Saturday, June 21, 2014

नेहरु के समाजवाद के छौंक की भी जरुरत नहीं मोदी मॉडल को

बात गरीबी की हो लेकिन नीतियां रईसों को उड़ान देने वाली हों। बात गांव की हो लेकिन नीतियां शहरों को बनाने की हो। तो फिर रास्ता भटकाव वाला नहीं झूठ वाला ही लगता है। ठीक वैसे, जैसे नेहरु ने रोटी कपड़ा मकान की बात की । इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और अब नरेन्द्र मोदी गरीबों के सपनों को पूरा करने के सपने दिखा रहे हैं। असल में देश के विकास के रास्ता कौन सा सही है, इसके मर्म को ना नेहरु ने पकड़ा और ना ही मोदी पकड़ पा रहे हैं। रेलगाड़ी का सफर महंगा हुआ। तेल महंगा होना तय है। लोहा और सीमेंट महंगा हो चला है। सब्जी-फल की कीमतें बढेंगी ही। और इन सब के बीच मॉनसून ने दो बरस लगातार धोखा दे दिया तो खुदकुशी करते लोगों की तादाद किसानों से आगे निकल कर गांव और शहर दोनों को अपनी गिरफ्त में लेगी। तो फिर बदलाव आया कैसा। यकीनन जनादेश बदलाव ले कर आया है। लेकिन इस बदलाव
को दो अलग अलग दायरे में देखना जरुरी है। पहला मनमोहन सिंह के काल का खात्मा और दूसरा आजादी के बाद से देश को जिस रास्ते पर चलना चाहिये, उसे सही रास्ता ना दिखा पाने का अपराध। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह से मुक्ति दिलायी, यह जरुरी था। इसे बड़ा बदलाव कह सकते हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री थे जो भारत के प्रधानमंत्री होकर भी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइन्दे के तौर पर ही ७ रेसकोर्स में थे। क्योंकि मनमोहन सिंह ऐसे पहले पीएम बने, जिन्हे विश्व बैंक से प्रधानमंत्री रहते हुये पेंशन मिलती रही। यानी पीएम की नौकरी करते हुये टोकन मनी के तौर पर देश से सिर्फ एक रुपये लेकर ईमानदार पीएम होने का तमगा लगाना हो  या फिर परमाणु संधि के जरीये दूनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियो को मुफा बनाने देने के लिये भारत को उर्जा शक्ति बनाने का ढोंग हो। हर हाल में मनमोहन सिंह देश की नुमाइन्दगी नहीं कर रहे थे बल्कि विश्व बाजार में बिचौलिये की भूमिका निभा रहे थे।

