बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये दर्जन भर राजनेताओं की दिल्ली शिरकत ने पहली बार जतला दिया कि मोदी के गुजरात से बाहर कदम रखते ही हर राजनीतिक थ्योरी बदल रही है। और अगर एक साथ खड़े होकर इस राजनीतिक लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुंचाया गया तो फासीवाद और सांप्रदायिकता की जीत हो जायेगी। यानी राजनीतिक तौर पर हर किसी का सूपड़ा साफ हो जायेगा। तो पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का मतलब ही हिटलरवादी, फासीवादी या सांप्रदायिकता हो चला है। यानी नेताओं का जमघट अतीत के सच को नरेन्द्र मोदी के पीएम पद का उम्मीदवार बनते ही बदल रहा है।
क्योंकि संघ परिवार या अयोध्याकांड के नायक आडवाणी या स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम बनते ही फासीवाद और सांप्रदायिकता की जिस परिभाषा को सत्ता के लिये जिन नेताओं ने बदला अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात से बाहर निकलते ही नयी परिभाषा आज दिल्ली उन्हीं नेताओं ने गढ़ी।
नीतीश के लिये बाबरी कांड करने वाले आडवाणी सांप्रदायिक कभी नहीं रहे। मुलायम की सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगों की आग में सियासी गोटियां फेंकी। और इन्होंने सांप्रदायिकता के खिलाफ जमकर आग उगली। बाबूलाल मरांडी तो बीजेपी से ही निकले। और अब उन्हें बीजेपी सांप्रदायिक दिखायी दे रही है। नवीन पटनायक अयोध्या की आग के बाद भी लंबे वक्त तक बीजेपी से गलबहिया डाले रहे। लेकिन सम्मेलन में बीजेडी के नेता ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश को बांटने की राह पर निकले हुये हैं। जयललिता ने स्वयंसेवक पीएम वाजपेयी से परहेज नहीं की। प्रफुल्ल महंत भी एक वक्त स्वयंसेवक पीएम के दौर में साथ खड़े रहे। लेकिन आज उन्हें भी स्वयसेवक सांप्रदायिक नजर आ रहे थे और चूंकि आज नीतीश कुमार ने फासीवाद के आहट का जिक्र कर इमरजेन्सी की याद सम्मेलन में बैठे मीडियाकर्मियों को दिलायी। तो मंच पर बैठे ए बी वर्धन को जरुर यह याद आया होगा कि इमरजेन्सी के वक्त सीपीआई इंदिरा के साथ खड़ी थी।
अब यह सवाल उठना जायज है कि जिस पार्टी या जिन स्वयंसेवकों के साथ राजनीतिक करने में राजनीति के इन धुरन्धरों को कोई परहेज नहीं रहा और अब उसी बीजेपी और उन्हीं राजनीतिक स्वयंसेवकों ने भी अपना नेता नरेन्द्र मोदी को मान कर मिशन 2014 का संघर्ष शुरु किया है तो फिर उसी पार्टी और उन्हीं स्वयंसेवकों को छोड़ कर कभी साथ खड़े रहे राजनेताओं के नये विचार या नयी परिभाषा को लेकर देश का आम वोटर क्या सोचे। असल में राजनीति की साख इसीलिये डांवाडोल है और इसी डांवाडोल स्थिति का लाभ नरेन्द्र मोदी को लगातार मिल रहा है।
असल में दिल्ली में 14 राजनीतिक दलो के जमावडे में हर नेता की जुबान पर मोदी का नाम किसी ना किसी रुप में जरुर आया। किसी ने संकेत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई सीधे निशाने पर लेने लगा। और पहला सवाल यही निकला की 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ही मुद्दा है। और ढाई दशक पहले मंडल कंमडल से निकली राजनीति के जरीये जो भी क्षत्रप बने उनकी राजनीति में पहली बार नरेन्द्र मोदी सेंध लगा रहे है। क्योंकि जाति के तौर पर मोदी अति पिछड़ा से आते है। वाम नजरिये से