खांटी कांग्रेसी नटवर सिंह ने कांग्रेस का मतलब ही गांधी परिवार के उस मर्म पर हमला किया है, जहां से खड़ा होने के लिये गांधी परिवार को ही व्यूहरचना करनी होगी। छाती पर शहीदी तमगा और विचार के तौर पर त्याग का मुकुट लगाकर ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस को खडा किया। सत्ता तक पहुंचाया । लेकिन नटवर सिंह ने जिस तरह राजीव गांधी की हत्या के साथ श्रीलंका को लेकर राजीव गांधी की फेल डिप्लोमेसी और सोनिया गांधी के त्याग के पीछे बेटे राहुल गांधी को मा के मौत का खौफ के होने की बात कही है, उसने गांधी परिवार के उस औरे को भी खत्म किया है जिसके आसरे कांग्रेस हमेशा से खड़ी रही है और कांग्रेस की उस राजीनिति में भी सेंध लगा दी है जो बीते दस बरस से तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं की तुलना में सोनिया गांधी को अलग खड़ा करती रही। ऐसे में तीन सवाल काग्रेस और गांधी परिवार के सामने है । पहला, कांग्रेस के सामने अब राजनीतिक रास्ता क्या है। गांधी परिवार का औरा कैसे लौटेगा। सोनिया की राजनीतिक साख कैसे खड़ी होगी। जाहिर है कांग्रेस के सामने मुश्किल यह है कि कटघरे में खड़ा करने वाला शख्स मौजूदा कांग्रेसियों की तुलना में सबसे पुरानी कांग्रेसी भी है और गांधी परिवार से उसके ताल्लुकात सोनिया गांधी से भी पुराने हैं। यानी सोनिया ने जो आज जिक्र किया कि अब वह भी किताब लिखकर जबाब देगी तो उससे बात बनेगी नहीं और सोनिया गांधी जो भी किताब लिख लें कांग्रेस को उससे राजनीतिक आक्सीजन मिलेगा नहीं। तो बड़ा सवाल है कि क्या सोनिया की राजनीतिक साख यहा खत्म होती है और अब कांग्रेस को तुरुप का पत्ता प्रियंका गांधी को चलने का वक्त आ गया है। या फिर राहुल गांधी को अब कहीं ज्यादा परिपक्व तरीके से सामने आकर उस राजनीतिक लकीर को आगे बढ़ाना होगा, जहां उनके कहने पर सोनिया गांधी पीएम नहीं बनी और राहुल के खौफ को अपनी आत्मा की आवाज के आसरे सोनिया गांधी ने त्याग की परिभाषा गढ़ी।
ये हालात अगर राहुल गांधी को बदल दें तो फिर कांग्रेस के लिये नटवर का कटघरा संजीवनी साबित भी हो सकते हैं। क्योंकि गांधी परिवार ने अगर पहली बार सत्ता नहीं संभालने के खौफ को त्याग और बलिदान से जोड़ा तो उससे कही ज्यादा बडा दाग पर्दे के पीछे से सत्ता की ताकत अपने हाथ पर रखने की सामने आयी। यानी गांधी परिवार की चौथी पीढी को अब यह समझ में आ गया होगा कि किचन कैबिनेट इंदिरा गांधी की थी। निजी कोटरी राजीव गांधी की भी थी । जिसका जिक्र नटवर सिंह ने भी अरुण सिंह और अरुण नेहरु का नाम लेकर किया है कि कैसे वह बेफिक्र हर निर्णय ले लेते थे। और 1987 में डिफेन्स डील
की गडबड़ी सामने आने पर उन्हे राजीव गांधी को कहना पड़ा कि आप दून स्कूल केओल्ड ब्याज एसोसियशन के अध्यक्ष नहीं है। बल्कि पीएम हैं। और उसके बाद अरुण सिंह को रक्षा राज्य मंत्री के पद से हटाया जाता है। फिर जवाहर लाल नेहरु भी कश्मीर, चीन और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पर निर्णय लेने के लिये कैबिनेट तक नहीं पहुंचे बल्कि अपने खास -भरोसे वालों पर ही भरोसा कर चले। और निर्णय भी लिया। लेकिन सभी ने पीएम की कुर्सी संभाली यानी जिम्मेदारी सीधी ली। तो फिर अब कांग्रेस को खड़ा करने के लिये सोनिया पर दागे गये नटवर के वार को ही हथियार बनाकर गांधी परिवार अपनी साख और
कांग्रेस को खड़ा क्यो नहीं कर सकते हैं।
असल में नटवर सिंह की किताब की मार इसलिये भी घातक है क्योकि मौजूदा वक्त में गांधी परिवार की राजनीतिक साख सबसे कमजोर है। इसलिये त्याग और खौफ के बीच की लकीर इतनी मोटी हो चली है कि वीपी सिंह से लेकर ज्योति बसु और कई अन्य राजनेताओं के साथ सोनिया गांधी का ही खौफ छुप गया है। एनसीपी सांसद डीपी त्रिपाठी की माने तो सोनिया गांधी ने ज्योति बसु से कहा था कि जो कांग्रेसी आज उन्हें पीएम बनाना चाहते हैं, तीन से छह महींने बाद वही उनकी जान के दुश्मन हो जायेंगे । वीपी सिंह ने तो सोनिया गांधी को पीएम ना बनने की सलाह दी थी। यानी सोनिया की साख नटवर की किताब के आगे कमजोर हो जाती है। तो असल में अब कांग्रेस को खड़ा करने के लिये राहुल गांधी को निर्णय इसलिये लेना होगा क्योंकि नटवर सिंह ने सोनिया गांधी के जीवन का समूचा कच्चा-चिट्टा अपनी किब में लिख डाला है। और वह इसलिये मजबूत आधार है क्योंकि नटवर सिंह आज की तारीख में सोनिया गांधी से जितने दूर हो चले हैं, कभी उतने ही पास थे। सच तो यह भी है इंदिरा गांधी ने सोनिया गांधी के साथ राजीव गांधी की शादी की सबसे पहले जानकारी नवंबर 1967 में जिन्हें सबसे पहले दी थी, उनमें नटवर सिंह परिवार के बाहर के पहले शख्स । ना सिर्फ इंदिरा बल्कि नेहरु और राजीव गांधी के साथ भी जो करीबी नटवर सिंह की रही उसका कच्चा-चिट्टा लिखते हुये नटवर सिंह ने जब सोनिया गांधी को अपनी किताब वन लाइफ इज नाट इनफ में परखा तो फिर उसी उस मुकाम पर ले गये जहा अब सोनिया गांधी खामोश रह नहीं सकती। क्योंकि सोनिया गांधी की समूची सियासी साख पर ही नटवर की कलम ने अंगुली रख दी है।
असल में सोनिया के जीवन को नटवर सिंह ने चार हिस्सों में बांटा। पहला फेज 25 परवरी 1968 को राजीव गांधी के साथ शादी से शुरु होता है। जो बेफ्रिकी का है । दुनिया में एक अलग और ताकतवर पहचान पाने का है। जिन्दगी में सारे सुकून का एहसास करने का है। लेकिन इसके बाद से सोनिया की जिन्दगी बदलती है। 31 अक्टूर 1984 के बाद से सोनिया के जिन्दगी एकदम बदल जाती है। जब गोलियों से छलनी इंदिरा गांधी को आर के धवन के साथ सोनिया गांधी कार से एम्स ले जाती हैं। खून से लथपथ इंदिरा गांधी के साथ एम्स पहुंचते पहुंचते सोनिया गांधी को भी सियासी खून का एहसास हो जाता है। इसीलिये जैसे ही राजीव गांधी के पीएम बनने की बात होती है, वैसे ही सोनिया यह कहने से नहीं चूकती कि अगर आप प्रधानमंत्री बने तो तो मारे जायेंगे और राजीव गांधी यह कहकर पीएम बनते है कि मैं तो वैसे भी मारा जाऊंगा। 1984 से 1991 तक सोनिया के इस जीवन में तीसरा बदलाव राजीव गांधी की हत्या के बाद शुरु होता है। मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी खूद को एकदम अकेले पाती हैं। लेकिन कांग्रेस के भीतर की कश्मकश में राजीव गांधी के बाद कौन वाली परिस्थितियों में सोनिया गांधी नटवर सिंह से ही सलाह लेती हैं। और नटवर सिंह इंदिरा के करीबी पीएन हक्सर से सलाह लेने का सुझाव देते हैं। हक्सर उपराष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का नाम रखते हैं। और शंकरदयाल शर्मा जब पीएन हक्सर गोपी अरोड़ा को यह कहकर खाली लौटे देते हैं कि उनकी उम्र और तबियत पीएम पद संभालने की इजाजत नहीं देती तो फिर अगला नाम पीवी नरसिंह राव का सामने आता है। यानी सोनिया की खामोश राजनीति भी कांग्रेस के लिये मायने रखती है। और 1998 में यह खामोशी टूटती है तो नटवर सिंह की कलम सोनिया गांधी के लिये एक नये हालात को देखती हैं। 14 मार्च 1998 को दिल्ली के सीरीफोर्ट में सोनिया गांधी बेटी प्रियंका गांधी के साथ राजनीति में कूदने के लिये पहुंचती हैं और नटवर सिंह को बगल में बैठाती हैं तो सोनिया सानिया के नारे से कांग्रेस के भीतर यह सोच कर उल्लास भर जाता है कि कांग्रेस सत्ता में लौटेगी । कांग्रेस 2004 में सत्ता में लौटती भी है। लेकिन सत्ता में लौटने के बाद भी सोनिया गांधी पीएम बनने से इंकार करती तो इंकार गांधी परिवार की सियासी राजनीति को उड़ान दे देता है । ध्यान दें तो नटवर सिंह की कलम से निकली वन लाइफ इज नाट इनफ 2004 के बाद के बाद सोनिया गांधी के उस पांचवें शेड को राजनीतिक के ऐसे कटघरे में खड़ा कर देती है, जहां से गांधी परिवार की साख खत्म दिखायी दे। और आखिरी सवाल यही से खड़ा हो रहा है कि अब कांग्रेस का क्या होगा जिसके लिये गांधी परिवार ही सबकुछ है। और मौजूदा वक्त में सोनिया गांधी ना हो तो कांग्रेस किसी क्षेत्रीय पार्टी से भी कमजोर दिखायी देने लगती है।
Thursday, July 31, 2014
Sunday, July 27, 2014
क्या ईद मिलन के लिये ७ रेसकोर्स का दरवाजा खुलेगा ?
इस बार ७ रेसकोर्स में ईद-मिलन होगा या नहीं। यह सवाल मुश्किल होना नहीं चाहिये, लेकिन रमजान के दौर में लुटियन्स की दिल्ली जिस तरह इफ्तार पार्टियों से महरुम रही और इसी दौर में सत्ताधारियों का विचार हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है, का सवाल हवा में उछलने लगा उससे यह सवाल तो खड़ा हो ही गया है कि ७ रेसकोर्स में ईद मिलन होगा कि नहीं। जबकि पिछले बरस तो जो सत्ता में नहीं थे. उनके इफ्तार पार्टी से लुटियन्स की दिल्ली भी गुलजार रहती थी और इफ्तार में तमाम मंत्री और राजनेताओं से लेकर प्रधानमंत्री भी शिरकत करते। संयोग से उनमें से एक रामविलास पासवान मौजूदा वक्त में तो मोदी सरकार के नगीने हैं लेकिन पासवान ने भी इस बार लुटियन्स की दिल्ली में इफ्तार पार्टी दी नहीं। जबकि पासवान की इफ्तार पार्टी लुटियन्स की दिल्ली में उनके अल्पसंख्यक प्रेम की ताकत दिखाती। जिसमें इतनी बड़ी तादाद में लोग शरीक होते ही रात ढलते ढलते कबाब और सेवई खत्म हो जाती लेकिन खाने वाले कम नहीं होते। वही बीजेपी का अल्पसंख्यक चेहरा शहनवाज हुसैन की इफ्तार पार्टी में तो प्रधानमंत्री रहते हुये मनमोहन सिंह भी पहुंचते और सत्ता में रहते हुये जब अटलबिहारी वाजपेयी जब ७ रेसकोर्स में इफ्तार नहीं दे पाते तो शहनवाज हुसैन को ही कह देते कि इफ्तार पार्टी वह दे दें। और याद कीजिये तो २००२ में गुजरात में राजधर्म का पाठ पढ़ाकर दिल्ली लौटे अटलबिहारी वाजपेयी ने समूची रमजान बिना इफ्तार पार्टी के खामोश लुटियन्स की दिल्ली में ईद मिलन का आयोजन ७ रेसकोर्स में किया था तब लालकृष्ण आडवाणी भी नहीं पहुंचे थे। और सोनिया गांधी भी नहीं आयी थीं । जामा मस्जिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी भी नहीं आये थे। लेकिन बावजूद इसके ७ रेसकोर्स के दरवाजे तब अल्पसंख्यकों के लिये खुले जरुर और हर दिल के पास सरकार की नीयत से लेकर राजधर्म का पाठ भी तब शहनवाज हुसैन और मुख्तार हुसैन नकवी लगातार पहुंचते रहे। तब एनडीए का साथ छोड़ने के बावजूद उमर अबदुल्ला भी पहुंचे और बड़े ही गर्मजोशी से प्रधानमंत्री वाजपेयी से मिले।
गंगा-यमुनी तहजीब में गुथे भारत को लेकर आजादी के बाद नेहरु की सत्ता से लेकर वाजपेयी सरकार के दौर तक कभी किसी ने यह सवाल उछालने की हिम्मत की नहीं होगी कि ईद मिलन होगा की नहीं। पाकिस्तान बनने से घायल भारत को मलहम लगाने के लिये नेहरु ने ईद के मौके पर ना सिर्फ जामा मस्जिद की सिठियों को मापा बल्कि रमजान के दौर में इफ्तार पार्टी की परंपरा भी शुरु की। तब ७ जंतर मंतर पर कांग्रेस का दप्तर हुआ करता था और नेहरु तीन मूर्ति की जगह कांग्रेस के दफ्तर ७ जंतर मंतर में ही इफ्तार पार्टी देने से नहीं चूकते। सिलसिला १९६५ में पाकिस्तान युद्द के वक्त थमा। उस वक्त लालबहादुर शास्त्री तो देश से एक वक्त का उपवास कर अन्न बचाने और देश को एकजूट कर पाकिस्तान से लोहा लेने में लगे। संयोग देखिये लाल प्रधानमंत्री बहादुर शास्त्री का घर १० जनपथ था, जहां कभी इफ्तार पार्टी नहीं हुई लेकिन इस बार पहली बार २७ जुलाई २०१४ को १० जनपथ पर इफ्तार पार्टी होगी। वैसे १९७१ के युद्द में पाकिस्तान का जमीन सूघांने के बाद इंदिरा गांधी ने १९७२ में लुटियन्स की दिल्ली में खासा बडा इद मिलन समारोह आयोजित किया। जिसमें जयप्रकाश नारायण भी शरीक हुये । सिर्फ ईद मिलन ही नहीं इंदिरा गांधी के दौर में तो दीवाली मिलन, गुरु पर्व मिलन, होली मिलन और क्रिसमस मिलन तक के लिये एक सफदरजंग का दरवाजा खुलता रहा। वहीं ७ आरसीआर का दरवाजा राजीव गांधी के दौर से कमोवेश हर प्रधानमंत्री के दौर में ईद मिलन के लिये खुलता रहा। उत्तराखंड हादसे की वजह से पिछले बरस इफ्तार और ईद मिलन के लिये ७ रेसकोर्स का दरवाजा नहीं
खुला । लेकिन क्या आजादी के बाद पहली बार यह सवाल वाकई महत्वपूर्ण हो चला है कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से ज्यादा तरजीह कांग्रेस की राजनीति ने दी तो अब उसे बदलने का वक्त आ गया है। क्योंकि नेहरु की पहली कैबिनेट में मंत्री रहे हिन्दु महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ६ अप्रैल १९५० को इसी मुद्दे पर इस्तीपा देकर जनसंघ बनाने की दिसा में कदम बढ़ाया क्योंकि नेहरु अल्पसंख्यकों के अधिकारो के लिये अल्पसंख्यक आयोग बनाने के पक्ष में थे और इसके लिये पाकिस्तान के पीएम लियाकत अली खान को उन्होंने दिल्ली आमंत्रित किया था। फिर राष्ट्रीय स्वयंससेवक संघ तो शुरु से ही 'हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है' की थ्योरी को मानता रहा। काशी की एक भरी सभा में जब एक वक्ता ने व्यंग्यपूर्वक पूछा--कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दु राष्ट्र है? तो सीना ठोक कर उच्च स्वर में डा हेडगेवार बोले, 'मैं डा केशव बलिराम हेडगेवार कहता हूं -यह सदा सर्वदा से हिन्दु राष्ट्र था, आज भी है और जन्म-जन्मांतर तक हिन्दू राष्ट्र रहेगा।'
संघ के प्रचारकों के लिये यह सूत वाक्य है। और पहली बार आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता ने ही नरेन्द्र मोदी को बहुमत के साथ पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया है। या कहें आजादी के बाद से ही कांग्रेस की अल्पसंख्यक नीति का सिरे से विरोध करने वाले आरएसएस को पहली राजनीतिक सफलता इतनी बड़ी मिली है जहा संघ के स्वयंसेवकों को अब हिन्दुत्व की राजनीतिक धार भी दिखानी है । और किसी का राजनीतिक दबाब भी उनपर नहीं है जैसा वाजपेयी सरकार के दौर में था । असर इसी का है कि आजादी के बाद सबसे कम अल्पसंख्यक समुदाय के नेता इस बार लोकसभा चुनाव जीत पाये । असर इसी का है कि चुनाव के बाद विश्व हिन्दु परिषद के नेता अशोक सिंघल यह कहने से नहीं चुके कि मुसलमानों के बगैर भी दिल्ली की सत्ता मिल सकती है। असर इसी का है कि लोकसभा के भीतर बीजेपी सांसद विधुडी मुस्लिम लीग के सांसद औवेसी को पाकिस्तान जाने की खुली नसीहत देने से नहीं चुकते और बीजेपी सांसदों को पहली बार संसद के गलियारे में गर्व महसूस होता है कि विधुडी उनका नायक है और अब उनकी सत्ता आ गयी है। तो वह खामोश नहीं रहेंगे। हो सकता है कि असर इसी का हो शिवसेना नेताओं का आक्रोश भी धीरे धीरे महाराष्ट्र सदन की घटना के बाद माफी मांगने के बदले शिकायत करने के अंदाज से होते हुये धमकी के अंदाज तक जा पहुंचा । और असर इसी का है कि कल तक जो न्यूज चैनल हिन्दुत्व के नाम को कटघरे में खडा कर हिन्दू आतंकवाद को बार बार चला कर टीआरपी बटोरते रहे और अब सत्ता बदली है तो वही न्यूज चैनल हिन्दू राष्ट्र और पाकिस्तान जाने की धमकी को बार बार चलाकर टीआरपी बटोरते हैं। यानी सत्ता बदलने से राष्ट्र की परिभाषा बदलने से लेकर अगर विचारवान मीडिया के धंधे का उत्पाद ही बदलने लगे तो फिर सवाल ७ रेसकोर्स का दरवाजा ईद मिलन के लिये खुलेगा या नहीं का नहीं है। बल्कि पहली बार पूंजी के खेल से देश की परंपरा और तहजीब बचाने का है।
गंगा-यमुनी तहजीब में गुथे भारत को लेकर आजादी के बाद नेहरु की सत्ता से लेकर वाजपेयी सरकार के दौर तक कभी किसी ने यह सवाल उछालने की हिम्मत की नहीं होगी कि ईद मिलन होगा की नहीं। पाकिस्तान बनने से घायल भारत को मलहम लगाने के लिये नेहरु ने ईद के मौके पर ना सिर्फ जामा मस्जिद की सिठियों को मापा बल्कि रमजान के दौर में इफ्तार पार्टी की परंपरा भी शुरु की। तब ७ जंतर मंतर पर कांग्रेस का दप्तर हुआ करता था और नेहरु तीन मूर्ति की जगह कांग्रेस के दफ्तर ७ जंतर मंतर में ही इफ्तार पार्टी देने से नहीं चूकते। सिलसिला १९६५ में पाकिस्तान युद्द के वक्त थमा। उस वक्त लालबहादुर शास्त्री तो देश से एक वक्त का उपवास कर अन्न बचाने और देश को एकजूट कर पाकिस्तान से लोहा लेने में लगे। संयोग देखिये लाल प्रधानमंत्री बहादुर शास्त्री का घर १० जनपथ था, जहां कभी इफ्तार पार्टी नहीं हुई लेकिन इस बार पहली बार २७ जुलाई २०१४ को १० जनपथ पर इफ्तार पार्टी होगी। वैसे १९७१ के युद्द में पाकिस्तान का जमीन सूघांने के बाद इंदिरा गांधी ने १९७२ में लुटियन्स की दिल्ली में खासा बडा इद मिलन समारोह आयोजित किया। जिसमें जयप्रकाश नारायण भी शरीक हुये । सिर्फ ईद मिलन ही नहीं इंदिरा गांधी के दौर में तो दीवाली मिलन, गुरु पर्व मिलन, होली मिलन और क्रिसमस मिलन तक के लिये एक सफदरजंग का दरवाजा खुलता रहा। वहीं ७ आरसीआर का दरवाजा राजीव गांधी के दौर से कमोवेश हर प्रधानमंत्री के दौर में ईद मिलन के लिये खुलता रहा। उत्तराखंड हादसे की वजह से पिछले बरस इफ्तार और ईद मिलन के लिये ७ रेसकोर्स का दरवाजा नहीं
खुला । लेकिन क्या आजादी के बाद पहली बार यह सवाल वाकई महत्वपूर्ण हो चला है कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से ज्यादा तरजीह कांग्रेस की राजनीति ने दी तो अब उसे बदलने का वक्त आ गया है। क्योंकि नेहरु की पहली कैबिनेट में मंत्री रहे हिन्दु महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ६ अप्रैल १९५० को इसी मुद्दे पर इस्तीपा देकर जनसंघ बनाने की दिसा में कदम बढ़ाया क्योंकि नेहरु अल्पसंख्यकों के अधिकारो के लिये अल्पसंख्यक आयोग बनाने के पक्ष में थे और इसके लिये पाकिस्तान के पीएम लियाकत अली खान को उन्होंने दिल्ली आमंत्रित किया था। फिर राष्ट्रीय स्वयंससेवक संघ तो शुरु से ही 'हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है' की थ्योरी को मानता रहा। काशी की एक भरी सभा में जब एक वक्ता ने व्यंग्यपूर्वक पूछा--कौन मूर्ख कहता है कि यह हिन्दु राष्ट्र है? तो सीना ठोक कर उच्च स्वर में डा हेडगेवार बोले, 'मैं डा केशव बलिराम हेडगेवार कहता हूं -यह सदा सर्वदा से हिन्दु राष्ट्र था, आज भी है और जन्म-जन्मांतर तक हिन्दू राष्ट्र रहेगा।'
संघ के प्रचारकों के लिये यह सूत वाक्य है। और पहली बार आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता ने ही नरेन्द्र मोदी को बहुमत के साथ पीएम की कुर्सी तक पहुंचाया है। या कहें आजादी के बाद से ही कांग्रेस की अल्पसंख्यक नीति का सिरे से विरोध करने वाले आरएसएस को पहली राजनीतिक सफलता इतनी बड़ी मिली है जहा संघ के स्वयंसेवकों को अब हिन्दुत्व की राजनीतिक धार भी दिखानी है । और किसी का राजनीतिक दबाब भी उनपर नहीं है जैसा वाजपेयी सरकार के दौर में था । असर इसी का है कि आजादी के बाद सबसे कम अल्पसंख्यक समुदाय के नेता इस बार लोकसभा चुनाव जीत पाये । असर इसी का है कि चुनाव के बाद विश्व हिन्दु परिषद के नेता अशोक सिंघल यह कहने से नहीं चुके कि मुसलमानों के बगैर भी दिल्ली की सत्ता मिल सकती है। असर इसी का है कि लोकसभा के भीतर बीजेपी सांसद विधुडी मुस्लिम लीग के सांसद औवेसी को पाकिस्तान जाने की खुली नसीहत देने से नहीं चुकते और बीजेपी सांसदों को पहली बार संसद के गलियारे में गर्व महसूस होता है कि विधुडी उनका नायक है और अब उनकी सत्ता आ गयी है। तो वह खामोश नहीं रहेंगे। हो सकता है कि असर इसी का हो शिवसेना नेताओं का आक्रोश भी धीरे धीरे महाराष्ट्र सदन की घटना के बाद माफी मांगने के बदले शिकायत करने के अंदाज से होते हुये धमकी के अंदाज तक जा पहुंचा । और असर इसी का है कि कल तक जो न्यूज चैनल हिन्दुत्व के नाम को कटघरे में खडा कर हिन्दू आतंकवाद को बार बार चला कर टीआरपी बटोरते रहे और अब सत्ता बदली है तो वही न्यूज चैनल हिन्दू राष्ट्र और पाकिस्तान जाने की धमकी को बार बार चलाकर टीआरपी बटोरते हैं। यानी सत्ता बदलने से राष्ट्र की परिभाषा बदलने से लेकर अगर विचारवान मीडिया के धंधे का उत्पाद ही बदलने लगे तो फिर सवाल ७ रेसकोर्स का दरवाजा ईद मिलन के लिये खुलेगा या नहीं का नहीं है। बल्कि पहली बार पूंजी के खेल से देश की परंपरा और तहजीब बचाने का है।
Thursday, July 24, 2014
हां, मैं हाफिज सईद से मिला हूं, और मै पत्रकार हूं
कितनी बेमानी है हाफिज सईद पर खामोशी बरत पाकिस्तान से बातचीत ?
