सलवाजुडुम के असल निर्माता मधुकर राव अब निशाने पर
महाराष्ट्र से छत्तीसगढ में जिस खामोशी और आसानी से नक्सलवाद ने कदम रखा शायद उस आसानी से पुलिस, प्रशासन या सरकार नक्सलवाद के पीछे नकेल कसने के लिये ना भाग सकी ना ही थाम सकी। और इसका अहसास हमें रेडकॉरिडोर की यात्रा करते हुये 28 मई 2013 की आधी रात तब हुआ, जब हम नक्सली रास्ते से महाराष्ट्र से छत्तीसगढ पहुंचने का प्रयास कर रहे थे। महाराष्ट्र से छत्तीसगढ़ जाने का नक्सलियों के लिये सबसे सुगम लेकिन सुरक्षाकर्मियो के लिये सबसे कठिन रास्ता गढ़चिरोली के पातालगुड्डम से इन्द्रवती नदी पार कर बीजपुर के भोपालपट्टनम में प्रवेश करना है। लगातार साढे तीन घंटे जंगल के बीच गाड़ी की रोशनी के आसरे गढ़चिरोली के पातालगुड्डम की दिशा में हम इसलिये बढ़े जा रहे थे क्योकि क्षेत्र में रहने वाले ग्रामिण-आदिवासी अगर भरोसे के साथ कह रहे थे कि नदी पार करना आसान है तो दूसरी तरफ जानकरी यह भी मिली कि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ के बीच बहने वाली नदी इन्द्रवती के सबसे करीब या सटे हुये गांव में एक ट्रैक्टर है जो फोर व्हील वाली गाडी ना होने पर खींच कर नदी पार करवा देता है। साढे तीन घंटे का यह सफर इसलिये सुहावना अंधेरे में भी लग रहा था क्योकि इस रास्ते कभी पुलिस ने कदम नहीं रखे। वन अधिकारी हिम्मत नही कर पाते और इस रास्ते का मतलब था सवा सौ किलोमीटर गाडी दौड़ाने से बचना भी और नदी पार करने के बाद उस मधुकर राव से मुलाकात करना, जिसने सलमा जुडुम की नीव रखी और महेन्द्र कर्मा की हत्या के बाद किसी भी दिन मधुकर राव की हत्या नक्सली कर सकते हैं, जिसका एलान हो चुका है। असल में छत्तीसगढ में खूनी नक्सली संघर्ष को जानने के लिये यह समझना वाकई महत्वपूर्ण है कि कैसे और क्यों सलवा जुडुम को उभारा गया और आखिर रमन सिंह सरकार ने क्यों सलवा जुडुम को अपना राजनीतिक हथियार बनाया। चूंकि छत्तीसगढ़ जाने के जिस रास्ते को हमने चुना था उसमें लैंड माईन होने के खतरे तो थे और बचने का उपाय यही था कि सलवा जुडुम, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज कर दिया, उसके मर्म को समझने के लिये आदिवासियो के बीच रहने वाले उन कमांडरो को भी साथ ले लिया जाये, जो पहले से जानते हैं कि किन रास्तों पर लैंड माईन हैं या जिन रास्तो से हमें गुजरना है वहां से गुजरना सही है या नहीं। तो सफर सिरोंचा से शुरु होकर पातालगुड्डम तक पहुंचने के बीच में कई नये सवाल हमारे सामने आ खड़े हुये। क्योंकि मधुकर राव ने नब्बे के दशक में जब सलवाजुडुम का सवाल आदिवासियो के संघर्ष को लेकर उठाया था तो उस वक्त नक्सली और पुलिस संघर्ष के बीच उनके अपने गांव के आदिवासी लड़कों की पिटाई पुलिस ने भी की थी और नक्सलियो ने भी। मधुकर राव न्याय की आस लगाकर पहले स्थानीय पुलिसकर्मियो से फिर जिला कलेक्टर से मिले थे।
