Saturday, November 14, 2015
ना फंसें इसमें कि नेहरु हैं किसके?
दिल्ली के इंदिरा गांधी स्टेडियम में आज कांग्रेस नेहरु की 125 वी जयंती के अपने सालाना जलसे का पर्दा गिरायेगी जो उसने साल भर पहले 14 नवंबर को ही नेहरु की 125 जयंती की शुरुआत यह कहकर की थी कि धर्मनिरपेक्षता और नेहरुवाद का जश्न साल भर मनाया जायेगा । याद किजिये तो साल भर पहले नेहरु
की 125 वीं जयंती की शुरुआत करते वक्त काग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी को ही यह कहकर निमंत्रण नहीं दिया था कि समारोह में सिर्फ सेक्यूलर लोगों की बुलाया जाता है । यूं आज नेहरु जंयती का समापन दिल्ली के नेहरु पार्क में संगीत के साथ होगा । लेकिन साल भर पहले 125 वी जयंती के साथ ही जो सियासी संगीत नेहरु के पक्ष-विपक्ष को लेकर शुरु हुआ उसने बरस भर में इतनी कटुता नेहरु के नाम पर ही कांग्रेस और मोदी सरकार के रवैये से भर दी कि यह सवाल समाज के भीतर भी उठने लगे कि आखिर प्रधानमंत्री मोदी नेहरु के खिलाफ क्यों हैं या फिर कांग्रेस ने नेहरु को अपनी संपत्ति क्यों बना ली है। इतिहास को अपने पक्ष में समेटने की होड इससे पहले कभी दिखायी नहीं दी । असर इसी का हुआ कि बरस भर के भीतर प्रधानमंत्री मोदी ने इसके संकेत दे दिये कि नेहरु से बेहतर तो सरदार पटेल होते अगर वह देश के पहले पीएम बना दिये जाते। तो क्या नेहरु कांग्रेस के है और पटेल बीजेपी के हो गये।
यानी यह सच हाशिये पर चला गया कि नेहरु हो या पटेल दोनो भारत के है । दोनों ने आजादी की लडाई में हिस्सा लिया । दोनों ने महात्मा गांधी को ही गुरु माना । लेकिन सियासी धार ही मौजूदा वक्त में इतनी पैनी हो चुकी है कि इतिहास को भी अपने अनुकुल करने या खारिज कर अपने अनुकुल करने वाले हालात लगातार पैदा हो चले है । और इस कडी में नेहरु म्यूजियम में भी बदलाव है। तीन मूर्ति लाइब्रेरी तक को नये तरीके से चमकाने की जरुरत लगने लगी है । स्टांप पेपर से नेहरु गायब हो चले है । झटके में श्यामाप्रासद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय उसी राष्ट्रीय फलक पर छाने लगे है जिस फलक पर नेहरु-पटेल का जिक्र कभी साथ साथ होता रहा। पटेल की सबसे ऊंची प्रतिमा गुजरात में बनाना प्रधानमंत्री मोदी के मिशन से जा जुडा। तो यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या इतिहास को भी आईना दिखा कर व्यवस्था को अपने अनुकुल बनाने वाले हालात देश में बन रहे है । या फिर आजादी के 68 बरस बाद पुनर्विचार की जरुरत आन पड़ी है कि आजादी और अब के हालात का मूल्यांकन होना चाहिये।
लेकिन मूल्यांकन के रास्ते ना तो काग्रेस बीजेपी के राजनीतिक टकराव को लेकर हो सकता है ना ही संघ परिवार या हिन्दुत्व के दायरे में । मूल्यांकन महात्मा गांधी के सपनो के जरीये हो सकता है । संविधान के निर्माताओं की
