Friday, November 28, 2014

क्या 16 मई के बाद मीडिया बदल गया?


16 मई 2014 की तारीख के बाद क्या भारतीय मीडिया पूंजी और खौफ तले दफ्न हो गया। यह सवाल सीधा है लेकिन इसका जवाब किश्तों में है। मसलन कांग्रेस की एकाकी सत्ता के तीस बरस बाद जैसे ही नरेन्द्र मोदी की एकाकी सत्ता जनादेश से निकली वैसे ही मीडिया हतप्रभ हो गया। क्योंकि तीस बरस के दौर में दिल्ली में सडा गला लोकतंत्र था। जो वोट पाने के बाद सत्ता में बने रहने के लिये बिना रीढ़ के होने और दिखने को ही सफल करार देता था। इस लोकतंत्र ने किसी को आरक्षण की सुविधा दिया। इस लोकतंत्र ने किसी में हिन्दुत्व का राग जगाया । इस लोकतंत्र में कोई तबका सत्ता का पसंदीदा हो गया तो किसी ने पसंदीदा तबके की आजादी पर ही सवालिया निशान लगाया। इसी लोकतंत्र ने कारपोरेट को लूट के हर हथियार दे दिये। इसी लोकतंत्र ने मीडिया को भी दलाल बना दिया। पूंजी और मुनाफा इसी लोकतंत्र की सबसे पसंदीदा तालिम हो गयी। इसी लोकतंत्र में पीने के पानी से लेकर पढ़ाई और इलाज से लेकर नौकरी तक से जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया। इसी लोकतंत्र ने नागरिकों को नागरिक से उपभोक्ता बने तबके के सामने गुलाम बना दिया।

इस लोकतंत्र पर पत्रकारों की कलम भी चली और कलम भी बिकी। पत्रकारिता मीडिया घरानों में बदली। मीडिया घराने ताकतवर हुये तो झटके में सत्ता साधने की राजनीति और कारपोरेट के मुनाफे के बीच पत्रकारिता झूली भी और हमला करने से भी नहीं चूकी। लगा मीडिया धारदार हो रही है क्योंकि संसदीय सत्ता अपने अंतर्रविरोध में इतनी खो गयी कि घोटाले और राजस्व की लूट देश का सिस्टम बन गया। सरकारी नीतिया लूटने के रास्ते खोलने के लिये बनने लगी। हर संस्थान ने लूटा। भागेदारी मीडिया में भी हुई। कामनवेल्थ गेम्स से लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम और बेल्लारी से झारखंड तक में खनन संपदा की लूट से लेकर कोयला खानों के बंदरबाट का खुला खेल पॉलिसी के तहत खेला गया जिसमें मीडिया संस्थानों की भागेदारी भी सामने आयी। लेकिन पत्रकारिता ने इन मुद्दों को उठाया भी और भ्रष्ट होती सियासत को आईना भी दिखाया। और तो और कमजोर होती राजनीतिक सत्ता को कारपोरेट ने गवर्नेंस का पाठ भी पढ़ाने का खुला प्रयास 2011-12 के दौर में देश के पीएम मनमोहन सिंह को चार बार पत्र लिखकर किया । ऐसे मोड़ पर लोकसभा चुनाव के जनादेश ने उस मीडिया को सकते में ला दिया जिसके सामने बीते तीस बरस के संसदीय राजनीतिक सत्ता के अंतर्विरोध में काफी कुछ पाना था और काफी कुछ गंवाना भी था। क्योंकि इस दौर में कई पत्रकार मीडिया घरानो में हिस्सेदार बन गये और मीडिया घरानों के कई हिस्सेदार पत्रकार बन गये। ध्यान दें तो मीडिया का विकास जिस तेजी से तकनीकी माध्यमों को जरिये इस दौर में होता चला गया उसके सामने वह सियासी राजनीति भी छोटी पड़ने लगी जो आम लोगों के एक एक वोट से सत्ता पाती । क्योंकि झटके में वोट की ताकत को डिगाने के लिये मीडिया एक ऐसे दोधारी हथियार के तौर पर उभरा जिसमें सत्ता दिलाना और सत्ता से बेदखल कराने की भूमिका निभाना सौदेबाजी का सियासी खेल बना दिया गया। तो दाग दोनों जगह
लगे। राजनेता दागदार दिखे। मीडिया घराने मुनाफा कमाने के धंधेबाज दिखे । नेता के लिये वोट डालने वाले वोटर हो या मीडिया के पाठक या व्यूवर। इस सच को जाना समझा सभी ने। लेकिन विकल्प की खोज की ताकत ना तो मीडिया या कहे पत्रकारों के पास रही ना ईमानदार नेताओ के पास। ऐसे में १६ मई के जनादेश से पहले चुनावी बिसात पर मीडिया वजीर से कैसे प्यादा बना यह प्रचार के चुनावी तंत्र में पैसे के खेल ने आसानी से बता दिया। लेकिन यह खेल तो चुनावी राजनीति में हमेशा खेला जाता रहा है। हर बार की तरह 2014 में भी यही खेल खेला जा रहा है माना यही गया।

