Friday, November 28, 2014
क्या 16 मई के बाद मीडिया बदल गया?
16 मई 2014 की तारीख के बाद क्या भारतीय मीडिया पूंजी और खौफ तले दफ्न हो गया। यह सवाल सीधा है लेकिन इसका जवाब किश्तों में है। मसलन कांग्रेस की एकाकी सत्ता के तीस बरस बाद जैसे ही नरेन्द्र मोदी की एकाकी सत्ता जनादेश से निकली वैसे ही मीडिया हतप्रभ हो गया। क्योंकि तीस बरस के दौर में दिल्ली में सडा गला लोकतंत्र था। जो वोट पाने के बाद सत्ता में बने रहने के लिये बिना रीढ़ के होने और दिखने को ही सफल करार देता था। इस लोकतंत्र ने किसी को आरक्षण की सुविधा दिया। इस लोकतंत्र ने किसी में हिन्दुत्व का राग जगाया । इस लोकतंत्र में कोई तबका सत्ता का पसंदीदा हो गया तो किसी ने पसंदीदा तबके की आजादी पर ही सवालिया निशान लगाया। इसी लोकतंत्र ने कारपोरेट को लूट के हर हथियार दे दिये। इसी लोकतंत्र ने मीडिया को भी दलाल बना दिया। पूंजी और मुनाफा इसी लोकतंत्र की सबसे पसंदीदा तालिम हो गयी। इसी लोकतंत्र में पीने के पानी से लेकर पढ़ाई और इलाज से लेकर नौकरी तक से जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया। इसी लोकतंत्र ने नागरिकों को नागरिक से उपभोक्ता बने तबके के सामने गुलाम बना दिया।
इस लोकतंत्र पर पत्रकारों की कलम भी चली और कलम भी बिकी। पत्रकारिता मीडिया घरानों में बदली। मीडिया घराने ताकतवर हुये तो झटके में सत्ता साधने की राजनीति और कारपोरेट के मुनाफे के बीच पत्रकारिता झूली भी और हमला करने से भी नहीं चूकी। लगा मीडिया धारदार हो रही है क्योंकि संसदीय सत्ता अपने अंतर्रविरोध में इतनी खो गयी कि घोटाले और राजस्व की लूट देश का सिस्टम बन गया। सरकारी नीतिया लूटने के रास्ते खोलने के लिये बनने लगी। हर संस्थान ने लूटा। भागेदारी मीडिया में भी हुई। कामनवेल्थ गेम्स से लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम और बेल्लारी से झारखंड तक में खनन संपदा की लूट से लेकर कोयला खानों के बंदरबाट का खुला खेल पॉलिसी के तहत खेला गया जिसमें मीडिया संस्थानों की भागेदारी भी सामने आयी। लेकिन पत्रकारिता ने इन मुद्दों को उठाया भी और भ्रष्ट होती सियासत को आईना भी दिखाया। और तो और कमजोर होती राजनीतिक सत्ता को कारपोरेट ने गवर्नेंस का पाठ भी पढ़ाने का खुला प्रयास 2011-12 के दौर में देश के पीएम मनमोहन सिंह को चार बार पत्र लिखकर किया । ऐसे मोड़ पर लोकसभा चुनाव के जनादेश ने उस मीडिया को सकते में ला दिया जिसके सामने बीते तीस बरस के संसदीय राजनीतिक सत्ता के अंतर्विरोध में काफी कुछ पाना था और काफी कुछ गंवाना भी था। क्योंकि इस दौर में कई पत्रकार मीडिया घरानो में हिस्सेदार बन गये और मीडिया घरानों के कई हिस्सेदार पत्रकार बन गये। ध्यान दें तो मीडिया का विकास जिस तेजी से तकनीकी माध्यमों को जरिये इस दौर में होता चला गया उसके सामने वह सियासी राजनीति भी छोटी पड़ने लगी जो आम लोगों के एक एक वोट से सत्ता पाती । क्योंकि झटके में वोट की ताकत को डिगाने के लिये मीडिया एक ऐसे दोधारी हथियार के तौर पर उभरा जिसमें सत्ता दिलाना और सत्ता से बेदखल कराने की भूमिका निभाना सौदेबाजी का सियासी खेल बना दिया गया। तो दाग दोनों जगह
लगे। राजनेता दागदार दिखे। मीडिया घराने मुनाफा कमाने के धंधेबाज दिखे । नेता के लिये वोट डालने वाले वोटर हो या मीडिया के पाठक या व्यूवर। इस सच को जाना समझा सभी ने। लेकिन विकल्प की खोज की ताकत ना तो मीडिया या कहे पत्रकारों के पास रही ना ईमानदार नेताओ के पास। ऐसे में १६ मई के जनादेश से पहले चुनावी बिसात पर मीडिया वजीर से कैसे प्यादा बना यह प्रचार के चुनावी तंत्र में पैसे के खेल ने आसानी से बता दिया। लेकिन यह खेल तो चुनावी राजनीति में हमेशा खेला जाता रहा है। हर बार की तरह 2014 में भी यही खेल खेला जा रहा है माना यही गया।
