Saturday, November 28, 2015

सियासी बिसात पर संविधान और आंबेडकर भी प्यादा बन गये

इतिहास के पन्नों के आसरे जिस तरह की कवायद संसद के भीतर राजनीतिक दलों ने की उसने झटके में यह एहसास तो करा ही दिया कि राजनीतिक दलों की समूची विचारधारा अब सत्ता ही है। यानी सत्ता के लिये आंबेडकर। सत्ता में बने रहने के लिये अंबेडकर। संविधान की प्रस्तावना में लिखे शब्द ,’ हम भारत के
लोग ‘ को जबाव ना दे पाने के हालात में बेडकर और इतिहास का सहारा। कही इतिहास को हथियार बनाकर सामने वाले पर चोट तो कभी अपने लिये ढाल।संसद की बहस ने कई सवालो ने दो दिन में जन्म दे दिया । कभी लगा संघ परिवार हो या बीजेपी दोनो के भीतर आंबेडकर को लेकर जो प्रेम और श्रध्दा उभरी है वह सिर्फ संविधान निर्माता के तौर पर नहीं बल्कि सियासी तौर पर कही ज्यादा है । तो कभी लगा कांग्रेस आजादी के वक्त की कांग्रेस को भी मौजूदा कांग्रेस की ही तर्ज पर देखना चाह रही है । कभी लगा संसद के लिये अब देश के नागरिक मायने नहीं रखते बल्कि सांसद और सरकार या फिर सत्ता और संविधान ही नागरिक है । हम भारत के लोग हैं। याद कीजिये एक वक्त कांग्रेस को सरमायेदारो की सरकार कहा जाता था। टाटा, बिरला और
डालमिया इन्ही तीनों का नाम तो काग्रेस से जुडता था । जनसंघ के साथ बडे सरमायेदार कभी नहीं आये । सिर्फ व्यापारी तबका साथ रहा । तो राजनीति के व्यवसायिकरण में भी एक तरह का चैक-एंड बैलेंस रहा । और एक वक्त मुस्लिम लीग के साथ रिपब्लिकन पार्टी खडी हुई तो देश ने, ‘जाटव-मुस्लिम भाई भाई , काफिर कौम कहा से आई ‘ के नारे भी सुने और तब कांग्रेस को भी समझ नहीं आया कि सियासी रास्ता जायेगा किधर । लेकिन मौजूदा दौर तो छोटे-बडे व्यवसाय से कही आगे निकलकर कारपोरेट, विदेशी पूंजी और देश की खनिज संपदा
की लूट में हिस्सेदारी से जा जुडा है तो सियासत विचार को तिलांजलि देकर आंबेडकर के नाम पर जो मथना चाहती है वह तो मथा नहीं जा रहा उल्टे जहर ज्यादा निकल रहा है । क्योंकि सत्ता, सियासत, सरकार और संविधान के नाम पर सरमायेदारो की भागेदारी से राजनेता चकाचौंध है । इसीलिये मौजूदा सियासत की महीन लकीर को समझे तो सवाल सिर्फ दलितो के मसीहा आंबेडकर को नयी पहचान देकर अपने भीतर समाहित करने भर का नहीं है । सवाल नेहरु पर हावी किये जाते सरदार पटेल का भी है । सवाल गांधी जयंती को स्वच्छता दिवस के तौर पर मनाने का भी है ।

सवाल शिक्षक दिवस को पीएम का बच्चो से संवाद दिवस बनाने का भी है । सवाल नेहरु और इंदिरा गांधी की जयंती को सरकारी कार्यक्रमो में भुलाया जाना भी है । यानी काग्रेस जिन प्रतिको के माध्यमों से राष्ट्र की कल्पना को मूर्त करती आई है उसे मोदी सरकार के दौर में अगर डिगाया जा रहा है तो राजनीतिक तौर पर यह सवाल हो सकता है कि क्या बीजेपी नये प्रतीकों को गढना चाह रही है। तो लड़ाई सीधी है तो क्या सडक क्या संसद। सोनिया गांधी भी आंबेडकर का आसरा लेकर यह कहने से नहीं कि जिन्हें संविधान से कोई मतलब नहीं रहा वह संविधान पर चर्चा करा रहे है। यानी उन पन्नो को सोनिया गांधी ने खोल दिया जब महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिये सरदार पटेल ने संघ से संविधान पर भरोसा जताने की बात कही थी। अन्यथा आरएसस के ख्याल में तो उस वक्त भी मनुस्मृति से बेहतर कोई संविधान था ही नहीं । तो सवाल है कि क्या मौजूदा वक्त में सियासी बिसात पर संविधान और संविधान निर्माता आंबेडकर को ही प्यादा बनाकर चाल चली जा रही है। या फिर सियासी बिसात इतनी बडी हो चुकी है कि देश चले कैसे इसके लिये संविधान नहीं सत्ता की जरुरते बडी हो चुकी है । क्योकि सोनिया गांधी ने वहीं किया जो हर दौर की राजनीति कर सकती है
यानी अतीत के जो शब्द मौजूदा वक्त में अनुकुल है उन शब्दो को चुनकर इतिहास का जिक्र कर खुश हुआ जाये। जाहिर है बीजेपी संविधान बनाते वक्त बनी नहीं थी और जनसंघ भी बाद में बनी
लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह 1935 के कानून का पहले विरोध किया और फिर इसी के तहत चुनाव भी लडे और कानून को भी यह कहकर अमल में लाये कि हम इसे भीतर जाकर तोड़ेंगे। लेकिन नेता खुद टूटे और संघर्ष के मार्ग से हटाकर संविधान को सुधारवादी मार्ग पर ठेल दिया गया । ऐसा भी नहीं है कि आंबेडकर इसे समझ नहीं रहे थे उन्होंने बाखूबी समझा और कहा भी 1935 के कानून से पहले भारत ब्रिट्रीश सरकार की संपत्ति थी और 1935 के कानून में भारत की संपत्ति और देनदारी दो हिसेसो में बंट गई। एक हिस्सा केन्द्र का दूसरा प्रांत का । यानी सेकेट्रेरी आफ स्टेट के बदले संपत्ति-देनदारी बादशाह सलामत के हाथ में आ गई । और ध्यान दे तो मौजूदा सियासत उसी राह पर पहुंच चुकी है क्योंकि पीएम हो या राज्यो के सीएम उनकी हैसियत उनके जीने के तरीके किसी बादशाह से कम नहीं है। आलम तो यह भी है कि अब महाराष्ट्र के सीएम अपने लिये एक करोड की बुलेट प्रूफ गाड़ी खरीद रहे हैं। जबकि मुंबई हमलो के वक्त मुंबई पुलिस के पास बुलेट प्रूफ जैकेट तक नहीं थी। और आज भी नहीं है।

इन हालातों से आंबेडकर वाकिफ तब भी थे । इसलिये इतिहास में इसका भी जिक्र है कि जब 13 दिसबंर 1946 को नेहरु संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यो के बारे में अपना प्रस्ताव पेश किया तो आंबेडकर ने उसकी आलोतना करते हुये कहा , ‘समाजवादी के रुप में नेहरु की जो ख्याती है उसे देखते हुये यह प्रसताव निराशाजनक है । ‘ दरअसल आंबेडकर ने इसके बाद विस्तार के साथ संविधान के उद्देश्यों का जो जिक्र किया संयोग से वह आज भी अधूरे है । क्योकि आंबेडकर ने तीन बाते रखी पहली देश में सामाजिक आर्थिक न्याय हो । दूसरी उघोग-धंधो और भूमि का राष्ट्रीयकरण हो । तीसरी समाजवादी अर्थतंत्र अपनाया जाये जाहिर है वोट देने की बराबरी के अलावे असमानता का भाव समाज में रहेगा उसका अंदेशा आंबेडकर को तब भी था । इसलिये वह सवाल भी खडा करते थे कि अंग्रेजो के बनाये संवैधानिक मार्ग से हटकर क्या कोई दूसरा रास्ता है, जिसपर चलने से देश अपना आर्थिक और राजनीतिक विकास कर सकता था । आंबेडर के बारे में इसी लिये कहा गया कि वह काम संविधानवादी की तरह करते लेकिन सोचते क्रातिकारी की तरह । जो नेहरु नहीं थे । तो क्या इसीलिये संविधान की मूल धारणा से ही हर सत्ता भटक गई । क्योकि संविधान के प्रस्तावना में तो , “वी द पीपुल..फार द पीपल ...बाय द पीपल “ का जिक्र है । लेकिन संविधान की व्याख्या करते करते काग्रेस और बीजेपी ने अपने इतिहास को इस तरीके से सहेजना शुरु किया कि सामने वाला कटघरे में खडा हो जाये । लेकिन जनता का कोई जिक्र कही नहीं हुआ । किसी ने नहीं कहा कि देश की मौजूदा हालात में तो करीब बीस करोड लोगो को दो जून की रोटी तक मुहैया नहीं है । इतना ही नहीं सरकार की तरफ से जब यह आंकडा जारी किया गया कि देश में नब्बे लाख लोगो के पास एक अदद छत तक नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट ने 12 दिसबंर 2014 को सरकार से कहा कि आप दोबारा आंकडे दिजिये । यानी देश के हालात बद से बदतर है । और सरकारी आंकडों को लेकर ही भरोसा संवैधानिक संस्थाओ का डिगा हुआ है । यू संविधान ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी ने तो आजादी का मतलब ही रोटी कपडा मकान से जोडा और सविधान सभा में अपनी बात भी पहुंचायी कि शिक्षा और पीने का साफ पानी तो सभी को मिलना चाहिये । लेकिन खुद सरकार के आंकडे कहते है कि देश में 30 करोड़ लोग कभी स्कूल नहीं गए और आज भी 6 से 11 साल उम्र के 14 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। बासठ फीसदी गांव तक पीने का साफ पानी आजतक नहीं पहुंचा है । फिर दिलचस्प यह भी है कि लोगों की बुनियादी जरुरतें पूरी होनी चाहिये इसका जिक्र संविधान में में है । लेकिन हर राजनीतिक दल ने आजतक सिर्फ इतना ही किया कि अपने चुनावी मैनिपेस्टो में इन्ही बुनिय़ादी जरुरतों को जोड कर जनता को बेवकूफ बनान जारी रखा । और अब तो से विकास का नाम दिया जा रहा है । दरअसल, संविधान की प्रस्तावना में जिस भारत का ख्वाब देखा गया-उसके आधार स्तंभ न्याय, ,स्वतंत्रता , समानता ,बंधुत्व हे । जिसके मायने सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक विचार से जुडे है ।विचार-अभिव्यक्ति-विश्वास-धर्म से जुडे है । पद एवं बराबर के अवसर से जुडे है । व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता के लिए जीने मरने से भी जुडे है । लेकिन  देश का सच है कि - इस साल 19 सितंबर तक 2,02,86,233 .मामले न्यायलय में लंबित पड़े थे । जिसके दायरे में एक करोड से ज्यादा परिवार त्रासदी झेल रहे है । क्योकि उनका पैसा, वक्त और जहालत तीनो न्याय की आस में जी रहा है । फिर जेलों में इस वक्त 2.82,879 कैदी तो ऐसे हैं, जो अंडरट्रायल हैं। 13540 कैदी सिर्फ इसलिए बंद हैं क्योंकि उनकी ज़मानत
देने वाला कोई नहीं। और इनसबके बीच अब बोलने की आजादी का मामला कुछ यूं हो चला है कि एक बड़े तबके को आपकी बात नागवार गुजरे तो राष्ट्रदोही करार देने में वक्त नहीं लगता । और जब तक आप हालात को समझे तब तक आप समाज के लिये खलनायक करार दिये जा चुके होते हो । मौजूदा दौर में इस आग को सत्ता से दूर तबका बाखूबी महसूस कर रहा है । और जिस सेक्यूलरइज्म की नींव पर संविधान खडा है उसपर नई बहस इस बात को शुऱु हो रही है कि सेक्यूलरइज्म को धर्म निरपेक्ष नहीं पंथनिरपेक्ष कहे ।

लेकिन इसकी किसी को फिक्र नहीं कि आजादी के बाद से विभाजन के दौर की त्रासदी से ज्यादा मौते साप्रदायिक दंगो में बीते 66 बरस में हो गई । दंगे कभी नही रुके मनमोहन सिंह के दौर में 2014 के पहले छह महीनो में 252 दंगे हुये । तो मोदी सरकार के दौर में इस बरस पहले छह महीनो में 330 दंगे हुये । लेकिन संसद बुनियाद पर खामोशी बरस संविधान की अपनी व्याख्या करने में व्यस्त है।और जो दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता  42 वें संशोधन में संविधान के प्रस्तावना में जुडे संयोग से दोनो ही शब्द मौजूदा वक्त में कहीं ज्यादा बेमानी से हो गये ।

Tuesday, November 24, 2015

मोदी के ब्रांड अंबेसडर ने ही मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया !


जनता ,नेता ,मंत्री दादरी के अखलाख को भूल गई लेकिन शहरुख याद हैं। सरकारें सुनपेड में दो दलित बच्चो को जिन्दा जलाने की घटना को भी भूल गई लेकिन आमिर खान पर सर फुट्टवल के लिये तैयार हैं। दादरी में अखलाख का परिवार अब क्या कर रहा है या फिर फरीदाबाद के सुनपेड गांव में उन दलित मां बाप की क्या हालत है जिनके दोनों बच्चे जिन्दा जला दिये गये, कोई नही जानता । लेकिन शहरुख की अगली फिल्म दिलवाले है। और आमिर खान की अगली फिल्म दंगल है। और इसकी जानकारी हर उस शख्स को है, जो मीडिया और सोशल मीडिया पर सहिष्णुता और असहिष्णुता की जुबानी जंग लड रहे हैं। लेकिन यह लोग अखलाख और सुनपेड गांव के दर्द को नहीं जानते। तो देश का दर्द यही है । शाहरुख और आमिर खान अपने हुनर और तकनीक के आसरे बाजार में बदलते देश में जितना हर घंटे कमा लेते है उतनी कमाई साल भर में भी अखलाख के परिवार और सुनपेड गांव के जीतेन्द्र कुमार की नहीं है। और कोई नहीं जानता कि अखलाख के परिवार का अपने ही गांव में जीना कितना मुहाल है और जीतेन्द्र कुमार को अब कोई सुरक्षा नहीं है जिसके आसरे वह स्वतंत्र होकर जिन्दगी जीता नजर आये।

लेकिन आमिर खान के घर के बाहर सुरक्षा पुख्ता है। यानी रईसों की जमात की प्रतिक्रिया पर क्या सड़क क्या संसद हर कोई प्रतिक्रिया देने को तैयार है लेकिन सामाजिक टकराव के दायरे में अगर देश में हर दिन एक हजार से ज्यादा परिवार अपने परिजनों को खो रहे है। और नेता मंत्री तो दूर पुलिस थाने तक हरकत में नहीं आ रहे है तो सवाल सीधा है । सवाल है कि क्या सत्ता के लिये देश की वह जनशक्ति कोई मायने नहीं रखती जो चकाचौंध भारत से दूर दो जून की रोटी के लिये संघर्ष कर रही है। इसीलिये जो आवाज विरोध या समर्थन की उठ रही है वह उसी असहिष्णुता के सवाल को कहीं ज्यादा पैना बना रही है, जो गरीबो को रोटी नहीं दे सकती और रईसों को खुलापन। असल में आर्थिक सुधार और बाजार अर्थव्यवस्था के रास्ते चलने के बाद बीते 25 बरस का सच यही है कि पूंजी ने देश की सीमा मिटाई है। पूंजी ने अपनी दुनिया बनायी है । और मनमोहन सिंह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक उन्हीं गलियों में भारत का विकास खोज रहे है जो चकाचौंध से सराबोर है । इसीलिये सत्ता की महत्ता हथेलियो पर देश को चलाते 8 हजार परिवारो पर जा टिकी है, जिनके पास देश का 78 फीसदी संसाधन है। देश की नीतियां सिर्फ 12 करोड़ उपभोक्ताओं को ध्यान में रखकर बनायी जा रही हैं। यानी देश में असहिष्णुता इस बात को लेकर नहीं है कि असमानता की लकीर मोटी होती जा रही है। कानून व्यवस्था सिर्फ ताकतवरों की सुरक्षा में खप रही है । किसान को राहत नहीं मिली। मजदूर के हाथ से रोजगार छिन गया। महंगाई ने जमाखोरों-कालाबारियो के पौ बारह कर दिये। यह सोचने की बात है कि अखलाख के परिवार की त्रासदी या सुनपेड में दलित का दर्द शाहरुख खान की आने वाली फिल्म दिलवाले या आमिर की फिल्म दंगल तले गुम हो चुकी होगी। तो मसला सिर्फ फिल्म का नही है सिस्टम और सरकारें भी कैसे किसी फिल्म की तर्ज पर काम करने लगी हैं महत्वपूर्ण यह भी है।

सरकारों के ब्रांड अंबेसडर कौन है और देश के आदर्श कौन हो जायेंगे। याद कीजिये मोदी प्रधानमंत्री बने तो पीएमओ हो या इंडियागेट दोनो जगहों पर आमिर खान को प्रधानमंत्री मोदी ने वक्त दिया । महत्ता दी। कभी कोई गरीब किसान मजदूर पीएमओ तक नहीं पहुंच पाता लेकिन आमिर खान के लिये पीएमओ का दरवाजा भी खुल जाता है और प्रधानमंत्री मोदी के पास मिलने का वक्त भी निकल आता है । लेकिन आमिर खान ने कुछ इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी के दौर को ही कटघरे में खडा कर दिया जो बीजेपी पचा नही पा रही है और मोदी सरकार निगल नहीं पा रही है।

बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता भी और मोदी सरकार के मंत्री भी जिस तेजी से निकल कर आमिर खान को खारिज करने आये उतनी तेजी कभी किसी असहिष्णु होते नेता मंत्री के बयान पर नहीं दिखायी दी। ना ही अखलाख की हत्या पर कोई इतनी तेजी से जागा। तो क्या देश जुबानी जंग में जा उलझा है या फिर विकास के उस चकाचौंध में उलझा है जहां मान लिया गया है कि सत्ता के ब्रांड अंबेसडर रईस ही होते हैं। सत्ता रईसों के चोचलों से ही घबराती है। रईसों के साम्राज्य में कोई सत्ता सेंध नहीं लगा सकती । इसीलिये अर्से बाद संसद भी उसी तर्ज पर जाग रही है जिसमें असहिष्णुता के सवाल पर नोटिस देकर विपक्ष दो दिन बाद से शुरु हो रहे संसद के तत्कालीन सत्र में बहस चाहता है। यानी सवाल वही है कि असहिष्णुता के सामने अब हर सवाल छोटा है। चाहे वह महंगी होती दाल का हो । या फिर आईएस के संकट का । बढ़ती बेरोजगारी का है या फिर नेपाल में चीन की शिरकत का । यकीनन दिल किसी का नहीं मानेगा कि भारत में सत्ता बदलने के बाद सत्ता की असहिष्णुता इतनी बढ़ चुकी है कि देश में रहे कि ना रहे यह सवाल हर जहन में उठने लगा है। लेकिन जब देश के हालात को सच की जमीन पर परखे तो दिल यह जरुर मानेगा कि देश गरीब और रईसो में बंटा हुआ है । गरीब नागरिक वह है जो सत्ता के पैकेज पर निर्भर है और रईस नागरिक वह है जिसपर सरकार की साख जा टिकी है और उसी के लिये विकास का टंटा हर सत्ता चकाचौंध के साथ बनाने में व्यस्त है । इसलिये देश के हालात को लेकर जब देश का गरीब सत्ता से कोई सवाल करता है तो वह किसी के कान तक नहीं पहुंचता लेकिन जैसे ही चकाचौंध में खोया रईस सत्ता पर सवाल दागता है तो सरकार में बेचैनी बढ़ जाती है । ध्यान दें तो मोदी सरकार के ब्रांड अंबेसडर वही चेहरे बने जिनमें से अधिकतर की जिन्दगी में एक पांव देश में तो दूसरा पांव विदेश में ही रहता है । और संयोग से आमिर खान को भी मोदी सरकार का ब्रांड अंबेसडर बनने का मौका भी मिला और इंडिया गेट पर प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के साथ आमिर खान की गुफ्तगु हर किसी ने देखी समझी भी । तो क्या मोदी सरकार का दिल इसीलिये नहीं मान रहा है जिन्हे अपना बनाया वही पराये हो गये । मगर आखिरी सवाल यही है कि रास्ता है किधर और हालात लगातार बिगड़ क्यों रहे है । क्या देश उन परिस्थितियो के लिये तैयार नहीं है जहां मीडिया बिजनेस बन कर देश को ही ललकारते हुये नजर आये। और सोशल मीडिया कही ज्यादा प्रतिक्रियावादी हो चला है, जहां हर हाथ में खुद को राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने का हथियार है। और हर रास्ता चुनावी जीत-हार पर जा टिका है । जहां मान लिया जा रहा है कि जुनावी जीत सत्ता को संविधान से परे समूची ताकत दे देता है । यानी तीसरी दुनिया के भारत सरीखे देश को एक साथ दो जून की रोटी से भी जूझना है और चंद लोगो के खुलेपन की सोच से भी।

Friday, November 20, 2015

गांधी मैदान से निकला क्या?

राहुल गांधी का लालू प्रसाद यादव की तरफ हाथ बढ़ाना। राहुल गांधी का शपथग्रहण के बीच झटके में खड़ा होना और अपने ही विरोधियों से लेकर भिन्न विचारधारा के नेताओं से भी हाथ मिलाना। चाहे वह अकाली दल के नेता हो या शिवसेना के। या फिर केजरीवाल हो । यानी ना वक्त ना मौका हाथ से जाने देना। तो क्या काग्रेस अब बीजेपी की स्थिति मे है और बीजेपी कांग्रेस की स्थिति में। यानी बीजेपी के खिलाफ देश भर के राजनीतिक दलों को एकजुट कर अपने आस्त्तिव की लडाई कुछ इसी तरह कांग्रेस को लड़नी पड़ रही है जैसे एक वक्त कांग्रेस के खिलाफ खडी हुई वीपी सिंह सरकार को समर्थन देने के लिये बीजेपी और वामपंथी एक साथ आ गये थे। यानी पटना गांधी मैदान ने यह साफ संकेत दे दिये कि बीजेपी के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता अपने अपने राज्य में सामाजिक दायरे को बढाकर बीजेपी को चुनावी जीत से रोक सकती है और केन्द्र में कांग्रेस हर राजनीतिक दल को एक साथ लाकर संसद से सडक में मोदी सरकार और बीजेपी के लिये मुश्किल हालात पैदा कर सकती है। पटना गांधी का मंच वाकई उपर से देखने पर हर किसी को लग सकता है कि मोदी के राजनीतिक विकल्प के लिये बिहार ने जमीन तैयार कर दी है। लेकिन गांधी मैदान के जुटान के भीतर की उलझी गुत्थियों को समझने के बाद यह लग सकता है कि शपथ ग्रहण के बहाने समूचे देश के नेताओ का यह जुटान इतना पोपला है कि कि जो विरोध यह सभी अपने अपने स्चर पर करते सभी ने मिलकर उसी की हवा निकाल दी। क्योंकि इस जुटान में ना सिर्फ इनके अपने अंतरविरोध है बल्कि अपनी ही जमीन को भी इन नेताओं ने सरका लिया है।

