पीएम की दौड़ में नरेन्द्र मोदी जिस तेजी से सरदार पटेल को हथियाने में लगे हैं, उसने पहली बार यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि कहीं वाजपेयी और आडवाणी की राह पर ही तो मोदी नहीं चल पड़े हैं। क्योंकि जिस धर्मनिरपेक्षता को वैचारिक स्तर पर सरदार पटेल ने रखा उससे आरएसएस ने कभी इत्तेफाक नहीं किया। और संघ ने राष्ट्रवाद की जो परिभाषा गढ़ी उससे बिलकुल अलग सरदार पटेल का राष्ट्रवाद था। पटेल ने भारत के इतिहास को स्वर्णिम बनाने में सम्राट अशोक के बराबर ही मुगल सम्राट अकबर को भी मान्यता दी। और विभाजन के बाद जब दंगों को लेकर देश जल रहा था जब कई सभाओ में सरदार पटेल ने मुस्लिमो को यह कहकर चेताया कि जिन्हें पाकिस्तान जाना है, वह अब भी जा सकते है। लेकिन जब आप भारत में है तो फिर देश की अखंडता और संप्रभुता से खिलवाड करने नहीं दिया जायेगा। लेकिन साथ ही मुस्लिमों को यह भरोसा भी दिलाया कि हिन्दुओ के बराबर ही मुस्लिमों को भी अधिकार मिलेंगे। और इसमे सरकार कोई कोताही नहीं बरतेगी। ध्यान दे तो मोदी बेहद बारीकी से उसी राह को पकड़ना चाह रहे हैं जिस राह पर अटल बिहारी वाजपेयी पीएम बनते ही चल पड़े थे। पीएम बनने के बाद वाजपेयी ने संघ के मुद्दों पर कभी ध्यान नहीं दिया। आडवाणी ने जिन्ना के जरीये धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहना। और नरेन्द्र मोदी जब से पीएम पद के उम्मीदवार बने हैं, उन्होंने मंदिर मुद्दे को कभी नहीं उठाया। मंदिर से पहले शौचालय का मुद्दा उठाया। बुर्का और टोपी के साथ मुस्लिमों को रैली का खुला आमंत्रण भेजा। और अब सरदार पटेल की धर्मनिरपेक्षता की खुली वकालत कर दी। जाहिर है यह रास्ता संघ के स्वयंसेवक का नहीं हो सकता। तो क्या मोदी पीएम की दौड़ के लिये संघ का रास्ता छोड़ खुद को स्टेटसमैन के तौर पर रखना चाहते हैं। यानी मोदी सरदार पटेल के जरीये जो लकीर खींच रहे हैं, वह संघ को फुसलाती भी है और संघ को एक वक्त के बाद झिड़कने के संकेत भी देती है। लेकिन आरएसएस इस हकीकत को समझ रहा है कि मोदी इस वक्त सबसे लोकप्रिय स्वयंसेवक हैं तो सत्ता संघ के हाथ आ सकती है और मोदी इस सच को समझते हैं कि सत्ता पाने के लिये संघ का साथ जरुरी है। तो मोदी घालमेल की सियासी बिसात बिछा कर पहले राउंड में कांग्रेस के पांसे से ही कांग्रेस को घेरना चाह रहे हैं। जिससे संघ भी खुश रहे और उनकी छवि भी धर्मनिरपेक्ष बने।
ऐसा नही है कि मोदी ने पटेल के उन पत्रों को नहीं पढ़ा होगा, जो महात्मा गांधी की हत्या के बाद लिखे गये। पटेल ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद कहा था ,मेरे दिमाग में कोई शंका नहीं है कि हिन्दू महासभा के कद्दरवादी गुट ही इस सजिश में सामिल हैं। फिर कहा संघ की पहल सरकार और राज्य के लिये खतरा है। और यह भी कहा कि संघ के नेताओं के भाषण जहरीले होते हैं। उन्हीं के जहर का परिणाम है कि महात्मा गांधी की हत्या हुई। इतिहास के पन्नों को पलटने पर तब के सरसंघ चालक गुरु गोलवरकर के जवाब भी सामने आते हैं, जिसमें वह राष्ट्रवाद का जिक्र करते हैं।
लेकिन पहली बार नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को घेरेते हुये जो सवाल खड़ा किया उससे आरएसएस खुश हो सकता है क्योंकि मोदी ने सरदार पटेल की धर्मनिरपेक्षता को सोमनाथ मंदिर से यह कहकर जोड़ा कि "देश को सरदार पटेल वाला सेक्युलरिज़्म चाहिए. सोमनाथ का मंदिर बनाते हुए उनका सेक्युलरिज़्म आड़े नहीं आया." मोदी ने अपने भाषण में बार-बार जाति, क्षेत्र समेत तमाम तरह की एकता का जिक्र कर संघ के स्वयंसेवक से इतर अपने लिये एक राजनीतिक बिसात बिछाने की कोशिश जरुर की। जिससे यह ना लगे कि मोदी संघ के एजेडे पर है और मैसेज यही जाये कि पटेल के आसरे उनका कद भी गुजरात से बाहर बढ़ रहा है।
Thursday, October 31, 2013
Wednesday, October 30, 2013
मोदी को साधने के लिये तीसरा मोर्चा !
बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये दर्जन भर राजनेताओं की दिल्ली शिरकत ने पहली बार जतला दिया कि मोदी के गुजरात से बाहर कदम रखते ही हर राजनीतिक थ्योरी बदल रही है। और अगर एक साथ खड़े होकर इस राजनीतिक लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुंचाया गया तो फासीवाद और सांप्रदायिकता की जीत हो जायेगी। यानी राजनीतिक तौर पर हर किसी का सूपड़ा साफ हो जायेगा। तो पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का मतलब ही हिटलरवादी, फासीवादी या सांप्रदायिकता हो चला है। यानी नेताओं का जमघट अतीत के सच को नरेन्द्र मोदी के पीएम पद का उम्मीदवार बनते ही बदल रहा है।
क्योंकि संघ परिवार या अयोध्याकांड के नायक आडवाणी या स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम बनते ही फासीवाद और सांप्रदायिकता की जिस परिभाषा को सत्ता के लिये जिन नेताओं ने बदला अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात से बाहर निकलते ही नयी परिभाषा आज दिल्ली उन्हीं नेताओं ने गढ़ी।
नीतीश के लिये बाबरी कांड करने वाले आडवाणी सांप्रदायिक कभी नहीं रहे। मुलायम की सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों की आग में सियासी गोटियां फेंकी। और इन्होंने सांप्रदायिकता के खिलाफ जमकर आग उगली। बाबूलाल मरांडी तो बीजेपी से ही निकले। और अब उन्हें बीजेपी सांप्रदायिक दिखायी दे रही है। नवीन पटनायक अयोध्या की आग के बाद भी लंबे वक्त तक बीजेपी से गलबहिया डाले रहे। लेकिन सम्मेलन में बीजेडी के नेता ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश को बांटने की राह पर निकले हुये हैं। जयललिता ने स्वयंसेवक पीएम वाजपेयी से परहेज नहीं की। प्रफुल्ल महंत भी एक वक्त स्वयंसेवक पीएम के दौर में साथ खड़े रहे। लेकिन आज उन्हें भी स्वयसेवक सांप्रदायिक नजर आ रहे थे और चूंकि आज नीतीश कुमार ने फासीवाद के आहट का जिक्र कर इमरजेन्सी की याद सम्मेलन में बैठे मीडियाकर्मियों को दिलायी। तो मंच पर बैठे ए बी वर्धन को जरुर यह याद आया होगा कि इमरजेन्सी के वक्त सीपीआई इंदिरा के साथ खड़ी थी।
अब यह सवाल उठना जायज है कि जिस पार्टी या जिन स्वयंसेवकों के साथ राजनीतिक करने में राजनीति के इन धुरन्धरों को कोई परहेज नहीं रहा और अब उसी बीजेपी और उन्हीं राजनीतिक स्वयंसेवकों ने भी अपना नेता नरेन्द्र मोदी को मान कर मिशन 2014 का संघर्ष शुरु किया है तो फिर उसी पार्टी और उन्हीं स्वयंसेवकों को छोड़ कर कभी साथ खड़े रहे राजनेताओं के नये विचार या नयी परिभाषा को लेकर देश का आम वोटर क्या सोचे। असल में राजनीति की साख इसीलिये डांवाडोल है और इसी डांवाडोल स्थिति का लाभ नरेन्द्र मोदी को लगातार मिल रहा है।
