Saturday, September 22, 2012

जेपी वीपी तक के जनप्रयोग को बदल दिया मनमोहन ने


एक बार फिर आंकड़ों के सियासी खेल में राजनीतिक दलों की साख दांव पर है। भारतीय राजनीति के इतिहास में मौजूदा दौर अपनी तरह का नायाब वक्त है, जब एक साथ आधे दर्जन मंत्रियों के इस्तीफे के बाद सत्ता संभाले कांग्रेस खुश है। राहत में है। और उसे लगने लगा है कि पहली बार विपक्ष के वोट बैंक की उलझने उसे सत्ता से डिगा नहीं पायेंगी और आर्थिक नीतियों के  विरोध के बावजूद मनमोहन सरकार न सिर्फ चलती रहेगी बल्कि आर्थिक सुधार की उड़ान में तेजी भी लायेगी। जाहिर है यह मौका आर्थिक नीतियों के विश्लेषण का नहीं है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था जिन वजहों से डांवाडोल है, संयोग से उन्हें थामे हाथ को ही विकल्प देने हैं। तो भविष्य की दिशा होगी क्या इसे इस बार सामाजिक-आर्थिक तौर से ज्यादा राजनीतिक तौर पर समझना जरुरी है क्योंकि पहली बार न सिर्फ विपक्ष बंटा खड़ा है बल्कि पहली बार सत्ता की सहुलियत भोग रहे राजनीतिक दल भी बंटे हैं।

पहली बार समाजवाद या लोहियावाद से लेकर राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े राजनीतिक दल भी आपस में लड़ते हुये खोखले दिखे। यानी असंभव सी परिस्थितियों को ससंद से बाहर सड़क की राजनीति में देखा गया। वामपंथी सीताराम येचुरी से गलबहियां करते भाजपा के मुरली मनोहर जोशी। वामपंथी ए बी वर्धन खुले दिल से टीएमसी नेता ममता की तारीफ करते हुये और सीपीएम नेता प्रकाश करात न्यूक्लियर डील में समाजवादी पार्टी से शिकस्त खाने के चार बरस बाद एक बार फिर मुलायम को महत्वपूर्ण और तीसरे मोर्चे की अगुवाई करने वाले नेता के तौर पर मानते हुये। जाहिर है राजनीति का यह रंग यहीं नहीं रुकता बल्कि नवीन पटनायक, बालासाहेब ठाकरे और राजठाकरे ने भी रंग बदला और नीतीश कुमार भी बिहार के विशेष पैकेज के लिये पटरी से उतरते दिखे। सभी अपने अपने प्रभावित इलाकों की दुहाई देते हुये विपक्ष की भूमिका से इतर बिसात बिछाने लगे। तो क्या इस सात रंगी राजनीति में ममता बनर्जी सरीखी नेता की सियासत कही फिट बैठती नहीं है। साफ है संसदीय राजनीति की जोड़-तोड़ पहली नजर में तो यही संकेत देती हैं कि ममता बनर्जी जिस रास्ते चल पडी वह झटके की राजनीति है। और मौजूदा वक्त हलाल की राजनीति में भरोसा करता है । जहां नीतियां, विचारधारा या सिद्धांत मायने नहीं रखते हैं। शायद इसीलिये भाजपा भी समझ नहीं पायी कि आर्थिक नीतियों का विरोध करे या फिर साख की राजनीति करते हुये खुद को चुनाव की दिशा में ले जाये, जहां आम नागरिक साफ तौर पर देख सके कि कौन नेता है कौन कार्यकर्त्ता।