मसलन केजरीवाल और लालू की गले मिलने की तस्वीर इतिहास में दर्ज हो गई। यानी आंदोलन से लेकर दिल्ली की सत्ता पाने तक के दौर में भ्रष्टाचार को लेकर जो कहानियां केजरीवाल दिल्ली और देश की जनता को सुनाते रहे वह ना सिर्फ लालू के साथ गलबहियो ने खारिज कर दिया बल्कि मंच पर शीला दीक्षित। शरद पवार और हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की मौजूदगी ने तार तार कर दिया । यानी प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ केजरीवाल के तेवर अगर कडे दिखायी दे रहे थे तो उसके पीछे अभी तक केजरीवाल की वह ताकत थी जो उन्हे भ्रष्ट नेताओं से अलग खड़ा करती थी। लेकिन अपनी राजनीति को विचारधारा में लपेट कर अगर केजरीवाल सत्ता तक पहुंचे तो गांधी मैदान के मंच ने उसी विचारदारा को धो दिया जिस विचारधारा को वाकई राजनीति से कुछ लेना-देना नहीं था । लेकिन उसकी सियासी गूंज वैसी ही थी । दूसरी तस्वीर ममता और वामपंथियों के एक साथ एक मंच पर मौजूदगी ने एक तरफ शारदा घोटाले की आवाज को गठजोड की नयी सियासत तले मान्यता दे दी। तो दूसरी तरफ यह सवाल भी खड़ा कर दिय़ा कि वामपंथी बंगाल देखे या मोदी को। ममता को संभाले या बडे गठजोड़ के लिये सबकुछ भूल जाये। यानी अपने आसत्तिव का संघर्ष और मोदी सरकार से टकराव दोनों अगर आपस में टकरा रहे है तो फिर रास्ता दिल्ली की तरफ कैसे जायेगा।

वही असम में कांग्रेस और डेमोक्रेटिक फ्रंट के बदरुद्दीन अजमल मंच पर एक साथ थे तो असम की राजनीति में दोनो एक साथ कैसे आ सकते हैं। यानी असम में अपने आस्त्तिव को मिटाकर कांग्रेस के साथ मोदी को ठिकाने लगाने के लिये बदरुद्दीन अजमल क्यों आयेंगे यह भी दूर की गोटी है । फिर शिवसेना और अकाली के नेताओ की मौजूदगी मोदी सरकार को हड़का तो सकती है लेकिन शिवसेना कांग्रेस के साथ कभी आ नहीं आ सकती और अकाली दल बीजेपी का साथ छोड नहीं सकता क्योकि 1984 के दंगे बार बार कांग्रेस के खिलाफ सियासी हवा को तीखा बनाते है । तो फिर मोदी के खिलाफ दोनों कांग्रेस या नये गठबंधन में कैसी और किस तरह की भूमिका निभायेगें यह भी दूर की गोटी है । और आखरी सवाल जो इस मंच पर नहीं दिखा वह है मुलायम मायावती का मंच से दूर रहना । जबकि बिहार के बाद आने वाले वक्त में सारी राजनीति यूपी में ही खेली जायेगी । और जिस तरह कांग्रेस के खिलाफ दोनो है या दोनो ही सत्तानुककुल होकर एक दूसरे के खिलाफ रहते है उसमें ना तो काग्रेस का साथ फिट बैठता है और ना ही मोदी का विरोध । और यही से यह सवाल बडा होता है कि 2014 के लोकसभा के जनादेश के बाद जब दिल्ली विधानसभा में बीजेपी तीन सीट पर सिमट गई तब राजनीति व्यवस्ता के विकल्प की सोच लोगो की भावनाओ के साथ जुडी थी । और बिहार के जनादेश ने चुनावी जीत के रथ को रोक कर अजेय होते मोदी को घूल चटा दी। लेकिन भारतीय राजनीति का असल जबाब फिर उसी सिरे को पकड कर ठहाका लगाने लगा जहा एक तरफ दुनिया की नजर बिहार पर थी और सरकार बनने पर जो निकला वह सिर्फ लालू के वंश की सियासत ही नहीं बल्कि वह फेरहिस्त निकली जहां देश को चुनावी जीत के रास्ते जाना किधर है यह भी घने अंधेरे में समाना लगा। क्योंकि उपमुख्यमंत्री - नौवीं फेल तो स्वस्थ्य, सियाई और पर्यावरण मंत्री 12 पास है। वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री,ग्रामीण विकास मंत्री भी बारहवीं पास हैं। तो पंचायती राज मंत्री मैट्रिक पास भी नहीं कृषि मंत्री मैट्रिक पास है। और इन सभी के पास एसयूवी गाडियां जरुर हैं।

Tuesday, November 17, 2015

चले गये राम मंदिर की आस लिए

जो ना तो राजनीति का नायक बना। ना ही हिन्दुत्व का झंडाबरदार। लेकिन जो सपना देखा उसे पूरा करने में जीवन कुछ इस तरह झोक दिया कि संघ परिवार को भी कई मोड़ पर बदलना पड़ा। और देश की सियासत को भी राम मंदिर को धुरी मान कर राजनीति का ककहरा पढ़ना पड़ा। जी अशोक सिंघल ने सदा माना कि धर्म से बडी राजनीति कुछ होती नहीं। इसीलिये चाहे अनचाहे अयोध्या आंदोलन ने समाज से ज्यादा राजनीति को प्रभावित किया और धर्म पर टिकी इस राजनीति ने समाज को कही ज्यादा प्रभावित किया। इसी आंदोलन ने आडवाणी को नायक बना दिया। आंदोलन से निकली राजनीति ने वाजपेयी को प्रधानमंत्री बना दिया। लेकिन निराशा अशोक सिंघल को मिली तो उन्होने गर्जना की। स्वयंसेवकों की सत्ता का विरोध किया। लेकिन आस नहीं तोड़ी। इसीलिये 2014 में जब नरेन्द्र मोदी को लेकर सियासी हलचल शुरु हुई तो चुनाव से पहले ही मोदी की नेहरु से तुलना कर राम मंदिर की नई आस पैदा की। यानी अपने सपने को अपनी मौत की आहट के बीच भी कैसे जिन्दा रखा यह महीने भर पहले दिल्ली में सत्ता और संघ परिवार की मौजूदगी में अपने ही जन्मदिन के समारोह में हर किसी से यह कहला दिया कि सबसे बेहतर तोहफा तो राम मंदिर ही होगा । लेकिन क्या यह तोहफा देने की हिम्मत किसी में है।

यह सवाल विष्णु हरि डालमिया ने उठाया । भरोसा हो ना हो लेकिन सिंघल ने राम मंदीर को लेकर उम्मीद कभी नहीं तोड़ी । किस उम्मीद के रास्ते देश को समझने अशोक सिंघल बचपन में ही निकले और कैसे इंजीनियरिंग की डिग्री पाकर भी धर्म के रास्ते समाज को मथने लगे यह भी कम दिलचस्प नहीं। आजादी के पहले बीएचयू आईटी से बीटेक छात्रों की जो खेप निकली, सिंहल भी उसी का हिस्सा थे। लेकिन सिंहल ने कैंपस रिक्रूटमेंट के उस दौर में नौकरी और कारोबार का रास्ता नहीं पकड़ा। बल्कि देश बंटवारे के उस दौर में हिंदूत्व की प्रयोगशाला के सबसे बड़े धर्मस्थान गोरखपुर के गोरक्षनाथ मंदिर में उन्होंने डेरा डाला..गीता प्रेस और गीता वाटिका में वेदों और उपनिषदों का अध्ययन शुरु किया लेकिन आरएसएस नेता प्रोफेसर राजेंद्र सिंह रज्जू भैय्या के निर्देश पर वो आरएसएस प्रमुख गुरुजी गोलवलकर से मिलने नागपुर पहुंच गए। (दरअसल रज्जू भैय्या और अशोक सिंहल दोनों के पिता प्रशासनिक अधिकारी थे और यूपी के इलाहाबाद में अगल-बगल ही रहते थे, इसलिए दोनों परिवारों में रिश्ता बहुत गहरा बना। ) गोलवलकर से मुलाकात के बाद फिर सिंहल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, उन्होंने वेदों को पढ़ने का विचार छोड़ दिया...संगठन के रास्ते पर कदम आगे बढ़ाए....1950 और 1960 के दशक में सिंहल गोरखपुर, कानपुर और सहारनपुर में आरएसएस के प्रचारक रहे तो बाद में पूरा उत्तराखंड देहरादून-हरिद्वार और उत्तरकाशी तक उन्होंने कई साल आरएसएस के संगठन और आध्यात्मिक साधना में
साधू-संतों के साथ भी बिताया। यानी समाज को मथा। और 70 के दशक में राजनीति मथने लगे। 1970 के दशक में सिंहल ने जेपी आंदोलन में हिस्सा लिया...दिल्ली में वो आरएसएस के प्रांत प्रचारक थे, जनता पार्टी के गठन में वो पर्दे के पीछे से अहम रोल अदा कर रहे थे...इमर्जेंसी के वक्त सिंघल भूमिगत हो गए....और जब इमर्जेंसी का दौर खत्म हुआ तो आरएसएस ने उन्हें विश्व हिंदू परिषद में भेज दिया। और पहली बार सिंघल को भी लगा कि अब धर्म के आसरे राजनीति को भी मथा जा सकता है।

सिर्फ मंदिर ही उनकी नजरों में नहीं था वो राम मंदिर के जरिए सियासी तौर तरीको को बदल डालने में जुट गए......हिंदू धर्म की अंदुरुनी कमजोरियों के खिलाफ भी सिंहल ने मोर्चा खोला..। 1986 में अयोध्या में शिलान्यास हुआ तो सिंहल ने कामेश्वर नामके हरिजन से पहली ईंट रखवाई। देश के मंदिरों में दलित और पिछड़े पुजारियों की नियुक्ति का अभियान भी सिंहल ने चलाया। दलित और पिछड़ों को वेद पढ़ने के लिए सिंहल ने मुहिम चलाई, शंकराचार्यों से सहमति भी दिलवाई। दक्षिण भारत में दलित पुजारियों के प्रशिक्षण का बड़ा काम सिंहल ने शुरु करवाया। हिंदुओँ के धर्मांतरण के खिलाफ भी सिंहल ने मोर्चा खोला.....वनवासी इलाकों और जनजातियों से जुड़े करीब 60 हजारगांवों में उन्होंने एकल स्कूल खुलवाए....सैकड़ों छात्रावास भी पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक खड़े किए। दुनिया के 60 से ज्यादा देशों में अशोक सिंहल ने विश्व हिंदू परिषद के सेवा कार्य शुरु किए, खास तौर पर संस्कृत, वेद और कर्मकांड और मंदिरों के रखरखाव पर उनका जोर था...आधुनिक शिक्षा और शहरीकरण में उपभोक्तावाद के खिलाफ परिवार को मजबूती देने में भी वो जुटे रहे। यही वो दौर था जब राम मंदिर आंदोलन अयोध्या में करवट लेने लगा था.....सिंहल ने अयोध्या आंदोलन में वो
चिंगारी ढूंढ ली जिसमें देश की राजनीति को बदल डालने की कुव्वत थी...इसके पहले आरएसएस और वीएचपी के एजेंडे में दूर दूर तक राम मंदिर नहीं था.....कहते हैं कि 1980 में दिल्ली में पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस राम मंदिर की मांग को लेकर सिंघल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की तो वीएचपी का लेटर हेड भी उन्होंने इस्तेमाल नहीं किया..रामजन्म भूमि में उतरने का फैसला अकेले सिंघल ने ले लिया तो फिर पूरे संघ परिवार को पीछे चलने पर मजबूर कर दिया। राम मंदिर को लेकर उनका जुड़ाव बेहद भावुक था जिस पर उन्होंने कभी कोई समझौता मंजूर नहीं किया...यही वजह है कि वो एनडीए सरकार के वक्त पीएम अटल बिहारी वाजपेई और एलके आडवाणी के खिलाफ मोर्चा खोलने में भी उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया.......फिर वहा भरोसा टूटा लेकिन उम्मीद नहीं छोडी 2014 के चुनाव के पहले मोदी की पीएम उम्मीदवारी की मुहिम भी प्रयाग माघ मेले से सिंहल ने शुरु करवाई तो उनका सपना यही था कि मोदी सरदार पटेल की तरह सोमनाथ मंदिर की तरह अयोध्या में मंदिर निर्माण के लिए संसद में कानून लाकर सारे रोड़े खत्म करेंगे । लेकिन सपना यहा भी टूटा और शायद जीवन की डोर भी यही टूटी । सपना पूरा होने से पहले ही वो दुनिया छोड़कर चले गए।

Saturday, November 14, 2015

ना फंसें इसमें कि नेहरु हैं किसके?


दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में आज कांग्रेस नेहरु की 125 वी जयंती के अपने सालाना जलसे का पर्दा गिरायेगी जो उसने साल भर पहले 14 नवंबर को ही नेहरु की 125 जयंती की शुरुआत यह कहकर की थी कि धर्मनिरपेक्षता और नेहरुवाद का जश्न साल भर मनाया जायेगा । याद किजिये तो साल भर पहले नेहरु
की 125 वीं जयंती की शुरुआत करते वक्त काग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी को ही यह कहकर निमंत्रण नहीं दिया था कि समारोह में सिर्फ सेक्यूलर लोगों की बुलाया जाता है । यूं आज नेहरु जंयती का समापन दिल्ली के नेहरु पार्क में संगीत के साथ होगा । लेकिन साल भर पहले 125 वी जयंती के साथ ही जो सियासी संगीत नेहरु के पक्ष-विपक्ष को लेकर शुरु हुआ उसने बरस भर में इतनी कटुता नेहरु के नाम पर ही कांग्रेस और मोदी सरकार के रवैये से भर दी कि यह सवाल समाज के भीतर भी उठने लगे कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी नेहरु के खिलाफ क्यों हैं या फिर कांग्रेस ने नेहरु को अपनी संपत्ति क्यों बना ली है। इतिहास को अपने पक्ष में समेटने की होड इससे पहले कभी दिखायी नहीं दी । असर इसी का हुआ कि बरस भर के भीतर प्रधानमंत्री मोदी ने इसके संकेत दे दिये कि नेहरु से बेहतर तो सरदार पटेल होते अगर वह देश के पहले पीएम बना दिये जाते। तो क्या नेहरु कांग्रेस के है और पटेल बीजेपी के हो गये।

यानी यह सच हाशिये पर चला गया कि नेहरु हो या पटेल दोनो भारत के है । दोनों ने आजादी की लडाई में हिस्सा लिया । दोनों ने महात्मा गांधी को ही गुरु माना । लेकिन सियासी धार ही मौजूदा वक्त में इतनी पैनी हो चुकी है कि इतिहास को भी अपने अनुकुल करने या खारिज कर अपने अनुकुल करने वाले हालात लगातार पैदा हो चले है । और इस कडी में नेहरु म्यूजियम में भी बदलाव है। तीन मूर्ति लाइब्रेरी तक को नये तरीके से चमकाने की जरुरत लगने लगी है । स्टांप पेपर से नेहरु गायब हो चले है । झटके में श्यामाप्रासद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय उसी राष्ट्रीय फलक पर छाने लगे है जिस फलक पर नेहरु-पटेल का जिक्र कभी साथ साथ होता रहा। पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा गुजरात में बनाना प्रधानमंत्री मोदी के मिशन से जा जुडा। तो यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या इतिहास को भी आईना दिखा कर व्यवस्था को अपने अनुकुल बनाने वाले हालात देश में बन रहे है । या फिर आजादी के 68 बरस बाद पुनर्विचार की जरुरत आन पड़ी है कि आजादी और अब के हालात का मूल्यांकन होना चाहिये।

लेकिन मूल्यांकन के रास्ते ना तो काग्रेस बीजेपी के राजनीतिक टकराव को लेकर हो सकता है ना ही संघ परिवार या हिन्दुत्व के दायरे में । मूल्यांकन महात्मा गांधी के सपनो के जरीये हो सकता है । संविधान के निर्माताओं की
भावनाओं की कसौटी पर हो सकता है। संघीय ढांचे पर हो सकता है । राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श पर विकास की प्रगति को आंका जा सकता है । लेकिन इतिहास के पन्नो को खंगालने में मुश्किल तो काग्रेस के सामने भी आयेगी और बीजेपी के सामने भी क्योंकि दोनो अपने अपने दायरे में कटघरे में तो नजर आयेंगे ही । आजादी और विभाजन के वक्त राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की भूमिका और आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस की महात्मा गांधी को लेकर भूमिका कुछ ऐसे सवालों को जन्म तो देती ही है जिससे मौजूदा राजनीतिक हालात में दोनो बचना चाहेंगे।
याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे । उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति में बुलाया भी नहीं गया। जबकि उसी कार्यसमिति में कांग्रेस ने देश विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस ने स्वीकार किया था। महात्मा
गांधी मर्माहत हुये थे। वे मौन रहे । उनका मौन अधिक मुखर था । उससे संदेश निकला जिसे पूरे देश ने समझा कि कांग्रेस के लिये अब महात्मा गांधी अनजाने बन गए है। कांग्रेस सत्ता की राजनीति में लिप्त हो गई थी । उसने अपनी वैधता के लिये महात्मा गांधी का सहारा लिया। लेकिन महात्मा गांधी के रास्ते को भुला दिया । इससे सरदार पटेल भी आहत हुये । उन्होंने कई मौको पर महात्मा गांधी से मुलाकात कर अपना दुख भी बताया। और नेहरु मंत्रिमंडल छोडने की भी बात कही। और 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से पहले सरदार पटेल के साथ गांधी जी की बातचीत का वह सिरा जनसंघ से लेकर मौजूदा बीजेपी और आरएसएस बार बार पकड़ते ही महात्मा गांधी कांग्रेस को ही डिजाल्व कराने के पक्ष में थे । और ध्यान दीजिये तो बीजेपी इसी नब्ज
को पकड कर नेहरु के विरोध के पटेल के स्वर को इस हद तक ले जाने से नहीं कतराती जहां पटेल उसके हो जाये और नेहरु कांग्रेस के कहलाये ।

लेकिन इस सियासी संघर्ष में राज्यसत्ता ही भारत की उन तीन मान्यताओ को भूलने लगी है जो  र्म निरपेक्षता,राष्ट्रीय एकता और समानता पर टिकी है। आलम यह हो चला हा कि कि आजादी की लडाई के मूल्य ओझल हो चुके हैं। सामाजिक मान्यताएं विकृत हो रही है । उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार तेज हो रहा है । और
ईमानदार पहल की जगह सियासी बहस देश को ही उलझा रही है । याद किजिये जब जनंसघ के लोग जनता पार्टी में ये थे । वह नयी दिशा पकडना चाह रहे थे। लेकिन उन्हे पुराने रास्तो पर लौटाने के लिये उस वक्त मजबूर किया गया । और तब भी यह सवाल उठा था । या द किजिये संसद में दिये गये चन्द्रशेखर ने इस बयान पर खासा बवाल हुआ था जब अयोध्या का सवाल उठ रहा था तब चन्द्रशेखर ने ही कहा था कि बीजेपी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि संध परिवार का राजनीतिक संगठन है । सत्ता में आने के बाद बीजेपी की मान्यताओ का कोई अर्थ नहीं रहेगा । राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ की मान्यताएं प्रभुत्व प्राप्त करेगी । लेकिन नया सवाल तो यह है कि क्या संघ, काग्रेस या बीजेपी के जरीये नेहरु-पटेल और गांधी को अपने अपने कब्जे में करने की होड देश की जरुरत है या फिर सरकारो की विफलता में अब नयी सोच की जरुरत है । क्योंकि सवाल सिर्फ शिक्षा – स्वास्थ्य में विफलता भर का नहीं है । सवाल है कि मिश्रीत अर्थव्यवस्था का रास्ता हमने छोड दिया है । अर्थव्यवस्था फिर गुलाम मानसिकता की दिशा में बढकर भ्रम पैदा कर रही है । भ्रम इस बात का कि विदेशी कंपनिया हमारा विकास करने के लिये पूंजी लगायेगी । सच तो यह है कि विदेशी कंपनिया मुनाफा कमाने ही आयेगें । सारी दुनिया में यही हुआ है । तो फिर आर्थिक गुलामी की तरफ एकबार फिर कदम बढ रहे है तो सवाल किसी षंडयत्र का नहीं बल्कि नासमझी का है । एफडीआई से कितना रोजगार पैदा हुआ । कितने उघोग विदेशी हाथों में चले गये । खनिज संपदा की लूट किसने की । खेती क्यो चौपट होती जा रही है । किसान-मजदूरो की तादाद कम क्यो नहीं हो पा रही है । बीज, खाद, खुदरा व्यापार सबकुछ विदेशी कंपनियो के हाथ में क्यों जा रहा है । क्या कोई सरकार इसपर श्वेत पत्र ला सकती है । या ईमानदारी से बता सकती है कि जो रास्ता वह पकड रही है वह तत्काल की राहत या भटकाने वाले हालात से ज्यादा कुछ नहीं है । देश की अपार जनशक्ती को ही जब सरकारेंबोझ मानने लगे तो फिर रास्ता क्या है । जनशक्ती का उपयोग कैसे हो इसे महात्मा गांधी ने समझा । मौजूदा नेताओं ने लोगो को निजी लाभ हानि के घरौंदे में कैद कर लिया । समाज का आत्मबल नेताओ की चुनावी जीत हार पर जा टिका । सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढा दी गई । ऐसे में जो सरकारी तंत्र से जुडे वे मन से गांव या गरीबी से नहीं जुडे । आपसी सहयोग से समाज की ताकत का सर्थक उपयोगतबी संभव है जब सरकारी तंत्र नयी चुनौतियो के लिये दीक्षित हो और सत्ताधारी राजनेता जनशक्ती को वोट बैंक से बटकर देखे । हुआ उल्टा । जाति –मजहब के आधार पर समाज की चेतना भडकाई गई तो परिमाम भी खतरनाक निकलने लगे । विवाद-तनाव सियासी जरुरत बन गये । असहिष्णुता समाज से ज्यादा राजनेताओ का भाने लगा । और उस पूंजी के मुनाफे के भी अनुकुल हो गया जो एकतरफा विकास के जरीये उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिक बने । यानी रास्ता तो राष्ट्रीय अस्मिता जगा कर ही पैदा हो सकता है लेकिन रास्ता मजहब,जाति क्षेत्रियता सरीखे संकीर्ण मानसिकता को उभारने वाले बनने लगे । ग्रामीण भारत बेबसी और निरिह राष्ट्र की मानसिकता में जीने लगा तो शहरी और उपभोक्ताओं को गौरवमयी भारत दिकायी देने लगा । लेकिन दोनो मानसिकता
राष्ट्रीय अस्मिता का गौरव पाने से दूर है । इसलिये रास्ता नेहरु-पटेल है किसके और महातामा गांधी के सपनो का भारत होना कैसे चाहिये उस झगडे से हटकर अगर समाज का आत्मबल अपनी ही खनिज संपदा और अपनी ही श्रेष्ट मान्यताओं के आसरे नहीं खोजे गये तो हमारी कमजोरिया का लाभ उठाकर देश को बिखराव की
तरफ ले जाने की कोशिश तेज होगी इससे कार नहीं किया जा सकता ।

