Sunday, June 1, 2014

क्या मोदी विकास का ककहरा झारखंड के टटरा से पढ़ेंगे

गांव टटरा । ब्लॉक कान्हाचट्टी। पंचायत केन्द्रीयनगर। जिला चतरा । राज्य झारखंड। देश के सबसे पिछडे राज्य का सबसे पिछड़ा इलाका। लेकिन सड़क पर आपको कोई गड्डा नहीं मिलेगा। पीने का पानी मिनरल वाटर से साफ। बिजली चौबीस घंटे। हर घर के बच्चे के लिये पढ़ना जरुरी है। आठवी तक की शिक्षा गांव में ही मिल जायेगी।  इलाज के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है। और इन सब की एवज में हर बरस दस हजार रुपये सरकार को देने पड़ते हैं। इसके अलावा किसी घर में कोई विवाह उत्सव है तो उसके लिये अलग कीमत निर्धारित है । यह रकम १० हजार से शुरु होकर ५० हजार तक जा सकती है। रुपया ना हो तो फसल या सब्जी से भी काम चल जाता है । गांव के किसी घर की कोई बहु-बेटी अगर गर्मियों की छुट्टी में घर लौटती है और वह पढ़ी -लिखी है तो वह गांव के बच्चों को पढाकर कुछ कमा भी सकती है। गांव के किसी परिवार में किसी को नौकरी नहीं मिली है या कोई महिला अगर पढ़ी लिखी है और उसके लिये गांव से बाहर काम के लिये निकलना मुश्किल है तो वह गांव के बच्चों को अपना हुनर सिखा सकती है। उसकी एवज में सालाना वसूली या तो कुछ कम हो जाती है या फिर अन्ना या सब्जी के जरीये उस परिवार को राहत दी जाती है। यह सारी नीतियां कानून की तरह काम करती है। और कानून टूटा तो सजा पंचायत में खुले आसमान तले सार्वजनिक तौर पर होता है। सजा कुछ भी हो सकती है। मुफ्त शिक्षा देने से लेकर। मुफ्त गांव के लिये काम करना। या हाथ-पांव तोड़ने
से लेकर मौत तक। सब सरकार तय करती है। और यह सिर्फ टटरा के हालात नहीं बाजरा, विदौली, करणी, काड सरीखे चतरा जिले के सैकड़ों गांव की है। लेकिन यहा सरकार का मतलब ना तो झारखंड की सोरेन सरकार है ना ही दिल्ली की मोदी सरकार। यह माओवादियों की सामानांतर सरकार है। जिस दिल्ली में आंतरिक सुरक्षा के नाम से जाना जाता है। और मौजूदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह मान रहे है कि उनके सामने सबसे बडी चुनौती इसी आंतरिक सुरक्षा से निपटने की है। और नार्थ ब्लाक से निकलती जानकारी की माने तो गृह मंत्रालय में बैठे बाबू मोदी सरकार की अगुवाई में अपने सौ दिनो के एजेंडा में इसी आंतरिक सुरक्षा से निपटने की योजना बना रहे हैं। दरअसल यह सवाल मनमोहन सरकार के दौर में भी था। और चिदबंरम अपनी सत्ता के दौर में बतौर गृहमंत्री लगातार माओवाद के सवाल पर घिरते भी रहे और आंतरिक सुरक्षा कटघरे में खडा होती भी रही । लेकिन वह कांग्रेस की उलझन थी । क्योंकि चिदंबरम कानून के तहत माओवाद को देखते तो दिग्विजय सिंह सरीखे नेता माओवाद को सामाजिक-आर्थिक हालात से जोड़ देते । लेकिन भाजपा के साथ ऐसा नहीं होगा। क्योंकि भाजपा माओवाद को सीधे कानून व्यवस्था के खिलाफ मानती
है और छत्तीसगढ में रमन सिंह ने जिस तरह माओवाद पर नकेल कसने की पहल की है उसमें सामाजिक-आर्थिक हालात मायने रखते नहीं है।

