पहली बार बिहार में युवा न किसी धारा और न ही किसी विचारधारा के रास्ते सत्ता के खिलाफ सड़क पर हैं। उसे महज वेतन चाहिये। ठेके पर काम करने वाले युवाओं का आक्रोश महज वेतन चाहता है। बेसिक और स्नातक प्रशिक्षित और अप्रशिक्षित वर्ग के शिक्षकों की उम्र 22 से 35 बरस के करीब है और इनकी संख्या करीब तीन लाख है। वेतन 6 से 8 हजार तक है और वेतन न पाने के आक्रोश को राजनीतिक तौर लालू-पासवान भुनाने में लगे हैं।
तो क्या पहली बार राजनीति के पास अपना कोई राजनीतिक विकल्प या एजेंडा नहीं है। जबकि इससे पहले कई मौकों पर देश ने बिहार के युवाओं के जरीये सड़क के आंदोलन से देश की राजनीति को बदलते हुये देखा है। याद कीजिये तो दो बरस पहले राहुल गांधी बिहार के युवकों को युवा कांग्रेस से जोड़ने निकले थे। तब 18 से 35 साल के युवको के लिये बाकायदा ऑनलाइन फार्म से लेकर सामाजिक-आर्थिक समझ को राजनीतिक तौर पर लागू कराने की समझ वाले इंटरव्यू की व्यवस्था की गयी । बिहार में यूं भी करीब साढ़े-चार लाख युवक राजनीतिक दलों से सीधे जुड़े हुये हैं। और लाख छात्रों का आवेदन कांग्रेस के पास पहुंचा, यह बात हाशिये
पर सिमटे कांग्रेस के नेताओं ने तब राहुल गांधी से कही। लेकिन जब चुनाव परिणाम में कांग्रेस कही नहीं टिकी तो युवा कांग्रेस से निकले कांग्रेसियों ने तर्क यही गढ़ा कि जो सत्ता में होता है या आ रहा होता है युवा उसी दिशा में चलते हैं। लेकिन कांग्रेस की कमान थामे बिहार के कांग्रेसी भी जेपी आंदोलन से ही निकले हुये हैं। लेकिन जेपी आंदोलन के बाद बिहार का नया सच यही है कि सबसे ज्यादा बेरोजगार युवाओ की फौज रोजगार दप्तर में दर्ज है। जेपी के दौर में बिहार के करीब पांच लाख छात्र आंदोलन से जुड़ गये थे। फिलहाल बिहार के रोजगार दफ्तर में करीब ग्यारह लाख छात्रों के नाम दर्ज हैं। संयोग से बेरोजगार छात्रो की उम्र भी 18 से 35 के बीच ही है। यूं याद कीजिये तो महात्मा गांधी ने मुंबई अधिवेशन में कांग्रेस को चेताया भी था कि राजनीति बिसात पर देश के पढ़े-लिखे बेरोजगार साढ़े तीन लाख युवाओं की जगह कहां है। और यह एकजुट हो गये तो कांग्रेस के लिये मुश्किल होगी और आज देश का सच यह है कि करीब सवा करोड़ बेरोजगार युवाओं के नाम रोजगार दफ्तरों में दर्ज हैं। ये सभी अकेले हैं। सवाल है देश को राह दिखाने वाली युवा पीढ़ी आर्थिक सुधार के बाद जिस चौराहे पर आ खड़ी हुई है, उसमें यह सवाल उठने लगा है कि युवा पीढ़ी के सामने रास्ता क्या है। सपना टूटने के एहसास में इस बरस देश भर में 18 से 27 साल के 23132 बच्चों ने खुदकुशी कर ली। सपनो को सहेजना अब वामपंथ की जरुरत रही नहीं। तो अठारह से पैतिस की उम्र जो हमेशा लेफ्ट सोच लिये रहती अब वह भी नदारद हो चुकी है। यानी विद्रोही युवा समाज से गायब हो चुका है।
आर्थिक सुधार के बाद से सबसे लोकप्रिय फलसफा अगर युवाओं के कानों से होते ही दिमाग की धमनियो में दौड़ाया गया तो वह मुनाफा कमाने या कहें बनाने की अंधी दौड़ है। ऐसा नहीं है कि यह समझ सिर्फ महानगरों या बड़े शहरों का सुरुर है। छोटे शहरो से लेकर गांवों तक में स्कूल-कॉलेजो के परिसर से होते हुये चकाचौंध माल और मुफलिसी में खोये परचून की दुकानो का अर्द्ध-सत्य तो यही हो चला है कि मुनाफा नहीं तो जिन्दगी नहीं। और पूरा सत्य उस समझ का कत्ल किये हुये है जो सहभगिता से लेकर बौद्दिकता को कभी आश्रय देता था। यहीं से एक नयी लकीर भी उस भारत में खिंच रही है, जहां आर्थिक सुधार की मनमोहन-इकनामिक्स तो पहुंची है लेकिन उसने जमीन पर निर्भर करोड़ों लोगों के बीच से अंगुलियों पर गिने जा सकने वाली संख्या को बाजार का मर्म समझा दिया है। और बाकियों को हाशिये पर ढकेल दिया गया है। अंगुलियों पर मौजूद इन उपभोक्ता के लिये थाने-पुलिस से लेकर