Monday, November 9, 2015

संघ परिवार में जाग रहा है सावरकर का हिन्दुत्व

सरसंघचालक का काम हिन्दू संगठन को मजबूत करना है लेकिन वह धर्म की लड़ाई में जा फंसे। प्रधानमंत्री मोदी समृद्ध भारत के लिये काम करना है लेकिन वह चुनावी जीत के लिये प्रांत-दर-प्रांत भटक रहे हैं। और अमित शाह को राजनीतिक तौर पर हेडगेवार के हिन्दुत्व को रखना है लेकिन वह सावरकर की लाइन पकड़े हुये हैं। तो बड़ा सवाल है कि इन्हे समझायेगा कौन और गलती कर कौन रहा है यह बतायेगा कौन । यह तीनों सवाल इसलिये क्योंकि सरसंघचालक को ही प्रधानमंत्री मोदी को समझाना था कि उन्हे भारत के लिये जनादेश मिला है। यानी मोदी को तो गोलवरकर की लीक एकचालक अनुवर्तिता की लाइन पर ही चलना है। राज्यों का काम तो संगठन के लोग करेंगे। लेकिन मोदी निकल पड़े इंदिरा गांधी बनने तो रास्ता डगमडाने लगा। और सरसंघचालक दशहरा की हर रैली में ही जब मोदी को देश-दुनिया का नायक ठहराने लगे तो उसके आगे कहे कौन। तो अगला सवाल सरसंघचालक मोहन भागवत का है जिनका काम हिन्दू समाज को संगठित करना ही रहा है लेकिन मौजूदा वक्त में वह खुद जगत गुरु की भूमिका में आ गये और राजनीतिक तौर पर भी त्रिकालवादी सत्य यह कहकर बोलने लगे कि जब आंबेडकर ने भी आरक्षण की उम्र 10 बरस के लिये रखी तो उसे दोहराने में गलत क्या। वही इस लकीर को धर्म के आसरे भी खिंचा गया। यानी जिस संघ की पहचान हेडगेवार के दौर से ही समाज के हर क्षेत्र में भागीदारी के साथ हिन्दू समाज को बनाने की सोच विकसित हुई। और यह कहकर हुई कि हिन्दुत्व धर्म नहीं बल्कि जिन्दगी जीने का तरीका है।

तो वहीं संघ हिन्दुत्व के भीतर धर्म के उस दायरे में जा फंसा, जहां सावरकरवाद की शुरुआत होती है। सावरकर ने 1923 में अपनी पुस्तक हिन्दुत्व में साफ लिखा कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी यानी दूसरे धर्म के लोग हिन्दू नहीं हो सकते। लेकिन 1925 में हेडगेवार ने हिन्दुत्व की इस परिभाषा को खारिज किया और हिन्दुत्व को धर्म से नहीं जोड़कर वे आफ लाइफ यानी जीने के तरीके से जोड़ा। लेकिन इसी दौर में संघ और बीजेपी के भीतर से हिन्दुत्व को लेकर जो सवाल उठे या उठ रहे हैं, वह संघ की सोच के उलट और सावरकरवाद के कितने नजदीक है, यह कई आधारों से समझा जा सकता है। मसलन योगी आदित्यनाथ, साक्षी महराज या फिर साध्वी प्राची का बोलना सिर्फ हिन्दुत्व को धर्म के आईने में समेटना भर नहीं है बल्कि सावरकर यानी हिन्दू महासभा की ही धर्म की लकीर को मौजूदा संघ परिवार और बीजेपी से जोड़ देना है। इस बारीकी को संघ परिवार के दिग्गज स्वयंसेवक भी जब नहीं समझ पा रहे है तो बीजेपी या स्वयंसेवक सियासतदान कैसे समझेंगे यह भी सवाल है। क्योंकि भैयाजी जोशी भी शिरडी के साई बाबा भगवान है या नहीं यह कहने के लिये कूद पड़ते हैं। और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से जब उनके करीबी ही यह सवाल करते है कि साक्षी महराज या योगी आदित्यनाथ जिस तरह के बयान देते है तो उनपर रोक लगनी चाहिये तो बीजेपी अध्यक्ष यह कहने से तो नहीं कतराते कि उन्हें यह बयान नहीं देने चाहिये । लेकिन फिर इस टिप्पणी से भी नहीं बच पाते कि उन्होने गलत क्या कहा है। तो क्या बीजेपी अध्यक्ष भी सावरकरवादी है। यह सारे सवाल इसलिये क्योकि झटके में संघ सरकार और बीजेपी के भीतर ही कमान संभाले स्वयंसेवक संगठन संभालने के बदले विद्दान बनने की होड़ में है। यानी उस धारा को पकड़ना चाह रहे हैं, जहां विद्वानों की तर्ज पर ही मत विभाजन हो । असर इसका भी है कि जनादेश से चुनी गई देश की सत्ता को लेकर ही विद्वानों में मत विभाजन के हालात बनने लगे हैं। जाहिर है ऐसे में बिहार चुनाव में हार का सिरा पकड़े कौन और पूंछ छोडे कौन इसलिये मंथन दिलचस्प है। क्योंकि उठते सवाल-जवाब हर अनकही कहानी को कह रहे हैं।

मसलन चुनाव बीजेपी ने लडा लेकिन हार के लिये संघ जिम्मेदार है। पांच सितारा होटल से लेकर उडानखटोले में ही बीजेपी का चुनाव प्रचार सिमटा। लेकिन संघ के एजेंडे ने ही बंटाधार कर दिया । टिकट बांटने से लेकर सबकुछ लुटाते हुये सत्ता की व्यूह रचना बीजेपी ने की। लेकिन हिन्दुत्व का नाम लेकर संघ के चहेतों ने जीत की बिसात उलट दी । कुछ ऐसी ही सोच संघ के साथ बैठकों के दौर में बीजेपी के वही कद्दावर रख रहे है और संघ को समझा रहे हैं कि बिहार की जमीन राजनीतिक तौर पर बहुत ही उर्वर है उसमें हाथ बीजेपी के इसलिये जले क्योकि संघ की सक्रियता को ही मुद्दा बना दिया गया । बिसात ऐसी बिछायी जा रही है जहा बिहार के सांसद हुक्मदेवनारायण यादव सरसंघचालक पर आरक्षण बयान को लेकर निशाना साधे और कभी ठेगडी के साथ स्वदेशी जागरण मंच संबालने वाले मुरलीधर राव बडबोल सांसदों को पार्टी से ही निकालने की बात कह दें। यानी पहली लकीर यही खिंच रही है कि जो दिल्ली से बिहार की बिसात सियासी ताकत, पैसे की ताकत , जोडतोड और सोशल इंजीनियरिंग का मंडल चेहरा लेकर जीत के लिये निकले उन्ही की हार हो गई तो ठिकरा संघ के मत्थे मढ़कर अपनी सत्ता बरकरार रखी जाये। और संघ की मुश्किल है कि आखिर बीजेपी है तो उन्ही का राजनीतिक संगठन। उसमें सत्तानशीं तो स्वयंसेवक ही है। तो सत्ता पलटकर नये स्वयंसेवकों को कमान दे दी जाये या फिर सत्ता संभाले स्वयंसेवकों का ही शुद्दीकरण किया जाये। और सत्तानशीं स्वयसेवकों को लगने लगा है कि शुरद्दीकरण का मतलब खुदे को झुकाना नहीं बल्कि खुद के अनुकूल हालात को बनाना है। यानी बिहार की बीजेपी यूनिट बदल दी जाये जो आडवाणी युग से चली आ रही थी। उन बडबोले सांसदों और समझदार नेताओं को खामोश कर दिया जाये जो सच का बखान खुले तौर पर करने लगे है। और संघ परिवार को भी समझाया जाये कि स्वयंसेवक की राजनीति का पाठ संघ से नहीं सत्ता से निकलता है। तो कल तक स्वदेशी की बात करने वाले मुरलीधर राव अब सांसद शत्रुघ्न और आर के सिंह को निकालने का खुला जिक्र करने लगे हैं। कल तक संघ के देसीकरण का जिक्र करने वाले राम माधव अब सत्ता की तिकडमो के अनुकूल खुद को बनाने में जुटे हैं।

यानी एक तरफ बीजेपी के भीतर सत्ता बचाने की महीन राजनीति है जो स्वयंसेवकों को ही ढाल बनाकर समझदारों पर वार कर रही है तो दूसरी तरफ सत्ता के खिलाफ खुलेआम विरोध के स्वर जो पार्टी बचाने के लिये राजनीति का ककहरा कहना चाह रहे हैं जिसे संघ के मुखिया समझ नहीं पा रहे हैं। क्योंकि उनके लिये बिहार की हार विचारधारा की हार है और बीजेपी के सत्तानशीं बिहार को सिर्फ एक राज्य की हार के तौर पर ही देखना-दिखाना चाहते है। तो सवाल है होगा क्या । और कुछ नहीं होगा तो वजहे क्या बतायी जायेंगी। त्रासदी यह नहीं है कि शत्रुघ्न को कुत्ता ठहरा दिया गया। या फिर आर के सिंह, अरुण शौरी या चंदन मित्रा को आने वाले वक्त में क्या कहा जायेगा या इनका क्या किया जायेगा। सवाल है कि जो सवाल बीजेपी अध्यक्ष को लेकर उठाया गया है उसे संघ परिवार के भीतर देखा कैसे जा रहा है और परखा कैसे जा रहा है। यानी अमित शाह को दोबारा अधयक्ष अगर ना बनाया जाये। यानी दिसंबर के बाद उनका बोरिया बिस्तर अधयक्ष पद से बंध जाये तो सवाल उठ रहे है कि अमितशाह को हटाया गया तो उन्हे रखा कहां जाये। यह सवाल संघ परिवार ही नहीं बीजेपी और मोदी सरकार के भीतर भी यक्ष प्रशण से कम नहीं है । क्योकि अमित शाह सरकार और बीजेपी में नंबर दो है । जैसे नरेन्द्र मोदी सरकार और बीजेपी में भी नंबर एक है । और नंबर एक दो के बीच का तालमेल इतना गहरा है कि कि इसका तीसरा कोण किसी नेता से नहीं बल्कि गुजरात से जुडता है । यानी केन्द्र सरकार, बीजेपी और गुजरात का त्रिकोण संघ परिवार तक के लिये सत्ता का कटघरा बन चुका है । संघ के भीतर यह सवाल है कि सरकार और पार्टी दोनों गुजरातियों के हाथ में नहीं होनी चाहिये । किसी ब्राहमण को नया अधयक्ष बनना चाहिये। उत्तर भारत के सामाजिक-राजनीतिक सरोकार वाले शख्स को अध्यक्ष बनना चाहिये। तो पहले सवाल का जबाब ही किसी को नहीं मिल पा रहा है। क्योंकि अमित शाह को गुजरात सीएम बनाकर भेजा नहीं जा सकता । क्योंकि वहां पटेल आंदोलन चल रहा है और आनंदी बेन पटेल को हटाने का मतलब है आंदोलन की आग में घी डालना। अमित शाह को सरकार में लेकर पार्टी किसी तीसरे के भरोसे नरेन्द्र मोदी छोड़ना नहीं चाहेंगे। और नरेन्द्र मोदी को नाराज सरसंघचालक करना नहीं चाहेंगे। तो फिर वही सवाल कि होगा क्या। पांचजन्य के संपादक हितेश शंकर की आलोचना की जा सकती है। भगवाधारी सांसदों और नेताओ के बयानो की आलोचना हो सकती है । संघ, सरकार और बीजेपी में तालमेल नहीं है यह सवाल उठाया जा सकता है । लेकिन अगर यह मान लिया जाये कि आखिरकार संघ ही रास्ता दिखाता है तो मानना पडेगा पहली बार संघ ही भटका है।

