Wednesday, November 27, 2013

इस शून्यता से कैसे उबरेंगे ?

क्या यह वाकई इतना मुश्किल दौर है जब स्थापित मूल्यों की जड़ें हिल रही हैं और विकल्प की समझ मौका मिलते ही व्यवस्था का हिस्सा बनने को बेताब हो रही है। एक साथ तीन पिलर डगमगाये हैं। समाज को गूथे हुये परिवार । पत्रकारिता के जरीये सत्ता से टकराने का जुनून। राजनीतिक व्यवस्था पर अंगुली उठाकर बदलने का माद्दा। सीधे समझें तो आरुषि हत्याकांड, तरुण तेजपाल और आम आदमी पार्टी। आरुषि हत्याकांड ने परिवार की उस धारणा से आगे निकल कर भारत के उस पारंपरिक और मजबूत रिश्तों की डोर पर ना सिर्फ सीधा हमला किया जो समाज के गूंथे हुये हैं बल्कि आधुनिक भारत के उस परिवेश पर भी सवालिया निशान लगा दिया जो सरोकार और संबंधों को लगातार दरकिनार कर संवेदनाओं का तकनीकीकरण कर रहा है। वहीं तरुण तेजपाल का मतलब महज तहलका का मालिक होना या संपादक होते हुये अपने सहकर्मी या खुद के नीचे काम करने वाली पत्रकार का यौन शौषण भर नहीं है बल्कि जिस दौर में पत्रकारीय मूल्य खत्म हो रहे हैं। पत्रकारिता पेड न्यूज से आगे निकल कर कॉरपोरेट और राजनीति के उस कठघरे का हिस्सा बनने को तैयार है, जहां चौथा खम्बा तीन खम्बो पर खबरो की बेईमानी का लेप इस तरह चढ़ाये जिससे इमानदारी की चिमनी दिखायी दे, उस वक्त तहलका ने सत्ता से टकराने की जुर्रत ही नहीं की बल्कि रास्ता भी दिखाया। संयोग से बलात्कार के आरोप में फंसे तरुण तेजपाल की परतों को जब उसी मिडिया ने खोलना शुरु किया तो पत्रकारीय साख कहीं ज्यादा घुमिल लगी ही नहीं बल्कि तेवर वाली पत्रकारिता के पीछे गोवा की चकाचौंध से लेकर उत्तराखंड समेत तीन राज्यों में करोड़ों की संपत्ति का पिटारा खुल गया। वहीं जन जन के दिल से निकले अन्ना-केजरीवाल आंदोलन ने जब व्यवस्था पर चोट की और बदलाव के लिये विकल्प का साजो सामान तैयार किया तो साधन ने साध्य की ही कैसे हत्या कर दी यह आम आदमी पार्टी के मौजूदा त्रासदी ने जतला दिया। जब बिखरते साथियों के बीच अन्ना हजारे ने ही खुले तौर पर केजरीवाल को आंदोलन के सपने को राजनीतिक चुनाव के लिये बेचने के लिये अपने नाम के इस्तेमाल पर ही रोक लगाने को कह दिया। और झटके में अन्ना का लोकपाल, रामलीला मैदान का लोकपाल हो गया। तो क्या कोई सपना। कोई विकल्प। कोई आदर्श हालात को अब देश स्वीकार पाने या उसे सहेज पाने की स्थिति में नहीं है। और अगर नहीं है तो वजह क्या है। तो जरा सिलसिलेवार तरीके से हालात को परखे।