बीडीओ-कलेक्टर तक हैं। सरकार की नीतियों को परिभाषा देने का मंत्र भी इसी उपभोक्ता तबके के पास है। इस घेरे में जगह ठीक वैसी है जैसी राजनीति में युवाओ के लिये पद की जगह। युवा को पद अपने परिवार के आसरे मिल सकता है। इसलिये देश के 545 सांसदों में से तीन सौ साठ सांसदों के लड़के युवा हैं। और उनके पीछे उन युवाओं की फौज है जो भेड-बकरी की तर्ज पर पार्टी को ढोते है और नेता का बेटा जब बड़ा हो जाता है तो युवा नेता के नाम पर उस युवा को भी ढोते हैं। क्योंकि पार्टी और युवा बेटे के बीच एक तालमेल बरकरार हो जाता है तो दोनों को ढोया जाता है। इसलिये राहुल गांधी युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिये आधुनिक तकनीक का आसरा लेते है और मुलायम के बेटे अखिलेश यादव पारंपरिक तरीका
अपनाते हैं। कंम्प्यूटर के जरिए इंटरनेट पर आनलाइन युवा कांग्रेसियो के लिये फार्म उपलब्ध हैं। जिनकी उम्र 18 से 35 है, वे अपना रजिस्ट्रेसन करा सकते हैं। वहीं समाजवादी पार्टी में 18 से 35 साल का युवा सीधे अपने क्षेत्र में अपनी ताकत का एहसास अगर कराये हुये है और उसका कच्चा-चिट्ठा अगर पत्र-पत्रिकाओं में छपा है तो उसकी कतरनो से ही पार्टी में जगह मिल जायेगी। सिर्फ उत्तर प्रदेश में तीस लाख से ज्यादा युवाओं ने राजनीतिक दलों के दरवाजे खटखटाये। यह रोजगार और अपनी जमीन बनाने का नया रुतबा है। लेकिन बाजार का पारा ढोने पर नहीं चलता। इसके लिये मुनाफा शब्द सबसे बड़ा होता है। और मुनाफे की थ्योरी टकसाल में बनने वाले किसी बोरे सरीखी है ।
जहां बुद्दि नहीं चतुराई मायने रखती है और चतुराई बुद्दि पर हावी हो जाती है। बाजार की यह थ्योरी युवाओं को एकजुट नहीं करती बल्कि पढ़े-लिखे युवाओं से लेकर बिना डिग्रीधारी के लिये भी बाजार का सामाजवादी मंत्र पैदा करती है। जिसमें बैंक से लेकर नौकरशाहों और स्थानीय राजनीतिक सत्ता के ठेकेदार जिस युवा के बिसनेस पर अपना ठप्पा लगा देते हैं, वही मुनाफे की दौड़ में शामिल हो जाता है। लेकिन ठप्पे का लाइसेंस युवा की समझ से ज्यादा उसकी अंटी में बंधे पैसे को तोलता है।
लेकिन युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ने की यह बाजारवादी पहल हर जगह एकसमान रहे ऐसा भी नहीं है। इस वातावरण के बीच मनमोहन-इकनामिक्स और संसदीय राजनीति के विकासमय पाठ को लेकर किस तरह का
वातावरण लाल गलियारे में बन रही है, यह समझना जरुरी है। क्योंकि सरकार और ससंदीय वयवस्था यह मान रहे है कि विकल्प की धमकी कहीं से आ सकती है तो वह लाल गलियारा ही है। गृहमंत्रालय की रिपोर्ट दर रिपोर्ट इस बात पर सरकार को अगाह किये हुये है कि जहां विकास पहुचा नहीं है और जहां विकास बहुसंख्यक आम-आदमी की जरुरत से जुदा पहुंचा है,वहां आक्रोश है। यानी जहां खेतों के लिये बीज और फसलों के लिये पानी-बिजली पहुंचना था, वहां अगर सड़क पहुंच गयी है तो भी लोगो में गुस्सा है। इतना ही नहीं सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की रिपोर्ट और योजना आयोग का भी मानना है कि करीब 64 फीसदी ग्रामीण लोगों के लिये सरकार के पास नीतियां है ही नहीं। और इस 64 फीसदी भारत का 85फीसदी हिस्सा उसी लाल गलियारे में पड़ता है, जहां की जमीन को लेकर ही सरकार के पास योजनाओ की भरमार है। टाइगर परियोजना से लेकर एसइजेड तक और कोयला या बाक्साइट खनन स लेकर पावर प्रोजेक्ट के लिये जो जमीन देश भर में चुनी गयी, उस जमीन पर निर्भर ग्रामीण लोग पारपंरिक तौर पर हाशिये पर ही रहे है। खासकर ग्रामीण आदिवासियों की तादाद उन्हीं क्षेत्रों में सबसे ज्यादा है। पारंपरिक ग्रामीण आदिवासियों की नयी पीढ़ी अपनी खिड़की से विकासमय भारत की अनूठी लकीर को अगर कौतूहल से देख रही है तो आर्थिक सुधार के बाद से उसमें आक्रोश आया है क्योंकि