Tuesday, December 30, 2014
विकास की अंधी गली या रामराज्य का अनूठा सपना ?
ना जाति का टकराव। ना वर्ग संघर्ष की कोई आहट। बल्कि सांस्कृतिक और धर्म का टकराव। २०१४ के सत्ता परिवर्तन का सच यही है । यानी आजादी के बाद पहली बार राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन ने सियासी तौर पर ही नहीं बल्कि देश के भीतर सामाजिक राजनीतिक समझ की ही एक ऐसी लकीर खिंची है जो विकास को पुनर्भाषित करना चाहती है। इसके दायरे में धर्म और सांस्क़तिक राष्ट्रवाद है। यानी पूंजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के आसरे जिस विकास की परिकल्पना नरेन्द्र मोदी ने चुनाव से पहले प्रधानमंत्री बनने के लिये की । वह सोच प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जमीन पर उतार पायेंगे या फिर धर्म और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आंधी में पूंजी पर टिके विकास के परखच्चे उड़ जायेंगे। क्योंकि हिनदू धर्म और सांस्कृतिक राषट्रवाद के जो नारे संघ परिवार की हर बैठक में लग रहे हैं। जो चर्चा संघ से जुड़े हर संगठन में हो रही है, वह भारत को हिन्दु सभ्यता से जोड़ रही है और उस दौर के विकास की रेखा के सामने मौजूदा विकास के सपने थोथे है। इसे कहने में हिन्दु राष्ट्र की कल्पना संजोये लोग कतरा भी नहीं रहे है। हैदराबाद में दो दिन पहले विहिप के केन्द्रीय प्रन्यासी मण्डल एवं प्रबंध समिति के संयुक्त अधिवेशन में धर्मांतरण की व्याख्या स्वामी विवेकानंद के जरीये यह कहकर की जाती है कि हिन्दू समाज से एक मुस्लिम या ईसाई बने इसका मतलब यह नहीं है कि एक हिन्दू कम हुआ बल्कि इसका मतलब हिन्दू समाज का एक और शत्रु बढा। सिर्फ विवेकानंद ही नहीं बल्कि कांग्रेस के बाद अब बीजेपी जिस तरह महात्मा गांधी को आत्मसात कर रही है और खुद प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह महात्मा गांधी को अपनी नायाब व्याख्या का हिस्सा बना रहे हैं। स्वच्छ भारत अभियान को स्वस्थ बारत के गांधी के सपने से जोड़ रहे है, इस बीच में अगर विहिप महात्मा गांधी को यह कहकर याद करता है कि गांधी ने कहा, भारत में ईसाई मिशनरी के प्रयास का उद्देश्य है कि हिन्दुत्व को जड़मूल से उखाड़कर उसके स्थान पर दूसरा मत थोपना। तो २०१४ के बीतते बीतते यह सवाल तो देश के सामने आ ही खड़ा हुआ है कि २०१४ का सत्ता परिवर्तन सिर्फ पूर्ण बहुमत की सरकार का बनना या काग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दलो के हाशिये पर चले जाना महज चुनावी हार नहीं है बल्कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर देश के भीतर जो विपन्नता है, उसे धर्म और सास्कृतिक विपन्नता के तौर पर देखने का वक्त आ गया है। क्योंकि मौजूदा सरकार संघ परिवार से निकली राजनीतिक ताकत है। और संघ परिवार के भीतर उसी वक्त वह सारे सवाल गूंज रहे हैं, जिस पर आजादी के
बाद से हर सियसत ने मौन धारण किया। राजनीति ने जरुरी नहीं समझा और खुद बीजेपी या नरेन्द्र मोदी ने भी विकास के जिस चेहरे को सामने रखा वह उसी आवारा पूंजी के ही आसरे है जिसमें कालेधन की उपज खूब होगी। समाज में विषमता खूब बढ़ेगी। अपराध या भ्रष्टाचार पर नकेल कसने का मतलब सिर्फ कमजोर को दबाना होगा। ताकतवर के लिये कहा यही जायेगा कि न्याय अपना काम कर रहा है । यानी सत्ता पाना और सत्ता को अपने अनुकुल बनाने की समझ से लेकर सत्ता गंवानी ना पड़े इसके लिये नीतियों को पोटली ही सुशासन को परिभाषित करेगी।
लेकिन इसी दौर में जिस विचारधारा की गूंज राजनीति में होने लगे या सत्ता में जो धारा सबसे ज्यादा ताकतवर हो चली हो अगर उसके भीतर यह सवाल कुलबुला रहे हों कि आजादी के वक्त बडी तादाद में हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। उस वक्त राम, श्रीकृष्ण, हरेराम, सीताराम सरीखे हिन्दु शब्द लोगों ने हड्डियो तक गुदवा लिये। ताकि हिन्दु धर्म ना छूटे। तब डर था। भय था । लेकिन सत्ता सियासी रोटिंया ही सेंकती रही। आजादी के पहले से और सत्तर के दशक के आते आते तो ग्रामीण-आदिवासियों को झुंड में ईसाई बनाया गया। सरकारे गांव तक पहुंच नहीं पायी तो ग्रामीण पिछड़े इलाकों में ईसाई मिशनरियों की दस्तक हुई। स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा और रोजगार के लेकर भूख मिटाने के रास्ते गिरजाघर से निकलने लगे। तब डर या भय नहीं फेल होते राज्य में दो जून की रोटी और राहत का सवाल था। हर्षोउल्लास के बीच खुलेआम धर्म परिवर्तन का जो दौर सत्तर के दशक में शुरु हुआ वह नब्बे के दौर तक रहा।
लेकिन कभी कोई सवाल धर्म परिवर्तन को लेकर नहीं उठा। तो फिर अब क्यो। यह तर्क और यह सवाल अगर समूचे संघ परिवार की जुबां पर है तो फिर सवालो की इस आंधी में चुनावी लोकतंत्र कोई रास्ता खोजेगी या उसका इंतजार होगा या फिर आने वाले वक्त सत्ता विकास की सोच को पलटने के लिये मजबूर होगी जहां रामराज्य का सपना देखना होगा। मौजूदा सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार नहीं है, जब बहुमत ना आ पाने कास दर्द हो और सत्ता में बने रहने की चाहत तले रामराज्य भी राजनीतिक सपने में तब्दील किया जा सके। बल्कि २०१४ में तो बहुमत वाली। आरएसएस की विचारधारा को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने वाली। रामराज्य को सपने को असल जिन्दगी में उतारने की ट्रेनिग पायी स्वयंसेवकों की सरकार है। और यह सपने कैसे छोड़े जा सकते है या फिर जिस धर्म या जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दायरे में ही समूची शिक्षा बीते ९० बरस से पढी जाती रही हो। या कहें पढायी जाती रही हो। उसे मौजूदा वक्त में ना उठाये तो उसका विस्तार होगा कैसे। वैसे भी राजनीतिक तौर पर जब २०१४ के सत्ता परिवर्तन से पहले संघ परिवार को तात्कालीन सत्ता ने ही आंतक के कटघरे में खडा करने में कोताही नही बरती तो फिर अब तो उसकी विचारधारा वाली सरकार है। और इस वक्त भी खामोश रहे तो सरकारो को बदलने या सत्ता परिवर्तन पर ही संघ परिवार की व्याख्या हमेशा होती रहेगी। क्या इस सोच को तोड़ा जा सकता है कि सत्ता में कोई भी रहे कांग्रेस या बीजेपी दोनो हालात में हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना ही आदर्श सोच हो सकती है। दरअसल यह सवाल स्वयंसेवकों के हैं कि सत्ता बदलने से अगर संघ परिवार के प्रति देश का नजरिया बदलता है तो फिर राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने की जरुरत है। शायद इसीलिये मोदी सरकार को कोई परेशानी ना हो या वोटर यह ना सोचने लगे कि एक खास नजरिये से देश को हांका जा रहा है इसलिये संघ परिवार के चालिस से ज्यादा संगठन अपने अपने क्षेत्र में विचारधारा के तहत काम करते रहेंगे। लेकिन पहली बार संघ परिवार को के भीतर यह सवाल बड़े होने लगे हैं कि कांग्रेस की तर्ज पर विकास का मतलब विकास की अंधी गली नही होनी चाहिये। यानी सरकार की नीतियां सामाजिक-आर्थिक तौर पर देश के बहुसंख्यक तबके को प्रभावित करें। यानी सिर्फ मोदी सरकार की नीतिया मनमोहन सरकार से इतर है। यह काफी नहीं है बल्कि जिस सामाजिक शुद्दीकरण का सवाल आरएसएस उठाता रहा है उस लकीर पर सरकार खुद चले। यानी अनुशासन और ईमानदारी होनी चाहिये। लेकिन मोदी सरकार के विकास के सपने तले अगर अनुशासन का मतलब बाबूओं के सुबह बिना देरी
नौ बजे दफ्तर पहुंचने से हो या इमानदारी का मतलब नेता-मंत्री के चार्टेड में सफर ना करने से हो या फिर घूस लेते मंत्रियों के बेटों को पार्टी फंड में घूस की रकम जमा रकाने से हो तो संकेत साफ है कि पहली बार संघ की
विचारधारा का पाठ पढने वालों के ही शुद्दीकरण की जरुरत आ पड़ी है।
ऐसे में चुनाव से पहले भ्रष्टाचार के दल दल में मनमोहन सरकार के जो सवाल नरेन्द्र मोदी उठा रहे थे या देश के करोडों युवाओं को उपभोक्ता बनाने के जो सपने पैदा कर रहे थे, वह संघ की विचारधारा के सामने अगर अब टकराते हुये दिखायी दे रहे हैं तो इसका मतलब क्या निकाला जाये। क्या २०१४ के चुनाव के दौर में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर सक्रिय इसलिये हुआ क्योकि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी तमाम भी विकास की उन्हीं अनकही लकीरों को खींच सके जो अभी तक कांग्रेस या दूसरे राजनीतिक दल खींचते आ रहे थे। क्योंकि सवाल वोटरों को एक छत तले लाने का था। या फिर विकास की अंधी गली के असल नुमाइन्दों [कारपोरेट और उघोगपति] को यह भरोसा दिलाया सके की राजनीतिक सत्ता के जरीये बीजेपी भी उनका हित साध सकती है। यानी पूंजीपति यह ना सोचे की हिन्दुत्व की धारा सत्ता में आने के बाद उसका ही बंटाधार कर देगी । हो जो भी अब सवाल उस टकराव का है जहा ग्रामीण आदिवासी इलाकों में विकास होना है। न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने के साथ साथ बड़े बड़े उघोग लगाने हैं। थके-हारे गांवों को स्मार्ट गांव में बदलना है। धर्म से आगे दो जून
की रोटी की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी है। जिससे कोई भी छोटी मोटी सुविधा के नाम पर संख्याबल जोडकर यह ना कहे कि उसके धर्म के लोगों को धर्मानुसार ही विकास करना है या धर्मानुसार सरकारें काम कर रही है और उन पर ध्यान नहीं दे रही है। मोदी सरकार को तो विकास के लिये देश की खनिज संपदा से लेकर भूमि अधिग्रहण के वैसे रास्ते खोलने ही होंगे जो कॉरपोरेट को धर्म की दुकान से बड़ा कर दें। जो विकास की अनूठी लकीर में भारत के बाजार और उपभोक्ताओ को चकाचौंध कर दें। दरअसल, संघ के स्वयंसेवकों के पाठ से यह बिलकुल उलट है। लेकिन बीजेपी सरकार बिना संघ परिवार की सक्रियता के बन नहीं सकती। और संघ की सक्रियता अगर सरकार बना सकती है तो फिर सरकार को नायक होने का सपना दिकाकर अपनी विचारधारा को नीतियों में क्यो नहीं बदल सकती। इसलिये धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण होता है यह कहने में उसे कोई हिचक नहीं है। घरवापसी से देश धर्म से जुड़ता है, यह कहने में उसे कोई परेशानी नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि सरकार और संघ के रास्ते एक सरीखे दिखेंगे कब या संघ के रास्तों के बीच चुनावी रास्ते अंडगा डालेंगे कब। और दोनो का असर होगा क्या। दरअसल २०१५ संघ के इन्हीं रास्तों की प्रयोगशाला है। जिस पर मोदी सरकार को चलना है या नहीं। इस पर मुहर उसी जनता को लगाना है जो एक तरफ विदेशी पूंजी पर टिके विकास के नारों को नकार रही है, तो दूसरी तरफ प्रचीन भारत के गौरवमयी क्षणों में रामराज्य का सपनों को
सुनते-देखते हुये थक चुकी है।
Friday, December 26, 2014
अब दिल्ली की बारी !
सपने जगाने वाली सियासत से बचायेगा कौन ?
सपने विकास के जागे रुबरु गोडसे से लेकर धर्मांतरण से होना पड़ा। सपने भ्रष्टाचार और बाप बेटे की सरकार के खिलाफ जागे रुबरु घोटले की जांच में फंसे रघुवर दास और उमर अब्दुल्ला तक से होना पड़ रहा है। सपने दामाद के खिलाफ जागे तो सरकारी फाइल ने ही धोखा दे दिया। सपने मुंबई में वसूली करने वालों के खिलाफ जागे तो रुबरु वसूली करने वालो के साथ सरकार बनाने और बचाने के खेल से होना पड़ा। अब सपने दिल्ली पर आ टिके हैं क्योंकि पाश कह गये हैं सपनों का मरना सबसे खतरनाक होता है। तो दिल्ली से दिल्ली तक के सपने का इंतजार फिर से जाग रहा है। क्योंकि बदलाव का सपना सबसे पहले दिल्ली ने ही देखा। और २०१३ में सपने को पूरा भी किया। और उसके बाद २०१४ की हवा में बदलाव का सपना कुछ इस तरह उड़ान भरने लगा कि केन्द्र से लेकर महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर तक की तो सियासत पलट गई। हर जगह कांग्रेस सत्ता में थी और हर जगह अब बीजेपी की सत्ता है या बननी वाली है। कांग्रेस हर जगह बूरी तरह पिटी। और हर जगह भगवा खूब लहराया। अब याद कीजिये तो बदलाव की पहली नींव दिल्ली में ही पड़ी थी और वह साल २०१४ नहीं बल्कि २०१३ था। और जिस कांग्रेस का सूपड़ा साफ जनता ने किया, उसी जनता ने पहला पत्थर कांग्रेस के खिलाफ दिल्ली में ही उठाया। हैट्रिक बनाने वाली शीला दीक्षित दिल्ली में ना सिर्फ खुद हारी बल्कि दिल्ली के इतिहास में कांग्रेस की सबसे बूरी गत दिल्ली ने देखी और कांग्रेस को दिखायी। और उसके बाद का सिलसिला तो मोदी-मोदी के नारो में जिस तेजी से चुनाव में घुमा उसने अर्से बाद देश के तमाम राजनीतिक दलों के सामने यह सवाल तो खड़ा कर ही दिया कि कल तक की बीजेपी के गागर में वोटो का सागर यूं ही नहीं समा रहा है। बल्कि किसी पार्टी का कोई चेहरा ऐसा बचा ही नहीं है जिसके आसरे सपने भी पाले जा सकें। तो २०१४ के बीतते ही पहला सवाल हर किसी के जहन में यही आयेगा कि जिस दिल्ली ने काग्रेस की जमी जमायी १५ बरस की सत्ता को उखाड़ फेंका, क्या वही दिल्ली एक बार फिर दिल्ली के तख्त तले दिल्ली सरीखे केन्द्र शासित राज्य के जरीये ही कोई नया सपना दिखा सकती है। या फिर मोदी मोदी की गूंज दिल्ली को भी हड़प लेगी। दिल्ली के सपनों की शुरुआत यहीं से होती है। क्या साल भर के भीतर दिल्ली के नये सपने मोदी के सपनों को चुनौती दे सकते हैं। या फिर देश के साथ कदमताल करने के लिये दिल्ली तैयार है। देश के साथ कदमताल का मतलब मोदी सरकार है। और नये पैगाम का मतलब मोदी सरकार का विकल्प है।
वैसे बिहार चुनाव से पहले मोदी सरकार का चुनावी विकल्प बनने की तैयारी में जनता परिवार भी खूद को धारदार बना रहा है। लेकिन दिल्ली का सवाल चुनावी विकल्प बनना या बनाना नहीं बल्कि विकास के नाम पर धारदार होती सत्ता को सामाजिक-आर्थिक बिसात पर चुनौती देना और सत्ता में सिमटती जनता की मजबूरी को मुक्त कराना है। यह सवाल दिल्ली के चुनाव में कैसे उठ सकता है या इसे कौन उठा सकता है यह अपने आप में सवाल है। लेकिन दिल्ली चुनाव का दूसरा मतलब शायद चुनावी प्रबंधन का विकल्प बनान भी हो चला है। जाहिर है ऐसे मोड़ पर दिल्ली के पन्नों को पलटें तो १४ फरवरी २०१४ के बाद तीन महीने तक दिल्ली में हारी कांग्रेस की अगुवाई में दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग ने ही सत्ता संभाली और बीते सात महीनों से बीजेपी की अगुवाई में वही उप-राज्यपाल नजीब जंग ही दिल्ली को चला रहे हैं। यानी जिस शीला दीक्षित के विकास की अंधेरी गली को दिल्ली वालों ने पलट दिया उस दिल्ली वालों के सामने २८ दिसंबर २०१३ से १४ फरवरी २०१४ के बाद अपने दर्द का जिक्र करने वाला आया ही नहीं। और इसी दौर में देश के सारे चुनावी पर्दे बदल गये। तो दिल्ली का मतलब है क्या और होगा क्या।
दरअसल शीला दीक्षित दिल्ली में इसलिये नहीं हारी कि उन्होंने विकास नहीं किया। बल्कि हारीं इसलिये क्योंकि केन्द्र की मनमोहन सरकार के घपले घोटालों की फेरहिस्त के बीच अन्ना आंदोलन ने पहली बार देश के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया कि सत्ता का मतलब ताकत या राजा बनना नहीं होता। और उसी दौर में जनता ने जैसे ही अन्ना के चश्मे से संसद और सत्ता को देखना शुरु किया तो उसे लगा कि उसकी ताकत तो लोकतंत्र की चौखट पर सत्ता से भीख मांगने के अलावे कुछ है ही नहीं। आंदोलन की सबसे बडी ताकत सत्ताधारियों को सेवक मानने और खुले तौर पर कहने की सोच से उभरी। सत्ता पाना और सरकार चलाने के रुतबे में कांग्रेसियो की आंखें फिर भी ना खुली कि सत्ता उनका जन्मसिद्द अधिकार नहीं है। और सत्ता पाने के लिये लालयित बीजेपी भी कमोवेश उसी अंदाज में निकलना चाह रही थी कि कांग्रेस के बाद सत्ता पाना तो उसका अधिकार है। ध्यान दें तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने २०१३ में सत्ता की बात कभी कही ही नहीं और उसी दौर में दिल्ली के तख्तोताज पर नजर जमाये नरेन्द्र मोदी को भी इसका एहसास हुआ कि सत्ता पाने के लिये सत्ता की जगह सेवक होकर चुनाव जीतना ज्यादा आसान है। और दोनों जगहों पर परिवर्तन या सत्ता पलटने में जनता ने सपना देखा कि सत्ताधारी सेवक हो चला है तो साथ सेवक का ही दिया। अपने अपने घेरे में सपने दोनों ने जगाये। केजरीवाल के सपने सत्ता के तौर तरीके बदलकर सत्ता चलाने के थे। नरेन्द्र मोदी के सपने सुविधाओं का पिटारा खोलने वाले रहे। केजरीवाल जनता को भागीदार बनाकर राजा-प्रजा की लकीर को खत्म करने का सपना दिखा रहे थे। मोदी राजा बनकर रात रात भर जाग कर जनता का हित साधने का सपना पैदा कर रहे थे।
केजरीवाल जनता में यह भरोसा जता रहे थे कि सत्ताधारियों को भी सड़क का सिपाही बनाकर रात रात भर खड़ा किया जा सकता है। नरेन्द्र मोदी सत्ताधारियों में अनुशासन और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने का वायदा कर जनता को भरोसे में लेते रहे। केजरीवाल भूखे पेट रहकर सत्ता के संघर्ष को जनता से जोड़ने का सपना पाले रहे। और मोदी हर क्षण जनता के दर्द के साथ जुड़कर सत्ता की जमीन और छत दोनो दिलाने के सपने जगाते रहे। दोनों के निशाने पर भ्रष्टाचार था। दोनों की निगाहों में ईमानदारी थी। दोनों ने खुद को पाक साफ साबित करने के लिये सत्ताधारियों को ही निशाने पर लिया। केजरीवाल ने मनमोहन सरकार के कैबिनेट मंत्रियों के भ्रष्टाचार के अनकहे किस्सों से लेकर क्रोनी कैपटलिज्म की अनकही कहानियों को ही सार्वजिक कर कानून चलाने वालो पर चोट कर दी। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह की जगह गांधी परिवार और दामाद पर सीधा हमला कर आम जनता की उस नब्ज को छुने की कोशिश की जहां रंक साजा से टकराने की हिम्मत करता हुआ दिखायी थे। दोनों ही अपने अपने घेरे में खूब सफल हुये । और दोनो ने ही देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को ही हराया। लेकिन अब ना तो २०१३ है ना ही २०१४ । अब २०१५ शुरु हो रहा है और संयोग से दिल्ली में टकराना इन्हीं दोनों को है। कांग्रेस नहीं है। गांधी परिवार के अनकहे किस्से नहीं है। भ्रष्ट मंत्रियों की फेहरिस्त नहीं है। राजनीतिक प्रयोग की नयी बिसात है। सपनों को जगाने का जमावड़ा है। चुनाव कैसे जीता जाता है इसकी खुली प्रयोगशाला पार्टी संगठन के नायाब प्रयोग है। हर वोटर के घर तक पहुंचने की ख्वाहिश है। हर वोटर के दिल में सपनों को जगाने की चाहत है और सत्ता हर हाल में मिल जाये इसके लिये सेवको की कतार है। तो फिर दिल्ली के सपने होंगे क्या। क्या सबसे बड़ा सपना यही हो चला है कि दिल्ली में २०१३ की सियासी टकराव की धारा २०१५ में तीन सौ साठ डिग्री में घूमकर फिर वही आ खड़ी हुई है , जहां उसे नये सपने जगाने होंगे। व्यवस्था बदलने की ठाननी होगी। दूरियां बढाती बाजार व्यवस्था को थामना होगा। विकास के सपने तले जिन्दगी की त्रासदियों के सच को समझना होगा। दो जून की रोटी के लिये संघर्ष और जमा
देने वाली ठंड में बिन छत जीने की मजबूरी वाले हालात किसने खड़े किये उस सियासत से भी टकराना होगा। हक के सवाल सत्ता से बडे होते है, यह मानना होगा। यानी चुनावी बिसात सामूहिकता के संघर्ष का बोध भर ना कराये। वोट के लिये मारा-मारी जिन्दगी सुकुन बनाने के पैकेज पर ना टिके। चुनावी जीत के बाद की सत्ता चंद हाथो के जरीये सपने पूरा करने वाले एहसास पर ना टिके इसके लिये दिल्ली को तैयार होना ही होगा।
लेकिन यह संभव कैसे है। एक तरफ केन्द्र सरकार अगर खुद को चुनाव जीतने के कारखाने में बदल लेने पर आमादा हो और दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी भी अब चुनाव जीतने की कवायद में खुद को प्रोफेशनल बनाने पर तुली है। तो फिर वह सपने कैसे जागेंगे जिसमें जिक्र स्वराज का होना है। जहां रोजगार और विकास के सपने नहीं चाहिये बल्कि मौजूदा व्यवस्था के तौर तरीको को बदलते हुये राज्य को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उठते कदम हो। बिजली-पानी की कीमत वसूली या सडक टैक्स किसी कारपोरेट के मुनाफे से ना जुड़ें। सुशासन का मतलब नौकरशाही की सुबह नौ बजे से शाम छह बजे तक नौकरी भर ना हो। विकास का मतलब किसी भी नीतियों के लागू करने का एलान भर ना हो। योजनाओं को लेकर ब्लू प्रिंट के बगैर देश को बदलने का सपना जगाने का ना हो। हर हाल में चकाचौंध का सपना और सूचना क्रांति के जरीये ज्यादा ज्यादा से माध्यमों से सिर्फ अपनी बात हर किसी के कानों में गूंजाने भर का ना हो। लूटियन्स की दिल्ली में ही नये बरस के जश्न में दिल्ली के पकवानों को बेचने और खाने वालो के बीच फेका हुआ झूठन चुन चुन कर खाने की जद्दोजहद करते लोगो की तरफ आंख मूंद कर अपनी गरम जेब टटोलने भर का ना हो। असल में २०१५ का दिल्ली चुनाव सिर्फ बदलाव की हवा बहाने वाले जीत के दो नायकों के सपनो का नहीं होना चाहिये बल्कि किन रास्तों पर देश को चलना है, वह रास्ता दिखाने वाला होना चाहिये। जिसकी उम्मीद की जाये या यह मान कर चला जाये कि एक की उड़ान को थामने भर के लिये दूसरे को जीता दें। और फिर कल कोई दूसरा उड़ान भरे तो उसके पर कतरने के लिये वोट बैंक का आसरा ले लिया जाये। सियासत के ऐसे चुनावी प्रयोग ही बीते साठ बरस का सच है। जनता ऐसे सपनो को देखते देखते थक चुकी है। इसलिये मनाइये कि २०१५ में दिल्ली सरीखा छोटा सा राज्य ही कोई राह दिखा दे तो लोकतंत्र की जय कहा जाये। विदेशी पूंजी और चोखे कारपोरेट के आसरे दिल्ली ना चले बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य , पानी, सफर और छत मुहैया कराने के जिम्मेदारी खुद राज्य ले लें तो ही सपने जागेंगे। नहीं तो फिर सपने टूटेंगे। २०१३-२०१४ का भरोसा डिगेगा और जनता का गुस्सा फिर किसी आंदोलन के इंतजार में लोकतंत्र को नये सिरे से जीने का इंतजार करेगा । हो सकता है फिर वहां से कोई नायक निकले जो कहे सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना। और देश फिर सपनों की उड़ान भरने लगें।
Wednesday, December 24, 2014
'भारत रत्न' के एलान से राजधर्म का कर्ज उतर गया !