भाजपा उलझी रही तो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार पर आरएसएस का हिन्दुत्व भारी पड़ गया। यानी राजनीति अगर मिल-जुल कर नही हो सकती है तो फिर विरोध कर खुद को राजनीतिक तौर पर दर्ज कराने से आगे बात जाती नहीं है। यानी परिस्थितियां ही ऐसी बनी हैं, जहां कोई एक दल अपने बूते सत्ता में आ नहीं सकता और सत्ता के लिये गठबंधन का पूरा समूह चाहिये और उसके बाद अगुवाई करने वाले चेहरे पर हर किसी की मोहर चाहिये। इस कडी में हर नेता के चेहरे को पढ़ना जरुरी है। मुलायम सिंह यादव का कद बडा इसलिये है क्योंकि उनके हक में फिलहाल उत्तर प्रदेश की सियासत है। जहां सबसे ज्यादा 80 लोकसभा की सीटे हैं। यानी उम्मीद कर सकते हैं कि मुलायम के पास सबसे ज्यादा मौका होगा, जब उनकी सीट किसी भी क्षत्रपों की तुलना में बढ़ जायें। लेकिन क्या वामपंथी और क्या ममता बनर्जी कोई भी मुलायम के पीछे खड़े होने को तैयार होंगे। दोनों धोखा खा चुके हैं तो अपना लीडर तो मुलायम को नहीं ही बनायेंगे। दूसरा चेहरा नीतीश कुमार है। जिन्हें बिहार में चुनौती देने के लिये उनके अपने सहयोगी भाजपा हैं। हालांकि भाजपा उनके पीछे खड़ी हो सकती है लेकिन भाजपा के अलावा मुलायम और वामपंथी नीतीश कुमार के पीछे खड़े होने को क्यों तैयार होंगे। अगर हां तो फिर भाजपा के साथ खड़े होने पर जो लाभ नीतीश कुमार को मिलता है वह चुनाव के वक्त कैसे मिलेगा, अगर नीतीश गैर भाजपा खेमे में जाने को तैयार हो जायें। तीसरा चेहरा ममता बनर्जी का है। जाहिर है मनमोहन सरकार से बाहर होकर ममता ने अपना एक नया चेहरा गढ़ा है, जो बंगाल के पंचायत चुनाव से लेकर आम चुनाव तक में वामपंथियों से लेकर कांग्रेस तक को उनके सामने बौना बना रहा है। सत्ता में रहकर विरोध के स्वर को जिस तरह ममता ने हाईजैक किया उससे हर किसी झटका भी लगा और सियासी लाभ पाने की राजनीति में सेंध लगी। इसका लाभ भी ममता को जरुर मिलेगा। लेकिन क्या ममता के पीछ वामपंथी खड़े हो सकते हैं। या फिर ममता को आगे कर तीसरे मोर्चे का कोई भी चेहरा पीछे खड़ा हो सकता है।

निश्चित तौर पर यह असंभव है। और इन परिस्थितियों में वामपंथियों की अपनी हैसियत खासी कम है। यानी नयी परिस्थितियों में वामपंथी एक सहयोगी के तौर पर तो फिट है लेकिन अगुवायी करने की स्थिति में वह भी नहीं हैं। इसके अलावा अपनी अपनी राजनीति जमीन पर तीन चेहरे ऐसे हैं, जिनका कद आमचुनाव होने पर बढ़ेगा चाहे चुनाव 2014 में ही क्यों ना हो लेकिन इन तीन चेहरो को राष्ट्रीय तौर पर मान्यता देने की स्थिति में कैसे बाकि राजनीतिक दल आयेंगे यह अपने आप में सवाल है। उडीसा में नवीन पटनायक, तमिलनाडु में जयललिता और आंध्रप्रदेश में जगन रेड्डी। इन तीनो की हैसियत भी आने वाले वक्त में आंकड़ों के लिहाज से बढ़ेगी ही। यानी बढ़ते आंकड़ों के बावजूद तीसरे मोर्चे को लेकर कोई एक सीधी लकीर खींचने की स्थिति में कोई नहीं है। और मौजूदा दौर की यही वह परिस्थितियां हैं, जहां कांग्रेस लाभालाभ में है। क्योंकि कांग्रेस जो भी कदम उठायेगी या मनमोहन सरकार जो भी कदम उठा रहे हैं, वह पहली बार उनके अपने सहयोगियो की राजनीति के खिलाफ जा रहा है। यानी नीतियों को लेकर सहयोगियों के साथ मनमोहन सरकार का कोई बंदर बांट नहीं है बल्कि सीधा टकराव है। सीधा विरोध है मगर साथ खड़े होकर है। यानी वोट बैंक को लेकर भी पहली बार कांग्रेस ने एक अलग रास्ता बनाना शुरु किया है, जहा किसान, आदिवासी, अल्पसंख्यक या दलितो को कोई नीति बनाने की बात नहीं है बल्कि राज्यो में बंटे क्षत्रपो की राजनीति को गवर्नेंस का आईना दिखाने की सियासत है। सीधे कहें तो कांग्रेस अब यह दिखाना बताना चाहती है कि सरकार चलाना भी महत्वपूर्ण है चाहे नीतियों को लेकर विरोध हो मगर आंकड़े साथ रहे। यानी राजनीतिक हुनरमंद होने की ऐसी तस्वीर पहली बार सरकार चलाते हुये कांग्रेस दिखा रही है, जहां हर कोई एक दूसरे की सियासत से टकरा रहा है मगर कांग्रेस सबसे अलग बिना किसी के वोट बैक पर हमला बोले मजे में है। कहा जा सकता है कि यह कमाल देश के सीईओ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ही है कि उनकी गद्दी को बचाने वाले दो बडे राजनीतिक दल सपा और बसपा के आंकड़े उत्तर प्रदेश से निकले हैं। दोनो एक दूसरे के खिलाफ है लेकिन चैक एंड बैलेंस ऐसा है कि दोनो ही कांग्रेस की नीतियों को जनविरोधी मानकर भी एक साथ खड़े होकर राजनीतिक सत्ता की सहमति बनाकर मनमोहन सरकार के साथ खड़े हैं। यानी पहली बार ऐसी राजनीति ने दस्तक दे दी है, जहां ममता बनर्जी की साख भी मायने नहीं रखती है और मनमोहन सरकार के दौर के घोटाले भी। यहां समाजवादी सिद्धांत भी बेमानी और हिन्दुत्व राग भी बेमतलब का है । यानी जेपी से वीपी तक के राजनीतिक जनप्रयोग से मजबूत दिखने वाली संसदीय राजनीति की जड़ों को ही मनमोहन सिंह ने बदल दिया है और तमाम पार्टियां मुगालते में है कि वह जनता के साथ खडे होकर सत्ता में हैं।

