राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी की लोकसभा रेस के बीच अरविन्द केजरीवाल जिस खामोशी से आ खड़े हुये हैं, उसने पहली बार दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के असल मायने सामने रखे हैं। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्रिक देश अमेरिका पर भारत बीस इसीलिये पड़ता है क्योंकि वोटरों का मिजाज झटके में सियासी परिभाषा को बदल सकता है। राजनीतिक थ्योरी को नये सिरे से परिभाषित कर सकता है। बाजारवाद पर टिकी आर्थिक नीतियों को झटके में खारिज कर सकता है। और पटरी से उतरती उस राजनीतिक सोच को हिचकोले खिला सकता है जो विषमता को पाटने की जरुरत नहीं समझती। तो क्या यह माना जाये कि केजरीवाल की इन्ट्री लोकसभा चुनाव से एन पहले जिस तरह राष्ट्रीय क्षितीज पर हुई, उसने झटके में सियासत के रंग ढंग तो बदल ही दिये हैं। साथ ही देश की न नीतियों पर भी सवालिया निशान लगा दिया, जिसपर ट्रैक वन कहकर कांग्रेस सवार हुई और ट्रैक टू कहकर बीजेपी सवार हुई।
यह सवाल इसलिये बड़ा हो चला है क्योंकि चुनाव मैदान में जो उम्मीदवार उतरेंगे अब उन्हीं के आसरे कांग्रेस और बीजेपी को आंका जायेगा। या कहें जिस बदलाव की बात राहुल गांधी कह रहे हैं या फिर संघ परिवार जिस लहजे में बीजेपी को डपट रही है उसके मायने साफ हैं कि सरोकार और भागेदारी के राजनीतिक तौर तरीके अब चुनावी राजनीति का हिस्सा बनेंगे। यानी राहुल के सामने कांग्रेस में सबकुछ बदलने का मिशन है। और मोदी के सामने पारंपरिक बीजेपी को बदलने का लक्ष्य है। और चूंकि यह बदलाव केजरीवाल की सियासी पहल से हुआ है तो नया संकट आम आदमी पार्टी के सामने भी है कि वह लोकसभा चुनाव में हर किसी को अब अपने भरोसे जीते या फिर जनता के भरोसे खुद को आगे माने। चूंकि 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर चुनावी तौर तरीको के नियम केजरीवाल ने बदले हैं तो सबसे पहले आम आदमी पार्टी के सामने आने वाली मुश्किलों पर गौर करना भी जरुरी है। सीएम केजरीवाल की मुश्किल है कि अगर दिल्ली सरकार के कामकाज अगले 75 दिनों तक आम लोगों के सपनों को जगाये ना रख सके तो क्या होगा। क्योंकि मौजूदा वक्त में आम आदमी पार्टी के अनुकूल देश में हवा बह रही है। और हवा के केन्द्र में दिल्ली चुनाव परिणाम हैं। फिलहाल हवा हर राज्य में बह रही है। असर भी इसी का है कि देश के नामचीन चेहरे भी "आप" के रास्ते चलने को तैयार हैं। लेकिन समझना यह भी होगा कि "आप " कोई चुनावी राजनीतिक दल नहीं है जो उम्मीदवारों के आसरे खुद को खड़ा किये हुये है। लेकिन हवा जो चल निकली है उसमें संयोग से चुनावी उम्मीदवारो की दस्तक ही कहीं ज्यादा है।