लेकिन यह किसी को समझ नहीं आया कि जो पूंजी चुनावी राजनीति के जरीये लोकतंत्र के चौथे खम्भे को कुंद कर सकती है। जो पूंजी हर सत्ता या संस्थानों के सामने विकल्प बनाने के लिये बेहतरीन हथियार बन सकती है वही पूंजी लोकतंत्र जनादेश के साथ खड़े होकर लोकतंत्र को अपनी जरुरत के हिसाब से क्यों नहीं चला सकती। दरअसल 16 मई के जनादेश के बाद पहली बार मीडिया का वह अंतर्रविरोध खुल कर सामने आया जिसने राजनीति के अंतर्विरोध को छुपा दिया। यानी सियासी राजनीति के जिस खेल में देश की सत्ता बीते 30 बरस में भ्रष्ट होती चली गयी और मीडिया ने अपने अंतर्विरोध छुपा कर राजनीति के अंतर्विरोध को ही उभारा। वही राजनीति जब जनादेश के साथ सत्ता में आयी तो संकट मीडिया के सामने आया कि अब सत्ताधारियों की गुलामी कर अपनी साख बनाये या सत्ताधारियों पर निगरानी रख अपनी रिपोर्टों से जनता को समझाये कि राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ नहीं होती है। लेकिन इसके लिये पत्रकारीय ताकत का होना जरुरी है और पत्रकारिता ही जब मीडिया घरानो की चौखट पर सत्ताधारियों के लिये पायदान में बदल जाये तो रास्ता जायेगा किधर। यानी पत्रकारीय पायदान की जरुर मीडिया घरानों को सत्ता के लिये पडी तो सत्ता को पत्रकारीय पायदान की जरुरत अपनी अंखड सत्ता को दिखाने-बताने या प्रचार के लिये पड़ी। इस पत्रकारीय पायदान की जरुरत ने इसकी कीमत भी बढ़ा दी। और सत्ता से निकट जाने के लिये पायदान पर कब्जा करने की मुहिम कारपोरेट कल्चर का हिस्सा बनने लगी। इसीलिये 16 मई के जनादेश ने हर उस परिभाषा को बदला जो बीते 30
बरस के दौर में गढ़ी गई। पत्राकरीय स्वतंत्रता का पैमाना बदला । मीडिया घराने चलाने के लिये पूंजी बनाने के तरीके बदले। सत्ता और मीडिया के बीच पाठक या व्यूवर की सोच को बदला। झटके में उस तबके का गुस्सा मीडिया का साथ छोड सत्ता के साथ जा खड़ा हुआ जो बीते ३० बरस से नैतिकता का पाठ मीडिया से पढ़ रहा ता लेकिन मीडिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिये उसके पास कोई हथियार नहीं था। ऐसे में जिस तरह 16 मई के जनादेश ने राजनीतिक सत्ता के उस दाग को छुपा दिया जो भ्रष्ट और आपराधिक होती राजनीति को लेकर देश का सच बन चुका है। उसी तरह गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता और सोशल मीडिया की जिम्मेदारी विहिन पत्रकारिता का दाग भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तले दब गया। तीन बड़े बदलाव खुकर सामने आये। पहला जनादेश के सामने कोई तर्क मायने नहीं रखता है। दूसरा राजनीतिक सत्ता की ताकत के आगे लोकतंत्र का हर पाया विकलांग है। और तीसरा विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण गवर्नेंस है। यानी जो पत्रकारिता लगातार विकल्प की तलाश में वैचारिक तौर पर देश को खड़ा करने के हालात पैदा करती है उसे खुद सियासी सत्ता की लड़ाई लडनी होगी बिना इसके कोई रास्ता देश में नहीं है।

