देश में अभी भी पचास करोड़ से ज्यादा वोटर किसी भी राजनीति दल के सदस्य नहीं हैं। और इतनी बडी तादाद में होने के बावजूद यह सभी वोटर अपनी अपनी जगह अकेले हैं। नहीं ऐसा भी नहीं है कि बाकि तीस करोड़ वोटर जो देश के किसी ना किसी राजनीतिक दल के सदस्य हैं, वे अकेले नहीं है। दरअसल अकेले हर
वोटर है। लेकिन एक एक वोट की ताकत मिलकर या कहे एकजुट होकर जब किसी राजनीतिक दल को सत्ता तक पहुंचा देती है तो वह राजनीतिक दल अकेले नहीं होता। उसके भीतर का संगठन एक होकर सत्ता चलाते हुये वोटरो को फिर अलग थलग कर देता है। यानी जनता की एकजुटता वोट के तौर पर नजर आये । और वोट की ताकत से जनता नहीं राजनीतिक दल मजबूत और एकजुट हो जाये । और इसे ही लोकतंत्र करार दिया जाये तो इससे बडा धोखा और क्या हो सकता है। क्योंकि राजनीतिक पार्टी को सत्ता या कहे ताकत जनता देती है। लेकिन ताकत का इस्तेमाल जनता को मजबूत या एकजूट करने की जगह राजनीतिक दल खुद को खुद को मजबूत करने के लिये करते हैं। एक वक्त काग्रेस ने यह काम वोटरों को बांट कर सियासी लाभ देने के नाम पर किया तो बीजेपी अपने सदस्य संख्या को ग्यारह करोड़ बताने से लेकर स्वयंसेवक होकर काम करने के नाम पर कर रही है ।
यानी सत्ता को लेकर जनता के सामने सबसे बडी पशोपेश यही है कि अगर वह सत्तादारी पार्टी के रंग में नहीं रंगती है तो फिर वह तादाद में कितनी भी ज्यादा हो लेकिन वह हमेशा अकेले ही रहेगी। और सत्ताधारी के लिये एक ऐसा सिस्टम बना हुआ है जो झटके में जनता का नाम लेकर सत्ता के लिये काम करता है। पुलिस जनता के लिये होकर भी सत्ताधारी के इशारे पर काम करेगी। तमाम संस्थान जनता के लिये बनाये गये लेकिन वह सत्ता के इशारे पर ही काम करेंगे। न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थानो को सत्ता से अलग उनकी स्वायत्ता के आधार पर परिभाषित तो किया जायेगा। लेकिन संवैधानिक होकर इनके काम करने के तरीके भी बिना सत्ता के इशारे के चल नहीं सकते यह नियुक्ति से लेकर संस्थानो के आपसी तालमेल बनाकर काम करने के तरीकों को परखते ही सामने लगातार आ रहा है। यानी कोई सत्ता चाहकर भी जनता को उसके अपने दायरे में एक सोच से एकजुट कर नहीं सकती। क्योंकि सत्ता की एकजुटता जनता के बिखराव पर ही टिकी है। और जनता की एकजुटता सत्ता के विरोध पर टिकी है । तो तीन सवाल मौजूदा व्यवस्था को लेकर किसी भी आम जनता के जहन में उठ सकता है। पहला, जनता की सत्ता और राजनीतिक पार्टी की सत्ता में अंतर है। दूसरा, जो जनता की दुहाई देकर नीतिया लाते या लागू कराते है वह सत्ता की सोच होती है और उसका सभी वोटरों से तो नहीं ही बहुसंख्यक जनता के हित से भी कुछ भी लेना देना नहीं होता।