जाहिर है नरेन्द्र मोदी बदलाव के प्रतीक हैं, जो मनमोहन सिंह नहीं हो सकते। लेकिन यहां से शुरु होता है दूसरा सवाल जो आजादी के बाद नेहरु काल से लेकर शुरु हुये मोदी युग से जुड़ रहा है। और संयोग से नेहरु और मोदी के बीच फर्क सिर्फ इतना ही दिखायी दे रहा है कि भारत की गरीबी को ध्यान में रखकर नेहरु ने समाजवाद का छोंक लगाया था और नरेन्द्र मोदी के रास्ते में उस आरएसएस का छोंक है जो भारत को अमेरिका बनाने के खिलाफ है। लेकिन बाकी सब ? दरअसल नेहरु यूरोपीय माडल से खासे प्रभावित थे। तो उन्होंने जिस मॉडल को अपनाया उसमें बर चीज बड़ी बननी ही थी। बड़े बांध। बड़े अस्पताल। बडे शिक्षण संस्थान । यानी सबकुछ बडा । चाहे भाखडा नांगल हो या एम्स या फिर आईआईटी। और जब बड़ा चाहिये तो दुनिया के बाजार से इन बडी चीजो को पूरा करने के लिये बड़ी मशीनें। बड़ी टेकनालाजी। बडी शिक्षा भी चाहिये। तो असर नेहरु के दौर से ही एक भारत में दो भारत के बनने का शुरु हो चुका था। इसीलिये गरीबी या गरीबों को लेकर सियासी नारे भी आजादी के तुरत बाद से गूंजते रहे और १६ वीं लोकसभा में भी गूंज रहे हैं। लेकिन अब सवाल है कि मोदी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं, वह बदलाव का है। या फिर जनादेश ने तो कांग्रेस को रद्दी की टोकरी में डाल कर बदलाव किया लेकिन क्या जनादेश के बदलाव से देश का रास्ता भी बदलेगा। या बदलाव आयेगा, यह बता पाना मुश्किल इसलिये नहीं है क्योकि नेहरु ने जो गलती की उसे अत्यानुधिक तरीके से मोदी मॉडल अपना रहा है। सौ आधुनिकतम शहर। आईआईटी। आईआईएम। एम्स अस्पताल। बडे बांध । विदेशी निवेश । यानी हर गांव को शहर बनाते हुये शहरों को उस चकाचौंध से जोड़ने का सपना जो आजादी के बाद बहुसंख्यक तबका अपने भीतर संजोये रहा है। जहां वह घर से निकले।गांव की पगडंडियों को छोड़े। शहर में आये। वहीं पढ़े। राजधानी पहुंचे तो वहां नौकरी करे। फिर देश के महानगरो में कदम रखे। फिर दिल्ली या मुबंई होते हुये सात समंदर पार। यह सपना कोई आज का नहीं है। लेकिन इस सपने में संघ की राष्ट्रीयता का छौंक लगने के बाद भी देश को सही रास्ता क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसे आरएसएस भी कभी समझ नहीं पायी और शायद प्रचारक से पीएम बने मोदी का संकट भी यही है कि जिस रास्ते वह चल निकले है उसमें गांव कैसे बचेंगे, यह किसी को नहीं पता। पलायन कैसे रुकेगा इसपर कोई काम हो नहीं रहा है। सवा सौ करोड़ का देश एक सकारात्मक
जनसंख्या के तौर पर काम करते हुये देश को बनाने संवारने लगे इस दिशा में कभी किसी ने सोचा नहीं । पानी बचाने या उर्जा के विकल्पों को बनाने की दिशा में कभी सरकारो ने काम किया नहीं । बने हुये शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों को पनाह दिये हुये है उसे रोके कैसे या शहरो का विस्तार पानी, बिजली, सड़क की खपत के अनुसार ही हो इसपर कोई बात करने को तैयार नहीं है । तो फिर बदलाव का रास्ता है क्या । जरा सरलता से समझे तो हर गांव के हर घर में साफ शौचालय से लेकर पानी निकासी और बायो गैस उर्जा से लेकर पर्यावरण संतुलन बनाने के दिशा में काम होना चाहिये। तीन या चार पढ़े लिखे लोगो हर गांव को सही दिशा दे सकते है । देश में करीब ६ लाख ३८ हजार गांव हैं। तीस लाख से ज्यादा बारहवी पास छात्रो को सरकार नौकरी भी दे सकती है और गाव को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम भी उठा सकती है। फिर क्यों तालाब , बावडी से लेकर बारिश के पानी को जमा करने तक पर कोई काम नहीं हुआ । जल संसाधन मंत्रालय का काम क्या है । पानी देने के राजनीतिक नारे से पहले पानी बचाने और सहेजने का पाठ कौन पढ़ायेगा । इसके सामानांतर कृषि विश्वविद्यालयों के जिन छात्रों को गर्मी की छुट्टी में प्रधानमंत्री मोदी गांव भेजना चाहते हैं और लैब टू लैंड या यानी प्रयोगशाला से जमीन की बात कर किसानों को खेती का पाठ पढाना चाहते हैं, उससे पहले जैविक खेती के रास्ते खोलने के लिये वातावरण क्यों नहीं बनाना चाहते ।