अभी नरेन्द्र मोदी की बात कर रहा है, चौदह बरस पहले बालासाहेब ठाकरे की बात कर रहा था। अभी खुद को दहशतगर्दी से अलग बता रहा है, चौदह बरस पहले दहशतगर्दी को सही ठहरा रहा था। अभी भारत में किसी भी आतंकी हमले से अपना दामन पाक साफ बता रहा है, चौदह बरस पहले कश्मीर से लेकर लालकिले तक की हमले की जिम्मेदारी लेते हुये भारत के हर हिस्से में आतंकी हमले की धमकी दे रहा था। अभी मोदी के पाकिस्तान आने पर विरोध ना करने की बात कह रहा है, चौदह बरस पहले परवेज मुशर्रफ के आगरा सम्मिट में शामिल होने को भी पाकिस्तानी अवाम के खिलाफ उठाया गया कदम बता रहा था। चौदह बरस पहले भारत सरकार लश्कर चीफ हाफिज मोहम्मद सईद को लेकर पाकिस्तान से सवाल नहीं उठा पायी थी, और आज जमात-उल-दावा के चीफ हाफिज सईद को लेकर कोई सीधा सवाल सरकार नहीं उठा पा रही है। चौदह बरस पहले हाफिज सईद का चेहरा दुनिया ने नहीं देखा था। आज दुनिया के सामने हाफिज सईद का चेहरा है। चौदह बरस पहले लालकिले पर आतंकी दस्तक के बावजूद वाजपेयी सरकार पाकिस्तान से बातचीत करने को तैयार थी। और बीते चौदह बरस के दौर में लालकिले से आगे संसद तक पर हमले और मुंबई, दिल्ली , हैदराबाद समेत बारह राज्यों में लश्कर के आतंकी हमलो के बावजूद मोदी सरकार विदेश सचिव स्तर की बातचीत करने जा रही है। लेकिन यह सवाल बीते चौदह बरस से अनसुलझा है कि जिस हाफिज सईद ने चौदह बरस पहले रिकार्डेड इंटरव्यू में कश्मीर में मौजूद आठ लाख भारतीय सेना को दहशतगर्द से जोड़कर भारत पर लश्कर के आतंकी हमले को माना था और उस वक्त के प्रधानमंत्री वाजपेयी और गृहमंत्री आडवाणी को यह कहकर चेताने कोताही नहीं बरती थी कि कश्मीर में किसी की जान जायेगी तो वह उन्हें भी नहीं छोडेगा तो फिर आज की तारिख में कैसे हाफिज सईद के ह्दय परिवर्तन वाले वेद प्रताप वैदिक की मुलाकात या कहें बातचीत को मान्यता दी जा सकती है। और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ प्रधानमंत्री मोदी कीगुफ्तगु संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा साडी-शाल डिप्लोमैसी के दायरे में समेटी जा सकती है। और जब २५ अगस्त को विदेश सचिव मिलेंगे तो हाफिज सईद के आंतक पर खामोशी बरत कैसे संबंध बेहतर बनाने की दिशा में कदम उठायेगें यह शायद सबसे बड़ा सवाल है।
दरअसल हाफिज सईद जो सच इंटरव्यू के जरीये चौदह बरस पहले बोल गया उसके मौजूदा सच को भी पत्रकार इंटरव्यू के जरीये आज भी ला सकता है। लेकिन मुंबई हमलों के बाद राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के संपादक के संगठन बीईए यानी ब्रॉडकास्ट एडीटर एसोसिएशन ने तय कर लिया कि आतंकवादी हाफिज सईद का इंटरव्यू न्यूज चैनलों पर नहीं दिखायेंगे। यानी कोई पत्रकार चाहे कि वह पाकिस्तान जाकर हाफिज सईद के सच को ले आये तो भी उसे न्यूज चैनल नहीं दिखायेंगे। क्योंकि आतंकवादी को राष्ट्रीय न्यूज चैनल मंच देना नहीं चाहते। लेकिन बीईए से जुडे यही संपादक हाफिज सईद के साथ वेद प्रताप वैदिक के ह्दय परिवर्तन सरीखी बातचीत पर हंगामा खड़ा कर पत्रकारिता करना जरुर चाहते हैं। असल में हाफिज सईद से इंटरव्यू लेना कितना आसान है या मुश्किल यह तो मुझे चौदह बरस पहले ही समझ में आ गया था लेकिन यह सवाल कि भारत सरकार इन चौदह बरस में भी क्यों पाकिस्तान को आतंक के कटघरे में खड़ा नहीं कर पाती है जबकि उसकी जमीन से लश्कर आतंक का खुला खेल भारत के खिलाफ खेलता है। इसे समझने के लिये आइए पहले चौदह बरस पुराने पन्नों को पलट लें।
जनवरी 2000 । जगह रावलपिंडी का फ्लैशमैन होटल। पाकिस्तान टूरिज्म डेवल्पमेंट कारपोरेशन के इस होटल में दोपहर 3 बजे के करीब एक कद्दावर शख्स कमरे में घुसा। गर्दन से नीचे तक लटकती दाढी । हट्ट-कट्टा शरीऱ । सफेद पजामा और कुरता पहने शख्स ने कमरे में घुसते ही कहा कॉफी नहीं पिलाइयेगा । कुछ पूछने से पहले ही वह शख्स खुद ही कुर्सी पर बैठा। और हमारे कुछ भी पूछने से पहले खुद ही बोल पड़ा। इंडिया से आये हैं। जी । कई दिनों से हैं। जी । तो रुके हुये क्यों है। जी हम लश्कर के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू लेने के लिये रुके हैं। क्यों आपकी बात हो गयी है । जी नहीं। तो फिर क्या फायदा । फायदा-नुकसान की बात नहीं है। दिल्ली में लालकिले पर हमला हुआ तो हम पाकिस्तान यही सोच कर आये हैं कि इंटरव्यू करेंगे तो भारत में भी लोग जान पायेंगे कि लश्कर के इरादे क्या हैं। आपने लश्कर के चीफ की कभी कोई तस्वीर देखी है। नहीं । तो फिर इंटरव्यू की कैसे सोच ली। पत्रकार के तौर पर पहली बार हमारे भीतर आस जगी कि हो ना हो यह शख्स लश्कर से जुड़ा है। तो तुरंत कॉफी का आर्डर दे दिया । दरअसल हाफिज सईद से मुलाकात का मतलब क्या हो सकता है और 14 बरस पहले कैसे यह संभव हुआ। यह इस हद तक डराने और रोमांचित करने वाला था कि लालकिले पर हमला हो चुका था । कश्मीर में कई आतंकी हमले हो चुके थे। देश में लोग आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तौयबा को जानने लगे थे । तालिबान के साथ लश्कर के संबंधों को लेकर दुनिया में बहस भी हो रही थी। लेकिन उस वक्त किसी ने लश्कर के मुखिया हाफिज सईद का चेहरा नहीं देखा था। कहीं किसी जगह हाफिज सईद की कोई तस्वीर छपी नहीं थी और सिर्फ नाम की ही दहशत उस वक्त कश्मीर से लेकर दिल्ली में था। और उसी दौर में हमने सोचा कि लश्कर के मुखिया हाफिज सईद का इंटरव्यू लेने पाकिस्तान जाना चाहिये। कोई सूत्र नहीं । किसी को जानते नहीं थे। सिर्फ कश्मीर के अलगाववादियों से पीओके यानी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के अलगाववादियों से संपर्क साध कर हम { मैं और मेरे सहयोगी अशरफ वानी } इस्लामाबाद रवाना हो गये। लेकिन पाकिस्तान में हिजबुल से लेकर जैश-ए मोहमम्द तक के दफ्तरों की हमने खाक छानी लेकिन किसी ने लश्कर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। पाकिस्तानी पत्रकारों से हम लगातार मिलते रहे। लेकिन किसी भी पत्रकार ने उस वक्त यह भरोसा नहीं दिया कि लश्कर के मुखिया हाफिज सईद से हमारी कोई मुलाकात हो भी सकती है । यहां तक की उस वक्त तालिबान में सक्रिय ओसामा बिन लादेन से संपर्क करने वाले पत्रकार हामिद मीर ने भी हमें यह कहकर निराशा दी कि हाफिज सईद से मिलना नामुमकिन है। हां, यह कहकर उन्होंने जरुर आस जगा दी कि अगर लश्कर कोपता चल जाये कि आप दिल्ली से लश्कर का इंटरव्यू लेने आये हैं तो वह संपर्क साध सकता है। तो हमें भी लगा हम हर दरवाजे पर तो जा चुके है । अब वीजा का वक्त भी खत्म होने जा रहा है तो आखिरी दिन तक रुकते हैं, उसके बाद वापस लौट जायेंगे। और वीजा का वक्त आखिरी दिन तक काटने के लिये ही पीटीडीसी के फ्लैशमैन होटल के कमरा नं ३२ में हमारा वक्त गुजर रहा था। सुबह से ही कबाब और रात में फ्लैशमैन होटल के खानसामे से आलू की भुजिया या कभी पीली दाल बनाने के तरीके बताकर बनवाकर खाना। चार दिन वीजा के बचे थे और तीसरे दिन दोपहर तीन बजे के वक्त कद्दावर शख्स फ्लैशमैन होटल के हमारे कमरे में बिना इजाजत घुसा था। बातचीत करते हुये दो घंटे बीते होंगे, जिसके बाद उसने खुद का नाम याह्या मुजाहिद बताया। तो हमारे दरवाजे पर लश्कर दस्तक दे चुका है। कि याह्या मुजाहिद का नाम बतौर लश्कर के प्रवक्ता के तौर पर लालकिले पर हमले के बाद भी आया था। जिसमें लश्कर ने लालकिले पर हमले की जिम्मेदारी ली थी। शाम हो चुकी थी और अब मैं और अशरफ वानी हर हाल में इंटरव्यू चाहते थे। जिसके लिये हमने होटल में ही भोजन करने का आग्रह कर तुरंत कटलेट का आर्डर दे दिया। हमें लगा कि किसी तरह यह शख्स ना कर यहा से निकल ना जाये। देश-दुनिया के हर मुद्दे पर बातचीत हो रही थी। भारत में जितने भी आंदोलन चल रहे थे। बाला साहेब ठाकरे और शिवसेना को लेकर याह्या मुजाहिद की खास रुचि थी । महाराष्ट्र में लंबी पत्रकारिता मैंने की थी तो खासी बातचीत हुई। फिलिस्तीन और यासर अराफात तक को लेकर बातचीत हुई। बहुत ही बारीक चीजो को जानने-समझने या फिर मुद्दों के जरीये हमारे नजरियो के समझने के मद्देनजर याह्या मुजाहिद भी लगातार सवाल कर रहा था। और बहस के बीच में उसने जानकारी दे दी कि इंडिया की तरफ से कई पत्रकारों ने इंटरव्यू की गुहार लगायी। बाकायदा न्यूज चैनलों के बडे चेहरों का उसने नाम लिया। उसमें एक नाम महिला पत्रकार का भी आया। लेकिन किसी महिला को हाफिज सऊद इंटरव्यू नहीं दे सकते हैं। क्यों। क्योंकि ख्वातिन को इंटरव्यू नहीं दिया जा सकता है। लेकिन हमें तो इंटरव्यू दिया ही जा सकता है। बातचीत का सिलसिला रात 10 बजे तक चलता रहा ।
लेकिन याह्या मुजाहिद इंटरव्यू की बात आते ही टाल जाता। करीब रात ग्यारह बजे उसने किसी से मोबाइल पर बात की और उसके बाद हमारे सामने इंटरव्यू के लिये कई शर्त रख दीं। जिसमें इंटरव्यू लेने के तुरंत बाद हमें पाकिस्तान छोड़ना होगा। जहा इंटरव्यू लेना होगा वहां ले जाने के लिये सुबह पांच बजे लश्कर की गाड़ी होटल में आ जायेगी। इंटरव्यू सिर्फ आडियो होगा। हम हर शर्त पर राजी हुये। क्योंकि लश्कर का मुखिया हाफिज सईद पहली बार किसी को इंटरव्यू दे रहा था। यानी भारत ही नहीं दुनिया के कई पत्रकारों ने इंटरव्यू के लिये लश्कर का दरवाजा खटखटाया। तो हर शर्त मान र रात में ही फ्लैशमैन होटल को सुबह कमरा खाली करने की जानकारी दे कर हमने सबकुछ निपटाया। सुबह साढे पांच बजे लश्कर की गाड़ी आयी। एक घंटे के ड्राइव के बाद अंधेरे में कहां ले गयी हम समझ नहीं पाये। इंटरव्यू लिया गया और इंटरव्यू खत्म होने के तुरंत बाद लश्कर की गाडी ने ही हमें हवाई अड्डे पहुंचा दिया। वह इंटरव्यू आजतक चैनल पर 14 बरस पहले दिखाया भी गया। लेकिन तब दुनिया के सामने हाफिज सईद का चेहरा नहीं आया था, तो इंटरव्यू भी हाफिज मोहम्मद सईद के पीठ पीछे कैमरा रख कर लिया गया। उसके बाद अमेरिका पर हुये हमले यानी 9/11 के बाद पहली बार हाफिज सईद का चेहरा अमेरिका सामने लेकर आया । क्योंकि लश्कर के ताल्लुकात ओसामा बिन लादेन से थे। और इस संबंध के सामने आने के बाद ही हाफिज सईद ने 2004 में लश्कर की जगह जमात-उल-दावा के सामाजिक कार्यो में लगा हुआ बताना ही हाफिज सईद ने शुरु किया । इसलिये 2004 से लेकर मुंबई हमला यानी 26/11 तक के दौर में भारत पर लश्कर के करीब दो दर्जन आतंकी हमले अलग अलग शहर में हुये। भारत ने लगातार लश्कर को निशाने पर लिया। आतंकी हमलों को लेकर पाकिस्तान को सबूत भी दिये। लेकिन पाकिस्तान में हाफिज सईद को छूने की हिम्मत किसी की नहीं थी। और ना ही आज है। क्योंकि लश्कर आईएसआई और सेना की कूटनीति चालों का सबसे बेहतरीन प्यादा भी है और पाकिस्तानी सत्ता के लिये कश्मीर के नाम पर वजीर भी। और यह सच वाजपेयी-मुशर्ऱफ के आगरा सम्मिट से एक महीने पहले जून 2001 में सामने आया। जून २००१ में मैंने दोबारा हाफिज मोहम्मद सईद का इंटरव्यू लिया। इस बार पहली बार की तरह भटकना नहीं पड़ा। वह इंटरव्यू भी आजतक चैनल पर दिखाया गया और पहली बार जिस जनरल ने नवाज शरीफ का तख्ता पलट उसके खिलाफ हाफिज सऊद ने खुले तौर पर इंटरव्यू में आग उगले। और यहकहकर उगले कि मुशर्रफ को आगरा सम्मिट में नहीं जाना चाहिये। यानी पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ का विरोध करने वाला अकेला शख्स हाफिज सईद ही था। और आगरा सम्मिट जब फेल हुआ तो लश्कर ने उस वक्त पाकिस्तान में अपनी राजनीतिक समझ को यही कहकर मजबूत किया कि एक भारतीय चैनल को दिये इंटरव्यू में पहले ही कह दिया था कि परवेज मुशर्रफ को भारत बातचीत के लिये नहीं जाना चाहिये था । ध्यान दें तो आगरा सम्मिट को कवर करने पहुंचे पत्रकारों के एक बड़े समूह को पहले से पता लगने लगा था कि बातचीत फेल हो रही है। यानी लश्कर-ए-तौयबा की भूमिका सम्मिट को लेकर उस वक्त भी आईएसआई के जरीये आंकी जा रही थी। यानी पाकिस्तान की तीन सत्ता के बीच ताम-मेल बैठाने के लिये या कहे किसी का पलड़ा कमजोर हो तो उसे मजबूत करने के लिये जमात-उल-दावा का छाया युद्द है। जो तालिबान से लेकर कश्मीर तक और अरब वर्ल्ड से लेकर अमेरिका तक को अपनी सौदेबाजी के दायरे में खड़ा करने से नहीं कतराता। चौदह बरस पहले लश्कर एक आतंकवादी की ट्रेनिंग पर 1500 डॉलर खर्ज करता था। और उस वक्त हर साल 50 लाख डॉलर ट्रेनिग पर ही खर्च करता था। अमेरिकी रिपोर्ट की मानें तो 9/11 के वक्त लश्कर को हर बरस सौ मिलियन डालर चंदे के तौर पर मिलते थे । जो मौजूदा वक्त में पांच हजार मिलियन डॉलर को पार चुका है । यानी पाकिस्तान जितना बजट 10 बरस में सामाजिक क्षेत्र में खर्च करता है उतना पैसा सामाजिक कार्य के नाम पर चंदे के तौर पर दुनिया से जमात-उल-दावा से उगाही कर लेता है। तो आखिरी सवाल २५ अगस्त को विदेश सचिवों की बैठक में भारत कैसे पाकिस्तान के साथ संबंध को बेहतर करने की दिशा में कदम बढ़ायेगा अगर हाफिज सईद पर दोनो देश खामोशी बरतेंगे य़ा पाकिस्तान कहेगा कि हाफिज सईद के खिलाफ कोई सबूत तो है नहीं।
अभी नरेन्द्र मोदी की बात कर रहा है, चौदह बरस पहले बालासाहेब ठाकरे की बात कर रहा था। अभी खुद को दहशतगर्दी से अलग बता रहा है, चौदह बरस पहले दहशतगर्दी को सही ठहरा रहा था। अभी भारत में किसी भी आतंकी हमले से अपना दामन पाक साफ बता रहा है, चौदह बरस पहले कश्मीर से लेकर लालकिले तक की हमले की जिम्मेदारी लेते हुये भारत के हर हिस्से में आतंकी हमले की धमकी दे रहा था। अभी मोदी के पाकिस्तान आने पर विरोध ना करने की बात कह रहा है, चौदह बरस पहले परवेज मुशर्रफ के आगरा सम्मिट में शामिल होने को भी पाकिस्तानी अवाम के खिलाफ उठाया गया कदम बता रहा था। चौदह बरस पहले भारत सरकार लश्कर चीफ हाफिज मोहम्मद सईद को लेकर पाकिस्तान से सवाल नहीं उठा पायी थी, और आज जमात-उल-दावा के चीफ हाफिज सईद को लेकर कोई सीधा सवाल सरकार नहीं उठा पा रही है। चौदह बरस पहले हाफिज सईद का चेहरा दुनिया ने नहीं देखा था। आज दुनिया के सामने हाफिज सईद का चेहरा है। चौदह बरस पहले लालकिले पर आतंकी दस्तक के बावजूद वाजपेयी सरकार पाकिस्तान से बातचीत करने को तैयार थी। और बीते चौदह बरस के दौर में लालकिले से आगे संसद तक पर हमले और मुंबई, दिल्ली , हैदराबाद समेत बारह राज्यों में लश्कर के आतंकी हमलो के बावजूद मोदी सरकार विदेश सचिव स्तर की बातचीत करने जा रही है। लेकिन यह सवाल बीते चौदह बरस से अनसुलझा है कि जिस हाफिज सईद ने चौदह बरस पहले रिकार्डेड इंटरव्यू में कश्मीर में मौजूद आठ लाख भारतीय सेना को दहशतगर्द से जोड़कर भारत पर लश्कर के आतंकी हमले को माना था और उस वक्त के प्रधानमंत्री वाजपेयी और गृहमंत्री आडवाणी को यह कहकर चेताने कोताही नहीं बरती थी कि कश्मीर में किसी की जान जायेगी तो वह उन्हें भी नहीं छोडेगा तो फिर आज की तारिख में कैसे हाफिज सईद के ह्दय परिवर्तन वाले वेद प्रताप वैदिक की मुलाकात या कहें बातचीत को मान्यता दी जा सकती है। और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ प्रधानमंत्री मोदी कीगुफ्तगु संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा साडी-शाल डिप्लोमैसी के दायरे में समेटी जा सकती है। और जब २५ अगस्त को विदेश सचिव मिलेंगे तो हाफिज सईद के आंतक पर खामोशी बरत कैसे संबंध बेहतर बनाने की दिशा में कदम उठायेगें यह शायद सबसे बड़ा सवाल है।
