Wednesday, November 27, 2013

इस शून्यता से कैसे उबरेंगे ?

क्या यह वाकई इतना मुश्किल दौर है जब स्थापित मूल्यों की जड़ें हिल रही हैं और विकल्प की समझ मौका मिलते ही व्यवस्था का हिस्सा बनने को बेताब हो रही है। एक साथ तीन पिलर डगमगाये हैं। समाज को गूथे हुये परिवार । पत्रकारिता के जरीये सत्ता से टकराने का जुनून। राजनीतिक व्यवस्था पर अंगुली उठाकर बदलने का माद्दा। सीधे समझें तो आरुषि हत्याकांड, तरुण तेजपाल और आम आदमी पार्टी। आरुषि हत्याकांड ने परिवार की उस धारणा से आगे निकल कर भारत के उस पारंपरिक और मजबूत रिश्तों की डोर पर ना सिर्फ सीधा हमला किया जो समाज के गूंथे हुये हैं बल्कि आधुनिक भारत के उस परिवेश पर भी सवालिया निशान लगा दिया जो सरोकार और संबंधों को लगातार दरकिनार कर संवेदनाओं का तकनीकीकरण कर रहा है। वहीं तरुण तेजपाल का मतलब महज तहलका का मालिक होना या संपादक होते हुये अपने सहकर्मी या खुद के नीचे काम करने वाली पत्रकार का यौन शौषण भर नहीं है बल्कि जिस दौर में पत्रकारीय मूल्य खत्म हो रहे हैं। पत्रकारिता पेड न्यूज से आगे निकल कर कॉरपोरेट और राजनीति के उस कठघरे का हिस्सा बनने को तैयार है, जहां चौथा खम्बा तीन खम्बो पर खबरो की बेईमानी का लेप इस तरह चढ़ाये जिससे इमानदारी की चिमनी दिखायी दे, उस वक्त तहलका ने सत्ता से टकराने की जुर्रत ही नहीं की बल्कि रास्ता भी दिखाया। संयोग से बलात्कार के आरोप में फंसे तरुण तेजपाल की परतों को जब उसी मिडिया ने खोलना शुरु किया तो पत्रकारीय साख कहीं ज्यादा घुमिल लगी ही नहीं बल्कि तेवर वाली पत्रकारिता के पीछे गोवा की चकाचौंध से लेकर उत्तराखंड समेत तीन राज्यों में करोड़ों की संपत्ति का पिटारा खुल गया। वहीं जन जन के दिल से निकले अन्ना-केजरीवाल आंदोलन ने जब व्यवस्था पर चोट की और बदलाव के लिये विकल्प का साजो सामान तैयार किया तो साधन ने साध्य की ही कैसे हत्या कर दी यह आम आदमी पार्टी के मौजूदा त्रासदी ने जतला दिया। जब बिखरते साथियों के बीच अन्ना हजारे ने ही खुले तौर पर केजरीवाल को आंदोलन के सपने को राजनीतिक चुनाव के लिये बेचने के लिये अपने नाम के इस्तेमाल पर ही रोक लगाने को कह दिया। और झटके में अन्ना का लोकपाल, रामलीला मैदान का लोकपाल हो गया। तो क्या कोई सपना। कोई विकल्प। कोई आदर्श हालात को अब देश स्वीकार पाने या उसे सहेज पाने की स्थिति में नहीं है। और अगर नहीं है तो वजह क्या है। तो जरा सिलसिलेवार तरीके से हालात को परखे।

आरुषि हत्याकांड पर 210 पेज के फैसले के हर शब्द की चीत्कार को अगर सुने तो एक ही आवाज सुनायी देगी। और वह है मां-बाप का झूठ । हत्या के दिन से लेकर फैसले के दिन तक । लगातार साढे बरस तक हर मौके पर झूठ । असंभव लगता है। कोई लगातार इतने बरस तक झूठ क्यों बोलेगा। सिर्फ खुद को बचाने के लिये झूठ। या फिर बेटी के साथ मां-बाप के सबसे पाक और सबसे करीबी रिश्ता। जननी से लेकर गीली मिट्टी के गूथकर कोई शक्ल देने वाले कुम्हार की तर्ज पर बेटी को जिन्दगी देने और सहेजते हुये एक शक्ल देने वाले माता पिता की धारणा के टूटने से बचने के लिये झूठ। हालांकि अदालत के फैसले पर अंगुली उठाते हुये
आरुषी के मां-बाप अदालती न्याय को अन्नाय ही करार दे रहे हैं और समूची जांच में कुछ ना मिलने पर भी फैसला दिये जाने की परिस्थितिजन्य सबूतों को खारिज कर रहे हैं। लेकिन न्याय की कोई लकीर तो खींचनी ही होगी। और न्यायपालिका से इतर न्याय की लकीर खींचने का मतलब होगा अराजक समाज का न्यौता देना। तो फैसले के गुण-दोष से परे मां-बाप के बच्चों के साथ रिश्ते और खासकर आरुषी के साथ राजेश और नुपुर तलवार के सरोकार की हदों को भी समझना होगा। एक तरफ महानगरीय जीवन। चकाचौंध में छाने या पहुंच बनाने का जुनून। रिश्तों में खुलापन। संबंधों के पारंपरिक डोर को तोड़कर आधुनिक दिखने की चाहत। यह सब मां-बाप के लिये अगर ऑक्सीजन का काम कर रहा है तो फिर बेटी के अंतद्वंद को कौन समझेगा। बच्चों की बेबसी कहे या फिर गीली मिट्टी को कुम्हार कोई शक्त ना दे तो कैसे किसी टेड़े-मेढ़े पत्थर की तरह वह मिट्टी का ढेर हो जाता है और कितना वीभत्स लगता है, इसे कुम्हार के किसी भी बर्तन के बगल में पड़े देखकर कोई भी समझ सकता है और खुद कुम्हार को भी इसका एहसास होता है। तो तीन सवाल आरुषि के मां-बाप को लेकर हर जहन में उठ सकते है। पहला, हत्या के हालात में गुस्सा आरुषी की जिन्दगी जीने के तौर तरीके पर था। दूसरा, हत्या के पीछे खुद को लेकर गुस्सा था तो बेटी को सहेज ना सके। उसे जिन्दगी जीने की कोई शक्ल ना दे सके। तीसरा , यह महज तत्काल के हालात थे। अगर तीनों परिस्थितियों को मिला भी दें तो भी पहली और आखिरी उंगुली मा-बाप को लेकर ही उठेगी। क्योंकि एक तरफ आधुनिक भारत के साथ तेज तेज चलने की दिशा में बढ़ते मां बाप के कदम और दूसरी तरफ मध्यमवर्गीय परिवेश में आधुनिक और पंरपरा के बीच झूलती आरुषि। यह इसी दौर का सच है जब पूंजी हर रास्ते को आसान करने की परिभाषा गढ़ रही है। तकनीक रिश्तों की जगह ले रही है। और जिन्दगी चकाचौंध भरी ताकत की आगोश में खोने का नाम हो चला है। तो दोष किसका है और क्या यह भविष्य के भारत की पहली दस्तक है। जो ऑनर के नाम पर हारर किलिंग की हद से भी आगे की तस्वीर है। इसे रोक कौन सकता है। शायद सिस्टम। शायद सत्ता की नीतियों से बनती व्यवस्था।

