Wednesday, December 28, 2016

मीडिया के रेंगने के साल के तौर पर 2016 क्यों याद किया जाना चाहिये !

किन्हें नाज है मीडिया पर- पार्ट-3 [अंतिम]


आडवानी 35.00, खुराना 3.00, एसएस 18.94, के नाथ 7.00, एनडीटी 0.88,बूटा 7.50, एपी 5.00, एलपीएस 5,50, एस यादव 5.00, ए एम 30.00, एएन 35.00, डी लाल 50.00, वीसीएस 47.00, एनएस 8.00 .......और इसी तरह कुछ और शब्द। जिन के आगे अलग  अलग नंबर। यानी ना तो इनीशियल से पता चलता कि किसका नाम और ना ही नंबर से पता चलता कि ये रकम है या कुछ और। लेकिन पन्ने के उपर लिखा हुआ पीओई फ्राम अप्रैल 86 टू मार्च 90 । और सारे नामों के आगे लिखे नंबर को जोडकर लिखा गया 1602.06800 । और कागज के एक किनारे तीन हस्ताक्षर। और तीनों के नीचे तारीख 3/5/91 ..... तो इस तरह के दो पन्ने जिसमें सिर्फ नाम के पहले अक्षर का जिक्र। मसलन दूसरे पन्ने में एलकेए या फिर वीसीएस। और देखते देखते देश की सियासत गर्म होती चली गई कि जैन हवाला की डायरी का ये पन्ना है। जिसमें लिखे अक्षर नेताओं के नाम हैं । जिन्हें हवाला से पेमेंट हुई। और इस पन्ने को लेकर देश की सियासत कुछ ऐसी गर्म हुई कि लालकृष्ण आडवाणी ने ये कहकर लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया कि जब तक उनके नाम पर लगा हवाला का दाग साफ नहीं होता, वह संसद में नहीं लौटेंगे। बाकी कांग्रेस-बीजेपी के सांसद जिनके भी नाम डायरी के पन्नो पर लिखे शब्द को पूरा करते उनकी राजनीति डगमगाने लगी। और पूरे मामले की जांच शुरु हो गई। उस वक्त प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने सीबीआई के हवाले जैन हवाला की जांच कर दी। लेकिन बीस बरस पहले 1996 में डायरी का ये पन्ना किसी नेता ने हवा में नहीं लहराया। ना ही किसी सीएम ने विधानसभा में डायरी के इस पन्ने को लहराकर किसी से इस्तीफा मांगा। बल्कि तब के पत्रकारो ने ही डायरी के इस पन्ने के जरीये क्रोनी कैपटिलिज्म और नेताओ का जैन बंधुओं के जरीये हवाला रैकेट से रकम लेने की बात छापी। जनसत्ता ने नामों का जिक्र किया तो आउटलुक ने तो 31 जनवरी 1996 के अंक में कवर पेज पर ही डायरी का पन्ना छाप दिया। और जैन हवाला की इस रिपोर्ट ने बोहरा कमेटी की उस रिपोर्ट को भी सतह पर ला दिया, जिसमे 93 के मुंबई ब्लास्ट के बाद नेताओं के तार अपराध-आतंक और ब्लैकमनी से जुड़े होने की बात कही गई। लेकिन तब जिक्र मीडिया के जरीये ही हो रहा था। सवाल पत्रकार ही उठा रहे थे। मीडिया संस्थान भी बेखौफ सत्ता-सियासत के भीतर की काई को उभार रहे थे।

अतीत के इन पन्नो को जिक्र इसलिये क्योंकि मौजूदा वक्त में जिन कागजों को लेकर हंगामा मचा है, उसमें पहली बार कोई भी सवाल पूछ सकता है कि आखिर ये कौन सा दौर है कि जिस दस्तावेज को केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में उछाला, जिन कागजो को राहुल गांधी हर रैली में दिखा रहे हैं और जिन कागज-दस्तावेज के आसरे वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खठखटा रहे हैं और अब 11 जनवरी को सुनाई होनी है। वह कागज मीडिया में पहले क्यों नहीं आये। आखिर ये कैसे संभव है कि नेता ही नेताओं के खिलाफ कागज दिखा रहे हैं लेकिन किसी पत्रकार ने इन दस्तावेजों को पहले अखबार में क्यों नही छापा। किसी न्यूजचैनल के किसी पत्रकार को ये खबर पहले क्यों नहीं पता लगी । और अब जब राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाते हुये भूकंप लाने वाले हालात का जिक्र कर हवा में आरोपों को उछाल रहे है तो क्या वाकई किसी पत्रकार को भूकंप लाने वाली खबर की कोई जानकारी नहीं है या फिर मौजूदा दौर में जानकारी होते हुये भी पत्रकार कमजोर पड़ चुके हैं। मीडिया संस्थान किसी तरह की कोई ऐसी खबर ब्रेक करना नहीं चाहते, जहां सत्ता ही कटघरे में खड़ी हो जाये। तो क्या मौजूदा दौर में मीडिया की साख खत्म हो चली है या फिर सत्ता ने खुद पुरानी हर सत्ता से इतर कुछ इस तरह परिभाषित कर लिया है कि सत्ता की साख पर बट्टा लगाना लोकतंत्र के किसी भी खम्भे के बूते से बाहर हो चला है। या फिर लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र को ही हड़प कर देशभक्ति का राग जिस तरह देश में गाया जा रहा है, उसमें मीडिया को भी पंचतंत्र के उस बच्चे का इंतजार का है जो भोलेपन से ही बोले लेकिन बोले और राजा को नंगा कह दे।

ये सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि जैन हवाला में तो सिर्फ निजी डायरी के पन्ने थे। लेकिन सहारा और बिरला के दस्तावेजों में बाकायदा खुले तौर पर या तो पूरे नाम हैं या फिर पद हैं। यानी किसी कंपनी की फाइल से निकाले गये कागज भर ही नहीं हैं बल्कि जिस अधिकारी ने छापा मार कागजों को जब्त किया उसके दस्तख्वत भी हैं। और चश्मदीद के तौर पर सहारा की तरफ से अधिकारी के भी हस्ताक्षर हैं। लेकिन मसला कागजों या दस्तावेजों से ज्यादा अपनी अपनी सुविधा से नेताओं का कागज का कुछ हिस्सा दिखाते हुये अपने अपने राजनीतिक लाभ के लिये कागजो की परिभाषा गढते हुये खुद को पाक साफ बताने या कहें सत्ता को कटघरे में खड़ाकर अपनी राजनीतिक जमीन बनाने की मशक्कत भी है। और मीडिया को लेकर असल सवाल यही से शुरु होता है कि जो भी देश का नामी अखबार या मीडिया हाउस आज की तारीख में राहुल गांधी के प्रधानमंत्री मोदी पर लगाये आरोपों को छापने-दिखाने की हिम्मत दिखा रहे हैं। क्या वाकई उन्हें पता ही नहीं था कि इस तरह के दस्तावेज भी हैं। या फिर ये कहें कि मौजूदाहालात ने हर किसी को इतना कमजोर बना दिया है कि वह सत्ता को लेकर कोई सवाल करना ही नहीं चाहता क्योंकि न्यायपालिका को लेकर भी उसके जहन में कई सवाल हैं। यानी ये भी सवाल है कि क्या न्याय का रास्ता भी सत्ता ने हड़प लिया है। क्योंकि प्रशांत भूषण भी जब सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस खेहर जो 3 जनवरी को चीफ जस्टिस बन जायेंगे । उन पर सुप्रीम कोर्ट में 14 दिसंबर को ये सवाल उठाने से नहीं चूकते कि , ‘ जब मामला पीएम को लेकर है और चीफ जस्टिस होने की फाइल पीएम के ही पास है तो उन्हें खुद को इस मामले से अलग कर लेना चाहिये।' तो क्या वाकई देश में ऐसा माहौल बन चुका है कि लोकतंत्र का हर पिलर पंगु हो चला है। लेकिन यहाx तो मामला लोकतंत्र के चौथे खम्भे यानी मीडिया का है। और चूंकि पहली बार केजरीवाल ने सहारा-बिरला के दस्तावेजों को नवंबर में विधानसभा में उठाया। नवंबर के शुरु में ही प्रशांत भूषण ने भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। और राहुल गांधी ने दस्तावेजों को दिसंबर में मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधना शुरु किया। लेकिन मीडिया का सच तो यही है कि सारे दस्तावेज जून में ही मीडिया के सामने आ गये थे। और ऐसा भी नहीं है मीडिया अपने तौर पर दस्तावेजो को परख नहीं रहा था। और ऐसा भी नहीं है कि देश के जो राष्ट्रीय मीडिया इमरजेन्सी से लेकर जैन हवाला तक के दौर में कभी भी खबरों को लेकर सहमे नहीं। सत्ता से लड़ते भिड़ते ही हमेशा नजर आये। और तो और मनमोहन सिंह के दौर के घपले घोटालों को भी जिस मीडिया हाउस ने खुलकर उभारा। वह सभी जून से नवंबर तक इन सहारा-बिरला के कागजों को दिखाने की हिम्मत दिखा क्यों नहीं पाये। जबकि सच यही है कि कागजों का पुलिंदा एक मीडिया हाउस के नकारने के बाद दूसरे मीडिया हाउस के दरवाजे पर दस्तक देता रहा। ऐसा भी नहीं है कि जून से नवंबर तक किसी मीडिया हाउस ने दस्तावेजों को परखा नहीं। हर मीडिया हाउस ने अपने खास रिपोर्टरों को दस्तावेजों के सच को जानने समझने के लिये लगाया। बोफोर्स घोटालों को उजागर करने वाले मीडिया संस्धान ने सहारा के कागजों की जांच कर रहे अधिकारी को जयपुर में पकड़ा। जानकारी हासिल की। लेकिन फिर लंबी खामोशी। तो इमरजेन्सी के दौर मे इंदिरा की सत्ता से दो दो हाथ करने वाले मीडिया संस्थान ने तो कागजों को देख कर ही मान लिया कि देश के पहले तीन को छोड़कर कुछ भी छापा जा सकता है। लेकिन उन्हें छुआ नहीं जा सकता। जैन हवाला की डायरी के पन्नों को छापकर रातों रात देश में पत्रकारिता की साथ ऊंचा करने वाले मीडिया संस्थान ने तो कागज पर दस्तख्त करने वाले इनक्म टैक्स अधिकारी से भी बात की और कांग्रेस के एक नेता के प्राईवेट सेकेट्री से भी बात कर कागजों की सच्चाई को परखा। लेकिन उसके बाद खामोशी ही बरती गई । एक रिपोर्टर ने तो वित्त मंत्रालय के भीतर सहारा के दस्तावेजों को लेकर चल क्या रहा है, उसे भी परखा । लेकिन अखबार के पन्नों पर कुछ भी नहीं आया। और तो और दस्तावेजों में जिन नेताओं को सहारा के जिन कारिंदो ने पैसा पहुंचाया, जब उनका नाम तक दर्ज है तो उन नामों तक भी कई मीडिया हाऊस पहुंचे। यानी सहारा के कागजों में सहारा के ही जिन नामों का उल्लेख है....जो अलग अलग नेताओं को ब्रीफकेस पहुंचा रहे थे। वह नाम भी असली है और कोई दिल्ली में तो कोई लखनऊ में तो कोई मुंबई में सहारा दफ्तर का कर्मचारी है ये भी सामने आया लेकिन जून से नवंबर तक किसी मीडिया हाउस ने खबर को छूआ तक नहीं। मसलन जो ब्रीफकेस पहुंचा रहे थे या जिनके निर्देश पर ब्रीफकेस देने का जिक्र सहारा के कागजो में है, उसमें उदय , दारा , सचिन , जैसवाल , डोगरा का ही जिक्र सबसे ज्यादा है । और ये सारे नाम लखनऊ में सहारा सेक्रटियट से लेकर दिल्ली दफ्तर और सहारा के मुंबई गिरगांव दफ्तर में काम करने वाले लोगों के नाम हैं । ये भी सच निकल कर आया। लेकिन फिर भी खबर मीडिया में क्यों नहीं आई। इतना ही नहीं मुंबई के एक मीडिया संस्थान ने भी दस्तावेजों को खंगाल कर मुंबई के जिस पते से करोड़ों रुपये खाते में आ रहे थे, उसे भी खंगाला। यानी कोई खास इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता करने भी जरुरत नहीं रही। सिर्फ कागज में दर्ज उस पते पर रिपोर्टर पहुंचा। जानकारी हासिल की । लेकिन खबर कहीं नहीं आई। तो क्या मीडिया की लंबी खामोशी सिर्फ मौजूदा वक्त की नब्ज बताने वाली है या फिर पहली बार देश के सिस्टम को ही कागजों में दर्ज राजनीतिक हमाम में बदल दिया गया है। क्योंकि कागजों में तो राजनीतिक दलों को रुपया बांटने में समाजवाद बरता गया। यानी सहारा दफ्तर से कुछ हाथों से लिखे पन्ने। कुछ कंप्यूटर से निकाले गये पन्ने तो कुछ नेताओं के नाम वाले पन्नो के पुलिन्दे बताते हैं कि कैसे चिटफंड के जरीये अरबों का टर्नओवर जब कोई कंपनी पार कर मजे में है तो सिर्फ गरीबो के पैसो से सपने बेचने भर का खेल नहीं होता बल्कि राजनीतिक व्यवस्था ही उसके दरवाजे पर कतार लगाये कैसे खड़ी रहती है। ये दस्तावेज उसी का नजारा भर है। और यहीं से भारतीय मीडिया का वह सच उभरता है कि अगर जून से नवंबर तक तमाम मीडिया को अगर ये कागज फर्जी लग रहे थे तो नवंबर के बाद से राजनीतिक गलियारे में ही जब ये कागज हवा में लहराये जा रहे है तो कोई मीडिया ये कहने की हिम्मत क्यो नहीं दिखा पा रहा है कि उसकी जांच में तो सारे कागजात फर्जी थे । और चूंकि ऐसा हो नहीं रहा। होगा भी नहीं। तो क्या करप्शन या क्रोनी कैपटिलिज्म के कटघरे को ही देश का सिस्टम बना दिया गया है। और पहली बार मीडिया का मतलब सिर्फ मीडिया घराने नहीं बल्कि पत्रकारिता करते संपादक समूह भी अपाहिज सा हो चला है। या फिर देश में वातावरण ही 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक शून्यता का कुछ ऐसा बना है कि जो सत्ता में है वह खुद को पूर्व तमाम सत्ता से अलग पेश कर राष्ट्रीय हित में सत्ता चलाने का दावा कर रहा है। सत्ता पार्टी या संवैधानिक संस्थाओं तक को खारिज कर मॉस कम्यूनिकेशन / सोशल मीडिया के जरीये जनता से सीधे संवाद कर इस एहसास को जनता के बीच जगा रही है जहॉ संस्थानों की जरुरत ही ना पड़े। और जनता की आवाज ही कानूनी जामा पहने हुये दिखायी दे। और मीडिया या उसमें काम कर रहे पत्रकारों को अगर ये लग भी रहा है कि सत्ता राष्ट्रीयता के नाम को ही भुना रही हैं तो भी उसकी आवाज नहीं निकल पा रही है क्योंकि या तो देश में कोई राजनीतिक विकल्प कुछ है ही नहीं । या फिर नैतिकता की जिस पीठ पर सवार हो कर सत्ता देश को हांक रही है उसमें बाजार व्यवस्था में लोकतंत्र के हर पाये ने बीते दौर में नैतिकता ही गंवा दी है तो वह कुछ बोले कैसे । ऐसे में लोकतंत्र मतलब ही यही है कि करप्शन देश का मुद्दा हो सकता है । करप्शन के नाम पर सत्ता पलट सकती है । जनता की भावनाओं को राजनीतिक दल अपने पक्ष में कर सकते है लेकिन जो भ्रष्ट हैं, वह सभी मिले हुये है । यानी एक सरीखे हैं। और लोकतंत्र का हर पाया भी दूसरे पाये की कमजोरियों को ढंकने के ही काम आता है । और लोकतंत्र की निगरानी रखने वाला मीडिया भी उसी कतार में जा खड़ा हुआ है। तो क्या 1996 के जैन हवाला के डायरी के पन्नों से निकली सियासत और मीडिया की बुलंद आवाज बीस बरस बाद 2016 में सहारा-बिरला के दस्तावेजों तले दफन हो चली है। यहां से आगे का रास्ता अब सिर्फ लोकतंत्र के राग को गाते हुये जयहिन्द बोलने भर का बचा है। ये सवाल है। मनाइये कि यह सवाल जवाब ना बन जाये। और इसके लिये 11 जनवरी 2017 का इंतजार करना होगा। क्योंकि इसी दिन सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि सहारा-बिरला वाले कागजात फर्जी है या जांच होनी चाहिये। लेकिन चाहे अनचाहे ये तो तय हो गया कि 2016 मीडिया के रेंगने के लिये याद किया जायेगा।