यह हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अंदाजा 16 मई के बाद सत्ता में आयी बीजेपी के नये अध्यक्ष बने अमित शाह के इस अंदाज से समझा जा सकता है कि जब महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन बचेगा या नहीं इसके कयास लगाये जा रहे थे तब आरएसएस के शिवसेना के साथ गठबंधन बनाये रखने की खबर से अपनी सियासी सौदेबाजी का दांव कमजोर पड़ने पर बीजेपी अध्यक्ष खबर देने वाले रिपोर्टर को फोन पर यह धमकी देने से नहीं चूकते हैं कि यह खबर वापस ले लो या फिर इसका अगले दिन इसके लिये भुगतने को तैयार हो जाओ। इतना ही नहीं खबर को राजनीति का हिस्सा बताकर राजनीति के मैदान में आकर हाथ आजमाने का सुझाव भी दिया जाता है। यानी धमकी तो पत्रकारों को मिलती रही है लेकिन कारपोरेट की छांव में मीडिया और पत्रकारिता को पायदान बनाने के बाद राजनीतिक सत्ता का पहला संदेश यही है कि चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाओ तो ही आपकी बात सही है। तो क्या 16 मई के बाद देश की हवा में यहसे बड़ा परिवर्तन यह भी आ गया है कि ढहते हुये सस्थानों को खड़ा करने की जगह मरता हुआ बता कर उसे विकल्प करार दिया जा सकता है। यहां कोई भी यह सवाल खड़ा कर सकता है कि मीडिया को दबाकर सियासत कैसे हो सकती है। लेकिन समझना यह भी होगा कि पहली बार मीडिया को दबाने या ना दबाने से आगे की बहस हो रही है। सीबीआई, सीवीसी, कैग, चुनाव आयोग, जजों की नियुक्ति सरीखे दर्जेनों संस्थान है जिनके दामन पर दाग 16 मई से पहले चुनाव प्रचार के दौर में बार बार लगाया गया। मीडिया भी दागदार है यह आवाज भी मीडिया ट्रेडर के तौर उठायी गयी। यानी जिस राजनीति के भ्रष्ट और आपराधिक होने तक का जिक्र १९९२-९३ में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में किया गया और संसद के भीतर पहुंचने वाले दागदारों की कतार में कोई कमी १६ मई  २०१४ के जनादेश के बाद भी नहीं आयी उस राजनीतिक सत्ता की चौखट पर इस दौर में हर संस्था बेमानी
करार दे दी गयी। तो सवाल कई हैं।

पहला लोकतंत्र का मतलब अब चुनाव जीत कर साबित करना हो चला है कि वह ठीक है। यानी पत्रकार, वकील, टीचर, समाजसेवी या कोई भी जो चुनाव लडना नहीं चाहता है और अपने नजरिये से अपनी बात कहता है, उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि सत्ता के पास बहुमत का जनादेश है । दूसरा, संवैधानिक सत्ता के लिये बहुमत का मतलब जब कइयों के संघर्ष में जीतना भर है तो बाकि विरोध करने वाले चाहे अलग अलग हो लेकिन वह संख्याबल में ज्यादा हो तो फिर उनका कोई हक नहीं बनता है। यह सवाल राजनीतिक सत्ता के संघर्ष को लेकर भी है जहा सत्ताधारी को इस बार 31 फीसदी वोट मिले है और यह सवाल पत्रकारों को लेकर भी है जो पत्रकारिता तो करते हैं और उनकी तादाद भी मीडिया हाउस में काम करने वालों से ज्यादा है लेकिन वह उनकी पत्राकरिता को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा और उन्हें भी उसी कटघरे में खड़ा किया जायेगा, जहां पत्रकार पायदान बना दिया जा रहा है। और इसके सामानांतर तकनीकी विकास को ही विकल्प बनाने का प्रयास होगा चाहे देश की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक स्थिति उसके अनुकुल ना हो। यानी मौसम बिगड़े । रोजगार ना मिले । चंद हथेलियो पर ही सारा मुनाफा सिमटे । समाज में खाई और ज्यादा बढ़े। विकास की तकनीकि धारा गांव को खत्म कर दे। विकास के नाम पर उपभोक्ताओं का समूह बनाये रखने या उसे बढ़ाने पर जोर हो। और यह सब होते हुये, देखते हुये पत्रकारिता सरकारो का गुणगान करें और इसे सकारात्मक पत्रकारिता मान लिया जाये। तो फिर 16 मई से पहले और 16 मई के बाद पत्रकारिता कैसे और कितनी बदली है इसका एहसास भी कहां होगा।

Sunday, November 23, 2014

जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर किसका होगा?


जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर हमारा है। तो बैनर और पोस्टर से जगमगाता कश्मीर का यह आसमान किसका है। यह पैसे वालों का आसमान है । जो सत्ता चाहते हैं। तो फिर खश्मीर को खून से सिंचने वाले हाथ सत्ता बदल क्यों नहीं देते । सत्ता को क्या बदले सत्ता तो खुद ही सत्ता पाने के लिये हर चुनाव में बदल जाती है। जो कल तक नेशनल कान्फ्रेंस में था आज वह पीडीपी का हो चला है। कल तक जो बॉयकाट का नारा लगाता ता वह आज दिल्ली की गोद में खेलने को तैयार है। सिक्यूरिटी भी अब सड़क से नहीं अपने कैंपों से निशाना साधती है। वाजपेयी साहेब के दौर में एजेंसियों ने एनसी के खिलाफ पीडीपी को पैदा किया। अब एजेंसियां ही एनसी और बीजेपी को साथ खड़ा करने में लगी है। और कांग्रेस जो एनसी के साथ सत्ता में रही अब पीडीपी के साथ हो चली है, जिससे बीजेपी को रोका जा सके। इसमें हम क्या सत्ता बदल सकते हैं। लेकिन इस बार तो आजादी और बायकाट का नारा भी कोई नहीं लगा रहा है।

कश्मीरी तो चुनाव के रंग में है। तो वह क्या करें। घरों में कैद रहें। खामोश रहें। लेकिन हर रैली में हजारो हजार कश्मीरी की भीड़ बताने तो लगी है घाटी बदल रही है। और आप अब भी नारे लगा रहे हैं, जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर हमारा है। तो क्या नारों पर भी ताले लगवायेंगे। मुख्य सड़क छोड़कर जरा गलियों में झांक कर देखिये । उन दिलों को टटोले जिनके घरो में आज भी अपनो का इंतजार है। चुनाव तो झेलम के पानी की तरह है जो हमारे घरों को फूटा [डूबा] भी देंगे और फिर जिन्दगी भी देंगे। श्रीनगर से नब्बे किलोमीटर दूर बांदीपुर के करीब सुंबल की उन गलियों में युवा कश्मीरियों के साथ की यह तकरार है जिन गलियों में नब्बे के दशक में कूकापारे के ताकत की सत्ता थी। और जिस उस्मान मजीद के चुनाव प्रचार के लिये सोनिया गांधी भी बांदीपुर पहुंची वह भी कभी कूकापारे ही नहीं बल्कि सीमापार के आतंक की गलियों में घूम चुका है लेकिन इसबार कांग्रेस का प्रत्याशी है। तो क्या लोकतंत्र की ताकत का मतलब यही है कि चुनाव तो हर छह बरस में होने है चाहे नब्बे के दशक में आंतक चरम पर हो या फिर २००२ में सेना के बंदूक के साये या बूटों की गूंज या फिर २०१४ में झेलम की त्रासदी में सबकुछ गंवाने का जख्म। एक आम कश्मीरी करे क्या । यह सवाल
न्यूज चैनलो के पर्दे पर गूंजते जिन्दाबाद के नारो में आजादी के नारों को कमजोर बता सकते है। नाचती-गाती महिलाओ की टोलियो से आतंक खत्म होने का अंदेसा देकर चुनावी लोकतंत्र का झंडा बुलंद होते दिखा सकती है। लेकिन उन गलियों में और उन दिलो में चुनावी सेंध लगाने के लिये क्या क्या मशक्कत हर किसी को करनी पड़ रही है यह जख्मों को कुरेदने से ज्यादा किसी तरह जिन्दगी को दोबारा पाने की कुलबुलाहट भी हो चली है। चुनावी तौर तरीको की रंगत ने अलगाववादियों के जिले स्तर के कैडर तक को बंधक बना लिया है। कोई घर में नजरबंद है। कोई अस्पताल में तो कोई जेल में और कोई थानों में कैद है । क्योंकि बॉयकाट की आवाज उठनी नहीं चाहिये। सड़क पर सेना नहीं है बल्कि अब हर मोहल्ले और गांव में सेना को जानकारी देने वाले नौकरी पर है । यानी सेना की मशक्कत अब डराने या खौफ पैदा करने वाली मौजूदगी से दूर सूचनाओं के आधार पर ऑपरेशन करने वाली है। यानी चुनावी खुलेपन का नजारा चुनावी बिसात पर जीत-हार के लिये मकही मोहरा है तो कही वजीर। क्योंकि शहरों में कश्मीरी बोलता नहीं। गांव में कश्मीरी को खुलेपन का एहसास हो तो वह चुनावी नगाडों में थिरकने से नही कतराता। लेकिन कैसे आतंक की एक घटना हर ग्रामीण कश्मीरी को नब्बे के दौर की याद दिला कर घरों में कैद कर देती है यह भी कम सियासत नहीं । २० नंबवर को त्राल में तीन आंतकी मारे जाते हैं और त्राल का चुनावी उल्लास सन्नाटे में सिमट जाता है। कयास लगने लगते हैं कि त्राल
में अब कौई वोट डालने निकलेगा नहीं तो जीत हार सिखों के वोट पर निर्भर है जिनकी तादाद हजार भर है। तो बीजेपी यहा जीत सकती है।