आरुषि हत्याकांड पर 210 पेज के फैसले के हर शब्द की चीत्कार को अगर सुने तो एक ही आवाज सुनायी देगी। और वह है मां-बाप का झूठ । हत्या के दिन से लेकर फैसले के दिन तक । लगातार साढे बरस तक हर मौके पर झूठ । असंभव लगता है। कोई लगातार इतने बरस तक झूठ क्यों बोलेगा। सिर्फ खुद को बचाने के लिये झूठ। या फिर बेटी के साथ मां-बाप के सबसे पाक और सबसे करीबी रिश्ता। जननी से लेकर गीली मिट्टी के गूथकर कोई शक्ल देने वाले कुम्हार की तर्ज पर बेटी को जिन्दगी देने और सहेजते हुये एक शक्ल देने वाले माता पिता की धारणा के टूटने से बचने के लिये झूठ। हालांकि अदालत के फैसले पर अंगुली उठाते हुये
आरुषी के मां-बाप अदालती न्याय को अन्नाय ही करार दे रहे हैं और समूची जांच में कुछ ना मिलने पर भी फैसला दिये जाने की परिस्थितिजन्य सबूतों को खारिज कर रहे हैं। लेकिन न्याय की कोई लकीर तो खींचनी ही होगी। और न्यायपालिका से इतर न्याय की लकीर खींचने का मतलब होगा अराजक समाज का न्यौता देना। तो फैसले के गुण-दोष से परे मां-बाप के बच्चों के साथ रिश्ते और खासकर आरुषी के साथ राजेश और नुपुर तलवार के सरोकार की हदों को भी समझना होगा। एक तरफ महानगरीय जीवन। चकाचौंध में छाने या पहुंच बनाने का जुनून। रिश्तों में खुलापन। संबंधों के पारंपरिक डोर को तोड़कर आधुनिक दिखने की चाहत। यह सब मां-बाप के लिये अगर ऑक्सीजन का काम कर रहा है तो फिर बेटी के अंतद्वंद को कौन समझेगा। बच्चों की बेबसी कहे या फिर गीली मिट्टी को कुम्हार कोई शक्त ना दे तो कैसे किसी टेड़े-मेढ़े पत्थर की तरह वह मिट्टी का ढेर हो जाता है और कितना वीभत्स लगता है, इसे कुम्हार के किसी भी बर्तन के बगल में पड़े देखकर कोई भी समझ सकता है और खुद कुम्हार को भी इसका एहसास होता है। तो तीन सवाल आरुषि के मां-बाप को लेकर हर जहन में उठ सकते है। पहला, हत्या के हालात में गुस्सा आरुषी की जिन्दगी जीने के तौर तरीके पर था। दूसरा, हत्या के पीछे खुद को लेकर गुस्सा था तो बेटी को सहेज ना सके। उसे जिन्दगी जीने की कोई शक्ल ना दे सके। तीसरा , यह महज तत्काल के हालात थे। अगर तीनों परिस्थितियों को मिला भी दें तो भी पहली और आखिरी उंगुली मा-बाप को लेकर ही उठेगी। क्योंकि एक तरफ आधुनिक भारत के साथ तेज तेज चलने की दिशा में बढ़ते मां बाप के कदम और दूसरी तरफ मध्यमवर्गीय परिवेश में आधुनिक और पंरपरा के बीच झूलती आरुषि। यह इसी दौर का सच है जब पूंजी हर रास्ते को आसान करने की परिभाषा गढ़ रही है। तकनीक रिश्तों की जगह ले रही है। और जिन्दगी चकाचौंध भरी ताकत की आगोश में खोने का नाम हो चला है। तो दोष किसका है और क्या यह भविष्य के भारत की पहली दस्तक है। जो ऑनर के नाम पर हारर किलिंग की हद से भी आगे की तस्वीर है। इसे रोक कौन सकता है। शायद सिस्टम। शायद सत्ता की नीतियों से बनती व्यवस्था।