किसान का जीवन फसल पर टिका है और फसल की किमत अगर उत्पादन कीमत से कमहोगी तो फिर हर मौसम में ज्यादा फसल का बोझ किसान पर क्यों नहीं आयेगा । खनन से लेकर तमाम बडे प्रजोक्ट जो पावर के हो या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के। उन्हें पूरा करने में तकनालाजी की जगह मानव श्रम क्यों नहीं लगाया जा सकता। जबकि मौजूदा वक्त में जितनी भी योजनाओं पर काम चल रहा है और जो योजनायें मोदी सरकार की प्राथमिकता है उनमें से अस्सी फीसदी योजना की जमीन तो ग्रामीण बारत में है। इनमें भी साठ फीसदी योजनायें आदिवासी बहुल इलाको में है। जहां देश के बीस करोड़ से ज्यादा श्रमिक हाथ बेरोजगार हैं। क्या
इन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। लातूर में चीन की टक्नालाजी से आठ महीने में पावर प्रोजेक्ट लगा दिया गया। मशीने लायी गयी और लातूर में लाकर जोड़ दिया गया । लेकिन इसका फायदा किसे मिला जाहिर है उसी कारपोरेट को जिसने इसे लगाया । तो फिर गांव गांव तक जब बिजली पहुंचायी जायेगी तो वहा तक लगे खंभों का खर्च कौन उठायेगा । निजी क्षेत्र के हाथ में पावर सेक्टर आ चुका है तो फिर खर्च कर वह वसूलेगी भी । तो मंहगी बिजली गांव वाले कैसे खरीदेगें । और किसान मंहगी बिजली कैसे खरीदेगा । अगर यह खरीद पायेगें तो अनाज का समर्थन मूल्य तो सरकार को ही बढाना होगा । यानी मंहगे होते साधनो पर रोक लगाने का कोई विकास का माडल सरकार के पास नहीं है । सबसे बडा सवाल यही है कि बदलाव के जनादेश के बाद क्या वाकई बदलाव की खूशबू देने की स्थिति में मोदी सरकार है । क्योंकि छोटे बांध । रहट से सिंचाई । रिक्शा और बैलगाडी । सरकारी स्कूल । प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र । सौर उर्जा या बायो-गैस । सबकुछ खत्म कर जिस विकास माडल में सरकार समा रही है उस रास्ते पहाडियो से अब पानी झरने की तरह गिरते नहीं है । सड़कों पर साइकिल के लिये जगह नहीं । बच्चो के खुले मैदानों की जगह कम्यूटर गेम्स ने ले ली है । चलने वालों की पटरी पर चढाई कर फोर व्हील गाडिया ओवर-टेक कर दौडने को तैयार है । और जिस पेट्रोल -डीजल पर विदेशी बाजार का कब्जा है उसका उपयोग ज्यादा से ज्यादा करने के लिये गाडियों को खरीदने की सुविधा ही देश में सबसे ज्यादा है। यानी आत्मनिर्भर होने की जगह आत्मनिर्भर बनने के लिये पैसा बनाने या रुपया कमाने की होड ही विकास माडल हो चला है । तभी तो पहली बार बदलाव के पहले संकेत उसी बदलाव के जनादेश से निकले है जिससे बनी मोदी सरकार ने रेल बजट का इंतजार नहीं किया और प्रचारक से पीएम बने मोदी जी ने यह जानते समझते हुये यात्रियो का सफरचौदह फिसदी मंहगा कर दिया कि भारत में रेलगाडी का सबसे ज्यादा उपयोग सबसे मजबूर-कमजोर तबका करता है। खत्म होते गांवों, खत्म होती खेती के दौर में शहरो की तरफ पलायन करते लोग और कुछ कमाकर होली-दिवाली -ईद में मां-बाप के पास लौटता भारत ही सबसे ज्यादा रेलगाड़ी में सफर करता है ।