लेकिन यह किसी को समझ नहीं आया कि जो पूंजी चुनावी राजनीति के जरीये लोकतंत्र के चौथे खम्भे को कुंद कर सकती है। जो पूंजी हर सत्ता या संस्थानों के सामने विकल्प बनाने के लिये बेहतरीन हथियार बन सकती है वही पूंजी लोकतंत्र जनादेश के साथ खड़े होकर लोकतंत्र को अपनी जरुरत के हिसाब से क्यों नहीं चला सकती। दरअसल 16 मई के जनादेश के बाद पहली बार मीडिया का वह अंतर्रविरोध खुल कर सामने आया जिसने राजनीति के अंतर्विरोध को छुपा दिया। यानी सियासी राजनीति के जिस खेल में देश की सत्ता बीते 30 बरस में भ्रष्ट होती चली गयी और मीडिया ने अपने अंतर्विरोध छुपा कर राजनीति के अंतर्विरोध को ही उभारा। वही राजनीति जब जनादेश के साथ सत्ता में आयी तो संकट मीडिया के सामने आया कि अब सत्ताधारियों की गुलामी कर अपनी साख बनाये या सत्ताधारियों पर निगरानी रख अपनी रिपोर्टों से जनता को समझाये कि राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ नहीं होती है। लेकिन इसके लिये पत्रकारीय ताकत का होना जरुरी है और पत्रकारिता ही जब मीडिया घरानो की चौखट पर सत्ताधारियों के लिये पायदान में बदल जाये तो रास्ता जायेगा किधर। यानी पत्रकारीय पायदान की जरुर मीडिया घरानों को सत्ता के लिये पडी तो सत्ता को पत्रकारीय पायदान की जरुरत अपनी अंखड सत्ता को दिखाने-बताने या प्रचार के लिये पड़ी। इस पत्रकारीय पायदान की जरुरत ने इसकी कीमत भी बढ़ा दी। और सत्ता से निकट जाने के लिये पायदान पर कब्जा करने की मुहिम कारपोरेट कल्चर का हिस्सा बनने लगी। इसीलिये 16 मई के जनादेश ने हर उस परिभाषा को बदला जो बीते 30
बरस के दौर में गढ़ी गई। पत्राकरीय स्वतंत्रता का पैमाना बदला । मीडिया घराने चलाने के लिये पूंजी बनाने के तरीके बदले। सत्ता और मीडिया के बीच पाठक या व्यूवर की सोच को बदला। झटके में उस तबके का गुस्सा मीडिया का साथ छोड सत्ता के साथ जा खड़ा हुआ जो बीते ३० बरस से नैतिकता का पाठ मीडिया से पढ़ रहा ता लेकिन मीडिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिये उसके पास कोई हथियार नहीं था। ऐसे में जिस तरह 16 मई के जनादेश ने राजनीतिक सत्ता के उस दाग को छुपा दिया जो भ्रष्ट और आपराधिक होती राजनीति को लेकर देश का सच बन चुका है। उसी तरह गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता और सोशल मीडिया की जिम्मेदारी विहिन पत्रकारिता का दाग भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तले दब गया। तीन बड़े बदलाव खुकर सामने आये। पहला जनादेश के सामने कोई तर्क मायने नहीं रखता है। दूसरा राजनीतिक सत्ता की ताकत के आगे लोकतंत्र का हर पाया विकलांग है। और तीसरा विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण गवर्नेंस है। यानी जो पत्रकारिता लगातार विकल्प की तलाश में वैचारिक तौर पर देश को खड़ा करने के हालात पैदा करती है उसे खुद सियासी सत्ता की लड़ाई लडनी होगी बिना इसके कोई रास्ता देश में नहीं है।