लेकिन चुनावी बिसात पर नेताओं की ईमानदारी पर लगे दाग पहली बार आतंक से कही ज्यादा कश्मीरी नेताओ को डरा रहे हैं। क्योंकि युवा कश्मीरी के हाथ कलम थाम कर पहली बार आजादी शब्द दिलों में कैद रख दिल्ली की तरफ देखना चाहते हैं। जरुरत पड़ी तो आजादी का नारा भी लगा लेंगे। लेकिन एक बार करप्शन से
कश्मीर को निजात मिल जाये तो देखे कि दिल्ली की धारा में शामिल होने का रास्ता दिल्ली खुद कैसे बनाती है । यह आवाज साबरपुरा की है । गांधरबल में में आने वाले साबरपुरा में तालिम के लिये स्कूल से आगे का रास्ता बंद है । हर कोई दिल्ली या अलीगढ तो जा नहीं सकता । लेकिन दिल्ली हमारे कश्मीर में तो आ सकती है । तो क्या नरेन्द्र मोदी के लिये आवाज है। जी वाजपेयी साहेब ने भी कश्मीर के बारे में सोचा था। मोदी जी भी सोचे तो अच्छा होगा । लेकिन जम्मू के रास्ते कश्मीर नहीं आना चाहिये। घाटी के रास्ते जम्मू जाये तो ही कश्मीरियत होगी। तो क्या घाटी बदलने को तैयार है। चुनाव के आंगन में कश्मीर को खड़ा ना करें। कश्मीर के सच को माने और समझें कि कश्मीर दिल्ली से भी दर्द लेकर लौट रहा है और इग्लैड-अमेरिका से भी। तालिम के लिये कश्मीर छोडें। तालिम लेकर कश्मीर ना लौटे। सिर्फ बेवा और बुजुर्गों का कश्मीर हो जाये। सीमा पर कश्मीर है सेना के हवाले कश्मीर है । क्या यह हिन्दुस्तान के किसी राज्य में संभव है। कश्मीर की सियासी बोली ना लगे तो बेहतर है । दिल्ली में १२ बरस बिजनेस करने के बाद वापस लौटे अल्ताफ के यह सवाल क्या बदलते कश्मीर की दस्तक है । क्योंकि पहली बार घाटी के चुनावी मैदान में इग्लैड और अमेरिकी यूनिवर्सिटी से निकले कश्मीरी अपनी अपनी समझ से लोकतंत्र के मायने समझने को तैयार है । आवामी इत्तेहाद पार्टी के जिशान पंडित और शहजाद हमदानी अमेरिकी यूनिर्वसिटी से पढ़कर सियासत के मैदान में है । नेशनल कान्फ्रेंस के जुनैब आजिम मट्टु हो या तनवीर सादिक उर्दू की जगह अंग्रेजी बोल से युवा कश्मीरियों को लुभा रहे हैं। कांग्रेस के बड़े नेता सैफुद्दीन सोज के बेटे सलमान सोज तो वर्ल्ड बैंक की नौकरी छोड़ अब कश्मीर को अपने नजरिये से समझने और समझाने पर आतुर है ।

