Friday, November 30, 2012
जो ज़िंदगी के लिए मौत को चुनते हैं...
पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों के लिये अजमल कसाब सिर्फ एक ऐसा नाम है जो फिदायीन बनकर भी मौत को गले ना लगा सका। यानी असफल ट्रेनिंग का प्रतीक है कसाब। लेकिन आतंकवाद किन नन्हें हाथों के जरिए किस तरह परवान चढ़ता है और पाकिस्तान में कैसे मुफलिसी आतंकवाद के लिये खाद का काम करती है, यह अजमल कसाब से लेकर उन सैकड़ों फिदायीन बने बच्चों के हालात को देखकर समझा जा सकता है जो जिन्दगी के लिये मौत को चुनते हैं। इस्लाम,जेहाद और भूख या जिन्दगी जीने के लिये रोजगार। आतंक की पाठशाला के यही चार सच हैं, जिसके आसरे पाकिस्तान में गरीब परिवारों के परिवेश और बच्चो के भूख से लड़ने के जुनून को उकसाकर फिदायीन बनाने की दिशा में ले जाती है। दरअसल, पाकिस्तान के नेशनल बुक फाउडेशन की किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " कसाब सरीखे फिदायीन बनने वाले बच्चों के अनकहे सच उकारती है, जिसे क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट डा सोहेल अब्बास ने पन्नों पर लाया है।
तालिबान के हाशिये पर जाने के बाद या कहे पाकिस्तान सरकार के तालिबान को लेकर कड़े रुख के बाद जब अफगानिस्तान से पाकिस्तान लौटते बच्चों को पकड़ा गया तो पूछताछ में पता यही चला कि सभी जेहाद में शामिल होने के लिये फिदायीन बनकर निकले थे। पाकिस्तान के हरीपुर और पेशावर जेल में बंद ऐसे ही जेहादियों में 517 फिदायीन बच्चों का इंटरव्यूह सोहेल अब्बास ने लिया। और जो जवाब फिदायीन बच्चों ने दिये उसने ना सिर्फ पाकिस्तान के सामाजिक आर्थिक हालात की त्रासदी बता दी बल्कि दुनिया के सामने भी आतंक के लिये इस्लाम और जेहाद का इस्तेमाल कर कैसे बच्चो की भूख और अच्छी जिन्दगी पाने की तड़प को फिदायीन बनाकर उभारा, यही सच सामने आता है। फिदायीन बनने का मतलब तो मौत है। इससे क्या मिलेगा। और अगर 21 बरस का फिदायीन जवाब दे कि मौत के बाद बेहतर जिन्दगी मिलेगी तो यह आतंक की जीत है या मानवियता की हार। तय जो भी कीजिये लेकिन सोहेल अब्बास की किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " में पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुये अजमल कसाब सरीके बच्चो का सच ही सामने रेंगने लगता है। यह सवाल बहुत छोटा हो जाता है कि बेहद खामोशी से अजमल को फांसी देकर मुंबई हमले की किताब बंद कर दी गई। जाहिर है कसाब इस कडी में सिर्फ एक है। जो पांच भाई-बहनों में तीसरे नंबर का होकर ना तो घर का प्यारा रहा और घर में पिता की कमाई में भी जिन्दगी को कोई सुकुन ना पा सका। कसाब के पिता पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के ओकारा जिले के फरीदकोट में रहते हुये शहरी रिहाइश इलाके में दही पूरी का ठेला लगाकर ही कमाई करते। कसाब ही नहीं पाकिस्तान के सबसे गरीब इलाको में से पंजाब प्रांत के इस इलाके का सच यही है कि जिस बच्चे के हाथ पांव मजबूत होते वह पढ़ाई के लिये खड़े होने से पहले काम करने के लिये सड़क पर खुद को खड़ा पाता।
कसाब की भी यही कहानी रही और कसाब जैसे सैकड़ों बच्चो की भी यही कहानी है। और काम ना मिले तो फेट भरने के लिये फिदायीन बनना ही जिन्दगी का सबसे खूबसूरत तोहफा माना जाता। यह सच किताब में जलाल, उस्मान, हाशिम या इमरान सरीखे सैकड़ों बच्चों का है। फिदायीन बनने के जो हालात बताये गये हैं, वह कसाब के जीवन से मेल खाते हैं। जरा कसाब का सच देखिये। लश्कर-ए-तोएबा के राजनीतिक विंग जमात-उल-दावा के जरीये कसाब ने जाना कि इस्लाम खतरे में है। सवाल मुजाहिदो का है। मौत हुई तो भी जिन्दगी बेहतर होगी। और इसी जुनून में रावलपिंडी से लेकर मुजफ्फराबाद में दौरा-ए-आम और दौरा-ए-खास की ट्रेनिंग के बाद फिदायीन का तमगा लगा। और फिदायीन युवाओ की टोली में कसाब का नाम फ़क्र से लिया जाने लगा यानी मौत के लिये जीने की मान्यता क्या होती है, इसे सोहेल अब्बास ने "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट" में बार बार उभारा है।
सोहेल अब्बास की किताब बताती है कि आतंकवाद को जेहाद से जोड़ना आतंक का पहला पड़ाव है। गरीब परिवारों के बच्चो को खुदा के नाम पर जेहाद के लिये इस्तेमाल करना आतंक का दूसरा पड़ाव है। और हर हमले में मारे जाने वाले फिदायीन को सीधे खुदा के पास जाने वाले शहीद के तौर पर बताना तीसरा पड़ाव होता है। यानी कसाब की तर्ज पर तालिबान के रास्ते पर फिदायीन बनकर निकले 500 से ज्यादा बच्चो के दिमाग को पढ़ने के बाद सोहेल अब्बास ने पाया कि गरीबी और अशिक्षा पाकिस्तान में आतंकवाद के लिये खाद का काम करती है। फिर धर्म के नाम पर आतंक को परिभाषित करना आधुनिक बीज बनकर फैलता है। कराची में रहने वाले 7 वीं पास जलाल को इस्लाम की रक्षा करने के उद्देश्य से फिदायीन बनना मंजूर होता है। स्वात का 29 बरस का हाशिम तो 4 बरस की बेटी और 2 बरस के बेटे का पिता है। लेकिन जो पाठ उसे मौलवी पढ़ाते हैं, उसके मुताबिक खुदा के आदेश पर वह जेहाद के लिये निकलता है। और उसके ना रहने पर खुदा ही उसके बच्चों की देखभाल करते हैं। सरगोदा में 5वी का छात्र 11 वर्षीय उस्मान को तो तालिबान इस्लाम के लिये लड़ते हुये खत्म होते दिखायी देते हैं। जिनकी मदद करने पर खुदा से सीधे राफ्ता हर बच्चे का बनता है तो पूर्वी काबूल पहुंचकर उस्मान तालिबानी बैरक में ही छूट जाता है और बच जाता है। लेकिन मौत को गले ना लगा पाने का गम उसे पाकिस्तान की जेल में भी सालता रहता है। 14 बरस का जमील तो धार्मिक पिता की छाव में ही अच्छा जीवन व्यतीत करते हुये जेहाद की दिशा में इसलिये चल पड़ता है क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ जो बर्ताव अमेरिकी सेना करती है उनकी तस्वीरे उसे अंदर से हिला देती है। और झटके में अंग्रेजी स्कूल की पढ़ाई, तेज संगीत में रुचि, अच्छे कपड़े पहनने की सोच सब कुछ बदल जाती है। और जमील तालिबान के रास्ते चल पड़ता है। दूध बेचने वाले का बेटे 13 बरस के अकबर को तो अपने स्कूल में ही पहला पाठ यही मिलता है कि अगर घर की खुली खिडकी से आजान की आवाज जरुर आनी चाहिये और अगर उस खिड़की से साफ हवा भी आती है तो वह बोनस है। और धीरे धीरे जिन्दगी पर मौत हावी होती है और रास्ता जेहाद की दिशा में चल निकलता है। इमरान तो जेहाद के लिये सिर्फ 20 हजार रुपये में अपने हिस्से की जमीन बेच कर फिदायीन बनने का फैसला लेता है। और तालिबान को ही इस्लाम का रक्षक मानते हैं और फिदायिन बनकर मौत को जिन्दगी मानने से नहीं चूकते।"प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " में जेहाद के नाम पर फिदायीन बनने वाले लड़कों से जेहाद का मतलब पूछा जाता है तो 73 फीसदी इसे ग्लोरी आफ इस्लाम से जोड़ते हैं। और जेहाद से मिलेगा क्या इस सवाल के जवाब में अधिकतर यही कहते है कि मौत के बाद बेहतर जिंदगी मिलेगी। यानी बेहतर जिन्दगी के लिये मौत। मुश्किल यह भी है कि जिस उम्र के लड़के फिदायीन बनने के लिये सबसे ज्यादा उतावले होते हैं, उनकी उम्र 18 से 25 है। और आतंकवादी संगठनों में इसी उम्र के लडके कमांडर से लेकर फिदायीन हमलावर के तौर पर मौजूद हैं। "प्रोबिंग द जेहादी माइडसेट "के जरीये सोहेल अब्बास आंतक के उस मर्म को भी पकड़ते हैं, जहां मां-बाप का प्यार भी इस्लाम और जेहाद के नाम पर अपने बच्चों को फिदायिन बनाने में गर्व महसूस करता है। क्योंकि गरीबी के बीच सबसे गरीब परिवारो के जीवन में आतंक की तकरीर देने के लिये लश्कर-ए-तोयबा से लेकर जेहादी काउंसिल के आधे दर्जन आतंकवादी संगठनों को चलाने वाले फिदायीन बनाने को तैयार होने वाले परिवारों को सार्वजनिक तौर पर मान्यता देने पहुंचते हैं। और मौत की खबर आ जाये तो बेहतर जिन्दगी पाने की दलील देते हैं। कसाब की फांसी के बाद लशकर चीफ हाफिज सईद की लाहौर में तकरीर इसका एक उदाहरण है। जो खुले तौर पर फिदायीन कसाब की मौत को उसे जन्नत और खुदा के दरवाजे पर ले जाने वाला बताती है और कहीं किसी स्तर पर इसका विरोध नहीं होता ।