किन्हें नाज है मीडिया पर पार्ट-1

किन्हें नाज है मीडिया पर : पार्ट-2



Friday, December 23, 2016

मोदी जी नोटबंदी हो गई, लूटबंदी कब होगी ?

सत्ता में आने से पहले राजनीतिक लूट का जिक्र मोदी करते थे। और सत्ता जाने के बाद सियासत की आर्थिक लूट का जिक्र राहुल गांधी कर रहे हैं । तो आईये जरा देश के सच को परख लें कि आखिर लूट कहते किसे हैं और आजादी के बाद से 2014 तक जो घोटाले घपले किये उसकी कुल रकम 9 करोड10 लाख 6 हजार 3 सौ 23 करोड 43 लाख रुपये है । अगर डॉलर में समझें तो 21 मिलियन मिलियन डॉलर । यानी घोटाले दर घोटाले 1947 में आजादी के बाद से देश की राजनीतिक सत्ता के जरीये हुये । या फिर सत्ता की भागेदारी से । यानी लूट का सिलसिला थमेगा कैसे कोई नहीं जानता । और हर सत्ता के आते ही करप्शन । लूट का जिक्र ही सियासी बिसात पर वजीर का काम करने लगता है । और हमेशा जिक्र गरीब हिन्दुस्तान को चंद हथेलियों के आसरे लूट का ही होता है । तो क्या गरीब हिन्दुस्तान के नाम पर ही करप्शन होता है और करप्शन से लड़ने के ख्वाब देश के हर वोटर में भरे जाते हैं। जिससे सत्ता पलटे तो लूट का मौका उसके हाथ में आ जाये। ये सवाल इसलिये क्योंकि जब देश में इस सच का जिक्र सियासत करती है कि 80 करोड़ लोग दो जून की रोटी के लिये हर दिन संघर्ष कर रहे है । तो खामोशी इस बात पर बरती जाती है कि स्विस बैंक मे  1500 बिलियन डॉलर भारत के रईसों के ही जमा है । और ये रकम ब्लैक मनी है जिसे भारत के गरीबो से छुपायी गई है ।

विकिलिक्स की रिपोर्ट की मानें तो नेता, बड़े उघोगपति और नौकरशाहों की तिकड़ी की ही ब्लैक मनी दुनिया के बैंकों में जमा है । इसके अलावा सिनेमा के धंधे से लेकर सैक्स ट्रेड वर्कर और खेल के धंधेबाजों से लेकर हथियारो के कमीशनखोरो के कालेधन के जमा होने का जिक्र भी होता रहा है। तो क्या देश की लूट की रकम ही दुनिया के बैको में इतनी ज्यादा है कि दुनिया के बैको में जमा चीन, रुस, ब्रिटेन की ब्लैक मनी को मिला भी दिया जाये तो भारत की ब्लैक मनी कही ज्यादा बैठती है । और शायद इसीलिये पीएम बनने से पहले स्वीस बैक की रकम का जिक्र मोदी ने भी किया । और 15 लाख हर अकाउंट में जमा होने का जिक्र भी भाषण में किया । तो क्या लूट के इस सिलसिले को देखकर देश में बार बार कहा जाता है कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाकर जितना नहीं लूटा उससे ज्यादा आजादी की खूशबू तले सत्ताधारियो ने देश को लूट लिया । और ये लूट का ही असर है कि आजादी के 70 बरस बाद भी 36 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। देश में 6 करोड़ रजिस्टर्ड बेरोजगार है । सिंचाई सिर्फ 23 फिसदी खेती की जमीन तक पहुंच पायी है । उच्च शिक्षा महज साढे चार फिसदी को ही नसीब हो पाती है । और हेल्थ सर्विस यानी अस्पताल महज 12 फीसदी तक ही पहुंचा । तो हर जहन में ये सवाल उठ सकता है कि एक तरफ लूट की इक्नामी में भारत अव्वल नंबर पर है और दूसरी तरफ गरीबी भुखमरी में भी भारत अव्वल नंबर पर है ।

तो क्या देश के बजट में जो बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये 1947 से अब तक खर्च होना चाहिये था वह हुआ ही नहीं । और अगर नहीं हुआ तो क्या बजट तक का पैसा लूट लिया गया । ये सवाल इसलिये क्योकि 1950 से 67 तक जीडीपी का 4.4 फिसदी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हुआ । 1967 से 84 तक जीडीपी का 4.1 फिसदी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हुआ । 1984-91 तक जीडीपी का 5.9 फिसदी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हुआ । 1991--2010 तक जीडीपी का 4.5 फिसदी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हुआ यानी सिलसिलेवार तरीके से समझे तो 1947-48 वाले नेहरु के पहले 171 करोड के बजट में भी खाना-पानी-घर की जरुरत का जिक्र था और -2016-17 के मोदी के बजट में भी गरीबों की न्यूनतम जरुरतों पर ही समूचा बजट केन्द्रित कर बताने की कोशिश हुई । तो क्या जो काम देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर के नाम पर होना चाहिये वह हुआ ही नहीं । या फिर जितना बजट बनाया गया उस बजट की लूट भी नेता-उघोगपति-नौकरशाह की तिकडी तले होती रही । यानी सिस्टम ही लूट का कुछ इस तरह बनाया गया कि लूट ही सिस्टम हो गया । यानी लूट होती क्या है ये बीपीएल के लिये मनरेगा और मिड-डे मिल की लूट से भी समझा जा सकता है और प्राइवेट क्षेत्र में शिक्षा के जरीये देश के शिक्षा बजट से दो सौ गुना से ज्यादा की कमाई से भी जा ना जा सकता है । और हर बरस खेती या सिंचाई के इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिये बडट की रकम जोडकर भी समझा जा सकता है । जिसे किसानों में ही बांट दिया जाता तो देश की खती की समूची जमीन पर सिचाई का इन्फ्रास्ट्रक्चर काम कर रहा होता । तो क्या देश में इक्नामिक व्यवस्था ही चंद हाथों के लिये चंध हाथों में सिमटी हुई है । क्योंकि जरा इस आंकडे को समझे। रियालंस इंडस्ट्री ( ₹ 3,25,828 करोड़ ) , टीसीएस ( ₹ 5,10,209 करोड़) , सन फार्मा ( ₹2,09,594 करोड़ ), एल एंड टी ( ₹1,69,558 करोड़ ) , अडानी ग्रुप ( ₹1,45,323 करोड़ ) यानी ये सवा लाख करोड से लेकर पांच लाख करोड से ज्यादा का टर्नओवर वाली भारत की ये टापमोस्ट पांच कंपनियां हैं । जाहिर है इन कंपनियों के टर्नओवर देखते वक्त कोई भी सोच सकता है कि इनकी सालाना आय करोडों में ही होगी । ज्यादा भी हो सकती है । और इसी अक्स में जब नेताओं की संपत्ति के बढ़ने की रफ्तार कोई देखे तो कह सकता है कि भारत तो बेहद रईस देश है। क्योंकि भारत जैसे गरीब देश मायावती के पास 2003 में महज 1 करोड संपत्ति थी । जो 2013 में बढ़कर 111 करोड़ हो गई । तो वित्त मंत्री की संपत्ति की रफ्तार तीन बरस में 80 करोज बढ़ गई और अमर सिंह की संपत्ति तो दो बरस में 37 करोड बढ़ गई । तो क्या भारत वाकई इतना रईस देश हो चुका है कि एक तरफ सरकार दावा करे कि प्रति व्यक्ति आय हन जल्द ही एक लाख रुपये कर देंगे। और मौजूदा वक्त में बीते एक बरस में देश में प्रति व्यक्ति आय की रफ्तार में 8 हजार रुपये की बढोतरी भी हो गई । और इसी दौर में बीपीएल परिवारों की लकीर प्रतिदिन 27 रुपये और 35 रुपये की बहस में ही जब अटकी रही । यानी जब देश में एक तरफ 40 करोड लोग सालाना 10 हजार रुपये से कम पाते हो । और दूसरी तरफ प्रति व्यक्ति आय सालाना 93,293 हजार रुपये आते हो । तो समझ लेना चाहिये कि देश में असमानता की खाई है कितनी चौडी । और जब देश में प्रधानमंत्री मोदी ने समाजवाद का सपना नोटबंदी के जरीये जगा ही दिया है । तो इस सोच के तहत क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ हर व्यक्ति को एक बराबर एक वोट मान लिया जाना चाहिये । यानी एक तरफ देश का बजट । देश की नीतियां ही जब पूंजी से पूंजी बनाने के खेल में जा फंसी हो और सत्ता ङर किसी के बराबर वोट के नाम पर मिलती हो तो क्या नीतियो से लेकर व्यवस्था परिवर्तन की जरुरत नहीं है । क्योंकि जब राहुल कहते है -एक फीसदी के पास देश की 50 फीसदी संपत्ति है । तो वह गलत नहीं कहते । क्योंकि साल 2000 में देश के एक फीसदी अमीर लोगों के पास देश की 36.5 फीसदी संपत्ति थी,जो अब करीब 53 फीसदी हो चुकी है । लेकिन सवाल है कि इस असमानता को दूर करने की किसी ने सोची क्यों नहीं । और देश में जब हर बरस होने वाले चुनाव के जरीये ही अपनी नीतियो की हार-जीत सत्ता -विपक्ष आंकता है तो फिर वोट की ताकत भी गरीबों की ज्यादा क्यो नहीं हो जानी चाहिये। जिससे कंधे पर ढोते बीबी के शव। कंधे पर इलाज न मिलने पर दम तोड़ता बेटा । और नोटबंदी के दौर में कतारों में खड़े खडे मौत आ जाना। और सत्ता का उफ तक ना कहना। संकटकाल की आहट तो है ।

Wednesday, December 21, 2016

करप्शन की गंगोत्री राजनीति से निकलती है, अब तो मान लीजिए..