Sunday, November 8, 2015

राजनीति का ककहरा सिखा दिया बिहार के जनादेश ने

बीजेपी का यह भ्रम भी टूट गया कि कि बिना उसे नीतीश कुमार जीत नहीं सकते हैं। और नीतिश कुमार की यह विचारधारा भी जीत गई कि नरेन्द्र मोदी के साथ खड़े होने पर उनकी सियासत ही धीरे धीरे खत्म हो जाती। तो क्या बिहार के वोटरों ने पहली बार चुनावी राजनीति में उस मिथ को तोड़ दिया है, जहां विचारधारा पर टिकी राजनीति खत्म हो रही है। यह सवाल इसलिये क्योंकि जो सवाल नीतीश कुमार ने बीजेपी से अलग होते वक्त उठाये और जो सवाल बीजेपी शुरु से उठाती रही कि पहली बार नीतीश को बिहार का सीएम भी बीजेपी ने ही बनाया। तो झटके में जनादेश ने कई सवालो का जबाब भी दिया और इस दिशा में सोचने के लिये मजबूर कर दिया कि देश से बड़ा ना कोई राजनीतिक दल होता है। ना ही कोई राजनेता और ना ही वह मुद्दे जो भावनाओं को छूते हैं लेकिन ना पेट भर पाते है और ना ही समाज में सरोकार पैदा कर पाते हैं। यानी गाय की पूंछ पकड कर चुनावी नैया किनारे लग नहीं सकती। समाज की हकीकत पिछड़ापन और उसपर टिके आरक्षण को संघ के सामाजिक शुद्दिकरण से घोया नहीं जा सकता। जंगल राज को खारिज करने के लिये देश में हिन्दुत्व की बेखौफ सोच को देश पर लादा नहीं जा सकता। यानी पहली बार 2015 का बिहार जनादेश 2014 के उस जनादेश को चुनौती देते हुये लगने लगा जिसने अपने आप में डेढ़ बरस पहले इतिहास रचा। और मोदी पूर्ण बहुमत के साथ पीएम बने । तो सवाल अब चार हैं। पहला क्या प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को चुनावी जीत की मशीन मान लिया था। दूसरा क्या नीतीश कुमार ने दोबारा विचारधारा की राजनीति की शुरुआत की है और तीसरा क्या लालू यादव आईसीयू से निकल कर दिल्ली के राजनीतिक शून्यता को भरने के केन्द्र में आ खड़ा हुये हैं। और चौथा क्या कांग्रेस बिहार की जमीन से दोबारा खुद को दिल्ली में खड़ा कर लेगी। जाहिर है यह चारों हालात उम्मीद और आशंका के बीच हैं। क्योंकि बिहार के जनादेश ने 2014 में खारिज हो चुके नेताओं को दुबारा केन्द्रीय राजनीति के बीच ना सिर्फ ला खड़ा किया बल्कि मोदी सरकार के सामने यह चुनौती भी रख दी कि अगर अगले एक बरस में उसने विकास का कोई वैकल्पिक ब्लू प्रिंट देश के सामने नहीं रखा तो फिर 2019 तक देश में एक तीसरी धारा निकल सकती है। क्योंकि डेढ बरस के भीतर ही बिहार के आसरे वही पारंपरिक नेता ना सिर्फ एकजुट हो रहे है बल्कि उन नेताओं को भी आक्सीजन मिल गया, जिनका जिन टप्पर 2014 के लोकसभा चुनाव में उड़ गया था।

हालात कैसे बदले, यह भी सियसत का नायाब ककहरा है। जो राहुल गांधी लालू के मंडल गेम से बचना चाह रहे थे। जो केजरीवाल लालू के भ्रष्टाचार के दाग से बचना चाह रहे थे। सभी को झटके में लालू में अगर कई खासियत नजर आ रही है तो संकेत जनादेश के ही हैं। क्योंकि मोदी सरकार के खिलाफ लड़ा कैसे जाये इसके उपाय हर कोई खोज रहा है। आज जिस तरह राहुल , केजरीवाल ही नहीं ममता बनर्जी और नवीन पटनायक से लेकर देवेगौड़ा को भी बिहार के जनादेश में अपनी सियासत नजर आने लगी तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र में जो शिवसेना बिहारियो को ही मुंबई से भगाने पर आमादा रही उसने भी बिहार जनादेश के जरीये अपनी सियासत साधने में कोई कोताही नही बरती। और बीजेपी को सीधी सीख दी तो मोदी और अमित शाह की जोड़ी को भी सियासी ककहरा यह कहकर पढ़ा दिया कि अगर महाराष्ट्र में आज ही चुनाव हो जाये तो बिहार सरीखा हाल बीजेपी का होगा। यानी बिहार के जनादेश ने देश के भीतर उन सवालों को सतह पर ला दिया जिसके केन्द्र में और कोई नहीं प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह है। तो सवाल यही है कि क्या अब बीजेपी के भीतर अमित शाह को मुश्किल होने वाली है और प्रदानमंत्री मोदी को सरकार चलाने में मुश्किल आने वाली है। क्योंकि राज्यसभा में 2017 तक बीजेपी बहुमत में आ सकती है यह अब संभव नहीं है। असहिष्णुता और सम्मान लौटाने का मुद्दा बिहार के बिगडे सामाजिक आर्थिक हालात को पीछे ढकेल चुका है। और देश के सवालों को जनादेश रास्ता दिखायेगा यह बहस तेज हो चुकी है।

यानी सिर्फ बीजेपी या मोदी सरकार की हार नहीं बल्कि संघ परिवार की विचारदारा की भी हार है यह सवाल चाहे अनचाहे निकल पड़े हैं। क्योंकि संघ परिवार की छांव तले हिन्दुत्व की अपनी अपनी परिभाषा गढ कर सांसद से लेकर स्वयंसेवक तक के बेखौफ बोल डराने से नहीं चूक रहे हैं। खुद पीएम को स्वयंसेवक होने पर गर्व है। तो बिहार जनादेश का नया सवाल यही है कि बिहार के बाद असम, बंगाल, केरल , उडीसा, पंजाब और यूपी के चुनाव तक या तो संघ की राजनीतिक सक्रियता थमेगी या सरकार से अलग दिखेगी। या फिर जिस तरह बिहार चुनाव में आरक्षण और गोवध के सवाल ने संघ की किरकिरी की। वैसे ही मोदी के विकास मंत्र से भी सेंध के स्वदेशी सोच के स्वाहा होने पर सवाल उठने लगेंगे। तो तीन फैसले संघ परिवार को लेने है। पहला, मोदी पीएम दिखे स्वयंसेवक नहीं । दूसरा नया अधय्क्ष [ दिसबंर में अमित शाह का टर्म पूरा हो रहा है ] उत्तर-पूर्वी राज्यों के सामाजिक सरोकारो को समझने वाला है। और तीसरा संघ के एजेंडे सरकारी नीतियां ना बन जायें। नहीं तो जिस जनादेश ने लालू यादव को राजनीतिक आईसीयू से निकालकर राजनीति के केन्द्र में ला दिया वहीं लालू बनारस से दिल्ली तक की यात्रा में मोदी सरकार के लिये गड्डा तो खोदना शुरु कर ही देंगे।

Saturday, November 7, 2015

करियर के पहले संपादक ने सिखाया , “पत्रकारिता जीने का तरीका है”


मौजूदा दौर में पत्रकारिता करते हुये पच्चीस-छब्बीस बरस पहले की पत्रकारिता में झांकना और अपने ही शुरुआती करियर के दौर को समझना शायद एक बेहद कठिन कार्य से ज्यादा त्रासदियों से गुजरना भी है। क्योंकि 1988-89 के दौर में राजनीति पहली बार सामाजिक-आर्थिक दायरे को अपने अनुकूल करने के उस हालात से गुजर रही थी और पत्रकारिता ठिठक कर उन हालातों को देख-समझ रही थी , जिसे इससे पहले देश ने देखा नहीं था । भ्रष्टाचार के कटघरे में राजीव गांधी खड़े थे । भ्रष्टाचार के मुद्दे के आसरे सत्ता संभालने वाले वीपी सिंह मंडल कमीशन की थ्योरी लेकर निकल पड़े और सियासत में साथ खड़ी बीजेपी ने कमंडल थाम कर अयोध्या कांड की बिसात बिछानी शुरु कर दी । और इसी दौर में नागपुर से हिन्दी अखबार लोकमत समाचार के प्रकाशन लोकमत समूह ने शुरु किया । जिसका वर्चस्व मराठी पाठकों में था । और संयोग से छब्बीस बरस पहले भी मेरे जहन में नागपुर की तस्वीर तीन कारणों से बनी थी । पहली , संघ का हेडक्वार्टर नागपुर में था । दूसरा बाबा साहेब आंबेडकर के सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग की जमीन नागपुर थी और तीसरा आंध्रप्रदेश से निकलकर महाराष्ट्र के विदर्भ में नक्सलवाद की आहट पीपुल्सवार ग्रुप के जरीये सुनायी दे रही थी । तीनो हालात वक्त के साथ कही ज्यादा तीखे सवाल समाज को भेदेंगे। यह मेरे जहन में दिल्ली से नागपुर के लिये निकलते वक्त भी था । लेकिन उस वक्त एक सवाल जहन में जरुर था कि दिल्ली की पढाई बीच में छोड़कर अगर नागपुर में लोकसमत समाचार से जुड़ने जा रहा हूं तो फिर उस अखबार का संपादक खासा मायने रखेगा । क्योंकि संपादक की समझ का दायरा आने वाले वक्त को किस रुप में देखता समझता है और कैसे हर दिन की रिपोर्टिग को एक बडे कैनवास में समझ पाता है । यह कितना जरुरी है यह ट्रेनिंग तो पटना-दिल्ली की खाक छानते हुये पढ़ाई के दौर में ही हो चली थी । इसलिये नागपुर में लोकमत समाचार से जुड़ते ही पहली नजर संपादक की तरफ गई । एस एन विनोद । कमाल है यह तो संपादक नहीं लगते । मेरी पहली प्रतिक्रया नागपुर से दिल्ली लौटने के बाद अपने दोस्तों के बीच यही थी । कि कोई संपादक किसी रिपोर्टर की तरह खबरों को लेकर किस तरह बैचेन हो सकता है यह मेरे लिये नया था। क्योंकि संपादक को विचार-विमर्श के दायरे में चिंतनशील ही ज्यादा माना गया या कहे बनाया गया या फिर मेरे जहन में यही तस्वीर थी । और किसी रिपोर्टर की तरह संपादक के तेवर से दो दो हाथ करने की असल शुरुआत भी नागपुर से ही हुई । जो दिखायी दे रहा है । दिखायी देने के बाद जो सवाल आपके जहन में है । उन्हीं सवालो को पन्नों पर उकेरना सबसे कठिन काम होता है। और अगर वह सवाल रिपोर्ट की तर्ज पर छापे जायें तो कहीं ज्यादा मुश्किल होता है लिख पाना।

