपोरेट घरानों को भी समझ में आता है कि कौन सा घराना यूपीए-1 के दौरान लाभ पाकर बहुराष्ट्रीय कंपनी होने का तमगा पा गया और कौन सा कारपोरेट संघर्ष करते हुये मंत्रियों और नौकरशाही के जाल में ही उलझता रहा।

देश के पांच टॉप मोस्ट कारपोरेट इस दौर में खुद को बहुराष्ट्रीय इसलिये बना गये क्योंकि उन्हें देश चलाने की छूट विकास के नाम पर नीतियों के आसरे मिली और उसकी कमाई से देसी कारपोरेट ने दुनिया के दर्जन भर देशों की कंपनियों को खरीद लिया। यह खरीदारी खनन से लेकर स्टील और उर्जा से लेकर कार की खरीद तक रही। यह सवाल बीते ढाई बरस में कही ज्यादा तीखे या त्रासदीदायक इसलिये भी हुये क्योंकि 2 जी स्पेक्ट्रम के साथ ही क्रिक्रेट के नाम पर आईपीएल के धंधे। कामनवेल्थ के सफल आयोजन से राष्ट्रीयता का टीका लगाने में लूट। और देश के खनिज संसधानों की लूट के लिये देश का दरवाजा ही नहीं सुरक्षा की दीवार भी गिराने का सच सामने आया। सुरक्षा का सवाल इसलिये क्योंकि खनिज संपदा की लूट में जुटी देसी कारपोरेट के कर्मचारी-अधिकारियों में विदेशी नागरिको की भरमार है। जापान, चीन, आस्ट्रेलिया, ब्रिट्रेन, कोरिया और अमेरिकी अधिकारी देश के उन पिछडे इलाको में खुले तौर पर देखे जा सकते हैं जहां खनन से लेकर पावर प्लांट का काम हो रहा है। जबकि देश में इंदिरा गांधी ने ही कोल इंडिया के राष्ट्रीयकरण के साथ यह कानून भी जोड़ा था कि कोई विदेशी नागरिक भारत के खनिज संपदा इलाको में किसी भी तरह की कोई नौकरी नहीं कर सकता। क्योंकि नेहरु के दौर से ही खनिज संपदा को देश की राष्ट्रीय सपंत्ति मानी गई। साथ ही यह माना गया कि देश की खनिज संपदा की जानकारी कभी विदेशियों को नहीं होनी चाहिये। यानी सुरक्षा के लिहाज से देश ने माना खनिज संपदा ही अपनी है और इस पर आंच आने नहीं दी जायेगी। लेकिन यह किसे पता था कि आर्थिक सुधार का मतलब खनिज संपदा को अंतराष्ट्रीय बाजार के लिये खोलना ही होगा। तो क्या इस दौर में मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था ने भारत को दुनिया का ऐसा केन्द्र बना दिया, जहां उपभोक्ता खुली मंडी के तौर पर भारत को देखे। कुछ हद तक यह माना जा सकता है क्योंकि मौजूदा वक्त में भारत के संचार, जहाज रानी, नागरिक उड्डयन, इन्फ्रास्ट्कचर, उर्जा, आईटी और खनन के क्षेत्र में दुनिया 135 निजी कंपनियां परोक्ष या अपरोक्ष तौर पर काम कर रही हैं। और दुनिया के 100 से ज्यादा उघोग अलग अलग क्षेत्र में भारत को मशीन या तकनालाजी उपलब्ध करा रहे हैं। यानी समूची दुनिया में भारत अपनी तरह का पहला देश है, जहां सीरिया या इरान सरीखा सकंट नहीं है। बल्कि सरकार को अब भी जनता चुनती है।