ध्यान दें तो दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के चेहरे गोपाल राय और शाजिया इल्मी ही चुनाव हार गये। और जीतने वालो में अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के अलावे कोई ऐसा चेहरा नहीं था, जिसे अन्ना आंदोलन या "आप" का चेहरा माना जाता है। यानी दिल्ली के वोटरों ने सिर्फ केजरीवाल को देखा है।आम आदमी पार्टी को चुनावी आंदोलन के तौर पर परखा। लेकिन अब जब आम आदमी पार्टी से देश के चेहरे जुड़ रहे हैं और "आप" के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे तो बड़ा सवाल यही होगा कि वोटर आम आदमी पार्टी देखेगा या उम्मीदवारों को परखेगा। और उम्मीदवारों का कद जैसे जैसे बड़ा होगा वैसे वैसे वोटर का विश्लेषण "आप" से ज्यादा उम्मीदवारों को लेकर शुरु होगा। क्योंकि जो चेहरे आम आदमी पार्टी में शरीक हुये हैं, उनका कद पहचान का मोहताज नहीं है। मसलन कैप्टन गोपीनाथ-, मीरा सान्याल, मल्लिका साराबाई, समीर नायर, आशुतोष, मेघा पाटकर, कमल मित्र चिनाय। यह ऐसे नाम हैं, जिनकी पहचान अपने अपने दायरे में जुड़े मुद्दों पर कोई मोटी लकीर खींचने को लेकर हुई। मेघा पाटकर ने देश भर के आंदोलनों को सही माना और उसके आड़े आती विकास परियोजनाओ को प्रभावितों के खिलाफ ही नहीं देश के भी खिलाफ करार दिया। चिनाय का रुख आदिवासी इलाको से लेकर नक्सल समस्या तक पर सरकार की आंतरिक सुरक्षा नीति के खिलाफ रहा है। तो पहला सवाल कि आम आदमी पार्टी अब मुद्दो पर रुख साफ कर चुनाव मैदान में जायेगी। या फिर अभी तक जो सत्ता पारंपरिक राजनीति के आसरे चल रही थी और देश का बहुंसख्यक तबका जो आर्थिक तौर पर हाशिये पर है या फिर मध्यम वर्ग जो मनमोहन की आर्थिक नीतियों से लाभ भी उठाता है लेकिन भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं कर पाता, उसके अंतर्विरोध का राजनीतिक लाभ उठायेगी। यह मुश्किल तब और ज्यादा जटिल होगी, जब पहचान पाये चेहरे आम आदमी पार्टी के टिकट पर मैदान में होंगे। तो सवाल उठेगा कि चेहरों का पाजिटिव और आप का पाजिटिव जुड़कर डबल लाभ पहुंचायेगा। या फिर आप का पॉजिटिव और पहचान का निगेटिव चुनावी परिणाम बदल देगा । इसका विश्लेषण केजरीवाल जरुर करेंगे क्योंकि आम आदमी पार्टी के चुनावी परिणाम का मतलब दिल्ली तक तो आम लोगो का आक्रोश था, जो बिना पहचान वाले उम्मीदवारों को जीता गया। और दिल्ली में मुद्दों को लेकर बहस इसलिये जरुरी नहीं थी क्योंकि यहां जातीय या धार्मिक आधार पर समाज को बांटा नहीं जा सकता। दिल्ली रोजगार दफ्तर की तरह । जहां पहुंचने के बाद रोजगार और कमाई से सुविधा के अलावे लोगो को कुछ ज्यादा चाहिये नहीं। अस्सी फीसदी दिल्ली वालों की जड़े दिल्ली से दूसरे प्रांतो में हैं। फिर दिल्ली चुनाव परिणाम ने दो नयी परिस्थितियां भी पैदा कीं।
पहली, राजनीति में दोबारा लोगो की रुचि जगी और दूसरा राजनीति के प्रति अच्छी राय उन लोगो में भी जागी, जिन्हे लगने लगा है नया राजनीतिक दल उन्हें किसी ना किसी स्तर पर रोजगार तो दिला ही देगा। क्योंकि पंचायत से लेकर संसद तक यानी चौखम्भा राजनीति के दायेरे में देश के साढे 11 लाख से ज्यादा लोग सीधे राजनीति से जुड़े हैं। और पहली बार मौजूदा राजनीतिक ढांचे के खिलाफ ही लोगों में आक्रोश है। यानी पंचायत हो या नगर पालिका या विधानसभा या फिर संसद , तमाम जगहों की सियासत के तौर तरीके अगर बदलते हैं तो फिर मौजूदा राजनेताओ की कुर्सी बदलेगी। नये लोग कुर्सी पर बैठने के लिये राजनीति में शिरकत करेंगे। वजह भी यही है कि केजरीवाल की राजनीतिक धार कांग्रेस और बीजेपी को भी बदलने को मजबूर कर रही है। लेकिन