आदिवासियों की युवा पीढ़ी को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये शिक्षा-दीक्षा की योजनायें तो बीते साठ साल में जरुर बनी लेकिन वह लागू तभी हुई जब राजनीति ने पंचायत तक पैर पसारने चाहे या फिर बाजारबाद के मुनाफे के घेरे में आदिवासियो की जमीन आयी। दोनो अवस्था में नीतियों की निगाहें कही और रही और निशाना कोई और बनता गया । इसलिये लाल गलियारा उन आदिवासी क्षेत्रों में कहीं ज्यादा घातक हो उठा है जहां विकास के पदचिन्ह दिखायी देते हैं। सिंगूर, नंदीग्राम से लालगढ़ और झारखंड से लेकर छत्तीसगढ से होते हुये उडीसा के मियानगिरी से लेकर महाराष्ट्र के विदर्भ तक में आदिवासी युवकों की नयी शिरकत कई स्तर पर बिलकुल नयी है। चूंकि इनके लिये बाजार की नीतियां और राजनीति का युवाप्रेम नहीं है ऐसे में इनकी उर्जा कहां खपत होगी। जाहिर है आदिवासी युवाओं की नयी ट्रेनिंग हक की लडाई के ही इर्द-गिर्द जा सिमटी है। इनका पहला संघर्ष उस व्यवस्था से होता है जिसकी नीतियां उनके दरवाजे् तक नहीं पहुंच पाती। दूसरा संघर्ष उन नीतियों के खिलाफ होता है, जो उनके आंगन तक को उघोग में तब्दील करने से नहीं कतराती। तीसरा संघर्ष बतौर नागरिक मानवीय अधिकारों को लेकर पुलिस प्रशासन से होता है और आखिरी संघर्ष अपनी ही उस सरकार से हो जाता है जिसे चुनने का तमगा भी उन्हीं के माथे पर लगा होता है।
लाल गलियारे के करीब चालीस लाख से ज्यादा युवा ग्रामीण आदिवासियों के पास संघर्ष के अलावे कोई दूसरा काम है नहीं। और संघर्ष भी उन्हें अपने आस्तितव को लेकर करना पड़ रहा है। जहां उसे कोई रास्ता नहीं दिखा रहा, सिर्फ उस आक्रोश या विरोध को पनाह दे रहा है जिसकी एवज में आदिवासी युवा को सबकुछ गंवाना पड़ रहा है। यानी गंवाने का रास्ता दोनों तरफ है। इस प्रक्रिया में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा हाशिये पर आ चुकी है। न्यूनतम जरुरतों को लेकर लोकतांत्रिक राज्य की मौजूदगी जब पानी,घर और रोटी को भी निजी हाथो में मुनाफे के लिये सौप चुकी है तो शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार का सवाल तो दूर की बात है। ऐसे में एक तरफ सरकार की बाजारवादी नीतियां सबकुछ हड़प लेने को आमादा है तो दूसरी तरफ राजनीतिक सत्ता युवाओं के आक्रोश को उसी सत्ता से जोड़ने की फिराक में है जो सब कुछ हड़पने या बेचने को तैयर हैं। यानी पहली बार युवा भारत भी विकासमय भारत की चौसर पर एक प्यादे या मोहरे से ज्यादा कुछ नहीं। क्योंकि प्यादा या मोहरा बने बगैर उस के बचने का रास्ते तंग होते जा रहे हैं। सवाल कई है मगर सच यही है कि युवाओं को बांधने की कुव्वत न तो राजनीति के पास है ना ही किसी विचारधारा में। सिर्फ बाजार ही युवाओं को बांधे हुये है। और संयोग से यही बाजार सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत भी बन गयी है और युवाओं की सबसे बडी कमजोरी भी। इसलिये राहुल गांधी राजनीति को युवाओं की मंडी बनाना चाहते है और नीतीश कुमार शिक्षा का इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा किये बगैर ठेके पर शिक्षकों का बाजार बनाकर बचना चाहते हैं। सवाल यही है क्या भारत में अब युवा आक्रोश का मतलब सिर्फ राजनीतिक बाजार से हक पाना है या उसे राजनीति का मोहरा बन गंवाना है।
ReplyDeleteआपकी नायाब पोस्ट और लेखनी ने हिंदी अंतर्जाल को समृद्ध किया और हमने उसे सहेज़ कर , अपने बुलेटिन के पन्ने का मान बढाया उद्देश्य सिर्फ़ इतना कि पाठक मित्रों तक ज्यादा से ज्यादा पोस्टों का विस्तार हो सके और एक पोस्ट दूसरी पोस्ट से हाथ मिला सके । । टिप्पणी को क्लिक करके आप सीधे बुलेटिन तक पहुंच सकते हैं और अन्य सभी खूबसूरत पोस्टों के सूत्रों तक भी । बहुत बहुत शुभकामनाएं और आभार । शुक्रिया