जाहिर है "प्रोबिंग द जेहादी माइडसेट "पाकिस्तान के आतंक विरोधी तरीकों पर भी बिना कहे अंगुली उठाता है, क्योंकि तालिबान के असफल होने के बाद जब बच्चे समर्पण करते हैं और पाकिस्तान की उदार राजनीति से उनका पाला पडता है और फिदायीन बनने के बाद के अनुभवों को याद करते हुये जब इन युवा फिदायीनों से यह पूछा जाता है कि अब आगे उनका मकसद क्या है तो करीब 80 फिसदी लडके रोजमर्रा की जिन्दगी को बंहतर बनाना ही अपना लक्ष्य बताते हैं। यानी जिन्दगी को मौत में नहीं जिन्दगी में टटोलते हैं। और यह सवाल भी खड़ा करते हैं कि फिदायीन बनने के रास्ते के बाद जब जिन्दगी उनके साथ है तो वह मौत को अब गले लगाना नहीं चाहते हैं या फिदायीन बनकर मौत को जिस नजरीये से वह देख रहे थे वह गलत था। यानी सही वातावरण मिले तो फिदायीन के रास्ते पर भटकने से पहले ही बच्चे संभल सकते हैं । सोहेल अब्बास की किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट " जेहादी बच्चों के बारे जो तथ्य बताते हैं, वह भी पाकिस्तान में पनपते आतंक की पीछे की सोच को साफ कर देता है। क्योंकि सिर्फ 4 फीसदी फिदायीन बच्चे ही इस्लाम के इतिहास को पढ़े हैं। 69 फीसदी मानते है कि इस्लाम खतरे में हैं। किताब "प्रोबिंग द जेहादी माइंडसेट "संकेत में ही पाकिस्तान के उस अंधेरे पर सवाल करती है, जहां अशिक्षा है। मुफलिसी है। तो सवाल यह भी है कि अजमल कसाब की फांसी के बाद पाकिस्तान की सरकार या वहां के राजनेता कितना समझेंगे कि पाकिस्तान की सामाजिक-आर्थिक परिस्थतियों को ठीक करना जरुरी है। अन्यथा सियासी बातो से ना तो आतंकवाद खत्म होगा और ना ही फांसी या मौत का डर फिदायिन बनने वालो को डरायेगा। क्योंकि गरीबी-मुफलिसी में जीते परिवारों के लिये खुदा का रास्ता ही सबसे बड़ा बताकर जब पहली दस्तक आतंकवाद देता है तो मौत का खौफ टिकेगा कहां।
Saturday, November 24, 2012
ऐसे बन रही है आम आदमी की पार्टी
राजनीतिक संघर्ष की नयी परिभाषा गढ़ते केजरीवाल
दफ्तर-एआईसी यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत। पता-ए-119 कौशांबी। पहचान-बंद गली का आखिरी मकान। उद्देश्य-राजनीतिक व्यवस्था बदलने का आखिरी मुकाम अरविन्द केजरीवाल। कुछ यही तासीर...कुछ इसी मिजाज के साथ इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे से अलग होकर सड़क पर गुरिल्ला युद्द करते अरविन्द केजरीवाल। किसी पुराने समाजवादी या वामपंथी दफ्तरों की तरह बहस-मुहासिब का दौर। आधुनिक कम्प्यूटर और लैपटाप से लेकर एडिटिंग मशीन पर लगातार काम करते युवा। और इन सब के बीच लगातार फटेहाल-मुफलिस लोगों से लेकर आईआईटी और बिजनेस मैनेजमेंट के छात्रों के साथ डाक्टरों और एडवोकेट की जमात की लगातार आवाजाही। अलग-अलग क्षेत्रों में काम करते समाजसेवी से लेकर ट्रेड यूनियन और बाबुओं से लेकर कारपोरेट के युवाओं की आवाजाही। कोई वालेन्टियर बनने को तैयार है तो किसी के पास लूटने वालों के दस्तावेज हैं। कोई अपने इलाके की लूट बताने को बेताब हैं। तो कोई केजरीवाल के नाम पर मर मिटने को तैयार है। और इन सबके बीच लगातार दिल्ली से लेकर अलग अलग प्रदेशों से आता कार्यकर्ताओं का जमावड़ा, जो संगठन बनाने में लगे हैं। जिले स्तर से लेकर ब्लाक स्तर तक। एकदम युवा चेहरे।
मौजूदा राजनीतिक चेहरों से बेमेल खाते इन चेहरों के पास सिर्फ मुद्दों की पोटली है। मुद्दों को उठाने और संघर्ष करने का जज्बा है। कोई अपने इलाके मे अपनी दुकान बंद कर पार्टी का दफ्तर खोल कर राजनीति करने को तैयार है। तो कोई अपने घर में केजरीवाल के नाम की पट्टी लगा कर संघर्ष का बिगुल फूंकने को तैयार है। और यही सब भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत[एआईसी] के दफ्तर में आक्सीजन भी भर रहा है और अरविन्द केजरीवाल का लगातार मुद्दों को टटोलना। संघर्ष करने के लिये खुद को तैयार रखना और सीधे राजनीति व्यवस्था के धुरंधरों पर हमला करने को तैयार रहने के तेवर हर आने वालों को भी हिम्मत दे रहा है।
संघर्ष का आक्सीजन और गुरिल्ला हमले की हिम्मत यह अलख भी जगा रहा है कि 26 नवंबर को पार्टी के नाम के ऐलान के साथ 28 राज्यों में संघर्ष की मशाल एक नयी रोशनी जगायेगी। और एआईसी की जगह आम
आदमी की पहचान लिये आम आदमी की पार्टी ही खास राजनीति करेगी। जिसके पास गंवाने को सिर्फ आम लोगो का भरोसा होगा और करने के लिये समूची राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव। दिल्ली से निकल कर 28 राज्यों में जाने वाली मशाल की रोशनी धीमी ना हो इसके लिये तेल नहीं बल्कि संघर्ष का जज्बा चाहिये और अरविन्द केजरीवाल की पूरी रणनीति उसे ही जगाने में लगी है। तो रोशनी जगाने से पहले मौजूदा राजनीति की सत्ताधारी परतों को कैसे उघाड़ा जाये, जिससे रोशनी बासी ना लगे। पारंपरिक ना लगे और सिर्फ विकल्प ही नहीं बल्कि परिवर्तन की लहर मचलने लगे। अरविन्द केजरीवाल लकीर उसी की खींचना चाहते हैं। इसीलिये राजनीतिक तौर तरीके प्रतीकों को ढहा रहे हैं।
जरा सिलसिले को समझें। 2 अक्टूबर को राजनीतिक पार्टी बनाने का एलान होता है। 5 अक्तूबर को देश के सबसे ताकतवर दामाद राबर्ट वाड्रा को भ्रष्टाचार के कठघरे में खड़ा करते हैं। 17 अक्तूबर को भाजपा अध्यक्ष
नितिन गडकरी के जमीन हड़पने के खेल को बताते हैं। 31 अक्तूबर को देश के सबसे रईस शख्स मुकेश अंबानी के धंधे पर अंगुली रखते हैं और नौ नवंबर को हवाला-मनी लैंडरिंग के जरीये स्विस बैक में जमा 10 खाताधारकों का नाम बताते हुये मनमोहन सरकार पर इन्हें बचाने का आरोप लगाते हैं। ध्यान दें तो राजनीति की पारंपरिक मर्यादा से आगे निकल कर भ्रष्टाचार के राजनीतिकरण पर ना सिर्फ निशाना साधते हैं बल्कि एक नयी राजनीति का आगाज यह कहकर करते है कि , "हमें तो राजनीति करनी नहीं आती"। यानी उस आदमी को जुबान देते हैं जो राजनेताओं के सामने अभी तक तुतलाने लगता था। राजनीति का ककहरा राजनेताओं जैसे ही सीखना चाहता था। पहली बार वह राजनीति का नया पाठ पढ़ रहा है। जहां स्लेट और खड़िया उसकी अपनी है। लेकिन स्लेट पर उभरते शब्द सत्ता को आइना दिखाने से नहीं चूक रहे। तो क्या यह बदलाव का पहला पाठ है। तो क्या अरविन्द केजरीवाल संसदीय सत्ता की राजनीति के तौर तरीके बदल कर
जन-राजनीति से राजनीतिक दलों पर गुरिल्ला हमला कर रहे हैं। क्योंकि आरोपों की फेरहिस्त दस्तावेजों को थामने के बावजूद अदालत का दरवाजा खटखटाने को तैयार नहीं है। केजरीवाल चाहें तो हर दस्तावेज को अदालत में ले जाकर न्याय की गुहार लगा सकते हैं। लेकिन न्यायपालिका की जगह जन-अदालत में जा कर आरोपी की पोटली खोलने का मतलब है राजनीति जमीन पर उस आम आदमी को खड़ा करना जो अभी तक यह सोचकर घबराता रहा कि जिसकी सत्ता है अदालत भी उसी की है। और इससे हटकर कोई रास्ता भी नहीं है। लेकिन केजरीवाल ने राजनीतिक न्याय को सड़क पर करने का नया रास्ता निकाला। वह सिर्फ सत्ताधारी कांग्रेस ही नहीं बल्कि विपक्षी भाजपा और बाजार अर्थव्यवस्था के नायक अंबानी पर भी हमला करते हैं। यानी निशाने पर सत्ता के वह धुरंधर हैं, जिनका संघर्ष संसदीय लोकतंत्र का मंत्र जपते हुये सत्ता के लिये होता है। तो क्या संसदीय राजनीति के तौर तरीकों को अपनी बिसात पर खारिज करने का अनूठा तरीका अरविन्द केजरीवाल ने निकाला है। यानी जो सवाल कभी अरुंधति राय उठाती रहीं और राजनेताओं की नीतियों को जन-विरोधी करार देती रहीं। जिस कारपोरेट पर वह आदिवासी ग्रामीण इलाकों में सत्ता से लाइसेंस पा कर लूटने का आरोप लगाती रहीं । लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें बंदूकधारी माओवादियों के साथ खड़ा कर अपने विकास को कानूनी और शांतिपूर्ण राजनीतिक कारपोरेट लूट के धंधे से मजे में जोड़ लिया। ध्यान दें तो अरविन्द केजरीवाल ने उन्हीं मु्द्दों को शहरी मिजाज में परोस कर जनता से जोड़ कर संसदीय राजनीति को ही
कटघरे में खड़ा कर दिया। तरीकों पर गौर करें तो जांच और न्याय की उस धारणा को ही तोड़ा है, जिसके आधार पर संसदीय सत्ता अपने होने को लोकतंत्र के पैमाने से जोड़ती रही। और लगातार आर्थिक सुधार के तौर तरीकों को देश के विकास के लिये जरुरी बताती रही। यानी जिस आर्थिक सुधार ने झटके में कारपोरेट से लेकर सर्विस सेक्टर को सबसे महत्वपूर्ण करार देकर सरकार को ही उस पर टिका दिया उसी नब्ज को बेहद बारिकी से केजरीवाल की टीम पकड़ रही है। एफडीआई के सीधे विरोध का मतलब है विकास के खिलाफ होना। लेकिन एफडीआई का मतलब है देश के कालेधन को ही धंधे में लगाकर सफेद बनाना तो फिर सवाल विकास का नहीं होगा बल्कि कालेधन या हवाला-मनीलैडरिंग के जरीये बहुराष्ट्रीय कंपनी बन कर दुनिया पर राज करने के सपने पालने वालों को कटघरे में खड़ा करना। स्विस बैंक खातों और एचएसबीसी बैकिंग के कामकाज पर अंगुली उठी है तो सवाल सिर्फ भ्रष्टाचार पर सरकार के फेल होने भर का नहीं है। बल्कि जिस तरह सरकार की आर्थिक नीति विदेशी बैंको को बढ़ावा दे रही हैं और आने वाले वक्त में दर्जनों विदेशी बैंक को सुविधाओं के साथ लाने की तैयारी वित्त मंत्री चिदबरंम कर रहे हैं, बहस में वह भी आयेगी ही। और बहस का मतलब सिर्फ राजनीतिक निर्णय या नीतियां भर नहीं हैं या विकास की परिभाषा में लपेट कर सरकार के परोसने भर से काम नहीं चलेगा। क्योंकि पहली बार राजनीतिक गुरिल्ला युद्द के तौर तरीके सड़क से सरकार को चेता भी रहे हैं और राजनीतिक व्यवस्था को बदलने के लिये तैयार भी हो रहे हैं।
