चुनाव की चुनौती, विजय का संकल्प और नरेन्द्र मोदी की नियुक्ति। 2014 के लिये नरेन्द्र मोदी को प्रचार अभियान समिति का चेयरमैन घोषित हुये राजनाथ सिंह ने यही तीन लकीर खींची। लेकिन इस ऐलान के 24 घंटे पूरे होने से पहले ही लालकृष्ण आडवाणी ने चुनौती और संकल्प का मिजाज उठाकर राजनाथ सिंह के ऐलान के तरीके को जिस तरह पार्टी के पदो से इस्तीफा देकर चुनौती दी, उसने पहली बार इसके संकेत दे दिये कि बीजेपी 70 के दशक के जनसंघ के दौर में आ खड़ी हुई है। चार दशक बाद बीजेपी में जो कुछ हुआ उसने चार दशक पहले बलराज मधोक के अटल बिहारी वाजपेयी पर लगाये उस इल्जाम की याद दिला दी जब वाजपेयी से इंदिरा से मिलकर राजनीति करने और जनसंघ से बडा कद वाजपेयी का बनाने का सिलसिला शुरु हुआ था। संयोग से उस वक्त पत्र बलराज मधोक ने लिखा था और आरएसएस को सक्रिय होना पड़ा था। लेकिन सीधे तौर पर संघ ने जनसंघ की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप नहीं किया था लेकिन चार दशक बाद परिस्थितिया उल्टी हैं। पत्र लालकृष्ण आडवाणी ने लिखा। और इल्जाम पार्टी की कार्यप्रणाली पर लगाकर अपना कद बीजेपी के बाहर कहीं ज्यादा बड़ा कर लिया। इस बार आरएसएस ने इतिहास बदलते हुये सीधा हस्तेक्षेप किया और बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक से सीधी बातचीत की। और जो समझौते का रास्ता संघ के हस्तक्षेप से बाहर निकला उसने भी बीजेपी के तरिक लोकतंत्र या राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी की सोच की धज्जियां उड़ा दीं। क्योंकि समझौते के फार्मूले के तहत जो सामने आया उसके मुताबिक राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का एलान नहीं करेगी। और 2014 के चुनाव परिणाम के बाद अगर हालात आडवाणी के पक्ष में गठबंधन के जरीये झुकते है तो छह महीने के लिये आडवाणी का रास्ता भी प्रधानमंत्री बनने के लिये संघ रोकेगा नहीं।
सवाल तीन हैं क्या काग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए के जरीये जिस हालात में देश आ पहुंचा है, उसमें बीजेपी मान चुकी है कि ये संघर्ष करने की जरुरत नहीं है. सत्ता उसके पास चल कर खुद आ जायेगी। दूसरा सवाल है कि क्या आरएसएस ऐसे मौके को हाथ से कोने नहीं देना चाहता है। इसलिये मोदी की अगुवाई में संघ उस राजनीतिक प्रयोग को बीजेपी में करना चाह रहा है जिसे अटल-आडवाणी ने अपने दौर में करने नहीं दिया। यानी पहली बार संघ को लगने लगा है कि नेताओं के बदले कार्यकर्ताओं की पार्टी बीजेपी की होनी चाहिये। वहीं दूसरी तरफ बीजेपी के सबसे बुजुर्ग नेता के बगैर बीजेपी चल नहीं सकती इसे भी सरसंघचालक ने आडवाणी से सुलह कर जता दिया। तो फिर असल में आडवाणी के साथ समझौते का फार्मूला रहा क्या और मोदी का मतलब बीजेपी के लिये होगा क्या है। तो जरा परिस्थितियों को परखें। जब राजनाथ ने गोवा में मोदी के नाम का एलान किया, उस वक्त वही शख्स बीजेपी के नेताओं की उस कतार में नहीं था जो ऐलान के वक्त मौजूद थे। और जो मौजूद थे,ऐलान के वक्त खामोश