लेकिन दुनिया की सबसे ज्यादा निजी कंपनियों की अर्थव्यवस्था या कहें मुनाफा भारत पर टिका है। सीरिया या ईरान का जिक्र इसलिये क्योंकि वाशिंगटन पोस्ट में पीएम की धुनाई के बाद पीएमओ में बैठे मीडिया सलाहकारो ने यही फैलाया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चूंकि गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में ईरान के साथ खड़े हुये। सीरिया के सवाल को उठाया और दुनिया के निजाम को बदलने का वक्तव्य दिया तो मनमोहन सिंह पर अमेरिका अब निशाना साध रहा है। इसमें दो मत नहीं कि इरान या सीरिया को लेकर अमेरिका जैसा सोचता है, वैसा भारत ना सोच रहा है और ना ही अमेरिका के अनुकुल कदम उठा रहा है। यानी अमेरिका की नाखुशी जग-जाहिर है। लेकिन इस दौर में क्या मनमोहन सिंह भी सीरिया या ईरान के शासको की तरह बर्ताव कर पा रहे हैं। जहां पहले उनके अपने नागरिक उनका अपना देश हो। जाहिर है मनमोहन सिंह की साख देश में घटी भी इसलिये है क्योंकि वह बतौर इक्नॉमिस्ट कम पीएम जो लकीर खिंच रहे हैं, उसमें देश के अस्सी करोड नागरिक कहां-कैसे फिट बैठ रहे हैं, यह एक अबूझ पहली है। और जिन 20-30 करोड़ नागरिकों के जरीये भारत के भीतर एक अलग विकसित समाज बनाने का जो ताना बना बुना जा रहा है, उसका सच इतना त्रासदीदायक है कि पश्चिमी या देसी मीडिया की कोई भी हेडलाइन कमजोर पड़ जाये। मसलन जिस पहली दुनिया में मनमोहन सिंह को मान्यता है, उसी दुनिया की सूची [वर्ल्ड इक्नामिक फोरम] में भारत इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से विकास के पायदान पर 59 वें नंबर पर है । और देश के भीतर के हालात ऐसे है कि सिर्फ 35 करोड़ लोगों को ही आज की तारीख में 24 घंटे बिजली मिल सकती है। बाकियों को अंधेरे में रहना होगा। और उपलब्ध बिजली के बंटवारे के बाद किसानों के खाते में हर दिन सिर्फ 30 मिनट बिजली आयेगी।  कोयला, बाक्साइड, गैस, पेट्रोल, डीजल, खाद, बीज और पानी तक की कीमत क्या होगी, यह चुनी हुई सरकार तय नहीं कर सकती। बल्कि जिन कंपनियों ने इनका ठेका लिया है या कहीं जो उनके उत्पादन से लेकर बांटने में लगी है, उन्हीं का मुनाफा तय करता है कि आम नागरिक को कितनी कीमत चुकानी है। इस घेरे में पढाई-लिखाई और इलाज को भी लाया जा चुका है। लेकिन इन सबसे जुड़े कंपनियों को सरकार कितना सब्सिडी जनता या देश के पैसे में से दे देती है, यह भी हैरतअंगेज सच है। सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को टैक्स देने में बीते तीन बरस में 2 लाख करोड से ज्यादा की छूट दे दी। यानी वह ना चुकाये। और इसी तरह एक्साइज में 423294 करोड़ और कस्टम में 621890 करोड की छूट दे दी। आप इसे कारपोरेट को मिलने वाली सब्सिडी भी कह सकते हैं। तो कौन सा भारत किस आर्थिक सुधार के जरिये खड़ा हो रहा है। और वाशिंगटन पोस्ट की नजर में खामोश मनमोहन सिंह की त्रासदी वाली रिपोर्ट सही है या फिर "हम आदिवासी" के ...सील पर पड़त निशान की रिपोर्ट।