तो सिस्टम और सत्ता पर नजर रखने के लिये ही तो तहलका के जरीये तरुण तेजपाल ने शुरुआत की थी। याद कीजिये एनडीए की सत्ता के दौर में पेशेवर पत्रकार भी स्वयंसेवक लगने लगे थे। कांग्रेस के वजूद पर बीजेपी नेता अंगुली उठाने लगे थे। आडवाणी तब यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि अब तो राष्ट्रपति प्रणाली आ जानी चाहिये। उसी दौर में तेजपाल के स्टिग आपरेशन ने एनडीए सत्ता की चूलें हिलायी थीं। और तब पत्रकारों ने पहली बार महसूस किया था कि कोई मीडिया संस्थान सत्ता से टकराने के लिये खड़ा हो सकता है। और तब तहलका पत्रिका निकालने की योजना बनी । तहलका को ना सत्ता की मदद चाहिये थी और ना ही कारपोरेट की। चंदा लेकर तहलका शुरु हुई। उस वक्त जिन लोगों ने चंदे दिये उसमें कई लोगो ने तो रिटायरमेंट के पैसे भी चंदे के तौर पर तहलका को दे दिये। 13 बरस पहले के उस दौर में तहलका की नींव रखी गयी, जब मीडिया धीरे धीरे कारपोरेट के लिये आकर्षण का केन्द्र बनने लगे थे। और तहलका प्रतीक बनता चला गया ऐसी पत्रकारिता का जो सत्ता से सीधे टकराने से हिचकती नहीं और आम जनता की पूंजी पर आम पाठकों के लिये आक्सीजन का काम करने लगी। लेकिन तेरह बरस के सफर में कैसे तरुण तेजपाल स्कूटर चलाते चलाते खुद में कारपोरेट बन गये और कई शहरो में की संपत्तियों के मालिक हो गये, इसे कभी किसी ने टोटलने की हिम्मत नहीं की। और अब सोचें तो, की भी होती तो कोई भी ऐसी रिपोर्ट को पत्रकारीय मूल्यों पर हमला करार देता। लेकिन जैसे ही बलात्कार के आरोप में तेजपाल फंसे और जैसे ही तेजपाल ने खुद को देश की कानून व्यवस्था से उपर मान कर आरोप को स्वीकारते हुये छह महीने के लिये तहलका के पद को छोड़ने का ऐलान किया, वैसे ही पत्रकारीय जगत अफीम की उस खुमारी से जागा जो तरुण तेजपाल ने तहलका की रिपोर्टों के जरीये पिलायी थी। और झटके में यह सवाल बड़ा हो गया कि क्या अपराध करने वालो के बीच आम और खास की कोई लकीर होती है। और क्या वाकई कोई यौन शोषण कर आत्म ग्लानी करें तो कानून को अपना काम नहीं करना चाहिये। ध्यान दें तो तरुण तेजपाल ऐसा सोच सकते है, यह अपने आप में किसी के लिये भी झटका है। क्योंकि तहलका की पत्रिका ने ही जब अपनी रिपोर्ट से सत्ता पर हमला बोलना शुरु किया तो हर आम पाठक और हर सामान्य पत्रकार को पहली बार महसूस हुआ कि विशेषाधिकार किसी का होता नहीं और अपराधी तो अपराधी ही होता है। चाहे ताबूत घोटाले में कभी जार्ज फर्नाडिस फंसे या फिर सत्ता के मद में चूर मोदी । लेकिन खुद को सजा देने का जो तरीका तरुण तेजपाल ने अपनाया और उसके बाद तेजपाल की निजी संपत्ति से लेकर तहलका के कारोबार का पूरा लेखा-जोखा जब सामने आने लगा तो कई सवाल हर जहन में उठे और बलात्कार के आरोप लगने के बाद भी पीड़ित लड़की को ही कठघरे में खड़ा करने के तेजपाल के अलग अलग तर्कों ने एक बार पिर पत्रकारिय जगत को उसी निराशा में ढकेल दिया जहा साख बनाकर उसे बेचने या खुद को भी उसी सत्ता का हिस्सेदार बनाने की कवायद तरुण तेजपाल ने भी की। शायद वजह भी यही रही कि तहलका पत्रिका के तेवर मौजूदा दौर में चाहे धीरे दीरे कमजोर होते जा रहे थे लेकिन कोई दूसरा मीडिया संस्थान भी इस दौर में खड़ा हुआ नहीं जो सत्ता से टकराये या बिना कारपोरेट चले तो तहलका की मान्यता बनी रही। और तरुण तेजपाल के निजी सरोकार भी आम लोगों से कट कर उस खास कटघरे में पहुंच गये, जहां तरुण तेजपाल को यह लगने लगा कि उसका कद इतना बड़ा हो चुका है कि कहां हुआ हर शब्द कानून पर भी भारी पड़ेगा। यानी देश के उस मिजाज को ही तरुण तेजपाल बलात्कार के आरोपी बनने के बाद समझ नहीं पाये कि जमीन की पत्रकारिता शिखर पर तो पहुंचा सकती है लेकिन शिखर पर होने का दंभ कभी आत्मग्लानी की जमीन पर टिकता नहीं है। और हो यही रहा है। लेकिन यह उस तहलका की मौत है जिसने पत्रकारों को लड़ना और विकल्प खड़ा करना सिखाया था।

विकल्प की सोच तो अन्ना-केजरीवाल के आंदोलन से भी शुरु हुई और व्यवस्था परिवर्तन ही नहीं मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था पर भी सीधी अंगुली उठाकर आंदोलन ने पहली बार हर उस तबके को संसद के सामानांतर सड़क पर ला खड़ा किया जो राजनीतिक व्यवस्था को लेकर गुस्से में था। गुस्सा आंदोलन को तो व्यापक बना सकता है लेकिन आंदोलन ही परिवर्तन की सत्ता में तब्दील हो जाये यह होता नहीं और हुआ भी नही। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के लिये आंदोलन सरीखा हथियार अर्से बाद भारत की जनता को जगा गया। लेकिन आंदोलन की जगह अगर राजनीतिक दल ही हथियार बन जाये और राजीनितक चुनाव के जरीये ही व्यवस्था परिवर्तन का सवाल उठे तो फिर सबकुछ साधन पर टिक जाता है। सीधे समझे तो महात्मा गांधी के साध्य और साधन वाली थ्योरी को .हा समझना जरुरी है । अगर आम आदमी पार्टी चुनाव को भी आंदोलन की शक्ल में ढालती तो क्या अन्ना हजारे यह कहने की हिम्मत जुटा पाते कि उनके नाम का इस्तेमाल आम आदमी पार्टी ना करें । दरअसल अन्ना ने जिस तरह अपने नाम को जनलोकपाल से बडा माना और आम आदमी पार्टी ने भी अन्ना के नाम को लोकपाल से जोड कर अन्ना हजारे की गैर मौजूदगी में भी चुनावी राजनीति में अन्ना की मौजूदगी को दिखाने की कोशिश की उसने व्यवस्था परिवर्तन की उस सोच पर तो सेंध लगाया ही जो आंदोलन के दौर में खड़ी हुई थी। यानी जनलोकपाल के आंदोलन की साख पर आम आदमी पार्टी ही चुनावी तौर तरीकों से बट्टा लगाती हुई इसलिये दिखायी देने लगी क्योंकि आंदोलन समूचे देश का था। जंतर-मंतर और रामलीला मैदान हर शहर में बना था। लेकिन आम आदमी पार्टी ने पार्टी के टिकट पर चुनाव लडने वाले सदस्यो पर ही समूचे आंदोलन का बोझ डाल दिया । यानी जो आंदोलन देश के बदलाव का सपना था उससे निकले राजनीतिक पार्टी के सदस्यो के चुनावी जीत ही पहला और आखिरी सपना दिखायी देने लगा। इसलिये अन्ना के पत्र के बाज जो भी थोथे आरोप आम आदमी पार्टी पर लगे उससे भी आम आदमी पार्टी घायल होती चली गयी क्योंकि चुनाव लड़ने वाले सतही है। उनके सपने उनके संघर्ष बदलाव से पहले खुद की जीत चाहते है। और जीत के बाद बदलाव की सोच को भारती समाज मान्यता इसलिये नहीं देता क्योंकि चुनावी जीत सत्ता बनाती है। जबकि आंदोलन सत्ता के खिलाफ होते है । शायद इसीलिये दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ने वालों के चरित्र भी उसे हर दूसरे राजनीतिक दल की कतार में ही खड़ा करते हैं। चाहे करोड़पति उम्मीदवारों की बात हो या दागी उम्मीदवारों की। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 70 में से 35 करोड़पति और 5 दागी आम आदमी पार्टी में भी है। फिर पार्टी के संगठन पर आंदोलन की हवा कुछ इस तरह हावी है जैसे दिल्ली में हर काम नीतियों के आसरे होता हो। यानी हर वह सवाल जो अन्ना-केजरीवाल के आंदोलन के दौर में उठा और देश बदलाव का सपना देखने लगा । वही सवाल आम आदमी पार्टी के चुनाव प्रचार के तौर तरीकों के सामने नत-मस्तक हो गये ।

