Sunday, April 12, 2015
10 महीने में 10 फीसदी 'प्रेस्टिट्यूट' और न्यूज ट्रेडर
नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद वाकई किसी के दाग धुले तो वह न्यूज ट्रेडर ही है । याद कीजिये तो न्यूज ट्रेडर शब्द का इजाद भी नरेन्द्र मोदी ने ही लोकसभा चुनाव के वक्त किया । उससे पहले राडिया मामले
[ टू जी स्पेक्ट्रम ] से लेकर कामनवेल्थ घोटाले तक में मीडिया को लेकर बहस दलाल या कमीशन खाने के तौर पर हो रही थी । और मनमोहन सरकार के दौर में यह सवाल बड़ा होता जा रहा था कि घोटालो की फेहरिस्त देश के ताकतवर पत्रकार और मीडिया घराने सत्ता के कितने करीब है या कितने दागदार हैं । यानी मीडिया को लेकर आम लोगो की भावना कतई अच्छी नहीं थी । लेकिन सवाल ताकतवर पत्रकारों का था तो कौन पहला पत्थर उछाले यह भी बड़ा सवाल था । क्योंकि मनमोहन सिंह के दौर में हर रास्ता पूंजी के आसरे ही निकलता रहा । न्यूज चैनल का लाइसेंस चाहिये या मीडिया सस्थान में आपका रुतबा बड़ा हो । रास्ता सत्ता से करीब होकर ही जाता था । और सत्ता के लिये पूंजी का महत्व इतना ज्यादा था कि किसी नेता , मंत्री या सत्ता के गलियारे में वैसे ही पत्रकारो की पहुंच हो पाती जिसके रिश्ते कही कारपोरेट तो कहीं कैबिनेट मंत्री के दरवाजे पर दस्तक देने वाले होते । इंट्लेक्चूयल प्रोपर्टी भी कोई चीज होती है और उसी के आसरे पत्रकार अपना विस्तार कर सकता है यह समझ सही मायने में मनमोहन सरकार ने ही दी । इसीलिये जैसे ही मनमोहन सरकार दागदार होती चली गई वैसे ही मीडिया भी दागदार नजर आने लगी । ताकतवर पत्रकारों के कोई सरोकार जनता से तो थे नहीं । क्योंकि उस दौर में तमाम ताकतवर पत्रकारों की रिपोर्टिंग या महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग के मायने देखें तो हर रास्ता कारपोरेट या कैबिनेट के दरवाजे पर ही दस्तक देता । इसीलिये लोकसभा चुनाव की मुनादी के बाद जैसे ही खुलेतौर पर पीएम पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने न्यूज ट्रेडर शब्द गढ़ा वैसे ही जनता के बीच मोदी को लेकर यह संदेश गया कि मीडिया को लेकर कोई ईमानदार बोल बोल रहा है । इसका बडा कारण मनमोहन सरकार से लोगो का भरोसा उठना और मीडिया के आसरे कोई भरोसा जगा नहीं पाना भी था ।
गुस्सा तो जनता में कूट कूट कर कैसे भरा था यह खुलेतौर पर संसद को ही नकारा साबित करते अन्ना दोलन के दौर में जनता की खुली भागेदारी से हर किसी ने समझ लिया था । लेकिन उसे शब्दों में कैसे पिरोया जाये इसे नरेन्द्र मोदी ने समझा इंकार इससे भी नहीं किया जा सकता है । लेकिन नरेन्द्र मोदी समाज की इस जटिलता को समझ नहीं पाये कि मनमोहन सिंह अगर आवारा पूंजी पर सवार होकर मीडिया के उस सांप्रदायिक चेहरों के दाग को धो गये जो अयोध्या आंदोलन के दौर से वाजपेयी सरकार तक के दौर में ताकत पाये पत्रकार और मीडिया हाउसो को कटघरे में खड़ा कर रहा था । और मनमोहन के दौर के दागदार पत्रकार या मीडिया हाउस पूंजी के खेल से कटघरे में खड़े हुये । तो मोदी काल में फिर इतिहास दोहरायेगा और बदले हालात में उन्हीं ताकतवर या कटघरे में खड़े पत्रकारों या मीडिया संस्थानों को बचने का मौका देगा जो मनमोहन काल में दागदार हुये । क्योंकि मोदी के दौर में न्यूजट्रेडर तो पहले दिन से निशाने पर है लेकिन खुद मोदी सरकार ट्रेडिंग को लेकर निशाने पर नहीं आयेगी क्योंकि मोदी की लाइन मनमोहन सिंह से अलग है ।
