बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के निशाने पर नेहरु परिवार है। यानि जिस परिवार को कभी संघ परिवार ने निशाने पर नहीं लिया, जिस परिवार को लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर वाजपेयी और आडवाणी तक खामोश रहे। या कहें सीधे टकराव कभी मोल नहीं लिया उस समूची राजनीतिक धारा से अलग पहली बार नरेन्द्र मोदी ने सोनिया, राहुल और प्रियंका पर सीधे हमला क्यों कर दिया है। और मोदी के हमले को लेकर वही संघ परिवार खामोशी से मंद मंद क्यों मुस्कुरा रहा है जो संघ परिवार गोलवरकर से लेकर देवरस तक के दौर में नेहरु परिवार को सीधे निशाने पर हमेशा लेने से बचता रहा। इतिहास के पन्नों को पलटे तो महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएएस को लेकर सरदार पटेल का रुख उतना नरम कभी नहीं था जितना संघ परिवार बताता है बल्कि नेहरु का रुख संघ को लेकर नरम जरुर हुआ। और उसका खुला नजारा चीन के साथ युद्द के बाद नेहरु का संघ परिवार के पक्ष में खुलकर बोलना । और 1963 की वह तस्वीर तो हर किसी को याद आ सकती है जब 26 जनवरी 1963 को गणतंत्र दिवस की परेड में संघ के स्वयंसेवकों ने हिस्सा लिया । उस वक्त नेहरु ने बकायदा सरसंघचालक गुरु गोलवलकर से संघ के स्वयंसेवकों गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने कहा था । और सिर्फ दो दिन के वक्त में संघ के साढे तीन हजार स्वयंसेवक गणतंत्र दिवस की परेड में शरीक हुये थे। उस वक्त पहली बार खुली चर्चा यही हुई थी कि संघ को राष्ट्रवादी संस्था के तौर पर नेहरु सरकार ने भी मान्यता दी थी। जबकि नेहरु के काल में ही महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में प्रतिबंध लगाया गया था ।
दरअसल, नेहरु परिवार से संघ परिवार की करीबी की एक वजह कमला नेहरु के गुरु स्वामी अखंडानंद का होना भी था । रामकृष्ण मिशन से जुडे स्वामी अखंडानंद कमला नेहरु के गुरु थे। और स्वामी अंखडानंद से गुरु गोलवरकर की करीबी थी। और कमला नेहरु की मृत्यृ के बाद नेहरु ने स्वामी अखंडानंद से ही वार्षिकी श्राद्ध करवाने को कहा। साथ ही एक अस्पताल खुलवाने का जिक्र किया। जिस पर उस वक्त गुरु गोलवरकर की सहमति से स्वामी अखंडानंद ने सहमति दी। हालांकि स्वामी अखंडानंद रामकृष्ण मिशन से जुडे थे। सवाल सिर्फ नेहरु परिवार से संघ परिवार की करीबी भर का नहीं है। सवाल यह भी है कि जिस तर्ज पर मौजूदा दौर में संघ परिवार को लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी सीधे निशाने पर लेने से नहीं चूक रहे हैं। वैसी हालत इससे पहले कभी थे नहीं। भ्रष्टाचार और देश को अपनी सत्ता में बदलने वाली इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी खडे हुये और गुजरात से बिहार तक आंदोलन शुरु हुआ और उसके बाद आपातकाल देश को देखना पड़ा । तब भी जेपी के पीछे आरएसएस आकर खड़ा हुआ था लेकिन इंदिरा ने भी कभी संघ परिवार को सीधे निशाने पर नहीं लिया । जेपी ने भी अपने आंदोलन के दायरे में आरएसेस को क्लीन चीट देदी । और इंदिरा ने भी जेपी पर निशाना साधने के लिये पूंजीपतियों और उद्योगपतियों का जेपी के लिये जरीये खोलने का भी आरोप लगाया संघ को निशाने पर इंदिरा ने भी तब नहीं लिया। जबकि इमरजेन्सी के दौर में ही संघ परिवार राजनीतिक तौर पर सक्रिय हुआ था और तब के सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने बकायदा जेपी से मिलकर इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने की व्यूह रचना की थी। लेकिन 1977 में जनता पार्टी की जीत और इंदिरा की हार के बाद जो पहला बयान संघ परिवार की तरफ से आया था, उसमें इंदिरा के खिलाफ कोई आवाज नहीं थी। बालासाहेब देवरस ने तब जनता सरकार को यही सलाह दी थी कि देश