असल में दिल्ली में 14 राजनीतिक दलो के जमावडे में हर नेता की जुबान पर मोदी का नाम किसी ना किसी रुप में जरुर आया। किसी ने संकेत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई सीधे निशाने पर लेने लगा। और पहला सवाल यही निकला की 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ही मुद्दा है। और ढाई दशक पहले मंडल कंमडल से निकली राजनीति के जरीये जो भी क्षत्रप बने उनकी राजनीति में पहली बार नरेन्द्र मोदी सेंध लगा रहे है। क्योंकि जाति के तौर पर मोदी अति पिछड़ा से आते है। वाम नजरिये से समझे तो मोदी गरीब परिवार से आते हैं। और दूसरा मुद्दा उठा कि मनमोहन सरकार के कामकाज से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और अब शरद पवार भी खड़े होने से कतरा रहे हैं। एनसीपी नेता डी पी त्रिपाठी हालाकि लगातार बोलते रहे कि वह यूपीए के साथ है। लेकिन जिस तर्ज पर मौजूदा राजनीति का विकल्प खोजने की कवायद शुरु हुई है, उसमें मौजूदा क्षत्रपों के आपसी टकराव ही सबसे बड़ी रुकावट है। क्योंकि शरद पवार महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस रह नहीं सकते और वह जानते है कि कांग्रेस का साथ जहां उन्होंने छोड़ा वहीं एनसीपी के तमाम नेता काग्रेस की राह पकड़ लेंगे। तो बिहार की सियासत में साप्रंदायिकता के सवाल पर नीतीश पर लालू हमेशा से भारी हैं। यूपी के मौजूदा सियासी हालात बताते है कि मुलायम पर मायावती भारी हैं।
बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की वाम धारा को ही ममता बनर्जी हड़प चुकी हैं। असम में प्रफुल्ल महंत फुंके हुये कारतूस हैं। पंजाब में पीपीपी के मनप्रित बादल चुके हुये राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो राजनेताओं की दिल्ली में कवायद संख्या बल से तो राजनीति को प्रभावित कर सकती है लेकिन जमीनी राजनीति में बिहार में लालू, बंगाल में ममता,यूपी में मायावती, तमिलनाडु में करुणानिधी और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को कैसे खारिज किया जा सकता है। खासकर तब जब सवाल संख्या बल के भरोसे सरकार बनाने के दौर का हो। और बिना गठबंधन कोई सरकार बना नहीं सकता है इसे जब हर कोई जानता हो। ध्यान दें तो मनमोहन के बाजारवाद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया। और महंगाई भ्रष्टाचार या कालाधन सरीखे मुद्दे आम लोगों के पेट से जुड़ गये जबकि सांप्रदायिकता सियासी मुद्दा भर रह गया। और राजनेताओं ने इस सच को हमेशा पूंछ से पकड़ने की कोशिश की इसीलिये मौजूदा दौर में राजनीति की साख भी कमजोर हुई। इसलिये याद कीजिये तो दो बरस पहले ही अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन ने सत्ताधारी राजनीतिक दलो की चूलें हिला दी थीं। असल में राजनीति को लेकर आम लोगों के इसी गुस्से को नरेन्द्र मोदी हर किसी को खारिज कर भुना रहे हैं और तमाम राजनीतिक दल मुद्दा छोड़ मोदी को ही मुद्दा मान मिशन 2014 की दिशा में चल निकले हैं। तो विकल्प का रास्ता निकलेगा कैसे, यह सबसे बड़ा सवाल है।
क्योंकि संघ परिवार या अयोध्याकांड के नायक आडवाणी या स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम बनते ही फासीवाद और सांप्रदायिकता की जिस परिभाषा को सत्ता के लिये जिन नेताओं ने बदला अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात से बाहर निकलते ही नयी परिभाषा आज दिल्ली उन्हीं नेताओं ने गढ़ी।
नीतीश के लिये बाबरी कांड करने वाले आडवाणी सांप्रदायिक कभी नहीं रहे। मुलायम की सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों की आग में सियासी गोटियां फेंकी। और इन्होंने सांप्रदायिकता के खिलाफ जमकर आग उगली। बाबूलाल मरांडी तो बीजेपी से ही निकले। और अब उन्हें बीजेपी सांप्रदायिक दिखायी दे रही है। नवीन पटनायक अयोध्या की आग के बाद भी लंबे वक्त तक बीजेपी से गलबहिया डाले रहे। लेकिन सम्मेलन में बीजेडी के नेता ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश को बांटने की राह पर निकले हुये हैं। जयललिता ने स्वयंसेवक पीएम वाजपेयी से परहेज नहीं की। प्रफुल्ल महंत भी एक वक्त स्वयंसेवक पीएम के दौर में साथ खड़े रहे। लेकिन आज उन्हें भी स्वयसेवक सांप्रदायिक नजर आ रहे थे और चूंकि आज नीतीश कुमार ने फासीवाद के आहट का जिक्र कर इमरजेन्सी की याद सम्मेलन में बैठे मीडियाकर्मियों को दिलायी। तो मंच पर बैठे ए बी वर्धन को जरुर यह याद आया होगा कि इमरजेन्सी के वक्त सीपीआई इंदिरा के साथ खड़ी थी।
अब यह सवाल उठना जायज है कि जिस पार्टी या जिन स्वयंसेवकों के साथ राजनीतिक करने में राजनीति के इन धुरन्धरों को कोई परहेज नहीं रहा और अब उसी बीजेपी और उन्हीं राजनीतिक स्वयंसेवकों ने भी अपना नेता नरेन्द्र मोदी को मान कर मिशन 2014 का संघर्ष शुरु किया है तो फिर उसी पार्टी और उन्हीं स्वयंसेवकों को छोड़ कर कभी साथ खड़े रहे राजनेताओं के नये विचार या नयी परिभाषा को लेकर देश का आम वोटर क्या सोचे। असल में राजनीति की साख इसीलिये डांवाडोल है और इसी डांवाडोल स्थिति का लाभ नरेन्द्र मोदी को लगातार मिल रहा है।
असल में दिल्ली में 14 राजनीतिक दलो के जमावडे में हर नेता की जुबान पर मोदी का नाम किसी ना किसी रुप में जरुर आया। किसी ने संकेत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई सीधे निशाने पर लेने लगा। और पहला सवाल यही निकला की 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ही मुद्दा है। और ढाई दशक पहले मंडल कंमडल से निकली राजनीति के जरीये जो भी क्षत्रप बने उनकी राजनीति में पहली बार नरेन्द्र मोदी सेंध लगा रहे है। क्योंकि जाति के तौर पर मोदी अति पिछड़ा से आते है। वाम नजरिये से समझे तो मोदी गरीब परिवार से आते हैं। और दूसरा मुद्दा उठा कि मनमोहन सरकार के कामकाज से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और अब शरद पवार भी खड़े होने से कतरा रहे हैं। एनसीपी नेता डी पी त्रिपाठी हालाकि लगातार बोलते रहे कि वह यूपीए के साथ है। लेकिन जिस तर्ज पर मौजूदा राजनीति का विकल्प खोजने की कवायद शुरु हुई है, उसमें मौजूदा क्षत्रपों के आपसी टकराव ही सबसे बड़ी रुकावट है। क्योंकि शरद पवार महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस रह नहीं सकते और वह जानते है कि कांग्रेस का साथ जहां उन्होंने छोड़ा वहीं एनसीपी के तमाम नेता काग्रेस की राह पकड़ लेंगे। तो बिहार की सियासत में साप्रंदायिकता के सवाल पर नीतीश पर लालू हमेशा से भारी हैं। यूपी के मौजूदा सियासी हालात बताते है कि मुलायम पर मायावती भारी हैं।
बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की वाम धारा को ही ममता बनर्जी हड़प चुकी हैं। असम में प्रफुल्ल महंत फुंके हुये कारतूस हैं। पंजाब में पीपीपी के मनप्रित बादल चुके हुये राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो राजनेताओं की दिल्ली में कवायद संख्या बल से तो राजनीति को प्रभावित कर सकती है लेकिन जमीनी राजनीति में बिहार में लालू, बंगाल में ममता,यूपी में मायावती, तमिलनाडु में करुणानिधी और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को कैसे खारिज किया जा सकता है। खासकर तब जब सवाल संख्या बल के भरोसे सरकार बनाने के दौर का हो। और बिना गठबंधन कोई सरकार बना नहीं सकता है इसे जब हर कोई जानता हो। ध्यान दें तो मनमोहन के बाजारवाद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया। और महंगाई भ्रष्टाचार या कालाधन सरीखे मुद्दे आम लोगों के पेट से जुड़ गये जबकि सांप्रदायिकता सियासी मुद्दा भर रह गया। और राजनेताओं ने इस सच को हमेशा पूंछ से पकड़ने की कोशिश की इसीलिये मौजूदा दौर में राजनीति की साख भी कमजोर हुई। इसलिये याद कीजिये तो दो बरस पहले ही अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन ने सत्ताधारी राजनीतिक दलो की चूलें हिला दी थीं। असल में राजनीति को लेकर आम लोगों के इसी गुस्से को नरेन्द्र मोदी हर किसी को खारिज कर भुना रहे हैं और तमाम राजनीतिक दल मुद्दा छोड़ मोदी को ही मुद्दा मान मिशन 2014 की दिशा में चल निकले हैं। तो विकल्प का रास्ता निकलेगा कैसे, यह सबसे बड़ा सवाल है।
Wednesday, October 23, 2013
राहुल गांधी डर रहे हैं या डरा रहे हैं
राहुल गांधी डर रहे हैं या डरा रहे हैं। अगर डर रहे हैं तो उन्हें किस बात का डर है। और अगर वह डरा रहे हैं तो वह देश को किससे डराना चाहते हैं। राहुल गांधी का खुद की मौत को लेकर डर महज भावुकता में दिया गया वक्तव्य नहीं है। और ना ही खुद को इंदिरा या राजीव गांधी के समकक्ष खड़ा करने का इमोश्नल ब्लेकमेल है।
करीब 40 मिनट के भाषण में पहले 12 मिनट राहुल गांधी ने जिस तरह इंदिरा गांधी की हत्या के उस वातावरण को उभारा, जिसमें 1984 में 14 बरस का राहुल डरा हुआ था। उसने पहली बार ना सिर्फ 14 बरस के बालक राहुल के डर को उभारा बल्कि 1 सफदर जंग का वह घर जिसमें भारत की सबसे ताकतवर पीएम इंदिरा गांधी रहती थी, उनकी हत्या की परतों को भी कुछ इस तरह खोला, जिसने झटके में ना सिर्फ पीएम के घर के भीतर की सुरक्षा व्यवस्था बल्कि इंदिरा की हत्या के ठीक बाद सुरक्षा दायरे में भी गांधी परिवार किस तरह हत्या को लेकर खौफजदा था इस डर को उभार दिया। तो क्या राहुल गांधी ने उस डर को सार्वजनिक कर दिया है जो डर बार बार गांधी परिवार से ही निकलता है कि अगर गाधीपरिवार का कोई भी शख्स पीएम बना तो उसकी हत्या कर दी जायेगी।
ध्यान दें तो 2004 में सोनिया गांधी ने जब पीएम बनने से इंकार किया तो कई थ्योरी निकली। जिसमें एक थ्योरी हत्या के डर की भी थी। पिछले दिनो पंजाब में भाषण देते वक्त राहुल गांधी ने अपने पायलट पिता राजीव गांधी की मौत के डर को आसमान में बिगड़ने वाले मौसम को देख कर सोनिया गांधी के डर को ही उभारा। जिसके साये में राहुल और प्रियका भी मौसम के बिगड़ने पर आसमान देखकर सोचते की पिता राजीव लौटेंगे भी या नहीं। असल में यह डर है क्यों। आखिर क्यों गांधी परिवार हत्या के डर से खौफजदा है। ध्यान दें तो नेहरु परिवार में जवाहरलाल नेहरु को छोड़ कोई मौत सामान्य हालात में नहीं हुई। संजय गांधी विमान उड़ाते हुये मरे। इंदिरा गांधी की हत्या हुई। राजीव गांधी की भी हत्या हुई। और इसी दो पीढ़ी के साथ सोनिया गांधी जुड़ी और राहुल गांधी ने भी दादी इंदिरा और पिता राजीव की हत्या को सियासी तौर पर महसूस किया। तो क्या विरासत में मिले सियासी हत्या का डर राहुल को डरा रहा है या फिर जो हालात देश में बन रहे है उस हालात से राहुल डरे हुये हैं क्योंकि गांधी परिवार का दायरा देश में होकर भी कितना अकेला है यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में राहुल का डर कहीं यह तो नहीं कि सत्ता से बाहर होते ही सुरक्षा दायरा खत्म होगा और गांधी परिवार अलग थलग पड़ जायेगा। इसलिये डर के संकेत की रेखा राहुल गांधी ने राजनीतिक प्रतिद्वंदी बीजेपी की तरफ खींची।
क्योंकि यह पहली बार है जब दंगे और सियासी हिंसा से लेकर लोगो के गुस्से की वजह बीजेपी को बताते हुये राहुल गांधी ने मिशन 2014 को नये राजनीतिक संकेत खुले तौर पर दिये। ध्यान दें तो पहली बार देश के लोगों में कई मुद्दों को लेकर गुस्सा है। लेकिन गुस्से के निशाने पर मनमोहनसिंह से कहीं ज्यादा गांधी परिवार है। क्योंकि मनमोहन सिंह ना तो देश और ना ही कांग्रेस के पीएम पद के उम्मीदवार बनकर चुनाव के मैदान से पीएम बने। मनमोहन सरकार को सोनिया गांधी रिमोट से चलाती है और राहुल गांधी मनमोहन सरकार को अंगुठे की नोंक पर रखते हैं, यह कैबिनेट के अध्यादेश को फाड़ने वाला बताकर राहुल ने साबित भी कर दिया। तो गुस्सा गांधी परिवार से जरुर होगा। लेकिन जिस तर्ज पर राहुल गांधी बीजेपी को कठघरे में खड़ा किया उसके पीछे कहीं ना कहीं मौजूदा राजनीति भी है।
क्योंकि पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर संघ परिवार के कहने पर बीजेपी ने उस नरेन्द्र मोदी को उतारा है जो लुटियन्स की दिल्ली का नहीं है। जो उस राजनीतिक क्लास के भी नहीं है जो संसद में तो हर मुद्दे को लेकर कांग्रेस का विरोध करती है लेकिन संसद ठप होते ही गलबहिया करने से नहीं चुकती। ध्यान दें तो संघ परिवार भी दिल्ली के बीजेपी नेताओं से इसीलिये खफा है क्योंकि बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हो रहा था। और सियासी तौर तरीके इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बौद्दिकों के आसरे चलते रहे। मोदी के पास तो गुजरात का फार्मूला है, जहां राजनीतिक सत्ता पर बने रहना सिर्फ सियासी तिकडम भर नहीं होता। इसलिये ध्यान दे तो पीएम उम्मीदवार बनते ही नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से गांधी परिवार को निशाने पर लिया है, वह बीजेपी की राजनीतिक परंपरा से हटकर है। सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही नहीं बल्कि दामाद रॉबर्ट वाड्रा को भी निशाने पर लेने से कोई कोताही नरेन्द्र मोदी ने नहीं बरती।
मोदी की राजनीति को समझे तो गांधी परिवार इस हालात से डरा हुआ नहीं होगा, ऐसा हो नहीं सकता है और राहुल 2014 के मिशन को अस्तित्व की लड़ाई नहीं मान रहे होंगे, यह भी संभव नहीं है। क्योंकि मोदी के सत्ता में आने का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं होगा, यह राजनीतिक हालातों और उसके तौर तरीको को भी बदलेगा। राहुल गांधी इस हकीकत को समझ रहे हैं, शायद इसीलिये अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी को गंवाने के बावजूद अपने गुस्से को अपनी समझदारी तले दफन करने को ही सियासी हथियार बनाने से नहीं चूक रहे हैं।