तो सिस्टम और सत्ता पर नजर रखने के लिये ही तो तहलका के जरीये तरुण तेजपाल ने शुरुआत की थी। याद कीजिये एनडीए की सत्ता के दौर में पेशेवर पत्रकार भी स्वयंसेवक लगने लगे थे। कांग्रेस के वजूद पर बीजेपी नेता अंगुली उठाने लगे थे। आडवाणी तब यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि अब तो राष्ट्रपति प्रणाली आ जानी चाहिये। उसी दौर में तेजपाल के स्टिग आपरेशन ने एनडीए सत्ता की चूलें हिलायी थीं। और तब पत्रकारों ने पहली बार महसूस किया था कि कोई मीडिया संस्थान सत्ता से टकराने के लिये खड़ा हो सकता है। और तब तहलका पत्रिका निकालने की योजना बनी । तहलका को ना सत्ता की मदद चाहिये थी और ना ही कारपोरेट की। चंदा लेकर तहलका शुरु हुई। उस वक्त जिन लोगों ने चंदे दिये उसमें कई लोगो ने तो रिटायरमेंट के पैसे भी चंदे के तौर पर तहलका को दे दिये। 13 बरस पहले के उस दौर में तहलका की नींव रखी गयी, जब मीडिया धीरे धीरे कारपोरेट के लिये आकर्षण का केन्द्र बनने लगे थे। और तहलका प्रतीक बनता चला गया ऐसी पत्रकारिता का जो सत्ता से सीधे टकराने से हिचकती नहीं और आम जनता की पूंजी पर आम पाठकों के लिये आक्सीजन का काम करने लगी। लेकिन तेरह बरस के सफर में कैसे तरुण तेजपाल स्कूटर चलाते चलाते खुद में कारपोरेट बन गये और कई शहरो में की संपत्तियों के मालिक हो गये, इसे कभी किसी ने टोटलने की हिम्मत नहीं की। और अब सोचें तो, की भी होती तो कोई भी ऐसी रिपोर्ट को पत्रकारीय मूल्यों पर हमला करार देता। लेकिन जैसे ही बलात्कार के आरोप में तेजपाल फंसे और जैसे ही तेजपाल ने खुद को देश की कानून व्यवस्था से उपर मान कर आरोप को स्वीकारते हुये छह महीने के लिये तहलका के पद को छोड़ने का ऐलान किया, वैसे ही पत्रकारीय जगत अफीम की उस खुमारी से जागा जो तरुण तेजपाल ने तहलका की रिपोर्टों के जरीये पिलायी थी। और झटके में यह सवाल बड़ा हो गया कि क्या अपराध करने वालो के बीच आम और खास की कोई लकीर होती है। और क्या वाकई कोई यौन शोषण कर आत्म ग्लानी करें तो कानून को अपना काम नहीं करना चाहिये। ध्यान दें तो तरुण तेजपाल ऐसा सोच सकते है, यह अपने आप में किसी के लिये भी झटका है। क्योंकि तहलका की पत्रिका ने ही जब अपनी रिपोर्ट से सत्ता पर हमला बोलना शुरु किया तो हर आम पाठक और हर सामान्य पत्रकार को पहली बार महसूस हुआ कि विशेषाधिकार किसी का होता नहीं और अपराधी तो अपराधी ही होता है। चाहे ताबूत घोटाले में कभी जार्ज फर्नाडिस फंसे या फिर सत्ता के मद में चूर मोदी । लेकिन खुद को सजा देने का जो तरीका तरुण तेजपाल ने अपनाया और उसके बाद तेजपाल की निजी संपत्ति से लेकर तहलका के कारोबार का पूरा लेखा-जोखा जब सामने आने लगा तो कई सवाल हर जहन में उठे और बलात्कार के आरोप लगने के बाद भी पीड़ित लड़की को ही कठघरे में खड़ा करने के तेजपाल के अलग अलग तर्कों ने एक बार पिर पत्रकारिय जगत को उसी निराशा में ढकेल दिया जहा साख बनाकर उसे बेचने या खुद को भी उसी सत्ता का हिस्सेदार बनाने की कवायद तरुण तेजपाल ने भी की। शायद वजह भी यही रही कि तहलका पत्रिका के तेवर मौजूदा दौर में चाहे धीरे दीरे कमजोर होते जा रहे थे लेकिन कोई दूसरा मीडिया संस्थान भी इस दौर में खड़ा हुआ नहीं जो सत्ता से टकराये या बिना कारपोरेट चले तो तहलका की मान्यता बनी रही। और तरुण तेजपाल के निजी सरोकार भी आम लोगों से कट कर उस खास कटघरे में पहुंच गये, जहां तरुण तेजपाल को यह लगने लगा कि उसका कद इतना बड़ा हो चुका है कि कहां हुआ हर शब्द कानून पर भी भारी पड़ेगा। यानी देश के उस मिजाज को ही तरुण तेजपाल बलात्कार के आरोपी बनने के बाद समझ नहीं पाये कि जमीन की पत्रकारिता शिखर पर तो पहुंचा सकती है लेकिन शिखर पर होने का दंभ कभी आत्मग्लानी की जमीन पर टिकता नहीं है। और हो यही रहा है। लेकिन यह उस तहलका की मौत है जिसने पत्रकारों को लड़ना और विकल्प खड़ा करना सिखाया था।