यह अपने आप में गुरिल्ला युद्द का नायाब तरीका है कि दिल्ली में बिजली बिलों के जरीये निजी कंपनियो की लूट पर नकेल कसने के लिये सड़क पर ही सीधी कार्रवाई भुक्तभोगी जनता के साथ मिलकर की जाये। और कानूनी तरीकों से लेकर पुलिसिया सुरक्षा को भी घता बताते हुये खुद ही बिजली बिल आग के हवाले भी किया जाये और बिजली बिल ना जमा कराने पर काटी गई बिजली को भी जन-चेतना के आसरे खुद ही खम्बो पर चढ़ कर जोड़ दिया जाये। और सरकार को इतना नैतिक साहस भी ना हो कि वह इसे गैर कानूनी करार दे। जिस सड़क पर पुलिस राज होता है वहां जन-संघर्ष का सैलाब जमा हो जाये तो नैतिक साहस पुलिस में भी रहता। और यह नजारा केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट की लूट के बाद सड़क पर उतरे केजरीवाल और उनके समर्थकों के विरोध से भी नजर आ गया। तो क्या भ्रष्टाचार के जो सवाल अपने तरीके से जनता के साथ मिलकर केजरीवाल ने उठाये उसने पहली बार पुलिस से लेकर सरकारी बाबुओं के बीच भी यही धारणा आम
कर दी है कि राजनेताओं के साथ या उनकी व्यवस्था को बनाये-चलाये रखना अब जरुरी नहीं है। या फिर सरकार के संस्थानों की नैतिकता डगमगाने लगी है। या वाकई व्यवस्था फेल होने के खतरे की दिशा में अरविन्द केजरीवाल की राजनीति समूचे देश को ले जा रही है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि दिल्ली में सवाल चाहे बिजली बिल की बढ़ी कीमतो का हो या सलमान खुर्शीद के ट्रस्ट का विकलांगों के पैसे को हड़पने का। दोनों के ही दस्तावेज मौजूद थे कि किस तरह लूट हुई है। पारंपरिक तौर-तरीके के रास्ते पर राजनीति चले तो अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। जहां से सरकार को नोटिस मिलता। लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने इस मुद्दे पर जनता के बीच जाना ही उचित समझा। यानी जिस जनता ने सरकार को चुना है या जिस जनता के आधार पर संसदीय लोकतंत्र का राग सत्ता गाती है,उसी ने जब सरकार के कामकाज को कटघरे में खड़ा कर दिया तो इसका निराकरण भी अदालत या पुलिस नहीं कर सकती है। समाधान राजनीतिक ही होगा। जिसके लिये चुनाव है तो चुनावी आधार तैयार करते केजलीवाल ने बिजली और विकलांग दोनों ही मुद्दे पर जब यह एलान किया कि वह जेल जाने को तैयार हैं लेकिन जमानत नहीं लेंगे तो पुलिस के सामने भी कोई
चारा नहीं बचा कि वह गिरफ्तारी भी ना दिखायी और जेल से बिना शर्त सभी को छोड़ दे।
जाहिर है अरविन्द केजरीवाल ने जनता की इसी ताकत की राजनीति को भी समझा और इस ताकत के सामने कमजोर होती सत्ता के मर्म को भी पकड़ा। इसीलिये मुकेश अंबानी के स्विस बैंक से जुडते तार को प्रेस कॉन्फ्रेन्स के जरीये उठाने के बाद मुकेश अंबानी के स्विस बैक खातों के नंबर को बताने के लिये जन-संघर्ष [राजनीतिक-रैली] का सहारा लिया। और रैली के जरीये ही सरकार को जांच की चुनौती दे कर अगले 15 दिनो तक जनता के सामने यह सवाल छोड़ दिया कि वह सरकारी जांच पर टकटकी लगाये रहे।
साफ है राजनीतिक दल अगर इसे "हिट एंड रन "या "शूट एंड स्कूट" के तौर पर देख रही हैं या फिर भाजपा का कमल संदेश इसे भारतीय लोकतंत्र को खत्म करने की साजिश मान रहा है तो फिर नया संकट यह भी है कि अगर जनता ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को चुनाव में खारिज कर दिया तो क्या आने वाले वक्त में चुनावी
प्रक्रिया पर सवाल लग जायेंगे। और संसदीय राजनीति लोकतंत्र की नयी परिभाषा टटोलेगी जहा उसे सत्ता सुख मिलता रहे। या फिर यह आने वाले वक्त में सपन्न और गरीब के बीच संघर्ष की बिसात बिछने के प्रतीक है। क्योंकि अरविन्द केजरीवाल को लेकर काग्रेस हो या भाजपा या राष्ट्रीय राजनीति को गठबंधन के जरीये सौदेबाजी करने वाले क्षत्रपो की फौज, जो सत्ता की मलाई भी लगातार खा रही है सभी एकसाथ आ खड़े हो रहे हैं। साथ ही कारपोरेट से लेकर निजी संस्थानों को भी लगने लगा है राजनीतिक सुधार का केजरीवाल उन्हें बाजार अर्थवयवस्था से बाहर कर समाजवाद के दायरे में समेट देगा। तो विरोध वह भी कर रहा है।
तो बड़ा सवाल यह भी है कि चौमुखी एकजुटता के बीच भी अरविन्द केजरीवाल लगातार आगे कैसे बढ़ रहे हैं। न्यूज चैनल बाइट या इंटरव्यू से आगे बढ़कर घंटों लाइव क्यों दिखा रहा है। अखबारों के पन्नो में केजरीवाल का संघर्ष सुर्खिया क्यों समेटे है। जबकि कारपोरेट का पैसा ही न्यूज चैनलो में है। मीडिया घरानों के राजनीतिक समीकरण भी हैं। कई संपादक और मालिक उन्हीं राजनीतिक दलों के समर्थन से राज्यसभा में हैं, जिनके खिलाफ केजरीवाल लगातार दस्तावेज के साथ हमले कर रहे हैं। फिर भी ऐसे समाचार पत्रों के पन्नों पर वह खबर के तौर पर मौजूद हैं। न्यूज चैनलो की बहस में हैं। विशेष कार्यक्रम हो रहे हैं। जाहिर है इसके कई तर्क हो सकते हैं। मसलन मीडिया की पहचान उसकी विश्वसनीयता से होती है। तो कोई अपनी साख गंवाना नहीं चाहता। दूसरा तर्क है आम आदमी जिस तरह सडक पर केजरीवाल के साथ खड़ा है उसमें साख बनाये रखने की पहली जरुरत ही हो गई है कि मीडिया केजरीवाल को भी जगह देते रहें। तीसरा तर्क है इस दौर में मीडिया की साख ही नहीं बच पा रही है तो वह साख बचाने या बनाने के लिये केजरीवाल का सहारा ले रहा है । और चौथा तर्क है कि केजरीवाल भ्रष्टाचार तले ढहते सस्थानों या लोगों का राजनीतिक व्यवस्था पर उठते भरोसे को बचाने के प्रतीक बनकर उभरे हैं तो राजनीतिक सत्ता भी उनके खिलाफ हैं, वह भी अपनी महत्ता को बनाये रखने में सक्षम हो पा रहा है। और केजरीवाल के गुरिल्ला खुलासे युद्द को लोकतंत्र के कैनवास का ही एक हिस्सा मानकर राजनीतिक स्वीकृति दी जा रही है। क्योंकि जो काम मीडिया को करना था, वह केजरीवाल कर रहे हैं। जिस व्यवस्था पर विपक्ष को अंगुली रखनी चाहिये थी, उसपर केजरीवाल को अंगुली उठानी पड़ रही है। लोकतंत्र की जिस साख को सरकार को नागरिकों के जरीये बचाना है, वह उपभोक्ताओं में मशगूल हो चली है और केजरीवाल ही नागरिकों के हक का सवाल खड़ा कर रहे हैं। ध्यान दें तो हमारी राजनीतिक व्यवस्था में यह सब तो खुद ब खुद होना था जिससे चैक एंड बैलेंस बना रहे। लेकिन लूट या भ्रष्टाचार को लेकर जो सहमति अपने अपने घेरे के सत्ताधारियों में बनी उसके बाद ही सवाल केजरीवाल का उठा है। क्योंकि आम आदमी का भरोसा राजनीतिक व्यवस्था से उठा है, राजनेताओं से टूटा है। जाहिर है यहां यह सवाल भी खड़ा हो सकता है कि केजरीवाल के खुलासों ने अभी तक ना तो कोई राजनीतिक क्षति पहुंचायी है ना ही उस बाजार व्यवस्था पर अंकुश लगाया है जो सरकारों को चला रही हैं। और आम आदमी ठगा सा अपने चुने हुये नुमाइन्दों की तरफ अब भी आस लगाये बैठा है। फिर केजरीवाल ने झटके में व्यवसायिक-राजनीति हितों के साथ खड़े होने वाले संपादकों की सौदेबाजी के दायरे को बढ़ाया है। क्योंकि केजरीवाल के खुलासों का बडा हथियार मीडिया भी है और मीडिया हर खुलासे में फंसने वालों के लिये तर्क गढ भी सकता है और केजरीवाल के हमले की धार भोथरी बनाने की सौदेबाजी भी कर सकता है। यानी अंतर्विरोध के दौर में लाभ उठाने के रास्ते हर किसी के पास है और अंतरविरोध से लाभ राजनेता से लेकर कारपोरेट और विपक्ष से लेकर सामाजिक संगठनों को भी मिल सकता है। यह सभी को लगने लगा है। लेकिन सियासत और व्यवस्था की इसी अंतर्विरोध से पहली बार संघर्ष करने वालों को कैसे लाभ मिल रहा है, यह दिल्ली से सटे एनसीआर के कौशाबी में बंद गली के आखिरी मकान में चल रहे आईएसी के दफ्तर से समझा जा सकता है। जहां ऊपर नीचे मिलाकर पांच कमरों और दो हाल में व्यवस्था परिवर्तन के सपने पनप रहे हैं। सुबह से देर रात तक जागते इन कमरों में कम्प्यूटर और लैपटॉप पर थिरकती अंगुलियां। कैमरे में उतरी गई हर रैली और हर संघर्ष के वीडियो को एडिटिंग मशीन पर परखती आंखें। हर प्रांत से आये भ्रष्टाचार की लूट में शामिल नेताओं के दस्तावेजो को परखते चेहरे। और इन सब के बीच दो-दो चार के झुंड में बहस मुहासिबो का दौर। बीच बीच में एकमात्र रसोई में बनती चाय और बाहर ढाबे ये आती दाल रोटी। यह राजनीतिक संघर्ष की नयी परिभाषा गढ़ने का केजरीवाल मंत्र है। इसमें जो भी शामिल हो सकता है हो जाये..दरवाजा हमेशा खुला है।
Wednesday, November 21, 2012
ममता के पीछे कौन है ?