करीब 40 मिनट के भाषण में पहले 12 मिनट राहुल गांधी ने जिस तरह इंदिरा गांधी की हत्या के उस वातावरण को उभारा, जिसमें 1984 में 14 बरस का राहुल डरा हुआ था। उसने पहली बार ना सिर्फ 14 बरस के बालक राहुल के डर को उभारा बल्कि 1 सफदर जंग का वह घर जिसमें भारत की सबसे ताकतवर पीएम इंदिरा गांधी रहती थी, उनकी हत्या की परतों को भी कुछ इस तरह खोला, जिसने झटके में ना सिर्फ पीएम के घर के भीतर की सुरक्षा व्यवस्था बल्कि इंदिरा की हत्या के ठीक बाद सुरक्षा दायरे में भी गांधी परिवार किस तरह हत्या को लेकर खौफजदा था इस डर को उभार दिया। तो क्या राहुल गांधी ने उस डर को सार्वजनिक कर दिया है जो डर बार बार गांधी परिवार से ही निकलता है कि अगर गाधीपरिवार का कोई भी शख्स पीएम बना तो उसकी हत्या कर दी जायेगी।
ध्यान दें तो 2004 में सोनिया गांधी ने जब पीएम बनने से इंकार किया तो कई थ्योरी निकली। जिसमें एक थ्योरी हत्या के डर की भी थी। पिछले दिनो पंजाब में भाषण देते वक्त राहुल गांधी ने अपने पायलट पिता राजीव गांधी की मौत के डर को आसमान में बिगड़ने वाले मौसम को देख कर सोनिया गांधी के डर को ही उभारा। जिसके साये में राहुल और प्रियका भी मौसम के बिगड़ने पर आसमान देखकर सोचते की पिता राजीव लौटेंगे भी या नहीं। असल में यह डर है क्यों। आखिर क्यों गांधी परिवार हत्या के डर से खौफजदा है। ध्यान दें तो नेहरु परिवार में जवाहरलाल नेहरु को छोड़ कोई मौत सामान्य हालात में नहीं हुई। संजय गांधी विमान उड़ाते हुये मरे। इंदिरा गांधी की हत्या हुई। राजीव गांधी की भी हत्या हुई। और इसी दो पीढ़ी के साथ सोनिया गांधी जुड़ी और राहुल गांधी ने भी दादी इंदिरा और पिता राजीव की हत्या को सियासी तौर पर महसूस किया। तो क्या विरासत में मिले सियासी हत्या का डर राहुल को डरा रहा है या फिर जो हालात देश में बन रहे है उस हालात से राहुल डरे हुये हैं क्योंकि गांधी परिवार का दायरा देश में होकर भी कितना अकेला है यह किसी से छुपा नहीं है। ऐसे में राहुल का डर कहीं यह तो नहीं कि सत्ता से बाहर होते ही सुरक्षा दायरा खत्म होगा और गांधी परिवार अलग थलग पड़ जायेगा। इसलिये डर के संकेत की रेखा राहुल गांधी ने राजनीतिक प्रतिद्वंदी बीजेपी की तरफ खींची।
क्योंकि यह पहली बार है जब दंगे और सियासी हिंसा से लेकर लोगो के गुस्से की वजह बीजेपी को बताते हुये राहुल गांधी ने मिशन 2014 को नये राजनीतिक संकेत खुले तौर पर दिये। ध्यान दें तो पहली बार देश के लोगों में कई मुद्दों को लेकर गुस्सा है। लेकिन गुस्से के निशाने पर मनमोहनसिंह से कहीं ज्यादा गांधी परिवार है। क्योंकि मनमोहन सिंह ना तो देश और ना ही कांग्रेस के पीएम पद के उम्मीदवार बनकर चुनाव के मैदान से पीएम बने। मनमोहन सरकार को सोनिया गांधी रिमोट से चलाती है और राहुल गांधी मनमोहन सरकार को अंगुठे की नोंक पर रखते हैं, यह कैबिनेट के अध्यादेश को फाड़ने वाला बताकर राहुल ने साबित भी कर दिया। तो गुस्सा गांधी परिवार से जरुर होगा। लेकिन जिस तर्ज पर राहुल गांधी बीजेपी को कठघरे में खड़ा किया उसके पीछे कहीं ना कहीं मौजूदा राजनीति भी है।
क्योंकि पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर संघ परिवार के कहने पर बीजेपी ने उस नरेन्द्र मोदी को उतारा है जो लुटियन्स की दिल्ली का नहीं है। जो उस राजनीतिक क्लास के भी नहीं है जो संसद में तो हर मुद्दे को लेकर कांग्रेस का विरोध करती है लेकिन संसद ठप होते ही गलबहिया करने से नहीं चुकती। ध्यान दें तो संघ परिवार भी दिल्ली के बीजेपी नेताओं से इसीलिये खफा है क्योंकि बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हो रहा था। और सियासी तौर तरीके इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बौद्दिकों के आसरे चलते रहे। मोदी के पास तो गुजरात का फार्मूला है, जहां राजनीतिक सत्ता पर बने रहना सिर्फ सियासी तिकडम भर नहीं होता। इसलिये ध्यान दे तो पीएम उम्मीदवार बनते ही नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से गांधी परिवार को निशाने पर लिया है, वह बीजेपी की राजनीतिक परंपरा से हटकर है। सिर्फ सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही नहीं बल्कि दामाद रॉबर्ट वाड्रा को भी निशाने पर लेने से कोई कोताही नरेन्द्र मोदी ने नहीं बरती।
मोदी की राजनीति को समझे तो गांधी परिवार इस हालात से डरा हुआ नहीं होगा, ऐसा हो नहीं सकता है और राहुल 2014 के मिशन को अस्तित्व की लड़ाई नहीं मान रहे होंगे, यह भी संभव नहीं है। क्योंकि मोदी के सत्ता में आने का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं होगा, यह राजनीतिक हालातों और उसके तौर तरीको को भी बदलेगा। राहुल गांधी इस हकीकत को समझ रहे हैं, शायद इसीलिये अपनी दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी को गंवाने के बावजूद अपने गुस्से को अपनी समझदारी तले दफन करने को ही सियासी हथियार बनाने से नहीं चूक रहे हैं।
Monday, October 21, 2013
सीबीआई अब क्या करेगी?
सीबीआई अब क्या करेगी। अगर वह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सच को अपना सच बनाती है तो उसे एफआईआर वापस लेनी होगी। और अगर अपनी जांच को सही मानती है और एफआईआर वापस नहीं लेती है तो प्रधानमंत्री का सच बेमानी हो जायेगा। यानी पहली बार सीबीआई की जांच और प्रधानमंत्री की साख में से कोई एक को ही बचना है। लेकिन इन न्याय के तराजू के इन दो पाटों पर निगरानी चूंकि सुप्रीम कोर्ट कर रहा है तो सीबीआई को कोई भी जवाब पहले सुप्रीम कोर्ट को देना है। इसलिये अब सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट पर है कि वहा सीबीआई अपनी जांच पर सुप्रीम कोर्ट को कैसे संतुष्ट करती है क्योंकि कोलगेट पर सीबीआई जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही है और 22 अक्टूबर यानी कल सीबीआई को पहली स्टेटस रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में दाखिल करनी है। और खासकर यह पहला मौका है जब सीबीआई की एफआईआर के ठीक उलट पीएमओ ने तीन लाइन का बयान जारी कर सीबीआई की ही सांस अटका दी है। ध्यान दें तो सीबीआई की एफआईआर में कई पेंच ऐसे हैं, जिसे अनदेखा सुप्रीम कोर्ट कर ही नहीं सकता चाहे सीबीआई एफआईआर वापस लेने की बात कहें। पहला पेंच है अगर हिंडाल्को की फाइल पीएम ने क्लियर की, जो वह मान चुके है तो कोल ब्लाक्स की बाकी फाइलों को भी पीएम ने ही बतौर कोयला मंत्री क्लियर की होगी। दूसरा पेंच है -सीबीआई अगर हिंडालको के खिलाफ केस बंद करती है तो फिर पूर्व कोयला सचिव पारेख पर उसका रुख क्या होगा। क्या पारेख को भी सीबीआई क्लीन चीट दे देगी।