दरअसल हाफिज सईद जो सच इंटरव्यू के जरीये चौदह बरस पहले बोल गया उसके मौजूदा सच को भी पत्रकार इंटरव्यू के जरीये आज भी ला सकता है। लेकिन मुंबई हमलों के बाद राष्ट्रीय न्यूज चैनलों के संपादक के संगठन बीईए यानी ब्रॉडकास्ट एडीटर एसोसिएशन ने तय कर लिया कि आतंकवादी हाफिज सईद का इंटरव्यू न्यूज चैनलों पर नहीं दिखायेंगे। यानी कोई पत्रकार चाहे कि वह पाकिस्तान जाकर हाफिज सईद के सच को ले आये तो भी उसे न्यूज चैनल नहीं दिखायेंगे। क्योंकि आतंकवादी को राष्ट्रीय न्यूज चैनल मंच देना नहीं चाहते। लेकिन बीईए से जुडे यही संपादक हाफिज सईद के साथ वेद प्रताप वैदिक के ह्दय परिवर्तन सरीखी बातचीत पर हंगामा खड़ा कर पत्रकारिता करना जरुर चाहते हैं। असल में हाफिज सईद से इंटरव्यू लेना कितना आसान है या मुश्किल यह तो मुझे चौदह बरस पहले ही समझ में आ गया था लेकिन यह सवाल कि भारत सरकार इन चौदह बरस में भी क्यों पाकिस्तान को आतंक के कटघरे में खड़ा नहीं कर पाती है जबकि उसकी जमीन से लश्कर आतंक का खुला खेल भारत के खिलाफ खेलता है। इसे समझने के लिये आइए पहले चौदह बरस पुराने पन्नों को पलट लें।
जनवरी 2000 । जगह रावलपिंडी का फ्लैशमैन होटल। पाकिस्तान टूरिज्म डेवल्पमेंट कारपोरेशन के इस होटल में दोपहर 3 बजे के करीब एक कद्दावर शख्स कमरे में घुसा। गर्दन से नीचे तक लटकती दाढी । हट्ट-कट्टा शरीऱ । सफेद पजामा और कुरता पहने शख्स ने कमरे में घुसते ही कहा कॉफी नहीं पिलाइयेगा । कुछ पूछने से पहले ही वह शख्स खुद ही कुर्सी पर बैठा। और हमारे कुछ भी पूछने से पहले खुद ही बोल पड़ा। इंडिया से आये हैं। जी । कई दिनों से हैं। जी । तो रुके हुये क्यों है। जी हम लश्कर के मुखिया मोहम्मद हाफिज सईद का इंटरव्यू लेने के लिये रुके हैं। क्यों आपकी बात हो गयी है । जी नहीं। तो फिर क्या फायदा । फायदा-नुकसान की बात नहीं है। दिल्ली में लालकिले पर हमला हुआ तो हम पाकिस्तान यही सोच कर आये हैं कि इंटरव्यू करेंगे तो भारत में भी लोग जान पायेंगे कि लश्कर के इरादे क्या हैं। आपने लश्कर के चीफ की कभी कोई तस्वीर देखी है। नहीं । तो फिर इंटरव्यू की कैसे सोच ली। पत्रकार के तौर पर पहली बार हमारे भीतर आस जगी कि हो ना हो यह शख्स लश्कर से जुड़ा है। तो तुरंत कॉफी का आर्डर दे दिया । दरअसल हाफिज सईद से मुलाकात का मतलब क्या हो सकता है और 14 बरस पहले कैसे यह संभव हुआ। यह इस हद तक डराने और रोमांचित करने वाला था कि लालकिले पर हमला हो चुका था । कश्मीर में कई आतंकी हमले हो चुके थे। देश में लोग आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तौयबा को जानने लगे थे । तालिबान के साथ लश्कर के संबंधों को लेकर दुनिया में बहस भी हो रही थी। लेकिन उस वक्त किसी ने लश्कर के मुखिया हाफिज सईद का चेहरा नहीं देखा था। कहीं किसी जगह हाफिज सईद की कोई तस्वीर छपी नहीं थी और सिर्फ नाम की ही दहशत उस वक्त कश्मीर से लेकर दिल्ली में था। और उसी दौर में हमने सोचा कि लश्कर के मुखिया हाफिज सईद का इंटरव्यू लेने पाकिस्तान जाना चाहिये। कोई सूत्र नहीं । किसी को जानते नहीं थे। सिर्फ कश्मीर के अलगाववादियों से पीओके यानी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के अलगाववादियों से संपर्क साध कर हम { मैं और मेरे सहयोगी अशरफ वानी } इस्लामाबाद रवाना हो गये। लेकिन पाकिस्तान में हिजबुल से लेकर जैश-ए मोहमम्द तक के दफ्तरों की हमने खाक छानी लेकिन किसी ने लश्कर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। पाकिस्तानी पत्रकारों से हम लगातार मिलते रहे। लेकिन किसी भी पत्रकार ने उस वक्त यह भरोसा नहीं दिया कि लश्कर के मुखिया हाफिज सईद से हमारी कोई मुलाकात हो भी सकती है । यहां तक की उस वक्त तालिबान में सक्रिय ओसामा बिन लादेन से संपर्क करने वाले पत्रकार हामिद मीर ने भी हमें यह कहकर निराशा दी कि हाफिज सईद से मिलना नामुमकिन है। हां, यह कहकर उन्होंने जरुर आस जगा दी कि अगर लश्कर कोपता चल जाये कि आप दिल्ली से लश्कर का इंटरव्यू लेने आये हैं तो वह संपर्क साध सकता है। तो हमें भी लगा हम हर दरवाजे पर तो जा चुके है । अब वीजा का वक्त भी खत्म होने जा रहा है तो आखिरी दिन तक रुकते हैं, उसके बाद वापस लौट जायेंगे। और वीजा का वक्त आखिरी दिन तक काटने के लिये ही पीटीडीसी के फ्लैशमैन होटल के कमरा नं ३२ में हमारा वक्त गुजर रहा था। सुबह से ही कबाब और रात में फ्लैशमैन होटल के खानसामे से आलू की भुजिया या कभी पीली दाल बनाने के तरीके बताकर बनवाकर खाना। चार दिन वीजा के बचे थे और तीसरे दिन दोपहर तीन बजे के वक्त कद्दावर शख्स फ्लैशमैन होटल के हमारे कमरे में बिना इजाजत घुसा था। बातचीत करते हुये दो घंटे बीते होंगे, जिसके बाद उसने खुद का नाम याह्या मुजाहिद बताया। तो हमारे दरवाजे पर लश्कर दस्तक दे चुका है। कि याह्या मुजाहिद का नाम बतौर लश्कर के प्रवक्ता के तौर पर लालकिले पर हमले के बाद भी आया था। जिसमें लश्कर ने लालकिले पर हमले की जिम्मेदारी ली थी। शाम हो चुकी थी और अब मैं और अशरफ वानी हर हाल में इंटरव्यू चाहते थे। जिसके लिये हमने होटल में ही भोजन करने का आग्रह कर तुरंत कटलेट का आर्डर दे दिया। हमें लगा कि किसी तरह यह शख्स ना कर यहा से निकल ना जाये। देश-दुनिया के हर मुद्दे पर बातचीत हो रही थी। भारत में जितने भी आंदोलन चल रहे थे। बाला साहेब ठाकरे और शिवसेना को लेकर याह्या मुजाहिद की खास रुचि थी । महाराष्ट्र में लंबी पत्रकारिता मैंने की थी तो खासी बातचीत हुई। फिलिस्तीन और यासर अराफात तक को लेकर बातचीत हुई। बहुत ही बारीक चीजो को जानने-समझने या फिर मुद्दों के जरीये हमारे नजरियो के समझने के मद्देनजर याह्या मुजाहिद भी लगातार सवाल कर रहा था। और बहस के बीच में उसने जानकारी दे दी कि इंडिया की तरफ से कई पत्रकारों ने इंटरव्यू की गुहार लगायी। बाकायदा न्यूज चैनलों के बडे चेहरों का उसने नाम लिया। उसमें एक नाम महिला पत्रकार का भी आया। लेकिन किसी महिला को हाफिज सऊद इंटरव्यू नहीं दे सकते हैं। क्यों। क्योंकि ख्वातिन को इंटरव्यू नहीं दिया जा सकता है। लेकिन हमें तो इंटरव्यू दिया ही जा सकता है। बातचीत का सिलसिला रात 10 बजे तक चलता रहा ।
लेकिन याह्या मुजाहिद इंटरव्यू की बात आते ही टाल जाता। करीब रात ग्यारह बजे उसने किसी से मोबाइल पर बात की और उसके बाद हमारे सामने इंटरव्यू के लिये कई शर्त रख दीं। जिसमें इंटरव्यू लेने के तुरंत बाद हमें पाकिस्तान छोड़ना होगा। जहा इंटरव्यू लेना होगा वहां ले जाने के लिये सुबह पांच बजे लश्कर की गाड़ी होटल में आ जायेगी। इंटरव्यू सिर्फ आडियो होगा। हम हर शर्त पर राजी हुये। क्योंकि लश्कर का मुखिया हाफिज सईद पहली बार किसी को इंटरव्यू दे रहा था। यानी भारत ही नहीं दुनिया के कई पत्रकारों ने इंटरव्यू के लिये लश्कर का दरवाजा खटखटाया। तो हर शर्त मान र रात में ही फ्लैशमैन होटल को सुबह कमरा खाली करने की जानकारी दे कर हमने सबकुछ निपटाया। सुबह साढे पांच बजे लश्कर की गाड़ी आयी। एक घंटे के ड्राइव के बाद अंधेरे में कहां ले गयी हम समझ नहीं पाये। इंटरव्यू लिया गया और इंटरव्यू खत्म होने के तुरंत बाद लश्कर की गाडी ने ही हमें हवाई अड्डे पहुंचा दिया। वह इंटरव्यू आजतक चैनल पर 14 बरस पहले दिखाया भी गया। लेकिन तब दुनिया के सामने हाफिज सईद का चेहरा नहीं आया था, तो इंटरव्यू भी हाफिज मोहम्मद सईद के पीठ पीछे कैमरा रख कर लिया गया। उसके बाद अमेरिका पर हुये हमले यानी 9/11 के बाद पहली बार हाफिज सईद का चेहरा अमेरिका सामने लेकर आया । क्योंकि लश्कर के ताल्लुकात ओसामा बिन लादेन से थे। और इस संबंध के सामने आने के बाद ही हाफिज सईद ने 2004 में लश्कर की जगह जमात-उल-दावा के सामाजिक कार्यो में लगा हुआ बताना ही हाफिज सईद ने शुरु किया । इसलिये 2004 से लेकर मुंबई हमला यानी 26/11 तक के दौर में भारत पर लश्कर के करीब दो दर्जन आतंकी हमले अलग अलग शहर में हुये। भारत ने लगातार लश्कर को निशाने पर लिया। आतंकी हमलों को लेकर पाकिस्तान को सबूत भी दिये। लेकिन पाकिस्तान में हाफिज सईद को छूने की हिम्मत किसी की नहीं थी। और ना ही आज है। क्योंकि लश्कर आईएसआई और सेना की कूटनीति चालों का सबसे बेहतरीन प्यादा भी है और पाकिस्तानी सत्ता के लिये कश्मीर के नाम पर वजीर भी। और यह सच वाजपेयी-मुशर्ऱफ के आगरा सम्मिट से एक महीने पहले जून 2001 में सामने आया। जून २००१ में मैंने दोबारा हाफिज मोहम्मद सईद का इंटरव्यू लिया। इस बार पहली बार की तरह भटकना नहीं पड़ा। वह इंटरव्यू भी आजतक चैनल पर दिखाया गया और पहली बार जिस जनरल ने नवाज शरीफ का तख्ता पलट उसके खिलाफ हाफिज सऊद ने खुले तौर पर इंटरव्यू में आग उगले। और यहकहकर उगले कि मुशर्रफ को आगरा सम्मिट में नहीं जाना चाहिये। यानी पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ का विरोध करने वाला अकेला शख्स हाफिज सईद ही था। और आगरा सम्मिट जब फेल हुआ तो लश्कर ने उस वक्त पाकिस्तान में अपनी राजनीतिक समझ को यही कहकर मजबूत किया कि एक भारतीय चैनल को दिये इंटरव्यू में पहले ही कह दिया था कि परवेज मुशर्रफ को भारत बातचीत के लिये नहीं जाना चाहिये था । ध्यान दें तो आगरा सम्मिट को कवर करने पहुंचे पत्रकारों के एक बड़े समूह को पहले से पता लगने लगा था कि बातचीत फेल हो रही है। यानी लश्कर-ए-तौयबा की भूमिका सम्मिट को लेकर उस वक्त भी आईएसआई के जरीये आंकी जा रही थी। यानी पाकिस्तान की तीन सत्ता के बीच ताम-मेल बैठाने के लिये या कहे किसी का पलड़ा कमजोर हो तो उसे मजबूत करने के लिये जमात-उल-दावा का छाया युद्द है। जो तालिबान से लेकर कश्मीर तक और अरब वर्ल्ड से लेकर अमेरिका तक को अपनी सौदेबाजी के दायरे में खड़ा करने से नहीं कतराता। चौदह बरस पहले लश्कर एक आतंकवादी की ट्रेनिंग पर 1500 डॉलर खर्ज करता था। और उस वक्त हर साल 50 लाख डॉलर ट्रेनिग पर ही खर्च करता था। अमेरिकी रिपोर्ट की मानें तो 9/11 के वक्त लश्कर को हर बरस सौ मिलियन डालर चंदे के तौर पर मिलते थे । जो मौजूदा वक्त में पांच हजार मिलियन डॉलर को पार चुका है । यानी पाकिस्तान जितना बजट 10 बरस में सामाजिक क्षेत्र में खर्च करता है उतना पैसा सामाजिक कार्य के नाम पर चंदे के तौर पर दुनिया से जमात-उल-दावा से उगाही कर लेता है। तो आखिरी सवाल २५ अगस्त को विदेश सचिवों की बैठक में भारत कैसे पाकिस्तान के साथ संबंध को बेहतर करने की दिशा में कदम बढ़ायेगा अगर हाफिज सईद पर दोनो देश खामोशी बरतेंगे य़ा पाकिस्तान कहेगा कि हाफिज सईद के खिलाफ कोई सबूत तो है नहीं।
Monday, July 21, 2014
लॉर्ड्स, धोनी और आजादी
लॉर्ड्स। जब पहली बार लॉर्ड्स के मैदान पर मैच खेला गया, उस वक्त दुनिया में इंग्लैंड की सत्ता में सूरज डूबता नहीं था। और भारत ही नहीं दुनिया के चालीस से ज्यादा देशो में लॉर्ड्स का मतलब इंग्लैंडके वह लॉर्ड्स ही थे जो ब्रिटिश सत्ता चलाते थे। और इंग्लैंडकी फितरत देखिये, वो अपने हर गुलाम देश को लॉर्ड्स के मैदान में क्रिकेट खेलकर हराने का सुकुन लेता। 1884 में पहली बार लॉर्ड्स पर पहले टेस्ट में इंग्लैंड ने अपने ही गुलाम
देश आस्ट्रेलिया को 5 रन से हराया था। 1907 में अपने गुलाम साउथ अफ्रीका को हराकर सत्ता की ताकत के साथ जीत का जश्न मनाया। और 1932 में गुलाम भारत को भी पहली बार लॉर्ड्स में खेलने के लिये ही इंग्लैंडने
आमंत्रित किया और 158 रन से हराकर खुद पर रश्क किया था। लॉर्ड्स क्रिकेट का मक्का बना। तो इंग्लैंडको लॉर्ड्स में हराने का सुकून भी इंग्लैंड की गुलामी से आजाद हुये देशों की रगों में दौड़ने लगा।
आजादी के बाद भारत बार बार लॉर्ड्स में इंग्लैंड से टकराया। लेकिन जीत का स्वाद मिलने से हर बार भारत दूर ही रहा। 1974 में लॉर्ड्स ने ही भारत को सबसे शर्मनाक पहचान दी। इंग्लैंड ने ना सिर्फ 628 रन की विशाल पारी खेली बल्कि बारत ने सारे रिकॉर्ड तोड़कर इंग्लैंड के खिलाफ दूसरी पारी में सिर्फ 42 रन बनाये। और भारत की टीम में उस वक्त गावस्कर, विश्वनाथ, वाडेकर, आबिद अली, इंजीनियर सरीखे बल्लेबाज थे। लेकिन 5 रन से ज्यादा कोई ना बना सका। सबसे ज्यादा 18 रन सोल्कर ने बनाये। तो लॉर्ड्स में जीत के लिये तड़पती भारतीय क्रिकेट टीम को पहली बार जीत भी मिली तो इतिहास बना गयी। क्योंकि यह जीत विश्वकप जीतने वाली थी। लेकिन 1983 के इस जश्न में सामने इंग्लैंड नहीं वेस्ट इंडीज था। भारत जीता और जश्न लॉर्ड्स से लेकर दिल्ली तक मना। लेकिन तब भी इंतजार लॉर्ड्स में इंग्लैंड को पीटने का था।
क्रिकेट का मक्का लॉर्ड्स तो क्लासिक क्रिकेट के लिये जाना जाता था और दुनिया में माना यही जाता रहा कि जबतक टेस्ट मैच में में जीत नहीं मिलेगी तबतक क्रिकेट की बादसाहत को कोई मतलब नहीं है । और फिर 1986 में कमोवेश वही टीम लॉर्ड्स में इग्लैड के खिलाफ उतरी जिसने तीन बरस पहले लॉर्ड्स में वर्ल्ड कप जीता था। भारत को आखिरी विनिंग में टारगेट 134 रन का मिला और गावस्कर,श्रीकांत, महेन्दर अमरनाथ, वेंगसरकर अजरुद्दीन का विकेट 110 रन पर खोकर कपिल देव और शास्त्री ने जीत दिला दी। और पहलीबार लॉर्ड्स में भारत क्रिकेट खेलते हुये आजाद हुआ। क्योंकि बारत ने लॉर्ड्स में इंग्लैंड को हराया था।
लेकिन इसके बाद एक लंबी खामोशी में ही भारतीय क्रेकट टीम को गयी । और आज यानी 18 बरस बाद लॉर्ड्स में जैसे ही इंग्लैंड को भारत ने हराया वैसे ही लॉर्ड्स को लेकर अतीत के सारे पन्ने खुद ब खुद खुलने लगे।
क्योंकि लॉर्ड्स सिर्फ एक मैदान नहीं बल्कि इंग्लैंड की जागीरदारी और दुनिया पर काबिज उसके लॉर्ड्स की अनकही कहानी का खत्म होना भी है। शायद इसीलिये लॉर्ड्स की जीत हर बार अलग ही होगी। लॉर्ड्स आधुनिक क्रिकेट की सत्ता का प्रतीक है और फिलहाल भारत ने वहां इंग्लैंड को मात दी है।
लेकिन जीत के साथ एक तमगा क्रिकेट टीम के कप्तान धोनी की छाती पर ठोंकना ही होगा। क्योंकि दुनिया के नक्शे पर रांची की पहचान क्रिकेट को पहचान देने वाले लॉर्ड्स पर भारी पड़ जायेगी यह किसने सोचा होगा। जी, रांची का मतलब क्रिकेट के नये लार्ड महेन्द्र सिंह धोनी हैं। क्रिकेट के सुनहरे इत्हास के पन्ने में लॉर्ड्स की यह जीत किसी मोती से कम नहीं। महज 50 रुपये के लिये रांची से कभी टाटा तो कभी कोलकत्ता जाकर खेलने वाला महेन्द्र सिंह गोनी का पहला प्यार फुटबाल ही रहा। लेकिन एक बार भारतीय क्रिकेट टीम में जगह मिली तो फिर इस शक्स ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। रांची से सटे जमशेदपुर के मैदान में पहली आतिशी पारी के बाद यह तो तय हो गया कि धोनी क्रिकेट को ताकत के साथ खेलते हैं। लेकिन जिस रफ्तार से धोनी ने क्रिकेट की हर नब्ज को पकडा और उसके बाद छोटे छोटे शहरों से आने वाले खिलाडियों के संघर्ष से बारतीय क्रिकेट टीम को एक सिरे से पिरोना शुरु किया उसने भारतीय क्रिकेट टीम को सरताज बना दिया। कोई भी क्रिकेट हो । कैसा भी मैच हो। धोनी ने पुरी शिद्दत से हर तरह के क्रिकेट को अपने अंदाज में जीना शुरु किया। 2007 में पाकिस्तान को 20-20 के पहले आईसीसी टूर्नामेंट से लेकर 2012 में विश्व विजेता बनने का सुकून धोनी ने भारत को दिया। हर रिकॉर्ड धोनी के पीछे छूटता गया। विकेट के पीछे खड़े होकर बतौर विकेट कीपर तीन सौ से ज्यादा विकट लेना हो या पिर विकेट के आगे खड़े होकर किसी भी विकेट कीपर से ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड । सबकुछ धोनी ने अपने नाम किया।