लेकिन नक्सली के पुलिस संघर्ष के बीच उन्हें उन गांव वालों को लेकर कभी आसरा नहीं मिला और उसी के बाद पहली बार सलवाजुडुम कच्ची शक्ल में बीजापुर में सामने आया। लेकिन शुरुआती दौर में इसका असर यह हुआ कि इसे शांति संघर्ष देने का नाम मधुकर राव ने किया तो पुलिस ने नक्सलियो के खिलाफ अपने हर इनकाउंटर के बाद मधुकर राव के शांति संघर्ष को ही ढाल बना लिया और पुलिस संकेत यही देती रही कि वह आदिवासियों के हक के लिये नक्सलियों को निशाने पर ले रही है। यह बात रात के अंधेरे में गाड़ी में बैठा अगर एक कमांडर कह रहा था तो दूसरी तरफ बीस बरस पहले नक्सली रास्ता छोड़ गांव की खेती से जुड़े एक पूर्व नक्सली ने सलवाजुडुम और पुलिस संघर्ष गाथा का नायाब सच बताया, जिसकी तस्वीर फिलहाल समूचे रेडकॉरिडोर में धीरे धीरे फैल भी रही है और छत्तीसगढ इसमें अग्रणी है। पूर्व नक्सली ने बात महेन्द्र कर्मा को लेकर ही शुरु की कि कैसे मधुकर राव के विचार का राजनीतिकिकरण तो महेन्द्रकर्मा ने अपनी सियासत और पैसा जुगाडने के लिहाज से जनजागरण अभियान के नाम पर किया। जिसमें अदिवासियो को ढाल बनाया गया लेकिन स्थानीय दुकानदार और जंगल में पेड से लेकर तेदूं पत्ता के धंधे से जुडे ठेकेदारों का हित साधना शुरु किया। पुलिस के लिये महेन्द्र कर्मा की यह पहल अनुकुल थी। क्योंकि अब पुलिस कार्रवाई सुरक्षा के नाम पर भी हो सकती थी। तो खूनी संघर्ष की इस आहट में अगर अजित जोगी का दिमाग 2002-03 में जागा तो
2005 में रमन सरकार ने इस मौके को पूरी तरह हथियाने की बिसात बिछायी। महेन्द्र कर्मा खुद आदिवासी थे और जोगी भी आदिवासी थे तो कांग्रेस की सत्ता के दौर में खनिज की लूट उस हद तक शुरु नहीं हुई। लेकिन जैसे ही सलवा-जुडुम के नाम पर पुलिस की तादाद बढ़ने लगी। हथियारों की आवाजाही आदिवासी के नाम पर खुले तौर पर होने लगी। वैसे ही टाटा और एस्सार के साथ खनिज-खनन के एमओयू पर राज्य सरकार के द्सतख्त हुये और झटके में आदिवासी के नाम पर खनन माफिया और उङोगपतियों की सुरक्षा ही नक्सली संघर्ष की कहानी में तब्दील किया गया। असर इसी का हुआ कि गोली किधर से भी चली मौत आदिवासियो की ही हुई। और उसी का असर हुआ की इस संघर्ष में गांव के गांव खाली होने लगे। लाखों विस्थापित आदिवासी आंध्र भी भागे और राज्य सरकार की शरण में भी पहुंचे। इसी कडी में दोरणपाल में सवा लाख आदिवासी पहुंचे। जहां विस्थापित आदिवासियों के कैंप लगाये गये। चारों तरफ सुरक्षा कैंप और दोनों को एक दूसरे का आसरा। क्योंकि सुरक्षाकर्मियों को लगा कि उनके अगल बगल विस्थापित आदिवासी है तो वहां नक्सली हमला नहीं होगा और विस्थापित आदिवासियों को लगा कि जब वह सुरक्षाकर्मियो के कैंप से ही घिरे है तो उन पर
हमला कोई क्या करेगा।
खैर इस चर्चा के बीच हमारी गाड़ी दो किलोमीटर गलत रास्ते पर चली गई और उबड-खाबड रास्ते पर और आधे घंटे बरबाद हुआ लेकिन जब नदी किनारे जब पहुंचे तो पता चला ट्रैक्टर के दोनो बड़े पहिये इतने खिंच
चूके है कि वह बालू को पकड़ नहीं पाते है और कल रात ट्रैक्टर ही रेत पर फंस गया था। और गांव में अभी कोई फोर व्हील गाड़ी भी नहीं है। यानी गाड़ी के साथ नदी पार करना मुश्किल है। हालांकि नदी में पानी घुटने भर ही है। तो आधी रात में तय यही हुआ कि बीजापुर के कुटरु गांव तक तो पहुंचना अब मुश्किल है लेकिन छत्तीसगढा जाना ही है तो आंध्रप्रदेश के रास्ते से छत्तीसगढ जाया जाये। आंध्रप्रदेश के जिस रास्ते छत्तीसगढ जाना था, असल में उस रास्ते पर चलने के दौरान समझ में यह भी आ गया कि आंध्र मेन पीपुल्स वार ग्रूप अगर सिमटा तो बस्तर का इलाका नकसलियों के लिये स्वर्णिम क्यों हो गया । और छत्तीसगढ में नक्सली हिसा आंध्रप्रदेश से अलग क्यों है। आंध्र की सीमा रात के