Tuesday, September 4, 2012

आवंटन के बाद लूट का खेल


मोटा माल तो चंदन बसु ने भी बनाया

कोयला मंत्रालय के दस्तावेजों में 58 कोयला ब्लाक कटघरे में हैं। इनमें 35 कोयला ब्लाक पायी निजी कंपनिया ऐसी हैं, जो या तो राजनीतिक नेताओं से जुड़ी हैं या फिर मंत्री, सांसदों या सीएम के कहने पर आंवटित की गई हैं। किसी की सिफारिश मोतीलाल वोहरा ने की। तो किसी की सिफारिश शिवराज सिंह चौहान ने । किसी की सिफारिश नवीन पटनायक ने की तो किसी की सुबोधकांत सहाय ने। लेकिन यह सच आवंटन के भारी भरकम कैग रिपोर्ट के पीछे दबा ही रह गया कि कोयले का असल खेल तो पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के नाक तले ना सिर्फ शुरु हुआ बल्कि चंदन बसु ने अपने पिता ज्योति बसु की लीगेसी तले इस खेल में पहले सिर्फ हाथ डाला और आज की तारीख में गले तक मुनाफा बना कर पर्दे के पीछे हर राज्य सरकार के साथ मिलकर खेल खेल रही है।

यह खेल शुरु कैसे होता है इसलिये लिये दो दशक पीछे लौटना होगा। पीवी नरसिंह राव के दौर में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने ही 1992 में सबसे पहले कोल इंडिया को केन्द्र से मदद देने से मना किया और बकायदा पत्र लिखा गया कि कोल इंडिया अब अपना घाटा-मुनाफा खुद देखे। उसके तुरंत बाद 1993 में कोल इंडिया के कानूनों में बदलाव कर उन निजी कंपनियों को खादान देने पर सहमति बनायी गई जो कोल इंडिया से कोयला लेकर अपना काम चलाते लेकिन उन्हे कोल इंडिया की बाबूगिरी में परेशानी होती। 1993 में ही ईस्टर्न माइनिंग एंड ट्रेडिंग एंजेसी यानी इमटा नाम से बंगाल में एक कंपनी बनी। और 1993 में ही इमटा की पहल पर पहला कोयला खादान आरपीजी इंडस्ट्रीज को मिला। इमटा ने आरपीजी इंडस्ट्री को मिली खादान को आपरेशनल बनाने और डेवलप करने का जिम्मा लिया । और इसके बाद इमटा ही बंगाल के खादानों को अलग अलग निजी कंपनियों से लेकर पावर और माइनिंग की सरकारी कंपनियो दिलाने भी लगी और खादान का सारा काम करने भी लगी। उस दौर में हर बरस एक या दो ही खादान किसी कंपनी को मिलती और संयोग से हर बरस बंगाल का नंबर जरुर होता। 1995 में बंगाल राज्य बिजली बोर्ड तो 1996 में बंगाल के ही पावर डेवलपमेंट कारपोरेशन को खादान आवंटित हुई। और इस कतार में 2009 तक पश्चिम बंगाल में 27 कोयला खादान आंवटित की गई। हैरत इस बात को लेकर नहीं होगी की रश्मि सीमेंट से लेकर आधुनिक कारपोरेशन और विकास मेटल पावर से लेकर राजेश्वर लौह उघोग तक को कोयला खादान मिल गया। जिनका कोई अनुभव कोयला खादान या पावर या स्टील उघोग में खादान मिलने से पहले था ही नहीं। हैरत तो इस बात को लेकर है कि हर खादान का काम इमटा कर रहा है। हर परियोजना में इमटा साझीदार है। और इमटा नाम ही सिफारिश का सबसे महत्वपूर्ण वाला नाम बन गया। क्योंकि माना यही गया कि इसके पीछे और किसी का नहीं बल्कि ज्योति बसु के पुत्र चंदन बसु का नाम है और सामने रहने वाला नाम यूके उपाध्याय का है, जो इमटा के मैनेजंग डायरेक्टर है। वह इमटा बनाने से पहले कोल इंडिया के खादानों में बालू का ठेका लिया करते थे।