यानी हर स्तर पर सपने टूटे । संघर्ष थमा । रिश्तो का दामन छूटा । विकल्प का सवाल उपहास लगने लगा और आंदोलन सत्ता की मद में मलाई बनाने का साधन हो गया। अजब संयोग है मौजूदा वक्त में समाज और सत्ता के सामने परिवार से लेकर संघर्ष बेमानी लगने लगे । और सिस्टम ने खुद को एकजुट कर अपने खिलाफ संघर्ष को ही कुछ इस तरह सिस्टम का हिस्सा बना लिया कि हम आप मानने लगे कि अब इस शून्यता से कैसे उबरेंगे।

Monday, November 18, 2013

हमने ध्यानचंद को खेलते हुये नहीं देखा

जरा कल्पना कीजिये सौ बरस बाद जब भारत के इतिहास के पन्नों को कोई पलटेगा तो मौजूदा दौर को कैसे याद करेगा। नेहरु-गांधी परिवार का जिम्मेदारी से मुक्त हो सत्ता चलाना-भोगना। मनमोहन सिंह का बिना चुनाव लड़े बतौर प्रधानमंत्री भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश से दुनिया के सबसे बड़े बाजार में बदलना। आरएसएस का हिन्दुत्व का एकला चलो का राग छोड़ मुस्लिम प्रेम जागना। संघ के स्वयंसेवक नरेन्द्र मोदी का देश में सबसे लोकप्रिय होकर भी धर्मनिरपेक्षता की परछाई से भी दूर रहना। या फिर कारपोरेट और अंडरवर्ल्ड के शिकंजे में फंसे जेंटलमैन गेम यानी क्रिकेट के सबसे लंबे वक्त तक बतौर हुनरमंद के तौर पर टिके रहने वाले सचिन तेदूलकर को भारत रत्न मानना। या फिर जन सरोकार और सियासी ताल्लुकात की जगह हर संवाद के लिये मीडिया यानी टीवी युग। और जब सत्ता के निर्णय तले देश को संवारने का या देश के भविष्य को निखारने का सवाल उठेगा तो इतिहास के पन्नों पर मौजूदा दौर को सिर्फ वर्तमान में जीते देश और भावनाओं में बहते देश के तौर पर जरुर आंका जायेगा। क्यों? तो टीवी युग को आजादी से पहले के दौर में जी कर देख-समझ लें। तब समझ में आयेगा सचिन तेदुलकर के भारत रत्न होने और हाकी के जादूगर ध्यानचंद का खामोशी से दिल्ली के एम्स में मरना और देश में कोई घड़कन का ना सुना जाना। तो टीवी युग तले लिये चलते है 1926 से 1947 के दौर में। 21 बरस। जी सचिन के 24 तो ध्यानचंद के 21 बरस। सचिन के कुल जमा 15921 रन । तो ध्यानचंद के 1076 गोल। तो कुछ देर के लिये सचिन और अब के दौर को भूल जाइये । अब कल्पना की उड़ान भरें और टीवी युग से पहुंच जाइये गुलाम भारत में संघर्ष करते कांग्रेस और मुस्लिम लीग से इतर हॉकी के मैदान में। 1936 का बर्लिन ओलंपिक । दुनिया के सबसे ताकतवर तानाशाह एडोल्फ हिटलर की देख-रेख में बर्लिन ओलंपिक के लिये तैयार है। बर्लिन ओलंपिक को लेकर हिटलर कोई कोताही बरतना नहीं चाहते हैं। बर्लिन शहर को दुल्हन की तरह सजाया गया है।

और बर्लिन इंतजार कर रहा है हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का। जर्मनी के आखबारों में ध्यानचंद का नाम एक ऐसे सेनापति की तरह छापा गया है जो अंग्रेजों का गुलाम होकर भी अंग्रेजों को उनके घर में मात देता है। पहली बार 1928 में भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक में हिस्सा लेने ब्रिटेन पहुंचती है और 10 मार्च 1928 को आर्मस्टडम में फोल्कस्टोन फेस्टीवल। ओलंपिक से ठीक पहले फोल्कस्टोन फेस्टीवल में जिस ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज डूबता नहीं था उस देश की राष्ट्रीय टीम के खिलाफ भारत की हॉकी टीम मैदान में उतरती है। और भारत ब्रिटेन की राष्ट्रीय हॉकी टीम को इस तरह पराजित करती है कि अपने ही गुलाम देश से हार की कसमसाहट ऐसी होती है कि ओलंपिक में ब्रिटेन खेलने से इंकार कर देता है। और हर किसी का ध्यान ध्यानचंद पर जाता है, जो महज 16 बरस में सेना में शामिल होने के बाद रेजिमेंट और फिर भारतीय सेना की हॉकी टीम में चुना जाता है और सिर्फ 21 बरस की उम्र में यानी 1926 में न्यूजीलैड जाने वाली टीम में शरीक होता है। और जब हॉकी टीम न्यूजीलैड से लौटती है तो ब्रिटिश सैनिकअधिकारी ध्यानचंद का ओहदा बढाते हुये उसे लांस-नायक बना देते हैं। क्योंकि न्यूजीलैंड में ध्यानचंद की स्टिक कुछ ऐसी चलती है कि भारत 21 में से 18 मैच जीतता है। 2 मैच ड्रा होते हैं और एक में हार मिलती है। और हॉकी टीम के भारत लौटने पर जब कर्नल जार्ज ध्यानचंद से पूछते हैं कि भारत की टीम एक मैच क्यों हार गयी तो ध्यानचंद का जबाब होता है कि उन्हें लगा कि उनके पीछे बाकी 10 खिलाडी भी है तो आगे क्या होगा। किसी से हारेंगे नहीं। और ध्यानचंद लांस नायक बना दिये गये। तो बर्लिन ओलंपिक एक ऐसे जादूगर का इंतजार कर रहा है, जिसने सिर्फ 21 बरस में दिये गये वादे को ना सिर्फ निभाया बल्कि मैदान में जब भी उतरा अपनी टीम को हारने नहीं दिया। चाहे आर्मस्टम में 1928 का ओलंपिक हो या सैन फ्रांसिस्को में 1932 का ओलंपिक। और अब 1936 में क्या होगा जब हिटलर के सामने भारत खेलेगा। क्या जर्मनी की टीम के सामने हिटलर की मौजूदगी में ध्यानचंद की जादूगरी चलेगी। जैसे जैसे बर्लिन ओलंपिक की तारीख करीब आ रही है वैसे वैसे जर्मनी के अखबारो में ध्यानचंद के किस्से किसी सितारे की तरह यह कहकर तमकने लगे है कि."चांद" का खेल देखने के लिये पूरा जर्मनी बेताब है। क्योंकि हर किसी को याद आ रहा है 1928 का ओलंपिक । आस्ट्रिया को 6-0, बेल्जियम को 9-0, डेनमार्क को 5-0, स्वीटजरलैंड को 6-0 और नीदरलैंड को 3-0 से हराकर भारत ने गोल्ड मेडल जीता तो समूची ब्रिटिश मीडिया ने लिखा। यह हॉकी का खेल नहीं जादू था और ध्यानचंद यकीनन हॉकी के जादूगर। लेकिन बर्लिन ओलंपिक का इंतजार कर रहे हिटलर की नज़र 1928 के ओलंपिक से पहले प्रि ओलपिंक में डच, बेल्जीयम के साथ जर्मनी की हार पर थी। और जर्मनी के अखबार 1936 में लगातार यह छाप रहे थे जिस ध्यानचंद ने कभी भी जर्मनी टीम को मैदान पर बख्शा नहीं चाहे वह 1928 का ओलंपिक हो या 1932 का तो फिर 1936 में क्या होगा। क्योंकि हिटलर तो जीतने का नाम है। तो क्या बर्लिन ओलपिंक पहली बार हिटलर की मौजूदगी में जर्मनी की हार का तमगा ठोकेगी। और इधर मुंबई में बर्लिन जाने के लिये तैयार हुई भारतीय टीम में भी हिटलर को लेकर किस्से चल पड़े थे। पत्रकार टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता और कप्तान ध्यानचंद से लेकर लगातार सवाल कर रहे थे कि क्या 1928 में जब ओलपिंक में गोल्ड लेकर भारतीय हॉकी टीम बंबई हारबर पहुंची थी तो पेशावर से लेकर केरल तक से लोग विजेता टीम के एक दर्शन करने और ध्यान चंद को देखने भर के लिये पहुंचे थे।