तीसरा, सत्ता मिलते ही राजनीतिक दल को एक ऐसी व्यवस्था मिल जाती है जिसे वह सत्ता को ताकत देने का खुला इस्तेमाल जनता के नाम पर कर सकता है। यानी जन और दल के बीच मौजूद सत्ता तक जन की पहुंच कभी हो नहीं सकती। लेकिन जन का नाम लेकर उसे भावानात्मक तौर पर सत्ता के विरोध में खड़ाकर सत्ता पाने के तरीके को ही देश में संघर्ष और आंदोलन का नाम दिया जाता रहा है। मौजूदा वक्त में नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल इसकी एक बेहतरीन मिसाल है। केजरीवाल ने सत्ता का विरोध आंदोलन के जरीये किया तो नरेन्द्र मोदी ने सत्ता का विरोध चुनावी तौर तरीको से किया। केजरीवाल के संघर्ष में जनता भी सड़क पर उतरी । मुठ्ठी उसने भी कसी। नारे उसने भी लगाये। मोदी के संघर्ष में चुनावी बिसात सत्ता के विरोध में जन-आंकाक्षाओ के अनुरुप बनी तो जनता ने मोदी के हर राग में संगीत दिया। केजरीवाल ने स्वराज का राग अलापा तो मोदी ने
विकास और सुशासन का। दोनों ने सत्ता के लिये लकीर अलग अलग जरुर खींची। लेकिन दोनों के निशाने पर वही सत्ता रही जिस कभी जनता ने चुना। जनता की भावनाओं ने लुटियन्स की दिल्ली की रईसी को मोदी के गरीबो की नब्ज पकड़ने के हुनर तले ढहते देखा। तो केजरीवाल के आंदोलन तले राजनीतिक व्यवस्था बदलने के नारों के हुनर तले काग्रेस-बीजेपी के धुरंधरों को ढहते देखा। दोनों ही उस दिल्ली को पराजित कर दिल्ली पहुंचे जिस दिल्ली की सत्ता को डिगाने की ताकत पारंपरिक राजनीति में नहीं थी । या फिर हर राजनीतिक दल एक सरीखा हो चला था और जनता की आस, उम्मीद टूट रही थी। इसलिये मोदी में बीजेपी का अक्स किसी ने नहीं देखा और केजरीवाल में पारंपरिक राजनीति का अक्स किसी ने नहीं देखा। लेकिन दोनों सत्तावान बने तो संघर्ष अपनी सत्ता बचाने और दूसरे की सत्ता ढहाने के लिये उन्ही सांस्थानिक ढांचे का खेल शुरु हुआ जिसका कोई चेहरा तो होता नहीं। और झटके में दोनो ही इतने बचकाने हो गये कि सत्ता का खेल व्यवस्था को अपनी सत्ता के अनुकूल करने में ही खेला जाने लगा। पुलिस किसके पास रहेगी । संवैधानिक संस्थानो पर अपनो की नियुक्ति कैसे हो । सत्ता की सोच के अनुकूल दिल्ली ही नहीं देश भर के संसथान तभी काम करेंगे जब सत्ताधारी की सियासी सोच के रंग में रंगे अधिकारियों के हाथो में लगाम होगी। जांच एंजेंसी को अपनी नाक तले रखे बगैर कैसे भ्रष्टाचारियों को पकड़ा जा सकता है। अस्पताल, स्कूल, सड़क पानी, सस्ता खाना सबकुछ सियासी बिसात के मोहरे कैसे हो सकते हैं। और विकास के लिये विदेशी पूंजी से लेकर राजनीतिक दल चलाने के लिये जनता का चंदा। और इस राजनीतिक गोरखधंधे में पुलिस हो या नौकरशाह या फिर कोई अदना सा अधिकारी वह भी अपनी सुरक्षा के लिये सत्ता को ही देश मानने से क्यों हिचकेगा। तो क्या वाकई कोई वैक्लिपक सोच किसी के पास नहीं है। या फिर वैकल्पिक सोच तभी लायी जा सकती है जब समूचा तंत्र सत्ताधारी के इशारे पर काम करने लगे ।
