जिस खामोशी से अमित शाह बीजेपी हेडक्वार्टर में बतौर अध्यक्ष होकर घुसे हैं उसने पोटली और ब्रीफकेस के आसरे राजनीति करने वालो की नींद उडा दी है। अध्यक्ष बनने के बाद भी खामोशी और खामोशी के साथ राज्यवार बीजेपी अध्यक्षों को बदलने की कवायद अमित शाह का पहला सियासी मंत्र है। इतना ही नहीं बीजेपी मुख्यालय के छोटे छोटे कमरो में कुर्सी पकड़े नेताओं की कुर्सी भी डिगेगी और समूचे संगठन को भी फेंटा जायेगा। इसीलिये नरेन्द्र मोदी के असल सिपहसलाहर अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया है। असल में आरएसएस और मोदी के टारेगट बेहद साफ हैं। बीते दस बरस में बीजेपी भोथरी हुई और दिल्ली का राजनीति ने जब हिन्दुत्व को आतंकवाद से जोड़ा तो भी दिल्ली के कद्दावर बीजेपी नेताओ की खुमारी नहीं टूटी। ऐसे में टारगेट साधने के लिये बीजेपी संगठन को पैना बनाना जरुरी है, क्योंकि विस्तार संघ का करना है। यह छोटे छोटे संवाद दिल्ली के झंडेवालान से लेकर नागपुर के महाल तक के हैं।
जहां स्वंयसेवकों को मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह लगने लगा है कि संघ का ढांचा कही ज्यादा प्रभावी तरीके से राजनीति को साध सकता है । ऐसे में स्वयंसेवक अगर देश भर में बीजेपी की सत्ता बनाने के लिये राज्यवार भी निकले तो फिर बीजेपी अपने बूते हर जगह सरकार क्यों नहीं बना सकती है। इसलिये संघ के तीन मंत्र अब बीजेपी में नजर आने वाले हैं। पहला , हर राज्य में बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बदला जायेगा। इसमे गुजरात के प्रदेश अध्यक्ष आरसी फलदू भी होंगे। दूसरा, संघ की शाखाओं से जिसका वास्ता रहा है या फिर एवीबीपी के जरीये जिसने राजनीति का ककहरा पढ़ा है, उसे नंबर एक और नंबर दो के तहत महत्व दिया जायेगा। और इन्हें ही प्रदेश अध्यक्ष बनाया जायेगा। तीसरा जो भी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी की कीमत लगाते रहे हैं या फिर गठबंधन की राजनीति के जरीये बीजेपी को सत्ता में लाने का सपना परोसते रहे हैं, उन्हे दरकिनार किया जायेगा । संघ परिवार के भीतर बड़ा सवाल यह भी है कि स्वयंसेवक राजनीतिक प्रचार के जरीये बीजेपी के लिये तो राजनीतिक जमीन बना सकता है लेकिन गठबंधन के दलों को इससे लाभ क्यों मिलना चाहिये। इसलिये अमित शाह का टारगेट बीजेपी को अपने बूते खड़ा करने का है । यानी महाराष्ट्र , हरियाणा और झारखंड में बीजेपी अपने बूते जीत कैसे मिले। संयोग से तीनों ही राज्यों में बीजेपी के पास ऐसा कोई नेता नहीं है जिसके पीछे समूची पार्टी चलने को तैयार हो। और दूसरा संकट है कि तीनों राज्य में बीजेपी के कार्यकर्ता अपने ही नेताओ को लेकर बंटे हुये हैं। और तीसरा संकट है कि बीजेपी विरासत की जिस राजनीति का विरोध करती है उसी विरासत की राजनीतिक डोर को बीजेपी के सहयोगी दल थामे हुये है। यानी संघ परिवार राजनीतिक तौर पर यह सोचने लगा है कि बीजेपी को मथा जाये तो एक आदर्श राजनीति