विकल्प की सोच तो अन्ना-केजरीवाल के आंदोलन से भी शुरु हुई और व्यवस्था परिवर्तन ही नहीं मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था पर भी सीधी अंगुली उठाकर आंदोलन ने पहली बार हर उस तबके को संसद के सामानांतर सड़क पर ला खड़ा किया जो राजनीतिक व्यवस्था को लेकर गुस्से में था। गुस्सा आंदोलन को तो व्यापक बना सकता है लेकिन आंदोलन ही परिवर्तन की सत्ता में तब्दील हो जाये यह होता नहीं और हुआ भी नही। लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के लिये आंदोलन सरीखा हथियार अर्से बाद भारत की जनता को जगा गया। लेकिन आंदोलन की जगह अगर राजनीतिक दल ही हथियार बन जाये और राजीनितक चुनाव के जरीये ही व्यवस्था परिवर्तन का सवाल उठे तो फिर सबकुछ साधन पर टिक जाता है। सीधे समझे तो महात्मा गांधी के साध्य और साधन वाली थ्योरी को .हा समझना जरुरी है । अगर आम आदमी पार्टी चुनाव को भी आंदोलन की शक्ल में ढालती तो क्या अन्ना हजारे यह कहने की हिम्मत जुटा पाते कि उनके नाम का इस्तेमाल आम आदमी पार्टी ना करें । दरअसल अन्ना ने जिस तरह अपने नाम को जनलोकपाल से बडा माना और आम आदमी पार्टी ने भी अन्ना के नाम को लोकपाल से जोड कर अन्ना हजारे की गैर मौजूदगी में भी चुनावी राजनीति में अन्ना की मौजूदगी को दिखाने की कोशिश की उसने व्यवस्था परिवर्तन की उस सोच पर तो सेंध लगाया ही जो आंदोलन के दौर में खड़ी हुई थी। यानी जनलोकपाल के आंदोलन की साख पर आम आदमी पार्टी ही चुनावी तौर तरीकों से बट्टा लगाती हुई इसलिये दिखायी देने लगी क्योंकि आंदोलन समूचे देश का था। जंतर-मंतर और रामलीला मैदान हर शहर में बना था। लेकिन आम आदमी पार्टी ने पार्टी के टिकट पर चुनाव लडने वाले सदस्यो पर ही समूचे आंदोलन का बोझ डाल दिया । यानी जो आंदोलन देश के बदलाव का सपना था उससे निकले राजनीतिक पार्टी के सदस्यो के चुनावी जीत ही पहला और आखिरी सपना दिखायी देने लगा। इसलिये अन्ना के पत्र के बाज जो भी थोथे आरोप आम आदमी पार्टी पर लगे उससे भी आम आदमी पार्टी घायल होती चली गयी क्योंकि चुनाव लड़ने वाले सतही है। उनके सपने उनके संघर्ष बदलाव से पहले खुद की जीत चाहते है। और जीत के बाद बदलाव की सोच को भारती समाज मान्यता इसलिये नहीं देता क्योंकि चुनावी जीत सत्ता बनाती है। जबकि आंदोलन सत्ता के खिलाफ होते है । शायद इसीलिये दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ने वालों के चरित्र भी उसे हर दूसरे राजनीतिक दल की कतार में ही खड़ा करते हैं। चाहे करोड़पति उम्मीदवारों की बात हो या दागी उम्मीदवारों की। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 70 में से 35 करोड़पति और 5 दागी आम आदमी पार्टी में भी है। फिर पार्टी के संगठन पर आंदोलन की हवा कुछ इस तरह हावी है जैसे दिल्ली में हर काम नीतियों के आसरे होता हो। यानी हर वह सवाल जो अन्ना-केजरीवाल के आंदोलन के दौर में उठा और देश बदलाव का सपना देखने लगा । वही सवाल आम आदमी पार्टी के चुनाव प्रचार के तौर तरीकों के सामने नत-मस्तक हो गये ।