लेकिन धोनी ने बतौर कप्तान जिस अंदाज में खामोशी से हर संकट को टाला ही नहीं जीत में बदलने का हुनुर दिखाया उसने पहली बार धोनी को एक ऐसे संयमित कप्तान के तौर पर दुनिया के सामने रख दिया कि सपनों की क्रिकेट टीम के कप्तान भी धोनी ही बने यह दुनिया के क्रिकेटरों ने माना। धोनी मंत्र ने हर बार भारतीय टीम के खिलाडियों को चुनने वाले बोर्ड को आईना भी दिखाया। और किसी जौहरी की तरह हर बार जिस भी चमक खोते खिलाडी पर दांव लगाया उस खिलाडी की चमक लौट आयी। और किसी जौहरी के अंदाज में लॉर्ड्स के मैदान पर उसी ईशांत पर अपना दांव धोनी ने लगाया जिसको लेकर यह बहस चल पडी थी कि फॉर्म को चुके ईशांत शर्मा को टीम में जगह देने का मतलब क्या है। और कमाल देखिये। ईशांत ने सात विकेट लेकेर लॉर्ड्स में ना सिर्फ जीत दर्ज कर दी बल्कि लॉर्ड्स में एक इनिंग में सबसे ज्यादा विक्ट लेने वाले रिकॉर्ड से महज एक विकेट पीछे रह गये। लेकिन यह कमाल भी उस जौहरी का है जो दुनिया के मानचित्र पर ना पहचान आना वाले रांची शहर से आता है जो आज की तारीख में क्रिकेट को पहचान देने वाले लॉर्ड्स पर भारी है। तो जिस लॉर्ड्स पर इंग्लैंड ने गुलामों को हराकर हमेशा सुकून पाया उस लॉर्ड्स पर इंग्लैंड को हराना क्रिकेट की आजादी से कम तो नहीं।
देश आस्ट्रेलिया को 5 रन से हराया था। 1907 में अपने गुलाम साउथ अफ्रीका को हराकर सत्ता की ताकत के साथ जीत का जश्न मनाया। और 1932 में गुलाम भारत को भी पहली बार लॉर्ड्स में खेलने के लिये ही इंग्लैंडने
आमंत्रित किया और 158 रन से हराकर खुद पर रश्क किया था। लॉर्ड्स क्रिकेट का मक्का बना। तो इंग्लैंडको लॉर्ड्स में हराने का सुकून भी इंग्लैंड की गुलामी से आजाद हुये देशों की रगों में दौड़ने लगा।
आजादी के बाद भारत बार बार लॉर्ड्स में इंग्लैंड से टकराया। लेकिन जीत का स्वाद मिलने से हर बार भारत दूर ही रहा। 1974 में लॉर्ड्स ने ही भारत को सबसे शर्मनाक पहचान दी। इंग्लैंड ने ना सिर्फ 628 रन की विशाल पारी खेली बल्कि बारत ने सारे रिकॉर्ड तोड़कर इंग्लैंड के खिलाफ दूसरी पारी में सिर्फ 42 रन बनाये। और भारत की टीम में उस वक्त गावस्कर, विश्वनाथ, वाडेकर, आबिद अली, इंजीनियर सरीखे बल्लेबाज थे। लेकिन 5 रन से ज्यादा कोई ना बना सका। सबसे ज्यादा 18 रन सोल्कर ने बनाये। तो लॉर्ड्स में जीत के लिये तड़पती भारतीय क्रिकेट टीम को पहली बार जीत भी मिली तो इतिहास बना गयी। क्योंकि यह जीत विश्वकप जीतने वाली थी। लेकिन 1983 के इस जश्न में सामने इंग्लैंड नहीं वेस्ट इंडीज था। भारत जीता और जश्न लॉर्ड्स से लेकर दिल्ली तक मना। लेकिन तब भी इंतजार लॉर्ड्स में इंग्लैंड को पीटने का था।
क्रिकेट का मक्का लॉर्ड्स तो क्लासिक क्रिकेट के लिये जाना जाता था और दुनिया में माना यही जाता रहा कि जबतक टेस्ट मैच में में जीत नहीं मिलेगी तबतक क्रिकेट की बादसाहत को कोई मतलब नहीं है । और फिर 1986 में कमोवेश वही टीम लॉर्ड्स में इग्लैड के खिलाफ उतरी जिसने तीन बरस पहले लॉर्ड्स में वर्ल्ड कप जीता था। भारत को आखिरी विनिंग में टारगेट 134 रन का मिला और गावस्कर,श्रीकांत, महेन्दर अमरनाथ, वेंगसरकर अजरुद्दीन का विकेट 110 रन पर खोकर कपिल देव और शास्त्री ने जीत दिला दी। और पहलीबार लॉर्ड्स में भारत क्रिकेट खेलते हुये आजाद हुआ। क्योंकि बारत ने लॉर्ड्स में इंग्लैंड को हराया था।
लेकिन इसके बाद एक लंबी खामोशी में ही भारतीय क्रेकट टीम को गयी । और आज यानी 18 बरस बाद लॉर्ड्स में जैसे ही इंग्लैंड को भारत ने हराया वैसे ही लॉर्ड्स को लेकर अतीत के सारे पन्ने खुद ब खुद खुलने लगे।
क्योंकि लॉर्ड्स सिर्फ एक मैदान नहीं बल्कि इंग्लैंड की जागीरदारी और दुनिया पर काबिज उसके लॉर्ड्स की अनकही कहानी का खत्म होना भी है। शायद इसीलिये लॉर्ड्स की जीत हर बार अलग ही होगी। लॉर्ड्स आधुनिक क्रिकेट की सत्ता का प्रतीक है और फिलहाल भारत ने वहां इंग्लैंड को मात दी है।
लेकिन जीत के साथ एक तमगा क्रिकेट टीम के कप्तान धोनी की छाती पर ठोंकना ही होगा। क्योंकि दुनिया के नक्शे पर रांची की पहचान क्रिकेट को पहचान देने वाले लॉर्ड्स पर भारी पड़ जायेगी यह किसने सोचा होगा। जी, रांची का मतलब क्रिकेट के नये लार्ड महेन्द्र सिंह धोनी हैं। क्रिकेट के सुनहरे इत्हास के पन्ने में लॉर्ड्स की यह जीत किसी मोती से कम नहीं। महज 50 रुपये के लिये रांची से कभी टाटा तो कभी कोलकत्ता जाकर खेलने वाला महेन्द्र सिंह गोनी का पहला प्यार फुटबाल ही रहा। लेकिन एक बार भारतीय क्रिकेट टीम में जगह मिली तो फिर इस शक्स ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। रांची से सटे जमशेदपुर के मैदान में पहली आतिशी पारी के बाद यह तो तय हो गया कि धोनी क्रिकेट को ताकत के साथ खेलते हैं। लेकिन जिस रफ्तार से धोनी ने क्रिकेट की हर नब्ज को पकडा और उसके बाद छोटे छोटे शहरों से आने वाले खिलाडियों के संघर्ष से बारतीय क्रिकेट टीम को एक सिरे से पिरोना शुरु किया उसने भारतीय क्रिकेट टीम को सरताज बना दिया। कोई भी क्रिकेट हो । कैसा भी मैच हो। धोनी ने पुरी शिद्दत से हर तरह के क्रिकेट को अपने अंदाज में जीना शुरु किया। 2007 में पाकिस्तान को 20-20 के पहले आईसीसी टूर्नामेंट से लेकर 2012 में विश्व विजेता बनने का सुकून धोनी ने भारत को दिया। हर रिकॉर्ड धोनी के पीछे छूटता गया। विकेट के पीछे खड़े होकर बतौर विकेट कीपर तीन सौ से ज्यादा विकट लेना हो या पिर विकेट के आगे खड़े होकर किसी भी विकेट कीपर से ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड । सबकुछ धोनी ने अपने नाम किया।
लेकिन धोनी ने बतौर कप्तान जिस अंदाज में खामोशी से हर संकट को टाला ही नहीं जीत में बदलने का हुनुर दिखाया उसने पहली बार धोनी को एक ऐसे संयमित कप्तान के तौर पर दुनिया के सामने रख दिया कि सपनों की क्रिकेट टीम के कप्तान भी धोनी ही बने यह दुनिया के क्रिकेटरों ने माना। धोनी मंत्र ने हर बार भारतीय टीम के खिलाडियों को चुनने वाले बोर्ड को आईना भी दिखाया। और किसी जौहरी की तरह हर बार जिस भी चमक खोते खिलाडी पर दांव लगाया उस खिलाडी की चमक लौट आयी। और किसी जौहरी के अंदाज में लॉर्ड्स के मैदान पर उसी ईशांत पर अपना दांव धोनी ने लगाया जिसको लेकर यह बहस चल पडी थी कि फॉर्म को चुके ईशांत शर्मा को टीम में जगह देने का मतलब क्या है। और कमाल देखिये। ईशांत ने सात विकेट लेकेर लॉर्ड्स में ना सिर्फ जीत दर्ज कर दी बल्कि लॉर्ड्स में एक इनिंग में सबसे ज्यादा विक्ट लेने वाले रिकॉर्ड से महज एक विकेट पीछे रह गये। लेकिन यह कमाल भी उस जौहरी का है जो दुनिया के मानचित्र पर ना पहचान आना वाले रांची शहर से आता है जो आज की तारीख में क्रिकेट को पहचान देने वाले लॉर्ड्स पर भारी है। तो जिस लॉर्ड्स पर इंग्लैंड ने गुलामों को हराकर हमेशा सुकून पाया उस लॉर्ड्स पर इंग्लैंड को हराना क्रिकेट की आजादी से कम तो नहीं।
Thursday, July 17, 2014
आजादी से पहले के कांग्रेस सरीखा बीजेपी को बनानी चाहता है संघ
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को मोदी सरकार के प्रति नहीं बल्कि संघ परिवार के प्रति जवाबदेह होना है । इसी पाठ को पढने के लिये अमित शाह शुक्रवार को नागपुर में सरसंघचालक मोहन भागवत के सामने बैठेगें । और नागपुर के महाल स्थित संघ के मुखिया के निवास पर अमितशाह को यही पाठ पढाया जायेगा कि आरएसएस की राजनीतिक सक्रियता ने नरेन्द्र मोदी को पीएम के पद पर पहुंचा दिया । अब संघ की सक्रियता बीजेपी को सबसे मजबूत संगठन के तौर पर खड़ा करना चाहती है । अमित शाह के लिये संघ जिस नारे को लगाना चाहता है वह दिल्ली से गली तक का नारा है । जनसंघ के दौर में सरसंघचालक गुरु गोलवरकर ने गली से दिल्ली तक का नारा लगा था । लेकिन संघ अब मान रहा है कि दिल्ली की सत्ता तक तो नरेन्द्र मोदी पहुंच गये लेकिन देश की गलियो में अभी बीजेपी नहीं पहुंची है । यानी एक तरफ मोदी का कद प्रांतीय से राष्ट्रीय होते हुये अब अंतर्ष्ट्रीय हो चुका है और मोदी सरकार कद्दावर हो रही है तो फिर पावरफुल सरकार के साथ बीजेपी को भी पावरफुल होना पड़ेगा। और इसके लिये आधार उन्हीं मुद्दों को बनाना पडेगा जिसे कांग्रेस के दौर में विवादास्पद तौर पर प्रचारिक किया गया । यानी कामन सिविल कोड , धारा 370 और हिन्दुत्व। कामन सिविल कोड और धारा 370 को लेकर संघ समाज में चर्चा चाहता है और इसके लिये बीजेपी संगठन को वैचारिक तौर पर मजबूत होना होगा । और यह मजबूती हिन्दुत्व को साप्रदायिकता के दायरे से बाहर निकाले बिना संभव नहीं है।
असल में संघ का मानना है कि काग्रेस ने हिन्दुत्व शब्द को ही साप्रदायिकता से जोडा जबकि दुनिया भर में हिन्दुत्व की पहचान भारत से जुड़ी है। अमेरिका में भी संघ आरएसएस [राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ ] नहीं
बल्कि एचएसएस [हिन्दु स्वयंसेवक संघ] के तौर पर जाना जाता है । और चूंकि बतौर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संघ के प्रचारक रह चुके है तो पहली बार सरकार के हर काम के जरीये हिन्दु इथोस की भावना ही दुनिया भर में जा रही है। जिसकी शुरुआत सार्क देशो यानी संघ के अंखड भारत के साथ हुई तो अब ब्रिक्स देश होते हुये सितंबर तक अमेरिका में भी यही संकेत जायेंगे कि मोदी हिन्दुत्व के प्रतिक है । असल में आरएसएस देश के भीतर अमित शाह के जरीये इसी लकीर को खिंचना चाहता है जिससे हिन्दुत्व शब्द सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा ना किया जाये । इसके लिये संघ का तीन सूत्रीय पाठ है । पहला , बीजेपी को मुस्लिम विरोधी दिखायी नहीं देना है । दूसरा, बीजेपी के सहयोगियो को साथ लेकर चलना है । और तीसरा, झगडा किसी से नहीं करना है चाहे वह ममता हो या मुलायम । दरअसल आरएसएस का मानना है कि पहली बार बीजेपी के पास एक ऐसा मौका आया है जहा बीजेपी अपने कैनवास को इतना फैला सकती है कि देश के हर तबके के भीतर एक राष्ट्रीय राष्ट्वादी पार्टी के तौर बीजेपी को पहचान मिल जाये । यानी आजादी से पहले जो पहचान
काग्रेस की थी वही पहचान मौजूदा दौर में बीजेपी को अपनी बनानी होगी । और इसके लिये महात्मा गांधी से लेकर सरदार पटेल की सोच को बीजेपी के साथ जोडना होगा । यानी कामन सिविल कोड और धारा 370 सरीखे मुद्दो को उठाया जरुर जायेगा लेकिन इसके जरीये समाज में सहमति बनाने का काम होगा । यानी विरोध होता है तो होने दें । सिर्फ सहमति पर ध्यान दें। क्योंकि कांग्रेस बिना सहमति अपनी राजनीतिक जरुरतो के मद्देनजर मुस्लिम तुष्टिकरण की दिशा में बढी । इसकी काट के लिये बीजेपी को मुस्लिमो से जुड़े मुद्दों को बहस के दायरे में लाना होगा । लेकिन सबसे दिलचस्प है आरएसएस के आधुनिकीकरण में पारंपरिक आरएसएस को टटोलना । क्योकि एक तरफ संघ बीजेपी को विस्तार देने के लिये जिले स्तर पर प्रचारको की अगुवाई में स्वयंसेवको की टीम को उतारने जा रहा है । आरएसएस से जुड़े संगठन भारतीय मजदूर संघ , वनवासी कल्याण आश्रण और विघाभारती से जुडे लाखो स्वयंसेवक बीजेपी के लिये सामाजिक लामबंदी करेंगे। फिर दस दिन पहले ही आरएसएस से बीजेपी में आये राम माधव के जरीये बीजेपी संगठन को हाईटेक बनाने की दिशा में ले जाने की भी सोच रहा है लेकिन खुद को हेडगेवार की राष्ट्रवादी सोच के दायरे में रखकर बीजेपी को भी आजादी से पहले वाले काग्रेस की तर्ज पर मान्यता दिलाने की दिशा में बढ रही है । दरअसल संघ के भीतर बीजेपी को लेकर लगातार यही मंथन हो रहा है कि आजादी से पहले काग्रेस को जितनी मान्यता देश में थी
उसी तरह आज की तारिख में बीजेपी को वैसी मान्यता क्यो नहीं मिल सकती है। और अगर मिल सकती है तो इसके लिये क्या क्या करना होगा । माना यही जा रहा है कि अमित शाह को संघ का सबसे महत्वपूर्ण पाठ काग्रेस को मुस्लिम लीग की तर्ज राजनीतिक दायरे में स्थापित करवा देने की चुनौती रखी जा रही है। क्योंकि संघ का मानना है कि अगर मुस्लिम लीग की तरह कांग्रेस को स्थापित कर दिया जाये तो बीजेपी का कैनवास राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर व्यापक हो जायेगा ।
असर इसी का है कल सुबह नागपुर पहुंचते ही सबसे पहले अमित शाह बाबा साहेब आंबेडकर के धम्म परिवर्तन स्थल पर जायेंगे। उसके बाद ही रेशमबाग के हेडगेवार भवन जाकर हेडगेवार और गुरु गोलवरकर की प्रतिमा को नमन करेंगे। फिर दोपहर में करीब तीन घंटे तक सरसंघचालक मोहन भागवत से चिंतन-मनन के बाद रात तक वापस दिल्ली लौट आयेगें । उसी के बाद पहली बार बतौर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह मीडिया के सामने कुछ बोलेगें । जो अध्यक्ष बनने के बाद से लगातार खामोश है।
असल में संघ का मानना है कि काग्रेस ने हिन्दुत्व शब्द को ही साप्रदायिकता से जोडा जबकि दुनिया भर में हिन्दुत्व की पहचान भारत से जुड़ी है। अमेरिका में भी संघ आरएसएस [राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ ] नहीं
बल्कि एचएसएस [हिन्दु स्वयंसेवक संघ] के तौर पर जाना जाता है । और चूंकि बतौर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संघ के प्रचारक रह चुके है तो पहली बार सरकार के हर काम के जरीये हिन्दु इथोस की भावना ही दुनिया भर में जा रही है। जिसकी शुरुआत सार्क देशो यानी संघ के अंखड भारत के साथ हुई तो अब ब्रिक्स देश होते हुये सितंबर तक अमेरिका में भी यही संकेत जायेंगे कि मोदी हिन्दुत्व के प्रतिक है । असल में आरएसएस देश के भीतर अमित शाह के जरीये इसी लकीर को खिंचना चाहता है जिससे हिन्दुत्व शब्द सांप्रदायिकता के कटघरे में खड़ा ना किया जाये । इसके लिये संघ का तीन सूत्रीय पाठ है । पहला , बीजेपी को मुस्लिम विरोधी दिखायी नहीं देना है । दूसरा, बीजेपी के सहयोगियो को साथ लेकर चलना है । और तीसरा, झगडा किसी से नहीं करना है चाहे वह ममता हो या मुलायम । दरअसल आरएसएस का मानना है कि पहली बार बीजेपी के पास एक ऐसा मौका आया है जहा बीजेपी अपने कैनवास को इतना फैला सकती है कि देश के हर तबके के भीतर एक राष्ट्रीय राष्ट्वादी पार्टी के तौर बीजेपी को पहचान मिल जाये । यानी आजादी से पहले जो पहचान
काग्रेस की थी वही पहचान मौजूदा दौर में बीजेपी को अपनी बनानी होगी । और इसके लिये महात्मा गांधी से लेकर सरदार पटेल की सोच को बीजेपी के साथ जोडना होगा । यानी कामन सिविल कोड और धारा 370 सरीखे मुद्दो को उठाया जरुर जायेगा लेकिन इसके जरीये समाज में सहमति बनाने का काम होगा । यानी विरोध होता है तो होने दें । सिर्फ सहमति पर ध्यान दें। क्योंकि कांग्रेस बिना सहमति अपनी राजनीतिक जरुरतो के मद्देनजर मुस्लिम तुष्टिकरण की दिशा में बढी । इसकी काट के लिये बीजेपी को मुस्लिमो से जुड़े मुद्दों को बहस के दायरे में लाना होगा । लेकिन सबसे दिलचस्प है आरएसएस के आधुनिकीकरण में पारंपरिक आरएसएस को टटोलना । क्योकि एक तरफ संघ बीजेपी को विस्तार देने के लिये जिले स्तर पर प्रचारको की अगुवाई में स्वयंसेवको की टीम को उतारने जा रहा है । आरएसएस से जुड़े संगठन भारतीय मजदूर संघ , वनवासी कल्याण आश्रण और विघाभारती से जुडे लाखो स्वयंसेवक बीजेपी के लिये सामाजिक लामबंदी करेंगे। फिर दस दिन पहले ही आरएसएस से बीजेपी में आये राम माधव के जरीये बीजेपी संगठन को हाईटेक बनाने की दिशा में ले जाने की भी सोच रहा है लेकिन खुद को हेडगेवार की राष्ट्रवादी सोच के दायरे में रखकर बीजेपी को भी आजादी से पहले वाले काग्रेस की तर्ज पर मान्यता दिलाने की दिशा में बढ रही है । दरअसल संघ के भीतर बीजेपी को लेकर लगातार यही मंथन हो रहा है कि आजादी से पहले काग्रेस को जितनी मान्यता देश में थी