"मेरा एक ही संदेश है कि राजधर्म का पालन करें। राजधर्म....। यह शब्द काफी सार्थक है। मै इसी का पालन कर रहा हूं। पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिये शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं हो सकता। ना जन्म के आधार पर ना जाति के आधार पर ना संप्रदाय के आधार पर। [ हम भी वही कर रहे हैं साहेब] मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र भाई भी यही करेंगे।"
राजधर्म शब्द भी सियासी कटघरा हो जायेगा, यह न तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने बोलते वक्त सोचा होगा ना ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा कि २००२ से २०१२ तक राजधर्म के कटघरे में बार बार उन्हें आजमाने की कोशिश होगी। बारस बरस पहले वाजपेयी के सिर्फ साठ सेकेंड के इस वक्तव्य ने नरेन्द्र मोदी के सामने राजधर्म का इम्तिहान बार बार रखा। और हर बार गुजरात चुनाव जीतने के बाद भी राजधर्म शब्द ने २०१२ तक मोदी का पीछा भी नहीं छोड़ा। और दस बरस तक यह ऐसा सवाल बना रहा जो बार बार वाजपेयी और मोदी के नाम का एकसाथ जिक्र होते ही हर जुबा पर बरबस आया ही। संयोग देखिये जैसे ही बुधवार की सुबह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने का ऐलान हुआ, वैसे ही राजनीतिक गलियारे में पहला शब्द यही गूंजा कि चलो राजधर्म का कर्ज आज उतर गया। लेकिन भारत रत्न के एलान के साथ ही मोदी के लिये कहे गये राजधर्म शब्द का दायरा भी बड़ा हो गया और २००२ में जिस राजधर्म शब्द का प्रयोग करते हुये वाजपेयी जी यह बोलते बोलते बोल गये थे कि, ‘मैं भी राजधर्म का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं।’तो भारत रत्न वाजपेयी के राजधर्म को भी समझना जरुरी है, जिन्हें संसद के भीतर पहली बार बोलते हुये सुनने के बाद १९५९ में नेहरु भी यह कहने से नहीं चुके थे कि यह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। इंदिरा गांधी ने भी जिस वाजपेयी को सराहा और आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई सरकार की कश्मकश से आहत जेपी से पटना मिलने गये जिस वाजपेयी ने पत्रकारों को मुहावरे में जबाब देकर मोरारजी देसाई सरकार के बारे में सबकुछ कह दिया और जेपी भी वाजपेयी की साफगोई पर खुश हुये बिना ना रह सके वह मुहावरे वाला बयान था, उधर कुंड, इधर कुंआ बीच में धुआं ही धुआं। [ दरअसल उस वक्त सूरज कुंड और पटना में जेपी के घर कदम कुआं के बीच मोरारजी सरकार झूल रही थी ] यूं वाजपेयी पर तो वीपी और चन्द्रशेखर भी तब मुरीद हुये जब आडवानी की रथयात्रा के दौर में वाजपेयी विदेश यात्रा पर निकल गये। लेकिन राजधर्म के दायरे में वाजपेयी का असली इम्तिहान तो अयोध्या कांड के वक्त हुआ। ५ दिसंबर १९९२ को वाजपेयी के भाषण ने राजधर्म की लकीर पर चलने वाले वाजपेयी को अयोध्या में धर्मराज के तौर पर देखा समझा। वाजपेयी ने १५ मिनट के भाषण में जो कहा वह २००२ के राजधर्म पर भारी था। हजारों हजार कारसेवकों को संबोधित करते हुये वाजपेयी बोले,
‘सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला लिया है उसका अर्थ मै बताता हूं। वो कारसेवा रोकना नहीं है। सचमूच में सुप्रीम कोर्ट ने हमे अधिकार दिया है कि हम कारसेवा करें। रोकने का तो सवाल ही पैदा नहीं है। कल कारसेवा
करके अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय की अवहेलना नहीं होगी। कारसेवा करके सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का सम्मान किया जायेगा। ये ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक अदालत में वकीलों की बेंच फैासला नहीं करती आपको निर्माण का काम बंद रखना पड़ेगा। मगर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि आप भजन कर सकते हैं। कीर्तन कर सकते हैं। अब भजन एक व्यक्ति नहीं करता। भजन होता है तो सामूहिक होता है। और कीर्तन के लिये तो और भी लोगो की आवश्यक्ता होती है। और भजन कीर्तन खड़े खड़े तो हो नहीं सकता। कब तक खड़े रहेंगे। वहां नुकीले पत्थर निकलते हैं तो उन पर तो कोई बैठ नहीं सकता। तो जमीन को समतल करना होगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ निर्माण भी होगा। कम से कम वेदी तो बनेगी।’
जाहिर है राजधर्म के यह सवाल अब इतिहास के पन्नों में खो गये से लगे। लेकिन देश भी तो बनते बनते बनता है। और आजादी के ६७ बरस के दौर में भारत रत्न समयकाल से तो कम ही मिले। ६७ बरस में ४५ भारत रत्न। और राजधर्म का सवाल तो इसलिये भी बड़ा है क्योकि राजनेताओं ने खुद को ही भारत रत्न माना। सबसे पहले तो नेहरु ने ही खुद को १९५५ में भारत रत्न से नवाज दिया। इस लीक पर इंदिरा गांधी भी
चली और १९७१ में उन्होने भी खुद को भारत रत्न के सम्मान से नवाजे जाने में कोताही नहीं बरती। वैसे इस राह पर राजीव गांधी तो नहीं चले लेकिन राजीव गांधी की मौत से निकली कांग्रेसी सत्ता की कमान थामे पीवी नरसिंह राव ने पीएम बनते ही राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करार दिया। यूं पीवी नर्सिमह राव ने हिम्मत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भी भारत रत्न देने के ऐलान के साथ दिखायी। लेकिन नेताजी का मामला विवादों में घिर गया । क्योंकि नेताजी के अधिकांश अनुयायी यह मानते है कि उनकी मृत्यु की कथा मनगढंत और संदेहास्पद है। मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया। और एक बहुत बड़े वर्ग को ध्यान में रखकर इसे ४ अगस्त १९९७ को रद्द भी कर दिया गया। लेकिन तब भाजपा ने मुद्दा उठाया कि नेताजी की मौत से जुड़ी सारी फाइलें सार्वजनिक की जायें। लेकिन नेताजी की फाइलें सार्वजनिक करने की हिम्मत ना तो वाजपेयी ने दिखायी ना ही मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिखा पा रहे हैं। और राजधर्म राजा बनते ही हर किसी से कई मुद्दो पर चूका। लेकिन १३ दिन और १३ महीने की सरकार गंवाने के बाद जब तीसरी बार वाजपेयी राजा बने तो संसद में यह कहने से नहीं चूके कि बहुमत होता तो राम मंदिर, धारा ३७० और कॉमन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में नहीं डालते।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के बाद जवाब देते हुये वाजपेयी ने खुले तौर पर कहा,
"राम मंदिर के निर्माण का जिक्र नहीं है। धारा ३७० को खत्म करने का जिक्र नहीं है। कामन सिविल कोड का जिक्र नहीं है। आपने तो स्वदेशी का भी परित्याग कर दिया। और यह बातें इस तरह कहीं गई जैसे इस बात को कहने वाले बेहद दुखी हैं । वो तो इन बातो की आलोचना करते रहे। हमें इसलिये दोषी ठहराते रहे कि हम राममंदिर बनान चाहते हैं। ३७० खत्म करने की बात कह रहे हैं। तो हम देश की एकता कैसे कायम रखेंगे। शादी ब्याह का सामान कानून भले ही संविधान में लिखा हो। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मोहर लगायी है। आप कैसे कह सकते हो । और आप कहेंगे तो आप देश को तोड़ देंगे। और अगर हम कहते है कि कि यह सारे कार्यक्रम नहीं है। तो यह इसलिये नहीं है क्योंकि हमें बहुमत नहीं है । हमने कुछ छुपने छुपाने की बात नहीं की। हम बहुमत के लिये लड़ रहे हैं। जो जनमत मिला उसने आपको अस्वीकार कर दिया। हमे भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। हम तो बहुमत चाहते थे।"
तो वाजपेयी के राजधर्म के अक्स में भाजपा तो आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है । फिर विकास के दायरे में दिल के मुद्दे सत्ता के लिये खामोश है या फिर दिल बदल गया है क्योंकि देश बदल रहा है। लेकिन राजधर्म तो राजधर्म ही होता है। और राजधर्म निभाते हुये किसी राजा की घर वापसी नहीं होती। ना तो २००२ के राजधर्म की परिभाषा बदली और ना ही राजधर्म निभाने का प्रयास करते वाजपेयी के कथन की भाषा बदली है कि शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं होता । ना जाति के आधार पर । ना जन्म के आधार पर । ना संप्रदाय के आधार पर । शायद इसीलिये वाजपेयी को भारत रत्न के एलान ने राजधर्म के सियासी कटघरे के बारह बरस के वनवास को खत्म कर दिया।
राजधर्म शब्द भी सियासी कटघरा हो जायेगा, यह न तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने बोलते वक्त सोचा होगा ना ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्द्र मोदी ने सोचा होगा कि २००२ से २०१२ तक राजधर्म के कटघरे में बार बार उन्हें आजमाने की कोशिश होगी। बारस बरस पहले वाजपेयी के सिर्फ साठ सेकेंड के इस वक्तव्य ने नरेन्द्र मोदी के सामने राजधर्म का इम्तिहान बार बार रखा। और हर बार गुजरात चुनाव जीतने के बाद भी राजधर्म शब्द ने २०१२ तक मोदी का पीछा भी नहीं छोड़ा। और दस बरस तक यह ऐसा सवाल बना रहा जो बार बार वाजपेयी और मोदी के नाम का एकसाथ जिक्र होते ही हर जुबा पर बरबस आया ही। संयोग देखिये जैसे ही बुधवार की सुबह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किये जाने का ऐलान हुआ, वैसे ही राजनीतिक गलियारे में पहला शब्द यही गूंजा कि चलो राजधर्म का कर्ज आज उतर गया। लेकिन भारत रत्न के एलान के साथ ही मोदी के लिये कहे गये राजधर्म शब्द का दायरा भी बड़ा हो गया और २००२ में जिस राजधर्म शब्द का प्रयोग करते हुये वाजपेयी जी यह बोलते बोलते बोल गये थे कि, ‘मैं भी राजधर्म का पालन करने का प्रयास कर रहा हूं।’तो भारत रत्न वाजपेयी के राजधर्म को भी समझना जरुरी है, जिन्हें संसद के भीतर पहली बार बोलते हुये सुनने के बाद १९५९ में नेहरु भी यह कहने से नहीं चुके थे कि यह एक दिन देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। इंदिरा गांधी ने भी जिस वाजपेयी को सराहा और आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई सरकार की कश्मकश से आहत जेपी से पटना मिलने गये जिस वाजपेयी ने पत्रकारों को मुहावरे में जबाब देकर मोरारजी देसाई सरकार के बारे में सबकुछ कह दिया और जेपी भी वाजपेयी की साफगोई पर खुश हुये बिना ना रह सके वह मुहावरे वाला बयान था, उधर कुंड, इधर कुंआ बीच में धुआं ही धुआं। [ दरअसल उस वक्त सूरज कुंड और पटना में जेपी के घर कदम कुआं के बीच मोरारजी सरकार झूल रही थी ] यूं वाजपेयी पर तो वीपी और चन्द्रशेखर भी तब मुरीद हुये जब आडवानी की रथयात्रा के दौर में वाजपेयी विदेश यात्रा पर निकल गये। लेकिन राजधर्म के दायरे में वाजपेयी का असली इम्तिहान तो अयोध्या कांड के वक्त हुआ। ५ दिसंबर १९९२ को वाजपेयी के भाषण ने राजधर्म की लकीर पर चलने वाले वाजपेयी को अयोध्या में धर्मराज के तौर पर देखा समझा। वाजपेयी ने १५ मिनट के भाषण में जो कहा वह २००२ के राजधर्म पर भारी था। हजारों हजार कारसेवकों को संबोधित करते हुये वाजपेयी बोले,
‘सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला लिया है उसका अर्थ मै बताता हूं। वो कारसेवा रोकना नहीं है। सचमूच में सुप्रीम कोर्ट ने हमे अधिकार दिया है कि हम कारसेवा करें। रोकने का तो सवाल ही पैदा नहीं है। कल कारसेवा
करके अयोध्या में सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय की अवहेलना नहीं होगी। कारसेवा करके सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय का सम्मान किया जायेगा। ये ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जब तक अदालत में वकीलों की बेंच फैासला नहीं करती आपको निर्माण का काम बंद रखना पड़ेगा। मगर सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि आप भजन कर सकते हैं। कीर्तन कर सकते हैं। अब भजन एक व्यक्ति नहीं करता। भजन होता है तो सामूहिक होता है। और कीर्तन के लिये तो और भी लोगो की आवश्यक्ता होती है। और भजन कीर्तन खड़े खड़े तो हो नहीं सकता। कब तक खड़े रहेंगे। वहां नुकीले पत्थर निकलते हैं तो उन पर तो कोई बैठ नहीं सकता। तो जमीन को समतल करना होगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ निर्माण भी होगा। कम से कम वेदी तो बनेगी।’
जाहिर है राजधर्म के यह सवाल अब इतिहास के पन्नों में खो गये से लगे। लेकिन देश भी तो बनते बनते बनता है। और आजादी के ६७ बरस के दौर में भारत रत्न समयकाल से तो कम ही मिले। ६७ बरस में ४५ भारत रत्न। और राजधर्म का सवाल तो इसलिये भी बड़ा है क्योकि राजनेताओं ने खुद को ही भारत रत्न माना। सबसे पहले तो नेहरु ने ही खुद को १९५५ में भारत रत्न से नवाज दिया। इस लीक पर इंदिरा गांधी भी
चली और १९७१ में उन्होने भी खुद को भारत रत्न के सम्मान से नवाजे जाने में कोताही नहीं बरती। वैसे इस राह पर राजीव गांधी तो नहीं चले लेकिन राजीव गांधी की मौत से निकली कांग्रेसी सत्ता की कमान थामे पीवी नरसिंह राव ने पीएम बनते ही राजीव गांधी को भारत रत्न से सम्मानित करार दिया। यूं पीवी नर्सिमह राव ने हिम्मत नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को भी भारत रत्न देने के ऐलान के साथ दिखायी। लेकिन नेताजी का मामला विवादों में घिर गया । क्योंकि नेताजी के अधिकांश अनुयायी यह मानते है कि उनकी मृत्यु की कथा मनगढंत और संदेहास्पद है। मामला सुप्रीम कोर्ट भी गया। और एक बहुत बड़े वर्ग को ध्यान में रखकर इसे ४ अगस्त १९९७ को रद्द भी कर दिया गया। लेकिन तब भाजपा ने मुद्दा उठाया कि नेताजी की मौत से जुड़ी सारी फाइलें सार्वजनिक की जायें। लेकिन नेताजी की फाइलें सार्वजनिक करने की हिम्मत ना तो वाजपेयी ने दिखायी ना ही मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दिखा पा रहे हैं। और राजधर्म राजा बनते ही हर किसी से कई मुद्दो पर चूका। लेकिन १३ दिन और १३ महीने की सरकार गंवाने के बाद जब तीसरी बार वाजपेयी राजा बने तो संसद में यह कहने से नहीं चूके कि बहुमत होता तो राम मंदिर, धारा ३७० और कॉमन सिविल कोड को ठंडे बस्ते में नहीं डालते।
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के बाद जवाब देते हुये वाजपेयी ने खुले तौर पर कहा,
"राम मंदिर के निर्माण का जिक्र नहीं है। धारा ३७० को खत्म करने का जिक्र नहीं है। कामन सिविल कोड का जिक्र नहीं है। आपने तो स्वदेशी का भी परित्याग कर दिया। और यह बातें इस तरह कहीं गई जैसे इस बात को कहने वाले बेहद दुखी हैं । वो तो इन बातो की आलोचना करते रहे। हमें इसलिये दोषी ठहराते रहे कि हम राममंदिर बनान चाहते हैं। ३७० खत्म करने की बात कह रहे हैं। तो हम देश की एकता कैसे कायम रखेंगे। शादी ब्याह का सामान कानून भले ही संविधान में लिखा हो। भले ही सुप्रीम कोर्ट ने मोहर लगायी है। आप कैसे कह सकते हो । और आप कहेंगे तो आप देश को तोड़ देंगे। और अगर हम कहते है कि कि यह सारे कार्यक्रम नहीं है। तो यह इसलिये नहीं है क्योंकि हमें बहुमत नहीं है । हमने कुछ छुपने छुपाने की बात नहीं की। हम बहुमत के लिये लड़ रहे हैं। जो जनमत मिला उसने आपको अस्वीकार कर दिया। हमे भी पूरी तरह स्वीकार नहीं किया। हम तो बहुमत चाहते थे।"
तो वाजपेयी के राजधर्म के अक्स में भाजपा तो आज पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है । फिर विकास के दायरे में दिल के मुद्दे सत्ता के लिये खामोश है या फिर दिल बदल गया है क्योंकि देश बदल रहा है। लेकिन राजधर्म तो राजधर्म ही होता है। और राजधर्म निभाते हुये किसी राजा की घर वापसी नहीं होती। ना तो २००२ के राजधर्म की परिभाषा बदली और ना ही राजधर्म निभाने का प्रयास करते वाजपेयी के कथन की भाषा बदली है कि शासक के लिये प्रजा प्रजा में भेद नहीं होता । ना जाति के आधार पर । ना जन्म के आधार पर । ना संप्रदाय के आधार पर । शायद इसीलिये वाजपेयी को भारत रत्न के एलान ने राजधर्म के सियासी कटघरे के बारह बरस के वनवास को खत्म कर दिया।
Tuesday, December 23, 2014
डल लेक में बेमौसम कमल खिलाकर जम्मू ने सियासत उलट दी !
चुनावी लोकतंत्र फेल हुआ तो बंदूक थामी। सिस्टम को लेकर गुस्सा चरम पर पहुंचा तो पत्थर उठाया। और जिन्दगी जीने की जरुरतो ने सपनों को जगाया तो वोट डाल कर अंगुली पर लोकतंत्र के उसी चिन्ह से एक ऐसी सियासी लकीर खींच दी, जिसे दिल्ली चाहकर भी भूल नहीं सकती है। क्योंकि वोट से परिवर्तन का सपना तो 1987 के बाद से ही कश्मीरी भूल चुका था। तब दिल्ली की सत्ता ने लोकतंत्र चुरा लिया था। उस वक्त दिल्ली का मतलब कांग्रेस था। और कांग्रेस पर चुनाव चोरी का आरोप कश्मीरी लगाते थे। लेकिन अब दिल्ली का मतलब बीजेपी है। और बीजेपी ने लोकतंत्र को जीने का मंत्र विकास का नारा लगाकर दिया। कश्मीरियों में भी चुनावी सपने जागे और दिल्ली की सत्ता ने भी माना कि 1987 के बाद पहली बार कश्मीरी लोकतंत्र को जीने के लिये चुनावी मैदान में उतरा। बुलेट छोड़ बैलेट को हथियारे बनाने उतरा। सैलाब के जख्मों पर बिना मलहम लगाये और जमा देने वाली ठंड को सहते हुये बिना बंदूक-पत्थर के वोट डालने निकला। संकेत साफ दिखे कश्मीर बदल रहा है।
लेकिन चुनावी परिणामों ने लोकतंत्र की चैौखट पर जीत का सेहरा बांधे दिल्ली की सत्ता को कही बड़ा दर्द दे दिया। क्योंकि आजादी के बाद से कश्मीर को अपने मुताबिक परिभाषा देने की जो सोच जनसंघ ने पाली और श्यामाप्रासद मुखर्जी ने जान गंवा दी उसी सोच की सियासी लकीर खिंचने का सवाल दिल्ली की सत्ता ने जैसे
ही इक्सठ बरस बाद उठाया, वैसे ही कश्मीरियों ने उसी हथियार से दिल्ली को नकार दिया जिस हथियार के आसरे पहली बार बीजेपी सत्ता बनाने की चौखट पर जा पहुंची हैं। गजब की सियासी पारदर्शिता जम्मू-कश्मीर ने दिखायी। 1953 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू से श्रीनगर जाने के लिये निकले तो परमिट सिस्टम सवाल उठाये। कश्मीर जाने के लिये जिस पहचान पत्र की जरुरत पड़ती थी, उसके खिलाफ आवाज उठायी। और यह सवाल उठाया कि अपने ही देश में पहचान पत्र का मतलब क्या है। जाहिर है आज की तारीख में कश्मीर जाने के लिये कोई पहचान पत्र नहीं चाहिये लेकिन धारा 370 के तहत जो विशेष दर्जा कश्मीर को 1953 में मिल चुका था उसी धारा 370 को लेकर तब आवाज श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में जनसंघ. हिन्दु महासभा और रामराज्य परिषद ने उठायी थी। उसी आवाज को नये तरीके से दिल्ली की सत्ता ने 2014 में उठाया। इस आवाज के खिलाफ कश्मीरी बंदूक उठाता तो मारा जाता, पत्थर उठाता तो भी वही घायल होता लेकिन लोकतंत्र के पैमाने पर जैसे ही उसने वोट के जरीये सवालों को उठाया वैसे चुनाव परिणाम ने भी एक नयी इमानदार परिभाषा जम्मू-कश्मीर को लेकर लिख डाली। पहली बार जम्मू ने अपनी ताकत से नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी में बंटे कश्मीर को इसका एहसास कराया कि सियासी ताकत एकजुटता से मिलती है और डल लेक में चाहे एक भी कमल ना खिला हो लेकिन बेमौसम कमल को कश्मीर के डल में जम्मू खिला सकता है। कमल के फूल को कश्मीर में पंपोश कहते है। और जैसे घाटी डल लेक के बगैर अधूरी है। वैसे ही डल लेक पंपोश यानी कमल के फूल के बगैर अधूरा है। और पंपोश दिसबंर में नहीं अप्रैल से अक्टूबर तक खूब होता है। लेकिन पंपोश का प्रयोग कमल के फूल से कहीं ज्यादा पंबोश के तौर पर होता है। पंबोश कमल के फूल के नीचे की डाली को कहते है जिसे दिल्ली में कमल ककडी के तौर पर जाना जाता है। और इसकी सब्जी बेहद स्वादिष्ट बनती है। यानी सियासी तौर पर जो कमल डल लेक में नहीं खिला वही कमल जम्मू में कुछ इस तरह खिला जिसने कश्मीर की सियासत को डिगा दिया।
तो घाटी के सियासी बिसात पर अब तीन सवाल है। पहला, क्या पहली बार जम्मू के आसरे अब कश्मीर की सियासत को चलना होगा। दूसरा , क्या कश्मीर में आजादी का सवाल अब और तीखा तो नहीं हो जायेगा। तीसरा , धारा 370 के सवाल को बीजेपी जम्मू-कश्मीर की सियासत साध कर नये सिरे से परिभाषित करना चाहेगी। जाहिर है यह तीनो सवाल उस कश्मीर के हक में नहीं है, जिसकी आवाज पीडीपी है। या फिर नेशनल कान्फ्रेंस के ऑटोनामी के सवाल के भी उलट है। और नेहरु की नीति को मान्यता देती कांग्रेस के भी खिलाफ है। तो क्या जम्मू-कश्मीर के पारदर्शी चुनाव परिणमो ने अर्से बाद एक ऐसी सियासी बिसात बिछा दी है जो कश्मीरियों में कश्मीरियत के हक को लेकर भी सपने जगा रही है और बीजेपी के उस सपने को भी हिलोर दे रही है जहा श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सपना टूटा था। इतना ही नहीं जम्मू के आसरे कश्मीर की सियासत को संसदीय राजनीति के जरीये बांधने की कोशिश बीजेपी की देशी राजनीति ही नहीं बल्कि सीमा पार की सियासत को भी पाठ पढ़ा सकती है। यानी सवाल सिर्फ धारा 370 या कश्मीरियत के अलगावबादी रुख को ठीक करने भर का नहीं है बल्कि सीमा पार से जो सवाल पाकिस्तानी सत्ता की शह पर लश्कर सरीखे संगठन और मुशर्रफ की जुबां से कश्मीर की आजादी के नारे के तौर पर निकलते रहे हैं, उस आंतक को भी जम्मू कश्मीर के चुनावी परिणाम आइना दिखा सकते हैं। सारे समीकरण बीजेपी के अनुकुल है और बीजेपी सत्ता पाने का यह मौका छोड़ेगी भी नहीं। क्योंकि चुनावी जीत के आंकड़े यह नहीं देखते कि बीजेपी के सवालों को घाटी इस हद तक खारिज कर रही है कि 2008 में मिले वोट से भी कम वोट इसबार बीजेपी को मिले । बल्कि आंकड़े यह देख रहे है कि बीजेपी को जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा 23 फीसदी। चाहे वह सिर्फ जम्मू के ही क्यों ना हो। तो घाटी का रास्ता बंदूक से निकला नहीं। पत्थरों ने राहत दी नहीं। ऐसे में वोट का लोकतंत्र सियासी जख्मो पर मलहम लगा पायेगा या नहीं अब इम्तिहान इसी का है। क्योंकि जम्मू ने डल लेक में बैमौसम पंपोश यानी कमल के फूल खिला दिया है।
लेकिन चुनावी परिणामों ने लोकतंत्र की चैौखट पर जीत का सेहरा बांधे दिल्ली की सत्ता को कही बड़ा दर्द दे दिया। क्योंकि आजादी के बाद से कश्मीर को अपने मुताबिक परिभाषा देने की जो सोच जनसंघ ने पाली और श्यामाप्रासद मुखर्जी ने जान गंवा दी उसी सोच की सियासी लकीर खिंचने का सवाल दिल्ली की सत्ता ने जैसे
ही इक्सठ बरस बाद उठाया, वैसे ही कश्मीरियों ने उसी हथियार से दिल्ली को नकार दिया जिस हथियार के आसरे पहली बार बीजेपी सत्ता बनाने की चौखट पर जा पहुंची हैं। गजब की सियासी पारदर्शिता जम्मू-कश्मीर ने दिखायी। 1953 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू से श्रीनगर जाने के लिये निकले तो परमिट सिस्टम सवाल उठाये। कश्मीर जाने के लिये जिस पहचान पत्र की जरुरत पड़ती थी, उसके खिलाफ आवाज उठायी। और यह सवाल उठाया कि अपने ही देश में पहचान पत्र का मतलब क्या है। जाहिर है आज की तारीख में कश्मीर जाने के लिये कोई पहचान पत्र नहीं चाहिये लेकिन धारा 370 के तहत जो विशेष दर्जा कश्मीर को 1953 में मिल चुका था उसी धारा 370 को लेकर तब आवाज श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अगुवाई में जनसंघ. हिन्दु महासभा और रामराज्य परिषद ने उठायी थी। उसी आवाज को नये तरीके से दिल्ली की सत्ता ने 2014 में उठाया। इस आवाज के खिलाफ कश्मीरी बंदूक उठाता तो मारा जाता, पत्थर उठाता तो भी वही घायल होता लेकिन लोकतंत्र के पैमाने पर जैसे ही उसने वोट के जरीये सवालों को उठाया वैसे चुनाव परिणाम ने भी एक नयी इमानदार परिभाषा जम्मू-कश्मीर को लेकर लिख डाली। पहली बार जम्मू ने अपनी ताकत से नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी में बंटे कश्मीर को इसका एहसास कराया कि सियासी ताकत एकजुटता से मिलती है और डल लेक में चाहे एक भी कमल ना खिला हो लेकिन बेमौसम कमल को कश्मीर के डल में जम्मू खिला सकता है। कमल के फूल को कश्मीर में पंपोश कहते है। और जैसे घाटी डल लेक के बगैर अधूरी है। वैसे ही डल लेक पंपोश यानी कमल के फूल के बगैर अधूरा है। और पंपोश दिसबंर में नहीं अप्रैल से अक्टूबर तक खूब होता है। लेकिन पंपोश का प्रयोग कमल के फूल से कहीं ज्यादा पंबोश के तौर पर होता है। पंबोश कमल के फूल के नीचे की डाली को कहते है जिसे दिल्ली में कमल ककडी के तौर पर जाना जाता है। और इसकी सब्जी बेहद स्वादिष्ट बनती है। यानी सियासी तौर पर जो कमल डल लेक में नहीं खिला वही कमल जम्मू में कुछ इस तरह खिला जिसने कश्मीर की सियासत को डिगा दिया।
तो घाटी के सियासी बिसात पर अब तीन सवाल है। पहला, क्या पहली बार जम्मू के आसरे अब कश्मीर की सियासत को चलना होगा। दूसरा , क्या कश्मीर में आजादी का सवाल अब और तीखा तो नहीं हो जायेगा। तीसरा , धारा 370 के सवाल को बीजेपी जम्मू-कश्मीर की सियासत साध कर नये सिरे से परिभाषित करना चाहेगी। जाहिर है यह तीनो सवाल उस कश्मीर के हक में नहीं है, जिसकी आवाज पीडीपी है। या फिर नेशनल कान्फ्रेंस के ऑटोनामी के सवाल के भी उलट है। और नेहरु की नीति को मान्यता देती कांग्रेस के भी खिलाफ है। तो क्या जम्मू-कश्मीर के पारदर्शी चुनाव परिणमो ने अर्से बाद एक ऐसी सियासी बिसात बिछा दी है जो कश्मीरियों में कश्मीरियत के हक को लेकर भी सपने जगा रही है और बीजेपी के उस सपने को भी हिलोर दे रही है जहा श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सपना टूटा था। इतना ही नहीं जम्मू के आसरे कश्मीर की सियासत को संसदीय राजनीति के जरीये बांधने की कोशिश बीजेपी की देशी राजनीति ही नहीं बल्कि सीमा पार की सियासत को भी पाठ पढ़ा सकती है। यानी सवाल सिर्फ धारा 370 या कश्मीरियत के अलगावबादी रुख को ठीक करने भर का नहीं है बल्कि सीमा पार से जो सवाल पाकिस्तानी सत्ता की शह पर लश्कर सरीखे संगठन और मुशर्रफ की जुबां से कश्मीर की आजादी के नारे के तौर पर निकलते रहे हैं, उस आंतक को भी जम्मू कश्मीर के चुनावी परिणाम आइना दिखा सकते हैं। सारे समीकरण बीजेपी के अनुकुल है और बीजेपी सत्ता पाने का यह मौका छोड़ेगी भी नहीं। क्योंकि चुनावी जीत के आंकड़े यह नहीं देखते कि बीजेपी के सवालों को घाटी इस हद तक खारिज कर रही है कि 2008 में मिले वोट से भी कम वोट इसबार बीजेपी को मिले । बल्कि आंकड़े यह देख रहे है कि बीजेपी को जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा 23 फीसदी। चाहे वह सिर्फ जम्मू के ही क्यों ना हो। तो घाटी का रास्ता बंदूक से निकला नहीं। पत्थरों ने राहत दी नहीं। ऐसे में वोट का लोकतंत्र सियासी जख्मो पर मलहम लगा पायेगा या नहीं अब इम्तिहान इसी का है। क्योंकि जम्मू ने डल लेक में बैमौसम पंपोश यानी कमल के फूल खिला दिया है।
Friday, December 19, 2014
धर्मांतरण पर संघ का पाठ पीएम कैसे पढें?