यानी हर स्तर पर सपने टूटे । संघर्ष थमा । रिश्तो का दामन छूटा । विकल्प का सवाल उपहास लगने लगा और आंदोलन सत्ता की मद में मलाई बनाने का साधन हो गया। अजब संयोग है मौजूदा वक्त में समाज और सत्ता के सामने परिवार से लेकर संघर्ष बेमानी लगने लगे । और सिस्टम ने खुद को एकजुट कर अपने खिलाफ संघर्ष को ही कुछ इस तरह सिस्टम का हिस्सा बना लिया कि हम आप मानने लगे कि अब इस शून्यता से कैसे उबरेंगे।

11 comments:

  1. आज तक का ओपिनियन पोल मैं ने देखा. देख कर बड़ी निराशा हुई. क्या पत्रकारिता के इन्ही मूल्यों से देश को आगे ले जाएंगे. दिल्ली मैं बीजेपी को ४० सीटें, ये दिवा स्वप्न के अलावा कुछ नहीं. आप भी जानते हैं कि इस बार winning margin बहुत कम होगा. कई सीटों पर २००० से भी कम. आपके ओपिनियन पोल के झूट से बस ये होगा, कि जहाँ AAP कि सरकार बन ने वाली होगी, वहाँ त्रिशंकु रिजल्ट आयेगा.

    ReplyDelete
  2. http://www.youtube.com/watch?v=hJjsY1uCeR4&list=PLKHjGrLKkbMGTR5likzy41uKtRHFd-D3G&index=32


    news express ke live opinion poll ke kisi bhi episode ko dekh lijye, samjh jaenge ki mein kya boll raha hoon.

    ReplyDelete
  3. आपने आम आदमी पार्टी के कैंडिडेट पर लगे आरोपों को भी एक ही तराजू में तोल दिया । एक और बलात्कार के आरोपी और दुसरी और बलात्कारियो के गिरफ्तारियो के लिए आन्दोलन करने के लिए गिरफ्तार होना । दोनों की एक सामान तुलना करना कहा का न्याय हें ?

    ReplyDelete
  4. Kuch to sharam,karo paid opinion poll dikhate hi

    ReplyDelete
  5. Kya hogaya patrakarita ko kal aapki sakal opinion poll ki debate karte samay dekhna wali thi. Aapki sakal se pata chal raha tha ki jab insann jhoot bolta hai to kaisa dikhta hai.......kyipya paiso ke liye patrkarita or desh ko na becho... Apne bachoon ko yadd kar liya karo jab imaan digmiga raha ho. Kya values sikha rahe ho uske bavisya ke liye.

    ReplyDelete
  6. कल अरविन्द की बात में काफी सच्चाई झलकी कि " मिडिया हाउसों को 1400 करोड़ रु. बांटे गए है आप को सत्ता में आने से रोकने और बदनाम करने के लिए"

    पुन्य प्रसुन जी आपकी एक कमी कल पकड़ी गयी एक सर्वोत्तम एंकर होने के बावजूद आपका चेहरा झूठ को छुपाने की कलाकारी नहीं दिखा पाया. कल सर्वे के परिणामो की एंकरिंग करते हुए आपका चेहरा और बोडी लेंग्वेज स्पष्ट रूप से बता गया कि आपको कोई असहमत झूठ दिखाने को मजबूर कर रहा है - ये जानते हुए कि ऐसे कृत्य और कुछ चंद व्यवसायिक मजबूरियां देश से ऊपर नहीं हो सकती इसके बावजूद यह अपराध आपने क्यों किया? क्या तेजपाल पर आपके वक्तव्य या भविष्य में पुण्य प्रसून के मुह से निकली छाप लगी आवाज को हमेशा संदेह से देखने को हर भारतवासी मजबूर नहीं हो जाएगा?
    http://www.bestmediainfo.com/2013/11/abp-news-agency-opinion-poll-initiative-delhi/