उसी तरह आज की तारिख में बीजेपी को वैसी मान्यता क्यो नहीं मिल सकती है। और अगर मिल सकती है तो इसके लिये क्या क्या करना होगा । माना यही जा रहा है कि अमित शाह को संघ का सबसे महत्वपूर्ण पाठ काग्रेस को मुस्लिम लीग की तर्ज राजनीतिक दायरे में स्थापित करवा देने की चुनौती रखी जा रही है। क्योंकि संघ का मानना है कि अगर मुस्लिम लीग की तरह कांग्रेस को स्थापित कर दिया जाये तो बीजेपी का कैनवास राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर व्यापक हो जायेगा ।
असर इसी का है कल सुबह नागपुर पहुंचते ही सबसे पहले अमित शाह बाबा साहेब आंबेडकर के धम्म परिवर्तन स्थल पर जायेंगे। उसके बाद ही रेशमबाग के हेडगेवार भवन जाकर हेडगेवार और गुरु गोलवरकर की प्रतिमा को नमन करेंगे। फिर दोपहर में करीब तीन घंटे तक सरसंघचालक मोहन भागवत से चिंतन-मनन के बाद रात तक वापस दिल्ली लौट आयेगें । उसी के बाद पहली बार बतौर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह मीडिया के सामने कुछ बोलेगें । जो अध्यक्ष बनने के बाद से लगातार खामोश है।
Tuesday, July 15, 2014
ट्रैक टू डिप्लोमेसी पर हाफिज का दाग
प्रधानमंत्री मोदी के साथ बाबा रामदेव। और बाब रामदेव के साथ प्रताप वैदिक। यह दो तस्वीरे मोदी सरकार से वेद प्रताप वैदिक की कितनी निकटता दिखलाती है। सवाल उठ सकते हैं। लेकिन देश में हर कोई जानता है कि चुनाव के दौर में नरेन्द्र मोदी के लिये बाब रामदेव योग छोड़कर राजनीतिक यात्रा पर निकले थे और वेद प्रताप वैदिक ने सबसे पहले मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाने पर लेख लिखा था। तो फिर पाकिस्तान में ऐसी तस्वीरों को किस रुप में देखा जाता होगा। खासकर तब जब कश्मीर को लेकर बीजेपी लगातार गरजती रही हो और संघ परिवार हमेशा कश्मीर के लिये दो दो हाथ करने को तैयार रहता हो । ऐसे मोड़ पर मोदी के पीएम बनने के बाद पाकिस्तान में भी भारत के ऐसे चिंतकों को महत्व दिया जाने लगा, जिनका पाकिस्तान पहले से आना जाना हो और जिनकी करीबी संघ परिवार या कहे मोदी सरकार की विचारधापरा से हो। वेद प्रताप वैदिक इस घेरे में पाकिस्तान के लिये फिट बैठते हैं, क्योंकि बीते एक बरस के दौर में मनमोहन सरकार के खिलाफ लगातार लिखने वाले वैदिक बीजेपी और मोदी के हक में लिख रहे थे। वैसे माना यह भी जाता है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ मोदी के शपथ ग्रहण में आ जाये इसके लिये वेद प्रताप वैदिक भी लगातार अपनी डिप्लामेसी चला रहे थे। वह लगातार पाकिस्तान सरकार के संपर्क में थे। वहीं दूसरी तरफ विपक्ष में रहने के दौरान बीजेपी ने हमेशा पाकिस्तान को जिस तल्खी के साथ निशाने पर लिया उसके बाद सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार के सामने भी संकट रहा कि वह कैसे संबंधों को आगे बढाये। क्योंकि युद्द या हमले का रास्ता मोदी की उस छवि को धो देता जिसके आसरे विकास का ककहरा चुनाव प्रचार के दौरान देश में पढ़ाया गया। इसलिये ध्यान दें तो पाकिस्तान क पीएम के साथ पहली मुलाकात के बाद से ही विकास की लकीर खिंचने के मद्देनजर ही समझौतों का जिक्र पाकिस्तान से हुआ न। यहां तक कि सार्क सैटेलाइट का जिक्र पर प्रधानमंत्री मोदी ने जतलाया कि भारत का रुख पाकिस्तान को लेकर बिलकुल अलग ही नहीं संबधों को खासा आगे बढ़ाने का है।
इसी दायरे में वेद प्रताप वैदिक ने पाकिस्तान की यात्रा की और पाकिस्तान के प्रभावी लोगों से मुलाकातों में मोदी सरकार के प्रति राय बदलने की पहल भी की। यानी चाहे सरकार ने अधिकारिक तौर पर वैदिक को ट्रैक टू डिप्लामैसी के लिये अधिकृत नहीं किया हो लेकिन वैदिक की समूची पहल सरकार के साथ अपनी निकटता को बताते हुये संबंधों को मोदी सरकार के अनुकुल बनाने की ही रही। लेकिन हाफिज का जिन्न समूची डिप्लोमैसी को ही पटरी से उतार देगा, यह जनादेश की खुमारी में किसी ने सोचा नहीं। और यह खुमारी उतर जाये यह संघ परिवार के लिये जरुरी है। इसीलिये ना आरएसएस ना ही बीजेपी या कहे मोदी सरकार में से कोई वैदिक के बचाव में आया। क्योंकि वैदिक की डिप्लामैसी कश्मीर को लेकर पाकिस्तानियों को लुभाने वाली भी है और कश्मीर पर संघ की धारा के खिलाफ भी। याद कीजिये तो कश्मीर के नक्शे को भारत के हक में बदलने के लिये संघ हमेशा से ताल ठोंकते आया है। यानी आरएसएस हमेशा इस हक में रहा है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भारत अपने कब्जे में ले ले। लेकिन संघ की इस मोटी लकीर पर भारत पाकिस्तान के बीच एलओसी हमेशा से हावी रही है। यानी दिल्ली की कोई सरकार एलओसी को मिटा दें और पीओके को अपने कब्जे में ले ले यह किसी सत्ता ने सोचा नहीं। या कहे इस दिशा में कभी कोई कदम बढ़ाने के लिये कदम नहीं बढाये। लेकिन नरेन्द्र मोदी के पीएम बनते ही संघ परिवार के विचार राजनीतिक धारा के तौर पर रेगने लगे इससे इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि पहली बार मोदी के चुनाव प्रचार में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर ना सिर्फ सक्रिय हुआ बल्कि अपनी विचारधारा को भी राजनीतिक तौर विस्तार देने
के लिये मैदान में उतरा। और संघ लगातार कश्मीर को लेकर अपनी बात को कैसे रखता रहा यह बीते 12 बरस के पन्नो को पलटकर समझा जा सकता है। 2002 में केन्द्र में वाजपेयी की सरकार थी लेकिन उस वक्त भी आरएसएस के तेवर कश्मीर को तल्ख थे ।
2002 में तो हिन्दुवादी पार्टी के नाम पर आरएस अपने उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने के लिये भी तैयार हुआ था । और विधानसभा चुनाव में कई जगह संघ का मोर्चा और बीजेपी उम्मीदवार चुनावी
मैदान में टकराये भी। फिर दो बरस पहले संघ के मुखिया मोहन भागवत ने दशहरा भाषण के वक्त नागपुर में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने कब्जे में लेने की खुली वकालत यह कहकर की थी। सेना भेजकर पीओके को अपने कब्जे में ना लेना सरकारों की कमजोरी रही है। अब सवाल है कि संघ के विचारों को मोदी सरकार अपनायेगी या नहीं। क्योंकि पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बनाने की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण के साथ ही शुरु हुई । और जिस तरह पाकिस्तान के पीएम नवाज शरीफ भारत आये और उसके बाद पाकिस्तान जाकर वेद प्रताप वैदिक ने नवाज शरीफ से मुलाकात की । उसने ही इस सच को बल दिया कि पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्तो की खोज में ट्रैक टू डिप्लोमैसी का रास्ता बनाया जा रहा है । और इसी कड़ी में हाफिज सईद से वैदिक की मुलाकात हुई । लेकिन सरकार ने यह कहकर तो पल्ला झाड़ लिया कि वैदिक और हाफिज सईद की मुलाकात की कोई जानकारी उन्हें नहीं थी । लेकिन यही से सबसे बडा सवाल उठता है कि आखिर सरकार को क्या पता नहीं चला कि वेद प्रताप वैदिक हाफिज सईद से मुलाकात कर रहे हैं। क्या पाकिस्तान में भारत के हाईकमीशन को कोई जानकारी नहीं थी । क्या भारत की खुफिया एंजेसी वाकई
अंधेरे में रही । जबकि पाकिस्तान गये भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य तो लौट आये लेकिन वैदिक ने अपना वीजा 20 दिन बढ़ाया । और पाकिस्तान ने वैदिक को 20 दिन रहने की इजाजत भी दी। तो यह असंभव है कि भारत और पाकिस्तान के उच्चायोग के अधिकारियो को जानकारी ही ना हो कि वैदिक पाकिस्तान में क्यों रुक रहे हैं। फिर दूसरा बड़ा सवाल है कि हाफिज सईद के साथ जब कोई मुलाकात बिना कई दरवाजों से इजाजत मिलने से पहले हो ही नहीं सकती है तो फिर अचानक कैसे वैदिक की मुलाकात हाफिज सईद से हो गयी। जबकि लाहौर में हर कोई जानता है कि जौहर टाउन मोहल्ले में हाफिज सईद के घर तक कोई आसानी से नहीं पहुंच सकता है। पत्रकार को भी हाफिज सईद से मुलाकात से पहले कई माध्यमों से गुजरना पड़ता है। खासकर अमेरिका ने जब से हाफिज सईद को आतंकवादी करार दिया है, उसके बाद से हाफिज की सुरक्षा का सबसे मजबूत घेरा आईएसआई है। अगर वेद प्रताप वैदिक को इन चैनलों से नहीं गुजरना पड़ा तो इसका मतलब साफ है कि सरकार को पहले से पता था कि मुलाकात होगी या मुलाकात होनी चाहिये। यह जानकारी भारतीय उच्चायोग को भी जरुर होगी। फिर वेद प्रताप वैदिक की कोई अपनी पहचान एसी नहीं कि जिससे लगे कि पाकिस्तान की पीएम से लेकर हाफिज सईद तक मिलने को बेताब हो। क्योंकि समाचार एंजेसी में काम करने के अलावे अंतरराष्ट्रीय विषयों पर कालम लिकने वाले वेद प्रताप वैदिक दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर क्लास भी लेते रहे है । यानी सरकार अगर पीछे ना खड़ी हो तो फिर पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष से लेकर दुनिया के सबसे बडे आतंकवादी का वैदिक से मुलाकात के लिये मचलने का कोई मतलब नहीं है। तो सवाल है कि क्या वाकई ट्रैक टू डिप्लोमेटक ट्रिप पर पाकिस्तान गये थे। इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी को लेकर खुले विचार हाफिज सईद व्यक्त कर रहा था और वे प्रताप वैदिक सुन रहे थे।
इसी दायरे में वेद प्रताप वैदिक ने पाकिस्तान की यात्रा की और पाकिस्तान के प्रभावी लोगों से मुलाकातों में मोदी सरकार के प्रति राय बदलने की पहल भी की। यानी चाहे सरकार ने अधिकारिक तौर पर वैदिक को ट्रैक टू डिप्लामैसी के लिये अधिकृत नहीं किया हो लेकिन वैदिक की समूची पहल सरकार के साथ अपनी निकटता को बताते हुये संबंधों को मोदी सरकार के अनुकुल बनाने की ही रही। लेकिन हाफिज का जिन्न समूची डिप्लोमैसी को ही पटरी से उतार देगा, यह जनादेश की खुमारी में किसी ने सोचा नहीं। और यह खुमारी उतर जाये यह संघ परिवार के लिये जरुरी है। इसीलिये ना आरएसएस ना ही बीजेपी या कहे मोदी सरकार में से कोई वैदिक के बचाव में आया। क्योंकि वैदिक की डिप्लामैसी कश्मीर को लेकर पाकिस्तानियों को लुभाने वाली भी है और कश्मीर पर संघ की धारा के खिलाफ भी। याद कीजिये तो कश्मीर के नक्शे को भारत के हक में बदलने के लिये संघ हमेशा से ताल ठोंकते आया है। यानी आरएसएस हमेशा इस हक में रहा है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को भारत अपने कब्जे में ले ले। लेकिन संघ की इस मोटी लकीर पर भारत पाकिस्तान के बीच एलओसी हमेशा से हावी रही है। यानी दिल्ली की कोई सरकार एलओसी को मिटा दें और पीओके को अपने कब्जे में ले ले यह किसी सत्ता ने सोचा नहीं। या कहे इस दिशा में कभी कोई कदम बढ़ाने के लिये कदम नहीं बढाये। लेकिन नरेन्द्र मोदी के पीएम बनते ही संघ परिवार के विचार राजनीतिक धारा के तौर पर रेगने लगे इससे इंकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि पहली बार मोदी के चुनाव प्रचार में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर ना सिर्फ सक्रिय हुआ बल्कि अपनी विचारधारा को भी राजनीतिक तौर विस्तार देने
के लिये मैदान में उतरा। और संघ लगातार कश्मीर को लेकर अपनी बात को कैसे रखता रहा यह बीते 12 बरस के पन्नो को पलटकर समझा जा सकता है। 2002 में केन्द्र में वाजपेयी की सरकार थी लेकिन उस वक्त भी आरएसएस के तेवर कश्मीर को तल्ख थे ।
2002 में तो हिन्दुवादी पार्टी के नाम पर आरएस अपने उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने के लिये भी तैयार हुआ था । और विधानसभा चुनाव में कई जगह संघ का मोर्चा और बीजेपी उम्मीदवार चुनावी
मैदान में टकराये भी। फिर दो बरस पहले संघ के मुखिया मोहन भागवत ने दशहरा भाषण के वक्त नागपुर में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को अपने कब्जे में लेने की खुली वकालत यह कहकर की थी। सेना भेजकर पीओके को अपने कब्जे में ना लेना सरकारों की कमजोरी रही है। अब सवाल है कि संघ के विचारों को मोदी सरकार अपनायेगी या नहीं। क्योंकि पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंध बनाने की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी के शपथग्रहण के साथ ही शुरु हुई । और जिस तरह पाकिस्तान के पीएम नवाज शरीफ भारत आये और उसके बाद पाकिस्तान जाकर वेद प्रताप वैदिक ने नवाज शरीफ से मुलाकात की । उसने ही इस सच को बल दिया कि पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्तो की खोज में ट्रैक टू डिप्लोमैसी का रास्ता बनाया जा रहा है । और इसी कड़ी में हाफिज सईद से वैदिक की मुलाकात हुई । लेकिन सरकार ने यह कहकर तो पल्ला झाड़ लिया कि वैदिक और हाफिज सईद की मुलाकात की कोई जानकारी उन्हें नहीं थी । लेकिन यही से सबसे बडा सवाल उठता है कि आखिर सरकार को क्या पता नहीं चला कि वेद प्रताप वैदिक हाफिज सईद से मुलाकात कर रहे हैं। क्या पाकिस्तान में भारत के हाईकमीशन को कोई जानकारी नहीं थी । क्या भारत की खुफिया एंजेसी वाकई
अंधेरे में रही । जबकि पाकिस्तान गये भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य तो लौट आये लेकिन वैदिक ने अपना वीजा 20 दिन बढ़ाया । और पाकिस्तान ने वैदिक को 20 दिन रहने की इजाजत भी दी। तो यह असंभव है कि भारत और पाकिस्तान के उच्चायोग के अधिकारियो को जानकारी ही ना हो कि वैदिक पाकिस्तान में क्यों रुक रहे हैं। फिर दूसरा बड़ा सवाल है कि हाफिज सईद के साथ जब कोई मुलाकात बिना कई दरवाजों से इजाजत मिलने से पहले हो ही नहीं सकती है तो फिर अचानक कैसे वैदिक की मुलाकात हाफिज सईद से हो गयी। जबकि लाहौर में हर कोई जानता है कि जौहर टाउन मोहल्ले में हाफिज सईद के घर तक कोई आसानी से नहीं पहुंच सकता है। पत्रकार को भी हाफिज सईद से मुलाकात से पहले कई माध्यमों से गुजरना पड़ता है। खासकर अमेरिका ने जब से हाफिज सईद को आतंकवादी करार दिया है, उसके बाद से हाफिज की सुरक्षा का सबसे मजबूत घेरा आईएसआई है। अगर वेद प्रताप वैदिक को इन चैनलों से नहीं गुजरना पड़ा तो इसका मतलब साफ है कि सरकार को पहले से पता था कि मुलाकात होगी या मुलाकात होनी चाहिये। यह जानकारी भारतीय उच्चायोग को भी जरुर होगी। फिर वेद प्रताप वैदिक की कोई अपनी पहचान एसी नहीं कि जिससे लगे कि पाकिस्तान की पीएम से लेकर हाफिज सईद तक मिलने को बेताब हो। क्योंकि समाचार एंजेसी में काम करने के अलावे अंतरराष्ट्रीय विषयों पर कालम लिकने वाले वेद प्रताप वैदिक दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर क्लास भी लेते रहे है । यानी सरकार अगर पीछे ना खड़ी हो तो फिर पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष से लेकर दुनिया के सबसे बडे आतंकवादी का वैदिक से मुलाकात के लिये मचलने का कोई मतलब नहीं है। तो सवाल है कि क्या वाकई ट्रैक टू डिप्लोमेटक ट्रिप पर पाकिस्तान गये थे। इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी को लेकर खुले विचार हाफिज सईद व्यक्त कर रहा था और वे प्रताप वैदिक सुन रहे थे।
Saturday, July 12, 2014
अमेरिकी चकाचौंध का न्यौता क्या गुल खिलायेगा भारत में?