उस दिन बंबई के डाकयार्ड पर मालवाहक जहाजों को समुद्र में ही रोक दिया गया था। जहाजों की आवाजाही भी 24 घंटे नहीं हो पायी थी क्योंकि ध्यानचंद की एक झलक के लिये हजारों हजार लोग बंबई हारबर में जुटे। और ओलंपिक खेल लौटे ध्यानचंद का तबादला 1928 में नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस वजीरिस्तान [ फिलहाल पाकिस्तान ] में कर दिया गया, जहां हाकी खेलना मुश्किल था। पहाड़ी इलाका था । मैदान था नहीं। लेकिन ओलंपिक में सबसे ज्यादा गोल [5 मैच में 14 गोल] करने वाले ध्यानचंद का नाम 1932 में सबसे पहले ओलंपिक टीम के खिलाडियों में यहकहकर लिखा गया कि सेंट फ्रांसिस्को ओलंपिक से पहले प्रैक्टिस मैच के लिये टीम को सिलोन यानी मौजूदा वक्त में श्रीलंका भेज दिया जाये। और दो प्रैक्टिस मैच में भारत की ओलंपिक टीम ने सिलोन को 20-0 और 10-0 से हराया । ध्यानचंद ने अकेले डेढ दर्जन गोल ठोंके। और उसके बाद 30 जुलाई 1932 में शुरु होने वाले लास-एंजेल्स ओलंपिक के लिये भारत की टीम 30 मई को मुंबई से रवाना हुई। लगातार 17 दिन के सफर के बाद 4 अगस्त 1932 को अपने पहले मैच में भारत की टीम ने जापान को 11-1 से हराया। ध्यामचंद ने 3 गोल किये और फाइनल में मेजबान देश अमेरिका से ही सामना था। और माना जा रहा था कि मेजबान देश को मैच में अपने दर्शकों का लाभ मिलेगा। लेकिन फाइनल में भारत ने अमेरिकी टीम को दो दर्ज गोल। जी भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया। इस मैच में ध्यानचंद ने 8 गोल किये। लेकिन पहली बार ध्यानचंद को गोल ठोंकने में अपने भाई रुप सिंह से यहा मात मिली। क्योंकि रुप सिंह ने 10 गोल ठोंके। लेकिन 1936 में तो बर्लिन ओलंपिक को लेकर जर्मनी के अखबारों में यही सवाल बड़ा था कि जर्मनी मेजबानी करते हुये भारत से हार जायेगा। या फिर बुरी तरह हारेगा और ध्यानचंद का जादू चल गया तो क्या होगा। क्योंकि 1932 के ओलंपिक में भारत ने कुल 35 गोल ठोंके थे और खाये महज 2 गोल थे। और तो और ध्यान चंद और उनके भाई रुपचंद ने 35 में से 25 गोल ठोंके थे। तो बर्लिन ओलपिक का वक्त जैसे जैसे नजदीक आ रहा था, वैसे वैसे जर्मनी में ध्यानचंद को लेकर जितने सवाल लगातार अखबारों की सुर्खियों में चल रहे थे उसमें पहली बार लग कुछ ऐसा रहा था जैसे हिटलर के खिलाफ भारत को खेलना है और जर्मनी हार देखने के तैयार नहीं है। लेकिन ध्यानचंद के हॉकी को जादू के तौर पर लगातार देखा जा रहा था। और 1932 के ओलंपिक के बाद और 1936 के बर्लिन ओलंपिक से पहले यानी इन चार बरस के दौरान भारत ने 37 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले जिसमें 34 भारत ने जीते, 2 ड्रा हुये और 2 रद्द हो गये। यानी भारत एक मैच भी नहीं हारा। इस दौर में भारत ने 338 गोल किये जिसमें अकेले ध्यानचंद ने 133 गोल किये। तो बर्लिन ओलंपिक से पहले ध्यानचंद के हॉकी के सफर का लेखा-जोखा कुछ इस तरह जर्मनी में छाने लगा कि हिटलर की तानाशाही भी ध्यानचंद की जादूगरी में छुप गयी। क्योंकि सभा याद करने लगे। जब 1926 में पहला टूर न्यूजीलैंड का ध्यानचंद ने किया था तब 48 में से 43 मैच भारत ने जीते थे। और कुल 584 गोल में से ध्यानचंद ने 201 गोल ठोंके थे। खैर इतिहास हिटलर के सामने कैसे दोहराया जायेगा शायद इतिहास बदलने वाले हिटलर को भी इसका इंतजार था। इसलिये बर्लिन ओलंपिक की शान ही यही थी कि किसी मेले की तरह ओलंपिक की तैयारी जर्मनी ने की थी। ओलंपिक ग्राउंड में ही मनोरंजन के साधन भी थे। और दर्शकों की आवाजाही जबरदस्त थी । तो ओलपिंक शुरु होने से 13 दिन पहले 17 जुलाई 1936 को जर्मनी के साथ प्रैक्टिस मैच भारत को खेलना था। 17 दिन के सफर के बाद पहुंची टीम थकी हुई थी। बावजूद इसके भारत ने जर्मनी को 4-1 से हराया। और उसके बाद ओलंपिक में बिना गोल खाये हर देश को बिलकुल रौदते हुये भारत आगे बढ़ रहा था और जर्मनी के अखबारों में छप रहा था कि हॉकी नहीं जादू देखने पहुंचे। क्योंकि हॉकी का जादूगर ध्यानचंद पूरी तरह एक्टिव है। लोग भी ध्यानचंद का जादू देखने ही ओलपिंक ग्राउंड में पहुंच रहे थे। पहले मैच में हंगरी को 4-0, फिर अमेरिका को 7-0, जापान को 9-0, सेमीफाइनल में फ्रांस को 10-0 । और भारत बिना गोल खाये हर किसी को हराकर फाइनल में पहुंचा। जहां पहले से ही जर्मनी फाइनल में भारत का इंतजार कर रही थी। संयोग देखिये भारत को जर्मनी के खिलाफ फाइनल मैच 15 अगस्त 1936 को पड़ा। भारतीय टीम में खलबली थी कि फाइनल देखने एडोल्फ हिटलर भी आ रहे थे। और मैदान में हिटलर की मौजूदगी से ही भारतीय टीम सहमी हुई थी। ड्रेसिंग रुम में सहमी टीम के सामने टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने गुलाम भारत में आजादी का संघर्ष करते कांग्रेस के तिरंगे को अपने बैग से निकाला और ध्यानचंद समेत हर खिलाडी को उस वक्त तिंरगे की कसम खिलायी कि हिटलर की मौजूदगी में घबराना नहीं है। यह कल्पना का परे था। लेकिन सच था कि आजादी से पहले जिस भारत को अंग्रेजों से मु्क्ति के बाद राष्ट्रीय ध्वज तो दूर संघर्ष के किसी प्रतीक की जानकरी पूरी दुनिया को नहीं थी और संघर्ष देश के बाहर गया नहीं था। उस वक्त भारतीय हॉकी टीम ने तिरंगे को दिल में लहराया और जर्मनी की टीम के खिलाफ मैदान में उतरी। हिटलर स्टोडियम में ही मौजूद थे। टीम ने खेलना शुरु किया और दनादन गोल दागने भी। हाफ टाइम तक भारत 2 गोल ठोंक चुका था। 14 अगस्त को बारिश हुई थी तो मैदान गीला था। और बिना स्पाइक वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे। उस वक्त ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद जूते उतार कर नंगे पांव ही खेलना शुरु किया। जर्मनी को हारता देख हिटलर मैदान छोड़ जा चुके थे। और नंगे पांव ही ध्यानचंद ने हाफ टाइम के बाद गोल दागने शुरु किया। भारत 8-1 से जर्मनी को हरा चुका था।

