पचास बरस पहले संघ के मुखिया गुरु गोलवरकर विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को समर्थन देने बिहार पहुंचे। लेकिन चुनाव हुये तो भी जनसंघ हाशिये पर ही रहा। पैंतिस बरस पहले संघ के मुखिया देवरस के इशारे पर बाबू जगजीवनराम को पीएम बनाने का सिक्का उछला गया लेकिन बिहार में सफलता फिर भी नहीं मिली। पच्चीस बरस पहले आडवाणी अयोध्या की छांव में बिहार तक पहुंचे लेकिन बीजेपी को बिहार में तब भी सफलता नहीं मिली। लेकिन 2015 में बीजेपी ही नहीं संघ परिवार को भी मोदी के जादू पर भरोसा है तो क्या बिहार मोदी के खिलाफ विपक्ष की एकजूटता का एसिड टेस्ट साबित होगा। या फिर बिहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक सक्रियता का एसिड टेस्ट होगा । इन दो सवालों से इतर दो सवाल और भी हैं कि क्या बिहार जातीय गोलबंदी का एसिड टेस्ट होगा या फिर बिहार दलित-मुस्लिम वोट बैक के प्यादे से वजीर बनने की चाहत का एसिड टेस्ट लेगा। और अगर यह सब होगा तो क्या बिहार के विधानसभा चुनाव देश की राजनीतिक धारा की दिशा तय कर देंगे। यह सवाल इसलिये बड़ा हो चला है क्योंकि सत्ता साधने के लिये पहली बार राजनीतिक दल ही यह तय कर रहे हैं कि उनकी सोच के हिसाब से वोटर भी चलेगा। जबकि वोटरों की नयी पौध को समझे तो शरद यादव या मुलायम के बार बार लोहिया जेपी का नाम लेकर राजनीति साधने से आगे मोदी अपने दौर में सेल्फी के आसरे राजनीतिक मंत्र फूंक रहे हैं।
इस महीन राजनीति की मोटी लकीर को समझे तो जनता परिवार की एकजुटता के पीछे जो विचारधारा बतायी गई वह सांप्रायिकता और जहर बोने की सियासत हैं। लेकिन लालू-मुलायम के पारिवारिक समारोह में सांप्रदायिकता का यही खैौफ रफूचक्कर हो जाता है। क्योंकि शाही विवाह समारोह में लालू-मुलायम ही संबंधों का प्रोटोकाल बताकर प्रधानमंत्री मोदी को आंमत्रित करते हैं। आगवानी करते है और वहां भी परिवार के सदस्य प्रधानमंत्री मोदी के साथ सेल्फी में खो जाते हैं। तो महीने भर पहले लालू का यह बयान कितना मायने रखता है कि जब बड़े दुशमन को ठिकाने लगाना हो तो छोटे दुशमन एक हो जाते हैं। और लगातार शरद यादव का यह बयान कितना मायने रखता है कि बीजेपी अब वह बीजेपी नहीं रही जिस बीजेपी के साथ वह खड़े थे। तो क्या लोहिया का गैर कांग्रेस वाद और जेपी का कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने की परिभाषा भी बदल गई है। क्योंकि तब गैरकांग्रेसवाद का नारा था अब गैर बीजेपी का नारा है। यानी इतिहास चक्र को हर कोई अपनी सुविधा से अगर परिभाषित कर रहा है तो फिर अगला सवाल बिहार की उस राजनीति का भी है जिसकी लकीर इतनी सीधी भी नहीं है कि वह जनता परिवार और मोदी के जादू तले सबकुछ लुटा दे। क्योंकि इन दो धाराओं से इतर दलित और मुस्लिम समाज के भीतर की कसमसाहट भी है और बिहार की राजनीति में हाशिये पर पडी अगड़ी जाति की बेचैनी भी। जो वोट बैक के जातिय गणित को भी डिगा सकती है और एक नई धारा को भी जन्म दे सकती है। नीतीश के दायरे को तोड़कर निकले जीतनराम मांझी अनचाहे में दलित चेहरा बन रहे हैं। लेकिन मांझी सत्ता साधने के लिये हैदराबाद से ओवैसी को बिहार बुलाकर अपने साथ खड़ाकर दलित -मुस्लिम वोट बैंक की एक ऐसी धारा बनाने की जुगत में है जो लालू-नीतीश के सपने को चकनाचूर कर दे। और सियासी संकेत भी बीजेपी के साथ ना जाने की दे दें।