समझे तो मोदी गरीब परिवार से आते हैं। और दूसरा मुद्दा उठा कि मनमोहन सरकार के कामकाज से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और अब शरद पवार भी खड़े होने से कतरा रहे हैं। एनसीपी नेता डी पी त्रिपाठी हालाकि लगातार बोलते रहे कि वह यूपीए के साथ है। लेकिन जिस तर्ज पर मौजूदा राजनीति का विकल्प खोजने की कवायद शुरु हुई है, उसमें मौजूदा क्षत्रपों के आपसी टकराव ही सबसे बड़ी रुकावट है। क्योंकि शरद पवार महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस रह नहीं सकते और वह जानते है कि कांग्रेस का साथ जहां उन्होंने छोड़ा वहीं एनसीपी के तमाम नेता काग्रेस की राह पकड़ लेंगे। तो बिहार की सियासत में साप्रंदायिकता के सवाल पर नीतीश पर लालू हमेशा से भारी हैं। यूपी के मौजूदा सियासी हालात बताते है कि मुलायम पर मायावती भारी हैं।
बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की वाम धारा को ही ममता बनर्जी हड़प चुकी हैं। असम में प्रफुल्ल महंत फुंके हुये कारतूस हैं। पंजाब में पीपीपी के मनप्रित बादल चुके हुये राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो राजनेताओं की दिल्ली में कवायद संख्या बल से तो राजनीति को प्रभावित कर सकती है लेकिन जमीनी राजनीति में बिहार में लालू, बंगाल में ममता,यूपी में मायावती, तमिलनाडु में करुणानिधी और आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को कैसे खारिज किया जा सकता है। खासकर तब जब सवाल संख्या बल के भरोसे सरकार बनाने के दौर का हो। और बिना गठबंधन कोई सरकार बना नहीं सकता है इसे जब हर कोई जानता हो। ध्यान दें तो मनमोहन के बाजारवाद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया। और महंगाई भ्रष्टाचार या कालाधन सरीखे मुद्दे आम लोगों के पेट से जुड़ गये जबकि सांप्रदायिकता सियासी मुद्दा भर रह गया। और राजनेताओं ने इस सच को हमेशा पूंछ से पकड़ने की कोशिश की इसीलिये मौजूदा दौर में राजनीति की साख भी कमजोर हुई। इसलिये याद कीजिये तो दो बरस पहले ही अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन ने सत्ताधारी राजनीतिक दलो की चूलें हिला दी थीं। असल में राजनीति को लेकर आम लोगों के इसी गुस्से को नरेन्द्र मोदी हर किसी को खारिज कर भुना रहे हैं और तमाम राजनीतिक दल मुद्दा छोड़ मोदी को ही मुद्दा मान मिशन 2014 की दिशा में चल निकले हैं। तो विकल्प का रास्ता निकलेगा कैसे, यह सबसे बड़ा सवाल है।
सही फरमाया प्रसूनजी। जहां तक हम आम लोगों का सवाल है, हमारी सोच ये है, मोदीजी तोड़ने वालों में नहीं, जोड़ने वालों में हैं। चंद घोर सांप्रदायिक और अवसरवादी राजनीतिज्ञ जानते हैं, अगर एक बार नमो प्रधानमंत्री बन गए, तो कहीं गुजरात की तरह लम्बे समय तक देश को भी न खो बैठें क्योंकि मोदीजी तो भ्रष्टाचार में लिप्त ऐसे सत्तालोलुप लोगों का देश कि जनता को मूर्ख बनाने का अवसर छीन लेंगे।
ReplyDeleteमीडिया के लिऐ मोदी एक रोजगार बन गया हैं जो कुछ भी झुठ और बेतुका कहे सब इनकी सर आंखो पर, आश्चर्य है कि नीतीश मुलायम बाबूलाल मरांडी, नवीन पटनायक, जयललिता, प्रफुल्ल महंत , ए बी वर्धन सबके सब अप्रसंगागिक हो गऐ, केवल भाषण और गुजरात दंगे के अलावा मोदी के खाते में ठोस रुप से क्या हैं ? ,
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