अविश्वास प्रस्ताव पर अविश्वास क्यों
ठीक दो महीने पहले 20 सितंबर को रिटेल सेक्टर में एफडीआई के खिलाफ भारत बंद में सभी राजनीतिक दल एकजुट थे। मनमोहन सरकार को समर्थन करने वाले मुलायम से लेकर करुणानिधि और खांटी विरोधी लेफ्ट और भाजपा सभी एकजुट हो एक साथ भारत बंद करने में जुटे थे। लेकिन महज दो महीने बाद ही एफडीआई मुद्दे पर मनमोहन सरकार का विरोध संसद में कैसे हो सड़क के सारे साथी बिखर गये हैं। भाजपा को लगता है कि धारा 184 ठीक है तो लेफ्ट को 2008 याद आने लगा है, जब परमाणु संधि के खिलाफ समर्थन वापस लेकर वह अविश्वास प्रस्ताव लाया लेकिन सरकार ने मुलायम की व्यवस्था कर सरकार बचा ली। जाहिर है ऐसे में सबकि नजरे छोटे दलों पर जा टिकी है क्योंकि यह पहला मौका है जब मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर कोई राजनीतिक दल सहमत नहीं है। लेकिन मनमोहन सरकार खुले तौर पर यह कहने से नहीं चूक रही कि सरकार रहे या जाये लेकिन आर्थिक नीतियों के जरीये सुधार तो जारी रहेंगे। और दूसरी तरफ सरकार चली जाये इस पर आपसी अविश्वास तमाम राजनीतिक दलों में इस हद तक है कि संसद में ममता बनर्जी के अविश्वास प्रस्ताव पर ही सहमति नहीं बन पा रही है। तो क्या सरकार को कोई खतरा नहीं है और ममता
बनर्जी का अविश्वास प्रस्ताव हवा में उछाला गया एक दांव भर है।
अगर राजनीतिक घटनाक्रम को देखें तो सच कुछ और भी है और ममता बनर्जी का प्रस्ताव सिर्फ ममता के अकेले का गुस्सा भर नहीं है। यह सही है कि ममता के 19 सांसदों के जरिये मनमोहन सरकार पर ना तो कोई खतरा मंडरा सकता है और ना ही अविश्वास प्रस्ताव पर संसद बहस और वोट करा सकती है। अविश्वास प्रस्ताव के लिये पचास सांसदों के हस्ताक्षर जरुरी है। यह बात ममता बनर्जी जानती नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर इसी क्रम में जरा मुलायम सिंह यादव,मायवती,करुणानिधि,ठाकरे परिवार और शरद पवार के समीकरण को समझने की भी जरुरत है और इन तमाम राजनेताओं की पहल कैसे किस रुप में हो रही है, यह भी देखना जरुरी है। जिस समाजवादी पार्टी में चुनाव के महीने भर पहले टिकटों की मारामारी खुल कर होती रही है और परिवारवाद से लेकर समाजवाद और अपराध से लेकर भ्रष्टाचार के गठजोड़ पर मुलायम को टिकट बांटते बांटते हांफना पड़ता रहा है। वहीं मुलायम सिंह 18 महीने पहले ना सिर्फ 63 उम्मीदवारों का ऐलान दो खेप में कर देते हैं बल्कि कुछ सीट पर उम्मीदवारों में फेरबदल भी इस तरीके से करते हैं, जैसे चुनाव का ऐलान हो चुका है। वहीं मायावती के तमाम सिपहसलार सांसदों की हस्ती दिल्ली में सरकार के बीच लगातार बढ़ती है। चाहे मुकदमे हो या सुरक्षा व्यवस्था।
राहत और सुविधा बहुजन समाज पार्टी के सांसदो को बाखूबी मिलती हुई लुटियन्स की दिल्ली में देखी जा सकती है। और सरकार से यह करीबी सरकार चलती रहे की तर्ज पर ही दिखायी देती है। वहीं करुणानिधि की खामोशी सरकार को समर्थन देने के नाम पर आने वाले वक्त के इंतजार का एहसास भी कराती है और जयललिता को लेकर अपनी बिसात मजबूत करने की दिशा को भी टटोलती सी दिखती है। यह हालात प्रधानमंत्री के भोज में डीएमके सांसद का एफडीआई पर खामोशी बरतने से भी समझा जा सकता है और संसद सत्र के शुरु होने पर ही पत्ते खोलने के हथकंडे अपनाने से भी जाना जा सकता है। वहीं बालासाहेब ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना को लेकर उठते सवाल दिल्ली की गद्दी से ज्यादा उद्दव और राज ठाकरे के बीच बनने वाले समीकरण और शिवसेना के भविष्य को लेकर महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाले ही ज्यादा है। शिवसेना के सामने अब सवाल हिन्दु सम्राट ठाकरे की जगह उद्दव ठाकरे का नरम पंथी विस्तार और राज का गरम पंथी संकीर्णता वाली राजनीति है। यानी हिन्दुत्व का वह चेहरा अब शिवसेना की जरुरत नहीं है, जिसे बाला साहेब के जरीये देखा-परखा जाता रहा और भाजपा की विचारधारा के करीब शिवसेना दिखायी देती रही। शिवसेना की यह बदली हुई परिस्थितियां शरद पवार के अनुकूल हैं। और शरद पवार जिस तरह मनमोहन सरकार से पिछले दिनों बार बार रुठे लेकिन कांग्रेस से कोई उन्हे मनाने आना तो दूर सरकार की तरफ से भी खामोशी बरती गई और यह माना गया कि गांधी परिवार से शरद पवार की दूरी अब भी बरकरार है। यानी हर राजनीतिक दल के नेताओं की पहलकदमी के केन्द्र में कही ना कही मनमोहन सरकार का रहना या ना रहना ही है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। इसलिये ममता बनर्जी के अविश्वास प्रस्ताव पर पैदा हुये अविश्वास को अगर राजनीतिक रणनीति मान लें । तो संसद सत्र शुरु होने के बाद क्या क्या हो सकता है, इसकी शुरुआत मुलायम सिंह यादव से ही करनी होगी।
यह तो तय है कि मनमोहन सरकार के गिरने से सबसे ज्यादा लाभालाभ मुलायम को ही होना है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के हालात बताते हैं कि जैसे जैसे वक्त बीतता जायेगा वैसे वैसे समाजवादी पार्टी का जनाधार भी खिसकता जायेगा। क्योंकि बिगड़ी कानून व्यवस्था से लेकर फेल होते गवर्नेंस के बाद युवा अखिलेश सरकार के दौर में ही यूपी को मायावती का दौर याद आयेगा ही और आना शुरु भी हो गया है। तो मुलायम का लाभ मायावती के लिये सबसे बड़ा घाटा है। क्योंकि मुलायम के आगे बढ़ने का मतलब है भाजपा के लिये रास्ता बनना। और जिस तरह छह जिलों में सांप्रदायिक दंगे हुये हैं, वह मुलायम की मायावती को हाशिये पर ले जाने वाली राजनीति की पहली चाल है। जिसके अक्स में भाजपा को अपना लाभ भी दिखायी दे सकता है। तो ममता अविश्वास प्रस्ताव को लेकर यू ही तो नहीं चहकी है। पीछे मुलायम की बिसात तो होगी है। वहीं यह हालात करुणानिधि को भी उकसा सकते हैं। क्योंकि करुणानिधि के पास अब मनमोहन सरकार के सत्ता में बने रहने पर भी पाने के लिये कुछ भी नहीं है। लेकिन विरोध के स्वर या ममता के अविश्वास प्रस्ताव पर विश्वास जताने का वक्त तभी आयेगा जब विरोध करने पर सरकार गिरना तय हो जाये और तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके यह बात पहुंचने में सफल हो जाये कि वह ना तो 2 जी स्पेक्ट्रम और ना ही सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सरकार के साथ खड़ी है। यानी विरोध में खड़ी जयललिता को मिलने वाले राजनीति लाभ के सामानांतर करुणानिधि खुद को भी मनमोहन सरकार के खिलाफ खड़ा कर लें। तो ममता के अविश्वास प्रस्ताव के संसद के पटल तक पहुंचने के बाद करुणानिधि की चाल सरकार के पक्ष में जा नहीं सकती हैं। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार हो जाये इसके पीछे 9 सांसदों वाले शरद पवार खासे मायने रखते हैं। शरद पवार इस सच को समझते हैं कि महाराष्ट्र में बीते 13 बरस से एनसीपी-कांग्रेस की सत्ता से अब मोहभंग की स्थिति भी बन रही है। और मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों से लेकर भ्रष्टाचार के जो सवाल केन्द्र सरकार के कामकाज से जुड़ते हुये दाग लगा चुके हैं, उसका असर आने वाले चुनाव पर पड़ेगा ही। फिर केन्द्र और राज्य में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने के बावजूद एनसीपी के हाथ खाली ही हैं। और निजी तौर पर शरद पवार के तमाम प्रोजेक्ट को केन्द्र सरकार ने रोके ही रखा है। यानी शरद पवार की जो पहचान सत्ता में रहते हुये अपने प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिलाकर अपनों के लिये वारे-न्यारे करने के रहे है पहली बार केन्द्र से लेकर मुंबई तक में इसी पर ब्रेक लगी हुई है। राज्य में पृथ्वीराज चौहाण एनसीपी के भ्रष्टाचार की पोल पट्टी खोलने में लगे हुये हैं तो दिल्ली में 10 जनपथ को कोटरी पवार के लवासा प्रोजेक्ट से लेकर सिंचाई और एसईजेड पर भी सवालिया निशान लगाने के लिये लगातार हरकत में है। एनसीपी के भीतर यह चर्चा आम है कि पवार को और कोई नहीं बल्कि सोनिया गांधी के सलाहकार अहमद पटेल ही निशाने पर रखे हुये हैं। और पवार का संकट यह है कि महाराष्ट्र में जिस तरह एनसीपी चल रही है या एकजूट है उसके पीछे पवार के सत्ता समीकरण ही है।
यानी जिस दिन पवार की सत्ता गई उस दिन एनसीपी के नेताओं में भगदड़ मची और कांग्रेस के दरवाजे पवार माइनस एनसीपी नेताओं के लिये खुले। तो पवार की पहली और आखिरी मजबूरी सत्ता के साथ बने रहने का ही है। लेकिन मनमोहन सरकार के खिलाफ बनते राजनीतिक माहौल की टोह अब पवार भी ले रहे हैं। और इसका एक नजारा बाबासाहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा के वक्त शरद पवार की पहल में नजर आया। जो उद्दव और राज दोनों के करीब खुद को खड़ा करने से लेकर लालकृष्ण आडवाणी को सहारा देकर उठाने के तरीके तक ने जता दिया कि आने वाले वक्त में पवार महाराष्ट्र में नये समीकरण बनाने की दिशा में बढ़ सकते हैं। तो ममता बनर्जी के अविश्वास पर सरकार का गिरना अगर तय होगा तो शरद पवार महाराष्ट्र सरकार को गिराने के लिये भी कदम बढ़ा सकते हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि तब शिवसेना और पवार के समीकरण सत्ता बनाने की नयी गुंजाईश भी महाराष्ट्र में पैदा कर सकते हैं। और ऐसे मौके पर उद्दव और राज ठाकरे के साथ आने के रास्ते भी सत्ता के जरीये खुलेंगे जो शिवसैनिकों और एमएनएस के युवाओं को साथ खड़ा होने के रास्ते भी बनायेगें। जाहिर है ऐसे में यह सवाल जायज है कि क्या ममता बनर्जी ने एफडीआई के मुद्दे पर मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सिर्फ सभी समीकरणों को राजनीतिक जमीन देने के लिये रखा है या फिर मुलायम, करुणानिधि और शरद पवार की खामोश रणनीति के तहत ममता बनर्जी ने यह पहल की है। क्योंकि भाजपा का चिंतन और सीपीएम का खुला विरोधभी बताता है कि अविश्वास प्रस्ताव पर हर रास्ता अभी भी खुला है जो मनमोहन सरकार के लिये खतरे की घंटी है।
Sunday, November 18, 2012
लोकतंत्र थांबा !