घर वापसी सेक्यूलरिज्म की दृष्टि से बाधक नहीं है। हिन्दुत्व तो दर्शन और व्यवहार दोनों स्तर पर सर्वधर्म सम्भाव के सिद्दांत को लेकर चलता है। जिसका वेद के प्रसिद्द मंत्र," एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति " में सुदंर तरीके से उद्घोष भी है। इसलिये हिन्दुत्व को कभी भी अपनी संख्या वृद्दि के लिये धोखाधड़ी और जबरदस्ती का आश्रय लेना नहीं पड़ा है। धर्मांतरण को लेकर बहस के बीचे यह विचार आरएसएस के हैं और अगर प्रधानमंत्री मोदी को धर्मांतरण पर अपनी बात कहनी है तो फिर संघ के इस विचार से इतर वह कैसे कोई दूसरी व्याख्या धर्मांतरण को लेकर कर सकते हैं। यह वह सवाल है जो प्रधानमंत्री को राज्यसभा के हंगामे के बीच धर्मांतरण पर अपनी बात कहने से रोक रहा है। सवाल यह भी नहीं है कि धर्मांतरण को लेकर जो सोच आरएसएस की है वह प्रधानमंत्री मोदी राज्यसभा में कह नहीं सकते।
सवाल यह है कि हिन्दुत्व की छवि तोड़कर विकास की जो छवि प्रधानमंत्री मोदी लगातार बना रहे हैं, उसमें धर्मांतरण सरीके सवाल पर जबाब देने का मतलब अपनी ही छवि पर मठ्ठा डालने जैसा हो जायेगा। लेकिन यह भी पहली बार है कि धर्मांतरण के सवाल पर मोदी सरकार को मुश्किल हो रही है तो इससे बैचेनी आरएसएस में भी है। माना यही जा रहा है कि जो काम खामोशी से हो सकता है उसे हंगामे के साथ करने का विचार धर्म जागरण मंच में आया ही क्यों। क्योंकि मोदी सरकार को लेकर संघ की संवेदनशीलता कहीं ज्यादा है। यानी वाजपेयी सरकार के दौर में एक वक्त संघ रुठा भी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ खुलकर खड़ा भी हुआ। लेकिन मोदी सरकार को लेकर आरएसएस की उड़ान किस हद तक है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि सपनो के भारत को बनाने वाले नायक के तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी को सरसंघचालक मोहन भागवत लगातार देख रहे हैं और कह भी रहे हैं। हालांकि इन सबके बीच संघ परिवार के तमाम संगठनों को यह भी कहा गया है कि वह अपने मुद्दो पर नरम ना हों। यानी मजदूरों के हक के सवाल पर भारतीय मजदूर संघ लड़ता हुआ दिखेगा जरुर। एफडीआई के सवाल पर स्वदेशी जागरण मंच कुलबुलाता हुआ नजर जरुर आयेगा और घर वापसी को धर्मांतरण के तौर पर धर्म जागरण मंच नहीं देखेगा।
दरअसल धर्म जागरण मंच की आगरा यूनिट ने घर वापसी को ही जिस अंदाज में सबके सामने पेश किया, उसने तीन सवाल खड़े किये हैं। पहला क्या संघ के भीतर अब भी कई मठाधीशी चल रही हैं, जो मोदी सरकार के प्रतिकूल हैं। दूसरा क्या विहिप को खामोश कर जिस तरह जागरण मंच को उभारा गया, उससे विहिप खफा है और उसी की प्रतिक्रिया में आगरा कांड हो गया। और तीसरा क्या मोदी सरकार के अनुकुल संघ के तमाम संगठनों को मथने की तैयारी हो रही है, जिससे बहुतेरे सवाल मोदी सरकार के लिये मुश्किल पैदा कर रहे हैं। हो जो भी लेकिन संघ को जानने समझने वाले नागपुर के दिलिप देवधर का मानना है कि जब अपनी ही सरकार हो और अपने ही संगठन हो और दोनों में तालमेल ना हो तो संकेत साफ है कि संघ की कार्यपद्दति निचले स्तर तक जा नयी पायी है। यानी सरसंघचालक संघ की उस परंपरा को कार्यशैली के तौर पर अपना चाह रहे हैं, जिसका जिक्र गुरु गोलवरकर अक्सर किया करते थे , " संघ परिवार के संस्थाओं में आकाश तक उछाल आना चाहिये। लेकिन जब हम दक्ष बोलें तो सभी एक लाइन में खड़े हो जायें" । मौजूदा वक्त में मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच मुश्किल यह है कि दक्ष बोलते ही क्या वाकई सभी एक लाइन में खड़े हो पा रहे हैं। वैसे पहली बार आरएसएस की सक्रियता किस हद तक सरकार और पार्टी को नैतिकता के धागे में पिरोकर मजबूती के साथ खड़ा करना चाह रही है यह संघ परिवार के भीतर के परिवर्तनों से भी समझा जा सकता है। क्योंकि मोहन भागवत के बाद तीन स्तर पर कार्य हो रहा है। जिसमें भैयाजी जोशी संघ और सरकार के बीच नीतिगत फैसलो पर ध्यान दे रहे हैं तो सुरेश सोनी की जगह आये कृष्णगोपाल संघ और बीजेपी के बीच तालमेल बैठा रहे हैं। और दत्तात्रेय होसबोले संघ की कमान को मजबूत कर संगठन को बनाने में लगे हैं। यानी बारीकी से सरकार और संघ का काम आपसी तालमेल से चल रहा है।
ऐसे में धर्मांतरण के मुद्दे ने पहली बार संघ के बीच एक नया सवाल खड़ा किया है कि अगर संघ के विस्तार को लेकर कोई भी मुश्किल सरकार के सामने आती है तो फिर रास्ता निकालेगा कौन। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी विकास की जिस छवि के आसरे मजबूत हो रहे हैं, उसके दायरे में देश के वोटरों को बांटा नहीं जा सकता
और धर्मांतरण सरीखे मुद्दे पर अगर प्रधानमंत्री को जबाब देना पड़े तो फिर वोटरों का भी विभाजन जातीय तौर पर और धर्म के आधार पर होगा। यानी एक तरफ संघ का विस्तार भी हो और दूसरी तरफ बीजेपी को सत्ता भी हर राज्य में मिलते चले इसके लिये संघ और सरकार के बीच तालमेल ना सिर्फ गुरु गोलवरकर की सोच के मुताबिक होना चाहिये बल्कि प्रचारक से पीएम बने मोदी दोबारा प्रचारक की भूमिका में ना दिखायी दें, जरुरी यह भी है। यानी पूरे हफ्ते राज्यसभा जो प्रधानमंत्री के धर्मांतरण पर दो बात सुनने में ही स्वाहा हो गया और 18 दिसंबर को तो पीएम राज्यसभा में आकर भी धर्मांतरण के हंगामे के बीच कुछ ना बोले। तो सवाल पहली बार यही हो चला है कि धर्मांतऱण का सवाल कितना संवैधानिक है या कितना अंसवैधानिक है और दोनों हालातों के बीच घर वापसी पर अडिग संघ परिवार की लकीर इतनी मोटी है, जो सरकार को भी उसी लकीर पर चलने को बाध्य कर रही है। ऐसे में संघ का पाठ प्रधानमंत्री कैसे पढ़ सकता है। इसे विपक्ष समझ रहा है या नहीं लेकिन प्रचारक से पीएम बने मोदी जरुर समझ रहे हैं।
सवाल यह है कि हिन्दुत्व की छवि तोड़कर विकास की जो छवि प्रधानमंत्री मोदी लगातार बना रहे हैं, उसमें धर्मांतरण सरीके सवाल पर जबाब देने का मतलब अपनी ही छवि पर मठ्ठा डालने जैसा हो जायेगा। लेकिन यह भी पहली बार है कि धर्मांतरण के सवाल पर मोदी सरकार को मुश्किल हो रही है तो इससे बैचेनी आरएसएस में भी है। माना यही जा रहा है कि जो काम खामोशी से हो सकता है उसे हंगामे के साथ करने का विचार धर्म जागरण मंच में आया ही क्यों। क्योंकि मोदी सरकार को लेकर संघ की संवेदनशीलता कहीं ज्यादा है। यानी वाजपेयी सरकार के दौर में एक वक्त संघ रुठा भी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ खुलकर खड़ा भी हुआ। लेकिन मोदी सरकार को लेकर आरएसएस की उड़ान किस हद तक है इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि सपनो के भारत को बनाने वाले नायक के तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी को सरसंघचालक मोहन भागवत लगातार देख रहे हैं और कह भी रहे हैं। हालांकि इन सबके बीच संघ परिवार के तमाम संगठनों को यह भी कहा गया है कि वह अपने मुद्दो पर नरम ना हों। यानी मजदूरों के हक के सवाल पर भारतीय मजदूर संघ लड़ता हुआ दिखेगा जरुर। एफडीआई के सवाल पर स्वदेशी जागरण मंच कुलबुलाता हुआ नजर जरुर आयेगा और घर वापसी को धर्मांतरण के तौर पर धर्म जागरण मंच नहीं देखेगा।
दरअसल धर्म जागरण मंच की आगरा यूनिट ने घर वापसी को ही जिस अंदाज में सबके सामने पेश किया, उसने तीन सवाल खड़े किये हैं। पहला क्या संघ के भीतर अब भी कई मठाधीशी चल रही हैं, जो मोदी सरकार के प्रतिकूल हैं। दूसरा क्या विहिप को खामोश कर जिस तरह जागरण मंच को उभारा गया, उससे विहिप खफा है और उसी की प्रतिक्रिया में आगरा कांड हो गया। और तीसरा क्या मोदी सरकार के अनुकुल संघ के तमाम संगठनों को मथने की तैयारी हो रही है, जिससे बहुतेरे सवाल मोदी सरकार के लिये मुश्किल पैदा कर रहे हैं। हो जो भी लेकिन संघ को जानने समझने वाले नागपुर के दिलिप देवधर का मानना है कि जब अपनी ही सरकार हो और अपने ही संगठन हो और दोनों में तालमेल ना हो तो संकेत साफ है कि संघ की कार्यपद्दति निचले स्तर तक जा नयी पायी है। यानी सरसंघचालक संघ की उस परंपरा को कार्यशैली के तौर पर अपना चाह रहे हैं, जिसका जिक्र गुरु गोलवरकर अक्सर किया करते थे , " संघ परिवार के संस्थाओं में आकाश तक उछाल आना चाहिये। लेकिन जब हम दक्ष बोलें तो सभी एक लाइन में खड़े हो जायें" । मौजूदा वक्त में मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच मुश्किल यह है कि दक्ष बोलते ही क्या वाकई सभी एक लाइन में खड़े हो पा रहे हैं। वैसे पहली बार आरएसएस की सक्रियता किस हद तक सरकार और पार्टी को नैतिकता के धागे में पिरोकर मजबूती के साथ खड़ा करना चाह रही है यह संघ परिवार के भीतर के परिवर्तनों से भी समझा जा सकता है। क्योंकि मोहन भागवत के बाद तीन स्तर पर कार्य हो रहा है। जिसमें भैयाजी जोशी संघ और सरकार के बीच नीतिगत फैसलो पर ध्यान दे रहे हैं तो सुरेश सोनी की जगह आये कृष्णगोपाल संघ और बीजेपी के बीच तालमेल बैठा रहे हैं। और दत्तात्रेय होसबोले संघ की कमान को मजबूत कर संगठन को बनाने में लगे हैं। यानी बारीकी से सरकार और संघ का काम आपसी तालमेल से चल रहा है।
ऐसे में धर्मांतरण के मुद्दे ने पहली बार संघ के बीच एक नया सवाल खड़ा किया है कि अगर संघ के विस्तार को लेकर कोई भी मुश्किल सरकार के सामने आती है तो फिर रास्ता निकालेगा कौन। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी विकास की जिस छवि के आसरे मजबूत हो रहे हैं, उसके दायरे में देश के वोटरों को बांटा नहीं जा सकता
और धर्मांतरण सरीखे मुद्दे पर अगर प्रधानमंत्री को जबाब देना पड़े तो फिर वोटरों का भी विभाजन जातीय तौर पर और धर्म के आधार पर होगा। यानी एक तरफ संघ का विस्तार भी हो और दूसरी तरफ बीजेपी को सत्ता भी हर राज्य में मिलते चले इसके लिये संघ और सरकार के बीच तालमेल ना सिर्फ गुरु गोलवरकर की सोच के मुताबिक होना चाहिये बल्कि प्रचारक से पीएम बने मोदी दोबारा प्रचारक की भूमिका में ना दिखायी दें, जरुरी यह भी है। यानी पूरे हफ्ते राज्यसभा जो प्रधानमंत्री के धर्मांतरण पर दो बात सुनने में ही स्वाहा हो गया और 18 दिसंबर को तो पीएम राज्यसभा में आकर भी धर्मांतरण के हंगामे के बीच कुछ ना बोले। तो सवाल पहली बार यही हो चला है कि धर्मांतऱण का सवाल कितना संवैधानिक है या कितना अंसवैधानिक है और दोनों हालातों के बीच घर वापसी पर अडिग संघ परिवार की लकीर इतनी मोटी है, जो सरकार को भी उसी लकीर पर चलने को बाध्य कर रही है। ऐसे में संघ का पाठ प्रधानमंत्री कैसे पढ़ सकता है। इसे विपक्ष समझ रहा है या नहीं लेकिन प्रचारक से पीएम बने मोदी जरुर समझ रहे हैं।
Tuesday, December 16, 2014
16 मई के बाद कितना -कैसे बदला मीडिया पार्ट- 3
जन-आंकाक्षाओं तले मीडिया की बंधी पोटली के मायने
बीते सात महीनों में एक सवाल तो हर जहन में है कि देश में मोदी का राजनीतिक विक्लप है ही नहीं। यानी जनादेश के सात महीने बाद ही अगर मोदी सरकार की आलोचना करने की ताकत कांग्रेस में आयी है या क्षत्रपों को अपने अपने किले बचाने के लिये जनता परिवार का राग गाना पड़ रहा है तो भी प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प यह हो नहीं सकते। राहुल गांधी हो या क्षत्रपों के नायक मुलायम, नीतिश या लालू । कोई मोदी का विकल्प हो नही सकता है। क्योंकि सभी हारे हुये नायक तो हैं ही बल्कि जनादेश ने जो नयी आकांक्षायें देश में नये सीरे से जगायी है उसके सिरे को पकड़ने में यह तमाम चेहरे नाकामयाब हो रहे हैं। तो फिर विकल्प का सवाल भी सियासी राजनीति से गायब है। इसलिये पहली बार प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा हो या चुनावी प्रचार की रैली के लिये राज्यों का दौरा दोनो में कोई अंतर नजर आता नहीं। भाषण हो या फिर सियासत दोनों जगहों पर अंदाज एकसा भी नजर आता है और कभी न्यूयार्क तो कभी सिडनी की एऩआरआई रैली भी देश के चुनावी रैलियों का हिस्सा भाषण की किसासगोई में बन जाती है तो कभी देश की चुनावी रैली अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रधानमंत्री की एनआरआई रैलियो में किस्सागोई की तर्ज पर उभर कर प्रधानमंत्री के कद को नये तरीके से गढ़ती हुई लगती है।
लेकिन सवाल है कि लोकप्रिय होने के मोदी के इस अंदाज को देश के सामाजिक-आर्थिक हालात के कटघरे में खड़े करने का साहस करते हुये भी कोई राजनीतिक दल या किसी राजनीतिक दल का कोई नेता उभर नहीं पाता है। ना उभरने या मोदी विरोध करते हुये ताकतवर दिखने से दूर तमाम नेता कमजोर दिखायी देते हैं। क्योंकि सभी ने अपनी साख सत्ता में रहते गंवायी है। तो फिर सत्ता के हर लडाई सिवाय निजी स्वार्थ से आगे किसी नेता की बढ़ भी नहीं पाती है। ऐसे में मीडिया इस राजनीति के सिरे को पकड़े या पूंछ को हाथ में मोदी की लोकप्रियता ही आयेगी और मीडिया की साख का सवाल यही से शुरु होता है।
दरअसल पहली बार जनादेश पाने वाले हो या गंवाने वाले दोनों ने ही मीडिया को चाहे-अनचाहे एक ऐसे हथियार के तौर पर उभार दिया जहां राजनीतिक-टूल से आगे मीडिया की कोई बानगी किसी को समझ आ ही नहीं रही है । मीडिया के प्रचार से जनादेश नहीं बनता लेकिन जनादेश से मीडिया की साख से खुला खिलवाड़ तो किया ही जा सकता है। मीडिया ने मोदी को ना जिताया ना मीडिया ने राहुल गांधी को हराया। तो भी मीडिया उसी राजनीति का सबसे बेहतरीन हथियार बना दिया गया जहां संपादकों और मालिकों के सामने खुद को ताकतवर बनाने के लिये राजनीतिक सत्ता के सामने नतमस्तक होना पड़े । कोई जरुरी नहीं है कि कोई संपादक राजनीतिक सत्ता के विरोध में खडा हो जाये तो उसे मुश्किल होगी। या फिर कोई मीडिया समूह सत्ता पर निगरानी करने के अंदाज में पत्रकारिता करने लगे तो उसके सामने मुश्किल हालात पैदा हो जायेंगे । मुश्किल हालात उसी के सामने पैदा होगें जिसका धंधा मीडिया हाउस चलाते हुये कई दूसरे घंघो को चलाने वाला हो । यानी मुनाफा व्यवस्था का उघोग अगर कोई मीडिया समूह या कोई संपादक-मालिक चला रहा होगा तो उसके सामने तो मुश्किल सामान्य अवस्था में भी होनी चाहिये। लेकिन मीडिया के लिये राजनीतिक ताकत का मतलब यही होता है कि उसके नाजायज धंधों पर सरकार खामोश रहे। या फिर जो सत्ता में आये वह उस मीडिया समूह के मुनाफे पर आंच ना आने दे। हालांकि गलत धंघे या फिर भारत के सामाजिक आर्थिक हालात
में कोई संपादक या मालिक करोडों के वारे -न्यारे करता रहे तो संकट तो उसके सामने कभी भी आ सकता है या कहे उसकी पूंछ तो हमेशा सत्ता के पांव तले दबी ही रहेगी। तो फिर मीडिया की एक सर्वमान्य परिभाषा राजनीतिक सत्ता के लिये बेहतर हालात बनाने के इतर क्या हो सकती है । ऐसे हालात तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में खूब देखे गये।
खासतौर से पूंजी पर टिके मीडिया व्यवसाय को जिस बारिकी से आर्थिक सुधार तले मनमोहन सिंह ले आये उसमें झटके में मीडिया की पत्रकारिता धंधे में बदली इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन नया सवाल मीडिया के दायरे में उस पत्रकारिता का है जो राजनीतिक शून्यता में खूद को भी शून्य मान रहा है। यानी राजनीतिक विकल्प नहीं है तो फिर मीडिया भी कौन सी पत्रकारिता करे। और पत्रकारिता हवा में सत्ता के खिलाफ हो ही क्यों जबकि उसे कोई राजनीतिक दल थामने वाला है ही नहीं। यह सवाल बड़े बड़े संपादको के दिल में है कि लिख कर कौन सा खूंटा उखाड लेंग । क्योंकि मोदी का कोई विकल्प तो है ही नहीं। और मोदी मौजूदा संसदीय राजनीति के संकट के दौर में खुद विकल्प नहीं है। ऐसे में पत्रकारिता खामोश रह कर ही की जाये तो बेहतर है।
दरअसल यह हालात पहली बार दो सवाल साफ तौर पर खडा कर रहे हैं। पहला, मीडिया को हर हाल में एक राजनीतिक ठौर चाहिये और दूसरा पत्रकारिता सत्ता को डिगाने के लिये कभी नहीं होती बल्कि सत्ता किसकी बनानी है उसके लिये होती है। यानी दोनों हालातों में मीडिया को राजनीति या राजनेताओं के दरबार में चाकरी करनी ही है । इस हालात में एक तीसरा पक्ष है कि क्या देश की समूची ताकत ही राजनीतिक सत्ता में तो सिमट नहीं गयी है। और इस लकीर को संपादक-मालिक अपनी पहल से ही मान्यता दे रहे हैं। क्योंकि मीडिया के भीतर ही नहीं राजनीतिक गलियारे में भी आवाज यही गूंजती है कि एक वक्त के बाद संपादक या मालिक या कद्दावर पत्रकार को तो राजनीति का दामन थामना ही है। यानी मीडिया ने भी मान लिया है कि मीडिया के हालात बदतर होने के बाद हर किसी को राजनीति ही करनी है। संपादक हो या मालिक दोनो को संसद में ही जा कर हालात को संभालना या सहेजना होगा। यानी चुनाव लड़ने या राज्यसभा के रास्ते संसद तक पहुंच कर कहीं ज्यादा बेहतर हालात किसी पत्रकार के हो ना हो लेकिन साख गंवाने के बाद साख गंवा चुकी राजनीति के चौखट पर माथे टेकने से पत्रकार की साख लौट सकती है या बढ़ सकती है। यह अजीबोगरीब तर्क मौजूदा
वक्त की नब्ज है। यानी जिस मान को पत्रकारिता करते हुये कोई संपादक नीचे गिराता है उसे उठाने का रास्ता राजनीति का वह मैदान ही बचता है जो राजनीति कभी मीडिया को अपने दरबार में नतमस्तक करती है। ध्यान दें तो पत्रकारिता किसी भी हालात में हो ही नहीं रही है। और यह सवाल जानबूझकर उछाला हुआ सा लगता है कि मनमोहन सरकार के दौर में और मोदी सरकार के दौर में कोई बहुंत बड़ा अंतर आ गया है। दरअसल मीडिया को राजनीतिक सत्ता के दरबार का चाकर किसने और कब कैसे बनाया यह संपादकों की कडी के साथ साथ मीडिया संस्थानों की बढ़ती इमारतों से भी समझा जा सकता है और कद्दावर या समझदार, पैना लिखने वाले संपादकों की राजनीतिक दलों से जुडने के बाद किसी साध्वी या योगी के बयानो को बातूनी अंदाज में व्याख्या करने से भी समझा जा सकता है और मनमोहन सिंह के दौर में कभी विश्व बैंक के मोहरों की राजनीति को देश के लिये हितकारी बनाने वाले सलाहकार पत्रकारों के जरीये भी देखा-परखा जा सकता है। यह वाकई मुश्किल सवाल है कि मौजूदा वक्त में जो कद्दावर पत्रकार सत्ता से चिपटे हुये है, गुनहगार वे हैं या जो पत्रकार इससे पहले की सत्ता के करीब थे गुनहगार वे रहे। हो सकता है गुनहगार दोनों ना लगे और यह सवाल ज्यादा मौजूं लगे कि आखिर पत्रकार सिर्फ पत्रकार होकर ही रिटायर्ड कैसे हो जाये। या फिर मीडिया लोकतंत्र के पहले खम्भे से गलबहिया डाले बगैर अपने चौथे खम्भे के होने का एहसास कैसे कराये। दरअसल यह सारे सवाल 16 मई 2014 के बाद बदले हैं। क्योंकि बीते २०-२२ बरस की पत्रकारिता पर आर्थिक सुधार के बाजारवाद का असर था इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद से २०१४ के लोकसभा चुनाव में पारंपरिक मीडिया को ठेंका दिखाते हुये सामानांतर सोशल मीडिया की भूमिका का प्रभाव जिस तेजी से आंदोलन से लेकर जनादेश तक को सफल बनाने में हुआ उसने पहली बार इसके संकेत भी दे दिये समाचार पत्र या न्यूज चैनल खबरों की पत्रकारिता कर नहीं सकते। और राजनीति को प्रभावित करने वाले विचार इन दोनों माध्यमों के संपादकों के पास तबतक हो नहीं सकते जबतक राजनीति का मैदान सियासी टकराव के दौर में ना आ जाये। यानी राजनीतिक टकराव मीडिया को आर्थिक लाभ देता है। और जनादेश की सियासत मीडिया को पंगु बनायेगी ही ।
तो सवाल है कि दोनों हालात जनता के कटघरे में तो एक से ही होंगे। ऐसे में बिना पूंजी, बिना मुनाफे की सोच पाले सोशल मीडिया धारधार होगा इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। लेकिन सोशल मीडिया बिना जिम्मेदारी या हवा को आंधी बनाने का खुला हथियार भी हो सकता है। जिसके खतरे सतह पर जमे राजनीति के कीचड़ को विकास भी करार दे सकते है और भ्रष्टचार की परिभाषा को धर्म तले आस्था से जोड कर राजनीतिक सत्ता को सियासी पनाह भी दे सकते है । ऐसे में खतरा सिर्फ यह नहीं है कि मीडिया की परिभाषा बदल जाये या पत्रकारिता के तेवर परंपरिक पत्रकारिता को ही खत्म कर दे। खतरा यह भी है मौजूदा संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीको की साख उस लोकतंत्र को ही खत्म कर दें जो देश में तानाशाही व्यवस्था पर लगाम लगाती रही है । एक वक्त इंदिरा गांधी ने जनसमर्थन से पहले काग्रेस को अपने पल्लू में बांधा और फिर कांग्रेसी चापलूस इंदिरा इज इंडिया कहने से नहीं कतराये। और मौजूदा वक्त में विकल्प तलाशते विपक्ष को सत्तादारी बीजेपी में कोई खोट नजर नहीं आ रहा , एक वक्त हिन्दुत्व के धुरधर अच्छे लग रहे हैं। लेकिन
जनादेश के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी खलनायक लग रहे हैं। यह सारे रास्ते आखिर में लोकतंत्र की नयी परिभाषा तो गढेंगे ही। क्योंकि तबतक निगरानी रखने वाला चौथा स्तम्भ भी अपनी परिभाषा बदल चुका होगा। मुश्किल यह है कि लोकतंत्र के हर स्तम्भ ने इस दौर को जन-आकाक्षांओं के हवाले कर अपनी अपनी पोटली बांध ली है।
बीते सात महीनों में एक सवाल तो हर जहन में है कि देश में मोदी का राजनीतिक विक्लप है ही नहीं। यानी जनादेश के सात महीने बाद ही अगर मोदी सरकार की आलोचना करने की ताकत कांग्रेस में आयी है या क्षत्रपों को अपने अपने किले बचाने के लिये जनता परिवार का राग गाना पड़ रहा है तो भी प्रधानमंत्री मोदी के विकल्प यह हो नहीं सकते। राहुल गांधी हो या क्षत्रपों के नायक मुलायम, नीतिश या लालू । कोई मोदी का विकल्प हो नही सकता है। क्योंकि सभी हारे हुये नायक तो हैं ही बल्कि जनादेश ने जो नयी आकांक्षायें देश में नये सीरे से जगायी है उसके सिरे को पकड़ने में यह तमाम चेहरे नाकामयाब हो रहे हैं। तो फिर विकल्प का सवाल भी सियासी राजनीति से गायब है। इसलिये पहली बार प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्रा हो या चुनावी प्रचार की रैली के लिये राज्यों का दौरा दोनो में कोई अंतर नजर आता नहीं। भाषण हो या फिर सियासत दोनों जगहों पर अंदाज एकसा भी नजर आता है और कभी न्यूयार्क तो कभी सिडनी की एऩआरआई रैली भी देश के चुनावी रैलियों का हिस्सा भाषण की किसासगोई में बन जाती है तो कभी देश की चुनावी रैली अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रधानमंत्री की एनआरआई रैलियो में किस्सागोई की तर्ज पर उभर कर प्रधानमंत्री के कद को नये तरीके से गढ़ती हुई लगती है।
लेकिन सवाल है कि लोकप्रिय होने के मोदी के इस अंदाज को देश के सामाजिक-आर्थिक हालात के कटघरे में खड़े करने का साहस करते हुये भी कोई राजनीतिक दल या किसी राजनीतिक दल का कोई नेता उभर नहीं पाता है। ना उभरने या मोदी विरोध करते हुये ताकतवर दिखने से दूर तमाम नेता कमजोर दिखायी देते हैं। क्योंकि सभी ने अपनी साख सत्ता में रहते गंवायी है। तो फिर सत्ता के हर लडाई सिवाय निजी स्वार्थ से आगे किसी नेता की बढ़ भी नहीं पाती है। ऐसे में मीडिया इस राजनीति के सिरे को पकड़े या पूंछ को हाथ में मोदी की लोकप्रियता ही आयेगी और मीडिया की साख का सवाल यही से शुरु होता है।
दरअसल पहली बार जनादेश पाने वाले हो या गंवाने वाले दोनों ने ही मीडिया को चाहे-अनचाहे एक ऐसे हथियार के तौर पर उभार दिया जहां राजनीतिक-टूल से आगे मीडिया की कोई बानगी किसी को समझ आ ही नहीं रही है । मीडिया के प्रचार से जनादेश नहीं बनता लेकिन जनादेश से मीडिया की साख से खुला खिलवाड़ तो किया ही जा सकता है। मीडिया ने मोदी को ना जिताया ना मीडिया ने राहुल गांधी को हराया। तो भी मीडिया उसी राजनीति का सबसे बेहतरीन हथियार बना दिया गया जहां संपादकों और मालिकों के सामने खुद को ताकतवर बनाने के लिये राजनीतिक सत्ता के सामने नतमस्तक होना पड़े । कोई जरुरी नहीं है कि कोई संपादक राजनीतिक सत्ता के विरोध में खडा हो जाये तो उसे मुश्किल होगी। या फिर कोई मीडिया समूह सत्ता पर निगरानी करने के अंदाज में पत्रकारिता करने लगे तो उसके सामने मुश्किल हालात पैदा हो जायेंगे । मुश्किल हालात उसी के सामने पैदा होगें जिसका धंधा मीडिया हाउस चलाते हुये कई दूसरे घंघो को चलाने वाला हो । यानी मुनाफा व्यवस्था का उघोग अगर कोई मीडिया समूह या कोई संपादक-मालिक चला रहा होगा तो उसके सामने तो मुश्किल सामान्य अवस्था में भी होनी चाहिये। लेकिन मीडिया के लिये राजनीतिक ताकत का मतलब यही होता है कि उसके नाजायज धंधों पर सरकार खामोश रहे। या फिर जो सत्ता में आये वह उस मीडिया समूह के मुनाफे पर आंच ना आने दे। हालांकि गलत धंघे या फिर भारत के सामाजिक आर्थिक हालात
में कोई संपादक या मालिक करोडों के वारे -न्यारे करता रहे तो संकट तो उसके सामने कभी भी आ सकता है या कहे उसकी पूंछ तो हमेशा सत्ता के पांव तले दबी ही रहेगी। तो फिर मीडिया की एक सर्वमान्य परिभाषा राजनीतिक सत्ता के लिये बेहतर हालात बनाने के इतर क्या हो सकती है । ऐसे हालात तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में खूब देखे गये।