बजट में ऐसा क्या है कि दुनिया मोदी की मुरीद हो रही है । और बजट के अगले ही दिन दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश के राष्ट्रपति का न्यौता दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश के पीएम को मिल गया । असल में मौजूदा वक्त में भारत दुनिया के सबसे बड़े बाजार का प्रतीक है। और मोदी के बजट ने इन्फ्रास्ट्रक्चर,रक्षा उपक्रम, इनर्जी सिक्यूरटी के लिये जिस तरह दुनिया को भारत आने के लिये ललचाया है उसने मनमोहन इक्नामिक्स से कई कदम आगे छलांग लगा दी है। वजह भी यही है कि ओबामा मोदी की मुलाकात का इंतजार समूची दुनिया को है। और खुद अमेरिका भी इस सच को समझ रहा है कि भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहां आने वाले वक्त में रेलवे में 5 से 10 लाख करोड़ का निवेश होना है। सड़क निर्माण में 2 लाख करोड़ से ज्यादा का निवेश होना है। बंदरगाहों को विकसित करने में भी 3-4 लाख करोड़ लगेंगे। इसी तरह सैकडो एयरपोर्ट बनाने में भी 3 से 4 लाख करोड का निवेश किया जाना है । वही भारतीय सेना की जरुरत जो अगले दस बरस की है, वह भी करीब 130 बिलियन डॉलर की है। यानी मोदी सरकार ने बजट को लेकर पहली बार दुनिया की आस भारत में पैसा लगाने को लेकर जगी है। क्योंकि बजट ने खुले संकेत दिये है कि भारत विकास के रास्ते को पकडने के लिये आर्थिक सीमायें तोड़ने को तैयार है और दुनिया भर के देश चाहे तो भारत में पूंजी लगा सकते है। असल में यह रास्ता मोदी सरकार की जरुरत है और यह जरुरत विकसित देशो को भारत में लाने को मजबूर करेगा। क्योंकि विकसित देशो की मजबूरी है कि वह अपने देश में इन्फ्रास्ट्क्चर का काम पूरा कर चुके है और तमाम विदेशी कंपनियों के सामने मंदी का संकट बरकरार है। यहा तक की चीन के सामने भी संकट है कि अगर अमेरिका की आर्थिक हालात नहीं सुधरे तो फिर उसके यहा उत्पादित माल का होगा क्या। ऐसे में भारत में निर्माण का रास्ता विदेसी निवेश के लिये खुलता है तो अमेरिका, जापान, फ्रांस या चीन सरीखे देश कमाई भी कर सकते है।
ध्यान दे तो अमेरिका की रुची इनर्जी सिक्यूरटी के क्षेत्र में भारत के साथ समझौता करना है। क्योंकि भारत अगर वाकई अमेरिकी मॉडल के रास्ते चल निकलेगा तो फिर भविष्य में उर्जा के हर क्षेत्र को लेकर भारत को पूंजी लगानी भी होगी और उसकी जरुरते समझौता करने वाले देश पर निर्भर भी होगी । यानी रेल ,सड़क, एयरपोर्ट से लेकर तमाम इन्फ्रसट्क्चर के लिये अगले तीस बरस की जरुरतो के मद्देनजर कोयला, गैस,पेट्रोलियम और नेपथाल सरीखे इनर्जी पर भी अमेरिका समझौता करना चाहेगा । साथ ही न्यूक्लीयर प्लांट लगाने के बाद सप्लायर समझोते जो अभी तक अटके हुये है समझौते उसपर ओबामा मोदी के साथ समझौता करना चाहेंगे। यानी ओबामा से मोदी की मुलाकात दुनिया की पूंजी को भारत में लगाने की एक ऐसी छलांग साबित हो सकती है जिसके बाद देश में खेती और ग्रामीण भारत के सामने आसतित्व का संकट मंडराने लगे। क्योंकि विकास का यह रास्ता बीच में छोडा नहीं जा सकता और रास्ता पूरा करने के
लिये खनिज संपदा ही नहीं बल्कि आदिवासी बहुल इलाको से लेकर २५ करोड़ के करीब खेत मजदूर के सामने संकट के बादल मंडराने लगे। वैसे यह तर्क दिया जा सकता है कि दुनिया की पूंजी जब भारत में आयेगी तो उसके मुनाफे से ग्रामीण भारत का जीवन भी सुधारा जा सकता है । यानी मोदी सरकार का अगला कदम गरीब भारत को मुख्यधारा से जोड़ने का होगा । और असल परीक्षा तभी होगी । लेकिन मोदी सरकार जिस रास्ते पर निकल रही है उसमें वह गरीब भारत या फिर किसान, मजदूर या ग्रामीण भारत की जरुरतों को पूरा करने की दिशा में कैसे काम करेगी यह किसी बालीवुड की फिल्म की तरह लगता है। क्योंकि फिल्मों में ही नायक तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस कर देता है। यानी शुरु में नायक कितना भी बिगड़ा हो लेकिन तीन घंटे बाद वह आदर्श करार दिया जाता है । यानी मोदी सरकार की हर कड़वी गोली बीतते वक्त के साथ मिठास लायेगी यह सरकार कहने से नहीं चूक रही। लेकिन यह कौन समझेगा कि दुनिया का बाजार और विदेशी पूंजी जब भारत की जमीन पर अपने कारखाने लगायेगी तो डालर के मुकाबले रुपया चाहे मजबूत दिखायी देने लगे लेकिन तब मुठ्टी भर रुपये से नही थैली भर रुपये से ही न्यूनतम की जरुरते आ सकेगी । क्योंकि इन्फ्रास्ट्क्चर भारत में दुनिया के मुकाबले सस्ता जरुर है लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था में आयतीत मिठास कड़वी ही साबित होगी। क्योंकि भारत में आज भी सरकारें पचास रुपये किलो प्याज और सौ रुपये की थाली पर गिर जाती है।
बैकों में जमा धन के कमजोर होने भर से अराजकता आ जाती है। सोने का भाव गिरता है तो लोग सोना खरीद कर जमा कर लेते हैं लेकिन यह और सस्ता हो जाये तो फिर सस्ते हालात भी महंगे लगने लगते हैं। यानी समाज में निचले तबके की जरुरतों में सुधार लाये बगैर ऊपरी तबकों के अनुकुल बजट राहत भी दे सकता है और यह रास्ता समाज के ऊपरी वर्ग की जरुरत हो सकती है और मध्यम वर्ग को ललचा सकती है। लेकिन दुनिया में यह तबका सबसे बडा होते हुये भी भारत में सबसे छोटा है। क्योंकि भारत में तीस-पैतिस करोड़ बनाम अस्सी करोड़ की असमान रेखा तो जारी है।
इसे अगर रक्षा क्षेत्र से ही समझ लें तो मोदी सरकार ने आते ही हथियारो के लिये विदेशी निवेश का निर्णय लिया। और उससे पहले सेना के तीनो अंगों ने अंतराष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर 130 बिलियन डॉलर के सामानों की जरुरत बतायी। यानी आंतरिक सुरक्षा के लिये और भी हथियार चाहिये। जाहिर है मोदी सरकार अगर यह कहती है कि 130 बिलियन डालर देकर हथियार खरीदने का कोई मतलब नहीं है। इसके उलट रक्षा क्षेत्र में
लगी बहुराष्ट्रीय कंपनिया भारत में ही उद्योग लगाये । जिससे भारत में कारखाने भी लगेंगे। रोजगार भी मिलेगा और रुपया मजबूत भी होगा । साथ ही हथियारों को लेकर भारत स्वावलंबी भी होगा। और हथियारो की खरीद के दौरान सरकार की कमीशनखोरी भी बंद होगी। साथ ही देश के भीतर हथियार बनाने वाली कंपनियों के निजी मुनाफे भी खत्म होंगे। तो बात सही है ऐसा होना ही चाहिये। लेकिन इसके लिये समझना यह भी होगा कि दुनिया के पांच सबसे बड़े देश जो हथियार बनाते हैं, वह संयुक्त राष्ट्र के पांचों स्थायी सदस्य ही हैं। और पांचों देश यानी अमेरिका, इग्लैड, रुस, फ्रांस और चीन हमेशा चाहते हैं कि दुनिया में कही ना कही युद्द वाले हालात बने रहे। जिससे हथियार उघोग की जरुरत बरकरार रहे। भारत भी इन पांच देशों के अलावा जर्मनी और स्वीडन से ही हथियार खरीदता है। तो पहला सवाल है हथियारो के उत्पादन का नया केन्द्र भारत बनेगा तो सवाल सिर्फ रोजगार और इन्फ्रास्ट्रक्चर का होगा या बात आगे बढेगी। दूसरा सवाल मनमोहन सिंह के दौर में निवेश के रास्ते तो अपनो के लिये ही बंद हो गये । यानी हर किसी ने अंटी में पैसा दबा लिया क्योकि आर्थिक माहौल बिगड़ चुका था। तो पहले भारतीय पैसे वालो की अंटी को भरोसा दिलाने की जगह बाहर का रास्ता पकड़ना कितना सही है । और तीसरा सबसे बड़ा सवाल है कि सरकार की प्रथामिकता है। क्योंकि किसान , मजदूर , खेती , सिंचाई, फसल, खेतीहर जमीन , खेती अनुसंधान जैसे न्यूनतम प्रथामिकता को मोदी सरकार के बजट में पहली बार उभारा तो गया लेकिन गांव को शहरों में तब्दील कर डिब्बा बंद खाना खिलाने की सोच कही ज्यादा भारी नजर आयी। छोटी - छोटी योजनाओं के जरीये देश के विकास को कैसे पाटा जा सकता है। देश की भौगोलिक परिस्थितियों में कैसे पर्यावरण को बचा कर विकास का रास्ता नापा जा सकता है। कैसे देश में असमान समाज को सोशल इंडेक्स के दायरे में समेटा जा सकता है। कैसे दिल्ली के रायसीना हिल्स से पंचायत स्तर तक को एक धागे में पिरोया जा सकता है। कैसे हिन्दू शब्द को सांप्रदायिकता के कटघरे से बाहर कर मुस्लिम के साथ जोड़ा जा सकता है। कैसे मुस्लिम तुष्टिकरण को देश के ८० करोड़ हाशिए पर पड़े तबके के साथ घुलाया मिलाया जा सकता है। कैसे शिशु मंदिर और मदरसों के पाठ में भारतीय राष्ट्रवाद एक सरीखा दिखाया जा सकता है। कैसे आधुनिक अस्पतालो की कतार में प्राथामिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अंबार लगाया जा सकता है । कैसे उच्च शिक्षा को सम्मान देकर देश के भीतर ही राजनीतिक सत्ता से ज्यादा तरजीह दी जा सकती है । कैसे भारत का नाम आते ही मस्तक उंचा उठ सकता है । कोई नीति । कोई फैसला तो कभी इस दिशा में लिया नहीं गया। तो फिर बजट सरकार के लिये चाहे कमाई का बाजार हो लेकिन देश की बहुसंख्यक जनता के लिये बजट बेजार है क्या इसे आने वाले ५८ महीनो में मोदी सरकार समझ लेगी।
ध्यान दे तो अमेरिका की रुची इनर्जी सिक्यूरटी के क्षेत्र में भारत के साथ समझौता करना है। क्योंकि भारत अगर वाकई अमेरिकी मॉडल के रास्ते चल निकलेगा तो फिर भविष्य में उर्जा के हर क्षेत्र को लेकर भारत को पूंजी लगानी भी होगी और उसकी जरुरते समझौता करने वाले देश पर निर्भर भी होगी । यानी रेल ,सड़क, एयरपोर्ट से लेकर तमाम इन्फ्रसट्क्चर के लिये अगले तीस बरस की जरुरतो के मद्देनजर कोयला, गैस,पेट्रोलियम और नेपथाल सरीखे इनर्जी पर भी अमेरिका समझौता करना चाहेगा । साथ ही न्यूक्लीयर प्लांट लगाने के बाद सप्लायर समझोते जो अभी तक अटके हुये है समझौते उसपर ओबामा मोदी के साथ समझौता करना चाहेंगे। यानी ओबामा से मोदी की मुलाकात दुनिया की पूंजी को भारत में लगाने की एक ऐसी छलांग साबित हो सकती है जिसके बाद देश में खेती और ग्रामीण भारत के सामने आसतित्व का संकट मंडराने लगे। क्योंकि विकास का यह रास्ता बीच में छोडा नहीं जा सकता और रास्ता पूरा करने के
लिये खनिज संपदा ही नहीं बल्कि आदिवासी बहुल इलाको से लेकर २५ करोड़ के करीब खेत मजदूर के सामने संकट के बादल मंडराने लगे। वैसे यह तर्क दिया जा सकता है कि दुनिया की पूंजी जब भारत में आयेगी तो उसके मुनाफे से ग्रामीण भारत का जीवन भी सुधारा जा सकता है । यानी मोदी सरकार का अगला कदम गरीब भारत को मुख्यधारा से जोड़ने का होगा । और असल परीक्षा तभी होगी । लेकिन मोदी सरकार जिस रास्ते पर निकल रही है उसमें वह गरीब भारत या फिर किसान, मजदूर या ग्रामीण भारत की जरुरतों को पूरा करने की दिशा में कैसे काम करेगी यह किसी बालीवुड की फिल्म की तरह लगता है। क्योंकि फिल्मों में ही नायक तीन घंटे में पोयटिक जस्टिस कर देता है। यानी शुरु में नायक कितना भी बिगड़ा हो लेकिन तीन घंटे बाद वह आदर्श करार दिया जाता है । यानी मोदी सरकार की हर कड़वी गोली बीतते वक्त के साथ मिठास लायेगी यह सरकार कहने से नहीं चूक रही। लेकिन यह कौन समझेगा कि दुनिया का बाजार और विदेशी पूंजी जब भारत की जमीन पर अपने कारखाने लगायेगी तो डालर के मुकाबले रुपया चाहे मजबूत दिखायी देने लगे लेकिन तब मुठ्टी भर रुपये से नही थैली भर रुपये से ही न्यूनतम की जरुरते आ सकेगी । क्योंकि इन्फ्रास्ट्क्चर भारत में दुनिया के मुकाबले सस्ता जरुर है लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था में आयतीत मिठास कड़वी ही साबित होगी। क्योंकि भारत में आज भी सरकारें पचास रुपये किलो प्याज और सौ रुपये की थाली पर गिर जाती है।
बैकों में जमा धन के कमजोर होने भर से अराजकता आ जाती है। सोने का भाव गिरता है तो लोग सोना खरीद कर जमा कर लेते हैं लेकिन यह और सस्ता हो जाये तो फिर सस्ते हालात भी महंगे लगने लगते हैं। यानी समाज में निचले तबके की जरुरतों में सुधार लाये बगैर ऊपरी तबकों के अनुकुल बजट राहत भी दे सकता है और यह रास्ता समाज के ऊपरी वर्ग की जरुरत हो सकती है और मध्यम वर्ग को ललचा सकती है। लेकिन दुनिया में यह तबका सबसे बडा होते हुये भी भारत में सबसे छोटा है। क्योंकि भारत में तीस-पैतिस करोड़ बनाम अस्सी करोड़ की असमान रेखा तो जारी है।
इसे अगर रक्षा क्षेत्र से ही समझ लें तो मोदी सरकार ने आते ही हथियारो के लिये विदेशी निवेश का निर्णय लिया। और उससे पहले सेना के तीनो अंगों ने अंतराष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर 130 बिलियन डॉलर के सामानों की जरुरत बतायी। यानी आंतरिक सुरक्षा के लिये और भी हथियार चाहिये। जाहिर है मोदी सरकार अगर यह कहती है कि 130 बिलियन डालर देकर हथियार खरीदने का कोई मतलब नहीं है। इसके उलट रक्षा क्षेत्र में
लगी बहुराष्ट्रीय कंपनिया भारत में ही उद्योग लगाये । जिससे भारत में कारखाने भी लगेंगे। रोजगार भी मिलेगा और रुपया मजबूत भी होगा । साथ ही हथियारों को लेकर भारत स्वावलंबी भी होगा। और हथियारो की खरीद के दौरान सरकार की कमीशनखोरी भी बंद होगी। साथ ही देश के भीतर हथियार बनाने वाली कंपनियों के निजी मुनाफे भी खत्म होंगे। तो बात सही है ऐसा होना ही चाहिये। लेकिन इसके लिये समझना यह भी होगा कि दुनिया के पांच सबसे बड़े देश जो हथियार बनाते हैं, वह संयुक्त राष्ट्र के पांचों स्थायी सदस्य ही हैं। और पांचों देश यानी अमेरिका, इग्लैड, रुस, फ्रांस और चीन हमेशा चाहते हैं कि दुनिया में कही ना कही युद्द वाले हालात बने रहे। जिससे हथियार उघोग की जरुरत बरकरार रहे। भारत भी इन पांच देशों के अलावा जर्मनी और स्वीडन से ही हथियार खरीदता है। तो पहला सवाल है हथियारो के उत्पादन का नया केन्द्र भारत बनेगा तो सवाल सिर्फ रोजगार और इन्फ्रास्ट्रक्चर का होगा या बात आगे बढेगी। दूसरा सवाल मनमोहन सिंह के दौर में निवेश के रास्ते तो अपनो के लिये ही बंद हो गये । यानी हर किसी ने अंटी में पैसा दबा लिया क्योकि आर्थिक माहौल बिगड़ चुका था। तो पहले भारतीय पैसे वालो की अंटी को भरोसा दिलाने की जगह बाहर का रास्ता पकड़ना कितना सही है । और तीसरा सबसे बड़ा सवाल है कि सरकार की प्रथामिकता है। क्योंकि किसान , मजदूर , खेती , सिंचाई, फसल, खेतीहर जमीन , खेती अनुसंधान जैसे न्यूनतम प्रथामिकता को मोदी सरकार के बजट में पहली बार उभारा तो गया लेकिन गांव को शहरों में तब्दील कर डिब्बा बंद खाना खिलाने की सोच कही ज्यादा भारी नजर आयी। छोटी - छोटी योजनाओं के जरीये देश के विकास को कैसे पाटा जा सकता है। देश की भौगोलिक परिस्थितियों में कैसे पर्यावरण को बचा कर विकास का रास्ता नापा जा सकता है। कैसे देश में असमान समाज को सोशल इंडेक्स के दायरे में समेटा जा सकता है। कैसे दिल्ली के रायसीना हिल्स से पंचायत स्तर तक को एक धागे में पिरोया जा सकता है। कैसे हिन्दू शब्द को सांप्रदायिकता के कटघरे से बाहर कर मुस्लिम के साथ जोड़ा जा सकता है। कैसे मुस्लिम तुष्टिकरण को देश के ८० करोड़ हाशिए पर पड़े तबके के साथ घुलाया मिलाया जा सकता है। कैसे शिशु मंदिर और मदरसों के पाठ में भारतीय राष्ट्रवाद एक सरीखा दिखाया जा सकता है। कैसे आधुनिक अस्पतालो की कतार में प्राथामिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अंबार लगाया जा सकता है । कैसे उच्च शिक्षा को सम्मान देकर देश के भीतर ही राजनीतिक सत्ता से ज्यादा तरजीह दी जा सकती है । कैसे भारत का नाम आते ही मस्तक उंचा उठ सकता है । कोई नीति । कोई फैसला तो कभी इस दिशा में लिया नहीं गया। तो फिर बजट सरकार के लिये चाहे कमाई का बाजार हो लेकिन देश की बहुसंख्यक जनता के लिये बजट बेजार है क्या इसे आने वाले ५८ महीनो में मोदी सरकार समझ लेगी।