यह हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अंदाजा 16 मई के बाद सत्ता में आयी बीजेपी के नये अध्यक्ष बने अमित शाह के इस अंदाज से समझा जा सकता है कि जब महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन बचेगा या नहीं इसके कयास लगाये जा रहे थे तब आरएसएस के शिवसेना के साथ गठबंधन बनाये रखने की खबर से अपनी सियासी सौदेबाजी का दांव कमजोर पड़ने पर बीजेपी अध्यक्ष खबर देने वाले रिपोर्टर को फोन पर यह धमकी देने से नहीं चूकते हैं कि यह खबर वापस ले लो या फिर इसका अगले दिन इसके लिये भुगतने को तैयार हो जाओ। इतना ही नहीं खबर को राजनीति का हिस्सा बताकर राजनीति के मैदान में आकर हाथ आजमाने का सुझाव भी दिया जाता है। यानी धमकी तो पत्रकारों को मिलती रही है लेकिन कारपोरेट की छांव में मीडिया और पत्रकारिता को पायदान बनाने के बाद राजनीतिक सत्ता का पहला संदेश यही है कि चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाओ तो ही आपकी बात सही है। तो क्या 16 मई के बाद देश की हवा में यहसे बड़ा परिवर्तन यह भी आ गया है कि ढहते हुये सस्थानों को खड़ा करने की जगह मरता हुआ बता कर उसे विकल्प करार दिया जा सकता है। यहां कोई भी यह सवाल खड़ा कर सकता है कि मीडिया को दबाकर सियासत कैसे हो सकती है। लेकिन समझना यह भी होगा कि पहली बार मीडिया को दबाने या ना दबाने से आगे की बहस हो रही है। सीबीआई, सीवीसी, कैग, चुनाव आयोग, जजों की नियुक्ति सरीखे दर्जेनों संस्थान है जिनके दामन पर दाग 16 मई से पहले चुनाव प्रचार के दौर में बार बार लगाया गया। मीडिया भी दागदार है यह आवाज भी मीडिया ट्रेडर के तौर उठायी गयी। यानी जिस राजनीति के भ्रष्ट और आपराधिक होने तक का जिक्र १९९२-९३ में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में किया गया और संसद के भीतर पहुंचने वाले दागदारों की कतार में कोई कमी १६ मई २०१४ के जनादेश के बाद भी नहीं आयी उस राजनीतिक सत्ता की चौखट पर इस दौर में हर संस्था बेमानी
करार दे दी गयी। तो सवाल कई हैं।
पहला लोकतंत्र का मतलब अब चुनाव जीत कर साबित करना हो चला है कि वह ठीक है। यानी पत्रकार, वकील, टीचर, समाजसेवी या कोई भी जो चुनाव लडना नहीं चाहता है और अपने नजरिये से अपनी बात कहता है, उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि सत्ता के पास बहुमत का जनादेश है । दूसरा, संवैधानिक सत्ता के लिये बहुमत का मतलब जब कइयों के संघर्ष में जीतना भर है तो बाकि विरोध करने वाले चाहे अलग अलग हो लेकिन वह संख्याबल में ज्यादा हो तो फिर उनका कोई हक नहीं बनता है। यह सवाल राजनीतिक सत्ता के संघर्ष को लेकर भी है जहा सत्ताधारी को इस बार 31 फीसदी वोट मिले है और यह सवाल पत्रकारों को लेकर भी है जो पत्रकारिता तो करते हैं और उनकी तादाद भी मीडिया हाउस में काम करने वालों से ज्यादा है लेकिन वह उनकी पत्राकरिता को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा और उन्हें भी उसी कटघरे में खड़ा किया जायेगा, जहां पत्रकार पायदान बना दिया जा रहा है। और इसके सामानांतर तकनीकी विकास को ही विकल्प बनाने का प्रयास होगा चाहे देश की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक स्थिति उसके अनुकुल ना हो। यानी मौसम बिगड़े । रोजगार ना मिले । चंद हथेलियो पर ही सारा मुनाफा सिमटे । समाज में खाई और ज्यादा बढ़े। विकास की तकनीकि धारा गांव को खत्म कर दे। विकास के नाम पर उपभोक्ताओं का समूह बनाये रखने या उसे बढ़ाने पर जोर हो। और यह सब होते हुये, देखते हुये पत्रकारिता सरकारो का गुणगान करें और इसे सकारात्मक पत्रकारिता मान लिया जाये। तो फिर 16 मई से पहले और 16 मई के बाद पत्रकारिता कैसे और कितनी बदली है इसका एहसास भी कहां होगा।
बेहतरीन लेख, ऐसा लेख लिखने की उम्मीद आज के दौर में आप से ही थी। जिस सच को जानते हुए भी कोई कहना नहीं चाह रहा था वो अपने यहाँ खुलकर लिखा है। मरती पत्रकारिता को जगाने का प्रयास करने के लिए शुक्रिया। पंडित जी
ReplyDeleteOne living reporter from all dead one...