तो मोदी काल में वह पत्रकार या मीडिया हाउस ताकतवर होने लगेंगे जो हरामजादे पर खामोशी बरते। जो चार बच्चों के पैदा होने के बयान को महत्वहीन करार दे । जो कालेधन पर दिये मोदी के वक्तव्य को अमित शाह की
तर्ज पर राजनीतिक जुमला मान ले । जो महंगाई पर आंखे मूंद ले । जो शिक्षा और हेल्थ सर्विस के कारपोरेटिकरण पर कोई सवाल न उठाये । जो कैबिनेट मंत्रियो की लाचारी पर एक लाइन ना लिखे । जो अल्पसंख्यकों को लेकर कोई सवाल न उठाये । जो सीबीआई से लेकर सीएजी और हर संवैधानिक पद को लेकर मान लें कि सभी वाकई स्वतंत्र होकर काम कर रहे है । सरकार की कोई बंदिश हो ही नहीं । यानी मोदी दौर के ताकतवर पत्रकार और मीडिया हाउस कौन होंगे । और क्या वह मनमोहन सिंह के दौर के ताकतवर पत्रकार या मीडिया घरानों की तुलना में ज्यादा बेहतर है । या हो सकते है । जब पत्रकार और मीडिया हाउसों को लेकर चौथे स्तंम्भ को इस तरह परिभाषित करना पड़े तो यह सवाल टिकता कहां है कि जो भ्रष्ट हैं , जो दलाल हैं , जो कमीशनखोर हैं , जो न्यूज ट्रेडर हैं , जो सांप्रदायिक हैं वह हैं कौन । और क्या किसी भी सरकार के दौर में वाकई मीडिया घरानो से लेकर इमानदार पत्रकारों को मान्यता देने का जिगर किसी सत्ता में हो सकता है । यकीनन नहीं । तो फिर अगला सवाल है कि क्या सत्ता भी जानबूझकर मीडिया से वहीं खेल खेलती है जहा मीडिया में एक तबका ताकतवर हो जो सत्ता के अनुकुल हो। या सत्ता के अनुकुल बनाकर मीडिया या पत्रकारों को ताकत देने-लेने का काम सत्ताधारी का है । जरा पन्नों को पलट कर याद किजिये वाजपेयी के दौर में जिन पत्रकारों की तूती बोलती थी क्या मनमोहन सिंह के दौर में उनमे से एक भी पत्रकार आगे बढ़ा । और मनमोहन सिंह के दौर
के ताकतवर पत्रकार या मीडिया हाउसो में से क्या किसी को मोदी सरकार में कोई रुतबा है । अगर सत्ता के बदलने के साथ साथ पत्रकारो के कटघरे और उनपर लगे दाग भी घुलते हैं। साथ ही हर नई सत्ता के साथ नये पत्रकार ताकतवर होते है तो इससे ज्यादा भ्रष्ट व्यवस्था और क्या हो सकती है । जो लोकतंत्र का नाम लेकर सत्ता के लोकतांत्रिक होने की प्रक्रिया में किसी भी अपराधी को सजा नहीं देती । सिर्फ अंगुली उठाकर डराती है या अंगुली थाम कर ताकतवर बना देती है । दोनो हालात में ट्रेडर है कौन और 'प्रेस्टिट्यूट' कहा किसे जाये। अगर सत्ता को लगता है कि सिर्फ दस फिसदी ही न्यूज ट्रेडर है या 'प्रेस्टिट्यूट' है तो यह दस फिसद हर सत्ता में क्यो बदलते है ।