कोल इंडिया के दस्तावेज बताते हैं कि उज्ज्वल उपाध्याय यानी यूके उपाध्याय को सालाना 10 लाख तक का ठेका झरिया से लेकर आसनसोल तक के खादानो में बालू भरने का मिलता। लेकिन चंदन बसु के साथ मिलकर ईस्ट्रन माइनिंग एंड ट्रेडिंग एजेंसी यानी इमटा बनाने के बाद यू के उपाध्याय की उडान बंगाल से भी आगे जा पहुंची। चूंकि चंदन बसु का नाम ही काफी था तो कोलकत्ता से लेकर दिल्ली तक यह बताना जरुरी नहीं था कि इमटा का डायरेक्टर कौन है या इसके बोर्ड में कौन कौन हैं। और आज भी स्थिति बदली नहीं है। इंटरनेट पर कंपनी प्रोफाइल में हर राजय के साथ इमटा के धंधे का जिक्र है लेकिन एक्जक्यूटिव डाटा, बोर्ट के सदस्यो का नाम या फिर कमेटी के सदस्यों में किसी का नाम अभी भी नहीं लिखा गया है। जबकि कोयला खादानों के जरीये इमटा ने अपना धंधा बंगाल से बाहर भी फैला दिया।  

सबसे पहले बंगाल इमटा कोल माइन्स बना तो उसके बाद झारखंड के लिये तेनूधाट इमटा । पंजाब के लिये पंजाब इमटा कोल माइन्स। कर्नाटक और महाराष्ट्र के लिये कर्नाटक इमटा कोल माइन्स। कर्नाटक में बेल्लारी खादानो में भी इमटा ने पनी पकड़ बनायी और बेल्लारी थर्मल पावर स्टेशन प्रोजेक्ट में ज्वाइंट वेन्चर के जरीये कर्नाटक इमटा कोल माइन्स कंपनी जुड़ी। इसी तरह झारखंड के पाकुड में पंजाब राज्य बिजली बिजली बोर्ड के नाम पर खादान लेकर पंजाब इमटा कोल माइन्स के तहत काम शुरु किया। मुनाफे में बराबर के साझीदार की भूमिका है। लेकिन इस कड़ी में पहली बार इमटा को 10 जुलाई 2009 को बंगाल के गौरांगडीह में हिमाचल इमटा पावर लि.के नाम से कोयला खादान आवंटित हुआ। यानी इससे पहले जो इमटा अपने नाम का इस्तेमाल कर करीब 30 से ज्यादा कोयला खादानों को आवंटित कराने से लेकर उसके मुनाफे में हिस्सदार रही। वहीं सीधे कोयला खादान लेकर अपने तरीके से काम शुरु करने ने इमटा के प्रोफाइल को भी बदल दिया। अब इमटा सिर्फ खादानों को आपरेशनल बनाने या डेवपल करने तक सीमित नहीं है बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों में एक्सक्लूसिवली कोयला सप्लाई भी करता है। और यह कोयला बेल्लारी से लेकर हिमाचल के पावर प्रोजेक्ट तक जा रहा है। झारखंड और बंगाल में खादानों को लेकर इमटा की सामानांतर सरकार कैसे चलती है यह दामोदर वैली कारपोरेशन [डीवीसी] के सामानांतर डीवीसी इमटा कोल माइन्स के कामकाज के तरीके से समझा जा सकता है।