या फिर पहली बार देश के सामने सबसे बडी चुनौती यही है कि वह सत्ता की परिभाषा बदल दें। क्योंकि समूचा तंत्र ही जब सत्ता के इशारे पर काम करने लगता है तो होता क्या है यह भी किसी से छुपा नहीं है। गुजरात में पुलिस नरेन्द्र मोदी की हो गई था तो 2002 के दंगों ने दुनिया के सामने राजधर्म का पालन ना करने सबसे विभत्स चेहरा रखा । 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या को बडे वृक्ष के गिरने से हिलती जमीन को देखने की सत्ता की चाहत में खुलेआम नरसंहार हुआ। शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में शिंकजा कसा तो लाखो छात्रों की प्रतियोगी परीक्षा धंधे में बदल गई। रमन सिंह ने छत्तीसगढ़ में शिंकजा कसा तो आदिवासियों के हिस्से का चावल भी सत्ताधारी डकारने से नहीं चूके। लेकिन वहीं नरेन्द्र मोदी गुजरात से दिल्ली आते हैं तो दिल्ली के जख्मो को दिल्ली पुलिस थाम नही सकती। लेकिन केन्द्रीय जांच एंजेसिया बीजेपी अध्यक्ष को रहस्मय तरीके से क्लीन चिट देने की दिशा में बढ़ने से नहीं कतराती है। तो केजरीवाल को लगता है कि दिल्ली पुलिस उनके मातहत आ जाये तो वह दिल्ली में कोई जख्म होने नही देंगे। पूर्ण राज्य का दर्जा दिल्ली को मिल जाये तो दिल्ली को स्वर्ग बना देंगे।
लेकिन दिल्ली को स्वर्ग बनाने की दिशा में वह खुद को और पार्टी कार्यकर्ताओं को ही सबसे बडा देवता मान कर जिस राह पर चल पडते है, उसमें सुविधाओ को बटोरने की होड़ से लेकर आम से खास होकर सत्ता चलाने की नायाब जिद दिखायी पडती है। यह जिद बौद्दिक सहनशीलता को इस रुप में बार बार प्रकट करती है जिसमें सामने वाले को अंगुली उठाने का हक देना भर ही खुद को लोकतंत्रिक करार देने का निर्णय होता है। यानी करेंगे वही जो खुद के लिये सही होगा क्योंकि जनता ने बहुमत दिया है। तो केजरीवाल हो या मोदी अपने अपने घेरे में अपने कैडर को ही देशबाक्त मान कर सियासत साधने निकल पड़ते है। और यही से सवाल उठता है कि सत्ता किसी के पास हो या पिर सत्ता के लिये टकराते जो भू चेहरे वैचारिक तौर पर अलग अलग दिकायी देते हो लेकिन सत्ता ही सत्ता के लिये लडने वालो को एकजूट कर देती है और अस्सी करोड वोटर अपनी जगह अलग थलग होकर न्यूनतम की लड़ाई में ही उम्र गुजार देता है । लेकिन मौजूदा वक्त में सियासी चक्रव्यूह ने पहली बार मोदी और केजरीवाल के जरीये आम जनता में जिन आकांक्षाओं को जगाया है, असर उसी का बेचैनी हर किसी में है। आम आदमी की बैचेनी परेशानी से जूझते हुये है। खास लोगों की बैचेनी सत्ता सुख गंवाने के डर की है। विरोध में उठे हाथ गुस्से में हैं। गुस्सा जीने का हक मांग रहा है। सत्ता को यह बर्दाश्त नहीं है तो वह गुस्से में उठे हाथों को
चिढ़ाने के लिये और ज्यादा गुस्सा दिलाने पर आमादा है। तो गुस्सा सत्ता में भी है और सत्ता पाने के लिये बैचेन विपक्ष में भी। तो गुस्सा ही सत्ता है और गुस्सा ही प्यादा है। गुस्सा दिखाना भय की मार सहते सहते निर्भय होकर सत्ता को डराना भी है और सत्ता का गुस्सा भ्रष्टाचार और महंगाई में डूबी साख बनाने का खेल भी है।