ReplyDeleteOne living reporter from all dead one...
ReplyDeleteAlso Ravish Kumar.... He is the best, do watch prime time 9 pm on NDTV everyday.... Ravish kumar.... This man is metal....
Deletenice sir ji baat mein dam hai.....
ReplyDeleteDil ki bat..
ReplyDeleteKrantikaari
ReplyDeleteAt least you are an honest journalist... good one sir..
ReplyDeleteबिलकुल सहमत !
ReplyDeleteसवाल ये है की पत्रकारीय मर्यादा को बचाने के लिए शुरुआत कहा से हो और इसकी अगुवाई कौन करे ? सच ये है की पत्रकारों की विश्वनीयता भी संदेह के घेरे में है !
It's excellent! Truth!
ReplyDeletekrantikari bahut hi krantikari ....!!!
ReplyDeleteअद्भुद..............क्रांतिकारी !!!
ReplyDeletewhen u was taking AK interview we saw your views as well sir , what the meaning of kraantikaari bahut krantikaari ???
ReplyDeleteIt was a gr8 revolutionary thing which they had planned to discuss, which every interviever does.
Deletewhen there will be a reduction in govt jobs
ReplyDeleteAppreciable..
ReplyDeleteBeing a journalist it's very difficult to criticise media...But you darelly did it..Amazing..
ReplyDeleteU need to keep it going sir... Hamara Desh iss samay bilkul bhi sahi me nahi ja raha ..Or literly mene bahut saare news chennel dekhane band kar diye hain
ReplyDeletewhat will you justify your interview with arvind kejriwal..which was leaked..
ReplyDeleteसराहनीय
ReplyDeleteGood job sir.....
ReplyDeleteAb aap hame btatenge ki kaun sahi hai jo interview fix karta h.......
ReplyDeleteU r vey right sir....
ReplyDeletejournos like u r a rarity....plz keep on doing ur job..
ReplyDeleteInsightful, courageous! In ur view ia this a reversible trend now that institutions are being weakened? Or will this do to india what rajapakshe has done to lanka, or zia did to pak in a different way (in a religiousity sense).. ?
ReplyDeleteAjtak to sirf Modi Ji ke gungan karne ke alaba aur koi smachar nahi dikhata. To aap kuch karenge.
ReplyDelete16मई के बाद अगर कुछ बदला है तो वो है,बड़े बिज़नस घरानों की दादागीरी,जो मन में आये करो,जितना मन में आये दाम बढ़ाओ,कोई कुछ कहने वाला नहीं है,शायद यह करने की छूट है सरकार की तरफ से मिली हुई है,इसका उदाहरण है हमारा लेख 'लंगड़ी चींटी जैसी चाल का मारा भारतीय इन्टरनेट उपभोक्ता बेचारा'.www.kcsir.blogspot.in
ReplyDelete.ak baat jis par apki raay
ReplyDelete.bharat mai terrisiom ko vote se tola jaye ,
Muslim heet ki baat kre voh secular orhindu heet wala communal
Media ki tariff kre voh hero or jo interview ko cuting kre or news traders kahe jaye toh jalan
.