यही तभी संभव है जब आपके सरोकार लोगों से हों। लगातार समाज में जो घट रही है उससे आप कितने रुबरु हो रहे हैं। कोई जरुरी नहीं है कि किसी घटना के घटने के बाद ही घटना पर रिपोर्ट करने के वक्त आप वहा जाकर घटना की बारीकियों को समझें। और उसके बाद लिखें। अगर आप रोज ही लोगों से मिल रहे हैं या कहें आप पत्रकारिता को जीवन ही मान चुके हैं तो फिर आपका दिमाग हर वक्त पत्रकार को ही जीयेगा। और जब कोई घटना होगी उसको कितने बडे कैनवास में आप कैसे रख सकते हैं या फिर आपकी रिपोर्ट ही घटना स्थल पर जायजा लेने ना जा पाने के बावजूद बेहतरीन होगी । क्योंकि हालात को कागजों पर उभारते वक्त आप रिपोर्टर नहीं होते बल्कि अक्सर घटना को महसूस करने वाले एक आम व्यक्ति हो जाते हैं । पत्रकारिता की यह ऐसी ट्रेनिंग थी जो अखबार यानी लोकमत समाचार निकलने से पहले या कहें निकालने की तैयारी के दौर संपादक एसएन विनोद के साथ रहते हुये सामान्य सी बातचीत में निकलती चली गई । और मेरे जैसे शख्स के लिये पत्रकारिता जीने का तरीका बनती चली गई । लोकमत समाचार का प्रकाशन तो 14 जनवरी 1989 से शुरु हुआ लेकिन पटना-दिल्ली से निकल कर नागपुर जैसे नये शहर को समझने के लिये अक्टूबर 1988 से ही सभी ने नागपुर में डेरा जमा लिया था । खुद संपादक ही अपनी कार से अगर शहर घुमाने-बताने निकल पड़े तो संवाद बनाने और संपादक को दोस्त की तरह देखने-समझने में देर नहीं लगती। कई बार यह भूल भी साबित होती है लेकिन संपादक के हाथ अगर अखबारों के मालिक मजबूत किये रहते हैं तो फिर संपादक भी कैसे नये नये प्रयोग करने की दिशा में बढ सकता है यह मैंने बाखूबी एसएन विनोद के साथ करीब पांच बरस काम कर जान लिया । क्योंकि संघ हेडक्वार्टर में सरसंघचालक देवरस के साथ बैठना-मुलाकात करना । कई मुद्दों पर चर्चा करना । दलितों के भीतर के आक्रोश को अपनी पत्रकारीय कलम में आग लगाने जैसे अनुभव को सहेजना । दलित युवाओ की टोली के दलित रंगभूमि के निर्माण को उनके बीच बैठकर बारीकी से समझना । और नक्सलियों के बीच जाकर उनके हालातों को समझने का प्रयास । सबकुछ नागपुर में कदम रखते ही शुरु हुआ । हो सकता है कोई दूसरा संपादक होता तो रोकता । शायद अपनी सोच को लादकर रास्ता बताने का भी प्रयास करता । लेकिन एसएन विनोद ने ना रोका । ना बताया । सिर्फ सुना । और जो मैंने लिखा उसे छापा । कमाल के तेवर थे उस दौर में । आडवाणी की रथयात्रा नागपुर से गुजरे तो संघ हेडक्वार्टर की हलचल । और बाबरी मस्जिद ठहाने के बाद नागपुर के मुस्लिम बहुल इलाके मोमिनपुरा में पुलिस गोलीबारी में 13 लडकों की मौत । रिपोर्टिंग का सिरा कैसे सामाजिक तानेबाने को गूंथते हुये राजनीतिक हालातों को पाठकों के सामने रख सकता है यह एसएन विनोद की संपादकीय की खासियत थी । शंकरगुहा नियोगी की हत्या के बाद खुद ब खुद ही रायपुर और दिल्ली-राजहरा की कादोने के चक्कर लगाकर लौटा तो एनएन विनोद ने सिर्फ इतना ही कहा कि पूरा एक पन्ना नियोगी पर निकालो । जो भी देख कर आये कागज पर लिखो । और मेरे सीनियर को यही हिदायत दी कि व्यारकण ठीक कर देना । विचार नहीं । और जब पूरा पेज शंकरगुहा नियोगी पर निकला और उसे मैंने जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी को भेजा तो दिल्ली में मुलाकात के वक्त उन्होंने इतना ही कहा । हमारे लिये भी ऐसे मौकों पर लिख दिया करो । हौसला बढ़ा तो उसके बाद दिल्ली के अखबार को ध्यान
में रखकर भी लिखना और मुद्दों को समझना शुरु किया ।

नक्सलवाद शब्द पत्रकारिता में सनसनाहट पैदा करता है, यह मुझे तब भी लगा और आज भी लगता है । लेकिन मैंने नक्सलवाद के मद्देनजर जब विदर्भ के आदिवासियों के हालात को समझना शुरु किया तो जो तथ्य उभरे उसने पहली बार राज्य के आतंक और नक्सलवाद को ढाल बनाकर कैसे योजनाओं के नाम पर करोड़ों के वारे न्यारे होते है उसके मर्म को पकड़ा । टाडा जैसे कठोर आतंकी कानून के दायरे में कैसे 8 बरस से लेकर 80 बरस का आदिवासी फंसाया गया । इसकी रिपोर्टिंग की तो बिना किसी लाग-लपेट उसे जगह दी गई । और एसएन विनोद ने मुझे उकसाया भी कि इसके बडे फलक को पकड़ो । जरुरी नहीं कि पत्रकारिता नागपुर में कर रहे हो तो नागपुर के अखबार में ही छपे । फलक बड़ा होगा तो मुंबई-दिल्ली के अखबार में भी जगह मिलेगी । और हुआ भी यही । 30 जुलाई 1991 में वर्धा नदी से आई बाढ़ में नागपुर जिले का मोवाड डूब गया । फिर लातूर में भूकंप आया ।  फिर चन्द्रपुर-गढचिरोली में नक्सली हिसा में मरने वालो की तादाद बढ़ने लगी । पहली बार नागपुर में सिर्फ नक्सल मामलों के लिये कमीश्नर पद के पुलिस अफसर को नियुक्त किया गया । यानी घटनाओं को कवर करने का एक तरीका और घटना से प्रभावित सामाजिक-आर्थिक हालातो को समझने-समझाने की अलग रिपोर्टिंग । यह बिलकुल अलग नजरिया रिपोर्टिंग का था जिसे संपादक एसएन विनोद ने उभारा । यानी सिर्फ घूमने के तौर पर घटना स्थल पर घटना घटने के दिन-चार दिन बाद जाईये और समझने की कोशिश किजिये कि जमीनी हालात है क्या । लोगो के जीने के सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में कितना अंतर आया है । जो महसूस किजिये उसे पन्ने पर उकेर दिजिये । हर वक्त खबरो में जीने की तड़प । अखबार के
ले-आउट से लेकर न्यूज प्रिंट की कीमत तक पर चर्चा । सामाजिक तौर पर बतौर संपादक से ज्यादा एक आम शख्स के तौर पर शहर की हर सरगर्मी में शरीक । चाहे वह साहित्य की गोष्ठी हो या रईसो की चुलबुलाहट । या फिर राजनेताओं की गली-पॉलिटिक्स । यानी संपादक ही हर जगह मौजूद रहना चाहे तो रिपोर्टर को मुश्किल होती है । लेकिन रिश्ता अगर रिपोर्टर के लिये संपादक की गाड़ी में सफर करने के मौके से लेकर संपादक को अपने नजरिये से समझाने का हो जाये तो फिर रिपोर्ट के छपने से लेकर संपादक के कैनवास से भी रुबरु होने का मौका मिलता है। दरअसल पत्रकारिता कुछ इस लहजे में होने लगे जो आपको जीने का एहसास भी कराये और मानसिक तौर पर आराम भी दें तो फिर कैसे चौबिसो घंटे और तीन सौ पैसठ दिन काम करते हुये भी छुट्टी उसी दिन महसूस होती है जब कोई बडी रिपोर्ट फाइल हो । शायद वह एसएन विनोद की शुरुआती ट्रेनिंग ही रही जिसके बाद आजतक मैंने पत्रकारिता की लेकिन नौकरी नहीं की और पत्रकारिता से छुट्टी पर कभी नहीं रहा।  क्योंकि पत्रकारिता जीने का तरीका है यह पाठ एसएन विनोद ने ही सिखाया ।

Monday, November 2, 2015

चुने और गैर चुने लोगों के बीच छलनी होता लोकतंत्र

यह सच है कि मौजूदा वक्त में जैसे जैसे सम्मान लौटाने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है और असहिष्णु होते सामाजिक वातावरण को लेकर राष्ट्रपति से लेकर आरबीआई गवर्नर तक ने चिंता व्यक्त की है, उससे यह सवाल तो उठने ही लगे हैं कि आखिर अंत होगा क्या। क्या दुनिया भर में विकास की जिस थ्योरी को मोदी
सरकार परोस रही है, उसमें फिसलन आ जायेगी । जैसा मूडीज ने संकेत देकर कहा । या फिर देश के भीतर राजनीतिक शून्यता कहीं तेजी से उभरेगी। जैसा कांग्रेस के लगातार कमजोर होने से उभर रहा है। या फिर संघ परिवार कहीं ज्यादा तेजी के साथ उभरने का प्रयास करेगा, जिसके लिये हर हथियार सरकार ही मुहैया करायेगी। जैसा पीएम के बार बार रोकने के बावजूद कट्टर हिन्दुत्व के डराने वाले बोल बोले जा रहे हैं। वाकई मौजूदा हालातों की दिशा हो क्या सकती है इसके सिर्फ कयास ही लगाये जा सकते हैं। जो मोदी विरोधियों को खतरनाक दिखायी देगी तो मोदी समर्थको या कहें स्वयंसेवकों की टोली को सामाजिक शुद्दीकरण की तरह लगेगी। खतरनाक इसलिये क्योंकि पहली बार सवाल यह नहीं है कि हालात पहले भी बदतर हुये हैं तो इस बार के बिगड़े हालात को लेकर चिंता क्यों। बल्कि खतरनाक इसलिये क्योंकि राजनीतिक सत्ता को ही राष्ट्रवाद से जोड़ा जा रहा है। यानी एक तरफ यह संकेत जा रहा है, आप सरकार के साथ नहीं है तो आप देश के विकास के साथ नहीं है दूसरी तरफ राजनीतिक सत्ता यह मान कर चल रही है कि संसदीय लोकतंत्र का मतलब ही राजनीतिक सत्ता का पांच बरस के लिये निरकुंश होना है। तो सत्ता के खिलाफ गुहार किससे की जाये यह भी सवाल है। वहीं स्वयंसेवकों के जहन में यह सवाल है कि जब संविधान के तहत संसद ही आखिरी सत्ता देश में है जिसके पास अपरंपार अधिकार है तो फिर वोट देने वाले नागरिकों ने संघ परिवार की विचारधारा को मान्यता दे दी है। तो अब सवाल सिर्फ संघ की विचारधारा को देश में लागू कराने का है। जिसमें नौकरशाही से लेकर पुलिस और संवैधानिक संस्था से लेकर गली-मोहल्लों के वह संगठन भी सहायक होंगे जो हिन्दुत्व के आइने में राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को देखते हो। यानी जिसने विरोध किया वह राष्ट्रहित के खिलाफ है। और जिसने समर्थन किया उसे हिन्दुत्व की समझ है।