बर्लिन ओलपिंक में भारत की टीम पर जर्मनी ने ही एकमात्र गोल ठोका था लेकिन संयोग से यह गोल भी भारतीय खिलाडी तपसेल की गलती से हुआ तो जर्मनी इस एक गोल पर गर्व भी नहीं कर सकता था। लेकिन तमगा देने का दिन 16 अगस्त तय हुआ और ऐलान हुआ कि हिटलर खुद ध्यानचंद को तमगा देंगे। इस ऐलान के बाद तो ध्यानचंद की आंखो की नींद रफूचक्कर हो गयी। समूची रात ध्यानचंद इस तनाव में ही ना सो पाये कि हिटलर कहेंगे क्या और कहीं जर्मनी की टीम को हराने पर कोई कदम उठाने का निर्देश ना दे दें। इधर भारत में भी जैसे ही खबर आयी कि कि 16 अगस्त को हिटलर ओलंपिक स्टेडियम में ध्यानचंद से मिलेंगे वैसे ही भारतीय अखबारो में हिटलर के उजूल-फिजूल निर्णयों के बारे में छपने लगा। और एक तरह की आंशका हर दिल में बैठने लगी कि हिटलर जब ध्यानचंद से मिलेंगे तो पता नहीं क्या कहेंगे। खैर वह वक्त भी आ गया। हिटलर के सामने ध्यानचंद खड़े थे। हिटलर ने ध्यामचंद की पीठ ठोंकी। नजरें उपर से नीचे तक की। हिटलर की नजर ध्यानचंद के जूतों में अटक गयी । जूते अंगूठे के पास फटे हुये थे। हिटलर ने पूछा इंडिया में क्या करते हो। सेना में हूं। सेना शब्द सुनते ही हिटलर ने ध्यानचंद की पीठ ठोंकी। क्या करते हो सेना में। पंजाब रेजिमेंट में लांस-नायक हूं। हिटलर ने तुरंत कहा जर्मनी में रह जाओ। यहां सेना में कर्नल का पद मिलेगा। ध्यानचंद ने कहा नहीं पंजाब रेजिमेंट पर मुझे गर्व है और भारत ही मेरा देश है। जैसी तुम्हारी इच्छा। और हिटलर ने सोने का तमगा ध्यानचंद को दिया और तुरंत मुड़ कर स्टेडियम से निकल गये। ध्यानचंद की सांस में सांस आयी और दुनियाभर के अखबारों में पहली बार हिटलर के सामने किसी के नतमस्तक ना होने की खबर छपी। यह कल्पना के परे है कि उस वक्त टीवी युग होता तो क्या होता । उस वक्त भी भावनाओ में देश बह रहा होता तो क्या होता। उस वक्त अगर सिर्फ वर्तमान को ही इंडिया का वजूद माना जाता तो महात्मा गांधी का संघर्ष भी ध्यानचंद के जादुई खेल के सामने काफूर हो चुका होता। हो सकता है अब के टीवी युग की तरह उस वक्त ध्यानचंद को आजादी के बाद पीएम की कुर्सी का ही ऑफर तो नहीं कर दिया जाता। और अगर मौजूदा वक्त में वाकई कोई ऐसा खिलाडी निकल आये तो क्या होगा। सवाल सचिन तेदुलकर को भारत रत्न मानने से आगे का है। क्योंकि बर्लिन से जब हाकी टीम लौटी तो ध्यानचंद को देखने और छूने के लिये पूरे देश में जुनून सा था। और ध्यानचंद जहां जाते वहीं हजारों लोग उमड़ते। रेजिमेंट में भी ध्यानचंद जीवित किस्सा बन गये। क्योंकि हिटलर से मिलकर और जर्मनी में रहने के हिटलर के ऑफर को ठुकरा कर ध्यानचंद लौटे थे। तो कल्पना कीजिये ध्यानचंद का कद क्या रहा होगा। ध्यानचंद को 1937 में लेफ्टिनेंट का दर्जा दिया गया। ध्यानचंद के तबादले होते रहे। सेना में वह काम करते रहे। द्वितीय विश्व युद्द शुरु हुआ और 1945 में जब युद्द थमा तो खुद को 40 की उम्र का बता कर और नये लड़कों को हॉकी खेलने के लिये आगे लाने के लिये पहली बार ध्यनचंद ने हॉकी से रिटायरमेंट की बात की। लेकिन देश के दबाव में ध्यानचंद हॉकी खेलते रहे और किसी भी देश से ना हारने की जो बात उन्होने 1926 में की थी उसे 1947 तक बेधड़क निभाते रहे। और तो और आजादी के बाद जब भारतीय हॉकी फेडरेशन ने एशिय़न स्पोर्ट्रस एसोशियसन { इस्ट अफ्रिका } से गुहार लगायी की उन्हें खेलने का मौका दे, जिससे विभाजन की आंच हॉकी पर ना आये तो एशियाई स्पोर्टस एशोशियन ने साफ कहा कि अगर ध्यानचंद खेलने आयेंगे तो ही भारतीय टीम आये। और यह भी अपने आप में इतिहास है कि 23 नवंबर 1947 को जब ध्यानचंद ने 42 बरस की उम्र में टीम को जोड़ा तो उसमें दो पाकिस्तानी खिलाड़ी भी थे। और उस वक्त देश में दंगों और बहते लहू के बीच भी ध्यानचंद भारतीय हॉकी टीम को लेकर अफ्रीका पहुंचे और यह ऐसी टीम थी जो विभाजन से परे थी। लाहौर, कराची और पेशावर के खिलाडी ध्यानचंद के साथ अफ्रीका जाने को तैयार थे। और वह टीम गयी भी। और उसने 22 मैच खेले। 61 गोल ठोंके। हारे किसी मैच में नहीं। ध्यानचंद ने लौट कर खुद की उम्र 40 पार बताते हुये और हॉकी ना खेलने की बात कही लेकिन देश में सहमति बनी नहीं और ध्यानंचद लगातार खेलते रहे। 51 बरस की उम्र में 1956 में आखिरकार ध्यानचंद रिटायर हुये तो सरकार ने पद्मविभूषण से उन्हें सम्मानित किया और रिटायरमेंट के महज 23 बरस बाद ही यह देश ध्यानचंद को भूल गया। इलाज की तंगी से जुझते ध्यानचंद की मौत 3 दिसबंर 1979 को दिल्ली के एम्स में हुई । और ध्यानचंद की मौत पर देश या सरकार नहीं बल्कि पंजाब रेजिमेंट के जवान निकल कर आये, जिसमें काम करते हुये ध्यानचंद ने उम्र गुजार दी थी और उस वक्त हिटलर के सामने पंजाब रेजिमेंट पर गर्व किया था जब हिटलर के सामने समूचा विश्व कुछ बोलने की ताकत नहीं रखता था। पंजाब रेजिमेंट ने सेना के सम्मान के साथ ध्यानचंद को आखिरी विदाई थी।

मौका मिले तो झांसी में ध्यानचंद की उस आखिरी जमीन पर जरुर जाइएगा, जहां टीवी युग में मीडिया नहीं पहुंचा है। वहां अब भी दूर से ही हॉकी स्टिक के साथ ध्यानचंद दिखायी दे जायेंगे। और जैसे ही ध्यानचंद की वह मूर्ति दिखायी दे तो सोचियेगा अगर ध्यानचंद के वक्त टीवी युग होता और हमने ध्यानचंद को खेलते हुये देखा होता तो ध्यानचंद आज कहां होते। लेकिन हमने तो ध्यानचंद को खेलते हुये देखा ही नहीं।

Wednesday, November 13, 2013

हमने सचिन को खेलते हुए देखा था

24 बरस के सफर में देश ने 8 प्रधानमंत्री को देख लिया। इन 24 बरस में राजनीति की हर धारा ने सत्ता भी संभाल ली। और तो और इन्हीं 24 बरस में देश का कोई राजनीतिक दल नहीं बचा, जिसने दिल्ली की सत्ता की मलाई नहीं चखी। और इसी 24 बरस में सचिन एक युग में बदल गये। जिस उम्र में बल्ला थामा उस उम्र से बड़ा अब उनका बेटा है। और हिन्दुस्तान के जिस रिकॉर्ड को 24 बरस पहले अगुंलियों पर गिना जा सकता था, उसे अपने 24 बरस के रिकॉर्ड से एक नयी परिभाषा दे दी। जो क्रिकेट की पूरी किताब में बदल गयी।
इतिहास के पन्नों में किस प्रधानमंत्री को याद किया जायेगा यह तो किसी को नहीं पता लेकिन क्रिकेट का जिक्र जब भी होगा तब सचिन का पन्ना स्वर्णिम अक्षरों के साथ खुलेगा। और यहीं से सचिन के नये मायने शुरु होते हैं। जो सचिन को क्रिकेटरों की कतार से अलग खड़ा कर देती है।