थे। खामोशी को तोड़ा जश्न के हुडदंग ने। कार्यकर्ताओं के हुजुम ने नारों के साथ जो जश्न मनाना शुरु किया उसके संकेत कई निकले। सवाल उठा क्या बीजेपी में एक नये युग की शुरुआत हुई। वाजपेयी आडवाणी के बाद मोदी युग की। और इस युग में नेता सिर्फ मोदी और बाकि कार्यकर्ता होंगे। यह सवाल इसलिये क्योंकि बीजेपी की अगुवाई में एनडीए की सत्ता भोगते -भोगते सिर्फ बीजेपी के कैडर में ही जंग नहीं लगी बल्कि संघ के स्वयसेवक भी मस्ती में खोये। संघ के मुद्दे भी हवा हवाई हुये और दिल्ली से चलायी जाने वाली बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हुआ। इस दौर माना यही गया सत्ता चाहिये तो बीजेपी को संघ की जमीन पर नहीं दिल्ली की सियासी समझ के अनुसार चलना होगा। शायद इसीलिये जिस मोदी को दिल्ली की सियासी समझ में अछूत करार देने का प्रयास बार बार हुआ। वहीं मोदी बार बार पलटे और उसी मोदी के आसरे बीजेपी में अलख जगाने का सपना संघ ने देखा। और मोदी के नाम के ऐलान से ही हर प्रांत में बीजेपी का कार्यकर्ता नाचता गाता, मिठाई बांटता और पटाखे छोडता सड़क पर आ गया।
तो क्या मोदी की पहचान मौजूदा राजनेताओं की कतार से एकदम अलग है। क्योंकि इसी दौर में नेताओं की साख और चमक सड़क के आंदोलनों में खत्म भी हुई और घूमिल भी पड़ी। हर पार्टी का नेता जनता को एकसा दिखायी देने लगा है। और किसी भी नेता को कोई भी पद सौपा जाये किसी भी पार्टी के कैडर या आम कार्यकर्ताओं में कोई बड़ी थिरकन देखने को नहीं मिलती है। लेकिन नरेन्द्र मोदी यही अलग दिखायी दिये. क्योंकि वह दो दो हाथ करने के लिये तैयार रहे। भाषणों में गांधी परिवार को नहीं बख्शा तो गुजरात की चमक के पीछे मनमोहन के अर्थशास्त्र से बड़ी कारपोरेट लकीर खींच दी। चीन पाकिस्तान के मसले को राष्ट्रवाद से जोड़ा और सरदार पटेल को जगाकर नेहरु को खारिज करने की लकीर खींचनी शुरु की। और तो और गुजरात दंगो की ताप को 11 बरस बाद भी माफी मांगे बगैर दिल में जलाये रहे। यानी मोदी अलग दिखते रहे और गुजरात में लगातार सफल होकर टिके भी रहे। यानी आक्रोश की भाषा के साथ मौजूदा राजनीति को लेकर पैदा होते जन-आक्रोश को ही अपना हथियार बनाने का अदभूत खेल मोदी ने खेला। शायद इसीलिये गुजरात के बाहर निकल कर 2014 के मिशन की अगुवाई पर जैसे ही मुहर लगी, मोदी के ना शब्द बदले ना अंदाज और ना ही तेवर बदले। भाषण में पाच बार मनमोहन सरकार को बेशर्म कहा। और हर किसी ने जमकर ताली पीटी। और मोदी युग की शुरुआत हुई। लेकिन गोवा में शुरुआत तो दिल्ली में उसी शुरुआत पर मठ्ठा डालने की कवायद भी संघ के एक दूसरे स्वयंसेवक ने की। और निशाने पर लिया भी स्वयंसेवक को। और रास्ता दिखाने भी स्वयंसेवक यानी सरसंघचालक को आना पड़ा। क्योंकि नरेन्द्र मोदी को कैपेन कमेटी का चैयरमैन बनाने पर संघ की हरी झंडी देने के साथ ही सरसंघचालक मोहन भागवत और सहकार्यवाह भैयाजी जोशी ने इशारा यही किया कि बीजेपी में सहमति बनाकर काम हो । लेकिन सहमति की जगह जिस तेजी से मोदी की ताजपोशी गोवा में दिखायी दी उसके