Wednesday, July 9, 2014
संघ का शाह के जरिए राजनीतिक शह-मात का खेल
जिस खामोशी से अमित शाह बीजेपी हेडक्वार्टर में बतौर अध्यक्ष होकर घुसे हैं उसने पोटली और ब्रीफकेस के आसरे राजनीति करने वालो की नींद उडा दी है। अध्यक्ष बनने के बाद भी खामोशी और खामोशी के साथ राज्यवार बीजेपी अध्यक्षों को बदलने की कवायद अमित शाह का पहला सियासी मंत्र है। इतना ही नहीं बीजेपी मुख्यालय के छोटे छोटे कमरो में कुर्सी पकड़े नेताओं की कुर्सी भी डिगेगी और समूचे संगठन को भी फेंटा जायेगा। इसीलिये नरेन्द्र मोदी के असल सिपहसलाहर अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया है। असल में आरएसएस और मोदी के टारेगट बेहद साफ हैं। बीते दस बरस में बीजेपी भोथरी हुई और दिल्ली का राजनीति ने जब हिन्दुत्व को आतंकवाद से जोड़ा तो भी दिल्ली के कद्दावर बीजेपी नेताओ की खुमारी नहीं टूटी। ऐसे में टारगेट साधने के लिये बीजेपी संगठन को पैना बनाना जरुरी है, क्योंकि विस्तार संघ का करना है। यह छोटे छोटे संवाद दिल्ली के झंडेवालान से लेकर नागपुर के महाल तक के हैं।
जहां स्वंयसेवकों को मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह लगने लगा है कि संघ का ढांचा कही ज्यादा प्रभावी तरीके से राजनीति को साध सकता है । ऐसे में स्वयंसेवक अगर देश भर में बीजेपी की सत्ता बनाने के लिये राज्यवार भी निकले तो फिर बीजेपी अपने बूते हर जगह सरकार क्यों नहीं बना सकती है। इसलिये संघ के तीन मंत्र अब बीजेपी में नजर आने वाले हैं। पहला , हर राज्य में बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बदला जायेगा। इसमे गुजरात के प्रदेश अध्यक्ष आरसी फलदू भी होंगे। दूसरा, संघ की शाखाओं से जिसका वास्ता रहा है या फिर एवीबीपी के जरीये जिसने राजनीति का ककहरा पढ़ा है, उसे नंबर एक और नंबर दो के तहत महत्व दिया जायेगा। और इन्हें ही प्रदेश अध्यक्ष बनाया जायेगा। तीसरा जो भी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी की कीमत लगाते रहे हैं या फिर गठबंधन की राजनीति के जरीये बीजेपी को सत्ता में लाने का सपना परोसते रहे हैं, उन्हे दरकिनार किया जायेगा । संघ परिवार के भीतर बड़ा सवाल यह भी है कि स्वयंसेवक राजनीतिक प्रचार के जरीये बीजेपी के लिये तो राजनीतिक जमीन बना सकता है लेकिन गठबंधन के दलों को इससे लाभ क्यों मिलना चाहिये। इसलिये अमित शाह का टारगेट बीजेपी को अपने बूते खड़ा करने का है । यानी महाराष्ट्र , हरियाणा और झारखंड में बीजेपी अपने बूते जीत कैसे मिले। संयोग से तीनों ही राज्यों में बीजेपी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके पीछे समूची पार्टी चलने को तैयार हो। और दूसरा संकट है कि तीनों राज्य में बीजेपी के कार्यकर्ता अपने ही नेताओ को लेकर बंटे हुये हैं। और तीसरा संकट है कि बीजेपी विरासत की जिस राजनीति का विरोध करती है उसी विरासत की राजनीतिक डोर को बीजेपी के सहयोगी दल थामे हुये है। यानी संघ परिवार राजनीतिक तौर पर यह सोचने लगा है कि बीजेपी को मथा जाये तो एक आदर्श राजनीति खड़ी की जा सकती है। लेकिन इसके लिये मथने वाले को राजनीतिक तौर पर ईमानदारी बरतनी होगी। किसी को राजनीतिक मुनाफा देने से बचना होगा। पद को बेचने खरीदने का सिलसिला खत्म करना होगा । यानी संघ जिस प्रयोग को नीतिन गडकरी के जरीये अंजाम तक पहुंचाना चाहता था अब उसे अमित शाह अंजाम देंगे। याद किजिये तो गडकरी दिल्ली के नहीं थे, अमित शाह भी नहीं है । गडकरी संघ की शाखा से निकले। अमित शाह भी शाखा से ही निकले। गडकरी को-ओपरेटिव से लेकर कारपोरेट तक को जानने समझने वाले बिजनेस मैन भी रहे। अमित शाह ने भी केशुभाई के दौर में गुजरात वित्त कारपोरेशन के जरीये जिस तरह राजनीति को साधा वह अपने आप में कमाल का हुनर था और इस हुनर को मोदी ने बतौर जोहरी गुजरात का मुख्यमंत्री बनने केबाद परखा भी। संघ ने भी इस सच को बारीकी से परखा। दरअसल इन परिस्थितियों तक पहुंचने के लिये नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक जीत ने आक्सीजन का काम किया है। मोदी की जीत से पहले संघ को सिर्फ यही लगता रहा कि दिल्ली की राजनीति से बीजेपी को मुक्त करने के लिये नरेन्द्र मोदी को हथियार बनाया जा सकता है। और उसने बनाया भी । लेकिन जिस तरह मोदी के पक्ष में जनादेश आया उसने संघ परिवार के भीतर नये सवाल को जन्म दिया कि अगर दिल्ली की सत्ता साधी जा सकती है, तो फिर हर राज्य में बीजेपी अपने बूते सरकार क्यों नहीं बना सकती। और तो और पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर तक को साधने की सोच इसी दौर में संघ के भीतर जागी है। इसलिये पहली बार संघ भी यह मान रहा है कि धारा 370 और कश्मीरी पंडितों का मुद्दा सामाजिक तौर पर उठाने से पहले राजनीतिक तौर पर उठाना जरुरी है। इसी तरह वाम धारा के खत्म होने के बाद ममता बनर्जी की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से जोड़ कर साधने की जरुरत है। ध्यान दें तो मोदी सरकार ने राज्यो की राजनीति में सेंध लगाने के लिये अपने नजरिये को मुद्दो को उठाना शुरु कर भी दिया है। लेकिन इन मुद्दो पर संघ के स्वयंसेवकों से पहले बीजेपी के कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ना होगा। फिर बीजेपी का कार्यकर्ता तभी आगे बढेगा जब उसे अपने नेता पर भरोसा हो। जो बीते दिनो में डगमडाया है, इसे संघ ने अपने मंथन शिविर में बार बार माना है। यानी जिस तरह मोदी और बीजेपी चुनाव प्रचार में ही नहीं बल्कि सत्ता संभालने के बाद भी दो धाराओं की तरह दिखायी दे रहे है उसी तर्ज पर अमित शाह भी बीजेपी के पारंपरिक तौर तरीकों से अलग दिखायी देंगे, यह माना जा रहा है। असर इसी का है कि दिल्ली में बीजेपी हेडक्वार्टर में अमित शाह की दस्तक बेहद खामोशी से हुई। जबकि डेड बरस पहले 23 जनवरी 2103 को याद कीजिये तो जश्न के बीच राजनाथ की ताजपोश हुई थी । और अभी तक बीजेपी में परंपरा रही है कि अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद कार्यकर्ताओ को मीडिया के जरीये हर अध्यक्ष संबोधित करते भी रहा है।
लेकिन पहली बार नये अध्यक्ष अमित शाह कुछ नहीं बोले । पूरा दिन खामोश रहे । छिट-पुट, या कहे बिखरे , अलग थलग रहने वाले कार्यकर्ताओं ने हेडक्वार्टर के भीतर बाहर पटाखे छोड़े। लेकिन बीजेपी हेडक्वार्टर के 35 कमरों में से किसी कमरे के कोई पदाघिकारी उत्साह में झूमते नजर नहीं आये। झटके में बीजेपी मुख्यलय के भीतर संघ और बीजेपी के साहित्य या कहे प्रचार प्रसार की सामग्री बेचने वाली दुकान से अमित शाह की तस्वीर कार्यकर्ता खरीदने लगे. और शाम ढलते ढलते अमित शाह की तस्वीरे भी खत्म हो गयी । नये तस्वीरों के आर्डर दे दिये गये। लेकिन पहली बार बीजेपी हेडक्वाटर में यह आवाज भी सुनायी दी कि हिन्दी पट्टी में अब कार्यकर्ताओं के दिन लौटेंगे। क्योंकि यूपी में अमित शाह ने जब कद्दावरों को दरकिनार कर हर समीकरण को उलट दिया तो फिर आने वाले दिनो में कद्दवर होने का तमगा लगाकर सेटिंग करने वाले नेता अब गायब हो जायेंगे। यानी पहली बार जो नेता अदालत के दायरे में दागदार है। जिसपर गंभीर आरोप उसके अपने प्रदेश में लगे । और मामलों की जांच भी चल रही है उसी के जरीये बीजेपी की सफाई संघ परिवार ने देखी है । वैसे सच यह भी है कि संघ बीजेपी में जमी भ्रष्टाचार और कामचोरी की काई को घोना चाहता है और इसके लिये वह हर राजनीतिक प्रयोग करने को तैयार है। क्योंकि पहली बार संघ ने मनमोहन सरकार के दौर में अपने आस्तितव को खतरे में देखा। जब सरसंघचालक से लेकर इन्द्रेश कुमार समेत दर्जनो स्वयंसेवकों को आंतक के कटघरे में खड़ा किया गया। तो लोहा लोहे को काटता है । कुछ इसी अंदाज में संघ का यह राजनीतिक शुद्दीकरण मिशन है। जिसकी एक बिसात पर मोदी सबकुछ है तो दूसरी बिसात पर मोदी के वजीर अमित शाह सबकुछ है ।
जहां स्वंयसेवकों को मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह लगने लगा है कि संघ का ढांचा कही ज्यादा प्रभावी तरीके से राजनीति को साध सकता है । ऐसे में स्वयंसेवक अगर देश भर में बीजेपी की सत्ता बनाने के लिये राज्यवार भी निकले तो फिर बीजेपी अपने बूते हर जगह सरकार क्यों नहीं बना सकती है। इसलिये संघ के तीन मंत्र अब बीजेपी में नजर आने वाले हैं। पहला , हर राज्य में बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बदला जायेगा। इसमे गुजरात के प्रदेश अध्यक्ष आरसी फलदू भी होंगे। दूसरा, संघ की शाखाओं से जिसका वास्ता रहा है या फिर एवीबीपी के जरीये जिसने राजनीति का ककहरा पढ़ा है, उसे नंबर एक और नंबर दो के तहत महत्व दिया जायेगा। और इन्हें ही प्रदेश अध्यक्ष बनाया जायेगा। तीसरा जो भी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी की कीमत लगाते रहे हैं या फिर गठबंधन की राजनीति के जरीये बीजेपी को सत्ता में लाने का सपना परोसते रहे हैं, उन्हे दरकिनार किया जायेगा । संघ परिवार के भीतर बड़ा सवाल यह भी है कि स्वयंसेवक राजनीतिक प्रचार के जरीये बीजेपी के लिये तो राजनीतिक जमीन बना सकता है लेकिन गठबंधन के दलों को इससे लाभ क्यों मिलना चाहिये। इसलिये अमित शाह का टारगेट बीजेपी को अपने बूते खड़ा करने का है । यानी महाराष्ट्र , हरियाणा और झारखंड में बीजेपी अपने बूते जीत कैसे मिले। संयोग से तीनों ही राज्यों में बीजेपी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके पीछे समूची पार्टी चलने को तैयार हो। और दूसरा संकट है कि तीनों राज्य में बीजेपी के कार्यकर्ता अपने ही नेताओ को लेकर बंटे हुये हैं। और तीसरा संकट है कि बीजेपी विरासत की जिस राजनीति का विरोध करती है उसी विरासत की राजनीतिक डोर को बीजेपी के सहयोगी दल थामे हुये है। यानी संघ परिवार राजनीतिक तौर पर यह सोचने लगा है कि बीजेपी को मथा जाये तो एक आदर्श राजनीति खड़ी की जा सकती है। लेकिन इसके लिये मथने वाले को राजनीतिक तौर पर ईमानदारी बरतनी होगी। किसी को राजनीतिक मुनाफा देने से बचना होगा। पद को बेचने खरीदने का सिलसिला खत्म करना होगा । यानी संघ जिस प्रयोग को नीतिन गडकरी के जरीये अंजाम तक पहुंचाना चाहता था अब उसे अमित शाह अंजाम देंगे। याद किजिये तो गडकरी दिल्ली के नहीं थे, अमित शाह भी नहीं है । गडकरी संघ की शाखा से निकले। अमित शाह भी शाखा से ही निकले। गडकरी को-ओपरेटिव से लेकर कारपोरेट तक को जानने समझने वाले बिजनेस मैन भी रहे। अमित शाह ने भी केशुभाई के दौर में गुजरात वित्त कारपोरेशन के जरीये जिस तरह राजनीति को साधा वह अपने आप में कमाल का हुनर था और इस हुनर को मोदी ने बतौर जोहरी गुजरात का मुख्यमंत्री बनने केबाद परखा भी। संघ ने भी इस सच को बारीकी से परखा। दरअसल इन परिस्थितियों तक पहुंचने के लिये नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक जीत ने आक्सीजन का काम किया है। मोदी की जीत से पहले संघ को सिर्फ यही लगता रहा कि दिल्ली की राजनीति से बीजेपी को मुक्त करने के लिये नरेन्द्र मोदी को हथियार बनाया जा सकता है। और उसने बनाया भी । लेकिन जिस तरह मोदी के पक्ष में जनादेश आया उसने संघ परिवार के भीतर नये सवाल को जन्म दिया कि अगर दिल्ली की सत्ता साधी जा सकती है, तो फिर हर राज्य में बीजेपी अपने बूते सरकार क्यों नहीं बना सकती। और तो और पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर तक को साधने की सोच इसी दौर में संघ के भीतर जागी है। इसलिये पहली बार संघ भी यह मान रहा है कि धारा 370 और कश्मीरी पंडितों का मुद्दा सामाजिक तौर पर उठाने से पहले राजनीतिक तौर पर उठाना जरुरी है। इसी तरह वाम धारा के खत्म होने के बाद ममता बनर्जी की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से जोड़ कर साधने की जरुरत है। ध्यान दें तो मोदी सरकार ने राज्यो की राजनीति में सेंध लगाने के लिये अपने नजरिये को मुद्दो को उठाना शुरु कर भी दिया है। लेकिन इन मुद्दो पर संघ के स्वयंसेवकों से पहले बीजेपी के कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ना होगा। फिर बीजेपी का कार्यकर्ता तभी आगे बढेगा जब उसे अपने नेता पर भरोसा हो। जो बीते दिनो में डगमडाया है, इसे संघ ने अपने मंथन शिविर में बार बार माना है। यानी जिस तरह मोदी और बीजेपी चुनाव प्रचार में ही नहीं बल्कि सत्ता संभालने के बाद भी दो धाराओं की तरह दिखायी दे रहे है उसी तर्ज पर अमित शाह भी बीजेपी के पारंपरिक तौर तरीकों से अलग दिखायी देंगे, यह माना जा रहा है। असर इसी का है कि दिल्ली में बीजेपी हेडक्वार्टर में अमित शाह की दस्तक बेहद खामोशी से हुई। जबकि डेड बरस पहले 23 जनवरी 2103 को याद कीजिये तो जश्न के बीच राजनाथ की ताजपोश हुई थी । और अभी तक बीजेपी में परंपरा रही है कि अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद कार्यकर्ताओ को मीडिया के जरीये हर अध्यक्ष संबोधित करते भी रहा है।
लेकिन पहली बार नये अध्यक्ष अमित शाह कुछ नहीं बोले । पूरा दिन खामोश रहे । छिट-पुट, या कहे बिखरे , अलग थलग रहने वाले कार्यकर्ताओं ने हेडक्वार्टर के भीतर बाहर पटाखे छोड़े। लेकिन बीजेपी हेडक्वार्टर के 35 कमरों में से किसी कमरे के कोई पदाघिकारी उत्साह में झूमते नजर नहीं आये। झटके में बीजेपी मुख्यलय के भीतर संघ और बीजेपी के साहित्य या कहे प्रचार प्रसार की सामग्री बेचने वाली दुकान से अमित शाह की तस्वीर कार्यकर्ता खरीदने लगे. और शाम ढलते ढलते अमित शाह की तस्वीरे भी खत्म हो गयी । नये तस्वीरों के आर्डर दे दिये गये। लेकिन पहली बार बीजेपी हेडक्वाटर में यह आवाज भी सुनायी दी कि हिन्दी पट्टी में अब कार्यकर्ताओं के दिन लौटेंगे। क्योंकि यूपी में अमित शाह ने जब कद्दावरों को दरकिनार कर हर समीकरण को उलट दिया तो फिर आने वाले दिनो में कद्दवर होने का तमगा लगाकर सेटिंग करने वाले नेता अब गायब हो जायेंगे। यानी पहली बार जो नेता अदालत के दायरे में दागदार है। जिसपर गंभीर आरोप उसके अपने प्रदेश में लगे । और मामलों की जांच भी चल रही है उसी के जरीये बीजेपी की सफाई संघ परिवार ने देखी है । वैसे सच यह भी है कि संघ बीजेपी में जमी भ्रष्टाचार और कामचोरी की काई को घोना चाहता है और इसके लिये वह हर राजनीतिक प्रयोग करने को तैयार है। क्योंकि पहली बार संघ ने मनमोहन सरकार के दौर में अपने आस्तितव को खतरे में देखा। जब सरसंघचालक से लेकर इन्द्रेश कुमार समेत दर्जनो स्वयंसेवकों को आंतक के कटघरे में खड़ा किया गया। तो लोहा लोहे को काटता है । कुछ इसी अंदाज में संघ का यह राजनीतिक शुद्दीकरण मिशन है। जिसकी एक बिसात पर मोदी सबकुछ है तो दूसरी बिसात पर मोदी के वजीर अमित शाह सबकुछ है ।
Tuesday, July 8, 2014
एक बुलेट ट्रेन चाहिये या 800 राजधानी एक्सप्रेस ?