क्योंकि एक तरफ सीबीआई ने पूर्व कोयला सचिव के ताल्लुकात दूसरी कंपनियों के साथ होने का जिक्र भी किया है और पूर्व कोयला सचिव ने अपने बयान में पीएम को कटघरे में खड़ा किया है। और तीसरा पेंच है कैग की रिपोर्ट में पूर्व कोयला सचिव को व्हीसल ब्लोअर माना गया। क्योंकि पारेख ने ही कोल ब्लाक बांटने की जगह बोली लगाने की वकालत की थी। जिसे उस वक्त कोयला मंत्री यानी पीएम ने नहीं माना। यानी हर पेंच में सीबीआई की जांच ही पहली बार कटघरे में है और सबसे बड़ा सवाल है कि सीबीआई के एफआईआर ने कोल गेट के पूरे मुद्दे की असल जड़ से ही ध्यान भटका दिया है। क्योंकि सवाल यह नहीं था कि कोल ब्लाक किसे मिले।
सवाल था कि कैसे राजस्व को चूना लगाकर कोल ब्लॉक बकायदा सरकार की नीतियों के तहत औने पौने दाम में बांट दिये गये। इसलिये अब हर किसी की नजर सुप्रीम कोर्ट पर है जहां कल सीबीआई स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करेगी। और सुप्रीम कोर्ट आवश्यक दिशा निर्देश देगी। वहीं दूसरी तरफ मनमोहन सिंह इस सच को समझ रहे है कि 2003 से 2010 के दौरान आंवटित की गई जिन 192 कोल ब्लॉक्स की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई कर रही है उसके कठघरे में बतौर कोयला मंत्री उनका नाम बार बार आयेगा। इसलिये पहली बार पीएमओ ने हिंडाल्को पर सफाई देकर बेहद बारीकी से खुद को पाक साफ किया है। ध्यान दें तो हिंडाल्को को आवंटित की गई खादान को सही करार देते हुये पीएमओ ने जिन तीन लाइन का बयान जारी किया गया उसमे दो तथ्यों को रखा। पहला जो निर्णय लिया गया वह सही था। और जो केस उनके सामने रखा गया वह मेरिट के लिहाज एकदम सही था। यानी संकेत साफ है कि ना सिर्फ हिंडालको के मामले में बल्कि जिन भी कोल ब्लाक्स को आंवटित किया गया, उसकी मेरिट को जांचने का काम कोल सचिव या कोयला मंत्रालय का ही था। ना कि कोयला मंत्री का जो उस वक्त प्रधानमंत्री ही थे। जाहिर है पीएमओ का यह बयान चाहे हिंडालको को क्लीन चीट दें लेकिन पूर्व कोल सचिव को क्लीन चीट मिलेगी यह मुश्किल है। क्योंकि सीबीआई की जांच ने कई सवाल कोल ब्लाक्स आवंटन को लेकर किये है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण आरोप यह है कि कोल ब्लाक्स आंवटन का निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी से बाहर किया जा रहा था। और दूसरा पूर्व कोल सचिव उस वक्त नवभारत पावर के डायरेक्टर थे जब कोल ब्लाक के लिये उसने अप्लायी किया। लेकिन मनमोहन सिंह की मुश्किल यह है कि सरकार कोल ब्लाक देने की प्रक्रिया में ही गडबड़ी पायी गयी और आंवटन के तौर तरीके सरकार ने यानी पीएम ने ही तय किये थे।
और यह ठीक वैसे ही है जैसे 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में ट्राई की पॉलिसी खारिज कर नीतियां सरकार की थीं और इसी चक्कर में संचार मंत्री ए राजा को जेल जाना पड़ा। ऐसे में सीबीआई 22 अक्टूबर को तो सीलबंद लिफाफे में अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट के सामने रखेगी। लेकिन यह सीलबंद लिफाफा खुलेगा 29 अक्टूर को। और तबतक सरकार की सांस तो अटकी ही रहेगी। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का भी निर्देश 29 को ही जारी होगा। जो किस किस को कठघरे में खड़ा करता है यह महत्वपूर्ण होगा।
क्योंकि एक तरफ सीबीआई ने पूर्व कोयला सचिव के ताल्लुकात दूसरी कंपनियों के साथ होने का जिक्र भी किया है और पूर्व कोयला सचिव ने अपने बयान में पीएम को कटघरे में खड़ा किया है। और तीसरा पेंच है कैग की रिपोर्ट में पूर्व कोयला सचिव को व्हीसल ब्लोअर माना गया। क्योंकि पारेख ने ही कोल ब्लाक बांटने की जगह बोली लगाने की वकालत की थी। जिसे उस वक्त कोयला मंत्री यानी पीएम ने नहीं माना। यानी हर पेंच में सीबीआई की जांच ही पहली बार कटघरे में है और सबसे बड़ा सवाल है कि सीबीआई के एफआईआर ने कोल गेट के पूरे मुद्दे की असल जड़ से ही ध्यान भटका दिया है। क्योंकि सवाल यह नहीं था कि कोल ब्लाक किसे मिले।
सवाल था कि कैसे राजस्व को चूना लगाकर कोल ब्लॉक बकायदा सरकार की नीतियों के तहत औने पौने दाम में बांट दिये गये। इसलिये अब हर किसी की नजर सुप्रीम कोर्ट पर है जहां कल सीबीआई स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करेगी। और सुप्रीम कोर्ट आवश्यक दिशा निर्देश देगी। वहीं दूसरी तरफ मनमोहन सिंह इस सच को समझ रहे है कि 2003 से 2010 के दौरान आंवटित की गई जिन 192 कोल ब्लॉक्स की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई कर रही है उसके कठघरे में बतौर कोयला मंत्री उनका नाम बार बार आयेगा। इसलिये पहली बार पीएमओ ने हिंडाल्को पर सफाई देकर बेहद बारीकी से खुद को पाक साफ किया है। ध्यान दें तो हिंडाल्को को आवंटित की गई खादान को सही करार देते हुये पीएमओ ने जिन तीन लाइन का बयान जारी किया गया उसमे दो तथ्यों को रखा। पहला जो निर्णय लिया गया वह सही था। और जो केस उनके सामने रखा गया वह मेरिट के लिहाज एकदम सही था। यानी संकेत साफ है कि ना सिर्फ हिंडालको के मामले में बल्कि जिन भी कोल ब्लाक्स को आंवटित किया गया, उसकी मेरिट को जांचने का काम कोल सचिव या कोयला मंत्रालय का ही था। ना कि कोयला मंत्री का जो उस वक्त प्रधानमंत्री ही थे। जाहिर है पीएमओ का यह बयान चाहे हिंडालको को क्लीन चीट दें लेकिन पूर्व कोल सचिव को क्लीन चीट मिलेगी यह मुश्किल है। क्योंकि सीबीआई की जांच ने कई सवाल कोल ब्लाक्स आवंटन को लेकर किये है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण आरोप यह है कि कोल ब्लाक्स आंवटन का निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी से बाहर किया जा रहा था। और दूसरा पूर्व कोल सचिव उस वक्त नवभारत पावर के डायरेक्टर थे जब कोल ब्लाक के लिये उसने अप्लायी किया। लेकिन मनमोहन सिंह की मुश्किल यह है कि सरकार कोल ब्लाक देने की प्रक्रिया में ही गडबड़ी पायी गयी और आंवटन के तौर तरीके सरकार ने यानी पीएम ने ही तय किये थे।
और यह ठीक वैसे ही है जैसे 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में ट्राई की पॉलिसी खारिज कर नीतियां सरकार की थीं और इसी चक्कर में संचार मंत्री ए राजा को जेल जाना पड़ा। ऐसे में सीबीआई 22 अक्टूबर को तो सीलबंद लिफाफे में अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट के सामने रखेगी। लेकिन यह सीलबंद लिफाफा खुलेगा 29 अक्टूर को। और तबतक सरकार की सांस तो अटकी ही रहेगी। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का भी निर्देश 29 को ही जारी होगा। जो किस किस को कठघरे में खड़ा करता है यह महत्वपूर्ण होगा।
Monday, October 14, 2013
क्या राहुल का विकल्प है प्रियंका गांधी?