Aan janta k liye sahi kya h
Hamberkalyan@gmail.com
Guys.... Ravish Kumar is also a gud one.... He is the best, do watch prime time 9 pm on NDTV everyday.... Ravish kumar.... This man is metal....
ReplyDeleteAap bhi change ho rahe hain kya
ReplyDeleteMedia ko aur jimmedar banna chahiye
ReplyDeletePunyaprasoon ji aap ne jikra nahin kiya ki aap ke vyavhsr me kya change hua hai
ReplyDeletewe do expect only frm u..pandit ji....
ReplyDeleteआपके इस लेख को पढ़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर आया हूँ की जल्द ही दिल्ली में विधानसभा के चुनाव है,केजरीवाल जी का सपोर्ट तो आपको है ही,तो आशुतोष की तर्ज पर आप क्यों पीछे रहे???
ReplyDeleteअच्छा निर्णय है आपका।
पत्रकारिता को आइना दिखाता ये सच....पर आपको टीवी पर्दे से अलग उन पत्रकारों की दयनीय स्थिती को व्यक्त करने से चूक गए, जिसका जिक्र आपने किया तो, पर न के बराबर। हकीकत तो ये है, कि आप खुद ही, जिस संस्था में है वहां पर्दे के पीछे बैठे पत्रकार अब ये सोचने पर मजबूर हो रहे है कि काश़ हम पत्रकारिता में न आकर इतनी ही मेहनत कर जूता फैक्ट्री में करते तो कम से कम सुपरवाईजर तो होते...क्योंकि आज सत्ताधारी बीजेपी कि जिस बादशाहत की ओर आप इशारा कर रहे है, वैसे ही बादशाहत मीडिया संस्थानो में बदस्हैतूर जारी है...और सब चुप है, हकीकत तो ये है कि उनके सामने सब बेमानी है...काश आप जैसे उसूली पत्रकार कभी उनकी भी हकीकत को पर्दे पर आंकने की कोशिश तो करते है, तो अच्छा होता, उम्मीद आप से अब भी है.....
ReplyDeleteman ki bat dil se sar ji
ReplyDeleteबेहतरीन सरजी। मेरे जैसे कई नौ जवानो ने आपसे पहले भी इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठाने का अनुरोध किया है।
ReplyDelete100% agree on your analysis
ReplyDeletekrantikari bahut hi krantikari
ReplyDeleteITS GOOD YOU HAVE RAISED YOUR VOICE. ELSE MANY IDEAS AND EFFORTS DIES PREMATURELY AS THERE IS NO ONE TO TAKE IT FORWARD. BUT YOU WILL AGREE WITH MY READING THAT "WE INDIANS ARE SLOW LEARNERS , BUT VERY FAST FORGETTERS!". NEED OF REALIZING THE FACT AND RAISING IT IS BADLY AND URGENTLY REQUIRED ELSE TRUTH WILL PERISH!!
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लेख है लेकिन अब आपको भी अमित शाह का फ़ोन न आ जाये ध्यान रखियेगा।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लेख है लेकिन अब आपको भी अमित शाह का फ़ोन न आ जाये ध्यान रखियेगा।
ReplyDeleteलम्बे लम्बे वाक्य और लछेदार बतों के चक्कर मैं बाजपेयी जी के हाथ से बात का सिरा ही फिसल जाता है.. यही कमी आपके लेखन मे है और यही कमी आपकी anchoring मे भी है .....सीधी बात सरल शब्दो मैं होती है घुमा फिरा के नहीं..लेख पढ के ऐसा लगा की अपनी हड्डी ना मिलने पर कुकुरहव हो रहा है... दिल्ली मैं इलेक्शन घोषित होते ही दलालों ने पत्रकारिता का आदम्बर फिर शुरू कर दिया है....धन्य हो पंडित जी लोकसभा चुनाव से भी सबक नहीं सीखा की देश मीडिया की आँखों से नहीं जन साधारण की बुधी से चल रहा है...
ReplyDeleteबाजपेई जी पहले तो इतने क्रांतिकारी लेखन के लिए हृदय से बधाई..
ReplyDeleteअब आते हैं 16 मई से पहले और उसके बाद की मीडिया की चर्चा पर..