सचिन का नाम सचिन देव बर्मन के नाम पर पड़ा। सचिन ने उस वक्त पहला मैच खेला जब हर घर में टीवी दस्तक दे रहा था। सचिन उस दौर में चमके जब भारत बाजार में बदल रहा था। सचिन का नाम हर घर के बच्चे का नाम होने लगा। और सचिन भारत का ऐसा नामचीन ब्रांड बन गया। जिस पर भरोसा और विश्वास हर उम्र के लोगों को था। और मुंबई के शिवाजी पार्क में नन्हें पैरों में पैड बांधकर खेलने वाला सचिन देखते देखते देश का सबसे रईस क्रिकेटर बन गया। फोर्ब्स ने बताया कि 2012-13 के दौरान सचिन की कमाई और विज्ञापनों से मिलने वाली राशि 1 अरब 39 करोड 32 लाख रुपये है। वेल्थ एक्स के मुताबिक सचिन 10 अरब 13 करोड़ रुपये के मालिक हैं। तो सचिन जिस मिट्टी से निकले, उसने सचिन को सोना बना दिया। और अब जिस वानखेड़े स्टेडियम में सचिन आखिरी मैच खेलेंगे, उसे देखने देश के सबसे ज्यादा करोड़पति भी पहुचेंगे। और देश के सबसे लोकप्रिय व्यक्तियों से लेकर सबसे ताकतवर लोगों की कतार भी नजर आयेगी।
तो सचिन रिटायरमेंट के बाद 24 बरस पुराने सचिन तेदूलकर नहीं होंगे बल्कि चकाचौंध भारत के नुमाइंदे होंगे, जिनकी परछाई तले अंधेरे में सिमटा भारत खामोशी से सचिन को निहारेगा,खुश होगा और आने वाली पीढ़ियो को बतायेगा कि उसने कभी सचिन को खेलता हुये अपनी नंगी आंखों से देखा था।

क्योंकि सर डोनाल्ड ब्रैडमैन ने ९० के दशक में अपनी ड्रीम टीम में सचिन को जगह देते हुए उन्हें एक जीनियस से एक युग में बदल डाला था। लेकिन भारत में सचिन का जो जुनुन है उसके सामने तो कुछ दूसरे सवाल हैं। क्योंकि शाम 18 नवंबर को भी ढलेगी। लेकिन 18 नवबंर की शाम कुछ अलग होगी। क्योकि सबकुछ ठीक रहा तो 18 नवबंर को शाम ढलने के साथ ही मुबंई के वानखेडे स्टेडियम में सचिन की विदाई का जश्न खत्म होगा और उसके बाद सचिन तो होंगे लेकिन उनके साथ क्रिकेट नहीं होगा। कैसी होगी 19 नवंबर की वह सुबह जब सचिन का हाथ अनायास क्रिकेट के बल्ले को थामने के लिये बढेगा और उन्हे झटके में एहसास होगा कि अब तो 22 गज की पीच को वह पीछे छोड़ आये है । वानखेडे में अपनी मां और अपने गुरु के सामने खेल कर रिटायर होने का आखरी सपना सचिन ने ही संजोया । लेकिन सवाल यह अबूझ है कि आखिर जिस सपने को सचिन ने देखा अब वह खुद उसे पूरा मान चुके हैं तो फिर सचिन के रिटायरमेंट को लेकर एक अकुलाहट हर किसी में क्यों है। हर दिल की धड़कन क्यों बढ़ी हुई है। तो सच यही है कि मौजूदा क्रिकेट में सचिन की तरह चाहे हर कोई खेल रहा हो लेकिन सचिन जिस दौर से निकले और मौजूदा दौर जिस सचिन को देख रहा है वह क्रिकेटर से ज्यादा सचिन के जरीये अपनी पहचान पाने की अकुलाहट है। और फिलहाल देश में कोई ऐसा है नहीं जो कई पिढियो में नोस्टालिजिया जगा सके ।

तो दुआ कीजिये सचिन वानखेडे के कैनवास पर कुछ ऐसे रंग भरके रिटायर होंगे, जो पोएटिक जस्टिस कहलाए नहीं तो सचिन रिटायर हो जाएंगे और हर दिल में कसक रह जायेगी कि सचिन ने रिटायरमेंट का वक्त सही नहीं चुना या फिर देरी कर दी। क्योंकि सचिन सिर्फ बल्लेबाज या क्रिकेटर नहीं बल्कि एक ऐसे युग की पहचान हैं जहां सचिन चकाचौंध और अंधेरे भारत के बीच पुल हैं।

Thursday, November 7, 2013

मौजूदा राजनीति में क्षत्रप कितना टिकेंगे ?


देश के पहले आम चुनाव में कमोवेश हर राजनीतिक दल ने चुनावी प्रचार में कहा कि कमजोर और हाशिये पर पड़ी जातियों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिये हरसंभव प्रयास करेंगे। यूं संविधान में भी इसकी व्यवस्था की गयी कि पहले 15 बरस तो पिछड़ी जातियो को विशेष सुविधा दी जायेगी लेकिन धीरे धीरे हाशिये पर पड़े लोगों को मुख्यधारा से जोड़ लिया जायेगा। यह 15 बरस बीते तो और 10 बरस विशेष सुविधा देने की बात हुई। लेकिन धीरे धीरे विशेष सुविधा देने की राजनीति सत्ता पाने का ऐसा अनूठा मंत्र बनते चला गया कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होते ही राजनीतिक क्षत्रपों का उदय उसी चुनावी राजनीति से हो गया, जिसने वादा किया था कि पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा में शामिल कर लिया जायेगा। सुविधा का मतलब आरक्षण से हुआ। और आरक्षण के जरिये मिलने वाली सुविधा पेट से जुड़ी है तो यह चुनाव में सबसे बडा हथियार के तौर पर उन राजनीतिक क्षत्रपों ने अपनाया जिनकी राजनीतिक जमीन ही जातियों के उस ताने बाने से बनी जो हाशिये पर पड़े रहने को ही मुख्यधारा में आने से कही ज्यादा महत्व देने लगी।

ऐसा ही कुछ मुस्लिमों के साथ हुआ। जिसका सच 2006 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने यह लिखकर देश को आइना दिखा दिया कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर सबसे पिछडा देश का मुस्लिम समाज है। लेकिन यहां भी पिछड़ापन या सुविधा की खोज राजनीति का हथियार बना और पहले कांग्रेस तो उसके बाद जातियों में सिमटे क्षत्रप झटके में कुछ ऐसे मुस्लिम परस्त हुये कि अपनी खास जाति के साथ मुस्लिम गठबंधन ने सत्ता पाने और सत्ता बनाये रखना का अनूठा मंत्र हर किसी को दे दिया। तो "एम" यानी मुस्लिम फैक्टर चुनावी राजनीति का नायाब शब्द बन गया। ध्यान दें तो क्षत्रपों के विकास और मुख्यधारा में जोडने के नारे के साथ साथ इसी दौर में वर्ग संघर्ष का सवाल भी अमीर-गरीब के जरीये मार्क्सवादियों ने राजनीतिक तौर पर बाखूबी उभारा। और इस राजनीति का तोड़ निकला मनमोहन की इकनॉमिक्स तले। क्योंकि सवाल हाशिये पर पड़ी जातियों का हो या गरीबों का संघर्ष और सत्ता की मुनादी ने सत्ता पाने तक हर पांच बरस के दौरान इस वोट बैंक के दर्द को बाखूबी उभारा और उसमें रिसते घाव का बाखूबी इस्तेमाल भी किया। और चूंकि हर दर्द का इलाज या सुविधा का मंत्र पेट से जुड़ा रहा तो हर जाति को नुमाइन्दा भी मिला और उसने विकास की हर थ्योरी को न्यूनतम जरुरत के जुगाड़ से जोड़ा। जिसमें रोजगार से लेकर पैकेज और आर्थिक लाभ से लेकर मुफ्त योजना ही रही। लेकिन मनमोहन सिंह की खुली अर्थव्यवस्था ने झटके में तीन सच की जमीन बदल दी। पहला बाजार को जातिमु्क्त बना कर पेट को उस इक्नामिक्स से जोड़ दिया जो जाति पर निर्भर नहीं थी। दूसरा बाजार राजनीतिक गठबंधन से इतर मुनाफा बनाने की थ्योरी लेकर आया। यानी यादव - मुस्लिम गठबंधन किसी यादव को सत्ता तक तो पहुंचा सकते हैं लेकिन सत्ता की सुविधा जब विकास के कटोरे से निकलेगी तो हो सकता है खुली बाजार अर्थव्यवस्था में दोनो एक दूसरे से टकरायें। यानी यह कतई जरुरी रहा कि सत्ता दो जतियों के जोड़ से मिलती है तो सत्ता का लाभ भी दोनो जातियों को मिले या फिर जातियों के आधार पर मिले। और तीसरा कारपोरेट की सत्ता जातीय या धार्मिक वोटबैंक को आधार नहीं बनाती। यानी लोकतंत्र के पारंपरिक औजार चुनावी राजनीति के नये औजार के सामने भौथरे भी साबित हो रहे हैं। और कॉरपोरेट देश की पारंपरिक राजनीति को प्रभावित कर रही है। और संयोग से मौजूदा राजनीति इसी बिसात पर आ खड़ी हुई है। जिसमें पारंपरिक राजनीति और कारपोरेट सत्ता आमने सामने आ खड़ी हुई है। एक लिये नागरिक होना महत्वपूर्ण है तो दूसरे के लिये उपभोक्ता।