भावनाओं की कसौटी पर हो सकता है। संघीय ढांचे पर हो सकता है । राष्ट्रीय आंदोलन के आदर्श पर विकास की प्रगति को आंका जा सकता है । लेकिन इतिहास के पन्नो को खंगालने में मुश्किल तो काग्रेस के सामने भी आयेगी और बीजेपी के सामने भी क्योंकि दोनो अपने अपने दायरे में कटघरे में तो नजर आयेंगे ही । आजादी और विभाजन के वक्त राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की भूमिका और आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस की महात्मा गांधी को लेकर भूमिका कुछ ऐसे सवालों को जन्म तो देती ही है जिससे मौजूदा राजनीतिक हालात में दोनो बचना चाहेंगे।
याद कीजिये 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी दिल्ली में नहीं थे । उन्हें कांग्रेस कार्यसमिति में बुलाया भी नहीं गया। जबकि उसी कार्यसमिति में कांग्रेस ने देश विभाजन का प्रस्ताव कांग्रेस ने स्वीकार किया था। महात्मा
गांधी मर्माहत हुये थे। वे मौन रहे । उनका मौन अधिक मुखर था । उससे संदेश निकला जिसे पूरे देश ने समझा कि कांग्रेस के लिये अब महात्मा गांधी अनजाने बन गए है। कांग्रेस सत्ता की राजनीति में लिप्त हो गई थी । उसने अपनी वैधता के लिये महात्मा गांधी का सहारा लिया। लेकिन महात्मा गांधी के रास्ते को भुला दिया । इससे सरदार पटेल भी आहत हुये । उन्होंने कई मौको पर महात्मा गांधी से मुलाकात कर अपना दुख भी बताया। और नेहरु मंत्रिमंडल छोडने की भी बात कही। और 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से पहले सरदार पटेल के साथ गांधी जी की बातचीत का वह सिरा जनसंघ से लेकर मौजूदा बीजेपी और आरएसएस बार बार पकड़ते ही महात्मा गांधी कांग्रेस को ही डिजाल्व कराने के पक्ष में थे । और ध्यान दीजिये तो बीजेपी इसी नब्ज
को पकड कर नेहरु के विरोध के पटेल के स्वर को इस हद तक ले जाने से नहीं कतराती जहां पटेल उसके हो जाये और नेहरु कांग्रेस के कहलाये ।
लेकिन इस सियासी संघर्ष में राज्यसत्ता ही भारत की उन तीन मान्यताओ को भूलने लगी है जो र्म निरपेक्षता,राष्ट्रीय एकता और समानता पर टिकी है। आलम यह हो चला हा कि कि आजादी की लडाई के मूल्य ओझल हो चुके हैं। सामाजिक मान्यताएं विकृत हो रही है । उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार तेज हो रहा है । और
ईमानदार पहल की जगह सियासी बहस देश को ही उलझा रही है । याद किजिये जब जनंसघ के लोग जनता पार्टी में ये थे । वह नयी दिशा पकडना चाह रहे थे। लेकिन उन्हे पुराने रास्तो पर लौटाने के लिये उस वक्त मजबूर किया गया । और तब भी यह सवाल उठा था । या द किजिये संसद में दिये गये चन्द्रशेखर ने इस बयान पर खासा बवाल हुआ था जब अयोध्या का सवाल उठ रहा था तब चन्द्रशेखर ने ही कहा था कि बीजेपी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि संध परिवार का राजनीतिक संगठन है । सत्ता में आने के बाद बीजेपी की मान्यताओ का कोई अर्थ नहीं रहेगा । राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ की मान्यताएं प्रभुत्व प्राप्त करेगी । लेकिन नया सवाल तो यह है कि क्या संघ, काग्रेस या बीजेपी के जरीये नेहरु-पटेल और गांधी को अपने अपने कब्जे में करने की होड देश की जरुरत है या फिर सरकारो की विफलता में अब नयी सोच की जरुरत है । क्योंकि सवाल सिर्फ शिक्षा – स्वास्थ्य में विफलता भर का नहीं है । सवाल है कि मिश्रीत अर्थव्यवस्था का रास्ता हमने छोड दिया है । अर्थव्यवस्था फिर गुलाम मानसिकता की