Monday, March 30, 2015

केजरीवाल : चेहरा या मुखौटा ?

किसी को इंदिरा गांधी का सिडिंकेट से लड़कर मजबूत नेता के तौर पर उभरना याद आ रहा है तो किसी को प्रफुल्ल महंत का असम में सिमटना और फूकन को बाहर का रास्ता दिखा कर एक क्षेत्रीय पार्टी के तौर पर सिमट कर रह जाना याद आ रहा है। किसी को दिल्ली का चुनावी बदशाह दिल्ली में जीत का ठग लग रहा है तो कोई दिल्ली सल्तनत को अपनी बौद्दिकता से ठगकर गिराने की साजिश देख रहा है। कोई लोकतंत्र की हत्या करार दे रहा है तो कोई जनतंत्र पर हावी सत्ताधारी राजनीति को आईना दिखाने वाली राजनीति का पटाक्षेप देख रहा है। एकतरफा निर्णय सुनाने की ताकत किसी में नहीं है। कोई इतिहास के पन्नों को पलटकर निर्णय सुनाने से बचना चाह रहा है तो कोई अपनी जरुरतों को पूरा करने के लिये राजनीति के बदलते मिजाज को देखना चाह रहा है। लेकिन सीधे सीधे यह कोई नहीं कह रहा है कि आम आदमी पार्टी का प्रयोग तो राजनीतिक विचारधाराओं को तिलांजलि देकर पनपा है। जहां राजनेता तो हैं ही नहीं। जहा समाजवादी-वामपंथी या राइट-लेफ्ट की सोच है ही नहीं। जहां राजनीतिक धाराओं को दिशा देने की सोच है ही नहीं। जहां सामाजिक-आर्थिक अंतर्रविरोध को लेकर पूंजीवाद से लड़ने या आवारा पूंजी को संभालने की कोई थ्योरी है ही नहीं। यहा तो शुद्द रुप से अपना घर ठीक करने की सोच है।

और संयोग से घर का मतलब दिल्ली है। जहां सवा करोड़ लोग नौकरी और मजदूरी के लिये अपनी जड़ों से पलायन कर निकले पहुंचे हैं। जिन्हें काम मिल गया वह अब जिन्दगी आसान करना चाहते हैं और जिन्हें काम नहीं मिला वह उस सियासत से दो दो हाथ करना चाहते हैं, जिस राजनीति ने उन्हे हाशिये पर ढकेल दिया।
इसलिये संघर्ष के लिये उठे हाथो को दिल्ली ने नहीं थामा बल्कि दिल्ली ही उठे हुये हाथ में बदल गई और उसने उस सत्ता को हरा दिया जो शुद्द राजनीतिक पार्टियां हैं। लेकिन सत्ता को हराने के बाद भी सत्ता का चरित्र बदलता नहीं है या जीत का सेहरा पहनते ही सत्ता चरित्र में उतरना पड़ता है। तो सवाल तीन हैं। पहला अगर केजरीवाल ने खुद को सत्ता माना है तो दिल्ली के सवालों को सुलझाते वक्त सत्ता चरित्र बदलेगा कैसे। दूसरा अगर दिल्ली के वोटरों की सत्ता को हराने की समझ ने केजरीवाल को सत्ता थमा दी तो केजरीवाल राजनीति के कीचड़ से सने हुये दिखायी क्यों नहीं देंगे। और तीसरा सवाल जिस तरीके से केजरीवाल की सत्ता उभरी क्या वह पारंपरिक राजनीतिक सत्ता चरित्र से आगे का एक नया चेहरा है। समझना इस तीसरे सवाल को ही  । क्योंकि बाकी दो सवालों के जबाब पांच बरस बाद ही मिलेंगे। यानी बिजली,पानी, झोपडपट्टी, सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य को लेकर उठे चुनावी सवाल किस हद तक पूरे होते हैं और राजनीतिक लेकर केजरीवाल की समझ कैसे पूर्व की पारंपरिक सत्ता से अलग होती है, इसका इंतजार और फैसला तो वाकई अब 2020 में ही होना है। लेकिन तीसरा सवाल इस मायने में महत्वपूर्ण है कि सत्ता का नया चेहरा केजरीवाल गढ़ेंगे कैसे? योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से लेकर लोकपाल एडमिरल रामदास के खिलाफ खुली और हंगामेदार कार्रवाई ने यह संकेत तो दे दिये कि केजरीवाल "निंदक नीयरे राखिये" को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है । लेकिन यह हालात तो वाकई इंदिरा से लेकर सोनिया और मायावती-मुलायम से लेकर नीतिश-लालू और जयललिता तक फिट हैं। तो फिर केजरीवाल का नया चेहरा होगा क्या।

