Wednesday, November 21, 2012

ममता के पीछे कौन है ?


अविश्वास प्रस्ताव पर अविश्वास क्यों 

ठीक दो महीने पहले 20 सितंबर को रिटेल सेक्टर में एफडीआई के खिलाफ भारत बंद में सभी राजनीतिक दल एकजुट थे। मनमोहन सरकार को समर्थन करने वाले मुलायम से लेकर करुणानिधि और खांटी विरोधी लेफ्ट और भाजपा सभी एकजुट हो एक साथ भारत बंद करने में जुटे थे। लेकिन महज दो महीने बाद ही एफडीआई मुद्दे पर मनमोहन सरकार का विरोध संसद में कैसे हो सड़क के सारे साथी बिखर गये हैं। भाजपा को लगता है कि धारा 184 ठीक है तो लेफ्ट को 2008 याद आने लगा है, जब परमाणु संधि के खिलाफ समर्थन वापस लेकर वह अविश्वास प्रस्ताव लाया लेकिन सरकार ने मुलायम की व्यवस्था कर सरकार बचा ली। जाहिर है ऐसे में सबकि नजरे छोटे दलों पर जा टिकी है क्योंकि यह पहला मौका है जब मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर कोई राजनीतिक दल सहमत नहीं है। लेकिन मनमोहन सरकार खुले तौर पर यह कहने से नहीं चूक रही कि सरकार रहे या जाये लेकिन आर्थिक नीतियों के जरीये सुधार तो जारी रहेंगे। और दूसरी तरफ सरकार चली जाये इस पर आपसी अविश्वास तमाम राजनीतिक दलों में इस हद तक है कि संसद में ममता बनर्जी के अविश्वास प्रस्ताव पर ही सहमति नहीं बन पा रही है। तो क्या सरकार को कोई खतरा नहीं है और ममता
बनर्जी का अविश्वास प्रस्ताव हवा में उछाला गया एक दांव भर है।

अगर राजनीतिक घटनाक्रम को देखें तो सच कुछ और भी है और ममता बनर्जी का प्रस्ताव सिर्फ ममता के अकेले का गुस्सा भर नहीं है। यह सही है कि ममता के 19 सांसदों के जरिये मनमोहन सरकार पर ना तो कोई खतरा मंडरा सकता है और ना ही अविश्वास प्रस्ताव पर संसद बहस और वोट करा सकती है। अविश्वास प्रस्ताव के लिये पचास सांसदों के हस्ताक्षर जरुरी है। यह बात ममता बनर्जी जानती नहीं है ऐसा भी नहीं है। फिर इसी क्रम में जरा मुलायम सिंह यादव,मायवती,करुणानिधि,ठाकरे परिवार और शरद पवार के समीकरण को समझने की भी जरुरत है और इन तमाम राजनेताओं की पहल कैसे किस रुप में हो रही है, यह भी देखना जरुरी है। जिस समाजवादी पार्टी में चुनाव के महीने भर पहले टिकटों की मारामारी खुल कर होती रही है और परिवारवाद से लेकर समाजवाद और अपराध से लेकर भ्रष्टाचार के गठजोड़ पर मुलायम को टिकट बांटते बांटते हांफना पड़ता रहा है। वहीं मुलायम सिंह 18 महीने पहले ना सिर्फ 63 उम्मीदवारों का ऐलान दो खेप में कर देते हैं बल्कि कुछ सीट पर उम्मीदवारों में फेरबदल भी इस तरीके से करते हैं, जैसे चुनाव का ऐलान हो चुका है। वहीं मायावती के तमाम सिपहसलार सांसदों की हस्ती दिल्ली में सरकार के बीच लगातार बढ़ती है। चाहे मुकदमे हो या सुरक्षा व्यवस्था।