दिशा में बढकर भ्रम पैदा कर रही है । भ्रम इस बात का कि विदेशी कंपनिया हमारा विकास करने के लिये पूंजी लगायेगी । सच तो यह है कि विदेशी कंपनिया मुनाफा कमाने ही आयेगें । सारी दुनिया में यही हुआ है । तो फिर आर्थिक गुलामी की तरफ एकबार फिर कदम बढ रहे है तो सवाल किसी षंडयत्र का नहीं बल्कि नासमझी का है । एफडीआई से कितना रोजगार पैदा हुआ । कितने उघोग विदेशी हाथों में चले गये । खनिज संपदा की लूट किसने की । खेती क्यो चौपट होती जा रही है । किसान-मजदूरो की तादाद कम क्यो नहीं हो पा रही है । बीज, खाद, खुदरा व्यापार सबकुछ विदेशी कंपनियो के हाथ में क्यों जा रहा है । क्या कोई सरकार इसपर श्वेत पत्र ला सकती है । या ईमानदारी से बता सकती है कि जो रास्ता वह पकड रही है वह तत्काल की राहत या भटकाने वाले हालात से ज्यादा कुछ नहीं है । देश की अपार जनशक्ती को ही जब सरकारेंबोझ मानने लगे तो फिर रास्ता क्या है । जनशक्ती का उपयोग कैसे हो इसे महात्मा गांधी ने समझा । मौजूदा नेताओं ने लोगो को निजी लाभ हानि के घरौंदे में कैद कर लिया । समाज का आत्मबल नेताओ की चुनावी जीत हार पर जा टिका । सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढा दी गई । ऐसे में जो सरकारी तंत्र से जुडे वे मन से गांव या गरीबी से नहीं जुडे । आपसी सहयोग से समाज की ताकत का सर्थक उपयोगतबी संभव है जब सरकारी तंत्र नयी चुनौतियो के लिये दीक्षित हो और सत्ताधारी राजनेता जनशक्ती को वोट बैंक से बटकर देखे । हुआ उल्टा । जाति –मजहब के आधार पर समाज की चेतना भडकाई गई तो परिमाम भी खतरनाक निकलने लगे । विवाद-तनाव सियासी जरुरत बन गये । असहिष्णुता समाज से ज्यादा राजनेताओ का भाने लगा । और उस पूंजी के मुनाफे के भी अनुकुल हो गया जो एकतरफा विकास के जरीये उपभोक्ता संस्कृति के प्रतिक बने । यानी रास्ता तो राष्ट्रीय अस्मिता जगा कर ही पैदा हो सकता है लेकिन रास्ता मजहब,जाति क्षेत्रियता सरीखे संकीर्ण मानसिकता को उभारने वाले बनने लगे । ग्रामीण भारत बेबसी और निरिह राष्ट्र की मानसिकता में जीने लगा तो शहरी और उपभोक्ताओं को गौरवमयी भारत दिकायी देने लगा । लेकिन दोनो मानसिकता
राष्ट्रीय अस्मिता का गौरव पाने से दूर है । इसलिये रास्ता नेहरु-पटेल है किसके और महातामा गांधी के सपनो का भारत होना कैसे चाहिये उस झगडे से हटकर अगर समाज का आत्मबल अपनी ही खनिज संपदा और अपनी ही श्रेष्ट मान्यताओं के आसरे नहीं खोजे गये तो हमारी कमजोरिया का लाभ उठाकर देश को बिखराव की
तरफ ले जाने की कोशिश तेज होगी इससे कार नहीं किया जा सकता ।
सही कहा अापने.......!!!!
ReplyDeletethank you sir, for giving unwritten historical knowledge and interesting facts about current politics.
ReplyDeleteअनेकता मे एकता यही तो हमारे देश की विशेषता है ,लेकिन कुछ धर्माध लोगों के कारण फिर हम गुलाम भारत की स्थिति मे न आ जाये ,(क्योंकि लालच बहुत बुरी चीज है )और इसी वजह से ये सब तमाशा बनाकर उभरती हुई शक्तीयों को फूट डालो वाली निती से कमजोर करने की साजिश है ये सब खेल सिर्फ अमेरिका का है ।
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