आदिवासी, किसान, मजदूर और ग्रामीणो के संघर्ष का रास्ता इसी दौर में हाशिये पर है, जब गुस्से और संघर्ष का सबसे तीखा माहौल देश में बन रहा है। वही आवाज इस दौर में सत्ता को चेता पाने में गैर जरुरी सी लग रही है जो सीधे उत्पादन से जुड़ी थी। देश की भूख से जुड़ी थी। बहुसंख्यक समाज से जुड़ी थी। तो क्या पहली बार देश को यह समझ में आ रहा है कि सत्ता की परिभाषा बदलने का वक्त आ गया है। क्योंकि विदेशी पूंजी से विकास हो नहीं सकता। और संसद के ही नियंत्रण में अगर पंचायत रहे तो चौखम्मा राज जीया नहीं जा सकता। तो क्या उत्पादन को सबसे अहम देश में माना जा सकता है। जो किसान खेती से देश का पेट भर रहा है उस खेतीहर जमीन को राष्ट्रीय संपदा घोषित करने का वक्त आ गया है । उत्पादन से जुडे तबके को मजबूत करने से लेकर उसी के जरीये देश की नीतियों को लागू कराने के हालात देश में लाये जा सकते है। क्योंकि भारत की पहचान तो उसके हुनर से रही है । आजादी के वक्त भी देश में दो करोड से ज्यादा हाथ कुटिर और लघु उघोग से जुड़े थे । लेकिन मौजूदा वक्त में पारंपरिक हुनरमंद को खत्म कर आईटीआई के डिग्रीधारी व्यवस्था को ही स्कील इंडिया माना जा रहा है। क्योंकि गुस्से और संघर्ष की वही आवाज हमेशा की तरह आज भी सबसे तेज सुनायी दे रही है जो महानगरों से जुड़ी है। सर्विस सेक्टर से जुड़ी है। शिक्षा पाने के बाद बेरोजगारी से जुड़ी है। या रोजगार पाने के बाद हर जरुरत को जुगाड़ने के लिये भ्रष्टाचार के कटोरे में कुछ ना कुछ डाल कर ही जिये जा रही है। शहरी चमक-दमक से निकला संघर्ष चमक-दमक की दुनिया में सेंध लगाकर व्यवस्था बदलाव का सपना बीते साठ बरस से बार बार जगा रहा है। पत्रकार,शिक्षक, बाबू, वकील जैसे हुनर मंद मान चुके है कि अगर चोरों की व्यवस्था में हर किसी को दस्तावेज पर चोर बता दिया जाये तो चोर व्यवस्था बदल जायेगी। व्यवस्था बदलने की होड़ में शहरी गुस्सा इतना ज्यादा है कि राबर्ट वाड्रा हो या मुकेश अंबानी या फिर वसुंधरा राजे हो या शिवराज सिंह चौहाण इनके भ्रष्टाचार की कहानी के खिलाफ खुलासे की शुरुआत या अंत की कहानी में उस आम आदमी की भागेदारी कहा कैसे होगी, जहां उसका गुस्सा पेट से निकल कर पेट में ही समा रहा है। यह किसी को नहीं पता। सिर्फ आस है कि आज गुस्सा सड़क पर निकला तो कल पेट भी भरेगा। और सियासी घमाचौकड़ी का गुस्सा विकास के खिंची गई भ्रष्ट लकीर को भ्रष्ट ठहरा रहा कर नियम-कायदों को ठीक करने के लिये आम आदमी के गुस्से को सड़क पर दिखला कर वापस अपने घर लौट रहा है। दूरियां पट रही हैं या दूरिया बढ़ रही हैं। क्योंकि सवाल उस जमीन को खड़े आम लोगो के गुस्से का नहीं है, जिस जमीन को हड़पने या उसे बचाने का शहरी खेल संसद से सडक तक में हर कोई बार बार खेल रहा है। सवाल उन लोगों का है जिनकी जमीन उनका जीवन है। और पीढि़यो से खिलाती आई उसी जमीन को अब देश की संपत्ति बता कर खोखला बनाने की विकास नीति चौमुखी तौर पर स्वीकार कर ली गई है। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संस्थानों का होना लोकतंत्र का होना बताया गया। लेकिन आधुनिक धारा में वहीं संस्थान लोकतंत्र को भी खरीद-बेच कर धनतंत्र में बदल गये। सवाल उन लोगों का है, जिनके लिये संसदीय धारा आजाद होने का नारा रहा। और अब वही संसदीय धारा गुलाम बना कर मुंह के कौर को भी छीनने पर आमादा है। क्या पेट में समाये इस गुस्से को भूमि-सुधार, खाद्य सुरक्षा बिल और राजनीतिक व्यवस्था के बंद दरवाजों के खोलने से खत्म किया जा सकता है। क्या वाकई देश के गुस्से को सही राह वही शहरी मिजाज देगा जिसने स्वदेशी का राजनीतिक पाठ किया और बाजार व्यवस्था
में गंवाने या पाने की तिकड़मो को समझने के बाद व्यवस्था बदलने का सवाल उठा दिया। क्यों वाकई देश के गुस्से को राह वही शहरी देगा, जिसने कानवेन्ट में पढ़ाई की और अब महात्मा गांधी के स्वराज को याद कर व्यवस्था बदलने का नारा लगाना शुरु कर दिया। या फिर लुटियन्स की दिल्ली की वह सियासी मशक्कत देश के गुस्से को शांत करेगी, जिसे राजनीतिक पैकेज में ही हर पेट के भीतर की कुलबुलाहट और भूख को बेच कर कॉरपोरेट के कमीशन से विकास दर का चढ़ता हुआ तीर चमकते हुये सूरज सरीखा दिखायी देता है। यानी संघर्ष और गुस्सा भी अगर लूट की भागीदारी या सत्ता संघर्ष का हिस्सा बन जाये तो फिर रास्ता है क्या। और रास्ता निकाला ना गया तो हर रास्ता उसी सत्ता को पाने की होड में शामिल होकर दुनिया के सपबसे बडे लोकतंत्र का राग ही गायेगा। जहां पचास करोड से ज्यादा वोटर अकेला है। और संसद से पंचायत तक यानी पीएमओ से मुखिया तक महज साढे पैतिस लाख लोगों की सत्ता ही देश है।
जब ये सत्ता के नसेडी लोग अपने परिवार अपने बेटे तक को मरवा सकते हैं तो हम आम जनता को इनसे कुछ उम्मीद करना वैसे ही है जैसे की आप किसी दीवालिया आदमी से पैसे उधार माँगने जा रहे हों. हिन्दुस्तान का भला तभी हो सकता है जब नेता बनने के लिए UPSC से भी कठिन परीक्षा लिया जाए क्यूंकी जब IAS लोग नेता के अधीन काम करते हैं तो नेता को तो उनसे ज़्यादा क्वालिफाइड होना चाहिए ना.
ReplyDeleteखैर छोड़िए आपका पोस्ट अच्छा लगा.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
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sir aapki debate khaas kar 3rd degree m aapki tone jaabrrjastt rhti h... fan ho gye h aapke.. :D
ReplyDeleteविचारणीय आलेख
ReplyDeleteVery complex language.....thoda saral bhasha mein likhenge to accha lagne ke saath saath samajh bhi aayega
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर।गजब लेख है।वैसे दस तक भी लाजवाब रहता है और वो भी हर दिन।सारे दिन की खबर महज बीस मिनट में।वह भी सटीक और निष्पक्ष।🙏🙏🙏
ReplyDeletemadechood kejwal ki choot mne ghus ja.
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