खासतौर से पूंजी पर टिके मीडिया व्यवसाय को जिस बारिकी से आर्थिक सुधार तले मनमोहन सिंह ले आये उसमें झटके में मीडिया की पत्रकारिता धंधे में बदली इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन नया सवाल मीडिया के दायरे में उस पत्रकारिता का है जो राजनीतिक शून्यता में खूद को भी शून्य मान रहा है। यानी राजनीतिक विकल्प नहीं है तो फिर मीडिया भी कौन सी पत्रकारिता करे। और पत्रकारिता हवा में सत्ता के खिलाफ हो ही क्यों जबकि उसे कोई राजनीतिक दल थामने वाला है ही नहीं। यह सवाल बड़े बड़े संपादको के दिल में है कि लिख कर कौन सा खूंटा उखाड लेंग । क्योंकि मोदी का कोई विकल्प तो है ही नहीं। और मोदी मौजूदा संसदीय राजनीति के संकट के दौर में खुद विकल्प नहीं है। ऐसे में पत्रकारिता खामोश रह कर ही की जाये तो बेहतर है।
दरअसल यह हालात पहली बार दो सवाल साफ तौर पर खडा कर रहे हैं। पहला, मीडिया को हर हाल में एक राजनीतिक ठौर चाहिये और दूसरा पत्रकारिता सत्ता को डिगाने के लिये कभी नहीं होती बल्कि सत्ता किसकी बनानी है उसके लिये होती है। यानी दोनों हालातों में मीडिया को राजनीति या राजनेताओं के दरबार में चाकरी करनी ही है । इस हालात में एक तीसरा पक्ष है कि क्या देश की समूची ताकत ही राजनीतिक सत्ता में तो सिमट नहीं गयी है। और इस लकीर को संपादक-मालिक अपनी पहल से ही मान्यता दे रहे हैं। क्योंकि मीडिया के भीतर ही नहीं राजनीतिक गलियारे में भी आवाज यही गूंजती है कि एक वक्त के बाद संपादक या मालिक या कद्दावर पत्रकार को तो राजनीति का दामन थामना ही है। यानी मीडिया ने भी मान लिया है कि मीडिया के हालात बदतर होने के बाद हर किसी को राजनीति ही करनी है। संपादक हो या मालिक दोनो को संसद में ही जा कर हालात को संभालना या सहेजना होगा। यानी चुनाव लड़ने या राज्यसभा के रास्ते संसद तक पहुंच कर कहीं ज्यादा बेहतर हालात किसी पत्रकार के हो ना हो लेकिन साख गंवाने के बाद साख गंवा चुकी राजनीति के चौखट पर माथे टेकने से पत्रकार की साख लौट सकती है या बढ़ सकती है। यह अजीबोगरीब तर्क मौजूदा
वक्त की नब्ज है। यानी जिस मान को पत्रकारिता करते हुये कोई संपादक नीचे गिराता है उसे उठाने का रास्ता राजनीति का वह मैदान ही बचता है जो राजनीति कभी मीडिया को अपने दरबार में नतमस्तक करती है। ध्यान दें तो पत्रकारिता किसी भी हालात में हो ही नहीं रही है। और यह सवाल जानबूझकर उछाला हुआ सा लगता है कि मनमोहन सरकार के दौर में और मोदी सरकार के दौर में कोई बहुंत बड़ा अंतर आ गया है। दरअसल मीडिया को राजनीतिक सत्ता के दरबार का चाकर किसने और कब कैसे बनाया यह संपादकों की कडी के साथ साथ मीडिया संस्थानों की बढ़ती इमारतों से भी समझा जा सकता है और कद्दावर या समझदार, पैना लिखने वाले संपादकों की राजनीतिक दलों से जुडने के बाद किसी साध्वी या योगी के बयानो को बातूनी अंदाज में व्याख्या करने से भी समझा जा सकता है और मनमोहन सिंह के दौर में कभी विश्व बैंक के मोहरों की राजनीति को देश के लिये हितकारी बनाने वाले सलाहकार पत्रकारों के जरीये भी देखा-परखा जा सकता है। यह वाकई मुश्किल सवाल है कि मौजूदा वक्त में जो कद्दावर पत्रकार सत्ता से चिपटे हुये है, गुनहगार वे हैं या जो पत्रकार इससे पहले की सत्ता के करीब थे गुनहगार वे रहे। हो सकता है गुनहगार दोनों ना लगे और यह सवाल ज्यादा मौजूं लगे कि आखिर पत्रकार सिर्फ पत्रकार होकर ही रिटायर्ड कैसे हो जाये। या फिर मीडिया लोकतंत्र के पहले खम्भे से गलबहिया डाले बगैर अपने चौथे खम्भे के होने का एहसास कैसे कराये। दरअसल यह सारे सवाल 16 मई 2014 के बाद बदले हैं। क्योंकि बीते २०-२२ बरस की पत्रकारिता पर आर्थिक सुधार के बाजारवाद का असर था इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन अन्ना आंदोलन के बाद से २०१४ के लोकसभा चुनाव में पारंपरिक मीडिया को ठेंका दिखाते हुये सामानांतर सोशल मीडिया की भूमिका का प्रभाव जिस तेजी से आंदोलन से लेकर जनादेश तक को सफल बनाने में हुआ उसने पहली बार इसके संकेत भी दे दिये समाचार पत्र या न्यूज चैनल खबरों की पत्रकारिता कर नहीं सकते। और राजनीति को प्रभावित करने वाले विचार इन दोनों माध्यमों के संपादकों के पास तबतक हो नहीं सकते जबतक राजनीति का मैदान सियासी टकराव के दौर में ना आ जाये। यानी राजनीतिक टकराव मीडिया को आर्थिक लाभ देता है। और जनादेश की सियासत मीडिया को पंगु बनायेगी ही ।
तो सवाल है कि दोनों हालात जनता के कटघरे में तो एक से ही होंगे। ऐसे में बिना पूंजी, बिना मुनाफे की सोच पाले सोशल मीडिया धारधार होगा इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। लेकिन सोशल मीडिया बिना जिम्मेदारी या हवा को आंधी बनाने का खुला हथियार भी हो सकता है। जिसके खतरे सतह पर जमे राजनीति के कीचड़ को विकास भी करार दे सकते है और भ्रष्टचार की परिभाषा को धर्म तले आस्था से जोड कर राजनीतिक सत्ता को सियासी पनाह भी दे सकते है । ऐसे में खतरा सिर्फ यह नहीं है कि मीडिया की परिभाषा बदल जाये या पत्रकारिता के तेवर परंपरिक पत्रकारिता को ही खत्म कर दे। खतरा यह भी है मौजूदा संसदीय राजनीति के पारंपरिक तौर तरीको की साख उस लोकतंत्र को ही खत्म कर दें जो देश में तानाशाही व्यवस्था पर लगाम लगाती रही है । एक वक्त इंदिरा गांधी ने जनसमर्थन से पहले काग्रेस को अपने पल्लू में बांधा और फिर कांग्रेसी चापलूस इंदिरा इज इंडिया कहने से नहीं कतराये। और मौजूदा वक्त में विकल्प तलाशते विपक्ष को सत्तादारी बीजेपी में कोई खोट नजर नहीं आ रहा , एक वक्त हिन्दुत्व के धुरधर अच्छे लग रहे हैं। लेकिन
जनादेश के घोड़े पर सवार प्रधानमंत्री मोदी खलनायक लग रहे हैं। यह सारे रास्ते आखिर में लोकतंत्र की नयी परिभाषा तो गढेंगे ही। क्योंकि तबतक निगरानी रखने वाला चौथा स्तम्भ भी अपनी परिभाषा बदल चुका होगा। मुश्किल यह है कि लोकतंत्र के हर स्तम्भ ने इस दौर को जन-आकाक्षांओं के हवाले कर अपनी अपनी पोटली बांध ली है।
Friday, December 12, 2014
जब सत्ता ही देश को ठगने लगे तो...!!!
एक तरफ विकास और दूसरी तरफ हिन्दुत्व। एक तरफ नरेन्द्र मोदी दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। एक तरफ संवैधानिक संसदीय राजनीति तो दूसरी तरफ हिन्दू राष्ट्र का ऐलान कर खड़ा हुआ संघ परिवार। और इन सबके लिये दाना पानी बनता हाशिये पर पड़ा वह तबका, जिसकी पूरी जिन्दगी दो जून की रोटी के लिये खप जाती है। तो अरसे बाद देश की धारा उस मुहाने पर आकर थमी है जहां विकास का विजन और हिन्दुत्व की दृष्टि में कोई अंतर नजर नहीं आता है। विकास आवारा पूंजी पर टिका है तो हिन्दुत्व भगवाधारण करने पर जा टिका है । इन परिस्थितियों को सिलसिलेवार तरीके से खोलें तो सत्ताधारी होने के मायने भी समझ में आ सकते हैं और जो सवाल संसदीय राजनीति के दायरे में पहली बार जनादेश के साथ उठे हैं, उसकी शून्यता भी नजर आती है। मसलन मोदी, विकास और पूंजी के दायरे में पहले देश के सच को समझे। यह रास्ता मनमोहन सिंह की अर्थनीति से आगे जाता है।
मनमोहन की मुश्किल सब कुछ बेचने से पहले बाजार को ही इतना खुला बनाने की थी, जिसमें पूंजीपतियों की व्यवस्था ही चले। लेकिन कांग्रेसी राजनीति साधने के लिये मनरेगा और खाद्य सुरक्षा सरीखी योजनाओं के जरिए एनजीओ सरीखी सरकार दिखानी थी। नरेन्द्र मोदी के लिये बाजार का खुलापन बनाना जरुरी नहीं है बल्कि पूंजी को ही बाजार में तब्दील कर विकास की ऐसी चकाचौंध तले सरकार को खड़ा करना है, जिसे देखने वाला इस हद तक लालायित हो जहां उसका अपना वजूद, अपना देश ही बेमानी लगने लगे। यानी ऊर्जा से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और हेल्थ, इंश्योरेंस,शिक्षा,रक्षा से लेकर स्वच्छ गंगा तक की किसी भी योजना का आधार देश की जनता नहीं है बल्कि सरकार के करीब खड़े उधोगपति या कारपोरेट के अलावा वह विदेशी पूंजी है जो यह एलान करती है कि उसकी ताकत भारत के भविष्य को बदल सकती है। और बदलते भारत का सपना जगाये विकास की यह व्यवस्था सौ करोड़ जनता को ना तो भागीदार बनाती है और ना ही भागेदारी की
कोई व्यवस्था खड़ा करती है। यानी हालात बदलेंगे या बदलने चाहिये, उसमें जनता की भागेदारी वोट देने के साथ ही खत्म हो गयी और अब सरकार की नीतियां भारत को विकसित बनाने की दिशा में देश से बाहर समर्थन चाहती है।
बाहरी समर्थन का मतलब है विदेशी निवेश। और विदेशी निवेश का मतलब है देशवासियों तक यह संदेश पहुंचाना कि आगे बढ़ने के लिये सिर्फ सरकार कुछ नहीं कर सकती बल्कि जमीन से लेकर खनिज संपदा और जीने के तरीकों से लेकर रोजगार पाने के उपायों में भी परिवर्तन करना होगा। क्योंकि सरकार तबतक कुछ नहीं कर सकती जब तक देश नहीं बदले । बदलने की इस प्रक्रिया का मतलब है खनिज संपदा की जो लूट मनमोहन सिंह के दौर में नजर आती थी वह नरेन्द्र मोदी के दौर में नजर नहीं आयेगी क्योंकि लूट शब्द नीति में बदल दिया जाये तो यह सरकारी मुहर तले विकास की लकीर मानी जाती है। मसलन जमीन अधिग्रहण में बदलाव, मजदूरों के कामकाज और उनकी नौकरी के नियमों में सुधार, पावर सेक्टर के लिये लाइसेंस में बदलाव, खादान देने के तरीकों में बदलाव, सरकारी योजनाओं को पाने वाले कारपोरेट और उद्योगपतियों के नियमों में बदलाव। यहां यह कहा जा सकता है कि बीते दस बरस के दौर में विकास के नाम पर जितने घोटाले, जितनी लूट हुई और राजनीतिक सत्ता का चेहरा जिस तरह जनता को खूंखार लगने लगा उसमें परिवर्तन जरुरी था। लेकिन परिवर्तन के बाद पहला सवाल यही है कि जिस जनता में जो आस बदलाव को लेकर जगी क्या उस बदलाव के तौर तरीकों में जनता को साथ जोड़ना चाहिये या नहीं। या फिर जनादेश के दबाव में जनता पहली बार इतनी अलग थलग हो गयी कि सरकार के हर निर्णय के सामने खड़े होने की औकात ही उसकी नहीं रही और सरकार बिना बंदिश तीस बरस बाद देश की नीतियों को इस अंदाज से चलाने, बदलने लगी कि वह जो भी कर रही है वह सही होगा या सही होना चाहिये तो यही से एक दूसरा सवाल उसी सत्ता को लेकर खड़ा होता है जिसमें पूर्ण बहुमत की हर सरकार के सामने यह सवाल हमेशा से रहा है कि देश का वोटिंग पैटर्न उसके पक्ष में रहे जिससे कभी किसी चुनाव में सत्ता उसके हाथ से ना निकले या सत्ता हमेशा हर राज्य में आती रहे। कांग्रेस का नजरिया हमेशा से ही यही रहा है। इसलिये राजीव गांधी तक कांग्रेस की तूती अगर देश में बोलती रही और राज्यों में कांग्रेस की सत्ता बरकार रही तो उस दौर के विकास को आज के दौर में उठते सवालों तले तौल कर देख लें। यह बेहद साफ लगेगा कि कांग्रेस ने हमेशा अपना विकास किया।
यानी विकास का ऐसा पैमाना नीतियों के तहत विकसित किया, जिससे उसका वोट बैंक बना रहे। चाहे वह आदिवासी हो या मुसलमान। किसान हो या शहरी मध्यवर्ग। अब इस आईने में बीजेपी या मोदी सरकार को फिट करके देख लें। जो नारे या जो सपना राजीव गांधी के वक्त देश के युवाओं ने देखा उसे नरेन्द्र मोदी चाहे ना जगा पाये हों लेकिन सरकार चलाते हुये जिस वोट बैंक और हमेशा सत्ता में बने रहने के वोट बैंक को बनाने का सवाल है तो बीजेपी के पास हिन्दुत्व का ऐसा मंत्र है जो ऱाष्ट्रीयता के पैमाने से भी आगे निकल कर जनता की आस्था, उसके भरोसे और जीने के तरीके को प्रभावित करता है। लेकिन यह पैमाना कांग्रेस के एनजीओ चेहरे से कहीं ज्यादा धारदार है। धारदार इसलिये क्योंकि कांग्रेस के सपने पेट-भूख, दो जून की रोजी रोटी के सवाल के सामने नतमस्तक हो जाते हैं लेकिन हिन्दुत्व का नजरिया मरने-मारने वाले हालात में जीने से कतराता
नहीं है।
इसकी बारीकी को समझें तो दो धर्म के लोगों के बीच का प्रेम कैसे लवजेहाद में बदलता है और मोदी सरकार की एक मंत्री रामजादा और हरामजादा कहकर समाज को कुरेदती है। फिर ताजमहल और गीता का सवाल रोमानियत और आस्था के जरीये संवैधानिक तौर तरीको पर अंगुली उठाने से नहीं कतराता। और झटके में सत्ता का असल चेहरा वोट बैंक के दायरे को बढाने के लिये या फिर अपनी आस्थाओं को ही राष्ट्रीयता के भाव में बदलने के लिये या कहें राज्य नीति को ही अपनी वैचारिकता तले ढालने का खुला खेल करने से नहीं कतराता। और यह खेल खेला तभी जाता है जब कानून के रखवाले भी खेलने वाले ही हों। यानी सत्ता बदलगी तो खेल बदलेगा। और इस तरह के सियासी खेल को संविधान या कानून का खौफ भी नहीं हो सकता है क्योंकि सत्ता उसी की है। यानी अपने अपने दायरे में अपराधी कोई तभी होगा जब वह सत्ता में नहीं होगा। याद कीजिये तो कंधमाल में धर्मातरण के सवाल पर ही ग्राहम स्टेन्स की हत्या और बजरंग दल से जुड़े दारा सिंह का दोषी होना। 2008 में उडीसा में ही धर्मांतरण के सवाल पर स्वामी लक्ष्मणनंदा की हत्या। ऐसी ही हालत यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड, कर्नाटक, केरल ,गुजरात में धर्मांतरण के कितने मामले बीते एक दशक के दौर में सामने आये और कितने कानून के दायरे में लाये गये। जिनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हुई हो। ध्यान दें तो बेहद बारीकी से धर्म और उसके विस्तार में दंगों की राजनीति ने सियासत पर हमला भी बोला है और सियासत को साधा भी है। चाहे 1984 का सिख दंगा हो या 1989 का भागलपुर दंगा। या फिर 2002 में गुजरात हो या 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगे। असर समाज के टूटन पर पड़ा और आम लोगो की रोजी रोटी पर पड़ा। लेकिन साधी सियासत ही गयी। तो फिर 2014 में सियासत की कौन सी परिभाषा बदली है । दरअसल पहली बार गुस्से ने सियासत को पलटा है। और विकास को अगर चंद हथेलियों तले गुलाम बनाने की सोच या मजहबी दायरे में समेटने की सोच जगायी जा रही हो तो यह खतरे की घंटी तो है ही। क्योंकि राष्ट्रवाद की चाशनी में कभी आत्मनिर्भर होने का सपना जगाने की बात हो या कही हिन्दुत्व को जीने का पैमाना बताकर सत्ता की राहत देने की सौदेबाजी का सवाल, हालात और बिगडेंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और यह हालात आने वाले वक्त में सत्ता की परिभाषा को भी बदल सकते है इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।
Friday, December 5, 2014
16 मई के बाद कितना- कैसे बदला मीडिया- पार्ट 2
बरस भर पहले राष्ट्रपति की मौजूदगी में राष्ट्रपति भवन में ही एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल ने अपने पच्चीसवें जन्मदिन को मना लिया। वहीं हर तरह के कद्दावर तबके को आमंत्रित कर लिया। तब कहा गया कि मनमोहन सिंह का दौर है कुछ भी हो सकता है। एक बरस बाद एक न्यूज चैनल ने अपने एक कार्यक्रम के 21 बरस पूरे होने का जश्न मनाया तो उसमें राष्ट्रपति समेत प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट के अलावे नौकरशाहों, कारपोरेट, बालीवुड से लेकर हर तबके के सत्ताधारी पहुंचे। लगा यही कि मीडिया ताकतवर है। लेकिन यह मोदी का दौर है तो हर किसी को दशक भर पहले वाजपेयी का दौर भी याद आ गया । दशक भर पहले लखनऊ के सहारा शहर में कुछ इसी तरह हर क्षेत्र के सबसे कद्दावर लोग पहुंचे और तो और साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी समेत पूरा मंत्रिमंडल ही नहीं बल्कि संसद के भीतर एक दूसरे के खिलाफ तलवारे भांजने वाला विपक्ष भी सहारा शहर पहुंचा था। और इसी तर्ज पर संसद के भीतर मोदी सरकार को घेरने वाले कांग्रेसी भी दिल्ली के मीडिया समारोह में पहुंचे।
सवाल हो सकता है कि मीडिया को ताकत सत्ता के साथ खडे होकर मिलती है या फिर सत्ता को ताकत मीडिया का साथ खड़ेहोने से मिलती है। या फिर एक दूसरे की साख बनाये रखने के लिये क्रोनी कैपिटलिज्म का यह अद्भूत नजारा समाज में ताकतवर होते मीडिया की अनकही कहानी को कहता है। हो जो भी लेकिन मीडिया को बार बार अपने तरीके से परिभाषित करने की जद्दोजहद सत्ता भी करती है और सत्ता बनने की चाहत में मीडिया भी सरोकार की भाषा को नये तरीके से परिभाषित करने में रम जाता है । इस मुकाम पर विचारधारा के आसरे राजनीति या आम -जन को लेकर पत्रकारिता या फिर न्यूनतम की लड़ाई लडते देश को चकाचौंध के दायरे में समेटने की चाहत ही मीडिया को कैसे बदलती है यह 16 मई के जनादेश के बाद खुलकर सामने आने भी लगा है। जाहिर है ऐसे में मीडिया की भूमिका बदलने से कही आगे नये तरीके से परिभाषित करने की दिशा में बढ़ेगी और ध्यान दें तो 16 मई के जनादेश के बाद कुछ ऐसे ही हालात हो चले हैं। 16 मई के जनादेश ने मीडिया
के उस तबके को दरकिनार कर दिया जो राजनीति को विचारधारा तले परखते थे। पहली बार जनादेश के आइने में मीडिया की समूची रिपोर्टिंग ही पलटी और यह सीख भी देने लगी कि विचारधारा से आगे की जरुरत गवर्नेंस की है, जो मनमोहन सरकार के दौर में ठप थी और जनादेश ने उसी गवर्नेंस में रफ्तार देखने के
लिये नरेन्द्र मोदी के पक्ष में जनादेश दिया। यह जनादेश बीजेपी को इसलिये नहीं मिला क्योंकि गवर्नेंस के कठघरे में बीजेपी का भी कांग्रेसीकरण हुआ। इसी लिये नरेन्द्र मोदी को पार्टी से बाहर का जनादेश मिला। यानी देश के भीतर सबकुछ ठप होने वाले हालात से निपटने के लिये जनादेश ने एक ऐसे नायक को खोजा जिसने अपनी ही पार्टी की धुरधंरों को पराजित किया । और पहली बार मीडिया बंटा भी। बिखरा भी। झुका भी। और अपनी ताकत से समझौता करते हुये दिखा भी। यह सब इसलिये क्योंकि राजनीति के नये नये आधारों ने मीडिया की उसी कमजोर नसों को पकड़ा जिसे साधने के लिये राजनीति के अंतर्विरोध का लाभ मीडिया ही हमेशा उठाता रहा। सरकारी सब्सिडी के दायरे से न्यूज प्रिंट निकल कर खुले बाजार आया तो हर बडे अखबारों के लिये हितकारी हो गया। छोटे-मझौले अखखबारो के सामने अखबार निकालने का संकट आया। समझौते शुरु हुये। न्यूज चैनल का लाइसेंस पाने के लिये 20 करोड़ कौन सा पत्रकार दिखा सकता है, यह सवाल कभी किसी मीडिया हाउस ने सरकार से नहीं पूछा। और पत्रकार सोच भी नहीं पाया कि न्यूज चैनल वह पत्रकारिता के लिये शुरु कर सकता है।
पैसे वालों के लिये मीडिया पर कब्जा करना आसान हो गया या कहें जो पत्रकरिता कर लोकतंत्र के चौथे खम्मे को जीवित रख सकते थे वह हाशिये पर चले गये। इस दौर में सियासत साधने के लिये मीडिया ताकतवर हुआ। तो सत्ता के ताकतवर होते ही मीडिया बिकने और नतमस्तक होने के लिये तैयार हो गया। और जो मीडिया कल तक संसदीय राजनीति पर ठहाके लगाता था वही मीडिया सत्ता के ताकतवर होते ही अपनी ताकत भी सत्ता के साथ खड़े होने में ही देखने समझने लगा। और पहली बार मीडिया को नये तरीके से गढने का खेल देश में वैसे ही शुरु हुआ जैसे खुदरा दुकाने चकाचौंध भरे मॉल में तब्दील होने लगी। याद कीजिये तो मोदी के पीएम बनने से पहले यह सवाल अक्सर पूछा जाता था कि मीडिया से चुनाव जीते जाते तो राहुल कब के पीएम बन गये होते। यह धारदार वक्तव्य मीडिया और राजनीतिक प्रचार के बीच अक्सर जब भी बोला जाता है तब खबरों के असर पडने वाली पत्रकारिता हाशिये पर जाती हुई सी नजर आने लगती। लेकिन पत्रकारिता या
मीडिया की मौजूदगी समाज में है ही क्यों अगर इस परिभाषा को ही बदल दिया जाये तो कैसे कैसे सवाल उठेंगे। मसलन कोई पूछे, अखबार निकाला क्यों जाये और न्यूज चैनल चलाये क्यों जाये।
यह एक ऐसा सवाल है जिससे भी आप पूछेंगे वह या तो आपको बेवकूफ समझेगा या फिर यही कहेगा कि यह भी कोई सवाल है । लेकिन 2014 के चुनाव के दौर में जिस तरह अखबार की इक्नामी और न्यूज चैनलों के सरल मुनाफे राजनीतिक सत्ता के लिये होने वाले चुनावी प्रचार से जा जुडे है उसने अब खबरों के बिकने या किसी राजनीतिक दल के लिये काम करने की सोच को ही पीछे छोड़ दिया है। सरलता से समझे लोकसभा चुनाव ने राह दिखायी और चुनाव प्रचार में कैसे कहा कितना कब खर्च हो रहा है यह सब हर कोई भूल गया । चुनाव आयोग भी चुनावी प्रचार को चकाचौंध में बदलते तिलिस्म की तरह देखने लगा। तो जनता का नजरिया क्या रहा होगा। खैर लोकसभा चुनाव खत्म हुये तो लोकसभा का मीडिया प्रयोग कैसे उफान पर आया और उसने झटके में कैसे अखबार निकलाने या न्यूज चैनल चलाने की मार्केटिंग के तौर तरीके ही बदल दिये यह वाकई चकाचौंध में बदलते भारत की पहली तस्वीर है। क्योंकि अब चुनाव का एलान होते ही राज्यों में अखबार और न्यूज चैनलों को पैसा पंप करने का अनूठा प्रयोग शुरु हो गया है। लोकसभा के बाद हरियाणा , महाराष्ट्र
में चुनाव हुये और फिर झारखंड और जम्मू कश्मीर । महाराष्ट्र चुनाव के वक्त बुलढाणा के एक छोटे से अखबार मालिक का टेलीफोन मेरे पास आया उसका सवाल था कि अगर कोई पहले पन्ने को विज्ञापन के लिये खरीद लेता है तो अखबार में मास्ट-हेड कहां लगेगा और अखबार में पहला पन्ना हम दूसरे पन्ने को माने या तीसरे पन्ने को जो खोलते ही दायी तरफ आयेगा। और अगर तीसरे पन्ने को पहला पन्ना मान कर मास्टहेड लगाते हैं तो फिर दूसरे पन्ने में कौन सी खबर छापे क्योकि अखबार में तो पहले पन्ने में सबसे बड़ी खबर होती है। मैंने पूछा हुआ क्या । तो उसने बताया कि चुनाव हो रहे हैं तो एक राजनीतिक दल ने नौ दिन तक पहला पन्ना विज्ञापन के लिये खरीद लिया है। खैर उन्हें दिल्ली से निकलने वाले अखबारों के बार में जानकारी दी कि कैसे
यहां तो आये दिन पहले पन्ने पर पूरे पेज का विज्ञापन छपता है। और मास्ट-हेड हमेशा तीसरे पेज पर ही लगता है और वही फ्रंट पेज कहलाता है । यह बात भूलता तब तक झारखंड के डाल्टेनगंज से एक छोटे अखबार मालिक ने कुछ ऐसा ही सवाल किया और उसका संकट भी वही था। अखबार का फ्रंट पेज किसे बनायें। और वहां भी अखबार का पहला पेज सात दिन के लिये एक राजनीतिक दल ने बुक किया था। यानी पहली बार अखबारों को इतना बड़ा विज्ञापन थोक में मिल रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन बात सिर्फ विज्ञापन तक नहीं रुकी।
अगला सवाल था कि इतने विज्ञापन से तो हमारा साल भर का खर्च निकल जायेगा। तो इस पार्टी के खिलाफ कुछ क्यों छापा जाये। बहुत ही मासूमियत भरा यह सवाल भी था और जबाव भी। और संयोग से कुछ ऐसा ही सवाल और जबाब कश्मीर से निकलते एक अखबार के पहले पन्ने पर उर्दू में पूरे पेज पर विज्ञापन छपा देखा। जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर के साथ घाटी का चेहरा बदलने का सपना था। अजीबोगरीब लगा। उर्दू के शब्दों के बीच मोदी और पूरे पेज के विज्ञापन के लालच में संपादक का सवाल, क्या करें। इतना बड़ा विज्ञापन। इससे तो अखबार के सारे बुरे दिन दूर हो जायेंगे। और विज्ञापन छाप रहे हैं तो पार्टी के खिलाफ कुछ क्यों लिखें। वैसे भी चुनाव तो होते रहते हैं। नेता बदलते रहते हैं। घाटी में कभी तो कुछ बदला नहीं। तो हम किसी से कुछ मांग तो नहीं रहे सिर्फ विज्ञापन चुनाव तक है। पैसे एंडवास में दे दिये गये हैं। सरकारी विज्ञापनों के तो पैसे भी मांगते मांगते मिलते हैं तो हमने सोचा है कि घाटी में क्या होना चाहिये और जनता किन मुश्किलों में है और इसी पर रिपोर्ट फाइल करेंगे। यानी नेता भ्रष्ट हो या आपराधिक छवि का। पार्टी की धारा कुछ भी हो। पार्टी की धारा कुछ भी हो। आतंक के साये से चुनावी उम्मीदवार निकला हो या आतंक फैला कर चुनाव मैदान में उतरा हो। बहस कही नहीं सिवाय सपने जगाने वाले चुनाव के आइने में लोकतंत्र को जीने की। असर यही हुआ कि पूंजी कैसे किसकी परिभाषा इस दौर में बदल कर सकारात्मक छवि का अनूठा पाठ हर किसी को पढ़ा सकती है, यह कमोवेश देश के हर मीडिया हाउस में हुआ। इसका नायाब असर गवर्नेंस के दायरे में भ्रष्ट मीडिया हाउसों पर लगते तालो के बीच पत्रकार बनने के लिये आगे आने वाली पीढ़ियो के रोजगार पर पड़ा। मनमोहन सिंह के दौर की आवारा पूंजी ने चिटफंड और बिल्डरों से लेकर सत्ता के लिये दलाली करने वालों
के हाथो में चैनलों के लाइसेंस दिये। मीडिया का बाजार फैलने लगा। और 16 मई के बाद पूंजी, मुनाफा चंद हथेलियों में सिमटने लगा तो मीडिया के नाम पर चलने वाली दुकाने बंद होने लगी। सिर्फ दिल्ली में ही तीन हजार पत्रकार या कहें मीडिया के कामगार बेरोजगार हो गये। छह कारपोरेट हाउस सीधे मीडिया
हाउसो के शेयर खरीद कर सत्ता के सामने अपनी ताकत दिखाने लगे या फिर मीडिया के नतमस्तक होने का खुला जश्न मनाने लगे। जश्न के तरीके मीडिया के अर्द्ध सत्य को भी हडपने लगे और सत्ता की ताकत खुले तौर पर खुला नजारा करने से नहीं चूकी। यानी पहली बार लुटियन्स की दिल्ली सरीखे रेशमी नगर की तर्ज पर हर राज्य की राजनीति या तो ढलने लगी या फिर पारंपरिक लोकतंत्र के ढर्रे से उकता गयी जनता ही जनादेश के साये में राजनीति का विकल्प देने लगी । और मीडिया हक्का बक्का होकर किसी उत्पाद [ प्रोडक्ट ] की तर्ज पर मानने लगा कि अगर वह सत्ता के कोठे की जरुरत है तो फिर उसकी साख है । यानी जिन समारोहों को, जिन सामाजिक विसंगतियों और जिस लोकतंत्र के कुंद होने पर मीडिया की नजर होनी चाहये अगर वह खुद ही समारोह करने लगे। सामाजिक विसंगतियों को अनदेखा करने लगे और लोकतंत्र के चौथे पाये की जगह खुद को सत्ता की गोद में बैठाने लगे या खुद में सत्ता की ठसक पाल लें, तो सवाल सिर्फ पत्रकारिता का है या देश का। सोचना तो पड़ेगा।
Friday, November 28, 2014
क्या 16 मई के बाद मीडिया बदल गया?