जिस दौर में नेताओ की छवि नेहरु युग के नेताओं जैसी चमकदार, आम तौर पर ईमानदार, विवादों से परे और राजनीति से उपर उठ राष्ट्र-निर्माण की चितांओं के प्रतीक के तौर पर रही हो। उसी दौर में कोई अपनी छवि विवादों में ढालकर कर समाज में कड़वाहट भरते हुये लोकतंत्र के प्रति अविशवास कर संसदीय राजनीति का ही उपहास करें और बावजूद सबके लोगों के दिलो में राज करने लगे । तो उसे कौन से नाम से पुकारेंगे। जी, यह नाम बाल केशव ठाकरे है।
बाला साहेब ठाकरे ने बेहद महीन तरीके से उस राजनीति को साठ के दशक में अपनी राजनीति का केन्द्र बना दिया जो नेहरु के कास्मोपोलिटन शैली के खिलाफ आजादी के तुरंत बाद महाराष्ट्र में जागी थी। नेहरु क्षेत्रीयता और भाषाई संघवाद के खिलाफ थे। लेकिन क्षेत्रीयता का भाव महाराष्ट्र में तेलुलूभाषी आंध्र, पंजाबीभाषी पंजाब और गुजरातीभाषी गुजरात से कहीं ज्यादा था। और इसकी सबसे बड़ी वजह मराठीभाषियों की स्मृति में दो बाते बार बारह हिचकोले मारती। पहली, शिवाजी का शानदार मराठा साम्राज्य, जिसने मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ बहादुरी से लडने वाले पराक्रमी जाति के रुप में मराठों को गौरान्वित किया और दूसरा तिलक, गोखले और जस्टिस रानाडे की स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका जो आजादी के लाभों में मराठी को अपने हिस्से का दावा करने का हक देती थी। इन स्थितियों को बाला साहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरीये जमकर उभारा। इसे संयुक्त महाराष्ट्र आदोलन और साठ के दशक में नेहरु की अर्थनीति की नाकामी से बल मिला। जो राजनीतिक सोच उस दौर में महाराष्ट् में जगह बना रही थी उसमें लोकतंत्र के प्रति अविश्वास,संसदीय राजनीति के प्रति उपहास,राजनीतिक प्रणाली के प्रति घृणा,प्रांतीय संकीर्णता,प्रांतिय सांप्रदायिकता,शिवाजी के मराठपन,हिन्दु पदपादशाही और हिटलर के प्रति लगाव। बाल ठाकरे ने इस मिजाज को समझा और अपनाया। ठाकरे ने लोकतंत्र को कभी तरजीह नहीं दी और तरीका हिटलर के अंदाज में रखा। दरअसल, मुंबई के उस सच को ही अपनी राजनीति का आधार बाल ठाकरे ने बना लिया जो उनके खिलाफ था। साठ के दशक मे मुंबई की हकीकत यही थी कि कि व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का कब्जा था। लिखायी-पढायी के पेशो में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी यानी कन्नडवासी और ईरानियों का रुतबा था। भवन निर्माण में सिंधियों का बोलबाला था और इमारती काम में ज्यादातर लोग कम्मा यानी आंध्र के थे। ऐसे में मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था "आमची मुंबई आहे 'लेकिन मुंबई में वह कहीं नहीं था। इस वजह से मुंबई के बाहर से आने वाले गुजराती,पारसी, दक्षिण भारतीयों और उत्तर भारतीयों के लिये मराठी सिखना जरुरी नही था। हिन्दी-अंग्रेजी से काम चल सकता था। उनके लिये मुबंई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत में कोई रिश्ता जोड़ना भी जरुरी नहीं था।
फिर 60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूंजी प्रधान क्षेत्रों में हुआ जिससे रोजगार के मौके कम हुये। फिर साक्षरता बढ़ने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्रीयनों की ही थी। इन परिस्थितयों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रियनों के लिये एक बडा सामाजिक और आर्थिक आघात था। बालासाहेब ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपनी पत्रिका मार्मिक के जरीये महाराष्ट्र और मुंबई के किन रोजगार में कितने मराठी हैं, इसका आंकड़ा रखना शुरु किया। ठाकरे ने इसके खिलाफ जो राजनीतिक जमीन बनानी शुरु कि उसमें मुसलमान और दक्षिण भारतीय सबसे पहले टारगेट हुये। अपनी पत्रिका मार्मिक में कार्टून और लेख के जरीये मराठियों में किस तरीके बैचेनी ठाकरे ने अपने विलक्षण अंदाज में पेश की--"सभी लुंगी वाले अपराधी, जुआरी,अवैध शराब खींचने वाले, दलाल, गुंडे, भिखारी और कम्युनिस्ट हैं.......मै चाहता हूं कि शराब खींचने वाला भी महाराष्टीयन हो और मवाली भी महाराष्ट्रीयन हो। " इस भाषा और तेवर ने 1967 में संसदीय निर्वाचन में एक प्रेशर गुट के रुप में ठाकरे ने अपनी उपयोगिता साबित कर दी। और 1968 में नगर निगम चुनाव में लगभग अकेले दम पर सबसे ज्यादा वोट पा कर दिखाये। ठाकरे की ठसक का ही कमाल था कि महाराष्ट्र और देश के प्रतीकों पर उन्होने सीधा हमला बोला और खुद को तलवार की उस धार पर ला खड़ा किया, जहां खारिज करने वालों के केन्द्र में भी ठाकरे और खारिज करने वालों के खिलाफ खड़े मराठी मानुष के केन्द्र में भी ठाकरे।
मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है, जो कभी फ्लोरा फाउन्टेन के नाम से जाना जाता था लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया। वहीं गेटवे आफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गांधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी। गांधी जी के बारे में मराठी मानुस की समझ निजी बातचीत में समझी जा सकती है, गांधी मराठियों की एकजुटता से घबराते थे कि कहीं फिर मराठे सूरत को ना लूट लें। एक तरह से गांधी को सिर्फ गुजराती बनिये के तौर पर सीमित कर मराठी मानुस आज भी मराठों के विगत साम्राज्य को याद कर लेता है। असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह कुछ इस तरह का था, जिसमें साजिश की बू आती। यानी मुंबई में मराठी लोगों की हैसियत अगर सिर्फ क्लर्क, मजदूर, अध्यापक और घरेलू नौकर से ज्यादा की नहीं थी तो वह साजिश के तहत की गयी। बालासाहेब की राजनीति के दौर में गुजराती,पारसी,पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुंबई में था और शिवसेना इसे साजिश बताते हुये दुश्मन भी बना रही थी और उनसे लड़ने के लिये मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी।
बाल ठाकरे को नब्बे के दशक में लगने लगा था कि महाराष्ट्र के बाहर चाहे उनकी पैठ ना हो लेकिन केन्द्र की सत्ता जिस तरह गठबंधन के आसरे लूली–लंगडी हो चली, उसमें महाराष्ट्र में केन्द्रित रहते हुये भी वह दखल दे सकते हैं। एनडीए की सरकार में दिया भी। उस राजनीति को राज ठाकरे भी समझते हैं। सांसदों के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र दूसरा बड़ा राज्य है। किसी भी राष्ट्रीय दल की नजर महाराष्ट्र पर होगी ही। ऐसे में कोई भी ऐसी राजनीति जो जितने के लिये नहीं दूसरों को हराने के लिये की जा रही हो तो राजनीतिक सौदेबाजी में उससे बड़ा सौदागर कोई हो नहीं सकता है। इसे राज ठाकरे भी समझ रहे हैं और कांग्रेस-एनसीपी की सत्ता भी और भाजपा-शिवसेना गठबंधन भी। महाराष्ट् की यह त्रासदी भी रही है कि यहां आंदोलनों की भूमिका अगर सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक रही है तो उसी आंदोलन की पीठ पर सवार हो कर संसदीय राजनीति नकारात्मक रही है। बालासाहेब ठाकरे तो हद तक नकारात्मक हुये। बाल ठाकरे यह कहने से नही घबराये कि "मतपेठी के माध्यम से हमेशा जनतंत्र का सही रुप प्रगट नहीं हो पाता।...मैं अपने विचार तब तक नहीं बदलूंगा जब तक एक नई, हर तरह से सुरक्षित जनतांत्रिक पद्दति के परिणाम नहीं मिलते, जो मैं स्वीकार कर सकूं। हमारे देश में जनतंत्र जड़े नही जमा सका है और जब तक यह नहीं हो जाता, मेरी राय में इस देश में उदार तानाशाही की जरुरत है।" बालासाहेब ठाकरे का यह बयान 1967 के चुनाव के वक्त का है, जिसे 19 अगस्त 1967 को नवकाल ने छापा था। लेकिन बाल ठाकरे यहीं नहीं रुके थे,उन्होंने कहा , " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है? आज भारत को तो हिटलर की आवश्यकता है।..भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहां तो हमें हिटलर चाहिये। " नकारात्मक तरीके से राजनीति पकड़ने में माहिर बाल ठाकरे ने आपातकाल में इंदिरा गांधी का साथ दिया। बीते चालीस साल में इसी राजनीति को करते हुये बाल ठाकरे सत्ता तक भी पहुंचे और लोकतांत्रिक संसदीय जुबान बोलने पर सत्ता हाथ से गयी भी। जो राजनीतिक जमीन बाल ठाकरे ने शिवसेना के जरीय बनायी संयोग से वह जमीन और मुद्दे तो वहीं रह गये...शिवसेना और बाल ठाकरे उससे इतना आगे निकल गये कि उनका लौटना मुश्किल है। लेकिन याद किजिये 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति। शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा। विधानसभा में हंगामा हुआ। विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की। मुख्यमंत्री शरद पवार ने मामला टालने के लिये और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी। पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया। लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाउद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिये उस इटरव्यू को खूब उछाला जिसमें दाउद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था। फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना ने जमकर फोड़ा। परिणाम यही हुआ मुंबई के मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया। और शपथ समारोह में मंच पर और कोई नहीं, वही खैरनार अतिथि के तौर पर आंमत्रित थे जिन्होंने पवार के खिलाफ भ्रष्टाचार की मुहिम चलायी थी।
लेकिन इस राजनीति का दूसरा सच कहीं ज्यादा बड़ा है। रोजगार और क्षेत्रीयता का जो संकट अलग अलग साठ के दशक में था, दरअसल 2012 में वही क्षेत्रीयता अब रोजगार को भी साथ जोड़ चुकी है। शिवेसना की लुंपन राजनीति ने सत्ता सुकुन पाते ही जैसे ही साथ छोड़ा वैसे ही उस रोजगार पर भी संकट आ गया जो शिवसैनिको को भष्ट होते तंत्र में लाभ के बंदरबांट में मिल जाती थी। चूंकि इस दौर में महाराष्ट्र का खासा आर्थिक विकास हुआ लेकिन सत्ता और एक वर्ग विशेष के गठजोड़ ने सबकुछ समेटा इसलिये वह तबका जिसे न्यूनतम के जुगाड़ के लिये रोजगार चाहिये था वह ना तो बाजार या तंत्र से मिला और शिवसेना जो इस गठजोड़ के मुनाफे में हिस्सेदारी के लिये लगातार राजनीति कर रही थी, जब उसने भी लीक बदली तो शिवसैनिको के सामने कुछ नहीं था। मिलों के बंद होने और जिले दर जिले महाराष्ट्र औघोगिक विकास निगमों में लगे उघोगों के बंद होने से जहां रोजगार गायब होते गये वही भू-माफिया राजनीति के नये औजार के तौर पर उभरा। इस नये धंधे में कांग्रेस-बीजेपी-शिवसेना और राजठाकरे की भी हिस्सेदारी थी तो इसका मुनाफा भी उस बहुसंख्यक मराठी तबके के पास नहीं पहुंचा, जिसकी ट्रेनिग शिवसेना के जरीये हुई थी। इस बड़े तबके
को कैसे सड़क पर उतार कर उसकी भावनाओं को हथियार बनाना है, यह राजठाकरे ने अपने चाचा बाल ठाकरे की छत्रछाया में गुजारे चालीस साल में बखूबी सीखा । लेकिन ठाकरे परिवार की राजनीति के समानांतर दो सवाल थांबा लोकतंत्र के नाम पर खड़े होते हैं कि ऐसे में जनता की चुनी सरकार कहां है। जहां किसान सबसे ज्यादा खुदकुशी कर रहा है। जहां सबसे ज्यादा बिजली संकट हो चला है। जहां किसी भी राज्य से ज्यादा विकास की विसंगतियां हैं। जहां का प्रभु वर्ग सात सितारा जीवन जी रहा है तो बहुसंख्य तबका न्यूनतम की जद्दोजहद में जान गंवा रहा है।
लेकिन ठाकरे ने मुंबई की चकाचौंध को भी अपनी राजनीति तले ला खड़ा किया। बाल ठाकरे राजनीति करते हुये स्टार वेल्यू के महत्व को भी बाखूबी समझते थे। बालासाहेब ने युसुफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था। बाला साहेब से समझौता करने एक वक्त शत्रुघ्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातोश्री जाना पड़ा था। यानी दुश्मन हर वक्त ठाकरे ने बनाया और सेना को मजबूत किया। बालासाहेब ने तो बकायदा चित्रपट शाखा खोली। जहां शुरुआती दौर में मराठी कलाकारों को आगे बढ़ाने की बात कही गयी लेकिन बाद में यह बालठाकरे की स्टार वेल्यू से जुड़ गया। यानी महाराष्ट्र की जमीन पर पड़े सियासी सिक्कों को उठाने के बदले सिक्कों को ढालने वाली टकसाल लगाने में ठाकरे की राजनीति चली।
इस राजनीति को आगे बढ़ाने में आर्थिक उदारीकरण की भूमिका को भी पहले शिवसेना और अब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बाखूबी अपनी राजनीति का हिस्सा बनाये हुये है। नब्बे के दशक में जो काम शिवसेना कर रही थी अब उसी लकीर पर राज ठाकरे चल पड़े हैं। औघोगिक घरानों के कारखानों में कोई यूनियन मजदूरों को एकजुट ना कर पाये यह काम शिवसेना की कामगार सेना ने बखूबी किया। विदेशी निवेश रोजगार पूरक है, इसे एनरान के जरीये ठाकरे बता चुके हैं। खास बात है कि बीजेपी की यूनियन भारतीय मजदूर संघ को पूजीपतियों का एजेंट दिखना गंवारा नहीं था लेकिन कामगार सेना को इससे कोइ गुरेज नही थी। लेकिन नयी आर्थिक स्थितियो में राजठाकरे के सामने भू-माफिया का खासा बड़ा काम है । महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी की जमीन बिल्डरों के पास पहुंच रही है। जमीन पर कब्जे का मतलब बडी तादाद में बोरोजगार युवकों को कैडर के लिये जुगाड़ने की जद्दोजहद से बच जाना। असल में सभी राजनीतिक दल इसमे जुटे हुये हैं लेकिन हालात दुबारा साठ के दशक के ही लौट रहे हैं लेकिन अब बाल केशवराव ठाकरे नहीं है। तो सवाल यह भी है कि आखिर 19 अगस्त 1967 को जो बात कही थी अब उसे कोई कहने की हिम्मत नहीं रखता या फिर हालात बदल चुके हैं क्योंकि ठाकरे एक ही था जो कहता था उस पर मराठी मानुष भरोसा रखता, -- " हां मै तानाशाह हूं, इतने शासकों की हमें क्या जरुरत है ? आज भारत को तो हिटलर की आवश्कता है। ....भारत में लोकतंत्र क्यों होना चाहिये ? यहा तो हमें हिटलर चाहिये।" तो कौन कहेगा लोकतंत्र थांबा।
Monday, November 12, 2012
क्योंकि देश गुस्से में है...
बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बैचेनी परेशानी से जुझते हुये है। खास लोगों की बैचेनी सत्ता सुख गंवाने के डर की है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को चिढ़ाने के लिये और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। तो गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिये बैचेन विपक्ष में भी। तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है। गुस्सा दिखाना भय की मार सहते सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है और सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी साख बनाने का खेल भी है। केजरीवाल जान हथेली पर रख फर्रुखाबाद से सत्ता को चुनौती देते हैं। सत्ता की पीठ पर सवार राहुल गांधी राजनीति के बंद दरवाजों को आम आदमी और कमजोर के लिये खोलने की गुहार लगाते हैं। नीतिन गडकरी मुस्कुराते हुये नागपुर से सत्ता का हु तू तू दिखलाते हैं। मनमोहन सिंह के इंडिया पर खामोशी बरतते हुये सोनिया गांधी को कांग्रेस में भारत नजर आता है। और मनमोहन सिंह हर कर्म-धत् कर्म के लिये सोनिया गांधी के नेतृत्व का जिक्र कर अपने होने ना होने की परिभाषा गढ़ते हैं। हर के सामने आम आदमी ही है और हर के पीछे खास सत्ता ही है। खास सत्ता उसी पूंजी पर टिकी है, जिसे विदेशी निवेश के नाम पर कांग्रेस लाना चाहती है। और वह विदेशी पूंजी ही है जो एनजीओ के जरीये देश के गुस्से को बदलाव के मंत्र में बदल व्यवस्था परिवर्तन का सपना संजो रही है। बिना पूंजी ना सत्ता चल पा रही है और ना ही विरोध के स्वर पूंजी बिना गूंजने की स्थिति में हैं। और विदेशी पूंजी से छटपटाता मीडिया भी इसी गुस्से में व्यवसाय की पत्रकारिता का नया पाठ याद कर रहा है। तो फिर आम आदमी की बैचेनी और उसके गुस्से रास्ता जाता किधर है।
आदिवासी, किसान, मजदूर और ग्रामीणो के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब बदलाव और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है। वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैर जरुरी सी लग रही है जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी। देश की भूख से जुड़ी थी। बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी। और वही आवाज सबसे तेज सुनायी दे रही है जो महानगरों से जुड़ी है। सर्विस सेक्टर से जुड़ी है। शिक्षा पाने के बाद बेरोजगारी से जुड़ी है। या रोजगार पाने के बाद हर जरुरत को जुगाड़ने के लिये भ्रष्टाचार के कटोरे में कुछ ना कुछ डाल कर ही जिये जा रही है। गुस्से का सवाल का सवाल पहली बार तिभागा से नक्सबाडी और सिंगूर से लालगढ या बस्तर के संघर्ष से नहीं जुड़ रहा बल्कि शहरी और खाये-पीये अघाये लोगों को संघर्ष के लिये खड़ा करने से जुड़ रहा है। इसलिये संघर्ष का रास्ता जमा-भाग हथेली पर समाने वाले चंद रुपयों की संपत्ति समेटे अन्ना हजारे से निकल कर इसी व्यवस्था में करोड़ों की सफेद संपत्ति बटोरे लोगों का भी हो चला है। शहरी चमक-दमक से निकला संघर्ष चमक-दमक की दुनिया में सेंध लगाकर व्यवस्था बदलाव का सपना जगा रहा है। पत्रकार,शिक्षक, बाबू, वकील जैसे हुनर मंद मान चुके है कि अगर चोरों की व्यवस्था में हर किसी को दस्तावेज पर चोर बता दिया जाये तो चोर व्यवस्था बदल जायेगी। व्यवस्था बदलने की होड़ में शहरी गुस्सा इतना ज्यादा है कि राबर्ट वाड्रा हो या मुकेश अंबानी या फिर नीतिन गडकरी हो या शरद पवार इनके भ्रष्टाचार की कहानी के खिलाफ खुलासे की शुरुआत या अंत की कहानी में उस आम आदमी की भागेदारी कहा कैसे
होगी, जहां उसका गुस्सा पेट से निकल कर पेट में ही समा रहा है। यह किसी को नहीं पता। सिर्फ आस है कि आज गुस्सा सड़क पर निकला तो कल पेट भी भरेगा। और सियासी घमाचौकड़ी का गुस्सा विकास के खिंची गई भ्रष्ट लकीर को भ्रष्ट ठहरा रहा कर नियम-कायदों को ठीक करने के लिये आम आदमी के गुस्से को सड़क पर दिखला कर वापस अपने घर लौट रहा है। दूरियां पट रही हैं या दूरिया बढ़ रही हैं। क्योंकि सवाल उस जमीन को खड़े आम लोगो के गुस्से का नहीं है, जिस जमीन को हड़पने या उसे बचाने का शहरी खेल जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान तक में हर कोई बार बार खेल रहा है। सवाल उन लोगों का है जिनकी जमीन उनका
जीवन है। और पीढि़यो से खिलाती आई उसी जमीन को अब देश की संपत्ति बता कर खोखला बनाने की विकास नीति चौमुखी तौर पर स्वीकार कर ली गई है।
सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संस्थानों का होना लोकतंत्र का होना बताया गया। लेकिन आधुनिक धारा में वहीं संस्थान लोकतंत्र को भी खरीद-बेच कर धनतंत्र में बदल गये। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संसदीय धारा आजाद होने का नारा रहा। और अब वही संसदीय धारा गुलाम बना कर मुंह के कौर को भी छीनने पर आमादा है। क्या पेट में समाये इस गुस्से को भूमि-सुधार, खाद्य सुरक्षा बिल और राजनीतिक व्यवस्था के बंद दरवाजों के खोलने से खत्म किया जा सकता है। क्या वाकई देश के गुस्से को सही राह वही शहरी मिजाज देगा जिसने स्वदेशी का राजनीतिक पाठ किया और बाजार व्यवस्था में गंवाने या पाने की तिकड़मो को समझने के बाद व्यवस्था बदलने का सवाल उठा दिया। क्यों वाकई देश के गुस्से को राह वही शहरी देगा, जिसने कानवेन्ट में पढ़ाई की और अब महात्मा गांधी के स्वराज को याद कर व्यवस्था बदलने का नारा लगाना शुरु कर दिया। या फिर लुटियन्स की दिल्ली की वह सियासी मशक्कत देश के गुस्से को शांत करेगी, जिसे राजनीतिक पैकेज में ही हर पेट के भीतर की कुबुलाहट और भूख को बेच कर कॉरपोरेट के कमीशन से विकास दर का चढ़ता हुआ तीर चमकते हुये सूरज सरीखा दिखायी देता है। गुस्से और आक्रोश को भुनाने या शांत करने के उपाय तो शहरी मिजाज इस रास्ते देख सकता है। लेकिन गुस्सा और आक्रोश है क्यों। क्या शहरी संघर्ष का रास्ता इसे समझ पा रहा है या फिर जो गुस्सा दिल्ली के जंतर-मंतर से लेकर रामलीला मैदान पर हर कोई दिखाने को आमादा है वह अपने बचने के उपाय तो नहीं खोज रहा। कही अपराध करने के बाद खुद को अपराधी कहलाने से बचने के लिये गुस्सा पालने का नाटक तो नहीं हो रहा। और गुस्से गुस्से के खेल में व्यवस्था परिवर्तन का नारा लगा कर असल गुस्से से बचने का ढाल ही गुस्से को तो नहीं बनाया जा रहा है। क्योंकि वह कौन सी वजहे हैं, जिसमें सफेद कमाई और काली कमाई के बीच आम आदमी अंतर समझ नहीं पा रहा है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के वकीलों की जमात जो संघर्ष करते हुये सड़क पर दिखायी देने लगी है, वह सफेद कमाई से ही औसतन पचास करोड़ से ज्यादा की संपत्ति की मालिक है। जो शिक्षक गुस्से में हों, उसकी संपत्ति औसतन पांच करोड़ की है। जो पत्रकार गुस्से में है और स्क्रीन पर चिल्लम पौ करते हुये व्यवस्था बदलाव के नारे में हक का सवाल जोड़ रहा है। संवैधानिक कायदों को बता रहा है, उसकी संपत्ति करोडो में है। जो बाबू , जो डाक्टर, जो इंजीनियर और जो सामाजिक संस्था चलाते हुये संघर्ष के रास्ते निकले है उसकी दस्तावेजी कमाई चाहे करोड़पति वाली ना हो लेकिन उनके पीछे करोड़ों रुपये का ऐसा रास्ता है, जो उनकी सहुलियतों और उनके संघर्ष से उपजती सत्ता के पीछे सबकुछ झौकने के लिये तैयार है। यानी सुविधाओ की पोटली बांध कर संघर्ष करते हुये पेट के गुस्से को अपने अनुकुल परिभाषित करने को क्या व्यवस्था परिवर्तन माना जा सकता है। कहीं व्यवस्था की परिभाषा भी तो इस दौर में नहीं बदल दी गई। क्योंकि देश का बजट, देश की विकासमय नीतियां और देश के बाजार या विकास दर अब देश के नागरिकों पर नहीं बल्कि उपभोक्ताओं पर टिके हैं। उपभोक्ताओं के लिये जल, जंगल, जमीन, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा से लेकर सघर्ष का पाठ ही देश का सच मान लिया गया है। पानी के नीतिकरण में लूट, शिक्षा के भौतिकरण में लूट, स्वास्थय सेवा को बीमाकरण और रोजगार से जोड़ने में लूट। जंगल, जमीन और खनिज संपदा के खनन में लूट।