पहले तो थोड़ा बहुत था लेकिन डीवीसी की 11 वीं और 12 वीं योजना में तो सारा काम ही डीवीसी इमटा के हाथ में है। यानी कंपनी का विस्तार कैसे होता है अगर इंटरनेट पर देखे तो लग सकता है कि इमटा सरीखी हुनरमंद कंपनी को जरीये देश के 17 पावर प्लांट, 9 स्पांज आयरन उघोग और 27 कोयला खादानों को आपरेशनल बनाने मे इमटा का जवाब नहीं। लेकिन जब इंटरनेट से इतर तमाम योजनाओं की जमीन को देखेंगे तो कोयला खादान के आवंटन का खेल समझ में आयेगा जो कैसे चंदन बसु या कहे इमटा के नाम भर से होता है। असल में कोयला आवंटन करने वाली स्क्रीनिंग टीम के नाम भी लाभ पाने और लाभ पहुंचाने वाले ही है। मसलन एक वक्त कोल इंडिया के चेयरमैन रहे यू कुमार । रिटायरमेंट के बाद कोल इंडिया के प्रतिनिधी के तौर पर स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य भी रहे और इसी दौर में आदित्य बिरला उघोग में सलाहकार के तौर पर काम भी करते रहे। लेकिन कोयला खादान के खेल को नया आयाम रिलांयस ने दिया । सिंगरौली के साशन में सरकारी बिड के जरीये 4000 मेगावाट थर्मल पावर प्लाट का लाइसेंस मिला। फिर इसके लिये 12 मिलियन टन की कोयला खादान मिली । जहां से 40 बरस तक कोयला निकाला जा सकता है। लेकिन रिलायंस ने इसके सामांनातर चितरंजी में भी 4000 मेगावाट का निजी पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर कहा कि वह बिजली खुले बाजार में बेचेगा। मगर कोयला साशन की उसी खादान से निकालेगा। यानी सरकारी पावर प्लांट के लिये मिले सरकारी खादान का कोयला निजी पावर प्लाट के उपयोग में लायेगा। यानी सरकारी बिड में महज एक रुपये 19 पैसे प्रति यूनिट बिजली दिखायी। और खुले बाजार में नौ रुपये तक प्रति यूनिट बेचने की तैयारी। इस पर टाटा ने आपत्ति की। यह मामला अदालत में भी गया। जिसके बाद चितरंजी के पावर प्लांट पर तो रोक लग गई है । लेकिन इस तरीके ने इन निजी पावर प्लांट को लेकर नये सवाल खड़े कर दिये कि आखिर बीते आढ बरस में कोई सरकारी पावर प्लांट बनकर तैयार हुआ क्यों नहीं जिनका लाइसेंस और ठेका निजी कंपनियों को दिया गया। जबकि निजी पावर प्लांट का काम कहीं तेजी से हो रहा है और कोयला खादानों से कोयला भी निजी पावर प्लांट के लिये निकाला जा रहा है। यानी सरकार का यह तर्क कितना खोखला है कि खादानों से जब कोयला निकाला ही नहीं गया तो घाटा और मुनाफे का सवाल ही कहां से आता है।

असल में झारखंड के 22 खादान, उडीसा के 9 खादान, मध्यप्रदेश के 11 और बंगाल के 9 कोयला खादानो में से बाकायदा कोयला निकाला जा रहा है। और सिगरैली के साशन में रिलायंस की खादान मोहरे एंड अमलोरी एक्सटेंसन ओपन कास्ट में भी 1 सिंतबर 2012 से कोयला निकलना शुरु हो गया। यानी कोयला खादान घोटाले ने अब झारखंड,छत्तीसगढ,मध्यप्रदेश और उडीसा,बंगाल में काम तो शुरु करवाया है। लेकिन खास बात यह भी है कि करीब 60 से ज्यादा कोयला खादानें ऐसी भी हैं, जिनका एंड यूज होगा क्या यह किसी को नहीं पता। इसलिये यह एक सवाल ही है कि दिल्ली में जो कई मंत्रालयों से मिलकर बनी कमेटी जांच कर रही है वह महज खाना-पूर्ती कर कुछ पर तलवार लटकायेगी या फिर खादानो के खेल का सच सामने लायेगी।