केजरीवाल राजनेता नहीं है इसलिये वह 2013 में दिल्ली का सीएम बनकर भी सीएम की तरह नजर नहीं आते हैं। 2014 में लोकसभा चुनाव हारकर सामाजिक तानों को सह नहीं पाते और फिर दिल्ली की गद्दी तिकड़मों से पाने की जुगाड़ करते हैं। और 2015 में दिल्ली में एतिहासिक जीत हासिल करने के महीने भर के भीतर ही तानाशाह बनकर अपनी सत्ता को बिना अवरोध बनाने से हिचकते भी नहीं हैं। यानी राजनीतिक खेल का ऐसा खुलापन कभी कोई राजनेता करेगा, यह संभव नहीं है। और जो काम खामोशी से हो सकता हो उसे हंगामे के साथ गली मोहल्ले की तर्ज पर पूरा करने के रास्ते पर अगर केजरीवाल चल निकले हैं तो संकेत साफ हैं कि केजरीवाल राजनीतिक वर्ग से खुद को अलग करना-दिखना चाह रहे हैं। क्योंकि राजनेता कभी किसी को दुश्मन बनाता नहीं। और दुश्मन मानता है तो दिखाना नहीं चाहता। लेकिन केजरीवाल हर सियासी चाल को खुले तौर पर हंगामे के साथ दिखाना चाहते हैं। यानी केजरीवाल राजनीतिक सत्ता के उस चरित्र को अपने साथ खड़ा करना चाहते हैं, जहां वह गलत करार दिये जायें। क्योंकि सत्ता को लेकर जो गुस्सा और आक्रोश हाशिये पर ढकेल दिये गये लोगों में है, उस गुस्से और आक्रोश के साथ केजरीवाल तभी खड़े हो सकते हैं, जब सत्ता चरित्र ही उन्हें खारिज कर दे। ध्यान दें तो मौजूदा राजनीति में पीएम ही नहीं बल्कि बल्कि हर राज्य की सीएम और कमोवेश हर राजनीतिक दल के नेता किसानों से लेकर कारपोरेट और स्वदेशी से लेकर विदेशी निवेश तक किसी भी मुद्दे पर लंबा-चौडा बखान करने में वक्त नहीं लेंगे। लेकिन किसान को सब्सिडी कैसे मिलेगी, समर्थन मूल्य उत्पादन खर्च से ज्यादा कैसे मिलेगा और कारपोरेट की लूट कौन बंद करेगा । विकास का ढांचा ज्यादा उत्पादन या उत्पादन से ज्यादा लोगो के जुड़ाव से तय कैसे होगा इसपर भी हर सत्ता खामोश हो जायेगी। केजरीवाल का रास्ता किस दिशा में जायेगा यह कहना अभी जल्दबादी होगी लेकिन सीधे तौर पर कारपोरेट इक्नामी पर अंगुली उठाना ही नहीं बल्कि एफआईआर दर्ज कराना और सत्ता से हारे हुये तबकों के लिये सुविधाओं की पोटली खोलना एक नई राजनीति का आगाज है। या फिर जिस वैचारिक राजनीति की पीठ पर सवार होकर बोद्दिक तबका अक्सर हाशिये पर पड़े तबकों के लिये राजनीतिक लकीर खिंचना चाहता है, उसे सरेआम पीट कर केजरीवाल ने पहली बार यह संकेत दे दिये कि उनकी राजनीति उस मध्यम वर्ग की नहीं है जहां घर के भीतर झगड़े को पत्नी पति से पिटाई के बाद भी मेहमान के आते ही छुपा लेती है। बल्कि केजरीवाल की राजनीति उस झोपडपट्टी की है, जहां पति पत्नी का झगड़ा बस्ती में खुले तौर पर चलता है। और पत्नी भी पति को दो दो हाथ लगाती है । और छुपाया किसा ने नहीं जाता। बराबरी का हक । बराबरी का व्यवहार। क्योंकि कमाई में उसकी भी हिस्सेदारी होती है। जिन्दगी के संघर्ष में वह बराबर की हिस्सेदार होती है। दिल्ली की बस्तियों में रहने वाले लोगों को केजरीवाल ने ताकत नहीं दी बल्कि केजरीवाल को दिल्ली की बस्तियों में रहने वाले लाखों वोटरों ने ताकत दी। यह राजनीतिक प्रयोग दूसरे राज्य में हुआ नहीं है। सबसे बेहतर मिसाल तो महाराष्ट्र चुनाव में बारामती की है। जहां से अजित पवार चुनाव सबसे ज्यादा अंतर से उस हालत में जीत गये जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने बारामती जाकर उन्हें भ्रष्ट कहा । साठ हजार करोड़ के सिंचाई घोटाले में अजित पवार का नाम बीजेपी ने पूरे चुनाव प्रचार में लिया। लेकिन महीने भर पहले अजित पवार के साथ महाराष्ट्र के सीएम और पीएम तक उसी बारामती के एक प्रोजेक्ट में अजित पवार के साथ मंच पर बैठे। सत्ता इसे प्रोटोकोल कह सकती है। और आने वाले वक्त में सियासत की जरुरत उन्हें एक साथ भी कर सकती है।