16 मई 2014 की तारीख के बाद क्या भारतीय मीडिया पूंजी और खौफ तले दफ्न हो गया। यह सवाल सीधा है लेकिन इसका जवाब किश्तों में है। मसलन कांग्रेस की एकाकी सत्ता के तीस बरस बाद जैसे ही नरेन्द्र मोदी की एकाकी सत्ता जनादेश से निकली वैसे ही मीडिया हतप्रभ हो गया। क्योंकि तीस बरस के दौर में दिल्ली में सडा गला लोकतंत्र था। जो वोट पाने के बाद सत्ता में बने रहने के लिये बिना रीढ़ के होने और दिखने को ही सफल करार देता था। इस लोकतंत्र ने किसी को आरक्षण की सुविधा दिया। इस लोकतंत्र ने किसी में हिन्दुत्व का राग जगाया । इस लोकतंत्र में कोई तबका सत्ता का पसंदीदा हो गया तो किसी ने पसंदीदा तबके की आजादी पर ही सवालिया निशान लगाया। इसी लोकतंत्र ने कारपोरेट को लूट के हर हथियार दे दिये। इसी लोकतंत्र ने मीडिया को भी दलाल बना दिया। पूंजी और मुनाफा इसी लोकतंत्र की सबसे पसंदीदा तालिम हो गयी। इसी लोकतंत्र में पीने के पानी से लेकर पढ़ाई और इलाज से लेकर नौकरी तक से जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों ने पल्ला झाड़ लिया। इसी लोकतंत्र ने नागरिकों को नागरिक से उपभोक्ता बने तबके के सामने गुलाम बना दिया।
इस लोकतंत्र पर पत्रकारों की कलम भी चली और कलम भी बिकी। पत्रकारिता मीडिया घरानों में बदली। मीडिया घराने ताकतवर हुये तो झटके में सत्ता साधने की राजनीति और कारपोरेट के मुनाफे के बीच पत्रकारिता झूली भी और हमला करने से भी नहीं चूकी। लगा मीडिया धारदार हो रही है क्योंकि संसदीय सत्ता अपने अंतर्रविरोध में इतनी खो गयी कि घोटाले और राजस्व की लूट देश का सिस्टम बन गया। सरकारी नीतिया लूटने के रास्ते खोलने के लिये बनने लगी। हर संस्थान ने लूटा। भागेदारी मीडिया में भी हुई। कामनवेल्थ गेम्स से लेकर 2 जी स्पेक्ट्रम और बेल्लारी से झारखंड तक में खनन संपदा की लूट से लेकर कोयला खानों के बंदरबाट का खुला खेल पॉलिसी के तहत खेला गया जिसमें मीडिया संस्थानों की भागेदारी भी सामने आयी। लेकिन पत्रकारिता ने इन मुद्दों को उठाया भी और भ्रष्ट होती सियासत को आईना भी दिखाया। और तो और कमजोर होती राजनीतिक सत्ता को कारपोरेट ने गवर्नेंस का पाठ भी पढ़ाने का खुला प्रयास 2011-12 के दौर में देश के पीएम मनमोहन सिंह को चार बार पत्र लिखकर किया । ऐसे मोड़ पर लोकसभा चुनाव के जनादेश ने उस मीडिया को सकते में ला दिया जिसके सामने बीते तीस बरस के संसदीय राजनीतिक सत्ता के अंतर्विरोध में काफी कुछ पाना था और काफी कुछ गंवाना भी था। क्योंकि इस दौर में कई पत्रकार मीडिया घरानो में हिस्सेदार बन गये और मीडिया घरानों के कई हिस्सेदार पत्रकार बन गये। ध्यान दें तो मीडिया का विकास जिस तेजी से तकनीकी माध्यमों को जरिये इस दौर में होता चला गया उसके सामने वह सियासी राजनीति भी छोटी पड़ने लगी जो आम लोगों के एक एक वोट से सत्ता पाती । क्योंकि झटके में वोट की ताकत को डिगाने के लिये मीडिया एक ऐसे दोधारी हथियार के तौर पर उभरा जिसमें सत्ता दिलाना और सत्ता से बेदखल कराने की भूमिका निभाना सौदेबाजी का सियासी खेल बना दिया गया। तो दाग दोनों जगह
लगे। राजनेता दागदार दिखे। मीडिया घराने मुनाफा कमाने के धंधेबाज दिखे । नेता के लिये वोट डालने वाले वोटर हो या मीडिया के पाठक या व्यूवर। इस सच को जाना समझा सभी ने। लेकिन विकल्प की खोज की ताकत ना तो मीडिया या कहे पत्रकारों के पास रही ना ईमानदार नेताओ के पास। ऐसे में १६ मई के जनादेश से पहले चुनावी बिसात पर मीडिया वजीर से कैसे प्यादा बना यह प्रचार के चुनावी तंत्र में पैसे के खेल ने आसानी से बता दिया। लेकिन यह खेल तो चुनावी राजनीति में हमेशा खेला जाता रहा है। हर बार की तरह 2014 में भी यही खेल खेला जा रहा है माना यही गया।
लेकिन यह किसी को समझ नहीं आया कि जो पूंजी चुनावी राजनीति के जरीये लोकतंत्र के चौथे खम्भे को कुंद कर सकती है। जो पूंजी हर सत्ता या संस्थानों के सामने विकल्प बनाने के लिये बेहतरीन हथियार बन सकती है वही पूंजी लोकतंत्र जनादेश के साथ खड़े होकर लोकतंत्र को अपनी जरुरत के हिसाब से क्यों नहीं चला सकती। दरअसल 16 मई के जनादेश के बाद पहली बार मीडिया का वह अंतर्रविरोध खुल कर सामने आया जिसने राजनीति के अंतर्विरोध को छुपा दिया। यानी सियासी राजनीति के जिस खेल में देश की सत्ता बीते 30 बरस में भ्रष्ट होती चली गयी और मीडिया ने अपने अंतर्विरोध छुपा कर राजनीति के अंतर्विरोध को ही उभारा। वही राजनीति जब जनादेश के साथ सत्ता में आयी तो संकट मीडिया के सामने आया कि अब सत्ताधारियों की गुलामी कर अपनी साख बनाये या सत्ताधारियों पर निगरानी रख अपनी रिपोर्टों से जनता को समझाये कि राजनीतिक सत्ता ही सबकुछ नहीं होती है। लेकिन इसके लिये पत्रकारीय ताकत का होना जरुरी है और पत्रकारिता ही जब मीडिया घरानो की चौखट पर सत्ताधारियों के लिये पायदान में बदल जाये तो रास्ता जायेगा किधर। यानी पत्रकारीय पायदान की जरुर मीडिया घरानों को सत्ता के लिये पडी तो सत्ता को पत्रकारीय पायदान की जरुरत अपनी अंखड सत्ता को दिखाने-बताने या प्रचार के लिये पड़ी। इस पत्रकारीय पायदान की जरुरत ने इसकी कीमत भी बढ़ा दी। और सत्ता से निकट जाने के लिये पायदान पर कब्जा करने की मुहिम कारपोरेट कल्चर का हिस्सा बनने लगी। इसीलिये 16 मई के जनादेश ने हर उस परिभाषा को बदला जो बीते 30
बरस के दौर में गढ़ी गई। पत्राकरीय स्वतंत्रता का पैमाना बदला । मीडिया घराने चलाने के लिये पूंजी बनाने के तरीके बदले। सत्ता और मीडिया के बीच पाठक या व्यूवर की सोच को बदला। झटके में उस तबके का गुस्सा मीडिया का साथ छोड सत्ता के साथ जा खड़ा हुआ जो बीते ३० बरस से नैतिकता का पाठ मीडिया से पढ़ रहा ता लेकिन मीडिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिये उसके पास कोई हथियार नहीं था। ऐसे में जिस तरह 16 मई के जनादेश ने राजनीतिक सत्ता के उस दाग को छुपा दिया जो भ्रष्ट और आपराधिक होती राजनीति को लेकर देश का सच बन चुका है। उसी तरह गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता और सोशल मीडिया की जिम्मेदारी विहिन पत्रकारिता का दाग भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति तले दब गया। तीन बड़े बदलाव खुकर सामने आये। पहला जनादेश के सामने कोई तर्क मायने नहीं रखता है। दूसरा राजनीतिक सत्ता की ताकत के आगे लोकतंत्र का हर पाया विकलांग है। और तीसरा विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण गवर्नेंस है। यानी जो पत्रकारिता लगातार विकल्प की तलाश में वैचारिक तौर पर देश को खड़ा करने के हालात पैदा करती है उसे खुद सियासी सत्ता की लड़ाई लडनी होगी बिना इसके कोई रास्ता देश में नहीं है।
यह हालात कितने खतरनाक हो सकते हैं, इसका अंदाजा 16 मई के बाद सत्ता में आयी बीजेपी के नये अध्यक्ष बने अमित शाह के इस अंदाज से समझा जा सकता है कि जब महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन बचेगा या नहीं इसके कयास लगाये जा रहे थे तब आरएसएस के शिवसेना के साथ गठबंधन बनाये रखने की खबर से अपनी सियासी सौदेबाजी का दांव कमजोर पड़ने पर बीजेपी अध्यक्ष खबर देने वाले रिपोर्टर को फोन पर यह धमकी देने से नहीं चूकते हैं कि यह खबर वापस ले लो या फिर इसका अगले दिन इसके लिये भुगतने को तैयार हो जाओ। इतना ही नहीं खबर को राजनीति का हिस्सा बताकर राजनीति के मैदान में आकर हाथ आजमाने का सुझाव भी दिया जाता है। यानी धमकी तो पत्रकारों को मिलती रही है लेकिन कारपोरेट की छांव में मीडिया और पत्रकारिता को पायदान बनाने के बाद राजनीतिक सत्ता का पहला संदेश यही है कि चुनाव जीतकर सत्ता में आ जाओ तो ही आपकी बात सही है। तो क्या 16 मई के बाद देश की हवा में यहसे बड़ा परिवर्तन यह भी आ गया है कि ढहते हुये सस्थानों को खड़ा करने की जगह मरता हुआ बता कर उसे विकल्प करार दिया जा सकता है। यहां कोई भी यह सवाल खड़ा कर सकता है कि मीडिया को दबाकर सियासत कैसे हो सकती है। लेकिन समझना यह भी होगा कि पहली बार मीडिया को दबाने या ना दबाने से आगे की बहस हो रही है। सीबीआई, सीवीसी, कैग, चुनाव आयोग, जजों की नियुक्ति सरीखे दर्जेनों संस्थान है जिनके दामन पर दाग 16 मई से पहले चुनाव प्रचार के दौर में बार बार लगाया गया। मीडिया भी दागदार है यह आवाज भी मीडिया ट्रेडर के तौर उठायी गयी। यानी जिस राजनीति के भ्रष्ट और आपराधिक होने तक का जिक्र १९९२-९३ में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में किया गया और संसद के भीतर पहुंचने वाले दागदारों की कतार में कोई कमी १६ मई २०१४ के जनादेश के बाद भी नहीं आयी उस राजनीतिक सत्ता की चौखट पर इस दौर में हर संस्था बेमानी
करार दे दी गयी। तो सवाल कई हैं।
पहला लोकतंत्र का मतलब अब चुनाव जीत कर साबित करना हो चला है कि वह ठीक है। यानी पत्रकार, वकील, टीचर, समाजसेवी या कोई भी जो चुनाव लडना नहीं चाहता है और अपने नजरिये से अपनी बात कहता है, उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि सत्ता के पास बहुमत का जनादेश है । दूसरा, संवैधानिक सत्ता के लिये बहुमत का मतलब जब कइयों के संघर्ष में जीतना भर है तो बाकि विरोध करने वाले चाहे अलग अलग हो लेकिन वह संख्याबल में ज्यादा हो तो फिर उनका कोई हक नहीं बनता है। यह सवाल राजनीतिक सत्ता के संघर्ष को लेकर भी है जहा सत्ताधारी को इस बार 31 फीसदी वोट मिले है और यह सवाल पत्रकारों को लेकर भी है जो पत्रकारिता तो करते हैं और उनकी तादाद भी मीडिया हाउस में काम करने वालों से ज्यादा है लेकिन वह उनकी पत्राकरिता को कोई महत्व नहीं दिया जायेगा और उन्हें भी उसी कटघरे में खड़ा किया जायेगा, जहां पत्रकार पायदान बना दिया जा रहा है। और इसके सामानांतर तकनीकी विकास को ही विकल्प बनाने का प्रयास होगा चाहे देश की भौगोलिक, सामाजिक-आर्थिक स्थिति उसके अनुकुल ना हो। यानी मौसम बिगड़े । रोजगार ना मिले । चंद हथेलियो पर ही सारा मुनाफा सिमटे । समाज में खाई और ज्यादा बढ़े। विकास की तकनीकि धारा गांव को खत्म कर दे। विकास के नाम पर उपभोक्ताओं का समूह बनाये रखने या उसे बढ़ाने पर जोर हो। और यह सब होते हुये, देखते हुये पत्रकारिता सरकारो का गुणगान करें और इसे सकारात्मक पत्रकारिता मान लिया जाये। तो फिर 16 मई से पहले और 16 मई के बाद पत्रकारिता कैसे और कितनी बदली है इसका एहसास भी कहां होगा।
Sunday, November 23, 2014
जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर किसका होगा?
जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर हमारा है। तो बैनर और पोस्टर से जगमगाता कश्मीर का यह आसमान किसका है। यह पैसे वालों का आसमान है । जो सत्ता चाहते हैं। तो फिर खश्मीर को खून से सिंचने वाले हाथ सत्ता बदल क्यों नहीं देते । सत्ता को क्या बदले सत्ता तो खुद ही सत्ता पाने के लिये हर चुनाव में बदल जाती है। जो कल तक नेशनल कान्फ्रेंस में था आज वह पीडीपी का हो चला है। कल तक जो बॉयकाट का नारा लगाता ता वह आज दिल्ली की गोद में खेलने को तैयार है। सिक्यूरिटी भी अब सड़क से नहीं अपने कैंपों से निशाना साधती है। वाजपेयी साहेब के दौर में एजेंसियों ने एनसी के खिलाफ पीडीपी को पैदा किया। अब एजेंसियां ही एनसी और बीजेपी को साथ खड़ा करने में लगी है। और कांग्रेस जो एनसी के साथ सत्ता में रही अब पीडीपी के साथ हो चली है, जिससे बीजेपी को रोका जा सके। इसमें हम क्या सत्ता बदल सकते हैं। लेकिन इस बार तो आजादी और बायकाट का नारा भी कोई नहीं लगा रहा है।
कश्मीरी तो चुनाव के रंग में है। तो वह क्या करें। घरों में कैद रहें। खामोश रहें। लेकिन हर रैली में हजारो हजार कश्मीरी की भीड़ बताने तो लगी है घाटी बदल रही है। और आप अब भी नारे लगा रहे हैं, जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर हमारा है। तो क्या नारों पर भी ताले लगवायेंगे। मुख्य सड़क छोड़कर जरा गलियों में झांक कर देखिये । उन दिलों को टटोले जिनके घरो में आज भी अपनो का इंतजार है। चुनाव तो झेलम के पानी की तरह है जो हमारे घरों को फूटा [डूबा] भी देंगे और फिर जिन्दगी भी देंगे। श्रीनगर से नब्बे किलोमीटर दूर बांदीपुर के करीब सुंबल की उन गलियों में युवा कश्मीरियों के साथ की यह तकरार है जिन गलियों में नब्बे के दशक में कूकापारे के ताकत की सत्ता थी। और जिस उस्मान मजीद के चुनाव प्रचार के लिये सोनिया गांधी भी बांदीपुर पहुंची वह भी कभी कूकापारे ही नहीं बल्कि सीमापार के आतंक की गलियों में घूम चुका है लेकिन इसबार कांग्रेस का प्रत्याशी है। तो क्या लोकतंत्र की ताकत का मतलब यही है कि चुनाव तो हर छह बरस में होने है चाहे नब्बे के दशक में आंतक चरम पर हो या फिर २००२ में सेना के बंदूक के साये या बूटों की गूंज या फिर २०१४ में झेलम की त्रासदी में सबकुछ गंवाने का जख्म। एक आम कश्मीरी करे क्या । यह सवाल
न्यूज चैनलो के पर्दे पर गूंजते जिन्दाबाद के नारो में आजादी के नारों को कमजोर बता सकते है। नाचती-गाती महिलाओ की टोलियो से आतंक खत्म होने का अंदेसा देकर चुनावी लोकतंत्र का झंडा बुलंद होते दिखा सकती है। लेकिन उन गलियों में और उन दिलो में चुनावी सेंध लगाने के लिये क्या क्या मशक्कत हर किसी को करनी पड़ रही है यह जख्मों को कुरेदने से ज्यादा किसी तरह जिन्दगी को दोबारा पाने की कुलबुलाहट भी हो चली है। चुनावी तौर तरीको की रंगत ने अलगाववादियों के जिले स्तर के कैडर तक को बंधक बना लिया है। कोई घर में नजरबंद है। कोई अस्पताल में तो कोई जेल में और कोई थानों में कैद है । क्योंकि बॉयकाट की आवाज उठनी नहीं चाहिये। सड़क पर सेना नहीं है बल्कि अब हर मोहल्ले और गांव में सेना को जानकारी देने वाले नौकरी पर है । यानी सेना की मशक्कत अब डराने या खौफ पैदा करने वाली मौजूदगी से दूर सूचनाओं के आधार पर ऑपरेशन करने वाली है। यानी चुनावी खुलेपन का नजारा चुनावी बिसात पर जीत-हार के लिये मकही मोहरा है तो कही वजीर। क्योंकि शहरों में कश्मीरी बोलता नहीं। गांव में कश्मीरी को खुलेपन का एहसास हो तो वह चुनावी नगाडों में थिरकने से नही कतराता। लेकिन कैसे आतंक की एक घटना हर ग्रामीण कश्मीरी को नब्बे के दौर की याद दिला कर घरों में कैद कर देती है यह भी कम सियासत नहीं । २० नंबवर को त्राल में तीन आंतकी मारे जाते हैं और त्राल का चुनावी उल्लास सन्नाटे में सिमट जाता है। कयास लगने लगते हैं कि त्राल
में अब कौई वोट डालने निकलेगा नहीं तो जीत हार सिखों के वोट पर निर्भर है जिनकी तादाद हजार भर है। तो बीजेपी यहा जीत सकती है।
लेकिन चुनावी बिसात पर नेताओं की ईमानदारी पर लगे दाग पहली बार आतंक से कही ज्यादा कश्मीरी नेताओ को डरा रहे हैं। क्योंकि युवा कश्मीरी के हाथ कलम थाम कर पहली बार आजादी शब्द दिलों में कैद रख दिल्ली की तरफ देखना चाहते हैं। जरुरत पड़ी तो आजादी का नारा भी लगा लेंगे। लेकिन एक बार करप्शन से
कश्मीर को निजात मिल जाये तो देखे कि दिल्ली की धारा में शामिल होने का रास्ता दिल्ली खुद कैसे बनाती है । यह आवाज साबरपुरा की है । गांधरबल में में आने वाले साबरपुरा में तालिम के लिये स्कूल से आगे का रास्ता बंद है । हर कोई दिल्ली या अलीगढ तो जा नहीं सकता । लेकिन दिल्ली हमारे कश्मीर में तो आ सकती है । तो क्या नरेन्द्र मोदी के लिये आवाज है। जी वाजपेयी साहेब ने भी कश्मीर के बारे में सोचा था। मोदी जी भी सोचे तो अच्छा होगा । लेकिन जम्मू के रास्ते कश्मीर नहीं आना चाहिये। घाटी के रास्ते जम्मू जाये तो ही कश्मीरियत होगी। तो क्या घाटी बदलने को तैयार है। चुनाव के आंगन में कश्मीर को खड़ा ना करें। कश्मीर के सच को माने और समझें कि कश्मीर दिल्ली से भी दर्द लेकर लौट रहा है और इग्लैड-अमेरिका से भी। तालिम के लिये कश्मीर छोडें। तालिम लेकर कश्मीर ना लौटे। सिर्फ बेवा और बुजुर्गों का कश्मीर हो जाये। सीमा पर कश्मीर है सेना के हवाले कश्मीर है । क्या यह हिन्दुस्तान के किसी राज्य में संभव है। कश्मीर की सियासी बोली ना लगे तो बेहतर है । दिल्ली में १२ बरस बिजनेस करने के बाद वापस लौटे अल्ताफ के यह सवाल क्या बदलते कश्मीर की दस्तक है । क्योंकि पहली बार घाटी के चुनावी मैदान में इग्लैड और अमेरिकी यूनिवर्सिटी से निकले कश्मीरी अपनी अपनी समझ से लोकतंत्र के मायने समझने को तैयार है । आवामी इत्तेहाद पार्टी के जिशान पंडित और शहजाद हमदानी अमेरिकी यूनिर्वसिटी से पढ़कर सियासत के मैदान में है । नेशनल कान्फ्रेंस के जुनैब आजिम मट्टु हो या तनवीर सादिक उर्दू की जगह अंग्रेजी बोल से युवा कश्मीरियों को लुभा रहे हैं। कांग्रेस के बड़े नेता सैफुद्दीन सोज के बेटे सलमान सोज तो वर्ल्ड बैंक की नौकरी छोड़ अब कश्मीर को अपने नजरिये से समझने और समझाने पर आतुर है ।
ऐसे में पहली बार दिल्ली के जिन सवालों पर खांटी राजनीति करने वाले कश्मीरी नेता खामोश होकर अपनी सत्ता के जुगाड में को जाते थे इस बार विदेशी जमीं से पढ़कर सियासी मैदान में उतरे कश्मीरी युवा दिल्ली के सवालों से दो दो हाथ करने को तैयार है। धारा ३७० सिर्फ जमीन खरीदने बेचने के लिये नहीं बल्कि सुविधा और सुरक्षा का सांकेतिक प्रतीक है, इसपर खुली बहस यहकहकर उठाना चाहते है कि जिन हालातो में १९४७ के बाद से कश्मीर को दिल्ली ने देखा उसे रातो रात बदलने का उपाय सत्ता पाते ही कैसे किस दिल्ली के पास है उसका ब्लू प्रिंट कश्मीरियों को बताना चाहिये । जबकि लुभाने के लिये अभी भी राजनीतिक बंदियों की रिहायी, पत्थर पेंकने वाले बंदियों की रिहायी. बेवाओं को राहत और झेलम से प्रभावितों को खूब सारा धन देने की पेशकश का सिलसिला ही चल पडा है । देवबंद के जमात-उलेमा हिंद की फौज श्रीनगर के डाउन-टाउन से लेकर गुरेज और कंघन तक में मुस्लिमों को दिल्ली से ज्यादा मोदी के मायने समझा रही है। नारों की शक्ल में आवाज लगा रही है, ‘न दूरी है, न खाई है / मोदी हमारा भाई है ।’ लेकिन घाटी में तो मुश्किल सवाल यह नहीं है कि नारों का असर होगा या नहीं । मुश्किल पहली बार अपनों से उठता भरोसा है। क्योंकि गिलानी के बायकाट की आवाज के लिये उम्र के लिहाज से यह आखिरी चुनाव है। मौलाना अंसारी बीमार हैं। अब्दुल गनी बट झेलम के पानी के बाद श्रीनगर छोड सोपोर लौट चुके हैं। सज्जाद लोन सियासत कम पासपोर्ट के लिये ज्यादा तड़पते हैं। तो सियासत में दिल्ली के साथ खड़ा होना उनकी जरुरत है। क्योंकि हर तीन महीने में पत्नी के लिये वीजा की भीख
दिल्ली से ही मांगनी पड़ती है। खुद का पासपोर्ट भी दिल्ली की इच्छा पर निर्भर है। तो फिर दिल्ली के साये में ही सियासत क्यों नहीं। तो पिता अब्दुल गनी लोन की समझ ताक पर रख, जिनकी हत्या के बाद ना चाहते हुये हुर्रियत नेता बना दिये गये। सज्जाद के भाई बिलाल तो खुद को बिजनेसमैन कहलाना ही पंसद करने लगे हैं। मिरवायज उमर फारुख भी तो पिता की हत्या के बाद झटके में नेता हो गये। तो फिर कश्मीरी जब खुद के बारे में सोचेगा और सियासत पर बहस करने लगेगा तो मिरवायज इस बहस में कहा टिकेंगे। यासिन मलिक जेल में हैं। लेकिन पहली बार उनके पिता गुलाम कादिर मलिक की याद भी कश्मीरियों को आने लगी है, जो पेशे से ड्राइवर थे। कश्मीर की रंगत में कभी सियासत की डोर ना थामी चाहे अस्सी के दशक के आखिर के चुनाव में जो हुआ उसने चुनाव पर से धाटी का भरोसा डिगाया। तो क्या २०१४ का चुनाव सारे जख्मों को कुरेद रहा है या नये तरीके से परिभाषित कर रहा है। या फिर नब्बे के दशक में आतंक के साये से निकला नारा जिस कश्मीर को खून से सींचा वह कश्मीर हमारा है अब बदल चुका है।
Monday, November 3, 2014
४८ मौत, ५०० बीमार, राष्ट्रपति का इंकार और अब प्रधानमंत्री मोदी का इंतजार
संसद सदस्य बनने के बाद ऱाष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था, “हो गया एक नेता मैं भी !तो बंधु सुनो, / मैं भारत के रेशमी नगर में रहता हूं, / जनता तो चट्टानों का बोझ सहा करती, / मैं चादंनियों का बोझ किस विध सहता हूं /दिल्ली में तो है खूब ज्योति की चहल पहल, /पर,भटक रहा है, सारा देश अंधेरें में ।” तो क्या वाकई कोई भी दिल्ली आकर बेदिल हो जाता है । यह सवाल किसी को भी अंदर तक झकझोकर सकता है जब उसे पता चले कि अंधेरे में रहने वाले भारत के दर्द की टीस मौत मांग रही है । सीएम ने सुनी नहीं। पीएम मनमोहन सिंह से कोई आस जगी नहीं और बीते दस बरस से देश में दो राष्ट्पति बदल गये लेकिन कभी किसी ने दो घड़ी मिलने का वक्त वैसे युवाओं के लिये नहीं निकाला जिन्होंने शादी इसलिये नहीं की क्योंकि गांव के मरघट की आवाज वह कभी ना कभी दिल्ली को सुना सकें। और ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला जबाब राष्ट्रपति भवन से पहुंचा । उसमें लिखा गया है कि , “आपका पत्र मिला । लेकिन राष्ट्रपति बहुत व्यस्त है और उनके पास आपसे मिलने के लिये कोई वक्त नहीं है और ना ही वह आपकी समस्या सुन सकते हैं।" राष्ट्पति का यह जबाब दिलीप और अरुण को है । दोनो भाई । पढ़े लिखे । रिटायर्ड टीचर के बेटे । इन दस बरस में किताब “अंधेरे हिन्दुस्तान की दास्तान “ लिख डाली । प्रतिष्ठित प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने किताब छापी। लेकिन सुनवायी सिफर ।इस हाल में पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गांव आने का निमंत्रण देता पत्र पहली बार ९ जून २०१४ को लिखा गया । पत्र दर्द की इंतहा है । तो जैसे ही मेरे मेल पर इसकी कॉपी पहुंची वैसे ही फोन लगाकर मैंने परिचय देते हुये बात करनी चाही वैसे ही दिलीप रोने लगा। उसे भरोसा नहीं हुआ कि कोई फोन कर यह कहे कि उसकी आवाज दिल्ली में सुनी जा सकती है। रोते हुये सिर्फ इतना ही कहा, "मनमोहन सिंह को कभी मैंने पत्र नहीं लिखा । नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो ९ जून २०१४ को मैंने पत्र लिखकर भारत की जमी अपने गांव के नरक से
हालात का जिक्र कर मैंने आग्रह किया कि हो सके तो एक बार मेरे गांव को भी देख लें। क्योंकि यहां कोई जीना नहीं नहीं चाहता है। क्योंकि मौत से बदतर जिन्दगी हो चुकी है । लेकिन बीते ११० दिनो में तो कोई जवाब नहीं आया। पहली बार मई २००४ में मैं राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गया था । लेकिन मिल नहीं पाया । मुझसे वक्त लेने को कहा गया। मैंने मिलने का वक्त मांगा और ७९ दिनों तक इंतजार किया । लेकिन मुलाकात फिर भी न हो सकी । उसके बाद मैंने ६ दिसबंर २००४ से पत्र सत्याग्रह शुरु किया । हर दिन राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखकर गुहार लगाता हूं कि कि कालाजार से मरते अपने गांव को हर क्षण हर कोई देख रहा है लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं । अभी तक राष्ट्रपति को साढ़े तीन हजार से ज्यादा पत्र लिख चुका हूं । हर पत्र की रसीद मेरे पास है। लेकिन कभी कोई पत्र नहीं आया । और कल ही ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला पत्र आया उसमें राष्ट्रपति ने वक्त ना होने का जक्र किया । अब सोचता हू कि जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं । मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं तो फिर संविधान ने जीने का जो हक हमको दिया है तो अब गुहार कहां लगाऊं । पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा । यह सोच कर लिखा कि कि कम से कम मेरा गांव सीतामडी में है तो सीता की जन्म भूमि
को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें। इसलिये जो पत्र मैंने प्रधानमंत्री मोदी को भेजा उसकी कॉपी आपको भेज दी।
प्रणाम,
मैं दिलीप + अरुण दोनों भाई आपको अपने गॉंव - तेमहुआ , पोस्ट - हरिहरपुर, थाना - पुपरी, जिला - सीतामढ़ी, पिन - 843320 , राज्य - बिहार, आने का निमंत्रण देता हूँ, क्योकि मै आपको वहां ले जाना चाहता हूँ जहाँ की फिजा में 48 दलित मुसहर भाई - बहन की अकाल मृत्यु की सांसों से मेरा दम घुटता है। मैं आपको उन्हें दिखाना चाहता हुं जो मारना तो चाहते है मगर अपने बच्चे, अपने परिवार के खातिर किसी तरह जी रहे हैं। मैं आपको उनसे मिलाना चाहता हुं जो जिन्दा रहना तो नहीं चाहते मगर जीवित रहने रहने के लिए मजबूर हैं| मैं आपको उस वादी में ले जाना चाहता हु जहाँ के लोग या तो भूखे हैं या फिर भोजन के नाम पर जो खा रहे हैं, उसका शुमार इंसानी भोजन में नहीं किया जा सकता हैं! मै आपको उन कब्रों तक ले जाना चाहता हु जिसमे दफ़न हुए इंसानों के भटकते रूह इस मुल्क की सरकार से यह आरजू कर रही है, कि कृपया हमारे बच्चों के जिन्दा रहने का कोई उपाय कीजिये ।
मै आपको हकीकत की उस दहलीज़ पे ले जाना चाहता हु जहाँ से खड़ा होकर जब आप सामने के परिदृश्य को देखेंगे तो आपके आँखों के सामने नज़ारा उभर कर यह आएगा क़ि आज़ाद भारत में आज भी इंसान और कुत्ते एक साथ एक ही जूठे पत्तल पर अनाज के चंद दाने खा कर पेट की आग बुझाने को मज़बूर हैं। मै आपको उस बस्ती से रु-ब-रु करना चाहता हुं जो बस्ती हर पल हर क्षण हर घड़ी भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रही है कि बता हमारे बच्चे कालाजार बीमारी से क्यूँ मर गए? मै आपको उन बदनसीब इंसानों से मिलाना चाहता हु जो अपनी शिकायत या समस्या का हल ढूंढने में खुद को पाता है।
मै आपको यहाँ इसलिए बुलाना चाहता हूं क्योंकि पिछले 10 सालो में 3600 से अधिक पत्रों द्वारा की गई हमारी फरियाद उस पत्थर दिल्ली के आगे तुनक मिज़ाज़ शीशे की तरह टूट कर चूर - चूर हो जाती है । मैं आपको यह सब इसलिए कह रहा हुं क्योकि बचपन से लेकर आज तक मैं ऐसे लोगो से घिरा हुआ हुं जो अपनी जिंदगी की परछाइयों में मौत की तस्वीर तथा कब्रो के निशान देखते हैं। जो भोजन के आभाव में और काम की अधिकता के कारण मर रहे है ! जिनका जन्म ही अभाव में जीने और फिर मर जाने के लिए हुआ है। ये लोग इस सवाल का जवाब खोज रहे है कि मेरी जिंदगी की अँधेरी नगरी की सीमा का अंत कब होगा ? हम उजालों की नगरी की चौखट पर अपने कदम कब रखेंगे ? लिहाजा ऐसी निर्णायक घड़ी में आप हमारे आमंत्रण को ठुकराइए मत क्योंकि यह सवाल क्योकि यह केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है । यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है। बल्कि यह हमारे गावं में कालाजार बीमारी से असमय मरने वाले नागरिक के जीवन मूल्यों का प्रश्न है। यह उन मरे हुए लोगों के अनाथ मासूमों का प्रश्न है! यह उन मरे हुए इंसानो के विधवाओं एवं विधुरो का प्रश्न है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी का प्रश्न है! यह हमारे द्वारा भेजे गए उन हजारों चिठ्ठियों का प्रश्न है जिसमें हमने अपने गावं के गरीबों की जान बचाने की खातिर मुल्क के राष्ट्रपति से दया की भीख मांगी थी।
इसलिए देश और मानवता के हित में कृपया हमारा आमंत्रण स्वीकार करें!
धन्यवाद, दिलीप कुमार/अरुण कुमार/सीतामढ़ी (बिहार) [+919334405517]
अब दिल्ली सुने या ना सुने लेकिन दिनकर की कविता, “भारत का यह रेशमी नगर “की दो पंक्तिया दिल्ली को सावधान और सचेत तो जरुर करेगी, “तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो / सब दिन को यह मोहिनी न चलने वाली है / होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसे, / मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है।
हालात का जिक्र कर मैंने आग्रह किया कि हो सके तो एक बार मेरे गांव को भी देख लें। क्योंकि यहां कोई जीना नहीं नहीं चाहता है। क्योंकि मौत से बदतर जिन्दगी हो चुकी है । लेकिन बीते ११० दिनो में तो कोई जवाब नहीं आया। पहली बार मई २००४ में मैं राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली गया था । लेकिन मिल नहीं पाया । मुझसे वक्त लेने को कहा गया। मैंने मिलने का वक्त मांगा और ७९ दिनों तक इंतजार किया । लेकिन मुलाकात फिर भी न हो सकी । उसके बाद मैंने ६ दिसबंर २००४ से पत्र सत्याग्रह शुरु किया । हर दिन राष्ट्रपति के नाम पत्र लिखकर गुहार लगाता हूं कि कि कालाजार से मरते अपने गांव को हर क्षण हर कोई देख रहा है लेकिन कोई कुछ करता क्यों नहीं । अभी तक राष्ट्रपति को साढ़े तीन हजार से ज्यादा पत्र लिख चुका हूं । हर पत्र की रसीद मेरे पास है। लेकिन कभी कोई पत्र नहीं आया । और कल ही ३१ अक्टूबर २०१४ को जो पहला पत्र आया उसमें राष्ट्रपति ने वक्त ना होने का जक्र किया । अब सोचता हू कि जब राष्ट्रपति के पास वक्त नहीं । मुख्यमंत्री के पास वक्त नहीं तो फिर संविधान ने जीने का जो हक हमको दिया है तो अब गुहार कहां लगाऊं । पहली बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा । यह सोच कर लिखा कि कि कम से कम मेरा गांव सीतामडी में है तो सीता की जन्म भूमि
को याद कर ही प्रधानमंत्री मेरे गांव की तरफ देख लें। इसलिये जो पत्र मैंने प्रधानमंत्री मोदी को भेजा उसकी कॉपी आपको भेज दी।
प्रणाम,
मैं दिलीप + अरुण दोनों भाई आपको अपने गॉंव - तेमहुआ , पोस्ट - हरिहरपुर, थाना - पुपरी, जिला - सीतामढ़ी, पिन - 843320 , राज्य - बिहार, आने का निमंत्रण देता हूँ, क्योकि मै आपको वहां ले जाना चाहता हूँ जहाँ की फिजा में 48 दलित मुसहर भाई - बहन की अकाल मृत्यु की सांसों से मेरा दम घुटता है। मैं आपको उन्हें दिखाना चाहता हुं जो मारना तो चाहते है मगर अपने बच्चे, अपने परिवार के खातिर किसी तरह जी रहे हैं। मैं आपको उनसे मिलाना चाहता हुं जो जिन्दा रहना तो नहीं चाहते मगर जीवित रहने रहने के लिए मजबूर हैं| मैं आपको उस वादी में ले जाना चाहता हु जहाँ के लोग या तो भूखे हैं या फिर भोजन के नाम पर जो खा रहे हैं, उसका शुमार इंसानी भोजन में नहीं किया जा सकता हैं! मै आपको उन कब्रों तक ले जाना चाहता हु जिसमे दफ़न हुए इंसानों के भटकते रूह इस मुल्क की सरकार से यह आरजू कर रही है, कि कृपया हमारे बच्चों के जिन्दा रहने का कोई उपाय कीजिये ।
मै आपको हकीकत की उस दहलीज़ पे ले जाना चाहता हु जहाँ से खड़ा होकर जब आप सामने के परिदृश्य को देखेंगे तो आपके आँखों के सामने नज़ारा उभर कर यह आएगा क़ि आज़ाद भारत में आज भी इंसान और कुत्ते एक साथ एक ही जूठे पत्तल पर अनाज के चंद दाने खा कर पेट की आग बुझाने को मज़बूर हैं। मै आपको उस बस्ती से रु-ब-रु करना चाहता हुं जो बस्ती हर पल हर क्षण हर घड़ी भारत के राष्ट्रपति से यह सवाल पूछ रही है कि बता हमारे बच्चे कालाजार बीमारी से क्यूँ मर गए? मै आपको उन बदनसीब इंसानों से मिलाना चाहता हु जो अपनी शिकायत या समस्या का हल ढूंढने में खुद को पाता है।
मै आपको यहाँ इसलिए बुलाना चाहता हूं क्योंकि पिछले 10 सालो में 3600 से अधिक पत्रों द्वारा की गई हमारी फरियाद उस पत्थर दिल्ली के आगे तुनक मिज़ाज़ शीशे की तरह टूट कर चूर - चूर हो जाती है । मैं आपको यह सब इसलिए कह रहा हुं क्योकि बचपन से लेकर आज तक मैं ऐसे लोगो से घिरा हुआ हुं जो अपनी जिंदगी की परछाइयों में मौत की तस्वीर तथा कब्रो के निशान देखते हैं। जो भोजन के आभाव में और काम की अधिकता के कारण मर रहे है ! जिनका जन्म ही अभाव में जीने और फिर मर जाने के लिए हुआ है। ये लोग इस सवाल का जवाब खोज रहे है कि मेरी जिंदगी की अँधेरी नगरी की सीमा का अंत कब होगा ? हम उजालों की नगरी की चौखट पर अपने कदम कब रखेंगे ? लिहाजा ऐसी निर्णायक घड़ी में आप हमारे आमंत्रण को ठुकराइए मत क्योंकि यह सवाल क्योकि यह केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है । यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है। बल्कि यह हमारे गावं में कालाजार बीमारी से असमय मरने वाले नागरिक के जीवन मूल्यों का प्रश्न है। यह उन मरे हुए लोगों के अनाथ मासूमों का प्रश्न है! यह उन मरे हुए इंसानो के विधवाओं एवं विधुरो का प्रश्न है। यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी का प्रश्न है! यह हमारे द्वारा भेजे गए उन हजारों चिठ्ठियों का प्रश्न है जिसमें हमने अपने गावं के गरीबों की जान बचाने की खातिर मुल्क के राष्ट्रपति से दया की भीख मांगी थी।
इसलिए देश और मानवता के हित में कृपया हमारा आमंत्रण स्वीकार करें!
धन्यवाद, दिलीप कुमार/अरुण कुमार/सीतामढ़ी (बिहार) [+919334405517]
अब दिल्ली सुने या ना सुने लेकिन दिनकर की कविता, “भारत का यह रेशमी नगर “की दो पंक्तिया दिल्ली को सावधान और सचेत तो जरुर करेगी, “तो होश करो, दिल्ली के देवो, होश करो / सब दिन को यह मोहिनी न चलने वाली है / होती जाती है गर्म दिशाओं की सांसे, / मिट्टी फिर कोई आग उगलने वाली है।
Wednesday, October 29, 2014
सियासत का फिल्मी सिनेमा है 'कालाधन', जो हमेशा हिट होती है
ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्विस बैंक का नाम लेते तो सुनने वाले तालियां बजाते थे। और 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी ने जब स्विस बैंक में जमा कालेधन का जिक्र किया तो भी तालियां बजीं। नारे लगे। 1989 में स्विस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को 1989 में पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। और ध्यान दें तो 25 बरस बाद कालेधन और भ्रष्टाचार की इसी हवा ने नरेन्द्र मोदी को भी पीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। 25 बरस पहले पहली बार खुले तौर पर वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्विस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया। हर मोहल्ले। हर गांव। हर शहर की चुनावी रैली में वीपी के यह कहने से ही सुनने वाले खुश हो जाते कि बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा कैसे स्विस बैंक में चला गया और वीपी
पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौड़ी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी । तो अब पहला सवाल यही है कि क्या विदेशों में जमा कालेधन की कौडी भर भी भारत में आ पायेगी या फिर सिर्फ सपने ही दिखाये जा रहे हैं।
क्योंकि 25 बरस पहले के वीपी के जोश की ही तरह 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी भी कालेधन को लेकर कुछ इसी तर्ज पर चुनावी समर में निकले । 25 बरस पुरानी राजनीतिक फिल्म एक बार फिर चुनाव में हिट हुई। मोदी भी पीएम बन चुके हैं लेकिन वीपी के दौर की तर्ज पर मोदी के दौर में भी अब एकबार फिर यह सवाल
जनता के जहन में गूंज रहा है कि आखिर कैसे विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस आयेगा। जबकि किसी भी सरकार ने कालेधन को वापस लाने के लिये कोई भूमिका अदा की ही नहीं। यहा तक की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जिन 627 बैंक धारकों के नाम सौपे गये उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसल ब्लोअर ने निकाले। जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे। और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये या नहीं, पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी रही। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दोर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियों में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खड़ा करती है जो सत्ता
में आने के लिये स्विस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्विस बैंक को एक मजबूरी करार देती है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बड़ा पाया तो राजनीति ही होगी। क्योंकि कालाधन के कटघरे में राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर या बडे मीडिया हाउस से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरधंरों के नाम फेरहिस्त में होने के खुले संकेत मिल रहे हो तब सरकार किसी की हो और पीएम कोई भी हो वह कर क्या सकता है।
सबसे मुश्किल सवाल तो यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के पीछे वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने दो दशक पहले ही कालेधन का खुला जिक्र कर दिया था । और मौजूदा वक्त में कारपोरेट पूंजी के आसरे चुनाव लड़ने और जीतने वाले नेताओं की फेहरिस्त उसी तरह सैकडों में है जैसे कालाधन सेक्यूलर छवि के साथ देश के सामने आ खड़ा हुआ है। खामिया किस हद तक है या राजनीतिक मजबूरी कैसे कालाधन या भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक है इसका अंदाजा इससे भी मिल सकता है कि राज्यसभा के चालीस फीसदी सांसद अभी भी वैसी समितियों के सदस्य है जिन समितियों को उनके अपने धंधे के बारे में निर्णय लेना है यानी एक वक्त किंगफिशर के मालिक राज्यसभा सदस्य बनने के बाद नागरिक उड्डयन समिति के सदस्य हो गये और उस वक्त सारे निर्णय किंग फिशर के अनुकूल होते चले गये। इतना ही नहीं मनमोहन सरकार के दौर में 2012-13 के दौरान लोकसभा के क्यश्चन आवर को देखे तो सांसदो के साठ फीसदी सवाल कारपोरेट और औघोगिक
घरानो के लिये रियायत मांगने वाले ही नजर आयेंगे। और देश का सच यही है कि 2007 के बाद से लगातार कारपोरेट और औघोगिक घरानों को टैक्स में हर बरस रियायत या कहे सब्सीडी 5 से 6 लाख करोड़ तक की दी जाती है। इसी तर्ज पर खनन से जुडी कंपनियों की फेरहिस्त का दर्न-ओवर देश में सबसे तेजी से बढता
है। और देश को राजस्व का चूना खनन के कटघरे में ही सरकार की ही नीतियां लगाती है। तो फिर लाख टके का सवाल यही है कि बीते लोकसभा चुनाव में बार बार विदेशी बैंकों में जमा 500 अरब डालर के कालेधन का जो जिक्र किया गया वह कालाधन कभी भारत आयेगा भी या फिर देश को महज सियासत का फिल्मी सपना
दिखाया गया।
पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौड़ी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी । तो अब पहला सवाल यही है कि क्या विदेशों में जमा कालेधन की कौडी भर भी भारत में आ पायेगी या फिर सिर्फ सपने ही दिखाये जा रहे हैं।
क्योंकि 25 बरस पहले के वीपी के जोश की ही तरह 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी भी कालेधन को लेकर कुछ इसी तर्ज पर चुनावी समर में निकले । 25 बरस पुरानी राजनीतिक फिल्म एक बार फिर चुनाव में हिट हुई। मोदी भी पीएम बन चुके हैं लेकिन वीपी के दौर की तर्ज पर मोदी के दौर में भी अब एकबार फिर यह सवाल
जनता के जहन में गूंज रहा है कि आखिर कैसे विदेशी बैंकों में जमा कालाधन वापस आयेगा। जबकि किसी भी सरकार ने कालेधन को वापस लाने के लिये कोई भूमिका अदा की ही नहीं। यहा तक की मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जिन 627 बैंक धारकों के नाम सौपे गये उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसल ब्लोअर ने निकाले। जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे। और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये या नहीं, पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी रही। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दोर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियों में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खड़ा करती है जो सत्ता
में आने के लिये स्विस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्विस बैंक को एक मजबूरी करार देती है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बड़ा पाया तो राजनीति ही होगी। क्योंकि कालाधन के कटघरे में राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर या बडे मीडिया हाउस से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरधंरों के नाम फेरहिस्त में होने के खुले संकेत मिल रहे हो तब सरकार किसी की हो और पीएम कोई भी हो वह कर क्या सकता है।
सबसे मुश्किल सवाल तो यह है कि राजनीति के अपराधीकरण के पीछे वोहरा कमेटी की रिपोर्ट ने दो दशक पहले ही कालेधन का खुला जिक्र कर दिया था । और मौजूदा वक्त में कारपोरेट पूंजी के आसरे चुनाव लड़ने और जीतने वाले नेताओं की फेहरिस्त उसी तरह सैकडों में है जैसे कालाधन सेक्यूलर छवि के साथ देश के सामने आ खड़ा हुआ है। खामिया किस हद तक है या राजनीतिक मजबूरी कैसे कालाधन या भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक है इसका अंदाजा इससे भी मिल सकता है कि राज्यसभा के चालीस फीसदी सांसद अभी भी वैसी समितियों के सदस्य है जिन समितियों को उनके अपने धंधे के बारे में निर्णय लेना है यानी एक वक्त किंगफिशर के मालिक राज्यसभा सदस्य बनने के बाद नागरिक उड्डयन समिति के सदस्य हो गये और उस वक्त सारे निर्णय किंग फिशर के अनुकूल होते चले गये। इतना ही नहीं मनमोहन सरकार के दौर में 2012-13 के दौरान लोकसभा के क्यश्चन आवर को देखे तो सांसदो के साठ फीसदी सवाल कारपोरेट और औघोगिक
घरानो के लिये रियायत मांगने वाले ही नजर आयेंगे। और देश का सच यही है कि 2007 के बाद से लगातार कारपोरेट और औघोगिक घरानों को टैक्स में हर बरस रियायत या कहे सब्सीडी 5 से 6 लाख करोड़ तक की दी जाती है। इसी तर्ज पर खनन से जुडी कंपनियों की फेरहिस्त का दर्न-ओवर देश में सबसे तेजी से बढता
है। और देश को राजस्व का चूना खनन के कटघरे में ही सरकार की ही नीतियां लगाती है। तो फिर लाख टके का सवाल यही है कि बीते लोकसभा चुनाव में बार बार विदेशी बैंकों में जमा 500 अरब डालर के कालेधन का जो जिक्र किया गया वह कालाधन कभी भारत आयेगा भी या फिर देश को महज सियासत का फिल्मी सपना
दिखाया गया।
Sunday, October 26, 2014
तो ठाकरे खानदान का सपना कल स्वाहा हो जायेगा !