तो पहला सवाल है कि सरकार का नजरिया पिछली सरकार से अलग होगा तो कार्रवाई किस स्तर पर होगी इसका इंतजार करना पडेगा। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार के गठन के तीसरे दिन अपनी दूसरी कैबिनेट में ही देश के लिये जो जरुरी बताया उसमें सड़क, बिजली पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा है । और इसे ही विकास का पहला चेहरा माना गया है। तो दूसरा सवाल माओवादी प्रभावित जिन इलाकों में यह समूची व्यवस्था है यानी जैसा टटरा गांव में है तो वहां के हालातों को लेकर मोदी सरकार का नया नजरिया क्या होगा। और अगर आजादी के ६७ बरस बाद भी इसी न्यूनतम को पाने की लड़ाई में ही देश की सत्ता बनती बिगडती है तो माओवादी प्रभावित जिन इलाको में यह सुविधा नहीं है वहां इन सुविधाओं को देकर क्या माओवादी सामानांतर सरकार की सोच विकसित कर सकते है। या फिर मोदी सरकार माओवाद के खिलाफ छत्तीसगढ की तर्ज पर नकेल कसने के लिये निकलगी और उसके बाद इन इलाको को मुख्यधारा से जोड़ने की पहल शुरु होगी। असल में आजादी के बाद पहली बार विचारधाराओं को खत्म कर सत्ता पाने की राजनीति ने भी जन्म
लिया है और सत्ता की खातिर विचारधारा छोडने के हालात भी बने है। वामपंथी के सामने भविष्य की दृष्टि नहीं है तो जनता से उसे नकारा । कांग्रेस आजादी के संघर्ष के मोहपाश में ही जनता को बांधे रखना चाहती थी तो जनता ने उसे भी नकारा। केजरीवाल ने मौजूदा व्यवस्था की खामियो पर अंगुली उठा कर उसे सही करने की बात की। तो दिल्ली को कॉमन-सेन्स की बात लगी । लेकिन कोई विचारधारा केजरीवाल के पास भी नहीं थी तो जनता ने उसे भी खारिज करने में बहुत देर नहीं लगायी। लेकिन संघ परिवार के पास एक विचारधारा है । जिसके आसरे देश को कैसे मथना है या राष्ट्रवाद के किस मर्म को किस तरह उठाना है । इसका खाका हेडगेवार और गोलवरकर के दौर से आरएसएस मथ रहा है । लेकिन मौजूदा वक्त की सबसे बडी त्रासदी यह है कि संसदीय राजनीति का सबसे बड़ा दिवालियापन खुले तौर पर सबके सामने आ चुका है । राष्ट्रवाद का पैमाना सीमा सुरक्षा से मापा जा रहा है । आंतरिक सुरक्षा सबसे बडी चुनौती है ।