आवंटन के बाद लूट का खेल


मोटा माल तो चंदन बसु ने भी बनाया

कोयला मंत्रालय के दस्तावेजों में 58 कोयला ब्लाक कटघरे में हैं। इनमें 35 कोयला ब्लाक पायी निजी कंपनिया ऐसी हैं, जो या तो राजनीतिक नेताओं से जुड़ी हैं या फिर मंत्री, सांसदों या सीएम के कहने पर आंवटित की गई हैं। किसी की सिफारिश मोतीलाल वोहरा ने की। तो किसी की सिफारिश शिवराज सिंह चौहान ने । किसी की सिफारिश नवीन पटनायक ने की तो किसी की सुबोधकांत सहाय ने। लेकिन यह सच आवंटन के भारी भरकम कैग रिपोर्ट के पीछे दबा ही रह गया कि कोयले का असल खेल तो पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के नाक तले ना सिर्फ शुरु हुआ बल्कि चंदन बसु ने अपने पिता ज्योति बसु की लीगेसी तले इस खेल में पहले सिर्फ हाथ डाला और आज की तारीख में गले तक मुनाफा बना कर पर्दे के पीछे हर राज्य सरकार के साथ मिलकर खेल खेल रही है।

यह खेल शुरु कैसे होता है इसलिये लिये दो दशक पीछे लौटना होगा। पीवी नरसिंह राव के दौर में वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने ही 1992 में सबसे पहले कोल इंडिया को केन्द्र से मदद देने से मना किया और बकायदा पत्र लिखा गया कि कोल इंडिया अब अपना घाटा-मुनाफा खुद देखे। उसके तुरंत बाद 1993 में कोल इंडिया के कानूनों में बदलाव कर उन निजी कंपनियों को खादान देने पर सहमति बनायी गई जो कोल इंडिया से कोयला लेकर अपना काम चलाते लेकिन उन्हे कोल इंडिया की बाबूगिरी में परेशानी होती। 1993 में ही ईस्टर्न माइनिंग एंड ट्रेडिंग एंजेसी यानी इमटा नाम से बंगाल में एक कंपनी बनी। और 1993 में ही इमटा की पहल पर पहला कोयला खादान आरपीजी इंडस्ट्रीज को मिला। इमटा ने आरपीजी इंडस्ट्री को मिली खादान को आपरेशनल बनाने और डेवलप करने का जिम्मा लिया । और इसके बाद इमटा ही बंगाल के खादानों को अलग अलग निजी कंपनियों से लेकर पावर और माइनिंग की सरकारी कंपनियो दिलाने भी लगी और खादान का सारा काम करने भी लगी। उस दौर में हर बरस एक या दो ही खादान किसी कंपनी को मिलती और संयोग से हर बरस बंगाल का नंबर जरुर होता। 1995 में बंगाल राज्य बिजली बोर्ड तो 1996 में बंगाल के ही पावर डेवलपमेंट कारपोरेशन को खादान आवंटित हुई। और इस कतार में 2009 तक पश्चिम बंगाल में 27 कोयला खादान आंवटित की गई। हैरत इस बात को लेकर नहीं होगी की रश्मि सीमेंट से लेकर आधुनिक कारपोरेशन और विकास मेटल पावर से लेकर राजेश्वर लौह उघोग तक को कोयला खादान मिल गया। जिनका कोई अनुभव कोयला खादान या पावर या स्टील उघोग में खादान मिलने से पहले था ही नहीं। हैरत तो इस बात को लेकर है कि हर खादान का काम इमटा कर रहा है। हर परियोजना में इमटा साझीदार है। और इमटा नाम ही सिफारिश का सबसे महत्वपूर्ण वाला नाम बन गया। क्योंकि माना यही गया कि इसके पीछे और किसी का नहीं बल्कि ज्योति बसु के पुत्र चंदन बसु का नाम है और सामने रहने वाला नाम यूके उपाध्याय का है, जो इमटा के मैनेजंग डायरेक्टर है। वह इमटा बनाने से पहले कोल इंडिया के खादानों में बालू का ठेका लिया करते थे।