लेकिन केजरीवाल क्या इनसे अलग चेहरा बना पायेंगे। या फिर केजरीवाल सत्ता के जिस नये चेहरे को गढ़ना चाह रहे हैं असल में वह मुखौटे से इतर कुछ भी नहीं। ध्यान दे तो जिस दिन योगेन्द्र प्रशांत को बाहर का रास्ता दिखाया जा रहा था उसी दिन केजरीवाल बिहार के सीएम नीतीश कुमार से मिल रहे थे। और नीतीश कुमार केजरीवाल से मिलने से पहले जेल जाकर चौटाला और केजरीवाल के मिलने के बाद लालूप्रसाद यादव से मिलने गये। तो नीतिश राजनीति साधने निकले थे और केजरीवाल आप के भीतर मची धमाचौकड़ी से ध्यान बंटाने के लिये नीतिश से मिलते बेहिचक दिखायी दिए। तो केजरीवाल को लेकर असल सवाल यहीं से शुरु होता है कि जब मनमोहन कैबिनेट के दागी मंत्रियों से लेकर तब के बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी को कटघरे में खड़ा करने निकले तब उन्हे प्रशांत-योगेन्द्र की जरुर थी । जब रिलायंस-वाड्रा को घेरा तब भी प्रशांत भूषण की जरुरत थी। और उसी वक्त आम आदमी पार्टी की छवि देश में गढ़ी जाने लगी थी। जिसे प्रचार प्रसार में वैचारिक तौर पर वहीं चेहरे मजबूती दे रहे थे, जो अब निकाले गये हैं। जब बनारस में मोदी को हराने के लिये केजरीवाल निकले तब वैचारिक आवाज योगेन्द्र और प्रशांत भूषण से लेकर प्रो आंनद कुमार और अजित सरीखे लोगों ने ही समाजवादी-वामपंथी चिंतन तले आवाज दी। केजरीवाल बनारस में हारेजरुर लेकिन केजरीवाल की छवि मौलाना मुलायम और लालू यादव ही नही बल्कि कांग्रेस से भी ज्यादा मजबूत बनी। केजरीवाल की छाती पर लोकपाल से आगे के कई वैसे तमगे खुद ब खुद लगते चले गये जिसे वामपंथी अपने संघर्ष में गंवा बैठे थे और समाजवादी अपनों से ही लड़-भिड़ कर कभी ले नही पाये। यानी 5 साल केजरीवाल के नारे तले बिजली पानी। शिक्षा-स्वास्थ्य। रोजगार-सुरक्षा । के दौर को अगर अलग कर दें और 2012 से 2014 तक के दौर को परखे तो आम आदमी पार्टी या केजरीवाल की पहचान देश की रगों में इसलिये दौड़ने लगी क्योंकि वैचारिक और राजनीतिक तौर पर मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से आम आदमी पार्टी के चेहरे सीधे टकरा रहे थे। देश में विकास के नाम पर ठगे जा रहे नागरिकों से लेकर ज्यादा कमाई के लिये रास्ते बनाने वाली उपभोक्ता नीति से कंज्यूमर क्लास भी भष्ट्रचार से परेशान था। उन्हें आवाज मिल रही थी। किसी को न्यूनतम सुविधाओं के लिये सरकारो से टकराना है तो किसी को खर्च करने के बाद भी सुविधा न मिलने का गुस्सा है। आप का हर चेहरा टोपी लगाते ही संघर्ष का परिचायक बन रहा था। क्योंकि उसके निशाने पर सत्ता थी और वह सत्ता के निशाने पर था। सिर्फ केजरीवाल ही नही बल्कि योगेन्द्र और प्रशांत भी जो कामयाबी अपने वैचारिकी के आसरे इससे पहले नही पा सके, उसे आप के संघर्ष ने सामूहिक तौर पर हर किसी को मान्यता दे दी। इसलिये जीत कभी आम आदमी पार्टी की नही हुई बल्कि आम जनता की हुई। जो हाशिये पर है । और हाशिये पर ढकेली जा चुकी जनता ने ही दिल्ली में मोदी के अहंकार को हरा कर केजरीवाल को ताकत दी। अब इसे कोई सत्ता मानकर चले तो फिर सत्ता चरित्र हर चेहरे को मुखौटा करार देने में कितना वक्त लगायेगा। इंतजार कीजिये क्योकि अग्निपरिक्षा तो चेहरे और मुखौटे की है।