बीते ४५ बरस की शिवसेना की राजनीति कल स्वाहा हो जायेगी। जिन सपनों को मुंबई की सड़क से लेकर समूचे महाराष्ट्र में राज करने का सपना शिवसेना ने देखा कल उसे बीजेपी हड़प लेगी। पहले अन्ना, उसके बाद भाई और फिर उत्तर भारतीयों से टकराते ठाकरे परिवार ने जो सपना मराठी मानुष को सन आफ स्वायल कहकर दिखाया, कल उसे गुजराती अपने हथेली में समेट लेगा। और एक बार फिर गुजरातियों की पूंजी, गुजरातियों के धंधे के आगे शिवसेना की सियासत थम जायेगी या संघर्ष के लिये बालासाहेब ठाकरे का जूता पहन कर उद्दव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे एक नये अंदाज में निकलेंगे। या फिर राज ठाकरे और उद्दव एक साथ खड़े होकर विरासत की सियासत को बरकरार रखने के आस्तित्व की लडाई का बिगुल फूंक देंगे। दादर से लेकर चौपाटी और ठाणे से लेकर उल्लासनगर तक में यह सवाल शिवसैनिकों के बीच बड़ा होता जा रहा है कि एक वक्त अंडरवर्ल्ड तक पर जिन शिवसैनिकों ने वंसत सेना [महाराष्ट्र के सीएम रहे वंसत चौहाण ने अंडरवर्ल्ड के खात्मे के लिये बालासाहेब ठाकरे से हाथ मिलाया था तब शिवसैनिक वसंत सेना के नाम से जाने गये ] बनकर लोहा लिया । एक वक्त शिवसैनिक आनंद दिधे से लेकर नारायण राणे सरीखे शिवसैनिकों के जरीये बिल्डर और भू माफिया से वसूली की नयी गाथायें ठाणे से कोंकण तक में गायी गई। और नब्बे के दशक तक जिस ठाकरे की हुंकार भर से मुंबई ठहर जाती थी क्या कल के बाद उसका समूचा सियासी संघर्ष ही उस खाली कुर्सी की तर्ज पर थम जायेगी जो अंबानी के अस्पताल के उदघाटन के वक्त शिवसेना के मुखिया उद्दव ठाकरे के ना पहुंचने से खाली पड़ी रही। और तमाम नामचीन हस्तियां जो एक वक्त बालासाहेब ठाकरे के दरबार में गये बगैर खुद को मुंबई में सफल मानती नहीं थी, वह सभी एक खाली कुर्सी को अनदेखा कर मजे में बैठी रहीं।
असल में पहली बार कमजोर हुई शिवसेना के भीतर से शिवसैनिकों के ही अनुगुंज सुने जा सकते हैं कि शिवसैनिक खुद पर गर्व करें या भूल जाये कि उसने कभी मुंबई को अपनी अंगुलियों पर नचाया। लेकिन सवाल है कि मुंबई का सच है क्या और क्या भाजपा महाराष्ट्र को नये सिरे से साध पायेगी या फिर गुजराती और महाराष्ट्रीयन के बीच मुंबई उलझ कर रह जायेगी। क्योंकि जिस मुंबई पर महाराष्ट्रीयन गर्व करता है और अधिकार जमाना चाहता है, असल में उसके निर्माण में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के उन स्वप्नदृष्टा पारसियों की निर्णायक भूमिका रही, जो अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर सूरत से मुंबई पहुंचे। लावजी नसेरवानजी वाडिया जैसे जहाज निर्माताओं ने मुंबई में गोदियों के निर्माण की शुरुआत करायी। डाबर ने 1851 में मुंबई में पहली सूत मिल खोली। जेएन टाटा ने पश्चिमी घाट पर मानसून को नियंत्रित करके मुंबई के लिये पनबिजली पैदा करने की बुनियाद डाली, जिसे बाद में दोराबजी टाटा ने पूरा किया। उघोग और व्यापार की इस बढ़ती हुई दुनिया में मुंबई वालो का योगदान ना के बराबर था। मुंबई की औद्योगिक गतिविधियों की जरूरत जिन लोगों ने पूरी की वे वहां 18वीं शताब्दी से ही बसे हुये व्यापारी, स्वर्णकार, लुहार और इमारती मजदूर थे। मराठियों का मुंबई आना बीसवीं सदी में शुरू हुआ। और मुंबई में पहली बार 1930 में ऐसा मौका आया जब मराठियों की तादाद 50 फीसदी तक पहुंची। लेकिन, इस दौर में दक्षिण भारतीय.गुजराती और उत्तर भारतीयों का पलायन भी मुंबई में हुआ और 1950-60 के बीच मुंबई में मराठी 46 फीसदी तक पहुंच गये। इसी दौर में मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल कराने और अलग ऱखने के संघर्ष की शुरुआत हुई। उस समय मुंबई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे, जो गुजराती मूल के थे। उन्होंने आंदोलन के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया। जमकर फायरिंग, लाठी चार्ज और गिरफ्तारी हुई। असल में मुंबई को लेकर कांग्रेस भी बंटी हुई थी। महाराष्ट्र कांग्रेस अगर इसके विलय के पक्ष में थी,तो गुजराती पूंजी के प्रभाव में मुंबई प्रदेश कांग्रेस उसे अलग रखने की तरफदार थी। ऐसे में मोरारजी के सख्त रवैये ने गैर-महाराष्ट्रीयों के खिलाफ मुंबई के मूल निवासियों में एक सांस्कृतिक उत्पीड़न की भावना पैदा हो गयी, जिसका लाभ उस दौर में बालासाहेब ठाकरे के मराठी मानुस की राजनीति को मिला। लेकिन, आंदोलन तेज और उग्र होने का बड़ा आधार आर्थिक भी था। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का प्रभुत्व था। लिखाई-पढाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी और ईरानियो का रुतबा था। भवन निर्माण में सिधिंयों का बोलबाला था। और इमारती काम में लगे हुये ज्यादातर लोग आंध्र के कम्मा थे।
मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था कि ‘आमची मुंबई आहे’, पर यह सिर्फ कहने की बात थी। मुंबई के महलनुमा भवन, गगनचुंबी इमारतें, कारों की कभी ना खत्म होने वाली कतारें और विशाल कारखाने, दरअसल मराठियों के नहीं थे। उन सभी पर किसी ना किसी गैर-महाराष्ट्रीय का कब्जा था। यह अलग मसला है कि संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सैकड़ों जाने गयीं और उसके बाद मुंबई महाराष्ट्र को मिली। लेकिन, मुंबई पर मराठियो का यह प्रतीकात्मक कब्जा ही रहा, क्योंकि मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल किये जाने की खुशी और समारोह अभी मंद भी नहीं पडे थे कि मराठी भाषियों को उस शानदार महानगर में अपनी औकात का एहसास हो गया। मुंबई के व्यापारिक, औद्योगिक और पश्चिमीकृत शहर में मराठी संस्कृति और भाषा के लिये कोई स्थान नहीं था। मराठी लोग क्लर्क, मजदूरों, अध्यापकों और घरेलू नौकरों से ज्यादा की हैसियत की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह मामूली हैसियत भी मुश्किल से ही उपलब्ध थी। और फिर मुंबई के बाहर से आने वाले दक्षिण-उत्तर भारतीयों और गुजरातियों के लिये मराठी सीखना भी जरूरी नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी से काम चल सकता था। बाहरी लोगों के लिये मुंबई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत से कोई रिश्ता जोड़ना भी जरूरी नहीं था।
दरअसल, मुंबई कॉस्मोपोलिटन मराठी भाषियों से एकदम कटा-कटा हुआ था। असल में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और बाद में शिवसेना ने जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह मुंबई के इस चरित्र को कुछ इस तरह पेश करता था कि मानो यह सब किसी साजिश के तहत किया गया हो। लेकिन, असलियत ऐसी थी नहीं। अपनी असफलता के दैत्य से आक्रांत मराठी मानुस के सामने उस समय सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रश्न यह था कि वह अपनी नाकामी की जिम्मेदारी किस पर डाले। एक तरफ 17-18वीं सदी के शानदार मराठा साम्राज्य की चमकदार कहानियां थीं जो महाराष्ट्रीयनों को एक पराक्रामी जाति का गौरव प्रदान करती थी और दूसरी तरफ1960 के दशक का बेरोजगारी से त्रस्त दमनकारी यथार्थ था। आंदोलन ने मुंबई तो महाराष्ट्र को दे दिया, लेकिन गरीब और मध्यवर्गीय मुंबईवासी महाराष्ट्रीय अपना पराभव देखकर स्तब्ध था। दरअसल, मराठियों के सामने सबसे बडा संकट यही था कि उनके भाग्य को नियंत्रित करने वाली आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां इतनी विराट थीं कि उनसे लड़ना उनके लिये कल्पनातीत ही था। उसकी मनोचिकित्सा केवल एक ही तरीके से हो सकती थी कि उसके दिल में संतोष के लिये उसे एक दुश्मन दिखाया-बताया जाये। यानी ऐसा दुश्मन जिससे मराठी मानुस लड़ सके। बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना ने मुंबई के महाराष्ट्रीयनों की यह कमी पूरी की और यहीं से उस राजनीति को साधा जिससे मराठी मानुस को तब-तब संतोष मिले जब-जब शिवसेना उनके जख्मों को छेड़े। ठाकरे ने अखबार मार्मिक को हथियार बनाया और 1965 में रोजगार के जरिये मराठियों को उकसाना शुरू किया। कॉलम का शीर्षक था-वाचा आनी ठण्ड बसा यानी पढ़ो और चुप रहो। इस कॉलम के जरिये बकायदा अलग-अलग सरकारी दफ्तरों से लेकर फैक्ट्रियों में काम करने वाले गैर-महाराष्ट्रीयनों की सूची छापी गई। इसने मुंबईकर में बेचैनी पैदा कर दी। और ठाकरे ने जब महसूस किया कि मराठी मानुस रोजगार को लेकर एकजुट हो रहा है, तो उन्होंने कॉलम का शीर्षक बदल कर लिखा- वाचा आनी उठा यानी पढ़ो और उठ खड़े हो। इसने मुंबईकर में एक्शन का काम किया। संयोग से शिवसेना और उद्दव ठाकरे आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें उनके सामने राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है । लेकिन सत्ता भाजपा के हाथ होगी । नायक अमित शाह या नरेन्द्र मोदी होंगे तो शिवसेना क्या पुराने तार छडेगी मौजूदा सच से संघर्ष करने की सियासत को तवोज्जो देगी। क्योंकि महाराष्ट्र देश का ऐसा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा शहरी गरीब हैं और मुबंई देश का ऐसा महानगर है,जहां सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा- लाख गुना तक है। मुंबई में सबसे ज्यादा अरबपति भी हैं और सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद भी यहीं है। फिर, इस दौर में रोजगार का सवाल सबसे बड़ा हो चला है, क्योंकि आर्थिक सुधार के बीते एक दशक में तीस लाख से ज्यादा नौकरियां खत्म हो गयी हैं। मिलों से लेकर फैक्ट्रियां और छोटे उद्योग धंधे पूरी तरह खत्म हो गये। जिसका सीधा असर महाराष्ट्रीयन लोगों पर पड़ा है।
और संयोग से गैर-महाराष्ट्रीय इलाकों में भी कमोवेश आर्थिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही बनी हुयी है। पलायन कर महानगरों को पनाह बनाना समूचे देश में मजदूर से लेकर बाबू तक की पहली प्राथमिकता है। और इसमें मुबंई अब भी सबसे अनुकूल है, क्योंकि भाषा और रोजगार के लिहाज से यह शहर हर तबके को अपने घेरे में जगह दे सकता है। इन परिस्थितियों के बीच मराठी मानुस का मुद्दा अगर राजनीतिक तौर पर उछलता है, तो शिवसेना और उद्दव ठाकरे दोनों ही इसे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जोड़, फायदा लेने से चूकेंगे नहीं। लेकिन, यहीं से संकट उस राजनीति के दौर शुरू होगा जो आर्थिक नीतियों तले देश के विकास का सपना अभी तक बेचती रही हैं। और जिस तर्ज पर दो लाख करोड के महाराष्ट्र को-ओपरेटिव पर कब्जा जमाये शरद पवार ने भाजपा को खुले समर्थन का सपना बेच कर ठाकरे खानदान की सियासत को ठिकाने लगाया उसने यह तो संकेत दे दिये कि शरद पवार के खिलाफ खडे होने से पहले अमित शाह और नरेन्द्र मोदी दोनों ठाकरे खानदान की सियासत को हड़पना चाहेंगे।
असल में पहली बार कमजोर हुई शिवसेना के भीतर से शिवसैनिकों के ही अनुगुंज सुने जा सकते हैं कि शिवसैनिक खुद पर गर्व करें या भूल जाये कि उसने कभी मुंबई को अपनी अंगुलियों पर नचाया। लेकिन सवाल है कि मुंबई का सच है क्या और क्या भाजपा महाराष्ट्र को नये सिरे से साध पायेगी या फिर गुजराती और महाराष्ट्रीयन के बीच मुंबई उलझ कर रह जायेगी। क्योंकि जिस मुंबई पर महाराष्ट्रीयन गर्व करता है और अधिकार जमाना चाहता है, असल में उसके निर्माण में उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के उन स्वप्नदृष्टा पारसियों की निर्णायक भूमिका रही, जो अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर सूरत से मुंबई पहुंचे। लावजी नसेरवानजी वाडिया जैसे जहाज निर्माताओं ने मुंबई में गोदियों के निर्माण की शुरुआत करायी। डाबर ने 1851 में मुंबई में पहली सूत मिल खोली। जेएन टाटा ने पश्चिमी घाट पर मानसून को नियंत्रित करके मुंबई के लिये पनबिजली पैदा करने की बुनियाद डाली, जिसे बाद में दोराबजी टाटा ने पूरा किया। उघोग और व्यापार की इस बढ़ती हुई दुनिया में मुंबई वालो का योगदान ना के बराबर था। मुंबई की औद्योगिक गतिविधियों की जरूरत जिन लोगों ने पूरी की वे वहां 18वीं शताब्दी से ही बसे हुये व्यापारी, स्वर्णकार, लुहार और इमारती मजदूर थे। मराठियों का मुंबई आना बीसवीं सदी में शुरू हुआ। और मुंबई में पहली बार 1930 में ऐसा मौका आया जब मराठियों की तादाद 50 फीसदी तक पहुंची। लेकिन, इस दौर में दक्षिण भारतीय.गुजराती और उत्तर भारतीयों का पलायन भी मुंबई में हुआ और 1950-60 के बीच मुंबई में मराठी 46 फीसदी तक पहुंच गये। इसी दौर में मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल कराने और अलग ऱखने के संघर्ष की शुरुआत हुई। उस समय मुंबई के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे, जो गुजराती मूल के थे। उन्होंने आंदोलन के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया। जमकर फायरिंग, लाठी चार्ज और गिरफ्तारी हुई। असल में मुंबई को लेकर कांग्रेस भी बंटी हुई थी। महाराष्ट्र कांग्रेस अगर इसके विलय के पक्ष में थी,तो गुजराती पूंजी के प्रभाव में मुंबई प्रदेश कांग्रेस उसे अलग रखने की तरफदार थी। ऐसे में मोरारजी के सख्त रवैये ने गैर-महाराष्ट्रीयों के खिलाफ मुंबई के मूल निवासियों में एक सांस्कृतिक उत्पीड़न की भावना पैदा हो गयी, जिसका लाभ उस दौर में बालासाहेब ठाकरे के मराठी मानुस की राजनीति को मिला। लेकिन, आंदोलन तेज और उग्र होने का बड़ा आधार आर्थिक भी था। व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में गुजराती छाये हुये थे। दूध के व्यापार पर उत्तर प्रदेश के लोगों का कब्जा था। टैक्सी और स्पेयर पार्टस के व्यापार पर पंजाबियों का प्रभुत्व था। लिखाई-पढाई के पेशों में दक्षिण भारतीयों की भारी मांग थी। भोजनालयों में उड्डपी और ईरानियो का रुतबा था। भवन निर्माण में सिधिंयों का बोलबाला था। और इमारती काम में लगे हुये ज्यादातर लोग आंध्र के कम्मा थे।
मुंबई का मूल निवासी दावा तो करता था कि ‘आमची मुंबई आहे’, पर यह सिर्फ कहने की बात थी। मुंबई के महलनुमा भवन, गगनचुंबी इमारतें, कारों की कभी ना खत्म होने वाली कतारें और विशाल कारखाने, दरअसल मराठियों के नहीं थे। उन सभी पर किसी ना किसी गैर-महाराष्ट्रीय का कब्जा था। यह अलग मसला है कि संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सैकड़ों जाने गयीं और उसके बाद मुंबई महाराष्ट्र को मिली। लेकिन, मुंबई पर मराठियो का यह प्रतीकात्मक कब्जा ही रहा, क्योंकि मुंबई को महाराष्ट्र में शामिल किये जाने की खुशी और समारोह अभी मंद भी नहीं पडे थे कि मराठी भाषियों को उस शानदार महानगर में अपनी औकात का एहसास हो गया। मुंबई के व्यापारिक, औद्योगिक और पश्चिमीकृत शहर में मराठी संस्कृति और भाषा के लिये कोई स्थान नहीं था। मराठी लोग क्लर्क, मजदूरों, अध्यापकों और घरेलू नौकरों से ज्यादा की हैसियत की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह मामूली हैसियत भी मुश्किल से ही उपलब्ध थी। और फिर मुंबई के बाहर से आने वाले दक्षिण-उत्तर भारतीयों और गुजरातियों के लिये मराठी सीखना भी जरूरी नहीं था। हिन्दी और अंग्रेजी से काम चल सकता था। बाहरी लोगों के लिये मुंबई के धरती पुत्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक जगत से कोई रिश्ता जोड़ना भी जरूरी नहीं था।
दरअसल, मुंबई कॉस्मोपोलिटन मराठी भाषियों से एकदम कटा-कटा हुआ था। असल में संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और बाद में शिवसेना ने जिस मराठी मिथक का निर्माण किया, वह मुंबई के इस चरित्र को कुछ इस तरह पेश करता था कि मानो यह सब किसी साजिश के तहत किया गया हो। लेकिन, असलियत ऐसी थी नहीं। अपनी असफलता के दैत्य से आक्रांत मराठी मानुस के सामने उस समय सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रश्न यह था कि वह अपनी नाकामी की जिम्मेदारी किस पर डाले। एक तरफ 17-18वीं सदी के शानदार मराठा साम्राज्य की चमकदार कहानियां थीं जो महाराष्ट्रीयनों को एक पराक्रामी जाति का गौरव प्रदान करती थी और दूसरी तरफ1960 के दशक का बेरोजगारी से त्रस्त दमनकारी यथार्थ था। आंदोलन ने मुंबई तो महाराष्ट्र को दे दिया, लेकिन गरीब और मध्यवर्गीय मुंबईवासी महाराष्ट्रीय अपना पराभव देखकर स्तब्ध था। दरअसल, मराठियों के सामने सबसे बडा संकट यही था कि उनके भाग्य को नियंत्रित करने वाली आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां इतनी विराट थीं कि उनसे लड़ना उनके लिये कल्पनातीत ही था। उसकी मनोचिकित्सा केवल एक ही तरीके से हो सकती थी कि उसके दिल में संतोष के लिये उसे एक दुश्मन दिखाया-बताया जाये। यानी ऐसा दुश्मन जिससे मराठी मानुस लड़ सके। बाल ठाकरे और उनकी शिवसेना ने मुंबई के महाराष्ट्रीयनों की यह कमी पूरी की और यहीं से उस राजनीति को साधा जिससे मराठी मानुस को तब-तब संतोष मिले जब-जब शिवसेना उनके जख्मों को छेड़े। ठाकरे ने अखबार मार्मिक को हथियार बनाया और 1965 में रोजगार के जरिये मराठियों को उकसाना शुरू किया। कॉलम का शीर्षक था-वाचा आनी ठण्ड बसा यानी पढ़ो और चुप रहो। इस कॉलम के जरिये बकायदा अलग-अलग सरकारी दफ्तरों से लेकर फैक्ट्रियों में काम करने वाले गैर-महाराष्ट्रीयनों की सूची छापी गई। इसने मुंबईकर में बेचैनी पैदा कर दी। और ठाकरे ने जब महसूस किया कि मराठी मानुस रोजगार को लेकर एकजुट हो रहा है, तो उन्होंने कॉलम का शीर्षक बदल कर लिखा- वाचा आनी उठा यानी पढ़ो और उठ खड़े हो। इसने मुंबईकर में एक्शन का काम किया। संयोग से शिवसेना और उद्दव ठाकरे आज जिस मुकाम पर हैं, उसमें उनके सामने राजनीतिक अस्तित्व का सवाल है । लेकिन सत्ता भाजपा के हाथ होगी । नायक अमित शाह या नरेन्द्र मोदी होंगे तो शिवसेना क्या पुराने तार छडेगी मौजूदा सच से संघर्ष करने की सियासत को तवोज्जो देगी। क्योंकि महाराष्ट्र देश का ऐसा राज्य है, जहां सबसे ज्यादा शहरी गरीब हैं और मुबंई देश का ऐसा महानगर है,जहां सामाजिक असमानता सबसे ज्यादा- लाख गुना तक है। मुंबई में सबसे ज्यादा अरबपति भी हैं और सबसे ज्यादा गरीबों की तादाद भी यहीं है। फिर, इस दौर में रोजगार का सवाल सबसे बड़ा हो चला है, क्योंकि आर्थिक सुधार के बीते एक दशक में तीस लाख से ज्यादा नौकरियां खत्म हो गयी हैं। मिलों से लेकर फैक्ट्रियां और छोटे उद्योग धंधे पूरी तरह खत्म हो गये। जिसका सीधा असर महाराष्ट्रीयन लोगों पर पड़ा है।
और संयोग से गैर-महाराष्ट्रीय इलाकों में भी कमोवेश आर्थिक परिस्थिति कुछ ऐसी ही बनी हुयी है। पलायन कर महानगरों को पनाह बनाना समूचे देश में मजदूर से लेकर बाबू तक की पहली प्राथमिकता है। और इसमें मुबंई अब भी सबसे अनुकूल है, क्योंकि भाषा और रोजगार के लिहाज से यह शहर हर तबके को अपने घेरे में जगह दे सकता है। इन परिस्थितियों के बीच मराठी मानुस का मुद्दा अगर राजनीतिक तौर पर उछलता है, तो शिवसेना और उद्दव ठाकरे दोनों ही इसे सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से जोड़, फायदा लेने से चूकेंगे नहीं। लेकिन, यहीं से संकट उस राजनीति के दौर शुरू होगा जो आर्थिक नीतियों तले देश के विकास का सपना अभी तक बेचती रही हैं। और जिस तर्ज पर दो लाख करोड के महाराष्ट्र को-ओपरेटिव पर कब्जा जमाये शरद पवार ने भाजपा को खुले समर्थन का सपना बेच कर ठाकरे खानदान की सियासत को ठिकाने लगाया उसने यह तो संकेत दे दिये कि शरद पवार के खिलाफ खडे होने से पहले अमित शाह और नरेन्द्र मोदी दोनों ठाकरे खानदान की सियासत को हड़पना चाहेंगे।
Sunday, October 19, 2014
मोदी के लिये पवार हथियार भी और ढाल भी
पवार का खुला समर्थन बीजेपी को सरकार बनाने के लिये गया क्यों। क्या बीजेपी भी शिवसेना से पल्ला झाड कर हिन्दुत्व टैग से बाहर निकलना चाहती है। या फिर महाराष्ट्र की सियासत में बालासाहेब ठाकरे के वोट बैंक को अब बीजेपी हड़पना चाहती है, जिससे उसे भविष्य में गठबंधन की जरुरत ना पड़े। या फिर एनडीए के दायरे में पवार को लाने से नरेन्द्र मोदी अजेय हो सकते है। और महाराष्ट्र जनादेश के बाद के समीकरण ने जतला दिया है कि भविष्य में पवार और मोदी निकट आयेंगे। यह सारे सवाल मुंब्ई से लेकर दिल्ली तक के राजनीतिक गलियारे को बेचैन किये हुये हैं। क्योंकि कांग्रेस से पल्ला झाड़ कर शरद पवार अब जिस राजनीति को साधने निकले है उसमें शिवसेना तो उलझ सकती है लेकिन क्या बीजेपी भी फंसेगी यह सबसे बड़ा सवाल बनता जा रहा है। हालांकि आरएसएस कोई सलाह तो नहीं दे रही है लेकिन उसके संकेत गठबंधन तोड़ने के खिलाफ है। यानी शिवसेना से दूरी रखी जा सकती है लेकिन शिवसेना को खारिज नहीं किया जा सकता। संयोग से इन्ही सवालो ने बीजेपी के भीतर मुख्यमंत्री को लेकर उलझन बढ़ा दी है। पंकजा मुंडे शिवसेना की चहेती है। देवेन्द्र फडनवीस एनसीपी की सियासत के खिलाफ भी है और एनसीपी के भ्रष्टाचार की हर अनकही कहानी को विधानसभा से लेकर चुनाव प्रचार में उठाकर नायक भी बने रहे है। इस कतार में विनोड तावडे हो या मुगंटीवार या खडसे कोई भी महाराष्ट्र की कारपोरेट सियासत को साध पाने में सक्षम नहीं है। ऐसे में एक नाम नितिन गडकरी का निकलता है जिनके रिश्ते शरद पवार से खासे करीबी है। लेकिन महाराष्ट्र के सीएम की कुर्सी पर नरेन्द्र मोदी बैठे यह मोदी और अमितशाह क्यो चाहेंगे यह अपने आप में सवाल है। क्योंकि
गडकरी सीएम बनते है तो उनकी राजनीति का विस्तार होगा और दिल्ली की सियासत ऐसा चाहेगी नहीं। लेकिन दिलचस्प यह है कि शरद पवार ने बीजेपी को खुला ऑफर देकर तीन सवाल खड़े कर दिये हैं। पहला शिवसेना नरम हो जाये। दूसरा सत्ता में आने के बाद बीजेपी बदला लेने के हालात पैदा ना करे। यानी एनसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपो को बीजेपी रेड कारपेट तले दबा दे। और तीसरा भविष्य में बीजेपी के खिलाफ तमाम मोदी विरोधी नेता एकजुट ना हो । यानी पवार के गठबंधन को बांधने की ताकत को नरेन्द्र मोदी बीजेपी के भविष्य के लिये भी मान्यता दे दे।
जाहिर है पवार के कदम का पहला असर शिवसेना पर पड़ने भी लगा है। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय बोर्ड में बदलाव के संकेत भी आने लगे। सामना की भाषा ने प्रधानमंत्री को सीधे निशाने पहले सामना पर लिखे हर शब्द से पल्ला झाड़ा अब संजय राउत की जगह सुभाष देसाई और लीलाधर ढोके को संपादकीय की अगुवाई करने के संकेत भी दे दिये। पवार के कदम का दूसरा असर देवेन्द्र फडनवीस पर भी मुंबई पहुंचते ही पड़ा। शाम होते होते देवेन्द्र जिस तेवर से एनसीपी का विरोध करते रहे उसमें नरमी आ गयी। और पवार के कदम का तीसरा असर बीजेपी के विस्तार के लिये एकला चलो के नारे को पीछे कर गठबंधन को विस्तार का आधार बनाने पर संसदीय बोर्ड में भी चर्चा होने लगी । यानी बीजेपी के नफे के लिये तमाम विपक्षी राजनीति को भी अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है यह नयी समझ भी विकसित हुई। यानी गठबंधन की जरुरत कैसे सत्ता के लिये विरोधी दलो की है यह मैसेज जाना चाहिये। यानी जो स्थिति कभी काग्रेस की थी उस जगह पर बीजेपी आ चुकी है। और क्षत्रपों की राजनीति मुद्दों के आधार पर नहीं बल्कि बीजेपी विरोध पर टिक गयी है। यानी "सबका साथ सबका विकास " का नारा राजनीतिक तौर पर कैसे बीजेपी को पूरे देश में विस्तार दे सकता है, इसके लिये महाराष्ट्र के समीकरण को ही साधकर सफलता भी पायी जा सकती है। यानी बिहार में तमाम राजनीति दलो की एकजुटता या फिर यूपी में मायावती के चुनाव ना लड़ने से मुलायम को उपचुनाव में होने वाले लाभ की राजनीति की हवा निकालने के लिये बीजेपी पहली बार महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिये होने वाले गठबंधन को महाप्रयोग के तौर पर आजमा चाह रही है। जिससे अगली खेप में झरखंड को भी पहले से ही साधा जा सके। और भविष्य में बिहार यूपी में विपक्ष की गठबंधन राजनीति को साधने में शरद पवार ही ढाल भी बने और हथियार भी। यानी जो पवार कभी हथेली और आस्तीन के दांव में हर किसी को फांसते रहे वही हथेली और आस्तीन को इस बार बीजेपी आजमा सकती है।
गडकरी सीएम बनते है तो उनकी राजनीति का विस्तार होगा और दिल्ली की सियासत ऐसा चाहेगी नहीं। लेकिन दिलचस्प यह है कि शरद पवार ने बीजेपी को खुला ऑफर देकर तीन सवाल खड़े कर दिये हैं। पहला शिवसेना नरम हो जाये। दूसरा सत्ता में आने के बाद बीजेपी बदला लेने के हालात पैदा ना करे। यानी एनसीपी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपो को बीजेपी रेड कारपेट तले दबा दे। और तीसरा भविष्य में बीजेपी के खिलाफ तमाम मोदी विरोधी नेता एकजुट ना हो । यानी पवार के गठबंधन को बांधने की ताकत को नरेन्द्र मोदी बीजेपी के भविष्य के लिये भी मान्यता दे दे।
जाहिर है पवार के कदम का पहला असर शिवसेना पर पड़ने भी लगा है। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय बोर्ड में बदलाव के संकेत भी आने लगे। सामना की भाषा ने प्रधानमंत्री को सीधे निशाने पहले सामना पर लिखे हर शब्द से पल्ला झाड़ा अब संजय राउत की जगह सुभाष देसाई और लीलाधर ढोके को संपादकीय की अगुवाई करने के संकेत भी दे दिये। पवार के कदम का दूसरा असर देवेन्द्र फडनवीस पर भी मुंबई पहुंचते ही पड़ा। शाम होते होते देवेन्द्र जिस तेवर से एनसीपी का विरोध करते रहे उसमें नरमी आ गयी। और पवार के कदम का तीसरा असर बीजेपी के विस्तार के लिये एकला चलो के नारे को पीछे कर गठबंधन को विस्तार का आधार बनाने पर संसदीय बोर्ड में भी चर्चा होने लगी । यानी बीजेपी के नफे के लिये तमाम विपक्षी राजनीति को भी अपने अनुकूल कैसे बनाया जा सकता है यह नयी समझ भी विकसित हुई। यानी गठबंधन की जरुरत कैसे सत्ता के लिये विरोधी दलो की है यह मैसेज जाना चाहिये। यानी जो स्थिति कभी काग्रेस की थी उस जगह पर बीजेपी आ चुकी है। और क्षत्रपों की राजनीति मुद्दों के आधार पर नहीं बल्कि बीजेपी विरोध पर टिक गयी है। यानी "सबका साथ सबका विकास " का नारा राजनीतिक तौर पर कैसे बीजेपी को पूरे देश में विस्तार दे सकता है, इसके लिये महाराष्ट्र के समीकरण को ही साधकर सफलता भी पायी जा सकती है। यानी बिहार में तमाम राजनीति दलो की एकजुटता या फिर यूपी में मायावती के चुनाव ना लड़ने से मुलायम को उपचुनाव में होने वाले लाभ की राजनीति की हवा निकालने के लिये बीजेपी पहली बार महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिये होने वाले गठबंधन को महाप्रयोग के तौर पर आजमा चाह रही है। जिससे अगली खेप में झरखंड को भी पहले से ही साधा जा सके। और भविष्य में बिहार यूपी में विपक्ष की गठबंधन राजनीति को साधने में शरद पवार ही ढाल भी बने और हथियार भी। यानी जो पवार कभी हथेली और आस्तीन के दांव में हर किसी को फांसते रहे वही हथेली और आस्तीन को इस बार बीजेपी आजमा सकती है।
Friday, October 17, 2014
क्यों हर किसी को शह और मात देने की स्थिति में हैं मोदी ?