हफ्ते भर पहले ही चुनाव आयोग ने देश में रजिस्टर्ड राजनीतिक दलों की सूचीजारी की। जिसमें 7 राष्ट्रीय राजनीतिक दल और 58 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जिक्र है। लेकिन महत्वपूर्ण वो सूची है, जो राजनीतिक तौर पर जिस्टर्ड तो हो चुकी है और राजनीतिक दल के तौर पर रजिस्टर्ड कराने के बाद इस सूची में हर राजनीतिक दल को वह सारे लाभ मिलते है जो टैक्स में छूट से लेकर। देसी और विदेशी चंदे को ले सकते हैं। बीस हजार से कम चंदा लेने पर किसी को बताना भी नहीं होता कि चंदा देने वाला कौन है। और इस फेहरिस्त में अब जब ये खबर आई कि चुनाव आयोग 200 राजनीतिक दलों को अपनी सूची से बाहर कर रहा है। सीबीडीटी को पत्र लिख रहा है। क्योंकि ये पार्टियां मनीलान्ड्रिंग में लगी रहीं। तो समझना ये भी होगा कि चुनाव आयोग की इस फेहरिस्त में सिर्फ दो सौ या चार सौ राजनीतिक दल रजिस्टर्ड नहीं है जिन्होंने चुनाव नही लड़ा और सिर्फ कागज पर मौजूद है। बल्कि ऐसे राजनीतिक दलों की फेहरिस्त 13 दिसंबर यानी पिछले हफ्ते तक 1786 राजनीतिक दलों की थी। और इन राजनीतिक दलो की फेहरिस्त में इक्का दुक्का या महज दो सौ राजनीतिक दल नहीं है जो टैक्स रिटर्न तक फाइल नहीं करतीं। बल्कि चुनाव आयोग सूत्रों के मुताबिक एक हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड राजनीतिक दल इनकम टैक्स रिटर्न फाइल नहीं करती। तो इस फेरहिस्त को देखकर कोई भी सवाल कर सकता है कि क्या राजनीतिक दल कालाधन खपाने के लिये बनाये जाते हैं। क्या चुनाव लड़ने वाली राजनीतिक पार्टियां अपने काले चंदे को खपाने के लिये भी पार्टियां बनाती है। क्योंकि चुनाव आयोग आर्टिकल 324 के तहत चुनावी प्रक्रिया पर कन्ट्रोल तो कर सकता है।

लेकिन चुनाव आयोग किसी राजनीतिक दल को अपने तौर पर हटा नहीं सकता। तो क्या जिन 200 राजनीतिक दलों के रजिस्ट्रेशन रद्द करने का जिक्र चुनाव आयोग अब कर रहा है उसके लिये  सीबीडीटी जांच जरुरी है। यानी राजनीति पाक साफ हो । इसके लिये पहल सरकार को ही करनी होगी। क्योंकि कायदे कानून अगर कड़े होंगे। राजनीतिक दलों के खिलाफ आरोप साबित होने पर कानून अपना काम करते हुये दिखे। जांच एजेंसियां स्वतंत्रता के साथ काम करने लगे। तो फिर चुनाव आयोग से राजनीति को पाक साफ करने की गुहार पीएम को भी करने की जरुरत पडेगी नहीं । क्योकि कानून सरकार को बनाना है। लागू जांच एंजोसियों को करना है। समझना होगा कि चुनाव आयोग सिर्फ पार्टियों को रजिस्टर्ड कर सकती हैं। रद्द करने का अधिकार उसके पास नहीं है। तो बड़ा सवाल यहीं से शुरु होता है कि क्या देश में भ्रष्टाचार की गंगोत्री राजनीतिक दल बनने के साथ ही शुरु होती है। तो आईये इसे भी परख लें। क्योंकि राजनीति का सच तो यही है कि कॉरपोरेट,कालाधन और दागियों ने भारतीय राजनीति को बंधक बना लिया है। या कहें कि भारतीय राजनीति की दशा-दिशा उसी कॉरपोरेट की मर्जी से तय होती है, जिसे विपक्ष में रहते हुए हर दल निशाने पर लेता है और सत्ता में आते ही खामोश हो जाता है । और सत्ता खिसक जाये तो सत्ता के करप्शन पर सीधे अंगुली उठती है ।यानी कालाधन इस राजनीति को वो ऑक्सीजन देता है,जो ईमानदारी के पैसे से मुमकिन ही नहीं। और दागी वो औजार हैं, जो संसदीय राजनीति की तमाम कमियों को ढाल बनाकर राजनीति के मायने ही बदल देते हैं। तो क्या ये इसलिए है क्योंकि देश की नीतियां कॉरपोरेट तय करता है। और कॉरपोरेट इसलिए तय करता है क्योंकि बीते 12 बरस में हुये तीन लोकसभा चुनाव में 2355 करोड़ रुपये कारपोरेट ने चंदे के तौर पर दिये। और कारपोरेट को टैक्स में छूट के तौर पर 40 लाख करोड़ से ज्यादा राजनीति सत्ता ने दिये ।

इसी तरह -बीते 10 बरस में विधानसभा चुनावो में कारपोरेट ने 3368 करोड टैक्स के तौर पर दिये। राज्यों ने कारपोरेट को योजनाओं के जरीये 50 लाख करोड़ से ज्यादा का लाभ दे दिया। तो राजनीति करप्ट है या देश में विकास के नाम पर जो भी काम कोई उघोगपति या कारपोरेट करना चाहता है मुनाफे के लिये उसे राजनीतिक सत्ता का आसरा लेना ही होता है। तो क्या राजनीतिक दल अगर करप्ट ना हो तो देश में विकास या इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर जितना खनिज संसाधन लुटाया जाता है वह सही मायने में देश को विकसित कर दें। यह सवाल इसलिये क्योंकि जब कैशलेस देश का जिक्र हो रहा है तो बीते दस बरस में 10 बरस में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने 1039 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर पर लिये। क्षेत्रीय पार्टियों ने 2107 करोड रुपये कैश में चंदे के तौर लिये। और असर इसी का है कि एनपीए यानी डुबा हुआ कर्ज लगातार बढ़ रहा है और मनमोहन सिंह के बाद प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद भी थमा नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि 2014-15 में बैंकों का एनपीए 5.43 फीसदी था, जो अब बढ़कर 9.92 फीसदी हो चुका है। हद तो ये कि हाल में सरकार ने शीर्ष 100 विलफुट डिफाल्टरों में से 60 से अधिक पर बकाया 7,016 करोड़ रुपए के लोन को डूबा हुआ मान लिया । और अब विपक्ष में रहते हुए इस मुद्दे को अगर कांग्रेस उठा रही है, तो कांग्रेस का सच ये है कि कांग्रेस के कार्यकाल
में करीब 1 लाख करोड़ का कॉरपोरेट कर्ज माफ किया गया था । और कॉरपोरेट या बड़े उद्योगपतियों को सरकार की छाया का लाभ कैसे मिलता है-इसका पता इस बात से भी लग सकता है कि कालेधन पर विदेशी बैंकों के 627 खाताधारकों में इक्का दुक्का को छोड़कर आज तक सबके नाम सामने नहीं आए। और नाम सामने आने चाहिये इसके लिये अब राहुल गांधी कहते है नाम क्यों नहीं बताते और जब मनमोहन सिंह की सत्ता थी तो बीजेपी पूछती थी मनमोहन सिंह नाम क्यों नहीं बताते। तो राजनीतिक भ्रष्टाचार के सामने कैसे हर भ्रष्टाचार छोटा है ये अमेरिकी की नामी सर्वे कंपनी आईपीएसओएस के सर्वे में सामने आ गया तो दुनिया के 25 देशो के सामने मुख्य मुद्दा हो, कौन सा इसे लेकर किया गया ।भारत में नोटबंदी से एन पहले 25 अक्टूबर से 4 नवंबर तक जो सर्वे किया गया। उसमें सामने यही आया कि अमेरिका के सामने सबसे बडा मुद्दा आतंकवाद का है। रुस के सामने सबसे बडा मुद्दा गरीबी और समाजिक असमानता है। चीन के सामने सबसे बडा मुद्दा पर्यावरण का है। फ्रांस के सामने सबसे बड़ा मुद्दा रोजगार का है। लेकिन भारत के सामने सबसे बडा मुद्दा वित्तीय और राजनीतिक करप्शन है। और इस सर्वे में ये साफ तौर पर उभरा कि भारत के लोग आंतक, गरीबी,हेल्थ, शिक्षा या फिर अपराध से भी उपर पॉलिटिकल करप्शन को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। सर्वे के मुताबिक 46 फिसदी लोगों की राय है कि पॉलिटिकल करप्शन ना हो तो हर हालात ठीक हो सकते हैं। तो क्या ये भी कहा जा सकता है कि राजनीति से बडा सांगठनिक अपराध और कोई नहीं है। या फिर राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगते ही कानून-व्यवस्था कोई मायने नहीं रखता। या राजनीति से बड़ा रोजगार और कोई नहीं है। क्योंकि मोदी सरकार ही जिस
कैशलेस व्यवस्था की दिशा में देश को ले जाना चाह रही है उसमें कोई राजनीतिक दल कहने को तैयार नहीं है कि अब कैश से एक पैसा भी चंदा नहीं लिया जायेगा और चंदा देने वाले को राजनीतिक सत्ता कोई लाभ नहीं देगी ।

Wednesday, December 14, 2016

तो क्या 30 दिसंबर को देश अफसल साबित होगा ?