फिर किसी राजनीतिक दल की तरह ही उन्ही पत्रकारों या मीडिया हाउस को क्यों लगते रहा है कि सत्ता बदलेगी तो उनके दिन बहुरेंगे। यानी लोकतंत्र के किसी भी स्तम्भ की व्याख्या की ताकत जब सत्ता के हाथ में होगी तो फिर सत्ता जिसे भी न्यूजट्रेडर कहे या 'प्रेस्टिट्यूट' कहें, उसकी उम्र उस सत्ता के बने रहने तक ही होगी । यानी हर चुनाव के वक्त सत्ता में आती ताकत के साथ समझौता करने के हालात लोकतंत्र के हर स्तम्भ को कितना कमजोर बनाते हैं, यह ट्रेडर
और 'प्रेस्टिट्यूट' से आगे के हालात हैं। क्योंकि जिन्हे पीएम ने न्यूज ट्रेडर कहा वह धर्मनिरपेक्षता की पत्रकारिता को ढाल बनाकर मोदी को ही कटघरे में खड़ाकर अपने न्यूड ट्रेडर के दाग को धो चुके हैं। और जिन्हें
'प्रेस्टिट्यूट' कहा जा रहा है वह एक वक्त न्यूज ट्रेडरों के हाथों मार खाये पत्रकारों के दर्द को समेटे भी है । और इन दोनो हालातों में खुद सत्ता के चरित्र का मतलब क्या होता है, यह मजीठिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल
रही बहस से भी समझा जा सकता है । जिस मजीठिया को को यूपीए सरकार ने लागू कराया उन्हीं मनमोहन सरकार में रहे कैबिनेट मंत्री सत्ता जाते है वकील हो गये। और एक मीडिया समूह की तरफ से मजीठिया को लेकर पत्रकारों के खिलाफ ही खड़े हैं । तो सत्ता के चरित्र और सत्ता को अपने अनुकूल बनाने वाले मीडिया हाउस से लेकर पत्रकारों के चरित्र को लेकर कोई क्या कहेगा । न्यूज ट्रेडर और 'प्रेस्टिट्यूट' शब्द तो बेमानी है यहा तो देश के नाम पर और देश के साथ दोनो हालातों में फरेब ज्यादा ही हो रहा है । तो रास्ता वैकल्पिक राजनीति का जह बने तब बने उससे पहले तो जब तक मीडिया इक्नामी को जनता से जोडकर खड़ा करने वाले हालात देश में बनेंगे नहीं तबतक सत्ता के गलियारे से पत्रकारों को लेकर गालियो की गूंज सुनायी देती रहेगी । और जन सरोकार के सवाल चुनावी नारो से आगे निकलेगें नहीं और संपादकों की टिप्पणी या ताकतवर एंकरों के प्रोमो से आगे बढेंगे नहीं ।
भाई रजत शर्मा से इतनी नफरत? सब जानते हैं की वो ए बी वी पी के दौर से ही भाजपा और संघ के आदमी हैं और उसकी खबरें देखने से पहले ये मान कर चलना चाहिए की भाजपा विरोधी ख़बर तो होगी नहीं। लेकिन कम से कम रजत शर्मा उन पत्रकारों से तो बेहतर ही हैं जो झोला टांग कर और दाढ़ी बढ़ा कर खुद को समाजवादी-वामपंथी दिखाने का ढोंग करते हैं, लेकिन पर्दे के पीछे इंटरव्यू फिक्स करते रंगे हाथ पकड़े जाते हैं पर फिर भी चुल्लू भर पानी में डूब नहीं मरते। याद करें तो भाजपा और मोदी ने एक और शब्द ईज़ाद किया था, क्रांतिकारी चैनल और क्रांतिकारी पत्रकार। मोदी ने तो तुम्हारे चैनल के इंटरव्यू में क्रांतिकारी शब्द से टीवी टुडे के मुँह पर खुल्ला तमाचा जड़ा था, और उसके बाद स्मृति ईरानी, मुख़्तार अब्बास, सुधांशु त्रिवेदी से लेकर मीनाक्षी लेखी तक ने क्रांतिकारी पत्रकारों पर टिप्पणी करने में कसर नहीं रखी। अच्छा होता की "आप" उस वर्ग को भी।अपने लेख में शामिल करते, नहीं तो ये लेख आपकी रजत शर्मा और स्वपन दासगुप्ता से ईर्ष्या के अलावा और कुछ नहीं दिखाता।
ReplyDeleteदरअसल भा ज पा को चुस कर फेंकना आता हैं ... पालने के लिऐ रजतशर्मा तो अब बहुत है उसके पार ,फिर यह झोलाछाप पार्टी नही रही ....