नरेन्द्र मोदी जिस राजनीति के जरिये सत्ता साध रहे हैं, उसमें केन्द्र की राजनीति हो या क्षत्रपों का मिजाज । दोनों के सामने ही खतरे की घंटी बजने लगी है कि उन्हे या तो पारंपरिक राजनीति छोड़नी पडेगी या फिर मुद्दों को लेकर पारपरिक समझ बदलनी होगी । लेकिन मजेदार सच यह है कि मोदी और आरएसएस एक लकीर पर कितनी दूर कैसे चले और दोनों में से कौन किसे कब बांधेगा यह देखना समझना दिलचस्प हो चला है। आरएसएसएस की ताकत है परिवार। और परिवार की ताकत है बीजेपी की सत्ता। आरएसएस के परिवार में बीजेपी भी है और किसान संघ से लेकर भारतीय मजदूर संघ समेत 40 संगठन। तो चालीस संगठनों को
हमेशा लगता रहा है कि जब स्वयंसेवक दिल्ली की कुर्सी पर बैठेगा तो उनके अनुकूल वातावरण बनेगा और उनका विस्तार होगा। लेकिन सत्ता को हमेशा लगता है कि सामाजिक शुद्दिकरण के लिये तो परिवार की सोच ठीक है लेकिन जब सियासत साधनी होगी तो परिवार को ही सत्ता के लिये काम करना चाहिये यानी उसे बदल जाना चाहिये। इस उहोपोह में एकबार सत्ता और संघ की कश्मकश उसी इतिहास को दोहरा रही है जैसे कभी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में हुआ था। प्रधानमंत्री मोदी ने सोच समझ कर दीन दयाल उपाध्याय के दिन को मजदूरों से जोडकर श्रमेव जयते का नारा दिया । और इस नारे को ही मजदूरों के बीच काम करने वाले संघ परिवार संगठन भारतीय मजदूर संघ ने खारिज कर दिया। बीएमएस के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय की माने तो मजदूरो को लेकर प्रधानमंत्री ने मजदूर संगठनों से कोई बात की ही नहीं यहा तक की बीएमएस से भी नहीं तो फिर मजदूरों को लेकर समूचा रास्ता ही औघोगिक घरानों के हित साधने के लिये मोदी सरकार बना रही है।
अगर संघ परिवार के मजदूर संघठन के तेवर देखें तो ब्रजेश उपाध्याय बिलकुल उसी तर्ज पर सरकार की मजदूर नीतियों का विरोध कर रहे है जैसे 2001 में हंसमुखभाई दवे ने वाजपेयी सरकार के एफडीआई को लेकर किया था। या फिर वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा का विरोध स्वदेशी जागरण मंच संभाले दत्तापंत ठेंगडी ने 2001-02 के दौरान इस हद तक खुलकर किया था कि तब सरकार को वित्त मंत्री बदलना पड़ गया था । लेकिन तब के स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम होने और अब के पीएम मोदी के होने का फर्क भी आरएसएस समझ रहा है। इसलिये बीएमएस का मजदूर नीतियों को लेकर विरोध या किसानों को लेकर सरकार की खामोश निगाहो से परेशान किसान संघ की खामोशी कोई गुल खिला सकती है यह सोचना भी फिलहाल चमकते हुये सूरज को विरोध का दीया दिखाने के ही समान होगा। क्योंकि जिस आरएसएस को लोग भूल रहे थे नरेन्द्र मोदी की पीएम बनने के बाद उसी आरएसएस को लेकर गजब का जुनुन देश में शुरु हुआ है। आलम यह हो चला है कि तीन साल पहले जहा आरएसएस की साइट पर सिर्फ दो से तीन हजार लोग ही दस्तक देते थे, वह आज की तारिख में हर महींने आठ हजार तक पहुंच गई है । असल में संघ से प्रेम की यह रफ्तार अयोध्या आंदोलन के दौर में भी नहीं थी। और यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस दौर में
अयोध्या आंदोलन समूचे देश की राजनीति को प्रभावित कर रहा था, उस वक्त आरएसएस का सदस्य बनने के बदले विश्व हिन्दू परिषद का सदस्य बनने की होड़ देश में लगी थी। और 1990-92 के दौरान ही दो लाख लोगों ने विहिप का दरवाजा खटखटाया था। इसी तरह 1996 से 1999 तक के दौरान बीजेपी को लेकर आम लोगों में गजब का जुनुन था और आरएसएस से ज्यादा बीजेपी के सदस्य बनने की होड़ देशभर में शुरु हुई थी। उस वक्त बीजेपी ने सदस्य बनाने की मुहिम भी शुरु की थी। तमाम राजनीतिक दल से अलग दिखने की सोच तब बीजेपी में थी लेकिन जब स्वयंसेवक प्रचारक वाजपेयी पीएम बने तो अलग दिखने की सोच सबसे पहले आरएसएस की ही ढही। लेकिन मौजूदा मोदी सरकार को लेकर आरएसएस की उड़ान सपनों के भारत को संजोने और बनाने की है। और पहली बार आरएसएस के भीतर के छुपे हुये राजनीतिक गुण को ही 2014 के लोकसभा चुनाव में उडान मिली है तो वह अब खुल कर राजनीतिक बिसात बिछाने से भी नहीं कतरा रहा है और यह संकेत देने भी देने लगा है कि बीजेपी की सत्ता के पीछे असल ताकत संघ परिवार की है।
इसलिये पहली बार आरएसएस का कार्यकारी मंडल लखनऊ में बैठकर यूपी की सियासी बिसात को समझना भी चाहता है और किस रास्ते हिन्दू वोटरों में अलख जगाना है और वीएचपी सरीखे संगठन के जरीये विराट हिन्दुत्व का समागम राजनीतिक तौर पर कैसी बिसात बिछा सकता है इसे भी टटोल रहा है। यानी पहली बार सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस खुद की सक्रियता चुनाव में वोटरों की तादाद को बढाने से लेकर हिन्दुत्व सक्रियता को राजनीतिक पटल पर रखने में जुटा है वही चौबिस घंटे तीनसौ पैसठ दिन राजनीति करने वाले तमाम राजनीतिक दल अभी भी चुनावी जीत हार को उसी खाके में रख रहे है जहां जीत हार सिर्फ संयोग है । और तमाम दल मान यही रहे हैं कि हर बार तो कोई जीत नहीं सकता है तो कभी काग्रेस जीती कभी बीजेपी कभी क्षत्रपों का राज आ गया। यानी राजनीति बदल रही है और पारंपरिक राजनीति छोडनी होगी, इसे राजनीतिक दल मान नहीं रहे हैं तो कोई दल या कोई नेता नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के हालात में भी नहीं आ पा रहा है। और बदलती राजनीति का खुला नजारा हर किसी के सामने है। क्योंकि पहली बार अपने बूते देश की सत्ता पर काबिज होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तेवर के साथ गांव,किसान,मजदूर से लेकर कारपोरेट और औघोगिक घरानों को भी मेकइन इंडिया से जोडने की बात भी कही और राज्य के चुनाव का एलान होते ही महाराष्ट्र और हरियाणा के गली कूचों में रैली करनी शुरु की उसने अर्से बाद बदलती राजनीति के नये संकेत तो दे ही दिये। मसलन नेता सत्ता पाने के बाद सत्ता की ठसक में ना रहे बल्कि सीधे संवाद बनाना ही होगा। राष्ट्रीय नीतियों का एलान कर सरकार की उपलब्धियों का खांका ना बताये बल्कि नीतियों को आम लोगों से जोडना ही होगा और -विकास की परिभाषा को जाति या धर्म में बांटने से बचना होगा। ध्यान दें तो लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में हर बडे राजनेता या राजनीतिक दल का संकट यही हो चला है कि वोटर अपने होने का एहसास नेताओं के बात में कर नहीं पा रहा है जबकि मोदी वोटरों को जोडकर संवाद बनाने में लगातार जुटे हैं। यानी चुनावी जीत की मशीन भी कोई केन्द्र सरकार हो सकती है कोई पीएम हो सकता है, इसका एहसास पहली बार देश को हो रहा है। इससे कांग्रेस की मुश्किल है कि वह सेक्यूलर राग के आसरे अब सत्ता पा नहीं सकती है । क्षत्रपों की मुश्किल है जातीय समीकरण के आसरे वोटबैंक बना नहीं सकते हैं। राजनीतिक गठबंधन की मुश्किल है कि जीत के आंकड़ों का विस्तार सिर्फ राजनीतिक दलों के मिलने से संभव नहीं होगा । और यह तीनो आधार तभी सत्ता दिला सकते है जब देश के सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को समझते हुये राजनीति की जाये ।
ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी ने बेहद बारीकी से अपने भाषणों में उस आर्थिक सुधार को ही निशाने पर लिया है, जिसने मंडल-कंमल की राजनीति को बदला। जिसने भारत को बाजार में बदल दिया । यानी बीते 20 बरस की राजनीति के बाद से भारत में हर सरकार की सियासी अंटी से सिर्फ घोटाले और भ्रष्ट्रचार ही राजनीति के बाजार में सबसे महत्वपूर्ण हो गये। और इस दौर का आक्रोष ही नरेन्द्र मोदी के चुनावी भाषणों में कुछ इस तरह से छलका जिससे लोगो में भरोसा जागा। और शायद राजनीतिक तौर तरीके यही से बदलने शुरु हो गये हैं। क्योंकि कांग्रेस ही नहीं बल्कि शरद पवार हो या चौटाला। उद्दव ठाकरे हों या फिर यूपी-बिहार के क्षत्रप । ध्यान दें तो बीते बीस तीस बरस की इनकी राजनीति में कोई अंतर आया नहीं है जबकि इस दौर में दो पीढियां वोटर के तौर पर जन्म ले चुकी हैं। और मोदी फिलहाल इसे साधने में मास्टर साबित हो रहे हैं, इससे इंकार किया नहीं जा सकता । ध्यान दें तो सत्ता संभालने के 140 दिनों के भीतर बतौर पीएम ऐलानो की झडी जिस अंदाज में कालाधन, गंगा सफाई,जजों की नियुक्ती,जनधन योजना, -ई गवर्नेस-, स्कील इंडिया, डिजिटल इंडिया, -मेक इन इंडिया,आद्रर्श गांव .स्वच्छ भारत और श्रमेवजयते की लगायी उससे मैसेज यही गया कि कमोवेश हर तबके के लिये कुछ ना कुछ । हर क्षेत्र को छूने की कवायद। बिगडे हुये सिस्टम को संवारने की सोच और सियासत साधने के तरीके। यानी मोदी ने हर नारे के आसरे पीछली सरकारों के कुछ ना करने पर अंगुली उठाकर अपने तरफ उठने वाली हर अंगुली को रोका भी। सवाल यह उठ रहे हैं कि नारों की जमीन क्या वाकई पुख्ता है या फिर पहली बार प्रधानमंत्री खुद ही विपक्ष की भूमिका निभाते हुये हर तबके की मुश्किलों
को उभार रहे है और कुछ करने के संकेत दे रहे हैं।
ध्यान दें तो कांग्रेस अभी भी खुद को विपक्ष मानने के हालात में नही आया है । हो सकता है इतिहास में सबसे निचले पायदान पर पहुंची कांग्रेस अभी भी सदमें में हो या फिर इस खुशफहमी में हो कि उनकी नीतियों का नाम बदल कर नरेन्द्र मोदी दिलों को जीतना चाह रहे हैं। लेकिन समझना यह भी होगा कि प्रधनामंत्री मोदी बिना किसी बैग-बैगेज के पीएम बने है तो वह हर दबाब से मुक्त है इसलिये एलान करते वक्त नरेन्द्र
मोदी नायक भी है और एलान पूरे कैसे कब होंगे इसके लिये कोई ब्लू प्रिंट ना होने के कारण खलनायक भी है । लेकिन शरद पवार, उद्दव ठाकरे या चौटाला सरीखे नेता अगर मोदी को खलनायक कहेगें तो वोटरों के लिये तो मोदी नायक खुद ब खुद हो जायेगें क्योंकि मौजूदा वक्त में विपक्ष किसी भूमिका में है ही नहीं। शायद इसीलिये जब मजदूरो के लिये श्रममेव जयते का जिक्र पीएम मोदी करते है तो यह हर किसी को अनूठा भी लगाता है लेकिन मौलिक सवाल और कोई नहीं आरएसएस की शाखा बीएमएस यह कहकर उठाती है कि मजदूरों की मौजूदगी के बगैर श्रममेव जयते का मतलब क्या है । असल खेल यही है कि संघ परिवार ही मोदी की उस सियासत को साधेगा जिस सियासत में होने वाले हर एलान की जमीन पोपली है । और संघ चाहता है कि मोदी पोपली जमीन को भी पुख्ता करते चले। यानी पहली बार देश के बदले हुये राजनीति हालात के सामने कैसे हर राजनीति दल सरेंडर कर चुका है और जिस संघ ने मोदी को विजयी घोड़े पर बैठाया वहीं विरोध भी कर रहा है । तो संकेत साफ है पहली बार मोदी को राजनीतिक चुनौती देने वाला या चुनौती देते हुये दिखायी देने वाला भी कोई नहीं है इसलिये अब मोदी वर्सेस आल की थ्योरी तले गठबंधन के आसरे चुनावी जीत की बिसात को ही हर राज्य , हर राजनीति दल देख रहा है। और यही मोदी की जीत है।
हमेशा लगता रहा है कि जब स्वयंसेवक दिल्ली की कुर्सी पर बैठेगा तो उनके अनुकूल वातावरण बनेगा और उनका विस्तार होगा। लेकिन सत्ता को हमेशा लगता है कि सामाजिक शुद्दिकरण के लिये तो परिवार की सोच ठीक है लेकिन जब सियासत साधनी होगी तो परिवार को ही सत्ता के लिये काम करना चाहिये यानी उसे बदल जाना चाहिये। इस उहोपोह में एकबार सत्ता और संघ की कश्मकश उसी इतिहास को दोहरा रही है जैसे कभी अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में हुआ था। प्रधानमंत्री मोदी ने सोच समझ कर दीन दयाल उपाध्याय के दिन को मजदूरों से जोडकर श्रमेव जयते का नारा दिया । और इस नारे को ही मजदूरों के बीच काम करने वाले संघ परिवार संगठन भारतीय मजदूर संघ ने खारिज कर दिया। बीएमएस के महासचिव ब्रजेश उपाध्याय की माने तो मजदूरो को लेकर प्रधानमंत्री ने मजदूर संगठनों से कोई बात की ही नहीं यहा तक की बीएमएस से भी नहीं तो फिर मजदूरों को लेकर समूचा रास्ता ही औघोगिक घरानों के हित साधने के लिये मोदी सरकार बना रही है।
अगर संघ परिवार के मजदूर संघठन के तेवर देखें तो ब्रजेश उपाध्याय बिलकुल उसी तर्ज पर सरकार की मजदूर नीतियों का विरोध कर रहे है जैसे 2001 में हंसमुखभाई दवे ने वाजपेयी सरकार के एफडीआई को लेकर किया था। या फिर वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशंवत सिन्हा का विरोध स्वदेशी जागरण मंच संभाले दत्तापंत ठेंगडी ने 2001-02 के दौरान इस हद तक खुलकर किया था कि तब सरकार को वित्त मंत्री बदलना पड़ गया था । लेकिन तब के स्वयंसेवक वाजपेयी के पीएम होने और अब के पीएम मोदी के होने का फर्क भी आरएसएस समझ रहा है। इसलिये बीएमएस का मजदूर नीतियों को लेकर विरोध या किसानों को लेकर सरकार की खामोश निगाहो से परेशान किसान संघ की खामोशी कोई गुल खिला सकती है यह सोचना भी फिलहाल चमकते हुये सूरज को विरोध का दीया दिखाने के ही समान होगा। क्योंकि जिस आरएसएस को लोग भूल रहे थे नरेन्द्र मोदी की पीएम बनने के बाद उसी आरएसएस को लेकर गजब का जुनुन देश में शुरु हुआ है। आलम यह हो चला है कि तीन साल पहले जहा आरएसएस की साइट पर सिर्फ दो से तीन हजार लोग ही दस्तक देते थे, वह आज की तारिख में हर महींने आठ हजार तक पहुंच गई है । असल में संघ से प्रेम की यह रफ्तार अयोध्या आंदोलन के दौर में भी नहीं थी। और यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस दौर में
अयोध्या आंदोलन समूचे देश की राजनीति को प्रभावित कर रहा था, उस वक्त आरएसएस का सदस्य बनने के बदले विश्व हिन्दू परिषद का सदस्य बनने की होड़ देश में लगी थी। और 1990-92 के दौरान ही दो लाख लोगों ने विहिप का दरवाजा खटखटाया था। इसी तरह 1996 से 1999 तक के दौरान बीजेपी को लेकर आम लोगों में गजब का जुनुन था और आरएसएस से ज्यादा बीजेपी के सदस्य बनने की होड़ देशभर में शुरु हुई थी। उस वक्त बीजेपी ने सदस्य बनाने की मुहिम भी शुरु की थी। तमाम राजनीतिक दल से अलग दिखने की सोच तब बीजेपी में थी लेकिन जब स्वयंसेवक प्रचारक वाजपेयी पीएम बने तो अलग दिखने की सोच सबसे पहले आरएसएस की ही ढही। लेकिन मौजूदा मोदी सरकार को लेकर आरएसएस की उड़ान सपनों के भारत को संजोने और बनाने की है। और पहली बार आरएसएस के भीतर के छुपे हुये राजनीतिक गुण को ही 2014 के लोकसभा चुनाव में उडान मिली है तो वह अब खुल कर राजनीतिक बिसात बिछाने से भी नहीं कतरा रहा है और यह संकेत देने भी देने लगा है कि बीजेपी की सत्ता के पीछे असल ताकत संघ परिवार की है।
इसलिये पहली बार आरएसएस का कार्यकारी मंडल लखनऊ में बैठकर यूपी की सियासी बिसात को समझना भी चाहता है और किस रास्ते हिन्दू वोटरों में अलख जगाना है और वीएचपी सरीखे संगठन के जरीये विराट हिन्दुत्व का समागम राजनीतिक तौर पर कैसी बिसात बिछा सकता है इसे भी टटोल रहा है। यानी पहली बार सामाजिक सांस्कृतिक संगठन आरएसएस खुद की सक्रियता चुनाव में वोटरों की तादाद को बढाने से लेकर हिन्दुत्व सक्रियता को राजनीतिक पटल पर रखने में जुटा है वही चौबिस घंटे तीनसौ पैसठ दिन राजनीति करने वाले तमाम राजनीतिक दल अभी भी चुनावी जीत हार को उसी खाके में रख रहे है जहां जीत हार सिर्फ संयोग है । और तमाम दल मान यही रहे हैं कि हर बार तो कोई जीत नहीं सकता है तो कभी काग्रेस जीती कभी बीजेपी कभी क्षत्रपों का राज आ गया। यानी राजनीति बदल रही है और पारंपरिक राजनीति छोडनी होगी, इसे राजनीतिक दल मान नहीं रहे हैं तो कोई दल या कोई नेता नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के हालात में भी नहीं आ पा रहा है। और बदलती राजनीति का खुला नजारा हर किसी के सामने है। क्योंकि पहली बार अपने बूते देश की सत्ता पर काबिज होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तेवर के साथ गांव,किसान,मजदूर से लेकर कारपोरेट और औघोगिक घरानों को भी मेकइन इंडिया से जोडने की बात भी कही और राज्य के चुनाव का एलान होते ही महाराष्ट्र और हरियाणा के गली कूचों में रैली करनी शुरु की उसने अर्से बाद बदलती राजनीति के नये संकेत तो दे ही दिये। मसलन नेता सत्ता पाने के बाद सत्ता की ठसक में ना रहे बल्कि सीधे संवाद बनाना ही होगा। राष्ट्रीय नीतियों का एलान कर सरकार की उपलब्धियों का खांका ना बताये बल्कि नीतियों को आम लोगों से जोडना ही होगा और -विकास की परिभाषा को जाति या धर्म में बांटने से बचना होगा। ध्यान दें तो लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में हर बडे राजनेता या राजनीतिक दल का संकट यही हो चला है कि वोटर अपने होने का एहसास नेताओं के बात में कर नहीं पा रहा है जबकि मोदी वोटरों को जोडकर संवाद बनाने में लगातार जुटे हैं। यानी चुनावी जीत की मशीन भी कोई केन्द्र सरकार हो सकती है कोई पीएम हो सकता है, इसका एहसास पहली बार देश को हो रहा है। इससे कांग्रेस की मुश्किल है कि वह सेक्यूलर राग के आसरे अब सत्ता पा नहीं सकती है । क्षत्रपों की मुश्किल है जातीय समीकरण के आसरे वोटबैंक बना नहीं सकते हैं। राजनीतिक गठबंधन की मुश्किल है कि जीत के आंकड़ों का विस्तार सिर्फ राजनीतिक दलों के मिलने से संभव नहीं होगा । और यह तीनो आधार तभी सत्ता दिला सकते है जब देश के सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को समझते हुये राजनीति की जाये ।
ध्यान दें तो नरेन्द्र मोदी ने बेहद बारीकी से अपने भाषणों में उस आर्थिक सुधार को ही निशाने पर लिया है, जिसने मंडल-कंमल की राजनीति को बदला। जिसने भारत को बाजार में बदल दिया । यानी बीते 20 बरस की राजनीति के बाद से भारत में हर सरकार की सियासी अंटी से सिर्फ घोटाले और भ्रष्ट्रचार ही राजनीति के बाजार में सबसे महत्वपूर्ण हो गये। और इस दौर का आक्रोष ही नरेन्द्र मोदी के चुनावी भाषणों में कुछ इस तरह से छलका जिससे लोगो में भरोसा जागा। और शायद राजनीतिक तौर तरीके यही से बदलने शुरु हो गये हैं। क्योंकि कांग्रेस ही नहीं बल्कि शरद पवार हो या चौटाला। उद्दव ठाकरे हों या फिर यूपी-बिहार के क्षत्रप । ध्यान दें तो बीते बीस तीस बरस की इनकी राजनीति में कोई अंतर आया नहीं है जबकि इस दौर में दो पीढियां वोटर के तौर पर जन्म ले चुकी हैं। और मोदी फिलहाल इसे साधने में मास्टर साबित हो रहे हैं, इससे इंकार किया नहीं जा सकता । ध्यान दें तो सत्ता संभालने के 140 दिनों के भीतर बतौर पीएम ऐलानो की झडी जिस अंदाज में कालाधन, गंगा सफाई,जजों की नियुक्ती,जनधन योजना, -ई गवर्नेस-, स्कील इंडिया, डिजिटल इंडिया, -मेक इन इंडिया,आद्रर्श गांव .स्वच्छ भारत और श्रमेवजयते की लगायी उससे मैसेज यही गया कि कमोवेश हर तबके के लिये कुछ ना कुछ । हर क्षेत्र को छूने की कवायद। बिगडे हुये सिस्टम को संवारने की सोच और सियासत साधने के तरीके। यानी मोदी ने हर नारे के आसरे पीछली सरकारों के कुछ ना करने पर अंगुली उठाकर अपने तरफ उठने वाली हर अंगुली को रोका भी। सवाल यह उठ रहे हैं कि नारों की जमीन क्या वाकई पुख्ता है या फिर पहली बार प्रधानमंत्री खुद ही विपक्ष की भूमिका निभाते हुये हर तबके की मुश्किलों
को उभार रहे है और कुछ करने के संकेत दे रहे हैं।
ध्यान दें तो कांग्रेस अभी भी खुद को विपक्ष मानने के हालात में नही आया है । हो सकता है इतिहास में सबसे निचले पायदान पर पहुंची कांग्रेस अभी भी सदमें में हो या फिर इस खुशफहमी में हो कि उनकी नीतियों का नाम बदल कर नरेन्द्र मोदी दिलों को जीतना चाह रहे हैं। लेकिन समझना यह भी होगा कि प्रधनामंत्री मोदी बिना किसी बैग-बैगेज के पीएम बने है तो वह हर दबाब से मुक्त है इसलिये एलान करते वक्त नरेन्द्र
मोदी नायक भी है और एलान पूरे कैसे कब होंगे इसके लिये कोई ब्लू प्रिंट ना होने के कारण खलनायक भी है । लेकिन शरद पवार, उद्दव ठाकरे या चौटाला सरीखे नेता अगर मोदी को खलनायक कहेगें तो वोटरों के लिये तो मोदी नायक खुद ब खुद हो जायेगें क्योंकि मौजूदा वक्त में विपक्ष किसी भूमिका में है ही नहीं। शायद इसीलिये जब मजदूरो के लिये श्रममेव जयते का जिक्र पीएम मोदी करते है तो यह हर किसी को अनूठा भी लगाता है लेकिन मौलिक सवाल और कोई नहीं आरएसएस की शाखा बीएमएस यह कहकर उठाती है कि मजदूरों की मौजूदगी के बगैर श्रममेव जयते का मतलब क्या है । असल खेल यही है कि संघ परिवार ही मोदी की उस सियासत को साधेगा जिस सियासत में होने वाले हर एलान की जमीन पोपली है । और संघ चाहता है कि मोदी पोपली जमीन को भी पुख्ता करते चले। यानी पहली बार देश के बदले हुये राजनीति हालात के सामने कैसे हर राजनीति दल सरेंडर कर चुका है और जिस संघ ने मोदी को विजयी घोड़े पर बैठाया वहीं विरोध भी कर रहा है । तो संकेत साफ है पहली बार मोदी को राजनीतिक चुनौती देने वाला या चुनौती देते हुये दिखायी देने वाला भी कोई नहीं है इसलिये अब मोदी वर्सेस आल की थ्योरी तले गठबंधन के आसरे चुनावी जीत की बिसात को ही हर राज्य , हर राजनीति दल देख रहा है। और यही मोदी की जीत है।