2 comments:

  1. अधिकांश लोग जो राजनीति में है वे मतलबवादी हैं


    और राष्ट्रवादी लोग दहाई के तीन से चार अंको तक सिमट जाते हैं


    अलग अलग आधार पर देखा जाए तो ये भी अल्प संख्यक है

    फिर जिस मंदिर मस्जिद को चोर और डाकू चला रहे हों तो वहाँ चढ़ावा जन कल्याण के लिए नहीं स्वकल्याण के लिए होता है

    वहीं गिरगिट सिंग यादों स्व कल्याण के लिए मित्र को चूस कर फेंक सकते हैं और फेंके हुए को चाट कर अपना बना लेते है

    चाशनी मीडिया है राजनीति की और आज हलवाई विदेशी है

    छोटे दल संगठन चिटी की तरह घेर सकते हैं प्रदर्शन कर सकते है पर चाशनी से आगे नही जा सकते

    वही हाल दलाल मक्खी का है मतलब के लिए बैठे और मतलब पर खिसके


    तो आगे का रास्ता . . . . . . . .

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  2. आदरणीय प्रसून जी ,

    एक और नमूना देखिये की जैसे जैसे ये प्रदेशों के क्षत्रप मजबूत होते जा रहे हैं वैसे वैसे भ्रष्टाचार की शियाकतें भी बढती जा रही हैं, चाहे वो मुलायम हों, मायावती हों, जयललिता हों, करूणानिधि हों, जगन हों, येदुरप्पा हों, अजित पवार हों, कलमाड़ी हों, शीला दीक्षित हों या हों लालू । कई अन्य नेतागण इस सूचि में बड़े आराम से शामिल हो जायेंगे । और जैसे जैसे ये नेतागण भरष्टाचार के मामलों में फसते जायेंगे वैसे वैसे कांग्रेस या बीजेपी को शासन करना आसन ही होगा । आज लालू , करूणानिधि, मुलायम , शरद पवार सब मज़बूरी में कांग्रेस के साथ खड़े दिख रहे है क्योंकि वो मजबूर हैं , क्यूंकि इनके शीर्ष नेतृत्व ही भ्रष्टाचार के मामलों में फसे हुए हैं । तो फिर, बिन सत्ता से तो कहीं अच्छा है सत्ता के साथ चिपके रहना, जिसके अपने फायदे हैं । बाकि छोटी पार्टियाँ और राष्ट्रीय पार्टियों में शीर्ष नेतृत्व की छवि एक प्रमुख फर्क है । कांग्रेस या बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अगर भ्रष्ट हो तो आप एक मिनट बर्दास्त नहीं कर सकते पर छोटी पार्टियों का अपने एक खास वोट बैंक है, इसलिए उनके लिए नेता की छवि कम ही मायने रखती है। बड़ी पार्टियों में नेताओं के लिए भ्रष्टाचार करना आसान है, क्यूंकि वो अपने शीर्ष नेतृत्व के साफ छवि के पीछे छिप सकते हैं ।

    सीबीआई और आरटीआई दोनों ही ताकतवर यंत्र हैं केंद्र सरकार के हाथ में, जिनका बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस सरकार चला रही है और आगे आने वाले चुनावों में और उसके बाद जो भी गठबंधन सत्ता में आएगी वो भी इस्तेमाल करेगी ।

    ब्रजेश

    मुंबई

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