यानी व्यवस्था के उस खांचे में ही लूट जिसे एक खास तबके के लिये एक खास तबके के जरीये ही बनाया-लूटा जा रहा है। तो फिर इस लूट को सामने लाने का संघर्ष भी लूट के उपभोग को करने या ना कर पाने की मशक्कत से ही जुड़ा होगा। यानी कहीं संघर्ष और गुस्से को उपभोक्ता संस्कृति के जरीये नागरिकों से छीन कर उपभोक्तोओं के हाथ में तो नहीं दिया जा रहा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने में रोड़ा अटका रही है, जो उपभोक्ता हैरान परेशान हैं, वो सडक पर अपने गुस्से का इजहार करने के लिये जमा है। जिस उपभोक्ता की जेब उपभोग करने के साधन अब भी जुटा सकने में सक्षम है वह बेखौफ है। वह सत्ता के संघर्ष में अपने गुस्से का इजहार करने से नहीं चूक रहा। उसका सघर्ष या उसका गुस्सा सीधे सत्ता पर काबिज ना हो पाने का है। उसे संसदीय लोकतंत्र में उपभोक्ता तंत्र ही दिखायी दे रहा है। कॉरपोरेट हो या नौकरशाही। कांग्रेस हो या बीजेपी। पावर-खनन से जुड़े घराने हों या मीडिया घराना इनके बीचे संघर्ष या गुस्सा इसी बात को लेकर है कि सत्ता पाने चलाने में तो वह भी सक्षंम है फिर वह बाहर क्यों हैं। और सत्ता का मतलब ही जब उपभोक्ताओं का देश चलाना हो गया है, तब संघर्ष भी उपभोक्ताओं का ही होगा। और व्यवस्था परिवर्तन के ऐसे मोड़ पर उस आम आदमी के गुस्से उसके संघर्ष का देखेगा समझेगा कौन जहां रोटी-कपडा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य पहुंचता ही नहीं है। यह तादाद उपभोक्ताओं के संघर्ष से चार गुना ज्यादा है। और गुस्सा उसके पेट से बारुद में समाने को तैयार है। बस सवाल संस्थानों के ढहने का है। संयोग से उपभोक्ताओं का संघर्ष पहली बार इसमें मददगार है, क्योंकि अब न्याय अदालतों की जगह सड़क पर होगा, यह नारे शहरों में लगने लगे हैं। राबर्ट वाड्रा को बिना जांच क्लीन चीट दे दी गई। गडकरी की जांच हुई नहीं। अंजलि दमानिया की जांच रिपोर्ट भी जनलोकपाल दे नहीं पायी है। सलमान खुर्शीद पर लगे आरोपों की जांच के बीच ही राजनीतिक दोन्नति प्रधानमंत्री ने ही दे दी। संघर्ष करते केजरीवाल भी खुला ऐलान करने लगे है कि अदालत जाने का कोई मतलब नहीं है। न्याय जनता करे। यानी अगर अदालतें या कानून इसी तरह ढहेंगी तो फिर संघर्ष के तौर तरीको में कोई गैरकानूनी या गुनहगार होगा नहीं। सब कुछ राजनीतिक फैसले पर टिकेगा। तो इंतजार इसी का करें या अब भी संभल जायें। सोचिएगा जरा क्योंकि देश गुस्से में है।
Thursday, November 8, 2012
विसर्जन के फूल हो चुके हैं गडकरी
क्या भाजपा एक बार फिर 360 डिग्री में घूम कर लालकृष्ण आडवाणी के ही दरवाजे पर आ खड़ी हुई है। क्या आरएसएस एक बार फिर भाजपा अध्यक्ष पर फैसले के लिये आडवाणी को ही जिम्मदारी सौप आरोपमुक्त होना चाहता है। और इस घटनाक्रम में गुरुमूर्ति के शामिल होने का मतलब है कि इस बार आडवाणी के हर फैसले पर संघ की तरफ से मुहर गुरुमूर्ति ही लगायेंगे। यानी संकेत आरएसएस का, फैसला आडवाणी का और मुहर गुरुमूर्ति की। क्योंकि जिस तेजी से भाजपा के भीतर नीतिन गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने को लेकर चौसर बिछी और उसी तेजी से गडकरी के पीछे दिल्ली की चौकडी ही खड़ी हो गई तो समझना यह भी होगा कि संघ अब फूलों के निर्वाल्य के लिये तैयार है। यानी जिन फूलों को उसने सम्मान में चढ़ाया अब उसे विसर्जित करने को वह तैयार है।
लेकिन विसर्जन के फूल का भी सम्मान होता है तो गडकरी एक सम्मानित नेता के तौर पर ही अध्यक्ष पद छोड़ें तो ज्यादा अछ्छा होगा। यानी गडकरी को लेकर जो बहस गुजरात चुनाव तक थमनी थी, उसे 40 दिन [ 21 दिसबंर को दूसरा टर्न शुरु होगा ] पहले ही हवा देकर संकेत दे दिये गये कि नीतिन गडकरी की उल्टी गिनती
शुरु हो चुकी है। जाहिर है यह बात ना तो भाजपा के भीतर कोई कहेगा और ना ही संघ इसे कह पायेगा। लेकिन संघ की परंपरा बताती है कि वह भार लेकर साथ चलना नहीं चाहता है। यह आरएसएस की परंपरा ही है कि संघ ने एक वक्त कुप्प सी सुदर्शन तक को किनारे लगाया। यानी पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन को लेकर संघ परिवार के भीतर ही सवाल उठे और संघ में सरसंघचालक बदल गये। विहिप के प्रवीण तोगडिया और मनमोहन वैघ को नरेन्द्र मोदी के लिये किनारे किया गया । जिन्ना मुद्दे पर आडवाणी के खिलाफ सबसे सक्रिय प्रवीण तोगडिया को मोदी के आड़े आने पर संघ ने ही खामोश किया और मनमोहन वैघ को गुजरात से हटाकर नागपुर लाया गया। गडकरी नगपुर से ही आने वाले संजय जोशी को भाजपा में लाने के लिये भिड़े रहे लेकिन संघ कभी संजय जोशी के मुद्दे पर गडकरी के साथ खड़ा नहीं हुआ। तो परंपरा के लिहाज से संघ के लिये कॉरपोरेट फिलास्फी मायने रखती है, उसके लिये व्यक्ति का महत्व नहीं है। इसी परंपरा को निभाते हुये ही संघ के सामने उसी नीतिन गडकरी का सवाल आया, जिसे नागपुर के रास्ते दिल्ली भेजा। और दिल्ली में भाजपा की राजनीति करने वालो ने माना कि गडकरी भाजपा के नहीं आरएसएस की पंसद है। और संघ से पंगा कौन ले। इसलिये गडकरी अध्यक्ष पद पर भी रहे और भाजप के पारंपरिक राजनीति से अलग भी दिखायी देते रहे। यह अलग दिखायी देने को नीतिन गडकरी ने संघ की परंपरा से खुद को जोड़ने के लिये इस्तेमाल किया।
लेकिन उस दौर को भी याद करें तो सरसंघचालक मोहन भागवत ने बार बार यही कहा कि नीतिन गडकरी का नाम लालकृष्ण आडवाणी ने ही सुझाया था। संघ ने सिर्फ इतना ही कहा था कि अब कोई बुजुर्ग अध्यक्ष नहीं चलेगा। और इस कडी में लालकृष्ण आडवाणी ने एक एक कर कई नाम सुझाये। और चौथा नाम गडकरी का था, जिस पर संघ ने मुहर ला दी। तीन बरस पहले की इस गाथा के पन्नो को दोबारा टटोलना इसलिये जरुरी हो गया है क्योंकि एक बार फिर संघ और भाजपा दोनो ही उसी मुहाने पर आ खड़े हुये हुये हैं, जहां तीन बरस पहले खड़े थे। अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार अध्यक्ष को 2014 के चुनाव में अगुवाई करने वाले चेहरे के साथ जोड़कर देखना है। तो संघ ने लालकृष्ण आडवाणी को ही भाजपा में फैसले की जिम्मेदारी सौपी है। क्योंकि संघ भाजपा के भीतर मच रहे घमासान में फंसना नहीं चाहता है। और दूसरी बड़ी बात यह है कि भाजपा के फैसले पर संघ का कोई असर ना पड़े इसलिये नीतिन गडकरी से आरएसएस ने खुद को बाजू यानी अलग कर लिया है। संघ के भीतर सरसंघचालक मोहन भागवत का गडकरी से सिर्फ इतना ही प्रेम बचा है कि वह गडकरी को लेकर "चलेगा" शब्द का इस्तेमाल इसलिये कर रहे हैं क्योंकि वह गडकरी के हटने के बाद भाजपा में होने वाले घमासान से बचना चाहते हैं। लेकिन भैयाजी जोशी , दत्तात्रेय होसबोले , सुरेश सोनी और मनमोहन वैद्य दोबारा नीतिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष पद पर बैठाने के पक्ष में नहीं हैं। लेकिन भाजपा में गडकरी जैसा कोई प्रिय स्वयंसेवक मौजूदा वक्त में हैं भी नहीं तो गडकरी के मूल को बचाने के लिये ही गुरुमूर्ति को लगाया गया। क्योंकि नागपुर में स्वयंसेवकों के बीच नीतिन गडकरी को लेकर एक मान्यता यह भी बनी है कि अध्यक्ष पद हडकरी को बोनस के तौर पर मिला। क्योंकि गडकरी अपने धंधे को बढ़ाने में ही लगे थे। यानी एक बिजनेस-मैन की तरह गडकरी का राजनीतिक व्यक्तित्व भी नागपुर में बना और पूर्ति उघोग का मामला सामने आने के बाद राष्ट्रीय छवि भी राजनेता से ज्यादा बिजनेस-मैन वाली ही रही। सच यह भी है कि भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद भी पूर्ति इंडस्ट्री के चैयरमैन के पद पर गडकरी बने हुये थे। और दो बरस पहले गडकरी ने शरद पवार के इस सुझाव के बाद ही पूर्ति इंडस्ट्री के चैयरमैन पद से इस्तीफा दिया, जब पवार ने राजकाज करते हुये धंधे को ना करने का सुझाव दिया। यानी नागपुर में यह मान्यता आम है कि गडकरी ने खुद को राजनीतिक तौर पर तैयार सिर्फ इस रुप में किया, जहां पार्टी और संगठन चलाने का मतलब पैसो का जुगाड़ हो जाये। समूचा ध्यान हर सभा सम्मेलन को लेकर पूंजी से खुद को सफल बनाने में ही लगाया। संघ के भीतर भी इस सवाल की गूंज हुई कि राजनीतिक तौर पर कोई स्वयंसेवक भाजपा के अध्यक्ष पद पर रह कर कैसी सोच वाला होना चाहिये। आरएसएस के भीतर गडकरी को लेकर मचे इसी घमासान में संघ के संकेत के बाद ही नरेन्द्र मोदी को 2014 के लिये तैयार कर रहे एस गुरुमूर्ति दिल्ली पहुंचे । और लालकृष्ण आडवाणी की बिसात बिछनी भी शुरु हुई। तीन दिन पहले रविवार यानी 4 नंवबंर को यशंवत सिन्हा ने जब आडवाणी से मुलाकात की और बाद में शत्रुघ्न सिन्हा भी आडवाणी से मिलने पहुंचे और भाजपा अध्यक्ष गडकरी को लेकर
अपनी नाखुशी जाहिर की तो आडवाणी ने खुद कुछ कहने के बदले इस मुद्दे पर गुरुमूर्ति से मुलाकात का सुझाव यशंवत सिन्हा को दिया। जहां गुरुमूर्ति ने सिर्फ विरोध और नाखुशी की थाह ली। जबकि इससे पहले नीतिन गडकरी ने आडवाणी से मुलाकात की थी। तब आडवाणी को लगा कि गडकरी इस्तीफे की बात कहेंगे लेकिन गडकरी ना सिर्फ पूर्ति इंडस्ट्री के तमाम दस्तावेज बल्कि पूर्ति के तीन डायरेक्टरों को साथ लेकर लालकृष्ण आडवाणी से मिले और खुद को पाक साफ करार दिया। जाहिर है उस बैठक में गडकरी को लेकर भाजपा के भीतर बनते माहौल पर आडवाणी भी कुछ नहीं बोले। क्योंकि पूर्ति के डायरेक्टर भी मौजूद थे। कुछ ऐसा ही सुषमा स्वराज के साथ अनौपचारिक बैठक में हुआ। सुषमा ने कुछ भी नहीं कहा। जेटली ने भी इस मुद्दे पर खामोशी बरती। क्योंकि गडकरी की जगह भाजपा का अध्यक्ष होगा कौन इसपर ना तो आडवाणी अभी तक सहमति बना पाये है और ना ही गुरुमूर्ति समझ पाये हैं कि आखिर किस नाम पर सहमति होगी।
असल में दिल्ली की चकडी अगर गडकरी के पीछे खड़ी हो गई दिख रही है तो उसकी वजह संघ का अनुशासन भी है और खुद अध्यक्ष बनने की लालसा भी। और विरोध करने वाली चौकड़ी [जेठमलानी, जसवंत, यशवंत, शत्रुघ्न] में कोई नमस्ते सदा वतस्ले...कहकर भाजपा में आया नहीं है। इसीलिये ना संघ को इनकी परवाह है ना ही भाजपा में बैठे स्वयंसेवकों को। यह महज हथियार बने हैं गडकरी के खिलाफ नाखुशी को सतह पर लाकर गुरुमूर्ति को दिल्ली लाने के लिये। अब इनका काम खत्म हुआ। तो इंतजार किजिये 17 दिसंबर तक। जब गुजरात चुनाव में वोटिंग खत्म होते ही कोई नया युवा चेहरा मनोहर पारिकर की तर्ज वाला भाजपा अध्यक्ष होगा।
Friday, November 2, 2012
गडकरी हटे तो कौन और मोदी आये तो कौन?