9 कोच की बुलेट ट्रेन की कीमत है 60 हजार करोड़ और 17 कोच की राजधानी एक्स प्रेस का खर्च है 75 करोड़। यानी एक बुलेट ट्रेन के बजट में 800 राजधानी एक्सप्रेस चल सकती हैं। तो फिर तेज रफ्तार किसे चाहिये और अगर चाहिये तो एक हजार करोड के रेल बजट में सिर्फ बुलेट ट्रेन के लिये बाकि 59 हजार करोड़ रुपये कहां से आयेंगे। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योकि मौजूदा वक्त में ट्रेक ठीक करने और नये रेलवे ट्रैक के जरिये रेलवे को विस्तार देने के लिये बीते तीस साल से सरकारों के पास 20 हजार करोड़ से लेकर 50 हजार करोड़ रुपये कभी नहीं रहे। जिसका असर है कि -हर दिन 95 लाख लोग बिना सीट मिले ही रेलगाड़ी में सफर करते हैं।
30 हजार किलोमीटर ट्रैक सुधारने की जरुरत है और 40 हजार किलोमीटर नया रेलवे ट्रैक बीते 10 बरस से एलान तले ही दबा हुआ है। यानी कोई भी रेल की हालात देख कर कह सकता है कि आजादी के बाद से ही रेल
इन्फ्रास्ट्क्चर को देश के विकास के साथ जोड़ने की दिशा में किसी ने सोचा ही नहीं। लेकिन अब प्रधाननमंत्री मोदी यह कहने से नहीं चुके कि रेल बजट गति, आधुनिकता और सुविधा के जरीये देश के विकास से जुड़ रहा है। तो पहला सवाल मोदी सरकार ने जैसे ही रेल विस्तार को देश के विकास से जोड़ने की सोची वैसे ही यह भेद भी खुल गया कि रेलवे ट्रेक में विस्तार के लिये पैसा आयेगा कहां से। और वह पैसा नहीं तो क्या इसलिये दुनिया के बाजार को लुभाने के लिये बुलेट ट्रेन से लेकर हाई स्पीड ट्रेन का जिक्र पीपीपी मॉडल या विदेशी निवेश के नजरिये की वजह से किया गया। हो जो भी देश का असल सच तो यही है कि देश का विकास एकतरफा और शहरी केन्द्रीकृत है । जिसकी वजह से ट्रेन में हर सफर करने वाले ज्यादातर लोग वो ग्रामीण और मजदूर तबका है जो गांव छोड काम की खोज में भटक रहा है। और इनकी तादाद हर दिन सवा करोड़ के करीब है। वजह भी यही है कि भारतीय रेल की तस्वीर जब भी आंकड़ों में उभरती है तो ऊपर से नीचे तक ठसाठस भरे यात्री और रफ्तार करीब 50 से 60 किलोमीटर प्रतिघंटे की।
ऐसे में हर कोई यह पूछ सकता है कि बुलेट ट्रेन की रफ्तार या हाई स्पीड की खोज भारतीय रेल की कितनी जरुरत है । या फिर ठसाठस भरे लोगों को रेलगाडी में बैठने भर के लिये सीट मुहैया कराना भारतीय रेल की पहली जरुरत है। इन दो सवालों को लेकर पहली बार राजीव गांधी उलझे थे जब उन्होंने भारत में बुलेट ट्रेन का सपना देखा था। लेकिन बुलेट ट्रेन भारत के लिये एक सपना बनकर रह गयी और ठसाठस लदे लोगों को भारत का सच मान लिया गया तो इसे सुधारने का सपना किसी ने देखा ही नहीं। लेकिन मोदी सरकार ने माना सपना सोचने के लिये पूरा करने के लिये होता है तो 60 हजार करोड़ की एक बुलेट ट्रेन मुंब्ई-अहमदाबाद के बीच अगले आम चुनाव से पहले यानी 2019 तक जरुर चल जायेगी। और यह तब हो रहा है जब अहमदाबाद से मंबुई तक के बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट 3 बरस पहले ही तैयार हो चुकी है। दरअसल 19 जुलाई 2011 में ही फ्रेंच रेल ट्रांसपोर्ट कंपनी ने 634 किलोमीटर की इस यात्रा को दो घंटे में पूरा करने की बात कही थी। और डीपीआर में 56 हजार करोड़ का बजट बताया गया था। जो उस वक्त 50 हजार करोडं में पूरा करने की संबावना जतायी गयी थी। लेकिन रेल मंत्री ने बजट में इसकी लागत 60 हजार करोड़ बतायी। दरअसल फ्रेंच कंपनी ने अहमदाबाद से मुंबई होते हुये पुणे के बीच तक बुलेट ट्रेन का सपान दिखाया था। और इसकी डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी तैयार है। इसी तर्ज पर दिसबंर 2012 में ही केरल में कसराडोह और थिरुअंनतपुरम के बीच बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट सरकार को सौपी जा चुकी है । यानी देश में बुलेट ट्रेन को लेकर जो रोमांच है उसपर अभी तक अमल में लाने का बीडा मनमोहन सरकार ने क्यों नहीं उठाया जबकि खुले बाजार और उपभोक्ताओ के लिये मनमोहन से ज्यादा कसमें किसी ने नहीं खायीं। हो जो भी भारत का सच यही है कि हर सरकार रेलवे की तमाम समस्याओं के हल के लिए कड़े क़दम उठाने से हिचकिचाती रही हैं. जिसकी वजह से एशिया के सबसे पुराने रेल इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं हो सका ।
30 हजार किलोमीटर ट्रैक सुधारने की जरुरत है और 40 हजार किलोमीटर नया रेलवे ट्रैक बीते 10 बरस से एलान तले ही दबा हुआ है। यानी कोई भी रेल की हालात देख कर कह सकता है कि आजादी के बाद से ही रेल
इन्फ्रास्ट्क्चर को देश के विकास के साथ जोड़ने की दिशा में किसी ने सोचा ही नहीं। लेकिन अब प्रधाननमंत्री मोदी यह कहने से नहीं चुके कि रेल बजट गति, आधुनिकता और सुविधा के जरीये देश के विकास से जुड़ रहा है। तो पहला सवाल मोदी सरकार ने जैसे ही रेल विस्तार को देश के विकास से जोड़ने की सोची वैसे ही यह भेद भी खुल गया कि रेलवे ट्रेक में विस्तार के लिये पैसा आयेगा कहां से। और वह पैसा नहीं तो क्या इसलिये दुनिया के बाजार को लुभाने के लिये बुलेट ट्रेन से लेकर हाई स्पीड ट्रेन का जिक्र पीपीपी मॉडल या विदेशी निवेश के नजरिये की वजह से किया गया। हो जो भी देश का असल सच तो यही है कि देश का विकास एकतरफा और शहरी केन्द्रीकृत है । जिसकी वजह से ट्रेन में हर सफर करने वाले ज्यादातर लोग वो ग्रामीण और मजदूर तबका है जो गांव छोड काम की खोज में भटक रहा है। और इनकी तादाद हर दिन सवा करोड़ के करीब है। वजह भी यही है कि भारतीय रेल की तस्वीर जब भी आंकड़ों में उभरती है तो ऊपर से नीचे तक ठसाठस भरे यात्री और रफ्तार करीब 50 से 60 किलोमीटर प्रतिघंटे की।
ऐसे में हर कोई यह पूछ सकता है कि बुलेट ट्रेन की रफ्तार या हाई स्पीड की खोज भारतीय रेल की कितनी जरुरत है । या फिर ठसाठस भरे लोगों को रेलगाडी में बैठने भर के लिये सीट मुहैया कराना भारतीय रेल की पहली जरुरत है। इन दो सवालों को लेकर पहली बार राजीव गांधी उलझे थे जब उन्होंने भारत में बुलेट ट्रेन का सपना देखा था। लेकिन बुलेट ट्रेन भारत के लिये एक सपना बनकर रह गयी और ठसाठस लदे लोगों को भारत का सच मान लिया गया तो इसे सुधारने का सपना किसी ने देखा ही नहीं। लेकिन मोदी सरकार ने माना सपना सोचने के लिये पूरा करने के लिये होता है तो 60 हजार करोड़ की एक बुलेट ट्रेन मुंब्ई-अहमदाबाद के बीच अगले आम चुनाव से पहले यानी 2019 तक जरुर चल जायेगी। और यह तब हो रहा है जब अहमदाबाद से मंबुई तक के बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट 3 बरस पहले ही तैयार हो चुकी है। दरअसल 19 जुलाई 2011 में ही फ्रेंच रेल ट्रांसपोर्ट कंपनी ने 634 किलोमीटर की इस यात्रा को दो घंटे में पूरा करने की बात कही थी। और डीपीआर में 56 हजार करोड़ का बजट बताया गया था। जो उस वक्त 50 हजार करोडं में पूरा करने की संबावना जतायी गयी थी। लेकिन रेल मंत्री ने बजट में इसकी लागत 60 हजार करोड़ बतायी। दरअसल फ्रेंच कंपनी ने अहमदाबाद से मुंबई होते हुये पुणे के बीच तक बुलेट ट्रेन का सपान दिखाया था। और इसकी डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी तैयार है। इसी तर्ज पर दिसबंर 2012 में ही केरल में कसराडोह और थिरुअंनतपुरम के बीच बुलेट ट्रेन की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट सरकार को सौपी जा चुकी है । यानी देश में बुलेट ट्रेन को लेकर जो रोमांच है उसपर अभी तक अमल में लाने का बीडा मनमोहन सरकार ने क्यों नहीं उठाया जबकि खुले बाजार और उपभोक्ताओ के लिये मनमोहन से ज्यादा कसमें किसी ने नहीं खायीं। हो जो भी भारत का सच यही है कि हर सरकार रेलवे की तमाम समस्याओं के हल के लिए कड़े क़दम उठाने से हिचकिचाती रही हैं. जिसकी वजह से एशिया के सबसे पुराने रेल इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास नहीं हो सका ।
Monday, July 7, 2014
सरकार की नहीं, अपनी बदौलत जी रहा है किसान
किसान जिन्दा रहे या ना रहे यह आजादी के बाद से कभी किसी सरकार ने नहीं सोचा । फिर ऐसा क्या है कि मोदी सरकार के सामने सबसे बडा राजनीतिक संकट किसान ही हो चला है। नेहरु से लेकर मनमोहन सरकार तक की नीतियों तले किसान हाशिए पर ही ढकेले गये। फिर ऐसा क्या है कि मोदी सरकार हाशिये पर ढकेले गये किसानों का रोना पहले ही सत्र में रोने लगी है। बीते 67 बरस में जीडीपी में कृर्षि का योगदान लगातार कम होता चला गया लेकिन इसपर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया तो फिर ऐसा क्या है कि जिस खेती का योगदान जीडीपी में महज 13.7 फीसदी है, वह देश के बाकी 86.3 फीसदी के योगदान पर भारी पड़ रही है। तो पहली समझ तो यही है कि आजादी के वक्त जो खेती देश के जीडीपी में 66 फीसदी से ज्यादा योगदान देती थी वह घटते घटते मोदी के दौर में 13.7 फीसदी पर पहुंच गयी है। तो सवाल खेती और किसान जब किसी सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं रही है तो फिर ऐसा क्या है कि मानसून के कमजोर होने की खबर या फिर अनाज-सब्जियों की कीमत बढ़ने भर से सरकार ढोलने लगी है। क्योंकि इसी दौर में जीडीपी में सर्विस सेक्टर का योगदान 20 फीसदी से बढ़ते बढ़ते 67 फीसदी तक जा पहुंचा। यानी आजादी के वक्त जिस भूमिका में खेती थी आज की तारीख में उतनी ही पूंजी का योगदान सर्विस सेक्टर का है । तो फिर ऐसा क्या है कि किसानो को लेकर मोदी सरकार रोना रो रही है।
असल में जीडीपी में खेती का योगदान चाहे 13.7 फीसदी हो लेकिन आज भी देश की साठ फीसदी आबादी खेती के ही भरोसे जीवन जीती है। जबकि दूसरी तरफ सर्विस सेक्टर के जरीये चाहे ज्यादा मुनाफा बनाने की स्थित में हर सरकार रही हो लेकिन उस पर देश के महज 20 फिसदी जनसंख्या ही निर्भर है। तो क्या पहली बार मोदी सरकार यह समझा रही है कि खेती या किसान ही भारत का असल मर्म है या फिर किसानों की बात कर खेती के कॉरपोरेटीकरण की दिशा में मोदी सरकार कदम बढाने के लिये इतना रोना रो रही है। क्योंकि असल संकट नीतियों का है। सरकारी नीतियों से कोई इन्फ्रास्ट्रकचर कृषि के बनाया ही नहीं गया, जिसका असर यही हुआ कि खेती की ताकत कम की गयी और औघोगिक क्षेत्र में भी सरकार का ध्यान ना के बराबर रहा तो इसका असर यह हुआ कि बीते 50 बरस में औद्योगिक उत्पादन में सिर्फ 3 फीसदी की बढोतरी हुई। यानी हर सरकार के लिये विकास का रास्ता उस कमाई पर टिका जो विदेशी उत्पादों को भारत में लेकर आता या फिर भारत के कच्चे माले को कौड़ियों के मोल बाहर ले जाने का रास्ता खोलता। इस सर्विस की एवज में मिलने वाला कमीशन ही सरकारों के लिये विकास का ऑक्सीजन बन चुका है। ऐसे में याद कीजिये चुनाव प्रचार के दौर
में किसानों की जिन्दगी बेहतर बनाने के लिये नरेद्र मोदी क्या कह रहे थे। उनका साफ कहना था समर्थन मूल्य फसल की लागत से कही ज्यादा दिया जायेगा। यानी खेती करने में जो पैसा खर्च होता है उसे मिलाकर ज्यादा दिया जायेगा । यानी तब वादा किया गया तो अब पूरा होना चाहिये लेकिन किसानों को जो समर्थन मूल्य मिल रहा है और जिस तेजी से खेती करने में महंगाई बढ़ रही है उसमें अब भी पचास फीसदी से ज्यादा का अंतर है। तो फिर किसान करें क्या ।
सरकार मानती है कि बीज, खाद, सिंचाई से लेकर मजदूरी तक महंगी हुई है। खेत से मंडी तक के बीच बिचौलियों की भूमिका बढ़ी है। मंडी से गोदाम तक के बीच जमाखोरों की तादाद बढ़ी है। तो फिर सरकार करे क्या। क्योंकि मौजूदा वक्त में देश में 8 करोड़ किसान है तो 25 करोड़ खेत मजदूर है। यानी सिर्फ समर्थन मूल्य से काम नहीं चलेगा बल्कि खेती में सरकार को निवेश करना ही होगा। और देश का आलम यह है कि कि चौथी से 12वीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय का 1.3 फ़ीसद से भी कम कृषि में निवेश हुआ.। यानी जिस देश की 62 फिसदी आबादी खेती पर आश्रित हो। 50 से 52 फीसदी मजदूर खेत से ही जुड़े हों वहा सिर्फ 1.3 फिसदी खर्च से सरकार किसानों का क्या भला कर सकती है। उसका भी अंदरुनी सच यही है कि निजी निवेश को इसमें से निकाल दें तो राष्ट्रीय आय का सरकार सिर्फ 0.3 फीसदी ही निवेश कर रही है। यानी असल हकीकत है कि देश में जो भी हो रहा है वह किसान अपनी बदौलत कर रहा है ।
लेकिन अब बात मोदी सरकार की हो रही है तो उम्मीद यहकहकर लगा सकते है कि देस के पीएम एक गरीब परिवार में पैदा हुये है तो उनकी संवेदनशीलता ग्रामीण, किसान या कहे गरीब के प्रति बनी रहेगी । लेकिन सरकार के हाथ तो बंधे हैं। क्योंकि फुड सिक्योरटी बिल और सब्सिडी का आंकड़ा ही दो लाख करोड़ रुपये पार कर जाता है। तो खेती में निवेश सरकार बढ़ा नहीं सकती। इसके लिये तीन कदम उठाये जा सकते है। पहला -न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाज़ार मूल्य के बीच के अंतर को ख़त्म करना । दूसरा ,कृषि आधारित सभी चीज़ों पर से टैक्स हटाना और तीसरा कृषि रिटेल को देसी -विदेशी निवेश के लिये खोल देना। इसकी वकालत विश्व बैंक भी कर चुका है। लेकिन जिस देश में सरकार खेती के सिंचाई तक की व्यवस्था ना कर पायी हो और 67 फीसदी जमीन आज भी बारिश के पानी पर निर्भर होती हो । 21 फीसदी नदियों के पानी पर तो सरकार और किसान में तालमेल बैठता कहा है। उल्टे जैसे ही महंगाई और किसान का सवाल आता है वैसे ही जब सब कुछ आरोपों तले स्वाहा हो जाता हो तब कोई क्या करेगा। केन्द्र कहता है राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। अगर मोदी सरकार को भी लगता है कि खेती का मामला राज्य सरकार का मामला है तो फिर कृषि मंत्रालय की जरुरत क्या है। इस बंद कर देना चाहिये। क्योंकि यहां काम करने वाले सात हजार कर्मचारी तो कुछ करते ही नहीं है । और इसी कटघरे से देश की गरीबी निकलती है। जो तभी तेंदुलकर कमेटी तो कभी रंगराजन कमेठी तले आंकडों को मापती है कि देश में गरीबी कितनी कम हो गयी है । और विकास का पैमाना जीडीपी के आंकड़े पर आकर रुक जाता है । तो शायद संकट यही है कि चर्चा के लिये किसान और गरीबी है। नीतियों के लिये विकास दर और बुलेट ट्रेन से लेकर चकाचौंध इन्फ्रास्ट्रक्चर है।
असल में जीडीपी में खेती का योगदान चाहे 13.7 फीसदी हो लेकिन आज भी देश की साठ फीसदी आबादी खेती के ही भरोसे जीवन जीती है। जबकि दूसरी तरफ सर्विस सेक्टर के जरीये चाहे ज्यादा मुनाफा बनाने की स्थित में हर सरकार रही हो लेकिन उस पर देश के महज 20 फिसदी जनसंख्या ही निर्भर है। तो क्या पहली बार मोदी सरकार यह समझा रही है कि खेती या किसान ही भारत का असल मर्म है या फिर किसानों की बात कर खेती के कॉरपोरेटीकरण की दिशा में मोदी सरकार कदम बढाने के लिये इतना रोना रो रही है। क्योंकि असल संकट नीतियों का है। सरकारी नीतियों से कोई इन्फ्रास्ट्रकचर कृषि के बनाया ही नहीं गया, जिसका असर यही हुआ कि खेती की ताकत कम की गयी और औघोगिक क्षेत्र में भी सरकार का ध्यान ना के बराबर रहा तो इसका असर यह हुआ कि बीते 50 बरस में औद्योगिक उत्पादन में सिर्फ 3 फीसदी की बढोतरी हुई। यानी हर सरकार के लिये विकास का रास्ता उस कमाई पर टिका जो विदेशी उत्पादों को भारत में लेकर आता या फिर भारत के कच्चे माले को कौड़ियों के मोल बाहर ले जाने का रास्ता खोलता। इस सर्विस की एवज में मिलने वाला कमीशन ही सरकारों के लिये विकास का ऑक्सीजन बन चुका है। ऐसे में याद कीजिये चुनाव प्रचार के दौर
में किसानों की जिन्दगी बेहतर बनाने के लिये नरेद्र मोदी क्या कह रहे थे। उनका साफ कहना था समर्थन मूल्य फसल की लागत से कही ज्यादा दिया जायेगा। यानी खेती करने में जो पैसा खर्च होता है उसे मिलाकर ज्यादा दिया जायेगा । यानी तब वादा किया गया तो अब पूरा होना चाहिये लेकिन किसानों को जो समर्थन मूल्य मिल रहा है और जिस तेजी से खेती करने में महंगाई बढ़ रही है उसमें अब भी पचास फीसदी से ज्यादा का अंतर है। तो फिर किसान करें क्या ।
सरकार मानती है कि बीज, खाद, सिंचाई से लेकर मजदूरी तक महंगी हुई है। खेत से मंडी तक के बीच बिचौलियों की भूमिका बढ़ी है। मंडी से गोदाम तक के बीच जमाखोरों की तादाद बढ़ी है। तो फिर सरकार करे क्या। क्योंकि मौजूदा वक्त में देश में 8 करोड़ किसान है तो 25 करोड़ खेत मजदूर है। यानी सिर्फ समर्थन मूल्य से काम नहीं चलेगा बल्कि खेती में सरकार को निवेश करना ही होगा। और देश का आलम यह है कि कि चौथी से 12वीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय का 1.3 फ़ीसद से भी कम कृषि में निवेश हुआ.। यानी जिस देश की 62 फिसदी आबादी खेती पर आश्रित हो। 50 से 52 फीसदी मजदूर खेत से ही जुड़े हों वहा सिर्फ 1.3 फिसदी खर्च से सरकार किसानों का क्या भला कर सकती है। उसका भी अंदरुनी सच यही है कि निजी निवेश को इसमें से निकाल दें तो राष्ट्रीय आय का सरकार सिर्फ 0.3 फीसदी ही निवेश कर रही है। यानी असल हकीकत है कि देश में जो भी हो रहा है वह किसान अपनी बदौलत कर रहा है ।
लेकिन अब बात मोदी सरकार की हो रही है तो उम्मीद यहकहकर लगा सकते है कि देस के पीएम एक गरीब परिवार में पैदा हुये है तो उनकी संवेदनशीलता ग्रामीण, किसान या कहे गरीब के प्रति बनी रहेगी । लेकिन सरकार के हाथ तो बंधे हैं। क्योंकि फुड सिक्योरटी बिल और सब्सिडी का आंकड़ा ही दो लाख करोड़ रुपये पार कर जाता है। तो खेती में निवेश सरकार बढ़ा नहीं सकती। इसके लिये तीन कदम उठाये जा सकते है। पहला -न्यूनतम समर्थन मूल्य और बाज़ार मूल्य के बीच के अंतर को ख़त्म करना । दूसरा ,कृषि आधारित सभी चीज़ों पर से टैक्स हटाना और तीसरा कृषि रिटेल को देसी -विदेशी निवेश के लिये खोल देना। इसकी वकालत विश्व बैंक भी कर चुका है। लेकिन जिस देश में सरकार खेती के सिंचाई तक की व्यवस्था ना कर पायी हो और 67 फीसदी जमीन आज भी बारिश के पानी पर निर्भर होती हो । 21 फीसदी नदियों के पानी पर तो सरकार और किसान में तालमेल बैठता कहा है। उल्टे जैसे ही महंगाई और किसान का सवाल आता है वैसे ही जब सब कुछ आरोपों तले स्वाहा हो जाता हो तब कोई क्या करेगा। केन्द्र कहता है राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। अगर मोदी सरकार को भी लगता है कि खेती का मामला राज्य सरकार का मामला है तो फिर कृषि मंत्रालय की जरुरत क्या है। इस बंद कर देना चाहिये। क्योंकि यहां काम करने वाले सात हजार कर्मचारी तो कुछ करते ही नहीं है । और इसी कटघरे से देश की गरीबी निकलती है। जो तभी तेंदुलकर कमेटी तो कभी रंगराजन कमेठी तले आंकडों को मापती है कि देश में गरीबी कितनी कम हो गयी है । और विकास का पैमाना जीडीपी के आंकड़े पर आकर रुक जाता है । तो शायद संकट यही है कि चर्चा के लिये किसान और गरीबी है। नीतियों के लिये विकास दर और बुलेट ट्रेन से लेकर चकाचौंध इन्फ्रास्ट्रक्चर है।