खड़ी की जा सकती है। लेकिन इसके लिये मथने वाले को राजनीतिक तौर पर ईमानदारी बरतनी होगी। किसी को राजनीतिक मुनाफा देने से बचना होगा। पद को बेचने खरीदने का सिलसिला खत्म करना होगा । यानी संघ जिस प्रयोग को नीतिन गडकरी के जरीये अंजाम तक पहुंचाना चाहता था अब उसे अमित शाह अंजाम देंगे। याद किजिये तो गडकरी दिल्ली के नहीं थे, अमित शाह भी नहीं है । गडकरी संघ की शाखा से निकले। अमित शाह भी शाखा से ही निकले। गडकरी को-ओपरेटिव से लेकर कारपोरेट तक को जानने समझने वाले बिजनेस मैन भी रहे। अमित शाह ने भी केशुभाई के दौर में गुजरात वित्त कारपोरेशन के जरीये जिस तरह राजनीति को साधा वह अपने आप में कमाल का हुनर था और इस हुनर को मोदी ने बतौर जोहरी गुजरात का मुख्यमंत्री बनने केबाद परखा भी। संघ ने भी इस सच को बारीकी से परखा। दरअसल इन परिस्थितियों तक पहुंचने के लिये नरेन्द्र मोदी की राजनीतिक जीत ने आक्सीजन का काम किया है। मोदी की जीत से पहले संघ को सिर्फ यही लगता रहा कि दिल्ली की राजनीति से बीजेपी को मुक्त करने के लिये नरेन्द्र मोदी को हथियार बनाया जा सकता है। और उसने बनाया भी । लेकिन जिस तरह मोदी के पक्ष में जनादेश आया उसने संघ परिवार के भीतर नये सवाल को जन्म दिया कि अगर दिल्ली की सत्ता साधी जा सकती है, तो फिर हर राज्य में बीजेपी अपने बूते सरकार क्यों नहीं बना सकती। और तो और पश्चिम बंगाल और जम्मू-कश्मीर तक को साधने की सोच इसी दौर में संघ के भीतर जागी है। इसलिये पहली बार संघ भी यह मान रहा है कि धारा 370 और कश्मीरी पंडितों का मुद्दा सामाजिक तौर पर उठाने से पहले राजनीतिक तौर पर उठाना जरुरी है। इसी तरह वाम धारा के खत्म होने के बाद ममता बनर्जी की राजनीति को मुस्लिम तुष्टीकरण से जोड़ कर साधने की जरुरत है। ध्यान दें तो मोदी सरकार ने राज्यो की राजनीति में सेंध लगाने के लिये अपने नजरिये को मुद्दो को उठाना शुरु कर भी दिया है। लेकिन इन मुद्दो पर संघ के स्वयंसेवकों से पहले बीजेपी के कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ना होगा। फिर बीजेपी का कार्यकर्ता तभी आगे बढेगा जब उसे अपने नेता पर भरोसा हो। जो बीते दिनो में डगमडाया है, इसे संघ ने अपने मंथन शिविर में बार बार माना है। यानी जिस तरह मोदी और बीजेपी चुनाव प्रचार में ही नहीं बल्कि सत्ता संभालने के बाद भी दो धाराओं की तरह दिखायी दे रहे है उसी तर्ज पर अमित शाह भी बीजेपी के पारंपरिक तौर तरीकों से अलग दिखायी देंगे, यह माना जा रहा है। असर इसी का है कि दिल्ली में बीजेपी हेडक्वार्टर में अमित शाह की दस्तक बेहद खामोशी से हुई। जबकि डेड बरस पहले 23 जनवरी 2103 को याद कीजिये तो जश्न के बीच राजनाथ की ताजपोश हुई थी । और अभी तक बीजेपी में परंपरा रही है कि अध्यक्ष बनने के तुरंत बाद कार्यकर्ताओ को मीडिया के जरीये हर अध्यक्ष संबोधित करते भी रहा है।