बीजेपी को लेकर चारों दिशाओं को टटोलते दस स्वयंसेवक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहली बार अपनों को लेकर ही उलझा है। सरसंघचालक मोहन भागवत समेत दस टॉप स्वयंसेवकों की राय ना तो बीजेपी अध्यक्ष को लेकर एक है और ना ही 2014 के लिये अगुवाई करने वाले चेहरे को लेकर। गडकरी को दूसरा मौका ना दिया जाये तो दूसरा गडकरी कहां से लायें। और गडकरी के बदले अगर अरुण जेटली या मुरली मनोहर जोशी को अध्यक्ष बना दिया जाये तो फिर बीजेपी के भीतर सहमति कैसे बनायी जाये। क्या बुजुर्ग लाल कृष्ण आडवाणी के भरोसे बीजेपी को चलाया जाये। या फिर नरेन्द्र मोदी के अनुकूल ही बीजेपी के भीतर सबकुछ तय कर दिया जाये। इन्हीं सवालों के लेकर चेन्नई में हुई संघ की बैठक में जिस तरह स्वयंसेवकों की अलग अलग दिशाओ में जाती राय उभरी, उसने इसके संकेत तो दे ही दिये की बीजेपी से कम फसाद आरएसएस में भी नहीं है।
हालांकि यह संयोग भी हो सकता है। लेकिन जिस तरह बीजेपी अध्यक्ष और 2014 के लिये अगुवाई करने वाले चेहरे को लेकर संघ में घमासान है, उसके पीछे विचार से ज्यादा प्रांतवाद ही उभर रहा है। यानी पहली बार प्रांतवाद भी संघ में विचार के तौर पर उभर रहा है और बीजेपी नेताओं के नामों की फेरहिस्त में पुराने विचार ही खारिज हो रहे हैं। सरसंघचालक और सरकार्यवाह यानी मोहन भागवत और भैयाजी जोशी दोनों नागपुर से आते हैं तो दोनो ही गडकरी को हटाने के पक्ष में नहीं हैं। गडकरी भी नागपुर के हैं। इनके सुर में सुर मनमोहन वैघ का भी है। जो खुद भी नागपुर से आते हैं। वहीं आरएसएस और बीजेपी में पुल का काम कर रहे सुरेश सोनी का मानना है कि 2014 के लिये नरेन्द्र मोदी के नाम पर तो ठप्पा अब लगा ही देना चाहिये। और मोदी के साथ जिस नेता का तालमेल बैठे उसे अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाना चाहिये। सुरेश सोनी को नीतिन गडकरी को अध्यक्ष पद से हटाने या उनकी जगह किसी दूसरे को बैठाने में कोई परेशानी नहीं है।
सुरेश सोनी की रुचि सिर्फ नरेन्द्र मोदी को लेकर है। महत्वपूर्ण है कि सुरेश सोनी खुद गुजरात से ही आते हैं। और उन्हें लगता है कि मोदी के अनुकूल अध्यक्ष पद पर गडकरी के हटने के बाद अरुण जेटली फिट बैठ सकते हैं। यानी फ्रंट रनर के तौर पर अरुण जेटली का नाम है। लेकिन जेटली के नाम पर सुषमा स्वराज से लेकर राजनाथ और मुरली मनमोहर जोशी से लेकर वैकेया नायडू तक को एतराज है, जिसकी जानकारी इन सभी नेताओं ने पिछले दिनो दिल्ली के झंडेवालान जा कर भैयाजी जोशी और सुरेश सोनी को दे दी थी। सुरेश सोनी के बाद संघ में चौथे नंबर पर डा कृष्ण गोपाल आते हैं। डॉ गोपाल का मानना है कि अब वैचारिक तौर पर बीजेपी को खड़ा करने का वक्त आ गया है। यानी सियासी जोड़-तोड़ से इतर संघ की विचारधारा के अनुरुप बीजेपी का अध्यक्ष भी होना चाहिये। इस पद के लिये मुरली मनोहर जोशी सबसे फिट बैठेंगे। महत्वपूर्ण है कि डॉ गोपाल यूपी के ही हैं। संघ में पांचवा महत्वपूर्ण नाम दत्तात्रेय होसबोले का है। जिनके पीछे मदनदास देवी का हाथ है। स्वयंसेवक मदनदास देवी की राजनीतिक पहचान वाजपेयी सरकार के दौर में बीजेपी और संघ के बीच तालमेल बैठाने वाले स्वयंसेवक की है। और उस दौर में मदनदास देवी की करीबी लालकृष्णा आडवाणी से थी तो दत्तात्रेय होसबोले की राय लालकृष्ण आडवाणी पर जा टिकती है। होसबोले का तर्क है कि आडवाणी के अनुभव के आसरे बीजेपी को चलाना चाहिये। होसबोले कर्नाटक से आते हैं इसलिये गडकरी को हटाना चाहिये या नहीं इस पर इनकी राय फिफ्टी फिप्टी वाली है। लेकिन इन्हें लगता है कि आडवाणी ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी छतरी तले बीजेपी में कोई हंगामा नहीं होगा। लेकिन आडवाणी के रास्ते बीजेपी को लेकर चले तो राजनीतिक तौर पर बीजेपी का बंटाधार ही होगा और संघ के युवा स्वयंसेवकों में निराशा ही छायेगी। यह सोच छठे स्तर पर संघ में कद्दावर स्वसेवक मधुभाई कुलकर्णी का है। जिनका मानना है कि मौदूदा वक्त में बीजेपी को संघ का वैचारिक आधार चाहिये और भ्रष्टाचार को कोई दाग साथ ले कर चलना ठीक नहीं होगा। और इसी राय को सातवे नंबर के स्वंयसेवक बंजरंग लाल गुप्ता भी मानते हैं। यानी अध्यक्ष पद पर नीतिन गडकरी के बदले भी किसी ऐसे स्वसंसेवक को लाना चाहिये जो राजनीतिक तौर पर परिस्थितियों को समझे जरुर लेकिन संघ की विचारधारा से इतर राजनीतिक जरुरतों को ना मान लें। बंजरग लाल गुप्ता का मानना है कि मुरली मनोहर जोशी अध्यक्ष पद के लिये सटीक हैं। यूं मुरली मनोहर जोशी के अध्यक्ष पद के पुराने अनुभव और संघ के दरबार में बार बार नतमस्तक होकर वैचारिक महत्व बनाये रखने के प्रयास भी उन्हें संघ के लगातार करीब बनाये हुये है। वहीं आठवे और नौवे नंबर पर स्वयंसेवक श्रीकांत जोशी और अरुण कुमार हैं, जो बीजेपी से ज्यादा छेड़छाड़ करने के बदले सहमति बनाने की दिशा में ही कदम उठाना चाहते हैं। यानी बीजेपी के बदले संघ को ही लकीर खिंचनी चाहिये और बीजेपी के अनुरुप संघ को कदम नहीं उठाना चाहिये क्योंकि इससे नेताओं और स्वयंसेवकों के टकराव ही सामने आयेंगे। और इसे सुलझाने में ही संघ का वक्त निकलेगा।
और दसवें स्वयंसेवक के तौर पर वीहिप के अशोक सिंघल का मानना है कि पहले बीजेपी में अयोध्या में राम मंदिर निर्णाण और पंचकोशी में मस्जिद ना बनने पर सहमति होनी चाहिये उसी के बाद बीजेपी के अध्यक्ष पद और 2014 की अगुवाई करने वाले नेता के नाम पर सहमति होनी चाहिये। लेकिन खास बात यह भी है कि सिंघल पहली बार नरेन्द्र मोदी का विरोध नहीं कर रहे हैं। और यह संकेत बताते है कि सुरेश सोनी की इस बात को महत्व दिया जा रहा है कि 2014 के लिये तो नरेन्द्र मोदी ही सबसे उपयुक्त हैं और बीजेपी में जो भी फेरबदल होना है वह मोदी को ही ध्यान में रखकर होना चाहिये। इसलिये पहली बार मोदी से रुठा विहिप भी अब मोदी को लेकर खामोश है। जाहिर है इन सभी दस स्वयंसेवकों का अपना अपना कद भी है और अनुभव भी है। ऐसे में सरसंघचालक और सरकार्यवाह का मानना है कि विचारों के आदान प्रदान से ही कोहरा छंटेगा। इसलिये तत्काल कोई निर्णय लेना सही नहीं होगा। लेकिन बीजेपी के भविष्य को लेकर मंथन में जुटे संघ को भी अब यह समझ में आ रहा है कि जिन मुद्दों के आसरे बीजेपी को राजनीतिक तौर पर अब तक खड़ा हो जाना चाहिये था वह ना तो उस पर खड़ी हो पायी बल्कि उसके उलट सियासी तामझाम में फंसी। लेकिन संघ के भीतर से यह साफ होने लगा है कि जिस दिल्ली की चौकड़ी को कभी मोहन भागवत ने खारिज किया था अब उसी पर उनकी निगाहे टिकी हैं । क्योंकि पहली बार ही उनकी पसंद यानी नीतिन गडकरी को लेकर सवाल उठने लगे हैं। और यह सवाल लगातार बड़ा होता जा रहा है कि राजनीतिक तौप पर संघ की भूमिका सिर्फ राय देने वाली रहे तो ठीक या फिर चलाने वाली हो तो ठीक। लेकिन गडकरी के सवाल ने सरसंघचालक के सामने भी यह सवाल खड़ा कर दिया है कि कि गडकरी को अगर दूसरा मौका नहीं मिला तो भी जवाब देना होगा और अगर दूसरा मौका दे दिया तो भी जवाब मांगा जायेगा। यानी दांव पर साख संघ की ही लगी है।