की जनता ने इमरजेन्सी को लेकर इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया अब बदले की भावना से कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिये । देवरस की इंदिरा को लेकर टिप्पणी फारगेटगेट एंड फारगीव उस वक्त यह बहुत लोकप्रिय हुई थी । असल में सिर्फ संघ परिवार ही नहीं बल्कि नेहरु परिवार ने भी इससे पहले संघ परिवार पर किसी भी निजी टिका टिप्पणी को महत्व नहीं दिया । श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सहायक रहे मौली चन्द्र शर्मा जब जनसंघ छोड काग्रेस के करीब हुये तो नेहरु के साथ बातचीत में एक बार उन्होने गुरुगोलवरकर पर यह कहकर चोट की कि गोलवरकर में स्वयंसेवक का कोई भाव नहीं है। गोलवरकर कोसा की शर्ट पहनते हैं। रईसी से रहते हैं। इसपर नेहरु ने ही मौली चन्द्र शर्मा को यह कहकर खामोश कर दिया कि संघ परिवार के किसी जन पर भी निजी टिप्पणी नहीं होनी चाहिये।
असल में संघ परिवार और नेहरु परिवार कभी टकराये नहीं तो इसका असर संघ के राजनीतिक स्वयंसेवकों पर भी पड़ा। लेकिन वाजपेयी-आडवाणी युग खत्म हुआ और मोदी युग शुरु हुआ तो मोदी के दौर में यह मर्यादा टूट गयी । लेकिन सवाल सिर्फ मोदी युग का नहीं है बल्कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी युग का भी है। जो कभी इस नब्ज को पकड़ नहीं पाये कि संघ राजनीतिक बिसात पर एर ऐसा प्यादा बना कर रखा जा सकता है जिसके आसरे सामाजिक आदर्शवाद वाले हालात से मौका पड़ने पर बीजेपी को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। जैसा 2004 में शाइनिंग इंडिया के दौर में संघ परिवार ने खुद को वाजपेयी -आडवाणी से दूर कर बीजेपी को सत्ता से ही दूर कर दिया। लेकिन तब भी संघ परिवार ने कभी नेहरु परिवार पर सीधा हमला नहीं किया। वाजपेयी सरकार के दौर में नार्थ-इस्ट में संघ के चार स्वयंसेवकों की हत्या हो गयी तो झंडेवालान में संघ के स्वयंसेवक यह कहने से नहीं चूके कि इंदिरा होतीं तो ऐसा नहीं होता लेकिन अब गृह मंत्री आडवाणी हो तो उन्हें स्वंयसेवकों की जान की फिक्र भी नहीं। इसलिये संघ हेक्वार्टर में तब मारे गये स्वयंसेवकों के की तस्वीर पर माल्यार्पण करने पहुंचे आडवाणी को सरसंघचालक सुदर्शन ने कठोर बोल बोले थे ।
याद कीजिये तो वाजपेयी, आडवाणी और जोशी ने कभी इंदिरा से लेकर सोनिया गांधी तक पर सीधा निशाना नहीं साधा। इसके उलट 1971 के युद्द के बाद तो वाजपेयी इंदिरा को दुर्गा कहने से नहीं चूके और इंदिरा गांधी भी वाजपेयी को उस वक्त बधाई देने से नहीं चूकीं, जब जनता पार्टी की सरकार में बतौर विपक्ष मंत्री वाजपेयी ने युनाइटेड नेशन में हिन्दी में भाषण दिया। वाजपेयी ने हिन्दी में भाषण देकर पहली बार देश का सीना गर्व से फुला दिया था। और इंदिरा गांधी ने यूनाइटेड नेशन्स से लौटने पर निजी तौर पर वाजपेयी को बधाई दी थी। इंदिरा से लेकर राजीव गांधी तक के दौर में कई मौकों पर संघ के राजनीतिक स्वयंसेवक टकराये भी। लेकिन सार्वजनिक तौर पर कभी टिका -टिप्पणी नहीं की । यहां तक की आपरेशन ब्लू स्टार के वक्त सेना भेजने पर इंदिरा ने वाजपेयी से सलाह भी ली । और वाजपेयी ने सेना ना भेजने की भी सलाह दी । लेकिन खुले तौर पर कभी टकराव नहीं हुआ । संघ परिवार ने भी संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का समर्थन किया और राजीव गांदी को मिस्टर क्लीन कहने में कोताही नहीं बरती। लेकिन अब टकराव क्यों है और पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी सीधे निशाने पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी सीधे क्यों आ गये हैं। दरअसल, यहीं से असल सवाल शुरु होता है क्योंकि संघ परिवार को पहली बार सीधे तौर पर और किसी ने नहीं नेहरु परिवार ने ही निशाने