ऐसे में पहली बार दिल्ली के जिन सवालों पर खांटी राजनीति करने वाले कश्मीरी नेता खामोश होकर अपनी सत्ता के जुगाड में को जाते थे इस बार विदेशी जमीं से पढ़कर सियासी मैदान में उतरे कश्मीरी युवा दिल्ली के सवालों से दो दो हाथ करने को तैयार है। धारा ३७० सिर्फ जमीन खरीदने बेचने के लिये नहीं बल्कि सुविधा और सुरक्षा का सांकेतिक प्रतीक है, इसपर खुली बहस यहकहकर उठाना चाहते है कि जिन हालातो में १९४७ के बाद से कश्मीर को दिल्ली ने देखा उसे रातो रात बदलने का उपाय सत्ता पाते ही कैसे किस दिल्ली के पास है उसका ब्लू प्रिंट कश्मीरियों को बताना चाहिये । जबकि लुभाने के लिये अभी भी राजनीतिक बंदियों की रिहायी, पत्थर पेंकने वाले बंदियों की रिहायी. बेवाओं को राहत और झेलम से प्रभावितों को खूब सारा धन देने की पेशकश का सिलसिला ही चल पडा है । देवबंद के जमात-उलेमा हिंद की फौज श्रीनगर के डाउन-टाउन से लेकर गुरेज और कंघन तक में मुस्लिमों को दिल्ली से ज्यादा मोदी के मायने समझा रही है। नारों की शक्ल में आवाज लगा रही है, ‘न दूरी है, न खाई है / मोदी हमारा भाई है ।’ लेकिन घाटी में तो मुश्किल सवाल यह नहीं है कि नारों का असर होगा या नहीं । मुश्किल पहली बार अपनों से उठता भरोसा है। क्योंकि गिलानी के बायकाट की आवाज के लिये उम्र के लिहाज से यह आखिरी चुनाव है। मौलाना अंसारी बीमार हैं। अब्दुल गनी बट झेलम के पानी के बाद श्रीनगर छोड सोपोर लौट चुके हैं। सज्जाद लोन सियासत कम पासपोर्ट के लिये ज्यादा तड़पते हैं। तो सियासत में दिल्ली के साथ खड़ा होना उनकी जरुरत है। क्योंकि हर तीन महीने में पत्नी के लिये वीजा की भीख
दिल्ली से ही मांगनी पड़ती है। खुद का पासपोर्ट भी दिल्ली की इच्छा पर निर्भर है। तो फिर दिल्ली के साये में ही सियासत क्यों नहीं। तो पिता अब्दुल गनी लोन की समझ ताक पर रख, जिनकी हत्या के बाद ना चाहते हुये हुर्रियत नेता बना दिये गये। सज्जाद के भाई बिलाल तो खुद को बिजनेसमैन कहलाना ही पंसद करने लगे हैं। मिरवायज उमर फारुख भी तो पिता की हत्या के बाद झटके में नेता हो गये। तो फिर कश्मीरी जब खुद के बारे में सोचेगा और सियासत पर बहस करने लगेगा तो मिरवायज इस बहस में कहा टिकेंगे। यासिन मलिक जेल में हैं। लेकिन पहली बार उनके पिता गुलाम कादिर मलिक की याद भी कश्मीरियों को आने लगी है, जो पेशे से ड्राइवर थे। कश्मीर की रंगत में कभी सियासत की डोर ना थामी चाहे अस्सी के दशक के आखिर के चुनाव में जो हुआ उसने चुनाव पर से धाटी का भरोसा डिगाया। तो क्या २०१४ का चुनाव सारे जख्मों को कुरेद रहा है या नये तरीके से परिभाषित कर रहा है। या फिर नब्बे के दशक में आतंक के साये से निकला नारा जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर हमारा है अब बदल चुका है।