सवाल ना तो किसी चौराहे का है ना ही पीएम के वचन का। सवाल है कि आखिर 30 दिसंबर के बाद देश के सामने रास्ता होगा क्या। क्योंकि इन्फ्रास्ट्रक्चर जादू की छड़ी से बनता नहीं है। और नोट छापने से लेकर कैशलेस देश की जो परिभाषा बीते 36 दिनो से गढ़ी जा रही है, उसके भीतर का सच यही है कि मनरेगा से लेकर देशभर के दिहाड़ी मजदूर जिनकी तादाद 27 करोड पार की है उनकी हथेली खाली है। पेट खाली हो चला है। तीन करोड़ से ज्यादा छात्र जो घर छोड़ हॉस्टल या शहरों में कमरे लेकर पढ़ाई करते है उनकी जिन्दगी किताब छोड़ बैंक की कतारों में जा सिमटी है। मिड-डे मील की खिचड़ी भी अब गाव दर गांव कम हो रही है। और दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे भारत की तादाद जो 19 करोड़ की है । अब इस कतार में 11 करोड़ से ज्यादा लोगों की तादाद शामिल हो चुकी है। गुरुद्वारों के लंगर में बीते 35 दिनो में तीस फीसदी का इजाफा हो चुका है । यानी आगरा मे गजक बनाने वाला हों या गया के तिलकुट बनाने वाले या फिर कानपुर में चमडे का काम हो या सोलापुर या सूरत में सूती कपडे का काम । ठप हर काम पड़ा है। पं बंगाल समेत नार्थ इस्ट में जूट का छिटपुट काम भी
ठप है और असम के चाय बगानो से मजदूरो से पहले अब ठेकेदार और बगान मालिकही मजदूरों को भुगतान के डर से भाग रहे हैं। तो सवाल ये नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद क्या कोई जादू की छड़ी काम करने लगेगी। सवाल ये है कि जिस स्थिति में देश नोटबंदी के बाद आ खड़ा हो गया है, उसमें अब रास्ता है कौन सा। क्योंकि नोटो की मांग पूरी ना कर पाने के हालात कैशलेस का राग जप रहे हैं। तो दूसरी तरफ 65 फिसदी हिन्दुस्तान में मोबाईल-इंटरनेट-बिजली संकट है तो कैशलेस कैसे होगा। और एक कतार में हर नेता के निशाने पर प्रधानमंत्री मोदी का नोटबंदी का निर्णय है लेकिन रास्ता किसी के पास नहीं है। और ये कोई अब समझने को तैयार नहीं है कि 30 दिसंबर के बाद पीएम नहीं देश भी फेल होगा। लेकिन राजनीतिक बिसात आरोपों की है तो निर्णय भी अब घोटाले के अक्स में देखा जा रहा है। तो वाकई हालात बिगड़े हैं। या बिगड रहे हैं।

तो कोई भी कह सकता है तब 30 दिसंबर के बाद रास्ता होना क्या चाहिये। क्योंकि सवाल ना तो देश के सब्र में रहने का है ना ही एक निर्णय के असफल होने का। सवाल है कि अब निर्णय कोई भी सरकार क्या लेगी। क्योंकि नोटों के छपने का इंतजार रास्ता नहीं है। कैशलेस होने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने तक के वक्त का इंतजार रास्ता नहीं है। बैंकिंग सर्विस के जरिये आमजन तक रोटी की व्यवस्था कराने की सोच संभव नहीं है। -लोगों की न्यूनतम जरुरतों को सरकार हाथ में ले नहीं सकती। शहरी गरीबो के लिये सरकार के पास काम नहीं है। और फैसले पर यू टर्न तो लिया ही नहीं जा सकता। अन्यथा पूरी इकनॉमी ही ध्वस्त हो जायेगी। तो क्या पहली बार देश उस मुहाने की तरफ जा रहा है जहा आने वाले वक्त में राजनीतिक सत्ता को ही बांधने की व्यवस्था राजनीतिक और संवैधानिक तौर पर कैसे हो अब बहस इसपर शुरु होगी। क्योंकि चुनावों की जीत-हार से कहीं आगे के हालात में देश फंस रहा है और असमंजस के हालात किसी भी देश को आगे नही ले जाते इसे तो हर कोई जानता समझता है। तो दो हालातों को समझना जरुरी है। पहला ढहती भारतीय व्यवस्था। दूसरी ढहती व्यवस्था के अक्स पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को जनता की राय मान ली जाये। तो दोनों स्थिति त्रासदीदायक है क्योंकि एक तरफ जिस मनरेगा के आसरे देश के साढ पांच करोड़ परिवारों के पेट भरने की व्यवस्था 15 बरस पहले हुई उसका मौजूदा सच यही है कि नोटबंदी ने मनरेगा मजदूरों की रीढ़ तोड़ दी है। आलम ये है कि मनरेगा के तहत अक्टूबर के मुकाबले नवंबर में 23 फीसदी रोजगार घट गया।

और पिछले साल नवंबर की तुलना में तो इस बार मनरेगा में 55 फिसदी रोजगार कम रहा। और ये हाल अभी का है और इससे पहले का मनरेगा का सच ये था कि वित्तीय साल 2015-16 में कुल 5.35 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की लेकिन केवल 4.82 करोड़ परिवारों को ही रोजगार दिया जा सका यानी 9.9 फीसद परिवारों को मांग के बावजूद रोजगार नहीं हासिल हुआ। और ये रोजगार भी सिर्फ 100 दिन के लिए था । और अब हालात और बिगड़े हैं क्योंकि पैसा नहीं है। तो दो सवाल सीधे हैं कि देश के करोडो मजदूरों के पास अगर काम ही नहीं होगा तो वो जाएंगे कहां ? और अगर काम बिना खाली पेट सरीखे हालात बने तो क्या आने वाले दिनों में अराजकता का माहौल नहीं बनेगा? जवाब कम से कम सरकार के पास नहीं है अलबत्ता इंतजार चुनाव का ही हर कोई करने लगा है। क्योंकि देश चौराहे पर तो खड़ा है। एक तरफ नोटबंदी पर ईमानदारी के दावे । दूसरी तरफ नोटबंदी से परेशान कतार में खडा देश । तीसरी तरफ संसद के भीतर बाहर घोटाले की तर्ज
पर नोटबंदी को देखने मानने पर हंगामा। और चौथी तरफ पांच राज्यों के विधानसभा की उल्टी गिनती। और अब सवाल ये कि क्या यूपी, उत्तराखंड, पंजाब , गोवा और मणिपुर में चुनाव मोदी के नोटबंदी के फैसले पर ही हो जायेगा। क्योंकि हालात बताते हैं कि खरगोश से भी तेज रफ्तार से देश चल पड़े तो भी अप्रैल बीत जायेगा। और चुनाव आयोग संकेत दे रहा है कि चुनाव फरवरी में ही निपट जायेंगे। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का सबसे बडा जुआ या कहें दांव पर ही देश चुनाव में फैसला करेगा। यानी ईमानदारी का राग सही या गलत । भ्रष्टाचार राजनीति का ही पालापोसा बच्चा है या नहीं। नोटबंदी से क्रोनी कैपटिलिज्म की जमीन खत्म हो जायेगी या नहीं। नोट बदलने से ब्लैक-मनी खत्म हो जायेगी या नहीं। या फिर चुनाव की हार जीत से गरीब देश फिर हार जायेगा। यानी पहली बार देश की इकनॉमी से राजनीतिक खिलवाड़ हो रहा है और आज संसद तो कल विधानसभा चुनाव इसकी बिसात के प्यादा साबित होंगे। और परेशान देश में जीत उसी राजनीति की होगी जिसने देश को खोखला भी बनाया और खोखले देश को ईमानदारी से भरने का राग भी अलापा।

Tuesday, December 13, 2016

पहले सिस्टम करप्ट था अब करप्शन ही सिस्टम तो नहीं हो चला ?

वेल्लूर 24 करोड़ तो दिल्ली 15 करोड़ 65 लाख। चेन्नई 10 करोड़ तो चित्रदुर्ग 5 करोड़ 70 लाख। गोवा डेढ़ करोड़ और उसके बाद मुंबई से लेकर कोलकाता और जयपुर से लेकर पुणे तक और गाजियाबाद से लेकर गपडगांव यानी गुरुग्राम तक लाखों के नये नोट जब्त किये गये हैं। और देश के सिर्फ 16 हीनहीं बल्कि 32 जगहों से जो अवैध नये नोटों को पकड़ने का सिलसिला जारी है या कहे 500 और 2000 के नये नोट निकल कर सामने आये हैं, उसमें सवाल यही बड़ा है कि पकड़ने वालों की पीठ थपथपायी जाये या फिर नोट पहुंचाने वालों को सजा दी जाये। संयोग से जिन्होने नोट पहुंचाये और जिन्होंने नोट पकड़े दोनों ही सरकारी मुलाजिम हैं। या कहें उसी सिस्टम का हिस्सा है जिस सिस्टम पर भरोसा कर देश को कैशलेस बनाकर बैकिंग सर्विस से जोडकर करप्शन मुक्त या कालाधन मुक्त होने का सपना देखा दिखाया जा रहा है। तो क्या ये वाकई सपना है। क्योंकि नोटबंदी से पहले जो सिस्टम था वही करप्ट था और नोटबंदी केबाद जिस साफ सिस्टम की वकालत की जा रही है उसी में करप्शन है और बैंकिंग  सर्विस में भ्रष्टाचार है, इसे पीएमओ भी अगर मान रहा है और उसे स्टिंग करानेकी जरुरत पड़ रही है तो देश के तीन सच से आंखे किसी को नहीं मूंदनी चाहिये।

पहला, सिस्टम ठीक तभी होगा जब देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर होगा। दूसरा, इन्फ्रास्ट्रक्चर तभी होगा जब जनता सिस्टम का हिस्सा होगी। तीसरा, जनता सिस्टम में शामिल तभी होगी जब सत्ता जनता के बीच होगी। और ध्यान दें तो अभी तक सत्ता का मिजाज जनता को सरकार के रहमोकरम पर रखने वाला है। यानी देश का किसान मानामाल नहीं हो सकता। देश का मजदूर दो जून के लिये भटकना छोड़ नहीं सकता। 70 करोड़ की आबादी के लिये सरकार के पास सिर्फ मदद या राहत पैकेज है जिसे वही सरकारी कर्मचारी या संस्थान पहुंचाते है, जो करप्ट है। तो फिर नोटबंदी के बाद सिस्टम का दायरा जब बैंकिंग सर्विस और तकनीक पर आ टिका है और नोटों के उत्पादन से ज्यादा नोटों की मांग है तो फिर सिस्टम को और ज्यादा करप्ट होने से कौन सा सिस्टम रोक पायेगा। क्योंकि नोटबंदी से पहले सिस्टम करप्ट था। नोटबंदी के बाद करप्शन ही सिस्टम हो रहा है। क्योंकि देश के एक लाख तीस हजार बैंक शाखाओं में से पांच सौ बैंकों में स्टिंग और किसी ने नहीं पीएमओ ने कराया। और खबर आ गई कि जहां जहां स्टिंग हुआ वहां वहां गड़बड़ी हुई है। तो अब उन्हें बख्शा नहीं जायेगा। यानी जो भ्रष्टाचार होना नहीं चाहिये था, वह भ्रष्टाचार देश की सफाई के लिये उठाये गये सबसे बडे कदम के दौर में वही बैक कर रहा है, जिस बैंकिंग सर्विस पर सरकार को भरोसा है कि आने वाले वक्त में यही तरीका देश को बचा सकता है । यानी भ्रष्टाचार खत्म कैसे हो इसका उपाय किसी के पास नहीं। तो क्या देश स्टिंग आपरेशन के आसरे चल सकता है। ये सवाल कल भी था और आज भी है। कल केजरीवाल के लिये ये हथकंडा था और प्रधानमंत्री मोदी के लिये।

तो ये मान भी लिया जाये कि हर जगह कैमरा लगा होगा । हर जगह पर सीधे सत्ता नजर रखेगी । यानी कोई भ्रष्ट ना हो या बैक इस तरह कैश ना बांटे जैसा स्टिंग ऑपरेशन में नजर आया होगा । तो अगला सवाल है कि कैशलेस करप्शन पर रोक के लिये कौन सा स्टिंग होगा । क्योंकि जनता का ही बैंकों में जमा रुपया कारपोरेट को बांटा गया। जो कैश नहीं चैक या खातों में ट्रांसफऱ कर दिखाया जाता है और उसी कड़ी में नॉन परफोर्मिंग एसेट यानी एनपीए की राशि बीते 10 बरस में 10 लाख करोड़ से ज्यादा की हो चुकी है। तो क्या जिन बैंक मैनेजरों ने जिन राजनेताओं के कहने पर जिन कारपोरेट को करोड़ों रुपया कर्ज दिया । और जो कारपोरेट जिन राजनेताओ के कंघे पर सवार होकर बैंकों को कर्ज की रकम नहीं लौटा रहे हैं, क्या वह करप्शन नहीं है। और है तो उसके लिये कौन सा कानून किस तरह देश में काम कर रहा है। यानी मौजूदा वक्त में भी करीब सवा लाख बैंकों में क्या हो रहा है-इसका सरकार को कुछ पता नहीं या कहें कि सरकार चाहकर भी कुछ कर नहीं सकती। और अगर सरकार ये सोच रही है कि आने वाले वक्त में बैकिंग सर्विस के दायरे में समूचा दगेश होगा और बैकिंग सर्विस पर निगरानी रखकर उक्नामी के करप्शन को खत्म किया जा सकता है। तो ये नजरिया कब कैसे पूरा होगा कोई नही जानता। क्योंकि फिलहाल 97 बैंकों की 1लाख 30 हजार शाखायें देश भर में हैं और 10 बरस पहले यानी 2005 में 284 बैंकों की 70373 शाखायें देश भर में थीं। यानी दस बरस में करीब दुगनी शाखायें देश भर में खुलीं। लेकिन देश का सच यही है कि 93 फिसदी ग्रामीण भारत में बैंक है ही नहीं । शहरो में प्रति बैक शाखा औसतन 10 हजार लोग हैं। और मौजूदा वक्त में प्रतिदिन नोट बांटने की कैपिसिटी प्रति शाखा सिर्फ 500 लोग है। यानी मौजूदा सिस्टम को ही पटरी पर लाने के लिये जो इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिये उसमें कई गुना सुधार की जरुरकत है। और ये जरुरत कितने दिनों में कैसे पूरी होगी कोई नहीं जानता।