लेकिन पहली बार नये अध्यक्ष अमित शाह कुछ नहीं बोले । पूरा दिन खामोश रहे । छिट-पुट, या कहे बिखरे , अलग थलग रहने वाले कार्यकर्ताओं ने हेडक्वार्टर के भीतर बाहर पटाखे छोड़े। लेकिन बीजेपी हेडक्वार्टर के 35 कमरों में से किसी कमरे के कोई पदाघिकारी उत्साह में झूमते नजर नहीं आये। झटके में बीजेपी मुख्यलय के भीतर संघ और बीजेपी के साहित्य या कहे प्रचार प्रसार की सामग्री बेचने वाली दुकान से अमित शाह की तस्वीर कार्यकर्ता खरीदने लगे. और शाम ढलते ढलते अमित शाह की तस्वीरे भी खत्म हो गयी । नये तस्वीरों के आर्डर दे दिये गये। लेकिन पहली बार बीजेपी हेडक्वाटर में यह आवाज भी सुनायी दी कि हिन्दी पट्टी में अब कार्यकर्ताओं के दिन लौटेंगे। क्योंकि यूपी में अमित शाह ने जब कद्दावरों को दरकिनार कर हर समीकरण को उलट दिया तो फिर आने वाले दिनो में कद्दवर होने का तमगा लगाकर सेटिंग करने वाले नेता अब गायब हो जायेंगे। यानी पहली बार जो नेता अदालत के दायरे में दागदार है। जिसपर गंभीर आरोप उसके अपने प्रदेश में लगे । और मामलों की जांच भी चल रही है उसी के जरीये बीजेपी की सफाई संघ परिवार ने देखी है । वैसे सच यह भी है कि संघ बीजेपी में जमी भ्रष्टाचार और कामचोरी की काई को घोना चाहता है और इसके लिये वह हर राजनीतिक प्रयोग करने को तैयार है। क्योंकि पहली बार संघ ने मनमोहन सरकार के दौर में अपने आस्तितव को खतरे में देखा। जब सरसंघचालक से लेकर इन्द्रेश कुमार समेत दर्जनो स्वयंसेवकों को आंतक के कटघरे में खड़ा किया गया। तो लोहा लोहे को काटता है । कुछ इसी अंदाज में संघ का यह राजनीतिक शुद्दीकरण मिशन है। जिसकी एक बिसात पर मोदी सबकुछ है तो दूसरी बिसात पर मोदी के वजीर अमित शाह सबकुछ है ।
मुझे याद है कि जब सब केवल मोदी तक जाकर अटके थे तब आप उससे आगे अमित शाह को राष्ट्रिय अध्यक्ष के रूप में देख रहे थे जिसपे आपका ब्लॉग भी है।
ReplyDeleteरजनीश सैनी देहरादून
चाटुकारों के भरोसे चलने वाले गाँधी परिवार की साज़िश तो यह थी की संघ परिवार को हिन्दू आतंकवाद के फर्जी आरोपों में फंसा कर प्रतिबंधित कर दिया जाये जिससे भाजपा की रीढ़ ही टूट जाये। लेकिन दिग्विजय सिंह, शिंदे और जयराम रमेश जैसे चाटुकार जिनका खुद का कोई जनाधार बचा ही नहीं है और जो अब पंचायत चुनाव जीतने की हैसियत भी नहीं रखते, उनको ये पता ही नहीं था की जनता के मन में क्या है। वास्तव में अब अगर कांग्रेस अगले 20 साल में भी खड़ी हो पाए तो उसको चमत्कार समझिये, भारत में चाटुकार-वाद ख़त्म और राष्ट्रवाद चालू हो चुका है।
ReplyDeleteAccha vishleshan.
ReplyDeleteBaat samajhne yogya hai.
namaskar!
जनाधार हैं कैसा सिर्फ और सिर्फ सवा करोड में लगभग तीस प्रतिशत वोट को लेकर इतनी हवाईया अमित शाह भी नरेद जैसा चमत्कारी बनाने का प्रयास मात्र हैं चुनाव के दौरान कि गई तमाम हवा हवाई अब नीतिगत फॅसलो में चेहरे कि हवाईया उडा रही हैं ......दरअसल राष्ट्रवाद के मायने सिर्फ नागपुर नही हैं ..........
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