Monday, November 3, 2014

४८ मौत, ५०० बीमार, राष्ट्रपति का इंकार और अब प्रधानमंत्री मोदी का इंतजार

संसद सदस्य बनने के बाद ऱाष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था, “हो गया एक नेता मैं भी !तो बंधु सुनो, / मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूं, /  जनता तो चट्टानों का बोझ सहा करती, / मैं चादंनियों का बोझ किस विध सहता हूं /दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल पहल, /पर,भटक रहा है, सारा देश अंधेरें में ।” तो क्या वाकई कोई भी दिल्ली आकर बेदिल हो जाता है । यह सवाल किसी को भी अंदर तक झकझोकर सकता है जब उसे पता चले कि अंधेरे में रहने वाले भारत के दर्द की टीस मौत मांग रही है । सीएम ने सुनी नहीं। पीएम मनमोहन सिंह से कोई आस जगी नहीं और बीते दस बरस से देश में दो राष्ट्पति बदल गये लेकिन कभी किसी ने दो घड़ी मिलने का वक्त वैसे युवाओं के लिये नहीं निकाला जिन्होंने शादी इसलिये नहीं की क्योंकि गांव के मरघट की आवाज वह कभी ना कभी दिल्ली को सुना सकें। और ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला जबाब राष्ट्रपति भवन से पहुंचा । उसमें लिखा गया है कि , “आपका पत्र मिला । लेकिन राष्ट्रपति बहुत व्यस्त है और उनके पास आपसे मिलने के लिये कोई वक्त नहीं है और ना ही वह आपकी समस्या सुन सकते हैं।" राष्ट्पति का यह जबाब दिलीप और अरुण को है । दोनो भाई । पढ़े लिखे । रिटायर्ड टीचर के बेटे । इन दस बरस में किताब “अंधेरे हिन्दुस्तान की दास्तान “ लिख डाली । प्रतिष्ठित प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने किताब छापी। लेकिन सुनवायी सिफर ।इस हाल में पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गांव आने का निमंत्रण देता पत्र पहली बार ९ जून २०१४ को लिखा गया । पत्र दर्द की इंतहा है । तो जैसे ही मेरे मेल पर इसकी कॉपी पहुंची वैसे ही फोन लगाकर मैंने परिचय देते हुये बात करनी चाही वैसे ही दिलीप रोने लगा। उसे भरोसा नहीं हुआ कि कोई फोन कर यह कहे कि उसकी आवाज दिल्ली में सुनी जा सकती है। रोते हुये सिर्फ इतना ही कहा, "मनमोहन सिंह को कभी मैंने पत्र नहीं लिखा । नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो ९ जून २०१४ को मैंने पत्र लिखकर भारत की जमी अपने गांव के नरक से
हालात का जिक्र कर मैंने आग्रह किया कि हो सके तो एक बार मेरे गांव को भी देख लें। क्योंकि यहां कोई जीना नहीं नहीं चाहता है। क्योंकि मौत से बदतर जिन्दगी हो चुकी है । लेकिन बीते ११० दिनो में तो कोई जवाब नहीं आया। पहली बार मई २००४ में मैं राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गया था । लेकिन मिल नहीं पाया । मुझसे वक्त लेने को कहा गया। मैंने मिलने का वक्त मांगा और ७९ दिनों तक इंतजार किया । लेकिन मुलाकात फिर भी न हो सकी । उसके बाद मैंने ६ दिसबंर २००४ से पत्र सत्याग्रह शुरु किया । हर दिन राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखकर गुहार लगाता हूं कि कि कालाजार से मरते अपने गांव को हर क्षण हर कोई देख रहा है लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं । अभी तक राष्ट्रपति को साढ़े तीन हजार से ज्यादा पत्र लिख चुका हूं । हर पत्र की रसीद मेरे पास है।  लेकिन कभी कोई पत्र नहीं आया । और कल ही  ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला पत्र आया उसमें राष्ट्रपति ने वक्त ना होने का जक्र किया । अब सोचता हू कि जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं । मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं तो फिर संविधान ने जीने का जो हक हमको दिया है तो अब गुहार कहां लगाऊं । पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा । यह सोच कर लिखा कि कि कम से कम मेरा गांव सीतामडी में है तो सीता की जन्म भूमि
को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें। इसलिये जो पत्र मैंने प्रधानमंत्री मोदी को भेजा उसकी कॉपी आपको भेज दी।