पर लिया । समझौता एक्सप्रेस में ब्लास्ट हो या मालेगांव ब्लास्ट या फिर हैदराबाद ब्लास्ट अगर इन तीन आतंकवादी घटनाओं को याद करें तो संघ परिवार से इन घमाकों के रिश्ते होने के आरोप और किसी ने नहीं बल्कि मनमोहन सरकार ने ही बार बार लगाये । सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने कई बार भाषणों में जिक्र किया और कई बार गृह मंत्री चिदबंरम से लेकर सुशील कुमार शिंदे और कैबिनेट मंत्री कपिल सिब्बल से लेकर काग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तक ने आतंकवादी ब्लास्ट को लेकर संघ परिवार को कटघरे में खड़ा किया। गृह मंत्री शिंदे ने तो संघ परिवार पर पाबंदी लगाने के संकेत भी कई बार खुले तौर पर दिये । दरअसल सीधे संघ पर हमले के बाद जिस तरह संघ के स्वयसंवकों की घेराबंदी मनमोहन सरकार ने शुरु की और एक के बाद एक गिरप्तारी शुरु हुईं। उसी के बाद संघ चौकन्ना हो गया। संघ से जुड़े कई लोगों की गिरप्तारी के बाद असीमानांद की गिरफ्तारी और उसके बाद पुलिस ने इन्द्रेश कुमार पर हाथ डाला और जिस तरह संकेत दिये कि आंतकी घटनाओं के मदद्देनजर सरसंघचालक मोह भागवत को भी निशानेने पर लेने से सरकार नहीं चूकी। तभी संघ परिवार में पहली बार यह चर्चा हुई कि बीजेपी अगर सत्ता के लिये दिल्ली में खुद का कांग्रेसीकरण कर रही है और काग्रेस की ही तर्ज पर खुद को सेक्यूलर बताने-दिखाने में लगी रही तो फिर संघ परिवार पर पाबंदी लगाने में मनमोहन सरकार हिचकेगी नहीं ।
इसी दौर में सांप्रदायिकाता विरोधी विल को लाने की तैयारी मनमोहन सरकार ने जिस तरह से की उससे आरएसएस कहीं ज्यादा परेशान हुआ। और खुले तौर पर इस बिल को लेकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने वकालत की । इन तमाम हालात में संघ को सरसंघचालक मोहन भागवत की गिर्फतारी से लेकर पांबदी तक का डर समाया । और मौजूदा वक्त में संघ परिवार ने माना कि आजादी के बाद नेहरु परिवार के प्रति नरम रवैया रखना उनके लिये अब घातक साबित हो रहा है । असल टकराव यही से शुरु हुआ । और चूकिं सोनिया गांधी हो या राहुल गांधी या फिर मौजूदा काग्रेस उनके लिये बीजेपी में अगर कोई सीधे निशाने पर रहा या घृमा का पात्र बना तो वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी थे । मोदी ने बार बार गुजरात से सोनिया-राहुल गांधी पर निशाना साधा और उन दोनो ने भी मोदी की गुजरात की मोदी सत्ता को संघ की प्रयोगशाला बताने में कोताही नहीं बरती। इन्हीं सबके बीच नरेन्द्र मोदी को जैसे ही पीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया। वैसे ही आरएसएस ने इस सच को समझ लिया कि आजादी के बाद से नेहरु परिवार को लेकर जो मर्यादा बरकरार थी उसका घाटा संघ परिवार को ही हमेशा उठाना पड़ रहा है । और अब सवाल आस्तित्व का है तो फिर मोदी से ज्यादा तीखा हथियार कोई हो नहीं सकता है । क्योकि राजनीतिक तौर पर ही नेहरु परिवार पर निशाना साध कर ही काग्रेस को राजनीतिक तौर पर खत्म किया जा सकता है ।और हो भी यही रहा है नरेन्द्र मोदी अब कही भी मनमोहन सरकार नहीं कहते । बल्कि मनमोहन सिंह की सत्ता को मोदी ने मा-बेटे की सरकार करार दिया है । और पहली बार आरएसएस के प्रचारक से सीएम की कुर्सी तक पहुंचे मोदी पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर अब काग्रेस से कही ज्यादा नेहरु परिवार से टकराते हुये दिख रहे है ।
You always seems to tell me the logical facts & analysis that i never knew..i am quite a political animal but your analysis is superb sir....keep on the good work sir....keep writing
ReplyDeleteoutstanding and motivating to think new but right
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