ReplyDeleteसर जी..लुई विंता के शॉल वाले मामले सागरिका घोष के जरूरत से अधिक तत्पर ट्वीट की नीयत ही प्रेस्टीट्यूट के अस्तित्व का कारण हैं। ऐसे एक नहीं बीसयों उदाहरण मिल जाएंगे...फिर न्यूट्रल तो कोई है ही नहीं...चाहे इधर हो या उधर, बायस्ड तो सभी हैं...क्योंकि पत्रकार होने के साथ सभी के अपनी पसंद के राजनीतिक दल/आंदोलन हैं। (सादर) आप भी इससे अछूते नहीं हैं। बस होता यूं है कि सवार और नाव अक्सर भूल जाते हैं कि कौन किस पर सवार होना चाहिए। दरअसल सभी पेशेवरों की तरह पत्रकारों की भी ऐसी जमात है जो गाहे बगाहे किसी न किसी पक्ष में खड़ी होती है लेकिन नज़र न्यूट्रल होना चाहती है। जो मीडिया सबके लिए तेज़ हो गया है वही खुद के लिए भी तो है...इसीलिए अब पत्रकार भी खबर बनते हैं... और 'o' व 'e' की सीमा लांघते दिखते हैं।
ReplyDeleteपत्रकारिता तो बस नाम की रह गई है।
ReplyDeleteक्योंकि पत्रकारिता तो अव पूजी वादी हो गई है।
किसी व्यक्ति विशेष की बात नही है।: अब तो पत्रकारिता तो सत्ता पाने के लिए विशाख विछाती है;
बारत से अच्छी पत्रकारिता तो उन देशो की है जहां जीवन एक संघटन काम करता है।
कौन है भाई ये joshim27 सच्चा मोदी भक्त प्रतीत होता है. सबसे पहले आपके ब्लॉग पर गन्दा करने आ जाता है। खैर लगा रह भाई फर्जी आईडी से लोगों को गाली देने में कुछ कायम मिल जायेगा।अडानी की कंपनी में, मोदी khair ...ap sachaai ko itni achhi tarah likhte ho internet par galiyan dene me inko bus maharat haasil hai पंडित जी सुना है एक बार सावरकर अग्रेजों की मार खाने की दर से नदी में कूद गए थे. सही है क्या ?
ReplyDeleteन्यूज ट्रेडर और प्रेस्टीट्यूट जैसे शब्दों को स्वीकार करना ही होगा मीडिया पर्सन्स को, इसी जमा पूंजी को तो इकट्ठा किया है, सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रही पार्टी के तलवे चाट कर, जिस आम जनता की आवाज कह कर खुद को ताकतवर बनाया इस मीडिया ने, जब वो सत्ता के फेंके हुए दोने की मलाई चाट कर आम आदमी को ही भूल गई, तो ऐसे शब्दों की हकदार है मीडिया, जनता को मूर्ख बनाकर खुद को राजनीतिक जोड़-घटाने का सबसे बड़ा खिलाड़ी समझने वाली धारणा ने ही मीडिया की ये छवि आम लोगों में बनाई है, पैसा और राजनीतिक रुतवा तो मिला लेकिन आम जनता के सामने इज्जत खो दी... अगर आप को कुछ दुविधा हो तो बाहर निकलो, लोगों से मिलो और अपने बारे में भी जनता से राय लो....
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