तो अगला सवाल ये हो सकता है कि क्या स्टिंग ऑपरेशन सिर्फ ये बताने के लिये है कि सरकार काम कर रही है । क्योंकि सरकार को बखूबी मालूम है कि उसके पास वक्त सिर्फ 30 दिसंबर तक का है,क्योंकि फिर दांव पर प्रधानमंत्री मोदी का वचन होगा। ऐसे में अगर पीएम मोदी संसद में कहेंगे तो क्या कहेंगे और अगर राहुल गांधी ही संसद में कहेंगे तो क्या कहेंगे। जाहिर है बैकिंग सर्विस,तकनालाजी और कैशलेस पेमेंट के जरीये कालेधन, भ्रष्टाचार पर नकेल से आगे पीएम क्या कह सकते हैं। और राहुल गांधी नये हालातो में इन्ही सब से पैदा हुये मुश्किल हालात से आगे क्या कहेगें। यूं जब रैलियो में पीएम के तेवर के अक्स में संसद में मोदी के कहने के इंतजार करें तो मोदी सीधे देश के बिगडे हालात के लिये नेहरु गांधी परिवार को कटघरे में खडा कर सकते हैं। भ्रष्टाचार और कालेधन को आश्रय देने वाली व्यवस्था के लिये गांधी परिवार को सबसे भ्रष्ट बता सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ राहुल गांधी मुश्किल हालात में प्रदानमंत्री मोदी को नीरो करार दे सकते हैं। जो देश के जलने पर ईमानदारी की बांसुरी बजा रहे हैं । क्योंकि देश के राजनेताओ की भाषा तो फिलहाल यही हो चली है । लेकिन सवाल यह भी है कि संसद में क्या कोई नेता ये कहने की हिम्मत दिखा   गा कि संसद ही जिस जमीन पर खड़ी है और उसमें बैठकर देश के नाम संबोधन का जो जुमला हर राजनीतिक दल गढ रहा है क्या उस जमीन से जमता का वाकई कुछ लेना देना है । यानी सवाल सिर्फ प्रदानमंत्री मोदी या राहुल गांधी भर का नहीं है । सवाल है कि बीते 34 दिनो में क्या किसे ने इमानदारी से संसद में बताया कि उनकी राजनीतिक पार्टी चलती कैसे है । कारपोरेट को अरबो रुपये की टैक्स रियायत क्यो दी जाती है । और गरीबो के लिये सिर्फ सरकारी पैकेज ही क्यों चलता -दौडता है ।यानी जिस कालेधन और भ्रष्टाचार की खोज नोटबंदी के बाद कतारो में खडे लोगो के मुशकिलो में टटोला जा रहा है उसके भीतर का सच यही है कि राजनीतिक व्यवस्था ने खुद को जनता के प्रति जिम्मेदार माना ही नहीं है । कारपोरेट या निजी पूंजी की इक्नामी का इन्फ्रास्ट्रक्रचर ही देश चला रहा है । सत्ता पूंजी के आसरे व्यवस्था चलाती है ना कि मानव-संसाधन के आसरे । यानी भ्रष्टाचार कौन करता है ये बताने के लिये किसी सिस्टम की जरुर नहीं है और कालाधन किसके पास है ये जानने के लिये बैंकिंग सर्विस की जरुरत भी नहीं है । जरुरत सिर्फ इस सच के साथ खड़े होने की है कि कानून और संवैधानिक संस्धान अपनी जगह अपना काम करे  । जो है नहीं तो करप्शन ही सिस्टम कैसे हो जाता है ये कहां किसी से छुपा है ।  

Friday, December 2, 2016

हर आंख में एक सपना है...

पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर, रोजगार बात इससे आगे तो देश में कभी बढी ही नहीं । नेहरु से लेकर मोदी के दौर में यीह सवाल देश में रेगते रहे। अंतर सिर्फ इतना आया की आजादी के वक्त 30 करोड में 27 करोड लोगो के सामने यही सवाल मुहं बाये खडे थे और 2016 में सवा सौ करोड के देश में 80 करोड नागरिको के सामने यही सवाल है । तो ये सवाल आपके जहन में उठ सकता है जब हालात जस के तस है तो किसी को तो इसे बदलना ही होगा । लेकिन इस बदलने की सोच से पहले ये भी समझ लें वाकई जिस न्यूनत की लडाई 1947 में लडी जा रही थी और 2016 में उसी आवाज को नये सीरे से उठाया जा रहा है उसके भीतर का सच है कया । सच यही है कि 80 लाख करोड से ज्यादा का मुनाफा आज की तारिख में उसी पानी, बिजली,खाना, शिक्षा, इलाज घर और रोजगार दिलाने के नाम पर प्राईवेट कंपनियो के टर्न ओवर का हिस्सा बन जाता है ।

यानी जो सवाल संसद से सडक तक हर किसी को परेशान किये हुये है कि क्या वाकई देश बदल रहा है या देश बदल जायेगा । उसके भीतर का मजमून यही कहता है कि 150 अरब से ज्यादा बोतलबंद पानी का बाजार है । 3 हजार अरब से ज्यादा का खनन-बिजली उत्पादन का बाजार है । 500 अरब से ज्यादा का इलाज का बाजार है । ढाई हजार अरब का घर यानी रियल इस्टेट का बाजार है ।सवा लाख करोड से ज्यादा का शिक्षा का बाजार है । अब आपके जहन में ये सवाल खडा हो सकता है कि फिर चुनी हुई सत्ता या सरकारे काम क्या करती है । क्योकि नोटबंदी के फैसले से आम आदमी कतार में है लेकिन पूंजी वाला कोई कतार में क्यो नदर नहीं आ रहा है और देश में बहस इसी में जा सिमटी है कि उत्पादन गिर जायेगा । जीडीपी नीचे चली जायेगी । रोजगार का संकट आ जायेगा । तो अगला सवाल यी है कि जब देश में समूची व्यवस्था ही पूंजी पर टिकी है । यानी हर न्यूनतम जरुरत के लिये जेब में न्यूनतम पूंजी भी होनी चाहिये और उसे जुगाडने में ही देश के 80 फिसदी हिन्दुस्तान की जिन्दगी जब इसी में खप जाती है तो फिर नोटबंदी के बाद लाइन में खडे होकर अगर ये सपना जगाया गया है कि अच्छे दिन आयेगें तो कतारो में खडा कोई कैसे कहे कि जो हो रहा है गलत हो रहा है ।

लेकिन क्या सपनो की कतार में खडे होकर 30 दिसबंर के बाद वाकई सुनहरी सुबह होगी । तो आईये जरा इसे टटोल लें । क्योकि 70 बरस में कोई बदलाव आया नहीं और 70 बरस बाद बदलाव का सपना देखा जा रहा है तो इस बीच में खडी जनता क्या सोचे । आदिवासी , दलित, महिला, किसान , मुस्लिम ,बेरोजगार । संविधान में जिक्र सभी का है । संविधान मे सभी को बराबर का हक भी है । लेकिन संविधान की शपथ लेने के बाद जब राजनीतिक सत्ता के हाथ में देश की लगाम होती है तो हर कोई आदिवाली हो या दलित । महिला हो या मुस्लिम । किसान हो या बेरोजगारो की कतार । सभी से आंख क्यो और कैसे मूंद लेता है । और चुनाव दर चुनाव वोटबैक के लिये राजनीतिक दल इन्हे एकजूट दिखाते बताते जरुर है लेकिन हर तबका अलग होकर भी ना एकजूट हो पाता है ना ही कभी मुख्यधारा में जुड पाता है । और इन सभी की तादाद मिला तो 95 फिसदी तो यही है ।मुख्यधारा का मतलब महज 5 फिसदी है । यानी जो सपने आजादी के बाद से देश को राजनीतिक सत्ताओ ने दिखाये क्या उसके भीतर का सच सिवाय देश को लूटने के अलावे कुछ नहीं रहा । क्योकि किसानो की तादाद 18 करोड बढ गई और खेती की जमीन 12 पिसदी कम हो गई । मुस्लिमो की तादाद साझे तीन करोड से 17 करोड हो गई लेकिन हालात बदतर हुये । दलित भी 3 करोड से 20 करोड पार कर गये । लेकिन जिस इक्नामी के आसरे 1947 में शुरुआत हुई उसी इक्नामी के आसरे 2016 में भी अगर देश चल रहा है तो फिर ये सवाल जायज है कि देश में किसी भी मुद्दे को कोई भी कैसे उठाये ।

समाधान निकल नहीं सकता जब तक पूंजी पर टिकी व्यवस्था को ही ना बदला जाये । यानी उत्पादन, रोजगार , नागरिको के हक और राजनीतिक व्यवस्था की लूट से लेकर मुनाफे के सिस्टम को पलटा ना जाये । तो क्या मोदी पूंजी पर टिकी व्यवस्था बदलने की सोचेगें । क्या पानी-बिजली-शिक्षा-हेल्थ से निजी क्षेत्र को पूरी तरह बेदखल कर सरकार जिम्मेदारी लेगी । यानी जो तबका कतार में है । जो तबका हासिये पर है । जो तबका निजी क्षेत्र से रोजगार पाकर जिन्दगी चला रहा है । उनकी जिन्दगी से इतर नोटबंदी को आधार कालेधन और आंतक पर नकेल कसने को बनाया गया । लेकिन भ्ष्ट्रचार, नकली नोट , आंतकी हमले भी अगर नोटबंदी के बाद सामने आये । तो क्या कहॉ जाये कि 70 बरस के दौर में पहली बार देश में सबसे बडा राजनीतिक जुआं सिर्फ यह सोच कर खेला गया कि इसके दायरे में हर वह तबका आ जायेगा जो परेशान है और कतार की परेशानी बडे सपने के सामने छोटी हो जायेगी । लेकिन ये रासता जा किधर रहा है । क्योकि इसी दौर में भ्,्ट्रचार और ब्लैक मनी का दामन साथ कैसे जुडा हुआ है ये बेगलूर में 4 करोड 70 लाख रुपये जब 2 कन्ट्रेकटर और सरकारी अधिकारी के पास से जब्त किये गये तो सभी के पास नये 2 हजार के नोट थे । वही मोहाली में तो दो हजार के नकली नोट जो करीब 42 लाख रुपये थे । वह पकड में आ गये । और गुजरात तो दो हजार रुपये के छपते ही 17 नवंबर को पोर्ट ट्रस्ट के दो अधिकारी के पास से दो लाख 90 हजार रुपये जब्त हुये ।

इन सबके बीच नगरोटा की आंतकी घटना ने भी ये सवाल खडा किया कि आंतकवाद क्या नोटबंदी के बावजूद अपने पैरो पर खडा है । यानी सवाल इतने सारे की हर जहन में वाकई ये सवाल ही है कि क्या वाकई 30 दिसबंर के बाद सबकुछ सामान्य हो जायेगा । या फिर देश में जिन चार जगहो पर नोट छपते है । -नासिक, देवास, सलबोनी , मैसूर । इन जगहो में किसी भी रफ्तार से नोट छापे जाये अगर इनकी कैपेसिटी ही हर वर्ष 16 अरब छापने की है । और नोटबंदी से करीब 22अरब नोट बंद हुये है . तो फिर हालात लंबे खिचेगें । या फिर दो की जगह चार शिफ्ट में भी काम शुरु हो जाये तो फिर जिसने नोट निकले रहे है और जितने नोट लोगो को मिल रहे है । सबकुछ सामान्य हालात में आने में कितने दिन लगेगें । ये अब भी दूर की गोटी है ।

Tuesday, November 29, 2016

एकला चलकर बनेंगे मिस्टर क्लीन !