प्रणाम,
मैं दिलीप + अरुण दोनों भाई आपको अपने गॉंव - तेमहुआ , पोस्ट - हरिहरपुर, थाना - पुपरी, जिला - सीतामढ़ी, पिन - 843320 , राज्य - बिहार, आने का निमंत्रण देता हूँ, क्योकि मै आपको वहां ले जाना चाहता हूँ जहाँ की फिजा में 48 दलित मुसहर भाई - बहन की अकाल मृत्यु की सांसों से मेरा दम घुटता है। मैं आपको उन्हें दिखाना चाहता हुं जो मारना तो चाहते है मगर अपने बच्चे, अपने परिवार के खातिर किसी तरह जी रहे हैं। मैं आपको उनसे मिलाना चाहता हुं जो जिन्दा रहना तो नहीं चाहते मगर जीवित रहने रहने के लिए मजबूर हैं| मैं आपको उस वादी में ले जाना चाहता हु जहाँ के लोग या तो भूखे हैं या फिर भोजन के नाम पर जो खा रहे हैं, उसका शुमार इंसानी भोजन में नहीं किया जा सकता हैं! मै आपको उन कब्रों तक ले जाना चाहता हु जिसमे दफ़न हुए इंसानों के भटकते रूह इस मुल्क की सरकार से यह आरजू कर रही है, कि कृपया हमारे बच्चों के जिन्दा रहने का कोई उपाय कीजिये ।

मै आपको हकीकत की उस दहलीज़ पे ले जाना चाहता हु जहाँ से खड़ा होकर जब आप सामने के परिदृश्य को देखेंगे तो आपके आँखों के सामने नज़ारा उभर कर यह आएगा क़ि आज़ाद भारत में आज भी इंसान और कुत्ते एक साथ एक ही जूठे पत्तल पर अनाज के चंद दाने खा कर पेट की आग बुझाने को मज़बूर हैं। मै आपको उस बस्ती से रु-ब-रु करना चाहता हुं जो बस्ती हर पल हर क्षण हर घड़ी भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रही है कि बता हमारे बच्चे कालाजार बीमारी से क्यूँ मर गए? मै आपको उन बदनसीब इंसानों से मिलाना चाहता हु जो अपनी शिकायत या समस्या का हल ढूंढने में खुद को पाता है।

मै आपको यहाँ इसलिए बुलाना चाहता हूं क्योंकि पिछले 10 सालो में 3600 से अधिक पत्रों द्वारा की गई हमारी फरियाद उस पत्थर दिल्ली के आगे तुनक मिज़ाज़ शीशे की तरह टूट कर चूर - चूर हो जाती है । मैं आपको यह सब इसलिए कह रहा हुं क्योकि बचपन से लेकर आज तक मैं ऐसे लोगो से घिरा हुआ हुं जो अपनी जिंदगी की परछाइयों में मौत की तस्वीर तथा कब्रो के निशान देखते हैं। जो भोजन के आभाव में और काम की अधिकता के कारण मर रहे है ! जिनका जन्म ही अभाव में जीने और फिर मर जाने के लिए हुआ है। ये लोग इस सवाल का जवाब खोज रहे है कि मेरी जिंदगी की अँधेरी नगरी की सीमा का अंत कब होगा ? हम उजालों की नगरी की चौखट पर अपने कदम कब रखेंगे ? लिहाजा ऐसी निर्णायक घड़ी में आप हमारे आमंत्रण को ठुकराइए मत क्योंकि यह सवाल क्योकि यह केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है । यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है। बल्कि यह हमारे गावं में कालाजार बीमारी से असमय मरने वाले नागरिक के जीवन मूल्यों का प्रश्न है। यह उन मरे हुए लोगों के अनाथ मासूमों का प्रश्न है! यह उन मरे हुए इंसानो के विधवाओं एवं विधुरो का प्रश्न है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी का प्रश्न है! यह हमारे द्वारा भेजे गए उन हजारों चिठ्ठियों का प्रश्न है जिसमें हमने अपने गावं के गरीबों की जान बचाने की खातिर मुल्क के राष्ट्रपति से दया की भीख मांगी थी।

इसलिए देश और मानवता के हित में कृपया हमारा आमंत्रण स्वीकार करें!
धन्यवाद, दिलीप कुमार/अरुण कुमार/सीतामढ़ी (बिहार) [+919334405517]


अब दिल्ली सुने या ना सुने लेकिन दिनकर की कविता, “भारत का यह रेशमी नगर “की दो पंक्तिया दिल्ली को सावधान और सचेत तो जरुर करेगी, “तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो / सब दिन को यह मोहिनी न चलने वाली है / होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसे, / मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है।