उपभोक्ता तो नागरिक है लेकिन नागरिक उपभोक्ता हो यह जरुरी है। और संयोग से नागरिक को लेकर सियासी मथना चलने वाले राजनीतिक दलों के सामने पहली बार संकट यह आया है कि वह राजनीतिक बिसात पर तो पांसा उलट-पुलट सकते हैं लेकिन कॉरपोरेट पूंजी से कैसे टकरा सकते हैं। वजह यही है कि नरेन्द्र मोदी बड़े खिलाडी के तौर क्यों नजर आ रहे हैं और पारंपरिक राजनीति करने वालो को अपनी जमीनी परिभाषा को ही क्यों बदलना पड़ रहा है, यह समझे इससे पहले राजनीतिक परंपरा की लकीर समझ लें। तो राजनीति की तीन धारा कांग्रेस, क्षत्रप और वामपंथी में सिमटी सियासत में चौथी धारा के तौर पर भाजपा सेंघ लगा पाने में कभी सफल हो नहीं पायी क्योंकि उसकी जननी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हमेशा सामाजिक शुद्दीकरण की बात की। और शुद्दीकरण के दायरे में राजनीति के उन हथियारो को हमेशा प्रतिबंधित रखा जो सत्ता पाने के मंत्र थे। इसीलिये आरएसएस का पाठ पढ कर निकले स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हो या मौजूदा वक्त में लालकृष्ण आडवाणी दोनो ने संघ की नीतियों को एक वक्त के बाद राजनीतिक तौर पर मानने से इंकार कर दिया। अब जरा नरेन्द्र मोदी के पीएम पद के उम्मीदवार बनने से देश के राजनीतिक जमीनी सच को समझे। पहली बार संघ का स्वयंसेवक जो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में है। वह हिन्दू राष्ट्रवाद की गूंज करता है लेकिन वह खुद अतिपिछड़ी जाति का है। यानी मंडल के दौर में बने क्षत्रपो के सामने पारंपरिक परेशानी यह है कि वह ऊंची और पिछडी जातियों के लेकर कोई लकीर मोदी को लेकर खिंच नहीं सकते हैं। क्योंकि तब जातीय समीकरण टूटने लगेंगे। वहीं वाम विचार भी मोदी को लेकर कमजोर पड़ेंगे क्योंकि नरेन्द्र मोदी खुद गरीबी से निकले हैं और चुनाव में गरीबी या अमीरी मुद्दा बनती है तो फिर मौजूदा वक्त में कमोवेश हर क्षत्रप करोड़पति और अरबपति हो चुका है। कांग्रेसी भी इस कतार में अव्वल हैं। तो जाहिर है निशाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही आयेगा या संघ के संवयसेवक के तौर पर नरेन्द्र मोदी को लाया जायेगा। लेकिन कांग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दल अगर सिर्फ यही बिसात बिछाते हैं तो उनके सामने क्या क्या मुश्किल आ सकती है यह नरेन्द्र मोदी को घेरने के लिये दिल्ली में एक दर्जन से ज्यादा राजनीतिक दलों के नुमाइन्दो के जुटने के हालात से समझा जा सकता है। जो यह मान रहे हैं कि अगर मनमोहनइक्नामिक्स से निकले मुद्दे महंगाई, घोटाले, कालाधन को खारिज कर फासीवाद और साप्रंदायिकता को मुद्दा ना बनाया गया तो राजनीतिक तौर पर हर किसी का सूपड़ा साफ हो जायेगा। तो पहली बार पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का मतलब ही हिटलरवादी, फासीवादी या सांप्रदायिकता हो चला है। यानी नेताओं का जमघट अतीत के सच को नरेन्द्र मोदी के पीएम पद का उम्मीदवार बनते ही बदल रहा है। क्योंकि संघ परिवार या अयोध्याकांड के नायक आडवाणी या स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम बनते ही फासीवाद और सांप्रदायिकता की जिस परिभाषा को सत्ता के लिये जिन नेताओं ने बदला अब नरेन्द्र मोदी के गुजरात से बाहर निकलते ही नयी परिभाषा दिल्ली में उन्हीं नेताओं ने गढ़ी। नीतीश के लिये बाबरी कांड करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी सांप्रदायिक कभी नहीं रहे। मुलायम की सरकार ने मुज्जफरनगर दंगों की आग में सियासी गोटियां फेंकी। और अयोध्याकांड के नायक कल्याण सिंह के साथ जमकर गलबहियां की, जिससे जातियों का जुनुन जगाया जा सके। लेकिन मुलायम मौलाना ही रहे और सांप्रदायिक नहीं हुये। बाबूलाल मंराडी तो बीजेपी से ही निकले। और अब उ बीजेपी सांप्रदायिक दिखायी दे रही है। नवीन पटनायक अयोध्या की आग के बाद भी लंबे वक्त तक बीजेपी से गलबहिया डाले रहे। लेकिन सम्मेलन में बीजेडी के नेता ने कहा कि आरएसएस के स्वयंसेवक देश को बांटने की राह पर निकले हुये हैं। जयललिता ने स्वयंसेवक पीएम वाजपेयी से परहेज नहीं किया। प्रफुल्ल महंत भी एक वक्त स्वयंसेवक पीएम के दौर में साथ खड़े रहे। लेकिन आज उन्हें एक दूसरा स्वयंसेवक सांप्रदायिक नजर आ रहा है और चूंकि नीतीश कुमार ने फासीवाद के आहट का जिक्र कर इमरजेन्सी की याद सम्मेलन में बैठे मीडियाकर्मियो को दिलायी। तो मंच पर बैठे ए बी वर्धन को जरुर यह याद आया होगा कि इमरजेन्सी के वक्त सीपीआई इंदिरा गांधी के साथ खड़ी थी। अब यह सवाल उठना जायज है कि जिस पार्टी या जिन स्वयंसेवको के साथ राजनीति करने में राजनीति के इन धुरन्धरों को कोई परहेज नहीं रहा और अब उसी बीजेपी और उन्हीं राजनीतिक स्वयंसेवकों ने भी अपना नेता नरेन्द्र मोदी को मान कर मिशन 2014 का संघर्ष शुरु किया है तो फिर उसी पार्टी और उन्हीं स्वयंसेवकों को छोड़ कर कभी साथ खड़े रहे राजनेताओं के नये विचार या नयी परिभाषा को लेकर देश का आम वोटर क्या सोचें। असल में राजनीति की साख इसीलिये डांवाडोल है और इसी डांवाडोल स्थिति का लाभ नरेन्द्र मोदी को लगातार मिल रहा है। असल में दिल्ली में 14 राजनीतिक दलो के जमावडे में हर नेता की जुबान पर मोदी का नाम किसी ना किसी रुप में जरुर आया। किसी ने संकेत की भाषा का इस्तेमाल किया तो कोई सीधे निशाने पर लेने लगा।