29 सितंबर सर्जिकल अटैक के बाद सीमा पर 26 जवान शहीद हो चुके हैं। 8 नवंबर, नोटबंदी के बाद कतार में सौ मौत हो चुकी हैं। 28 नवंबर कालेधन पर 50 फिसदी टैक्स देकर बचा जा सकता है। 29 नवबंर यानी आज बीजेपी के तमाम सांसद-विधायक अपने बैक स्टेटमेंट पार्टी अध्यक्ष को सौंपकर ईमानदारी के महापर्व में शामिल हो जायें। तो क्या वाकई प्रधानमंत्री मोदी मिस्टर क्लीन की भूमिका में आ चुके हैं और इसीलिये दागी सांसदों की भरमार वाली संसद में प्रधानमंत्री अब जाना नहीं चाहते हैं और देश में कानून बनाने के जो प्रवधान संसद में बहस और तर्को के आसरे लोकतंत्र के मंदिर की साख बनाये रखती है वह अब सिर्फ औपचारिकता बची है।

तो क्या पीएम मोदी लोकतंत्र की पारंपरिक राग को खारिज कर एकला चलो रे के रास्ते निकल पड़े हैं। क्योंकि उनके पास पूर्ण बहुमत है। और विपक्ष कमजोर है। यानी जैसे पचास दिन नोटबंदी के वैसे ही सरकार कैसे भी चलाये इसके लिये पांच बरस। तो बीच में कोई बहस कोई चर्चा क्यों हो। यानी ये सवाल करें कौन कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद सीमा पर हालात बदतर क्यों हुये। ये सवाल करे कौन कि अपनी ही करेंसी के इस्तेमाल पर रोक कैसे लग सकती है। ये सवाल कौन करे कि देश को लूट कर आधी रकम टैक्स में देने का ये कौन सा कानून है। यानी सजा का प्रावधान अब खत्म हो गया। और ये सवाल करे कौन कि सांसदों की कमाई देश के किसी भी नागरिको की तुलना में सौ फिसदी से ज्यादा तेजी से बढ़ कैसे जाती है। यानी आजादी के बाद पाकिस्तान और कालेधन का सवाल जिस तरह देश में नासूर बनता चला गया और नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक कै दौर में दोनों सवालों से हर सत्ता जुढती रही उसमें पहली बार प्रधानमंत्री मोदी ने इन्हीं दो सवालों से जनता को सीधे जोडकर संसद और संसदीय राजनीति के उस लोकतंत्र को ही ठेंगा दिखा दिया है, जिसे लेकर जनता ये हमेशा सोचती रही कि कोई सत्ता जब इसे सुलझा नहीं पाती तो फिर सत्ता का मतलब क्या हो। क्या ये माना जाये कि जन भावनाओं को साथ लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता चलाने के संसदीय लोकतंत्र को अपनी मुठ्ठी में कैद तो नहीं कर लिया। या फिर सत्ता के लिये संजीवनी इसी निरकुंश कार्रवाई में छिपी है। क्योंकि लग ऐसा रहा है जैसे भ्रष्ट राजनीति दरकिनार हो रही है और मोदी विरोध के राजनीतिक स्वर सिवाय सत्ता के लिये छटपटाते विपक्ष के अलावे और कुछ भी नहीं है। तो आईये जरा परख लें देश में क्या वाकई प्लेइंग फील्ड हर किसी के लिये बराबरी का है या फिर नया खतरा संविधान को भी सत्ता के जरीये परिभाषित करने का है। क्योंकि लोकसभा के सांसदों को ही परख लें।

2009 में लोकसभा के 543 सांसदों की कुल संपत्ति अगर 30 अरब 75 करोड़ रुपये थी। तो मौजूदा लोकसभा के 543 सांसदों की कुल संपत्ति 65 अरब रुपये है। यानी आजाद भारत की सबसे रईस संसद। जहां के मुखिया प्रधानमंत्री मोदी देश में अर्थक्रंति लाना चाहते है तो तमाम सांसदों को देश की गरीब जनता की फिक्र है। तो जनता और देश की फिक्र हर किसी को है लेकिन समूची संसद ही इस सच पर हमेशा मौन रहती है कि आखिर औसतन 12 करोड़ की संपत्ति जब हर सांसद के पास है तो फिर उनके सरोकार जनता से कैसे जुड़ते हैं। और बीते 5 बरस में संसद की रईसी दुगुनी कैसे हो गई। जबकि देश और गरीब हुआ । तो सांसदों के बैक स्टेटमेंट से होगा क्या। देखने में ये फार्म ईमानदारी का पाठ पढ़ा सकता है। लेकिन जरा समझे कैसे सांसद रईस होता है। और उस रईसी की वजह कोई नहीं जानता और सारी रईसी टैक्स देकर होती है। मसलन वर्तमान वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2006 में जब राज्यसभा की सदस्यता पाई थी तो उनके एफिडेविट के मुताबिक संपत्ति 23 करोड़ 96 लाख से ज्यादा थी, जो 2014 के लोकसभा चुनाव लड़ते वक्त दाखिल एफिडेविट में बढ़कर 1 अरब 13 करोड़, 2 लाख रुपए से ज्यादा हो गई। यानी पांच गुना से ज्यादा। इसी तरह कानून और दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने 2006 में राज्यसभा का चुनाव लड़ते वक्त अपनी संपत्ति 1 करोड़ 71 लाख के करीब बताई थी, और 2014 में बतौर मंत्री अपनी संपत्ति बतायी 18 करोड़ 11 लाख 41 हजार 397 रुपये । यानी 8 बरस में करीब सोलह गुना संपत्ति बढ गई। तो संपत्ति कैसे बढ़ती है। ये सवाल इसलिये क्योकि इस दौर में ना तो सरकारी कर्मचारी की सपंतित की रफ्तार इस तेजी से बढती है ना ही दिहाडी मजदूर और देश के किसानों की। तो कल्पना कीजिये जब प्रधानमंत्री मोदी ही किसानों को 50 फिसदी न्यूमत समर्थन मूल्य कहकर बढ़ा नहीं पाये । तो फिर नेताओं की संपत्ति बढ कैसे जाती है । चाहे वह सांसद हो या विधायक। क्योंकि सवाल सिर्फ वित्त मंत्री या कानून मंत्री का नहीं सवाल तो हर सांसद का है । जो संसद में गरीबो के गीत गा रहा है या फिर संसद ठप कर प्रधानमंत्री मोदी को कटघरे में खड़ा कर रहा है। क्योंकि संसद के हंगामे का सच यही है कि संसद ना तो कारखाना है ना ही खेती की जमीन। फिर भी लोकसभा में बैठे 543 सांसदों की कुल संपत्ति 65 अरब रुपये की है। तो क्या संसद और
विधानसभा नेताओं को ऐसा विशेषाधिकार दे देती है, जहां वह किसी भी प्रोफेशनल्स से बड़े जानकार और किसी भी कारपोरेट से बडे कारोपरेट हो जाते है क्योंकि उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है। दरअसल देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि गरीबी की रेखा खींचने से लेकर कारपोरेट को लाइसेंस देने का अधिकार राजनीतिक सत्ता के पास होता है। यूनिवर्सिटी के वीसी की नियुक्ति से लेकर हर संवैधानिक संस्था में डायरेक्टर की नियुक्ति सत्ता ही करती है । तो ऐसे में किसी भी पार्टी का कोई भी सांसद रहे वह अपने बैंक स्टेटमेंट को अगर देश के सामने रख भी देखा तो भी ये सवाल तो गौण ही रहेगा कि आखिर इनकी कमाई होती कैसे है । और होती है तो उसमें उनकी सियासी ताकत कैसे काम करती है । फिर मुद्दा किसी एक पार्टी या सत्ता का नहीं है। क्योंकि पूर्व टेलीकॉम मंत्री कपिल सिब्बल की संपत्ति देखें तो 2014 के लोकसभा चुनावों के वक्त 114 करोड़ थी,जो सत्ता गंवाने के बाद भी धुआंधार बढ़ी और जब इस साल राज्यसभा के लिए ऩामांकन किया तो उनकी घोषित संपत्ति 184 करोड़ हो गई थी। तो नेता अपना काम बखूबी करते हैं, और ये बात उनकी बढ़ती संपत्ति से समझी जा सकती है। लेकिन-सीधा सवाल यही है कि जब नेताओं को अपना धंधा ही चमकाना है तो उन्हें समाजसेवा या कहें राजनीति में क्यों आने दिया जाए। राजनीति से नेताओं की निजी बैलेंसशीट बढ़ रही है। उनकी संपत्ति बैंक में है तो वो व्हाइट है ही। या कहें कि वो पहले से आयकरवालों की निगाहों में हैं। तो ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी अगर 8 नवंबर से 31 दिसंबर के बीच बीजेपी सांसदों और विधायकों की बैंक में जमा राशि की रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष को सौंपने के लिए कह रहे हैं तो उसका मतलब है क्या। क्या ये खुद ही खुद को ईमानदारी की क्लीनचिट देने की कवायद है या पार्टी को लगता है कि आयकर विभाग का ही कोई मतलब नहीं।

Monday, November 28, 2016

काश ! मोदी जी के समाजवाद का सपना सच हो जाए

देश के शहर दर शहर घूम लीजिये। बाजारों में चकाचौंध है। दुनिया भर के ब्रांडेड उत्पाद से भरी दुकान\मॉल हैं। देखते देखते बीते 20 बरस में भारत का बाजार इतना ब़डा हो गया कि दुनिया के बाजार में भारत के बाजार की चकाचौंध की धूम तले हिन्दुस्तान का वह अंधेरा ही छुप गया जो बाजार में बदलते भारत से कई गुना ज्यादा बड़ा था। लेकिन सच यही है हिन्दुस्तान के अंधेरे की तस्वीर कभी संसद को डरा नहीं सकी। नेताओं के ऐश में खलल डाल नहीं सकी। अंधेरे में समाया हिन्दुस्तान अपनी मौत लगातार मरता रहा। और इनकम और कैलोरी की लकीर पर खड़ा होकर गरीबी की रेखा को पार करने के लिये ही छटपटाता रहा। तो हिन्दुस्तान की इस दो तस्वीरों को पाटने के लिये ही क्या नोटबंदी का जुआ प्रदानमंत्री मोदी ने चला है। या फिर उस राजनीति को साधने के लिये यह जुआ खेला, जिसमें वोटबैक जाति-धर्म की लकीर को छोड़ दें। यानी एक तरफ 45 करोड उपभोक्ता। जो दुनिया के किसी भी विकसित देश से कहीं ज्यादा। दूसरी तरफ 80 करोड भूख से बिलबिलाते नागरिक। जो दुनिया के कई देशो को खुद में समा लें। तो पहली बार खरीदारों या कन्ज्यूमर के हाथ बंध गये हैं। चकाचौंध बाजार की रईसी थम गई है। खरीद कम हो गई है ।

तो हर जहन में सवाल है कि क्या बाजार अर्थव्यस्था के दिन पूरे हो गये। यानी फिक्की और पीड्ल्यूसी की सितहबंर की रिपोर्ट जो भारत के बाजार को 2020 तक 3.6 ट्रिलियन डॉलर यानी 240 खरब रुपये की देख रहे थे । वह अब ढहढहाकर गिर जायेगी। क्योंकि भारत के उपभोक्ताओ की ताकत को दुनिया के बाजार में कंजमशन की हिस्सेदारी 5.8 फीसदी तक देखी जा रही थी । तो क्या वाकई भारत 80 करोड की गरीबी को ढोने के लिये बाजार अर्थव्यस्था की कमाई को उठाये हुआ था। या फिर भारत को बाजार में बदलने की जो सोच 1991 से चल रही थी, उसे बदलना पलटना इसलिये जरुरी था क्योंकि भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत पश्चिमी इकनॉमी को अपनाने की इजाजत देती नहीं है। इसीलिये संसद के सरोकार तक देश से मेल नहीं खाते है। कानूनी व्यवस्था तक में 80 करोड नागरिकों के लिये कोई जगह नहीं है। शिक्षा-स्वास्थ्य। बिजली -पानी। तक कन्जूयमर के लिये है लेकिन 80 करोड़ नागरिकों के लिये कुछ भी नहीं है। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी का कदम सफल हो या असफल देश हमेशा के लिये एक ऐसे चक्र में जा खड़ा हुआ है, जहां से आगे का रास्ता अब मौजूदा हिन्दुस्तान में व्यापक बदलाव लायेगा ही। तो आइए देखते हैं अगर हिन्दुस्तान बदलेगा तो आने वाला हिन्दुस्तान होगा कैसा। लोकतंत्र का मंदिर ही माना जाता है संसद को। लेकिन ये भी अजीब बिडंबना है कि देश की ये एकमात्र इमारत है जो वोट लेने के लिये समूचे देश की नुमाइन्दगी करती है लेकिन उसके अपने सरोकार हिन्दुस्तान के नागरिकों से ही मैच नहीं करते। इतनी ही नहीं लोकतंत्र के इस मंदिर में बैठे सांसदों की आय किसी भी कारपोरेट या किसी भी जनहित वाली इमारत से कहीं ज्यादा महंगी है।