और विकास का मतलब न्यूतम का जुगाड़ है । यानी देश की सामाजिक-सांस्कृतिक अवस्था को सहेजना बेमानी लगने लगा है। भाषा, संबंध, सरोकार, परंपरायें और इतिहास को ही बाजार की चकाचौंध में खोकर मुनाफा बनाना सबसे बडा हुनर माना जाना लगा है । यानी जिस सामाजिक -सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कोई कल्पना हेडगेवार या गोलवरकर ने की भी होगी वह भी प्रचारक से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सत्ता तले संघ परिवार भूल चुका है। वजह भी यही है कि विदेशी निवेश हो या कारपोरेट या औगोगिक घरानो के मुनाफे तले विकास का खाका । पहली बार आरएसएस की सहमती सत्ता के हर निर्णय पर है । क्योकि सत्ता के बगैर संघ परिवार राष्ट्रीयता का प्रचार प्रसार कर नहीं पा रहा था इसका एहसास भाजपा के सत्ता में आने के बाद आजादी सरीखे जश्न में खोये आरएसएस ही नहीं तमाम हिन्दु संगठनों का सक्रियता से समझा जा सकता है । यानी सत्ता के दायरे में संघ परिवार की विचारधारा भी सत्ता के आगे नतमस्तक हो चली है या कहे गायब होती जा रही है यह संघ परिवार के बाहर का नयापन है। बाहर का इसलिये क्योंकि संघ की जड़ें खासी गडरी है और भीतर क्या उतल-पुथल चल रही होगी यह सामने आते आते युग समाप्त होने लगते है। जैसे मनमोहन युग खत्म हुआ। तो असल सवाल यही से निकल रहा है कि क्या आने वाले वक्त में विचारधारा का नया संघर्ष दिल्ली और टटरा सरीके दो छोर का है । क्योंकि विकास का पैमाना अगर सडक पानी बिजली शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से आगे  जा नहीं रहा या फिर यह पैमाना भी राज्य मुनाफा बनाने वाली कंपनियो के आसरे पर पूरा करने की ही स्थिति में है तो भी राज्य की भूमिका है क्या या जनता और राज्यसत्ता के बीच संवाद सीधा होगा कैसे यह अपने आप में सबसे बडा संकट है। क्योंकि अगर सार्वजनिक उपक्रम अब खत्म होंगे। निजी पूंजी विकास का रास्ता बनायेगी तो फिर झ्रांरखंड में टटरा के गाववालो को सडक,बिजली पानी , शिक्षा, इलाज से आगे क्या चाहिये इसे दिल्ली को कौन बतायेगा । क्योकि दिल्ली के नार्थ ब्लाक में गृह मंत्रालय की चिंता तो आंतरिक सुरक्षा है जो चतरा के १२ ब्लाक, में १५४ पंचायतों के १४७४ गांव में सबसे ज्यादा है । और संयोग से इन १४७४ गांव में ९८० गांव में वह सबकुछ है जो विकास के दायरे में होना चाहिये या कहे जिसका नारा लगाते हुये नरेन्द्र मोदी सरकार सत्ता में आ गयी । तो फिर यहा विकास का मतलब वही खनन । खनिज संपदा की लूट । पावर प्लांट । और चकाचौंध के उन सपनों के उडान का ही होगा। जहा गांव बाजार में बदल जाते है । और उन्हे शहर करार दिया जाता है । फिर यह सवाल भी बेमानी हो जायेगा कि सडक, पानी, बिजली , शिक्षा, इलाज, रोजगार से परिपूर्ण टटरा  के आदिवासी । खेतीहर किसान । ग्रामिण मजदूर कहां जायेंगे । यह किसी को नहीं पता ।

6 comments:

  1. Aap bina matlab ki baat sochte aur likhte ho....kisne kaha ki PSU kahtm ho jayenge....tum dekho agle kuch saal me PSU companies private se bhi achcha kaam karenge. Aap ke is lekh be confirm kar diya ki aap kamal mitra chinoy ki tarah urban Maoist ho aur aapko sabse jyada nafrat private companies, Lutyens ki dilli aur baajar se hai. Lagta hai kuch din me aapka haal bhi DU professor Saibaba ki tarah hone wala hai....Sach kaha na??

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    1. Y modi bhakts like u read such stuff wen u dont like it....ek taraf to bajpai g ko urban maoist keh rahe ho....dusri tarf unka blog bhi pad rahe ho & comment bhi kar rahe ho???itna faltu time h ya tum log(paid & blind modi bhakts)hi faltu ho???

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    2. Saalon election khatm ho gaya h...koi dusra kaam dhundho jaakar...yahan kyun muh maar rahe ho?

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  2. बहुत गहरी बहस छेड़ दी है आपने...अब देश की रक्षा का सामान भी निजी संस्थाएं तैयार करेंगी...और हम राष्ट्रवाद का झूठा गान गाएंगे...कभी गांधी ने सोचा नहीं होगा कि हमारे देश पर बाजारवाद इस कदर हावी हो जाएगा...।

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