फिर किसी भी हालात को लागू कराने की भूमिका सबसे बड़ी पुलिस की हो जाती है और दिल्ली जैसी जगह में अगर हिन्दू सेना के एक व्यक्ति की शिकायत पर दिल्ली पुलिस केरल हाउस में घुसकर कानूनन नागरिकों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करती है और बाद में सॉरी कहकर बचना चाहती है तो कुछ नये सवाल तो
मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से टकरा रहे हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। चूंकि टकराव या मत-भिन्नता की समझ देश में सत्ता परिवर्तन के साथ ही पैदा हुई है । तो यह सवाल भी स्वयंसेवकों में उठना जायज है कि सत्ता परिवर्तन सिर्फ सरकार का बदलना भर नहीं है बल्कि विचारधारा में भी बदलाव है तो विरोध समाज के उस अल्पसंख्यक समुदाय की तरफ से हो रहा है जिनके हाथ से सत्ता निकल गई। और सत्ता रहने के दौरान सत्ता के दरबारियों को जो मलाई मिल रही थी वह बंद हो गई तो उन्होने ही विरोध के स्वर तीखे और तेज कर दिये। तो सवाल तीन है । पहला क्या 2014 में राजनीतिक सत्ता में बदलाव विचारधारा के मद्देनजर हुआ। दूसरा , जब बीजेपी के चुनावी मैनिफेस्टो में विचारधारा का जिक्र तक नहीं किया गया तो फिर मोदी के पीएम बनते ही विचारधारा से जुड़े सवाल सरकार चलाने के दौर में विकास सरीखे मुद्दों पर हावी क्यों हो गये। और तीसरा क्या 2014 के जनादेश ने राजनीतिक सत्ता को इतनी ताकत दे दी कि देश में समूचा संघर्ष ही राजनीतिक सत्ता को पाने से जुड़ चुका है । बहस तीसरे सवाल से ही शुरु करें तो 2014 लोकसभा चुनाव के बाद लगातार महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भी सत्ता परिवर्तन की 2014 की ही मोदी लहर को और हवा मिली। इसलिये शुरुआती बहस ने मोदी सरकार को ही यह ताकत दे दी कि वह चकाचौंध के विकास से लेकर न्यूनतम जरुरतों को पूरा करने के सवाल पर जैसे चाहे वैसे पहल करें। क्योंकि हर राजनीतिक दल इस दौर में कमजोर होता दिखा। कांग्रेस ढही तो तीसरे मोर्चे के नेता पारपरिक राजनीति करते दिखायी दिये जो जाति-धर्म पर सिमटी थी। यानी 2014 का जनादेश चाहे-अनचाहे देश के बहुसंख्यक तबके के उस सपना से जा जुडा, जहां भ्रष्टाचार खत्म होना था । सामाजिक असमानता दूर होनी थी । चंद राजनीतिक हथेलियों पर सिमटे भारत को ताकतवर कारपोरेट के हाथों से निकलना था। चापलूसी और मुस्लिम तुष्टीकरण को खारिज कर सबका साथ सबका विकास करना था।

ध्यान दें तो सत्ता के बदलाव में परिवर्तन की एक ऐसी लहर किसी सपने की तरह हर जहन में घुमड़ने लगी। बदलाव के इसी सपने में नया ताना-बाना दिल्ली चुनाव में केजरीवाल को लेकर जनता ने ही बुना। केजरीवाल राजनीति करने के तौर तरीको को बदल सकते है। यह सोच भी पैदा हुई । यानी एक तरफ मुश्किल हालातो से निकलने की जद्दोजहद तो दूसरी तरफ राजनीति करने के तौर तरीको में ही बदलाव की ईमानदार शुरुआत। लेकिन दोनों हालात पर संसदीय लोकतंत्र की चुनावी जीत की उलझन कितना मायने रखती है, यह हर स्तर पर नजर आया। केजरीवाल राजनीतिक सुधार की जगह गवर्नेंस के नाम पर उलझे।


क्योंकि वोटरों की जरुरतों को पूरा करना ही उन्ही सत्ता में बनाये रख सकती है। यह सोच हावी हुई । तो नरेन्द्र मोदी भी चुनावी जीत के लिये अपनाये जाने वाले हर हथियार पर ही आश्रित होते चले गये। क्योंकि चुनावी जीत उसी जनता के बहुसंख्यक हिस्से की मुहर होती है जिस जनता के सामने मोदी सरकार को लेकर सवाल है। वजह भी यही है कि सम्मान लौटाना सही है या नहीं। सम्मान लौटाने वाले वाकई कांग्रेसी-वामपंथी सोच के दरबारी है या नहीं। असहिष्णुता का सवाल लेखकों, साहित्यकारो, फिल्मकारो, इतिहासकारो या वैज्ञानिको की एक जमात ने पैदा कर प्रधानमंत्री के खिलाफ ही असहिष्णुता दिखायी है या वाकई प्रधानमंत्री मोदी के दौर में असहिष्णुता का सवाल बहुसंख्यक नागरिकों को डरा रहा है । ध्यान दें तो बेहद बारिकी से बिहार चुनाव के जनादेश के इंतजार में सम्मान लौटाने या असहिष्णु होते समाज के सही - गलत को परखने के लिये रख दिया गया है । हो सकता है बिहार में बीजेपी चुनाव जीत जाये तो संघ परिवार के पंखों को देश में और विस्तार मिलेगा। स्वयंसेवको में हिम्मत आयेगी । मोदी सरकार अपने उपर लगाये जाते आरोपो को ही गुनहगार ठहरा देगी। लेकिन बीजेपी हार गयी तो क्या सम्मान लौटाना सही मान लिया जायेगा। या फिर असहिष्णुता का सवाल थम जायेगा। मोदी सरकार या संघ की उडान रुक जायेगी। जाहिर है जनादेश कुछ भी हो सिवाय राजनीतिक सत्ता की जीत के अलावे कुछ होगा नहीं। बिहार के भीतर की एक बुराई को दूसरी बुराई ने ढंक लिया। तो यह बिहार को तय करना है कि उसे कौन सी बुराई कम लगती है। लेकिन चुनावी तौर तरीको से सत्ता पाना ही जब बुराई के हाथो में राजनीतिक सत्ता देना हो तो जनता करे क्या। और राजनीतिक सत्ता ही संविधान की मर्यादा तोडने की हिम्मत दिखा पाती हो तो जनता क्या करें। यह सवाल इसलिये क्योकि लालू यादव की पहचान प्रधानमंत्री मोदी ने जंगल राज से जोड़ी। खुलकर लालू के दौर पर वार किया । लेकिन इसी संकट का दूसरा चेहरा महाराष्ट्र से निकला। जहां बीजेपी और शिवसेना एक साथ सत्ता में रहते हुये भी कुछ एसे टकराये कि शिवसेना के मोदी में विकास रुष की छवि नहीं बल्कि गोधराकांड और उसके बाद अहमदाबाद समेत समूचे गुजरात में हुये दंगों की छवि दिखायी दी । जिसपर शिवसेना को भी गर्व रहा । फिर शिवसेना जिस तरह मुबंई में वसूली करती है और गुजराती व्यापारी भी शिवसेना के निशाने पर आते रहे है तो प्रधानमंत्री को अगर शिवसेना गोधरा से आगे देख नहीं पाती तो प्रधानमंत्री मोदी भी शिवसेना को हफ्ता वसूली करने वाली
पार्टी से ज्यादा उसी महाराष्ट्र के चुनाव में मान नहीं पाये जिस चुनाव के जनादेश के बाद बीजेपी-शिवसेना ने मिलकर सत्ता संभाल ली । हम कह सकते है राजनीतिक सत्ता मौजूदा वक्त में इतनी ताकतवर हो चुकी है कि छोटी बुराइयो को ढंक कर बडी बुराई के साथ खडे होने में किसी भी सत्ताधारी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह लालू-नीतिश की जोडी से भी हो सकता है और कश्मीर में मुफ्ती सरकार के साथ मिलकर बीजेपी के सत्ता चलाने से भी। क्योंकि इस दौर में विचारधारा पर भी सत्ता भारी है। और सत्ता ही सत्ता के लिये जब
कोई विचारधारा नहीं मानती तो फिर अगला सवाल यह हो सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अब सत्ता बनाये रखने के रास्ते पर चल पड़ी है और मोदी सरकार का विरोध करने वालो को अगर संघ की विचारधारा का एजेंडा देश में छाता हुआ दिख रहा है तो यह उनकी भूल है । क्योकि हालात को अगर परखे तो आरएसएस के लिये मोदी सरकार का बने रहना और विस्तार होना आज की तारिख के लिये उसके अपने आसत्तिव और विस्तार से जा जुडा है । याद किजिये तो मनमोहन सरकार के दौर में समझौता ब्लास्ट हो या मालेगाव धमाका । पहली बार मनमोहन सरकार ने हिन्दु आंतकवाद का जिक्र किया । निसाने पर संघ के वरिष्ठ स्वयंसेवक थे। सवाल यह भी उठने लगे थे कि क्या सरसंघचालक तक भी हिन्दू तर्कवाद की आंच को मनमोहन सरकार ले जायेगी। जाहिर है मौजूदा वक्त में मोदी के पीएम रहते हुये संघ को सबसे बड़ी राहत है क्योंकि पीएम ना सिर्फ खुद को स्वयंसेवक कहने से नहीं कतराते बल्कि पहली बार सरकार का मतलब ही प्रधानमंत्री मोदी है। यानी हालात वाजपेयी के दौर के एनडीए सरकार के नहीं है। जब सत्ता में कई ध्रूव थे और संघ के अनुकूल हालात बन नहीं पा रहे थे। या फिर संघ वाजपेयी को खारिज कर आडवाणी के जरीये हिन्दुत्व की सोच को लाता तो भी चैक-एंड-बैलेंस इतने थे कि आडवाणी भी मन की मर्जी नहीं कर पाते । लेकिन मोदी के दौर में संघ को अर्जुन की तरह सत्ता की  मछली की आंख साफ दिखायी देती है । तो सवाल सिर्फ संघ और मोदी के एक साथ खडे होने का है । इसलिये ध्यान दें तो चाहे मोदी सरकार की आर्थिक नीतियो को लेकर संघ के कई संगठनो में विरोध हो लेकिन सरसंघचालक भागवत हमेसा मोदी की तारिफ ही करते नजर आयेगें । क्योकि उन्हे भी पता है कि मोदी को निशाने पर लेने का मतलब अपने लिये ही गड्डा खोदना है । और मोदी भी बाखूबी इस सच को समझ रहे है कि सत्ता बनी रहे इसके लिये कही साक्षी महराज तो कही योगी आदित्यनाथ । या फिर कही हिन्दु सेना तो कही सनातन संस्था की भी अपनी जरुरत है। लेकिन मुश्किल तब हो रही है जब हिन्दुत्व की व्याख्या और
हिन्दुत्व को जीने के तरीके से जोड़ने की प्रक्रिया में संविधान पीछे छूट रहा है और सत्ता के एक रंग अपने ही रंग में सबको रंगने के लिये पुलिस प्रशासन ही नहीं बल्कि हर संवैधानिक संस्था को भी चेताने के हालात पैदा कर रहा है कि आकिर गैरचुने हुये लोगो का निरकुंशतंत्र क्यो बर्दाश्त किया जाये । इसलिये सवाल सिर्फ गजेन्द्र चौहान के पूना इस्टीट्यूट में डायरेक्टर पद देने भर का नहीं है। सवाल है तैयारी तो देश के जजों की नियुक्ति भी गजेन्द्र चौहान जैसे ही किसी जज की तैयारी की है। आखिर में यह सवाल हर जहन में उठ सकता है आखिर 84 के सिख नरसंहार के वक्त या उससे पहले इमरजेन्सी के वक्त समाज में असहिष्णुता का सवाल इस तरह क्यों नहीं उठा। मलियाना या हाशिमपुरा के दंगों से लेकर मंडल-कंमडल के हिंसक संघर्ष के वक्त यह मुद्दा क्यों नहीं उठा। गुजरात दंगो से लेकर मुज्जफरनगर दंगों के वक्त क्या हालात बदतर नहीं थे। तो कमोवेश हर मौके समाज के भीतर घाव तो जरुर हुये। और हर दौर में राजनीतिक सत्ता ने संसदीय लोकतंत्र को छलनी भी किया सच यह भी है। लेकिन पहली बार छलनी लोकतंत्र को ही देश का सच यह कहकर ठहराया जा रहा है कि यह सत्ता परिवर्तन की क्रिया की प्रतिक्रिया है। तो रास्ता इसलिये उलझ रहा है कि लोकतंत्र में ही क्रिया की
प्रतिक्रिया अगर हिंसक हो रही है। मान्यता पा रही है । तो 2019 आते आते देश में होगा क्या। और 2019 में सत्ता की जीत-हार दोनो परिस्थितियां क्या डराने वाली नहीं हैं।