तो दो सवाल आपके जहन में आयेंगे। पहला, कैसे जनता के दर्द को ये बांट सकते है और अगर जनता के दर्द को ये आजादी के बाद से ही बांट नहीं पाये तो फिर दूसरा सवाल-क्या वक्त आ गया है कि उनकी जरुरतों की सीमायें बांध दी जाये। यानी नोटबंदी के बाद अगर उपभोक्ताओं की राशनिंग हो गई। तो नेताओं और सांसदो की राशनिंग क्यों नहीं होनी चाहिये । सांसदों को भी देशहित में सेवक की तर्ज पर क्यों नहीं रहना चाहिये । यानी लुटियन्स की दिल्ली जो सबसे महंगी है वहां रहने वाले मंत्री या संवैधानिक संस्थानों के प्रमुखों के लिये देश का इतना पैसा क्यो व्यर्थ हो। मसलन -पीएम का घर यानी 7 रेसकोर्स ही छह घरो को मिलकर बनाया गया है। बंगला नं 1,3,5,7, 9 और 11 को मिलकर बनाये गये पीएम निवास करीब सौ एकड़ में फैला हुआ है । जबकि घर की इमारत सिर्फ 12 एकड़ में है । वहीं राष्ट्र्पति का निवास 4 हजार एकड़ में फैला हुआ है । जबकि तीन सौ कमरे का राष्ट्रपति के घर का फ्लोर एरिया 2 लाख स्कॉयर फीट है । इसी तर्ज पर दुनिया का सबसे महंगा इलाका लुटियन्स की दिल्ली में मंत्रियों और संवैधानिक सस्थानों के प्रमुखों के घर भी औसतम 12 एकड़ में फैले हुये हैं। जाहिर है रहने के तौर तरीके अंग्रेजों के दौर के ही हैं। तो फिर आजादी के बाद जब भ्रष्टाचार का कच्चा चिट्टा खोलने का जिक्र हो रहा है और देश में गरीबों का जिक्र हो रहा है तो फिर ये क्यों ना मान लिया जाये कि सत्ता और राजनेताओं की रईसी भी अब खत्म होगी। जो कि जनता और देश के पैसे की खुली लूट है। और इस दायरे को अगर बड़ा करें तो फिर करोड़पति सांसद और करोड़पति विधायकों की जो लंबी फौज है, क्या वह राजनीति में आने से पहले भी करोड़पति थे। एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि 72 फिसदी नेता का करोड़पति होना सत्ता में आने के बाद हो पाता है। 44 फिसदी लोग नेतागिरी शुरु करने के बाद करोड़पति हो जाते हैं। देश के 34 फिसदी नेताओं के अपने धंधे होते हैं। तो क्या नोटबंदी का मंथन अब देश में बराबरी ककहरा सुना पायेगा। क्योकि देश बदलेगा तो फिर करोडों स्वाहा कर होने वाले चुनाव के तौर तरीके भी बदल जायेंगे। क्योंकि याद कीजिये 2014 के लोकसभा चुनाव को। चुनाव आयोग ने 38 अरब 70 करोड खर्च किये तो राजनीतिक दलों ने पैंतिस अरब रुपये। इसके अलावा करोडों- अरबों रुपया कालाधन कैसे चुनाव के वक्त फूंका जाता है ये 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट में खुले तौर पर कह दिया गया था कि कैसे ब्लैक मनी . करप्शन का पैसा और अपराधियो का मनी पावर भी चुनाव में जुड जाता है । तो क्या 2019 तक आते आते चुनाव के तौर तरीके बदल जायेंगे। यानी जब बाजार अर्थव्यवस्था ही ढह जायेगी तो फिर कारपोरेट और उद्योगपति राजनीतिक दल को चंदा क्यों देंगे। और जब कैशलैस समाज बनाने की दिशा में मोदी सरकार बढ़ चुकी है । तो फिर चुनाव के लिये एवीएम मशीन की जरुरत क्यों होगी। एप के जरीये या अलग अलग तरह के कार्ड के जरीये लोग घरों में बैठकर ही वोट क्यों नहीं पायेंगे। यानी चुनाव आयोग को चुनाव ने 2014 के चुनाव में जिस तरह 3870 करोड रुपये खर्च किये और उसके अलावा सुरक्षा बंदोबस्त, रेलवे का खर्चा, राज्यों में सुरक्षा का बाकि खर्चा । ये सभी खत्म हो जायेगा। क्योंकि चुनावी खर्च भी बढ़ रहा है और चुनाव लड़ने में जितना खर्चा उम्मीदवार करते है उससे लगता यही है कि अगर आप करोड़पति नहीं है तो चुनाव लड ही नहीं सकते है । क्योकि हर चुनाव इतना महंगा हो चला है कि अगर वह कालाधन ना हो या क्रोनी कैपटलिज्म का हिस्सा ना हो तो भारत अमेरिका से ज्यादा रईस लगेगा । लेकिन सच तो यही है कि चुनाव ही वह तंत्र है जब कालाधन बाहर निकलता है । अपराधी, कारपोरेट सभी अपने भ्रष्टाचार का बंदरबांट राजनीतिक दलों के साथ करते हैं। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2006 से 2016 के दौरान 8163 उम्मीदवारों की औसत संपत्ति एक करोड़ 57 लाख रुपये थी। चुने गये 596 सासंद विधायकों की औसत संपत्ति 5 करोड 45 लाख रुपये थी । यहीं से सवाल पैदा होता है कि क्या कैशलैस समाज की कोशिशों का एक सिरा वर्चुअल इलेक्शन से भी जुड़ता है। क्योंकि-इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशन के आसरे मोदी जिस तरह कैशलैस समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और प्रधानमंत्री कार्यालय के कर्मचारियों तक को तकनीक की ट्रेनिंग देकर बताने की कोशिश की जा रही है कि भविष्य मोबाइल एप्लीकेशंस का ही है तो क्या मोदी का नया मंत्र वर्चुअल इलेक्शन भी होगा।

वर्चुअल इलेक्शन यानी न लंबी कतारों का झंझट, न फर्जी वोटों का खतरा, न ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप, न पोलिंग स्टेशनों पर धमकाए जाने की खबरें और वोटरों को प्रभावित करने के लिए लाखों का पेट्रोल फूंकती उम्मीदवारों की गाड़ियां। क्योंकि-वर्चुअल इलेक्शन होंगे तो चुनाव इंटरनेट और मोबाइल एप्लीकेशंस के जरिए ही होंगे। यानी आप अपने रजिस्टर्ड मोबाइल नंबर या ईमेल या ऐसी ही किसी व्यवस्था से सीधे घर बैठे वोट कीजिए । अब सवाल ये कि क्या 2019 के चुनाव में वर्चुअल इलेक्शन का हाईटेक प्रयोग किया जा सकता है ? दरअसल,इंटरनेट से वोटिंग का सवाल कोई नया नहीं है। सवाल है बुनियादी ढांचे का। और जिस तरह कैशलैस सोसाइटी बनाने की कवायद की जा रही है-उसमें मोदी इवोल्यूशन के बजाय रिवोल्यूशन का रास्ता तो अपना ही चुके हैं। और रिवोल्यूशन का मतलब ही है बड़े बदलाव। और इस बड़े बदलाव में यह भी संभव है कि झटके में चुनावी प्रचार पर पाबंदी लगाकर उसे इंटरनेट एप्लीकेशंस से ही जोड़ दिया जाए। यानी -चुनावी पार्टियों से कहा जाए कि वो सिर्फ अपने चुनावी विज्ञापन अपनी वेबसाइट या सोशल साइट्स पर दिखा सकते हैं । देश में अभी 100 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन हैं, और करीब 46 करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर्स और ये संख्या तेजी से बढ़ रही है। अगर ये सब बदल रहा है तो फिर गांव भी बदलने चाहिये और राजनीति को गांव की जिम्मेदारी से मुक्त कर देना चाहिये। क्योंकि जिस आदर्श ग्राम परियोजना के आसरे पीएम गांवो का हाल सुधारना चाहते थे-उसका दूसरा सच यह है कि 795 में से जिन 87 सांसदों ने दूसरा गांव गोद भी लिया उनके जरीये पहला गांव भी जर्जर ही है। तो फिर सांसदों को सांसद निधि का पैसा दिया ही क्यों जाये। यानी सांसद कोई जिम्मेदारी पूरी करते नहीं और गांवों के हालात को ठीक करना है तो सालाना 39 अरब 50 करोड रुपये जो प्रति सांसद को पांच करोड़ रुपये के हिसाब से बांटा जाता है उसे बंद कर दिया जाये। और किसी कंपनी या कारपोरेट को हर बरस 39 अरब रुपये देकर जर्जर गांवों को ठीक करने का जिम्मा सौप दिया जाये तो कही ज्यादा बेहतर होगा। क्योंकि राजनेताओं का सच तो ये हो चला है कि उनके भीतर के समाजसेवी और बिजनैसमैन का फर्क अब मिट चुका है। आलम ये है कि लोकसभा में 128 सांसद बिजनेस मैन भी है। राजयसभा में 125 सांसद बिजनेस मैन है । देश भर के 4228 विधायको में 1258 विधायक ऐसे है, जिनका अपना अलग धंधा भी है । तो कल्पना किजिये नोटबंदी के बाद किस धंधे या किस बिजनेस मैन पर कितना असर पड रहा होगा । और देश के चुने हुये नुमाइन्दों को क्या वाकई जनता से कुछ लेना देना भी है । और सांसदों या विधायको के बिजनेस मैन की कैटगरी में कारपोरेट इंडस्ट्रिस्ट से लेकर बिल्डर और कालेज स्कूल अस्पताल चलाने से लेकर होटल चलाने वाले राजनेता भी है। तो आने वाले वक्त में क्या धंधेबाजों की नेतागिरी बंद हो जायेगी। या पार्टियां उन्हें ही टिकट देगी जो वाकई समाजसेवी होगा । क्योंकि बिजनैसमैन समाजसेवी तो नहीं ही हो सकता है। तो क्या मोदी जी का समाजवाद वाकई कोई गुल खिलायेगा या उडन-छू हो जायेगा।







Thursday, November 24, 2016

भ्रष्ट सिस्टम और ब्लैक मनी पर टिकी राजनीति से सफाई कैसे होगी ?


पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गुरुवार के दिन राज्यसभा मेंप्रधानमंत्री मोदी को नोटबंदी पर चेतावनी दी। और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कभी गंभीर हुये कभी मुस्कुराये। और भोजनावकाश के बाद विधान पर टिके राज्यसभा का ही डिब्बा गोल हो गया क्योंकि सदन में पीएम नहीं पहुंचे। तो ऐसे में पूर्व पीएम ने भी नहीं सोचा कि सदन में आलथी पालथी मारकर तबतक बैठ जाये जब तक संकट में आये देश के निकलने का रास्ता पीएम मोदी आकर ना बताये। एक ने कहा। दूसरे ने सुना। और संसद ठप हो गई । तो 62 करोड़ नागरिक जो गांव में रहते है और करीब 29 करोड नागरिक जो शहरों की मलिन बस्स्तियों और झोपडपट्टियों में रहते हैं, उनकी जिन्दगी से तो जीने के अधिकार शब्द तक को छीना जा रहा है उस पर कब कहां किसी पीएम ने बात की। और 90 करोड़ नागरिकों से ज्यादा के इस हिन्दुस्तान का सच तो यही है कि न्यूनतम की जिन्दगी भी करप्शन और नाजायज पैसे पर टिकी है। गांव में हैडपंप लगाना हो। घर खरीदना हो । रजिस्ट्री करानी हो। सरकार की ही कल्याणकारी योजनाओं का पैसा ही बाबुओं से निकलवाना हो। बैंकों के जरीये सरकार के पैसे को बांटना हो। यानी जहां तक जिसकी सोच जाती हो वह सोच सकता है और खुलकर कह सकता है कि बिना कुछ ले देकर क्या कोई काम वाकई इस सिस्टम में होता है। दिल्ली में ही लाल डोरा की जमीन हो या जायज जमीन पर मकानबनाने का काम शुरु करना। पुलिस से लेकर इलाके के नेता वसूली के लिये कैसे टूट पड़ते हैं। किससे छुपा है। हर विभाग का एनओसी कितने में बिकता है, रेट तक तय है। नोटबंदी के दौर में टोल फ्री चाहे हो लेकिन दिल्ली से लेकर हर राज्य में पुलिसिया वसूली जारी है। ये सिस्टम ना चेक पर चलता है । ना क्रेडिट या डेबिट कार्ड पर। और यह सिस्टम चलता भी क्यों है, इस पर भी कोई पीएम तो दूर कोई मंत्री या नेता बोलना नहीं चाहता। लेकिन नोटबंदी के सवाल ने हर किसी को आम आदमी के दर्द से ऐसे जोड दिया है कि हर का सुर एक है। चाहे दोनों खिलाफ क्यों ना हो। जैसे यूपी में मायावती और मुलायम । तो क्या मायावती नोटो के हार को भूल गई। क्या शानदार दृश्य था। और समाजवादी भूल गये कैसे साइकिल की सवारी से दो करोड़ की बस के सफर पर अखिलेश यादव चुनाव प्रचार में निकल पड़े। 2012 में साइकिल पर यूपी में घूमे तो सत्ता मिली। और सत्ता दुबारा चाहिये तो साइकिल की तस्वीर दो करोड़ की बस पर लगाकर बुंदेलखंड सरीखे इलाके में भी जाने में परहेज नहीं।