    ReplyDelete

  7. भारतीय परम्परा में आदर्श , प्रतिमान काफी ऊँचे रहे हैं । लेकिन व्यवहार उतना ही निकृष्ट ! खासकर , ' चरित्र ' बल का जितना ढोल पीटा जाता है , वह काफी लचर रहा है । 'मूर्तियां ' टूट- फूट रही हैं । आदर्श ढह रहे हैं । प्रतिमाएं खंडित हो रही हैं ।

    तरुण तेजपाल प्रकरण तकलीफ़देह हैं । अब लग रहा है कि किसी के बारे में उस समय विशेष में ही बात की जाय ! सर्वकालिक 'महान ' , आदर्श , मूल्य , ईमानदारी , सरोकार.... कब निकृष्ट हो जाएं पता नहीं !

    एक 'भगवन ' आसाराम ने जो खबरे आ -जा रही हैं , उस आधार पर करोड़ों लोगों (अंध भक्त ही सही !) को हिला कर रख दिया । 'आस्था ' को भ्रष्ट बना दिया । ढोंग प्राथमिक था और ' प्रवचन' द्वितीयक… इससे यही साबित होता है । क्या किया जाय ?

    और भारत में … अनैतिक सेक्स को लेकर सृष्टि के रचनाकार ब्रह्मा तक को भरपूर मान -सम्मान देते हुए भी नकार दिया समाज ने ! लोक ने !
    चरित्र एक बड़ा टर्म है । यह विस्तृत अर्थ लिए हुए है , लेकिन सेक्स के मानक पर ही चरित्र को कसा जाता है । दुनिया भर के पाप करो … सब समय के अनुसार मैनेज हो जाता है ? पर सेक्स ?
    क्या नहीं है आसाराम के पास…जो करोड़ों- करोड़ लोगों को कई जन्मों तक नसीब नहीं होगा … ! तरुण तेजपाल का नायकत्व .... भरभराकर गिर गया.. यानि एक फिसलन , अनैतिकता और ढोंग ने पद , प्रतिष्ठा को नष्ट -भ्रष्ट कर दिया ।

    और यह भी ध्यान रहे... यह वर्त्तमान है । अचानक कौन -सी खबर कहाँ से , कैसे आ जायेगी… की सब कुछ ऐसे -वैसे हो जायेगा । यह अनंत वर्त्तमान का काल है ।
    अशोक वाजपेयी के शब्दों में' 24 घंटे अहर्निश झूठ परोसा जा रहा है ....' नेता , व्यापारी , मीडिया , बाबा…सभी झूठ बोल रहे हैं !
    झूठ की बुनियाद पर आदर्श , नायकत्व का हम क्या करें ?

    ReplyDelete
  8. AAP ke bare mei jo aapne kaha hai usse mei bilkul sahmat hu Qki abh Kejriwal bhi unhi logo ki jamaat mei shaamil hona chahte hai jinke khilaaf unhone sangharsh kia tha aur maze ki baat toh yeh hai ki hamare desh ke so called elite class ke log es sach se anjaan bane fir rahe hai..!

    ReplyDelete
  9. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  10. Prasun Ji aapne AAP ko sirf 6 seats di chain, yakeen nahi hota ki aaj tak jaisa channel janta k mann to tatolnay mein itna zyaada vifal raha hai. Meray hisaab se AAP ko kamse kam 15-22 seats toh mileingi hi. Aaj Tak itna zyaada galat survey dikha k apni vishvasnita kho raha hai.

    Khair jaanay dijiye. Aap bhi idhar hi hain aur main bhi. 8 taareek aanay dijiye. Next comment ab result aanay k baad hi kareingay, aaj tak se hissab karna abhi baaki hai

    ReplyDelete
  11. Jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu jhadu



    Prasun Ji aapkay mutabik toh sirf 6 seats milni chahiye thi aapko par AAP ko 27 mil gayi hain aur 1 par ussay baddhat hai..umeed hai janta ne sab exit poll companies ko jawab day diya.

    PS : Omar abdullah ka tweet quote ka raha hoon

    "@abdullah_omar: Which was the post poll survey that gave #AAP 6 seats? You need to sack your pollsters, they clearly stayed at home to fill questionnaires."

    ReplyDelete