16 मई से पहले मीडिया कांग्रेसी बाबा शोभन सरकार के सपनों में खोया रहता था और 16 मई के बाद मीडिया को स्मृति ईरानी के हाथ दिखाने में दर्द होता है..
16 मई से पूर्व आशुतोष जैसे पत्रकार पत्रकार के भेष में किसी पार्टी के एजेंट के रूप में कार्य करते थे तब आप भी नजर झुकाये रहते थे और करते भी क्या आप भी तो AK Sir के इंटरव्यू को क्रन्तिकारी बनाने में व्यस्त थे।
16 मई के पूर्व लव जिहाद जैसे मामले कभी टीवी पर सुनाई नहीं दिए 16 मई के बाद खबरों में आये अवश्य लेकिन रकीबुल उर्फ़ रंजीत के मामले की तरह कहाँ दफ़न हो गए पता ही नहीं चला।
16 मई के पूर्व आसाराम की गिरफ्तारी हुई मीडिया को कुबेर का खजाना मिल गया 16 मई के बाद भी बुखारी के गैर जमानती वारंट पर मीडिया मौन है!
आप भी बतायें बड़े भैया दोषी कौन है ?
बौखला गए हैं बाजपेई जी , क्रन्तिकारी साजिशें सफल न हुईं । जिस घोड़े पर परदे के पीछे से दांव लगाया उसके खच्चर निकलने का दुःख साफ़ दिखाई पड़ रहा है ।
Deletebada achha lag Prasoon ji "Waise to hummam me sub nagghe hai per koe to mila jo apni ejjat bachane ke liye kapde pahan rakhe hai
ReplyDeleteपुण्य प्रसून बाजपेयी jee ka atyant sarahneey ,nishpaks lekh ,unkee anchoring ke smaan hee hai !aap nishchit roop se badhai ke patr hai !kinu khee 2 reporting me aisa lagta hai ki media bhee nishpaksh nhee hai jaise ki delhi vidhaan sabha ke chunavob se poorv adhiktar channel aap party ko 5-8 seat par hee vijy honey ka anumaan apne survey mey dikha rahey they jabki yah tathyon sey bhit door they ,inhey dekhkar yahee lagta hai ki media bhee ,nishpaksh nhee reporting krta ,reasons jo bhee ho khna durlabh hai uske baad lok sabha chunavon mey bhee media ney nishpakshta ke saath reporting nhee kree jiska khaamiyaza pun:aap partee ko bhugtna pda,is chunaav me to kaaran samajh mey aate hai ,arvind kejrival jee dwara media ko ulta seedha kahna un karnon me se ek ho sakta hai ,kintu iskey baavzood bhee chuki media loktantra ka chaturth stambh hai use apne daayitv ka nirvaah honestly krtey hue loktantra ki raksha krnee chahiye .
ReplyDeleteसर क्या भविष्य है जरनलिजम का आगे.? आपने सच्चाई बताके बहोत परेशानी मे तो डाल दिया लेकिन अब इसको काबू मे किया जा सकता है..? क्या इस स्थिती मे क्या जरनिलिजम अपना कर्तव्य निभा पायेगा..? क्या जनता को सच बता पायेगा..? इस स्थिती का क्या परिणाम हो सकता है देश की स्थिती पे..? हम आम जनता अब क्या करे..? कैसे बिहेव करे किसपे बिलिव्ह करे..? हमारे जिवन पर यह क्या परिणाम कर रहा है जिसकी खबर हमे ही नही है..? प्लिज इसके बारे मे भी लिखे. हम आपसे नही तो और किससे ऐसी अपेक्षा कर रकते है..? प्लिज आप जल्दी हमे सजक करे यही एक विनती है आपसे..
ReplyDeleteTruely said....
ReplyDeleteThe words reflects ultimate truth
बड़ा दिल और उस दिल में भी एक बड़ी हिम्मत की जरूरत होती है ऐसा लेख लिखने में वो भी तब जब हालात इस तरह के हों जिनका जिक्र आप खुक कर चुके हैं........ अच्छा लगा यह जानकार कि किसी तंत्र का हिस्सा होकर भी उससे परे सत्य की और मुख किये कोई तो खड़ा है। …… व्यथित किन्तु आशावान। . .... धन्यवाद प्रसून जी।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया और आपने इस दौर को बखूबी व्यक्त किया है.....
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