राहत और सुविधा बहुजन समाज पार्टी के सांसदो को बाखूबी मिलती हुई लुटियन्स की दिल्ली में देखी जा सकती है। और सरकार से यह करीबी सरकार चलती रहे की तर्ज पर ही दिखायी देती है। वहीं करुणानिधि की खामोशी सरकार को समर्थन देने के नाम पर आने वाले वक्त के इंतजार का एहसास भी कराती है और जयललिता को लेकर अपनी बिसात मजबूत करने की दिशा को भी टटोलती सी दिखती है। यह हालात प्रधानमंत्री के भोज में डीएमके सांसद का एफडीआई पर खामोशी बरतने से भी समझा जा सकता है और संसद सत्र के शुरु होने पर ही पत्ते खोलने के हथकंडे अपनाने से भी जाना जा सकता है। वहीं बालासाहेब ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना को लेकर उठते सवाल दिल्ली की गद्दी से ज्यादा उद्दव और राज ठाकरे के बीच बनने वाले समीकरण और शिवसेना के भविष्य को लेकर महाराष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाले ही ज्यादा है। शिवसेना के सामने अब सवाल हिन्दु सम्राट ठाकरे की जगह उद्दव ठाकरे का नरम पंथी विस्तार और राज का गरम पंथी संकीर्णता वाली राजनीति है। यानी हिन्दुत्व का वह चेहरा अब शिवसेना की जरुरत नहीं है, जिसे बाला साहेब के जरीये देखा-परखा जाता रहा और भाजपा की विचारधारा के करीब शिवसेना दिखायी देती रही। शिवसेना की यह बदली हुई परिस्थितियां शरद पवार के अनुकूल हैं। और शरद पवार जिस तरह मनमोहन सरकार से पिछले दिनों बार बार रुठे लेकिन कांग्रेस से कोई उन्हे मनाने आना तो दूर सरकार की तरफ से भी खामोशी बरती गई और यह माना गया कि गांधी परिवार से शरद पवार की दूरी अब भी बरकरार है। यानी हर राजनीतिक दल के नेताओं की पहलकदमी के केन्द्र में कही ना कही मनमोहन सरकार का रहना या ना रहना ही है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। इसलिये ममता बनर्जी के अविश्वास प्रस्ताव पर पैदा हुये अविश्वास को अगर राजनीतिक रणनीति मान लें । तो संसद सत्र शुरु होने के बाद क्या क्या हो सकता है, इसकी शुरुआत मुलायम सिंह यादव से ही करनी होगी।

यह तो तय है कि मनमोहन सरकार के गिरने से सबसे ज्यादा लाभालाभ मुलायम को ही होना है। क्योंकि उत्तर प्रदेश के हालात बताते हैं कि जैसे जैसे वक्त बीतता जायेगा वैसे वैसे समाजवादी पार्टी का जनाधार भी खिसकता जायेगा। क्योंकि बिगड़ी कानून व्यवस्था से लेकर फेल होते गवर्नेंस के बाद युवा अखिलेश सरकार के दौर में ही यूपी को मायावती का दौर याद आयेगा ही और आना शुरु भी हो गया है। तो मुलायम का लाभ मायावती के लिये सबसे बड़ा घाटा है। क्योंकि मुलायम के आगे बढ़ने का मतलब है भाजपा के लिये रास्ता बनना। और जिस तरह छह जिलों में सांप्रदायिक दंगे हुये हैं, वह मुलायम की मायावती को हाशिये पर ले जाने वाली राजनीति की पहली चाल है। जिसके अक्स में भाजपा को अपना लाभ भी दिखायी दे सकता है। तो ममता अविश्वास प्रस्ताव को लेकर यू ही तो नहीं चहकी है। पीछे मुलायम की बिसात तो होगी है। वहीं यह हालात करुणानिधि को भी उकसा सकते हैं। क्योंकि करुणानिधि के पास अब मनमोहन सरकार के सत्ता में बने रहने पर भी पाने के लिये कुछ भी नहीं है। लेकिन विरोध के स्वर या ममता के अविश्वास प्रस्ताव पर विश्वास जताने का वक्त तभी आयेगा जब विरोध करने पर सरकार गिरना तय हो जाये और तमिलनाडु की राजनीति में डीएमके यह बात पहुंचने में सफल हो जाये कि वह ना तो 2 जी स्पेक्ट्रम और ना ही सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर मनमोहन सरकार के साथ खड़ी है। यानी विरोध में खड़ी जयललिता को मिलने वाले राजनीति लाभ के सामानांतर करुणानिधि खुद को भी मनमोहन सरकार के खिलाफ खड़ा कर लें। तो ममता के अविश्वास प्रस्ताव के संसद के पटल तक पहुंचने के बाद करुणानिधि की चाल सरकार के पक्ष में जा नहीं सकती हैं। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार हो जाये इसके पीछे 9 सांसदों वाले शरद पवार खासे मायने रखते हैं। शरद पवार इस सच को समझते हैं कि महाराष्ट्र में बीते 13 बरस से एनसीपी-कांग्रेस की सत्ता से अब मोहभंग की स्थिति भी बन रही है। और मनमोहन सरकार की आर्थिक नीतियों से लेकर भ्रष्टाचार के जो सवाल केन्द्र सरकार के कामकाज से जुड़ते हुये दाग लगा चुके हैं, उसका असर आने वाले चुनाव पर पड़ेगा ही। फिर केन्द्र और राज्य में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चलाने के बावजूद एनसीपी के हाथ खाली ही हैं। और निजी तौर पर शरद पवार के तमाम प्रोजेक्ट को केन्द्र सरकार ने रोके ही रखा है। यानी शरद पवार की जो पहचान सत्ता में रहते हुये अपने प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिलाकर अपनों के लिये वारे-न्यारे करने के रहे है पहली बार केन्द्र से लेकर मुंबई तक में इसी पर ब्रेक लगी हुई है। राज्य में पृथ्वीराज चौहाण एनसीपी के भ्रष्टाचार की पोल पट्टी खोलने में लगे हुये हैं तो दिल्ली में 10 जनपथ को कोटरी पवार के लवासा प्रोजेक्ट से लेकर सिंचाई और एसईजेड पर भी सवालिया निशान लगाने के लिये लगातार हरकत में है। एनसीपी के भीतर यह चर्चा आम है कि पवार को और कोई नहीं बल्कि सोनिया गांधी के सलाहकार अहमद पटेल ही निशाने पर रखे हुये हैं। और पवार का संकट यह है कि महाराष्ट्र में जिस तरह एनसीपी चल रही है या एकजूट है उसके पीछे पवार के सत्ता समीकरण ही है।