दूसरे नंबर पर धार्मिक तीर्थ स्थलो के दर्शन करने वाले और तीसरे नंबर पर विवाह उत्सव में शरीक होने वाले ही रेलगाडी में सफर सबसे ज्यादा संख्या में करते है । और जो भारत रेलगाड़ी से सस्ते में सफर  के लिये बचा उस भारत को खत्म कर शहर बनाकर गाडी और पेट्रोलॉ-डीजल पर निर्भर बनाने की कवायद भूमि सुधार के जरीये करने पर शहरी विकास मंत्रालय पहले दिन से ही लग चुका है । यानी महंगाई पर रोक कैसे लगे इसकी जगह हर सुविधा देने और लेने की सोच विकसित होते भारत की अनकही कहानी हो चली है । जिसके लिये हर घेरे में सत्तादारी बनने की ललक का नाम भारत है । तो गंगा साफ कैसे होगी जब सिस्टम मैला होगा। और सत्ता पाने के खातिर गरीबो के लिये जीयेंगे-मरेंगे का नारा लगाना ही आजाद भारत की फितरत होगी।




14 comments:

  1. आपने जहाँ अपने एक पिछले लेख में झारखण्ड में नक्सली शासन की तारीफ की थी, वहीँ आप यहाँ चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार की बुराई में लग गए। आपकी विचारधारा क्या है, ये किसी से छुपा नहीं है। लेकिन ये तो बताओ की आपकी विचारधारा से मिलती-जुलती वामपंथी सरकार ने 35 वर्ष के शासन में बंगाल को क्या दिया? किस गाँव का विकास हों गया और कौन सा शहर बन गया। 25 दिन के राज में आपने मोदी सरकार का खाका खींच दिया, कम से कम 1 बरस इंतज़ार तो कर लो।

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  2. Sir we miss u on aaj tak .
    badhai ho acche din aa gaye hai.
    namaskar !

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  3. बेहद दिलचस्प।

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  4. apke lekh modibhaktin..ko mirchi laga deta hai..he he ..gud sir..

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  5. सर,
    समाजवाद आजतक इस देश के किसान को उसकी उपज सही मूल्य तक नहीं दे पाया |
    ऐसा समाजवाद किस काम का जो किसी एक प्रदेश की तर्रकी ही कर सके|

    क्या प्याज सिर्फ महाराष्ट्र में ही पैदा हो सकता है |
    या फिर समाजवाद इस छोटीसी बात को समझ नहीं सकता की इसी देश में और भी कई मंडिया बनाई जा सकती है|

    नए शहर हर राज्य में बनाने ही पड़ेंगे| अब समाजवाद तो उतना खजाना पैदा कर नहीं पाया तो प्राइवेट के पास तो जाना पड़ेगा|

    यह समाजवाद की विफलता है और उसके नाम पर चुनाव लड़ने वालों के मुह पर तमाचा |

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  7. True Said...........

    Very Very Interesting Article

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  8. कोई भी सरकार आये जब तक गाँवों को स्वावलंबी बनाने की दिशा में काम नहीं करेगी तब तक कुछ फायदा हो नहीं सकता !

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  9. में आपके विचारो से पूरी तरह सहमत हु। में और मेरे जैसे लाखो युवान चाहेंगे की आप इस बारे में जितना भी हो सके उतना सरकार को सोचने पर मजबूर करे।

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  10. में आपके विचारो से पूरी तरह सहमत हु। में और मेरे जैसे लाखो युवान चाहेंगे की आप इस बारे में जितना भी हो सके उतना सरकार को सोचने पर मजबूर करे।

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  11. इस आर्टिकल को पढ़ने वाले यह समझ ही नहीं पाए कि आॅथर (यानी आप) कहना क्या चाह रहे हैं। दरअसल, इसमें न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध है न ही कोई समाजवाद की बात। जहां तक मैं समझा हूं लेखक गांवों को आत्मनिर्भर बनाने और शहरों को बोझा ढोने वाले स्थल से कुछ और बनाने का सपना देख रहे हैं। प्रसून जी मल्टी नेशनल कंपनियां हमारे गांवों और शहरों की आत्मनिर्भरता को खत्म करने और हमारे हेट्रोजिनस समाज को होमोजिनस बनाने के लिए लंबी और महंगी रिसर्च कर रही हैं। और हम हैं कि उन्हें यह करने का अवसर दिए जा रहे हैं।
    - जय द्विवेदी, इंदौर

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