4 comments:

  1. अजब चूतिये हो तुम, केजरू अगर बलात्कार भी कर दे तो तुम उसको चमत्कार साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ोगे। 10 फरवरी को जो तुम टीवी पर केजरू के बीवी बच्चों का दुःख समझा रहे थे, वो अब कम होगा क्या? अब तो क्रिकेट के मैदान में और मॉर्निंग वाक के बगीचे में बच्चे-बूढ़े सब केजरू को हिटलर ही कहेंगे। वैसे तुम्हे क्या, तुम्हे तो अपनी क्रांतिकारी पत्रकारिता और राज्य सभा सीट से मतलब।

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  2. क्या बेहूदा लेख लिखा है, अब आप बीमार हो चुके हो देश पर दया करके पत्रकारिता छोड़ दो | किसी के भी भक्त बनो कोई बात नहीं, पर अंधभक्त बनना गलत है...

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  3. कोइ इसे मुखौटा समझे या चेहरा। पर पहली नजर मे केजरीवाल राजनीती के वही मुल्यो को अपनाते दिख रहे हैं जो मोदी,लालु,जयललीता,नितीश और बाकी नेताओ ने अपनाया ।

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  4. 14 feb k bad jab se serkar bani hai , kuch bhi achcha nhi ho rha aam adami party k sath,in sab ghatnaon se aam logon ka bharosa tuta hai aur vishwas bhi kam hua hai....is bat ki kya gaurantee hai ki ye party bhi age koi family party ban ke nhi rah jayegi....agar ek aadmi ko lgta hai ki usi se party hai wo party se nhi..bahut hi galat sanket hai...jis ummeed aur aur bharose k sath yuvaon ne sath diya...wo bachega ya nhi ye samay tay karega....

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