अंधेरे में सिरोचा में बने कच्चे नक्सली पुल से ही हमने पार की। अदिलाबाद, करीमनगर और वारगंल के पांच किलोमीटर के पैच के बाद खम्माम से सटे हये उस आखिरी पाइंट पर सुबह साढ़े सात हम जा पहुंचे, जहा तीन राज्यों की सीमा लगती है। खम्माम का आखिरी गांव चेट्टि है और उससे सटा हुआ है छत्तीसगढ के दंत्तेवाडा का कोंटा और उडीसा के मलाकनगिरी का डोगरघाट। नक्सलवादियों के लिये यह रास्ता रणनितिक तौर पर कितना सुगम हो सकता है इसका अंदाज इसी से लग सकता है खम्माम के छोर यानी चेट्टि गांव से कुछ पहले सुबह छह-साढे छह बजे के करीब हमें सड़क पर चाय की दुकान पर एसएलआर और एके-47 लटकाये चार नक्सिलियों का एक गुप मिला। जिसे कोई खौफ नहीं था और चाय दुकान का मतलब है एक चोटे से गांव के किनारे की सड़क पर चलते फिरते लोग भी इसमें कोई अचरज नहीं कर रहे थे। हो सकता है यहां हमारे दिमाग में सवाल नक्सलियों की सामानातंर सरकार का उठा हो। जो था भी लेकिन जिस तरह समूचा वातावरण सामान्य था और कमर में गोलियों को लपेटे, कंधे पर बंदूक लटकाये युवाओं की यह टोली मस्ती में चाय की चुस्की ले रही थी, वैसे में रुके हम भी। चाय हमने भी पी। कुछ बात हमनें भी की। हमारे साथ पूर्व नक्सली तेलुगु जानते थे तो तेलुगु में उनसे बात भी हुई। उन्होंने हमारे बारे में भी बताया। जिक्र छत्तीसगढ के हमले का भी हुआ। लेकिन जो समझे और जो समझाया गया उसका मतलब साफ था कि दण्काराण्य में अब नेतृत्व बदल रहा है। राजनीतिक तौर पर सलवाजुडुम के समर्थक रहे और भी निशाने पर आयेंगे। कुल बारह लोगो का जिक्र भी हुआ, जिन्हें निशाने पर लेना है। और रणनीतिक तौर पर राजनीति या राजनेताओं को किस हद तक निशाने पर लेना है, उसकी भी नयी रणनीति पूरे दण्काराण्य के लिये बदल रही है। ज्यादा वक्त गुजरा नहीं, वह चारों एक सामान्य सी चाल में निकल पड़े और हम एक घंटे बाद चेट्टि गांव के उस मुहाने पर पहुंचे जहां आध्रप्रदेश की सीमा खत्म होती और छत्तीसगढ़ शुरु होता है। और उससे सिर्फ एक किलोमीटर की दूरी पर अगर सडक के रास्ते चले तो उडीसा शुरु होता है। लेकिन खेत के रास्ते सिर्फ 400 मीटर बाद ही उडीसा शुरु हो जाता है। और एक खेत तो ऐसा मिला, जिसकी सीमा तीनों राज्यों को छूती है। यानी जिन तीन राज्यों में नक्सलियों से निपटने के लिये तालमेल नहीं उसी तीन राज्यों के बीच एक खेत ऐसा भी है, जो अन्न यह सोच कर नहीं उपजाता कि वह किस राज्य में है। और यह जगह नक्सलियों के लिये एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने के लिये सबसे सरल भी है। और इस इलाके में माना यही गया कि दरभा घाटी में हिंसा करने के बाद नक्सलियो का एक ग्रूप आंध्र की तरफ आ गया तो दूसरा उडीसा चला गया। तो छत्तीसगढ के कोण्टा का इलाका और कोण्टा से ही सीधी सडक सुकुमा तक है। जहां वाकई भारत सरकार की नहीं नकसलियों की सामानांतर सरकार चलती है।
(जारी.........)
सर तारीख 28 जून लिखी है ये 28 मई होगी क्या? और बाकि पोस्ट बहुत अच्छी है अगर इसे रिपोर्ट के रूप में आजतक पर दिखाया जाये तो और भी अच्छा होगा.
ReplyDeletehttps://www.youtube.com/watch?v=FiMk9uGpCkU&feature=youtube_gdata_player
Deletebahut umda,sir.....
ReplyDeleteKuch samadhan sambhav hai sir .....
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