कोल इंडिया के दस्तावेज बताते हैं कि उज्ज्वल उपाध्याय यानी यूके उपाध्याय को सालाना 10 लाख तक का ठेका झरिया से लेकर आसनसोल तक के खादानो में बालू भरने का मिलता। लेकिन चंदन बसु के साथ मिलकर ईस्ट्रन माइनिंग एंड ट्रेडिंग एजेंसी यानी इमटा बनाने के बाद यू के उपाध्याय की उडान बंगाल से भी आगे जा पहुंची। चूंकि चंदन बसु का नाम ही काफी था तो कोलकत्ता से लेकर दिल्ली तक यह बताना जरुरी नहीं था कि इमटा का डायरेक्टर कौन है या इसके बोर्ड में कौन कौन हैं। और आज भी स्थिति बदली नहीं है। इंटरनेट पर कंपनी प्रोफाइल में हर राजय के साथ इमटा के धंधे का जिक्र है लेकिन एक्जक्यूटिव डाटा, बोर्ट के सदस्यो का नाम या फिर कमेटी के सदस्यों में किसी का नाम अभी भी नहीं लिखा गया है। जबकि कोयला खादानों के जरीये इमटा ने अपना धंधा बंगाल से बाहर भी फैला दिया।  
सबसे पहले बंगाल इमटा कोल माइन्स बना तो उसके बाद झारखंड के लिये तेनूधाट इमटा । पंजाब के लिये पंजाब इमटा कोल माइन्स। कर्नाटक और महाराष्ट्र के लिये कर्नाटक इमटा कोल माइन्स। कर्नाटक में बेल्लारी खादानो में भी इमटा ने पनी पकड़ बनायी और बेल्लारी थर्मल पावर स्टेशन प्रोजेक्ट में ज्वाइंट वेन्चर के जरीये कर्नाटक इमटा कोल माइन्स कंपनी जुड़ी। इसी तरह झारखंड के पाकुड में पंजाब राज्य बिजली बिजली बोर्ड के नाम पर खादान लेकर पंजाब इमटा कोल माइन्स के तहत काम शुरु किया। मुनाफे में बराबर के साझीदार की भूमिका है। लेकिन इस कड़ी में पहली बार इमटा को 10 जुलाई 2009 को बंगाल के गौरांगडीह में हिमाचल इमटा पावर लि.के नाम से कोयला खादान आवंटित हुआ। यानी इससे पहले जो इमटा अपने नाम का इस्तेमाल कर करीब 30 से ज्यादा कोयला खादानों को आवंटित कराने से लेकर उसके मुनाफे में हिस्सदार रही। वहीं सीधे कोयला खादान लेकर अपने तरीके से काम शुरु करने ने इमटा के प्रोफाइल को भी बदल दिया। अब इमटा सिर्फ खादानों को आपरेशनल बनाने या डेवपल करने तक सीमित नहीं है बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों में एक्सक्लूसिवली कोयला सप्लाई भी करता है। और यह कोयला बेल्लारी से लेकर हिमाचल के पावर प्रोजेक्ट तक जा रहा है। झारखंड और बंगाल में खादानों को लेकर इमटा की सामानांतर सरकार कैसे चलती है यह दामोदर वैली कारपोरेशन [डीवीसी] के सामानांतर डीवीसी इमटा कोल माइन्स के कामकाज के तरीके से समझा जा सकता है।