और पहला सवाल यही निकला की 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी ही मुद्दा है। और ढाई दशक पहले मंडल कंमडल से निकली राजनीति के जरीये जो भी क्षत्रप बने उनकी राजनीति में पहली बार नरेन्द्र मोदी सेंध लगा रहे हैं। क्योंकि जाति के तौर पर मोदी अति पिछडा से आते हैं। वाम नजरिये से समझे तो मोदी गरीब परिवार से आते हैं । और दूसरा मुद्दा उठा कि मनमोहन सरकार के कामकाज से कांग्रेस का ग्राफ गिर रहा है और अब शरद पवार भी खड़े होने से कतरा रहे हैं। एनसीपी नेता डी पी त्रिपाठी हालाकि लगातार बोलते रहे कि वह यूपीए के साथ हैं। लेकिन जिस तर्ज पर मौजूदा राजनीति का विकल्प खोजने की कवायद शुरु हुई है उसमें मौजूदा क्षत्रपों के आपसी टकराव ही सबसे बडी रुकावट है। क्योंकि शरद पवार महाराष्ट्र में बिना कांग्रेस के रह नहीं सकते। वह जानते है कि कांग्रेस का साथ जहां उन्होंने छोडा वहीं एनसीपी के तमाम नेता काग्रेस की राह पकड़ लेंगे। तो बिहार की सियासत में सांप्रदायिकता के सवाल पर नीतीश पर लालू हमेशा से भारी हैं। यूपी के मौजूदा सियासी हालात बताते हैं कि मुलायम पर मायावती भारी हैं। बंगाल में लेफ्ट फ्रंट की वाम धारा को ही ममता बनर्जी हड़प चुकी है। असम में प्रफुल्ल महंत फूंके हुये कारतूस हैं। पंजाब में पीपीपी के मनप्रीत बादल चूके हुये राजनीतिक खिलाड़ी हैं। तो राजनेताओं की दिल्ली में कवायद संख्या बल से तो राजनीति को प्रभावित कर सकती है लेकिन जमीनी राजनीति में बिहार में लालू, बंगाल में ममता,यूपी में मायावती, तमिलनाडु में करुणानिधि और आध्र प्रदेश में जगन रेड्डी को कैसे खारिज किया जा सकता है। खासकर तब जब सवाल संख्या बल के भरोसे सरकार बनाने के दौर का हो। और बिना गठबंधन कोई सरकार बना नहीं सकता है, इसे जब हर कोई जानता हो। ध्यान दें तो मनमोहन के बाजारवाद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को कमजोर कर दिया। और मंहगाई भ्रष्टाचार या कालाधन सरीखे मुद्दे आम लोगों के पेट से जुड़ गये जबकि सांप्रदायिकता सियासी मुद्दा भर रह गया। और राजनेताओं ने इस सच को हमेशा पूंछ से पकड़ने की कोशिश की इसीलिये मौजूदा दौर में राजनीति की साख भी कमजोर हुई। इसलिये याद कीजिये तो दो बरस पहले ही अन्ना हजारे के गैर राजनीतिक आंदोलन ने सत्ताधारी राजनीतिक दलो की चूलें हिला दी थीं। असल में राजनीति को लेकर आम लोगो के इसी गुस्से को नरेन्द्र मोदी हर किसी को खारिज कर भुना रहे हैं और तमाम राजनीतिक दल मुद्दा छोड़ मोदी को ही मुद्दा मान मिशन 2014 की दिशा में चल निकले हैं। तो विकल्प का रास्ता निकलेगा कैसे यह सबसे बड़ा सवाल है। और खासकर तब जब नरेन्द्र मोदी कांग्रेस की नब्ज पर हमला करने की तैयारी भी कर रहे है और संघ से अलग खुद को दिखाने का प्रयास भी कर रहे हैं। एक वक्त संघ के चहते प्रवीण तोगडिया. संजय जोशी और एम जी वैघ ने कई मौको पर मोदी को खारिज किया। लेकिन संघ परिवार मोदी के साथ खड़ा रहा। इस कैनवास को विस्तार दिजियेगा तो संघ के भीतर यह सवाल बार बार उठा कि सिर्फ नरेन्द्र मोदी के आसरे संघ की समूची राजनीतिक धारा को परिभाषित किया जाये। या फिर अयोध्या, कॉमन सिविल कोड, धारा 370 या गोवध या फिर गंगा शुद्दिकरण सरीखे मुद्दो को भी चुनावी राजनीति से जोड़कर स्वयंसेवक मोदी को आगे बढ़ाया जाये। और अगर ऐसा नहीं होता है तो वाजपेयी या आडवाणी से कई कदम आगे निकल कर संघ की राजनीतिक धारा को मोदी खारिज करेंगे। क्योंकि वाजपेयी तो पीएम बनने के
बाद बदले। आडवाणी पीएम होने के लिये जिन्ना प्रकरण में डूबकी लगा आये और मोदी ने अपनी लोकप्रियता को ही राजनीतिक तमगा मान लिया। ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी ने कभी विवादास्पद मुद्दों को नहीं उठाया। राम मंदिर भी नहीं। मंदिर से पहले शौचालय की जरुरत जरुर बतायी। कॉरपोरेट को कभी खारिज नहीं किया। जातीय या वर्ग के आधार पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की। सिर्फ एक बार हिन्दु राष्ट्रवाद का जिक्र मोदी ने अपने इंटरव्यू में किया । लेकिन इस दायरे से कोई नये जातीय समीकरण बनते या टूटते ऐसा भी नहीं है । और बेहद बारीकी से नरेन्द्र मोदी ने दो परिस्थितियों पर कभी कोई हमला नहीं किया। पहला कॉरपोरेट और दूसरा खुली बाजार इकनॉमिक्स।

संयोग से मनमोहन सिंह इन्हीं दो के आसरे सत्ता में 10 बरस से बने हुये हैं। और संयोग से इन दोनो स्थितियों का ही कमाल है कि बिहार यूपी के जातीय वोट बैंक को लगातार डिगा भी रहा है और जातियां अपने नुमाइन्दो पर यह दबाव भी बना रही हैं कि कि पारंपरिक धारा टूटनी चाहिये। इन परिस्थितियों में मुलायम सिंह यादव हो या नीतिश कुमार अगर जातीय समीकरण के आसरे ही सियासत होगी तो फिर मौजूदा राजनीति जातिय सेंघ लगाकर भी पार पा सकते हैं। क्योंकि कुर्मी जाति के नेता के तौर पर नीतीश की पहचान हो सकती है लेकिन राष्ट्रीय तौर पर कुर्मी जाति की बहुलता नहीं है यही मुश्किल मुलायम सिंह यादव को लेकर यादव वोटबैंक के साथ हो सकती है। और ऐसी ही परिस्थितियां महाराष्ट्र में मराठा वोटबैंक की और दक्षिण में द्रविड वोट को लेकर हो सकती है  ध्यान दें तो पहली बार जातीय बंधनों में बंधी राजनीति भी विकास का ढिढोरा इसलिये पीट रही हैं क्योंकि मनमोहन इकनॉमिक्स ने परंपरा से इतर जिन्दगी जीने की मुश्किलें बढायी हैं। और यह मुश्किल सीधे पेट से जुड़ी हैं . इसका लाभ और कोई नहीं कॉरपोरेट सत्ता उठाना चाहती है। जो उठा रही है। इसलिये मौजूदा संसद में अगर सौ से ज्यादा सांसद अगर कॉरपोरेट की पूंजी पर टिके हैं। और चुनाव लडते वक्त कारपोरेट ही पैसा लगाता है और संसद में कारपोरेट का ही हित यह सांसद पूरा करते है और इसे विकास का जामा पहना दिया जाता है। क्योंकि सरकार का अपना कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर है नहीं, जो कॉरपोरेट से बेहतर हो या उसके सामानांतर हो। फिर राजनीति के इस मोड़ पर जब कारपोरेट गवर्नेंस को लेकर सरकार पर सवालिया निशान लगा रही हो और नरेन्द्र मोदी उसी कारपोरेट के चहेते बने हो तब क्षत्रपों की राजनीति क्या मायने रखेगी यह एक सवाल भी है और आने वाले वाले वक्त में नायाब लोकतंत्र का बदलता चेहरा भी।