अगर ओवैसी-मांझी मिलते हैं तो झटके में काग्रेस लालू-नीतीश के साथ खड़ा होने से कतरायेगी। यानी कांग्रेस की यह कश्मकश बरकरार रहेगी कि बीजेपी या मोदी का आखरी विकल्प तो वही है। तो फिर कांग्रेस क्षत्रपों के साथ खड़ा होकर राजनीति क्यो करे। यानी बड़े दुश्मन को हराने के लिये छोटे दुश्मन के साथ यारी का वोट गणित भी डगमागेया। लेकिन तमाम राजनीतिक कयासों के बीच बिहार को लेकर सबसे बडा सवाल सिर्फ राजनीतिक मंचों की उस विचारधारा भर का नहीं है बल्कि वोटरों की उस न्यूनतम जरुरत का भी है, जिसे लालू की सत्ता को नीतिश ने जंगल राज करार दिया और नीतिश की सत्ता को लालू यादव ने सुशासन बाबू का सांप्रदायिक चेहरा करार दिया। यानी बीते दो दशको से बिहार ने कभी लालू के रिश्तेदारों की बपौती से लेकर यादवों की ताकत देखी तो महादलित का राजनीतिक प्रयोग कर सत्ता पर बने रहने नीतिश की तिकड़म को समझा। इन दो धाराओं में भागलपुर के दंगों का जिक्र इसलिये भी जरुरी है क्योंकि दंगो के बाद ही लालू सत्ता में आये थे और कांग्रेस की सत्ता इसके बाद बिहार में लौटी नहीं। लेकिन 18 बरस बाद जब भागलपुर दंगो पर अदालत का फैसला आया तो कटघरे में यादव समुदाय ही खड़ा हुआ। भागलपुर की मल्लिका बेगम का सच आज भी भागलपुर दंगों की याद कर रोगटे खड़ा कर देता है। तो क्या राजनीतिक धारा 2015 में इतनी बदल चुकी है कि वह इतिहास के झरोखे में भी नहीं झांकेगी। या फिर वोटर के तौर पर खड़ी युवा पीढी शिक्षा, स्वास्थय और रोजगार के सवालों से जूझेगी। क्योंकि न्यूनतम जरुरतों से जुझते बिहार का सच यह भी है कि पीने के पानी से लेकर परीक्षा के दिने में अंधेरे में मोमबत्ती या लालटेन जलाकर पढने के हालात बिहार में अभी भी है । सार्वनजिक प्रणाली हर क्षेत्र में चौपट है । लेकिन जिसकी सत्ता उसकी लाल बत्ती का सिलसिला हर दौर में बरकरार है । और गुस्से में समाये बिहार के उन बच्चो ने यह सब देखा भोगा है जिनका जन्म ही जनता दल की आखरी टूट के बाद हुआ और आज की तारिख में वह 20 बरस का होकर वोट डालने की उम्र में आ चुके हैं। और सियासत का ककहरा सिखाते छह पार्टियों से बने जनता परिवार के नेताओं की औसत उम्र 70 पार की हो चली है।
जनाब ओवैसी की तो पाँचो उँगलियाँ घी में और सर कढ़ाई में है। तथाकथित सेक्युलरों को ब्लैकमेल कर के खूब पैसा कमा रहे हैं दोनों भाई। सुना है दिल्ली चुनाव के समय केजरू ने ओवैसी को चुनाव से दूर रखने के लिए उसको मोटा माल दिया था, अब बिहार में भी ओवैसी की चाँदी है। सोनिया, लालू, सुशासन बाबू और नेताजी अपने स्विस बैंक अकाउंट का मुँह खोल देंगे ओवैसी के लिए। और दिल्ली चुनाव के बाद अब हर चुनाव भाजपा बनाम न्यूज़-ट्रेडर+ओवैसी+फ़र्ज़ीसेक्युलर-दल ही होने वाला है। क्रांतिकारी खबरची दलालों को लोकसभा चुनाव जो मिर्ची लगी है, उसके लिए वो किसी को भी सत्तासीन कर सकते हैं। अभी रामपुर का कल का किस्सा ही देख लो, कई खबरची दलाल तो उसको वाल्मीकि समाज की गलती साबित करने में लगे हैं। और यही लोग गिरिराज सिंह या वी के सिंह की ख़बर को हैडलाइन बना कर 1 हफ्ता चलाते हैं। अब इनको प्रेस्टीट्यूट न कहा जाये तो क्या कहा जाये?
ReplyDeletehttp://meri-kavitayain.blogspot.in/
ReplyDeleteक्या धारा, विचारधारा के साथ एक सोच होना जनता परिवार के लिए सबसे बड़ी चुनौती या साता साधने के लिए जमीन तलाश रहे है
ReplyDeleteजो कभी जेपी के आदोलन मे खडे होकर अपनी राजनीतिक विशाख बिछाई थी ; आज वही समाज वादी दल अपनी राजनीतिक भविष्य को बचाने के लिए एक साथ खड़े होकर यह जतारहे है ,तो इसके कई माइने निकाले जासकते है।बढते व्यक्ति के वर्चस्व साधने व अपनी बोट बैक की राजनीति कर सत्ता मे आने का लोभ ;तो अखिर मे एक ही सवाल जहम मै यही रह जाता है।धर्म और जाति के आधार पर सत्ता कब तक साधी जासकती है।
समय बदला है ; तो बोटरो का रुझान भी बदला है!
ताजा समय मे दिल्ली विधानसभा चुनाव इस का एक उदाहरण हो सकता है? लेकिन दिल्ली वोटरो की साक्षरता 90% से अधिक थी।
तो क्या भारत के बीमारू राज्य अपनः लिए वोट करेंगे या जाती आधारित वोट ! BJP मोदी के जरिए सत्ता साधेगी ; विकास के गाने के साथ मोदी को बिहार चुनाव प्रचार के समय देखा जासकता है।अबकी यह देखना बडा दिलचस्प होगा कि बोटर अपने लिए बोट
करता या नेता के लिए?
Congrats on best anchor award. You deserve much more
ReplyDeleteMohanjit Singh Juneja
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