सिर्फ 40 मिनट के भीतर प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर लाने के ऐलान की खबर की मौत हो जाती है। लेकिन इन चालीस मिनट में ही गांधी परिवार की एक्स-रे रिपोर्ट सामने आ जाती है। पहला सवाल प्रियंका को लेकर खड़ा होता है कि क्या वाकई कांग्रेस के लिये प्रियका तुरुप का पत्ता है। जिसके सामने राहुल गांधी की लोकप्रियता कोई मायने नहीं रखती हैं। दूसरा सवाल राहुल गांधी को ही लेकर खड़ा होता है कि क्या राहुल गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने का स्थिति में नहीं हैं। और संगठन को मथ कर जिसतरह कांग्रेस को युवा हाथों में सौपने का सपना राहुल गांधी ने देखा है, वह महज सपना है। और तीसरा सवाल सोनिया गांधी को लेकर खड़ा होता है कि क्या सोनिया गांधी उम्र, स्वास्थ्य और सियासी वजहों से अब रिटायर होने के रास्ते पर है।
जाहिर है प्रियंका गांधी को लेकर तीनों सवाल गांधी परिवार के ही अंतर्विरोध को लेकर उछले और राजनीतिक धमाचौकडी के उस दौर में उछले जब गांधी परिवार बिना जिम्मेदारी सत्ता में है। और गांधी परिवार का कोई एक शख्स नहीं तीन तीन शख्स सियासत कर रहे हैं। तो क्या ऐसे वक्त में प्रियका गांधी को लेकर कांग्रेस ने जानबूझकर खबर उछाली है कि प्रियका अब रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेंगी और नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार का जवाब देंगी।
असल में गांधी परिवार पहली बार सियासत में रहकर भी जिस तर्ज पर देश को चलाने का भ्रम बनाये हुये है, वह आजादी के बाद अपनी तरह का अजूबा ही है। क्योंकि इससे पहले सिर्फ नेहरु की मौत के बाद ही इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष होकर भी पीएम नहीं बनी और तब कांग्रेस सिंडिकेट यानी कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को पीएम बनाया। लेकिन 1966 में शास्त्री जी की मौत के बाद कहीं कामराज या कहें वही सिंडिकेट इंदिरा गांधी के पत्र में झुका और मोरारजी देसाई वरिष्ठ होकर भी और चाह कर भी पीएम ना बन सके। और एक वक्त के बाद उन्हें कांग्रेस के बाहर का रास्ता देखना ही पड़ा। कांग्रेस के पन्नों को पलटें तो वही कामराज को भी इंदिरा ने अलग थलग किया या कहें कांग्रेस दो फाड़ हो गई जब सिंडिकेट काग्रेस का विरोध इंदिरा गांधी ने किया और कामराज ने इंदिरा गांधी का विरोध किया। अगर इस कडी को आगे बढायें तो
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के तत्काल बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राजीव गांधी को तुरंत पीएम बनाये जाने का विरोध किया था। और इसका खामियाजा उन्हें सबसे बड़ी जीत के साथ पीएम बने राजीव गांधी को मंत्रिमंडल में जगह मिलना तो दूर, कांग्रेस छोड़ राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाकर अपने राजनीतिक आस्तित्व को बचाने तक की आ गई थी। दरअसल गांधी-नेहरु परिवार पर कोई टिप्पणी तो दूर कई मौको पर तो समूची कांग्रेस ही खामोश रही है और जब भी कोई बोला है तो उसे रास्ता अलग पकड़ना पडा है। इंदिरा गांधी के दौर तो इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया के नारे तक लगे। लेकिन अब के दौर में यानी सोनिया गांधी के वक्त पहली बार हालात ऐसे भी हैं, जहां नेहरु परिवार की चौथी पीढी ना सिर्फ जवान हो चुकी है बल्कि भागते वक्त के साथ उम्र भी गुजर रही है। और देरी का मतलब है कांग्रेस की विरासत संभालने से भागना या कांग्रेस का मतलब जहां गांधी-नेहरु परिवार ही माना जाता है, उससे चूक जाना। लेकिन इसी दौर में कांग्रेस की हालत क्या है, यह प्रियका गांधी की खबर के सामने आने से लेकर खबर के खंडन या खारिज किये जाने के चालिस मिनट के वक्त में ही दिख गया। नरेन्द्र मोदी के गुजरात के संबरकांठा से चुन कर आने वाले काग्रेसी सांसद मधुसुधन मिस्त्री ने दिल्ली में पत्रकारों को जानकारी दी कि प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार के लिये रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेगी। और इसके तुरंत बाद ही कांग्रेसियों में होड़ मच गयी कि कौन प्रियंका गांधी के पक्ष में कितना बोल सकता है। राशिद अल्वी और कपिल सिब्बल सरीखे नेता यह कहने से नहीं चूके की कांग्रेस का तो हर कार्यकर्ता चाहता है कि प्रियंका गांधी मुख्यधारा की राजनीति में आयें। लेकिन कांग्रेस की त्रासदी देखिये जैसे ही प्रियंका के चुनाव प्रचार में कूदने की खबर का खंडन काग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने किया वैसे ही झटके में हर कांग्रेसी को लगने लगा कि प्रियंका गांधी को अभी राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर नहीं आना चाहिये। और एक एक कर वही कांग्रेसी बदलने लगे जो आधे घंटे पहले तक प्रियंका के पक्ष में थे। सवाल है कि क्या मौजूदा दौर में कांग्रेस इतनी कमजोर हो गयी है कि गांधी परिवार के दो सदस्यों के आसरे भी उसे अपनी सत्ता जाती दिख रही है। या फिर जो प्रियंका अभी तक रायबरेली और अमेठी से बाहर चुनाव प्रचार तक के लिये निकली है उनमें कोई नये गुण कांग्रेसी देख रहे है जो राहुल गांधी में नहीं है। या फिर मौजूदा वक्त में राहुल गांधी की राजनीति कांग्रेसियों को ही नहीं भा रही है। क्योंकि राहुल गांधी काग्रेस के उस ढांचे को तोड़ना चाहते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने बनाया। या कहें इंदिरा के बाद राजीव गांधी और फिर सोनिया गांधी ने जिस तरह सत्ता संभाली उसने इसके संकेत साफ दे दिये कांग्रेस संगठन से नहीं गांधी परिवार के औरे से चलती है और हर कांग्रेसी किसी भी तरह की कोई आंच गांधी परिवार पर आने नहीं देता। इसलिये जो भी हवा गांधी परिवार को लेकर बहे या बहने के संकेत दिखने लगे। बस उसी अनुरुप हर कांग्रेसी ढल जाता है। लेकिन प्रियंका के सवाल ने आने वाले वक्त के लिये यह संकेत तो दे दिये कि अगर प्रियंका जब भी मुख्यधारा की राजनीति में आयेगी वैसे ही राहुल गांधी की राजनीति पर पूर्ण विराम लग जायेगा। क्योंकि 2004 में राहुल गांधी के अमेठी से पर्चा भरने से लेकर 19 जनवरी 2013 को जयपुर में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने तक के दौरान की परिस्थितियों को देखें तो प्रियंका हर जगह मौजूद थी। और बार बार राजनीतिक मिजाज में बात यही उभरी या हर कांग्रेसी ने यही देखा समझा कि राहुल गांधी हर महत्वपूर्ण मौके पर बिना प्रियंका गांधी के एक पग भी आगे नहीं बढ़ाते हैं। लेकिन प्रियंका को लेकर जो कांग्रेसी उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं, उनके लिये आखिरी सवाल यही है कि इंदिरा यू ही राजनीति में नहीं आ गयी।
केरल में पहली वामपंथी सत्ता डगमगायी तो उसके पीछे इंदिरा गांधी की ही सियासी चाल थी। और 42 बरस की उम्र में इंदिरा 1959 में तब कांग्रेस की अध्यक्ष बनी जब देश में समाजवादी लहर बहने लगी थी। लोहिया सीधे नोहरु को घेर रहे थे। और 1964 में नेहरु की मौत के वक्त भी कांग्रेस की अगुवाई कौन करें इसे लेकर बखूबी परिस्थितियों को देख समझ रही थी। और फिर कामराज के सिंडिकेट कांग्रेस से टकरा कर कहीं ज्यादा तेजी से उभरने का हुनर भी इंदिरा ने दिखाया था। लेकिन प्रियंका ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। और 14 अक्टूबर 2013 को जब कांग्रेस के भीतर से ही प्रियंका गांधी को लेकर खबरे निकले और 40 मिनट बाद दफन हो गयी तो आने वाले वक्त के संकेत भी दे गयी कि अब चाहे प्रियकां गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने सामने आये लेकिन माना यही जायेगा कि राहुल हार गये । यानी जिस गांधी परिवार से देश के विकल्प की बात होती रही वही गांधी परिवार अपने ही परिवार का विक्लप बन रहा है। यानी मौजूदा वक्त के आईना यही दिखाया कि राहुल गांधी का विकल्प है प्रियंका गांधी।