यानी जिस दिन पवार की सत्ता गई उस दिन एनसीपी के नेताओं में भगदड़ मची और कांग्रेस के दरवाजे पवार माइनस एनसीपी नेताओं के लिये खुले। तो पवार की पहली और आखिरी मजबूरी सत्ता के साथ बने रहने का ही है। लेकिन मनमोहन सरकार के खिलाफ बनते राजनीतिक माहौल की टोह अब पवार भी ले रहे हैं। और इसका एक नजारा बाबासाहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा के वक्त शरद पवार की पहल में नजर आया। जो उद्दव और राज दोनों के करीब खुद को खड़ा करने से लेकर लालकृष्ण आडवाणी को सहारा देकर उठाने के तरीके तक ने जता दिया कि आने वाले वक्त में पवार महाराष्ट्र में नये समीकरण बनाने की दिशा में बढ़ सकते हैं। तो ममता बनर्जी के अविश्वास पर सरकार का गिरना अगर तय होगा तो शरद पवार महाराष्ट्र सरकार को गिराने के लिये भी कदम बढ़ा सकते हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि तब शिवसेना और पवार के समीकरण सत्ता बनाने की नयी गुंजाईश भी महाराष्ट्र में पैदा कर सकते हैं। और ऐसे मौके पर उद्दव और राज ठाकरे के साथ आने के रास्ते भी सत्ता के जरीये खुलेंगे जो शिवसैनिकों और एमएनएस के युवाओं को साथ खड़ा होने के रास्ते भी बनायेगें। जाहिर है ऐसे में यह सवाल जायज है कि क्या ममता बनर्जी ने एफडीआई के मुद्दे पर मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सिर्फ सभी समीकरणों को राजनीतिक जमीन देने के लिये रखा है या फिर मुलायम, करुणानिधि और शरद पवार की खामोश रणनीति के तहत ममता बनर्जी ने यह पहल की है। क्योंकि भाजपा का चिंतन और सीपीएम का खुला विरोधभी बताता है कि अविश्वास प्रस्ताव पर हर रास्ता अभी  भी खुला है जो मनमोहन सरकार के लिये खतरे की घंटी है।

2 comments:

  1. sir aap ke lekh padh kar lagta hai ki abhi sacchi patrakarita jeevit hai....keep this spirit going
    aapka ek fan

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  2. pls sir leave zee news..pls big fan of urs' but painful to see u in zee after jidal episode.

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