पीछे भी बार बार बीजेपी अधयक्ष राजनाथ ने संघ की ही दुहाई दी। और संघ की दुहाई के पीछे संघ और बीजेपी में पुल का काम करने वाले सुरेश सोनी और संसदीय बोर्ड में संघ की नुमाइन्दगी करते रामलाल की सहमति थी। और राजनाथ ने इसे ही आधार बनाकर बीजेपी के भीतर ही नहीं आडवाणी को भी यही संकेत दिये की जो संघ चाहता है उसे वह सिर्फ लागू करवा रहे है। और यही बात सबसे बुजुर्ग स्वयंसेवक को नहीं भायी। आडवाणी अड़े कि राजनीतिक दल कैसे चले और उसमें कैसे निर्णय लिये जायें यह संघ तय नहीं कर सकता। लेकिन खुद का रास्ता निकलवाने के लिये वह संघ के सामने झुकने को तैयार हो गये।
समझौते के फार्मूले में तीन निर्णय सामने आये। पहला, राजनाथ सिंह कोई भी निर्णय आडवाणी से परामर्श के बगैर नहीं लेंगे। यानी आडवाणी पार्टी के भीतर परामर्श और सुझाव देने वाले बुजुर्ग नेता के तौर पर लगातार गाईड करते रहेंगे। यानी गोवा सरीखे निर्णय जिस तरह लिये गये वैसा दोहराव नहीं होगा। दूसरा रामलाल को संसदीय बोर्ड से हटाया जायेगा। और इस पर संघ की तरफ से तीन महिने पहले मार्च में हुई प्रतिनिधी सभा में रामलाल को हटाने पर हुई सहमति की जानकारी संघ की तरफ से संघ को दी गई। यानी रामलाल को लेकर पहले ही निर्णय लिया जा चुका है। यह जानकारी आडवाणी को दी गई। और तीसरा सुरेश सोनी की भी संघ के संगठन में वापस बुलाया जायेगा। सोनी के बारे में भी संघ की तरफ से यही कहा गया कि लगातार बिगडती तबियत की वजह से सोनी जी ने पहले ही पद छोड़ने को कहा था । लेकिन अब इसे लागू कराया जायेगा ।
यानी आडवाणी ने अगर अपना उगला दूबारा निगला तो राजनीतिक तौर पर यह आडवाणी की जरुरत भी थी और संघ ने आडवाणी को जिस तरह गाइड के तौर रखकर राजनाथ को हिदायत दी, उससे संघ के अनुकुल परिस्थितियां भी बनीं। क्योंकि मोदी को ढाल बनाकर राजनाथ जिस संघ के आसरे चाल चल रहे थे उसे थाम कर झटके में संघ ने आडवाणी को गाइड की भूमिका में भी ला दिया और मोदी की बेखौफ उड़ान पर भी लगाम लगा दी।
bahut hi badia deep analysis ki hai aapne.Aap nitish ke baare mein likhyega wo kis raaste pe chale hian ,,aaisa lag raha hai 3rd front ke sareekhe wo bi PM banne ka sapna dekh rahe hian ...door ke sooch rahe hian Nitish ..kripa likhiyega jarror
ReplyDeleteक्या आडवानी ने इस्तीफे के समय जो नोट जारी किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि ...पार्टी जिस दिशा में बढ़ रही है उसके साथ चलना मेरे लिए मुश्किल है--कई नेता सिर्फ व्यकितगत एजेंडे पर काम कर रहे है... तो सवाल उठता है कि क्या इस्तीफे के बाद व्यक्तिगत एजेंडा काम करना बंद हो गया ....?
या फिर चाल चरित्र चेहरे की बात करने वाली इस पार्टी के परिपक्व नेता भी इस कदर महत्वकांक्षी हैं कि
अपना उगला भी दूबारा निगल लेगें ?
सर मैं आपका फैन हूँ। pls भाजपा और jdu के बारे में लिखियेगा
ReplyDeleteसर मैं आपका फैन हूँ। pls भाजपा और jdu के बारे में लिखियेगा
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