जाहिर है प्रियंका गांधी को लेकर तीनों सवाल गांधी परिवार के ही अंतर्विरोध को लेकर उछले और राजनीतिक धमाचौकडी के उस दौर में उछले जब गांधी परिवार बिना जिम्मेदारी सत्ता में है। और गांधी परिवार का कोई एक शख्स नहीं तीन तीन शख्स सियासत कर रहे हैं। तो क्या ऐसे वक्त में प्रियका गांधी को लेकर कांग्रेस ने जानबूझकर खबर उछाली है कि प्रियका अब रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेंगी और नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार का जवाब देंगी।
असल में गांधी परिवार पहली बार सियासत में रहकर भी जिस तर्ज पर देश को चलाने का भ्रम बनाये हुये है, वह आजादी के बाद अपनी तरह का अजूबा ही है। क्योंकि इससे पहले सिर्फ नेहरु की मौत के बाद ही इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष होकर भी पीएम नहीं बनी और तब कांग्रेस सिंडिकेट यानी कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को पीएम बनाया। लेकिन 1966 में शास्त्री जी की मौत के बाद कहीं कामराज या कहें वही सिंडिकेट इंदिरा गांधी के पत्र में झुका और मोरारजी देसाई वरिष्ठ होकर भी और चाह कर भी पीएम ना बन सके। और एक वक्त के बाद उन्हें कांग्रेस के बाहर का रास्ता देखना ही पड़ा। कांग्रेस के पन्नों को पलटें तो वही कामराज को भी इंदिरा ने अलग थलग किया या कहें कांग्रेस दो फाड़ हो गई जब सिंडिकेट काग्रेस का विरोध इंदिरा गांधी ने किया और कामराज ने इंदिरा गांधी का विरोध किया। अगर इस कडी को आगे बढायें तो
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के तत्काल बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राजीव गांधी को तुरंत पीएम बनाये जाने का विरोध किया था। और इसका खामियाजा उन्हें सबसे बड़ी जीत के साथ पीएम बने राजीव गांधी को मंत्रिमंडल में जगह मिलना तो दूर, कांग्रेस छोड़ राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाकर अपने राजनीतिक आस्तित्व को बचाने तक की आ गई थी। दरअसल गांधी-नेहरु परिवार पर कोई टिप्पणी तो दूर कई मौको पर तो समूची कांग्रेस ही खामोश रही है और जब भी कोई बोला है तो उसे रास्ता अलग पकड़ना पडा है। इंदिरा गांधी के दौर तो इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया के नारे तक लगे। लेकिन अब के दौर में यानी सोनिया गांधी के वक्त पहली बार हालात ऐसे भी हैं, जहां नेहरु परिवार की चौथी पीढी ना सिर्फ जवान हो चुकी है बल्कि भागते वक्त के साथ उम्र भी गुजर रही है। और देरी का मतलब है कांग्रेस की विरासत संभालने से भागना या कांग्रेस का मतलब जहां गांधी-नेहरु परिवार ही माना जाता है, उससे चूक जाना। लेकिन इसी दौर में कांग्रेस की हालत क्या है, यह प्रियका गांधी की खबर के सामने आने से लेकर खबर के खंडन या खारिज किये जाने के चालिस मिनट के वक्त में ही दिख गया। नरेन्द्र मोदी के गुजरात के संबरकांठा से चुन कर आने वाले काग्रेसी सांसद मधुसुधन मिस्त्री ने दिल्ली में पत्रकारों को जानकारी दी कि प्रियंका गांधी चुनाव प्रचार के लिये रायबरेली-अमेठी से बाहर निकलेगी। और इसके तुरंत बाद ही कांग्रेसियों में होड़ मच गयी कि कौन प्रियंका गांधी के पक्ष में कितना बोल सकता है। राशिद अल्वी और कपिल सिब्बल सरीखे नेता यह कहने से नहीं चूके की कांग्रेस का तो हर कार्यकर्ता चाहता है कि प्रियंका गांधी मुख्यधारा की राजनीति में आयें। लेकिन कांग्रेस की त्रासदी देखिये जैसे ही प्रियंका के चुनाव प्रचार में कूदने की खबर का खंडन काग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने किया वैसे ही झटके में हर कांग्रेसी को लगने लगा कि प्रियंका गांधी को अभी राष्ट्रीय राजनीति के मंच पर नहीं आना चाहिये। और एक एक कर वही कांग्रेसी बदलने लगे जो आधे घंटे पहले तक प्रियंका के पक्ष में थे। सवाल है कि क्या मौजूदा दौर में कांग्रेस इतनी कमजोर हो गयी है कि गांधी परिवार के दो सदस्यों के आसरे भी उसे अपनी सत्ता जाती दिख रही है। या फिर जो प्रियंका अभी तक रायबरेली और अमेठी से बाहर चुनाव प्रचार तक के लिये निकली है उनमें कोई नये गुण कांग्रेसी देख रहे है जो राहुल गांधी में नहीं है। या फिर मौजूदा वक्त में राहुल गांधी की राजनीति कांग्रेसियों को ही नहीं भा रही है। क्योंकि राहुल गांधी काग्रेस के उस ढांचे को तोड़ना चाहते हैं, जिसे इंदिरा गांधी ने बनाया। या कहें इंदिरा के बाद राजीव गांधी और फिर सोनिया गांधी ने जिस तरह सत्ता संभाली उसने इसके संकेत साफ दे दिये कांग्रेस संगठन से नहीं गांधी परिवार के औरे से चलती है और हर कांग्रेसी किसी भी तरह की कोई आंच गांधी परिवार पर आने नहीं देता। इसलिये जो भी हवा गांधी परिवार को लेकर बहे या बहने के संकेत दिखने लगे। बस उसी अनुरुप हर कांग्रेसी ढल जाता है। लेकिन प्रियंका के सवाल ने आने वाले वक्त के लिये यह संकेत तो दे दिये कि अगर प्रियंका जब भी मुख्यधारा की राजनीति में आयेगी वैसे ही राहुल गांधी की राजनीति पर पूर्ण विराम लग जायेगा। क्योंकि 2004 में राहुल गांधी के अमेठी से पर्चा भरने से लेकर 19 जनवरी 2013 को जयपुर में राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने तक के दौरान की परिस्थितियों को देखें तो प्रियंका हर जगह मौजूद थी। और बार बार राजनीतिक मिजाज में बात यही उभरी या हर कांग्रेसी ने यही देखा समझा कि राहुल गांधी हर महत्वपूर्ण मौके पर बिना प्रियंका गांधी के एक पग भी आगे नहीं बढ़ाते हैं। लेकिन प्रियंका को लेकर जो कांग्रेसी उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं, उनके लिये आखिरी सवाल यही है कि इंदिरा यू ही राजनीति में नहीं आ गयी।
केरल में पहली वामपंथी सत्ता डगमगायी तो उसके पीछे इंदिरा गांधी की ही सियासी चाल थी। और 42 बरस की उम्र में इंदिरा 1959 में तब कांग्रेस की अध्यक्ष बनी जब देश में समाजवादी लहर बहने लगी थी। लोहिया सीधे नोहरु को घेर रहे थे। और 1964 में नेहरु की मौत के वक्त भी कांग्रेस की अगुवाई कौन करें इसे लेकर बखूबी परिस्थितियों को देख समझ रही थी। और फिर कामराज के सिंडिकेट कांग्रेस से टकरा कर कहीं ज्यादा तेजी से उभरने का हुनर भी इंदिरा ने दिखाया था। लेकिन प्रियंका ने ऐसा कुछ भी नहीं किया है। और 14 अक्टूबर 2013 को जब कांग्रेस के भीतर से ही प्रियंका गांधी को लेकर खबरे निकले और 40 मिनट बाद दफन हो गयी तो आने वाले वक्त के संकेत भी दे गयी कि अब चाहे प्रियकां गांधी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को ठिकाने लगाने सामने आये लेकिन माना यही जायेगा कि राहुल हार गये । यानी जिस गांधी परिवार से देश के विकल्प की बात होती रही वही गांधी परिवार अपने ही परिवार का विक्लप बन रहा है। यानी मौजूदा वक्त के आईना यही दिखाया कि राहुल गांधी का विकल्प है प्रियंका गांधी।
Friday, October 4, 2013
"राइट दू रिजेक्ट" के नाम पर वोटर धोखा तो नहीं खायेगा
2013 के चुनाव वोटरों के लिये पहली बार उम्मीदवारों को बाकायदा बटन दबाकर खारिज करने वाला भी चुनाव होगा। यानी ईवीएम की मशीन में वोटरों को यह विकल्प भी मिलेगा कि वह किसी भी उम्मीदवार को चुनना नहीं चाहते है। लेकिन राइट टू रिजेक्ट से इतर इनमें से कोई नहीं वाला बटन क्या वाकई राजनीतिक दलों पर नैतिक दबाव बना पायेगा कि वह दागियो को टिकट ना दें। या फिर दागियों के लिये जीतने का यह स्वर्णिम अवसर हो जायेगा। क्योंकि इस चुनाव में इसकी कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने वोटरों ने इनमें से कोई नहीं का बटन दबाया उनकी गिनती हो। और दूसरा अगर कुल पड़े वोट की तादाद में सबसे ज्यादा वोटरों ने इनमें से कोई नहीं वाला बटन दबा भी दिया तो भी कोई ना कोई उम्मीदवार तो हर हाल में जीतेगा ही। यानी दागी उम्मीदवार की जो सबसे बड़ी ताकत वोट को मैनेज करना होता है उसमें उसे कम मशक्कत करनी पड़ेगी। क्योंकि आदर्श स्थिति की बात करने वाले वोटर तो इनमे से कोई नहीं वाला बटन दबाएंगे।