पहले तो थोड़ा बहुत था लेकिन डीवीसी की 11 वीं और 12 वीं योजना में तो सारा काम ही डीवीसी इमटा के हाथ में है। यानी कंपनी का विस्तार कैसे होता है अगर इंटरनेट पर देखे तो लग सकता है कि इमटा सरीखी हुनरमंद कंपनी को जरीये देश के 17 पावर प्लांट, 9 स्पांज आयरन उघोग और 27 कोयला खादानों को आपरेशनल बनाने मे इमटा का जवाब नहीं। लेकिन जब इंटरनेट से इतर तमाम योजनाओं की जमीन को देखेंगे तो कोयला खादान के आवंटन का खेल समझ में आयेगा जो कैसे चंदन बसु या कहे इमटा के नाम भर से होता है। असल में कोयला आवंटन करने वाली स्क्रीनिंग टीम के नाम भी लाभ पाने और लाभ पहुंचाने वाले ही है। मसलन एक वक्त कोल इंडिया के चेयरमैन रहे यू कुमार । रिटायरमेंट के बाद कोल इंडिया के प्रतिनिधी के तौर पर स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य भी रहे और इसी दौर में आदित्य बिरला उघोग में सलाहकार के तौर पर काम भी करते रहे। लेकिन कोयला खादान के खेल को नया आयाम रिलांयस ने दिया । सिंगरौली के साशन में सरकारी बिड के जरीये 4000 मेगावाट थर्मल पावर प्लाट का लाइसेंस मिला। फिर इसके लिये 12 मिलियन टन की कोयला खादान मिली । जहां से 40 बरस तक कोयला निकाला जा सकता है। लेकिन रिलायंस ने इसके सामांनातर चितरंजी में भी 4000 मेगावाट का निजी पावर प्लांट लगाने का ऐलान कर कहा कि वह बिजली खुले बाजार में बेचेगा। मगर कोयला साशन की उसी खादान से निकालेगा। यानी सरकारी पावर प्लांट के लिये मिले सरकारी खादान का कोयला निजी पावर प्लाट के उपयोग में लायेगा। यानी सरकारी बिड में महज एक रुपये 19 पैसे प्रति यूनिट बिजली दिखायी। और खुले बाजार में नौ रुपये तक प्रति यूनिट बेचने की तैयारी। इस पर टाटा ने आपत्ति की। यह मामला अदालत में भी गया। जिसके बाद चितरंजी के पावर प्लांट पर तो रोक लग गई है । लेकिन इस तरीके ने इन निजी पावर प्लांट को लेकर नये सवाल खड़े कर दिये कि आखिर बीते आढ बरस में कोई सरकारी पावर प्लांट बनकर तैयार हुआ क्यों नहीं जिनका लाइसेंस और ठेका निजी कंपनियों को दिया गया। जबकि निजी पावर प्लांट का काम कहीं तेजी से हो रहा है और कोयला खादानों से कोयला भी निजी पावर प्लांट के लिये निकाला जा रहा है। यानी सरकार का यह तर्क कितना खोखला है कि खादानों से जब कोयला निकाला ही नहीं गया तो घाटा और मुनाफे का सवाल ही कहां से आता है।
असल में झारखंड के 22 खादान, उडीसा के 9 खादान, मध्यप्रदेश के 11 और बंगाल के 9 कोयला खादानो में से बाकायदा कोयला निकाला जा रहा है। और सिगरैली के साशन में रिलायंस की खादान मोहरे एंड अमलोरी एक्सटेंसन ओपन कास्ट में भी 1 सिंतबर 2012 से कोयला निकलना शुरु हो गया। यानी कोयला खादान घोटाले ने अब झारखंड,छत्तीसगढ,मध्यप्रदेश और उडीसा,बंगाल में काम तो शुरु करवाया है। लेकिन खास बात यह भी है कि करीब 60 से ज्यादा कोयला खादानें ऐसी भी हैं, जिनका एंड यूज होगा क्या यह किसी को नहीं पता। इसलिये यह एक सवाल ही है कि दिल्ली में जो कई मंत्रालयों से मिलकर बनी कमेटी जांच कर रही है वह महज खाना-पूर्ती कर कुछ पर तलवार लटकायेगी या फिर खादानो के खेल का सच सामने लायेगी।