केजरीवाल के सामानांतर राहुल गांधी और मोदी का संकट चुनाव को लेकर अलग है। दोनों के पास ही उम्मीदवारों की कमी नहीं। दोनों की पहचान अपनी अपनी पार्टी को लेकर कही ज्यादा है। लेकिन संयोग से केजरीवाल ने चुनावी गणित के जो नियम बदले हैं उसमें पारंपरिक राजनीति की लकीर दोनों को ही छोड़नी होगी। यानी राहुल को उम्मीदवारों की फेहरिस्त बिलकुल नयी बनानी है। और मोदी को ऐसे चेहरे चाहिये जो सबकुछ छोड़कर बीजेपी के साथ खड़े हों। इस फेहरिस्त में बीजेपी के लिये पूर्व गृह सचिव आर के सिंह, किरण बेदी, वीके सिंह सरीखे दर्जनो नये नाम जुड़ेंग,इससे इंकार नहीं हो सकता। यानी गैर राजनीतिक लोगों की राजनीतिक शिरकत दिखायी देगी ही। लेकिन 2014 जाना तो इसीलिये जायेगा कि पहली बार जो पार्टियों ने सोचा उसे वोटरों ने बदल दिया। और वोटरों के आसरे राजनीति करने के नियम कायदे भी बदल गये।
राजनीति का प्रजातंत्र माडल सर गिनता हैं जिसमें दो बेवकुफ एक बुद्विमान से बेहतर होते हैं, अब इसे सब्सीडी की चाशनी में लपेटा जा रहा हैं विकास का मतलब खैरात हो रहा है ....इमानदारी की पैकेजिंग कि जा रही हैं,आप इसी का नमूना हैं ....
ReplyDeleteSAHI HAI.SAR AUR YE LOKSABHA ELECTION ...ITIHAS MAI DARJ HO JAYEGI
ReplyDeleteSAHI HAI.SAR AUR YE LOKSABHA ELECTION ...ITIHAS MAI DARJ HO JAYEGI
ReplyDelete१. @नामचीन चेहरे भी "आप" के रास्ते चलने को तैयार हैं = किस कीमत पर वो तथाकथित चेहरे 'आप' में आने के लिए तैयार है -
ReplyDelete२. केजरीवाल अपना पूर्व इतिहास दिल्ली की जनता के सामने क्यों नहीं रखते?
३. एक महत्वकांक्षी व्यक्ति सदा ही दूसरों के कन्धों का इस्तेमाल करता है. मुख्यमंत्री महोदय ने अब तक कितने कन्धों का इस्तेमाल किया ... परिवर्तन से लेकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन तक .
४. अगर उनका वक्तव्य सत्य है की वो आयकर कमिश्नर थे ... तो उस कार्यकाल में उसका उल्लेखनीय क्या कार्य रहा ..
हम सभी जानना चाहते हैं... किसी भी अच्छे दिन दसतक पर इन प्रश्नों का इंतज़ार रहेगा.
Sir, agar dhyan se dekhe to AAP aur kuch nahi pani ka wo bulbula hai jo thodi der ke bad usi pani me veelin ho jayega, jaha se wo utha hai. Logo ke vishwas ke sahare vote ka vyapar karne wali is party ko abhi thoda waqt dena chahiye. Paheli match me century lagane wala achcha batsman sabit ho ye zaroori nahi.bas intezaar kijiye may 2014 tak
ReplyDeleteSir, agar dhyan se dekhe to AAP aur kuch nahi pani ka wo bulbula hai jo thodi der ke bad usi pani me veelin ho jayega, jaha se wo utha hai. Logo ke vishwas ke sahare vote ka vyapar karne wali is party ko abhi thoda waqt dena chahiye. Paheli match me century lagane wala achcha batsman sabit ho ye zaroori nahi.bas intezaar kijiye may 2014 tak
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ReplyDeleteये राजनीति की कैफियत का एक नमूना है... और नमूनों की राजनीतिक कैफियत है...
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