और जीत हार तय करने निकले वह वोटर जो जातीय या धर्म या समुदाय के आधार पर बंटे होते हैं वह उम्मीदवार के दागी होने से पहले अपने आधारों को देखते हैं। तो तीन सवाल असबार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एवीएम में नोटा यानी इनमें से कोई नहीं वाले बटन के घाटे पर बड़ी तादाद में वोटरों के वोट बिना गिने रह जायेंगे। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक उदाहरण संसद का यह कहकर दिया था कि वहां भी वोटिंग के हालात में एबसेंट की संख्या भी बतायी जाती है। लेकिन चुनाव आयोग ने कोई व्यवस्था नहीं की है कि नोटा बटन दबाने वालो की गिनती हो। दूसरा सवाल वोट मैनेज करने वालो के लिये आसानी होनी। क्योकि साफ छवि वाले नेता वोटरो के सामने यह आवाज जरुर उठायेगे कि वो नोटा बटन भी दबा सकते हैं। और तीसरा रिप्ररजेन्टेशन आफ पीपुल्स एक्ट की धारा 49 को खत्म करने का कोई महत्व नहीं बचेगा। क्योंकि इस नियम के तहत वोटर पहले प्रिजाइडिंग अफसर को जानकारी देता था कि वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देना नहीं चाहता है। तो उसकी संख्या पता चल जाती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवधान को इसलिये बदला क्योंकि इससे धारा 19(1) के तहत फ्रीडम आफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन का वॉयलेशन होता क्योकि वोटिग को सिक्रेट बैलेट माना जाता है।
लेकिन यहीं से सवाल बड़ा होता है कि संविधान चुनाव के अधिकार को अगर बराबरी के तराजू में रखता है तो वोट का मतलब अपने नुमाइन्दे को चुनने या दूसरे को खारिज करने के लिये होता है। इसकी कोई व्यवस्था संविधान में भी नहीं है कि वोटर वोट डाल दें और उसके वोट को कही दिखाया ही ना जाये। यानी गिनती में कही नजर ही ना आये। इसे बारिकी से समझें तो 2009 में देश में कुल 70 करोड़ वोटर थे। लेकिन वोटिंग महज 29 करोड़ हुई। और इसमें से 11.5 करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया और 8.5 करोड वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया। कमोवेश इसी तरह करीब एक करोड़ वोट सपा या बीएसपी के पक्ष में पड़े। यानी हर पार्टी को कितने वोट मिले यह चुनाव आयोग के दस्तावेज में दर्ज है और इसे कोई भी कभी भी देख सकता है। लेकिन 2013 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कुल 11 करोड़ वोटर हैं। मान लीजिये 50 फीसदी वोटिंग होती है। यानी 5.5 करोड़ वोटर वोट डालते है ।
लेकिन इस बार यह तो जिक्र होगा कि कि किस राज्य में राजनीतिक दल को कितने वोट मिले या फिर किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले और वह कितने अंतर से जीत गया। लेकिन इसका कोई जिक्र ही नहीं होगा कि कितने वोटरो ने अपने क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार को वोट देना पंसद नहीं किया और अगर 5.5 करोड़ में से तीन करोड़ वोटर इनमे से कोई नहीं वाला बटन भी दबा दें तो भी हर क्षेत्र में कोई ना कोई जीतेगा या किसी ना किसी राजनीतिक दल की सरकार बनेगी। और सैकड़ों, हजारों, लाखों या करोड़ वोट इसबार बिना मतलब के साबित होंगे। और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट खुश हो सकता है कि वोटरों को एक नया विकल्प मिल गया । लेकिन वोटर यह सोच कर कतई खुश नहीं हो सकता कि उसे विक्लप मिल गया और हो सकता है यह तौर तरीका या कहे चुनाव परिणाम तब एक बडी त्रासदी बन जायेगा जब कोई दागी इस बिला पर चुन कर आ जायेगा कि उसे नोटा की तुलना में कम वोट मिले लेकिन उम्मीदवारो की पेरहिस्त में सबसे ज्यादा वोट मिले। और यह हर कोई जानता है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार को मैदान में उतारता है। तो अधूरी तैयारी के साथ चुनाव आयोग का उठाया गया कदम कहीं ज्यादा घातक ना हो इसका इंतजार करना होगा। क्योंकि राइट टू रिजेक्ट का सीधा मतलब होता है वोट के प्रतिशत की तुलना में रिजेक्ट किये गये वोट का आंकलन या फिर वोट के रिजेक्ट फीसदी की एक लकीर खींच कर रिजेक्ट को भी बतौर उम्मीदवार के तौर पर मानना जिससे वोटर को दुबारा वोट डालने का मौका उसी चुनाव में नये सिरे से मिल सके। लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं है ।
और जीत हार तय करने निकले वह वोटर जो जातीय या धर्म या समुदाय के आधार पर बंटे होते हैं वह उम्मीदवार के दागी होने से पहले अपने आधारों को देखते हैं। तो तीन सवाल असबार सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर एवीएम में नोटा यानी इनमें से कोई नहीं वाले बटन के घाटे पर बड़ी तादाद में वोटरों के वोट बिना गिने रह जायेंगे। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक उदाहरण संसद का यह कहकर दिया था कि वहां भी वोटिंग के हालात में एबसेंट की संख्या भी बतायी जाती है। लेकिन चुनाव आयोग ने कोई व्यवस्था नहीं की है कि नोटा बटन दबाने वालो की गिनती हो। दूसरा सवाल वोट मैनेज करने वालो के लिये आसानी होनी। क्योकि साफ छवि वाले नेता वोटरो के सामने यह आवाज जरुर उठायेगे कि वो नोटा बटन भी दबा सकते हैं। और तीसरा रिप्ररजेन्टेशन आफ पीपुल्स एक्ट की धारा 49 को खत्म करने का कोई महत्व नहीं बचेगा। क्योंकि इस नियम के तहत वोटर पहले प्रिजाइडिंग अफसर को जानकारी देता था कि वह किसी भी उम्मीदवार को वोट देना नहीं चाहता है। तो उसकी संख्या पता चल जाती थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रवधान को इसलिये बदला क्योंकि इससे धारा 19(1) के तहत फ्रीडम आफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन का वॉयलेशन होता क्योकि वोटिग को सिक्रेट बैलेट माना जाता है।
लेकिन यहीं से सवाल बड़ा होता है कि संविधान चुनाव के अधिकार को अगर बराबरी के तराजू में रखता है तो वोट का मतलब अपने नुमाइन्दे को चुनने या दूसरे को खारिज करने के लिये होता है। इसकी कोई व्यवस्था संविधान में भी नहीं है कि वोटर वोट डाल दें और उसके वोट को कही दिखाया ही ना जाये। यानी गिनती में कही नजर ही ना आये। इसे बारिकी से समझें तो 2009 में देश में कुल 70 करोड़ वोटर थे। लेकिन वोटिंग महज 29 करोड़ हुई। और इसमें से 11.5 करोड़ वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया और 8.5 करोड वोटरों ने बीजेपी को वोट दिया। कमोवेश इसी तरह करीब एक करोड़ वोट सपा या बीएसपी के पक्ष में पड़े। यानी हर पार्टी को कितने वोट मिले यह चुनाव आयोग के दस्तावेज में दर्ज है और इसे कोई भी कभी भी देख सकता है। लेकिन 2013 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कुल 11 करोड़ वोटर हैं। मान लीजिये 50 फीसदी वोटिंग होती है। यानी 5.5 करोड़ वोटर वोट डालते है ।
लेकिन इस बार यह तो जिक्र होगा कि कि किस राज्य में राजनीतिक दल को कितने वोट मिले या फिर किस उम्मीदवार को कितने वोट मिले और वह कितने अंतर से जीत गया। लेकिन इसका कोई जिक्र ही नहीं होगा कि कितने वोटरो ने अपने क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार को वोट देना पंसद नहीं किया और अगर 5.5 करोड़ में से तीन करोड़ वोटर इनमे से कोई नहीं वाला बटन भी दबा दें तो भी हर क्षेत्र में कोई ना कोई जीतेगा या किसी ना किसी राजनीतिक दल की सरकार बनेगी। और सैकड़ों, हजारों, लाखों या करोड़ वोट इसबार बिना मतलब के साबित होंगे। और चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट खुश हो सकता है कि वोटरों को एक नया विकल्प मिल गया । लेकिन वोटर यह सोच कर कतई खुश नहीं हो सकता कि उसे विक्लप मिल गया और हो सकता है यह तौर तरीका या कहे चुनाव परिणाम तब एक बडी त्रासदी बन जायेगा जब कोई दागी इस बिला पर चुन कर आ जायेगा कि उसे नोटा की तुलना में कम वोट मिले लेकिन उम्मीदवारो की पेरहिस्त में सबसे ज्यादा वोट मिले। और यह हर कोई जानता है कि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिये उम्मीदवार को मैदान में उतारता है। तो अधूरी तैयारी के साथ चुनाव आयोग का उठाया गया कदम कहीं ज्यादा घातक ना हो इसका इंतजार करना होगा। क्योंकि राइट टू रिजेक्ट का सीधा मतलब होता है वोट के प्रतिशत की तुलना में रिजेक्ट किये गये वोट का आंकलन या फिर वोट के रिजेक्ट फीसदी की एक लकीर खींच कर रिजेक्ट को भी बतौर उम्मीदवार के तौर पर मानना जिससे वोटर को दुबारा वोट डालने का मौका उसी चुनाव में नये सिरे से मिल सके। लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं है ।