जहां दो जून की रोटी अब भी सवाल है। यानी एक तरफ नेताओ के लिये भरे पेट जनता के सरोकार से जुडने की ऐसी वकालत है, जिसमें जीडीपी पर संकट दिखायी दे रहा है। लड़खड़ाती बाजार व्यवस्था नजर आ रही है। व्यापार ठप होने से माथे के बल पड रहे हैं। लेकिन इस महीन लकीर का जिक्र करने से हर कोई बच रहा है कि देश में संकट संसाधनों के खत्म होने से ही ये हालात बने हैं। इसीलिये पीएम ने रिजर्व बैक के अधिकार तक को हड़प लिया। तो फिर ऐसा सिस्टम बनाया किसने जिसमें सुप्रीम कोर्ट के वकील अरबपति हो गये। प्राइवेट अस्पताल चलाने वाले खरबपति हो गये। प्राइवेट शिक्षा संसाधन चलाने वाले अरबो खरबो के मालिक हो गये। इन्हें पैसा देता कौन है। और जो देता है वह है कौन। ये कहां किसी से छिपा है। हर पीएम जानता है। हर सरकार को इसकी जानकारी है। इसीलिये तो सुप्रीम कोर्ट तो दूर हाईकोर्ट तक क्यों कोई आम आदमी अपना केस नहीं लड़ पाता। बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल में आम जनता इलाज नहीं करा पाती। निचली अदलत के चक्कर और बिना इश्योरेंस प्राइवेट अस्पताल मे इलाज किसी आम जनता के लिये घर-बार बेचने सरीखा हो जाता है। और यह पूरा खेल नकदी का है। तो क्या ये खेल नोटबंदी के 50 दिन के दर्द-परेशानी को सहने के बाद खत्म हो जायेगा। अगर प्रधानमंत्री मोदी भरोसा दिलाते है । हां खत्म हो जायेगा तो शायद हर कोई देश बदलने को तैयार है । लेकिन खत्म होगा नहीं । और ईमानदार भारत बनाने की भावनाओं के उभार का ये खेल है तो फिर ये भी मान लीजिए अंधेरा वाकई घना है । क्योंकि याद कीजिये ठीक 25 बरस पहले वीपी सिंह स्वीस बैंक का नाम लेते तो सुनने वाले तालियां बजाते थे। और 25 बरस बाद नरेन्द्र मोदी ने जब स्विस बैंक में जमा कालेधन का जिक्र किया तो भी तालियां बजीं। नारे लगे । 25 बरस पहले स्विस बैंक की चुनावी हवा ने वीपी को 1989 में पीएम की कुर्सी तक पहुंचा दिया। और ध्यान दें तो 25 बरस बाद कालेधन और भ्रष्टाचार की इसी हवा ने नरेन्द्र मोदी को भी पीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। 25 बरस पहले पहली बार खुले तौर पर वीपी सिंह ने बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा स्विस बैंक में जमा होने का जिक्र अपनी हर चुनावी रैली में किया। हर मोहल्ले। हर गांव। हर शहर की चुनावी रैली में वीपी के यह कहने से ही सुनने वाले खुश हो जाते कि बोफोर्स घोटाले के कमीशन का पैसा कैसे स्विस बैंक में चला गया और वीपी पीएम बन गये तो पैसा भी वापस लायेंगे और कमीशन खाने वालो को जेल भी पहुंचायेंगे। तब वोटरों ने भरोसा किया। जनादेश वीपी सिंह के हक में गया। लेकिन वीपी के जनादेश के 25 बरस बाद भी बोफोर्स कमीशन की एक कौडी भी स्विस बैंक से भारत नहीं आयी। तो क्या 25 बरस बाद स्वीस बैक में जमा कालेधन से फिसल कर प्रधानमंत्री मोदी ने देश में जमा कालेधन का जिक्र कर जब नोटबंदी का शिकंजा कसा तो झटके में वही बाजार व्यवस्था आ गई जिसपर देश ही नहीं सियासत भी चल रही है । क्योंकि देश की इकनॉमी चलाने वाले राजनीति, कारपोरेट, औघोगिक घराने , बिल्डर से लेकर खेल और सिनेमा तक के घुरघंर है । इतना ही नहीं ड्रग, घोटाले, अवैध हथियार से लेकर आंतक और उग्रवाद तक की थ्योरी के पीछे बंधूक की नली से निकलने वाली सत्ता भी अगर कालेधन पर जा टिकी हो तो फिर नकेल कसने का तरीका नोटबंदी से कैसे निकलेगा । क्योंकि इनका कालाधन रुपये पर नहीं डॉलर पर टिका है। देश के नही दुनिया के बाजार में घुसा हुआ है। खनन से लेकर रियल इस्टेट का धंधा देश के बाहर कही ज्यादा आसान है। तो क्या कालेधन का सवाल राजनीतिक सत्ता के लिये किसी फिल्म के सुपर हिट होने सरीखा है। क्योंकि मोदी सरकार ने जिन 627 कालेधन के बैंक धारकों के नाम सुप्रीम कोर्ट को सौंपे हैं। उन नामों को भी स्विस बैंक में काम करने वाले एक व्हीसिल ब्लोअर ने निकाले । जो फ्रांस होते हुये भारत पहुंचे।

और इन्हीं नामों को सामने लाया जाये इसपर पहले मनमोहन सरकार तो अब मोदी सरकार उलझी है। ध्यान दें तो वीपी सिंह के दौर में भी सीबीआई ने बोफोर्स जांच की पहल शुरु की और मौजूदा दौर में भी सुप्रीम कोर्ट ने 627 खाताधारकों के नाम सीबीआई को साझा करने का निर्देश देकर यह साफ कर दिया कि कालाधन सिर्फ टैक्स चोरी नहीं है बल्कि देश में खनन की लूट से लेकर सरकार की नीतियो में घोटाले यानी भ्रष्टाचार भी कालेधन का चेहरा है। जिसका जिक्र नोटबंदी के बाद से मोदी सरकार के मंत्री लगातार संसद के भीतर मनमोहन के दौर के घोटालो का जिक्र कर कह रहे है । ऐसे हालात में अगर कालेधन के इसी चेहरे को राजनीति से जोडे तो फिर 1993 की वोहरा कमेठी की रिपोर्ट और मौजूदा वक्त में चुनाव आयोग का चुनाव प्रचार में अनअकाउंटेड मनी का इस्तेमाल उसी राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खडा करती है जो सत्ता में आने
के लिये स्वीस बैंक का जिक्र करती है और सत्ता में आने के बाद स्वीस बैंक को एक मजबूरी करार देती है । यह सवाल इसलिये बडा है क्योकि कालाधन चुनावी मुद्दा हो और कालाधन ही चुनावी प्रचार का हिस्सा बनने लगे तो फिर कालाधन जमा करने वालो के खिलाफ कार्रवाई करेगा कौन । दूसरा सवाल जब देश की आर्थिक नीतियां ही कालाधन बनाने वाली हो तो फिर व्यवस्था का सबसे बडा पाया तो राजनीति ही होगी।

Wednesday, November 23, 2016

गरीबों पर कहा सबने लेकिन गरीबों की सुनी किसने ?

तो सत्ता संभालते ही गरीबो का दर्द जिस प्रधानमंत्री की जुबां पर हो। उस प्रधानमंत्री की हर निर्णय गरीबों के हित या फिर गरीबों की फ्रिक से जुड़ा क्यों ना होगा। ये अलग बात है कि सरकार का नजरिया गरीबों और ग्रामीणों से ज्यादा कारपोरेट हित को साधने में लगा। और वजह यही है कि कारपोरेट को तमाम तरह के टैक्स में हर बरस छूट औसतन 5 लाख करोड़ की मिलती रही। लेकिन दूसरी तरफ ग्रामीण क्षेत्र के बुनियादी ढांचे, रोजगार, हेल्थ, शिक्षा , खेती सभी को लेकर भी बजट 4 लाख करोड़ से ज्यादा सरकार दे नहीं पायी। तो क्या गरीबो का जिक्र सिर्फ जुबां पर होता रहा है। क्योंकि इंदिरा गांधी ने भी गरीबी हटाओ का नारा दिया था। लेकिन गरीबी हटाओ के नारे के बाद बीते चार दशक में 8 करोड 90 लाख गरीबों की संख्या बढ गई।

लेकिन मोदी की नोटबंदी इंदिरा के गरीबी हटाओ से मेल नही खाती । क्योंकि इंदिरा तो अमीरों के खिलाफ नहीं थी । लेकिन मोदी ने झटके में अमीरों को खलनायक तो करार दे ही दिया है। तो क्या वाकई जिस बात का जिक्र आज गरीबों के नाम पर वित्त मंत्री कर गये वह सही है। तो याद कीजिये जेटली ने पहले बजट को पेश करते हुये साफ कहा था। गरीबों के लिये पैसा तो रईसो की जेब सेही आयेगा। तो क्या प्रधानमंत्री मोदी अब 1991 में खिंची गई खुली अर्थव्यवस्था की इक्नामी को पलटने में लग गये है । या फिर प्रधानमंत्री मोदी इंदिरा की तर्ज पर उस रास्ते पर निकल चुके है जब 1971 में इंदिरा गांधी ने प्रीवी पर्स और बैंकों के ऱाष्ट्रीयकरण के जरीये कांग्रेस के भीतर के सिंडिकेट और बाहर विपक्षी को घराशायी कर 1971 का चुनाव जीता था। यानी मोदी बीजेपी की उस राजनीति को भी बदल रहे है जो कारपोरेट की हिमायती रही। या फिर गरीब और पिछड़ों के साथ खुद को खड़ाकर मोदी अब बीजेपी के लिये ही एक नयी राजनीति गढ रहे हैं,जहां बीजेपी अब व्यापारियो की पार्टी नहीं कहलायेगी। गरीब-पिछडो के बीच मोदी स्टेटेसमैन हो जायेंगे। यानी 1991 की जिस इक्नामिक थ्योरी की लीक पर बीते 25 बरस से पीवी नरसरिह राव से लेकर वीपी और वाजरपेयी से होते हुये मनमोहन सिंह का दौर खप गया । उस दौर में बाजार को मजबूत करने के लिये हर सत्ता ने सिर्फ लुटाया ही । और ग्रामीण भारत के लिये या कहे गरीबो पर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं तो क्या मोदी अब शाइनिंग इंडिया के भ्रम को तोडकर खुरदुरे भारत को ठीक करना चाह रहे हैं। तो तीन सवाल हर जहन में आयेंगे। पहला ग्रामीण भारत को पटरी पर लाने के लिये पैसा कहॉ से आयेगा। दूसरा, ग्रामीण भारत को स्वावलंबी बनाने के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर कहां से लायेंगे। तीसरा , बैंकिंग सर्विस भी 93 फिसदी ग्रमीण क्षेत्रों में कबतक पहुंचेगी । यानी सवाल सिर्फ ये नहीं है कि गरीबो के बिजली पानी रोटी हेल्थ रोजगार शिक्षा मिल जाये । यवाल ये है कि क्या वाकई अब हर घंटे 7 करोड रुपये डायरेक्ट कारपोरेट इन्कम टैक्स को माफ करना बंद हो जायेगा । हर बरस करीब 5 लाख करोड से ज्यादा की जो छूट तमाम टैक्सो में कारपोर्ट को मिल जाती है वह बंद हो जायेगी । खेती पर टिके 60 फिसदी भारत को दो जून की रोटी भी मिल जायेगी ।

ये सवाल इसलिये क्योकि जिस रास्ते देश चल रहा है । और जिस रास्ते देश को ले जाने का सपना प्रदानमंत्री मोदी दिखा रहे है । उसमे लगना उसी देश की सत्ता, सिस्टम और लोगो को है । जो अभी तक मैसेज यही दे रही है कि सत्ता घमंड से चूर है । नौकरशही चाटूकार है और जनता देशभक्ति की रौ में है और तीनो का काकटेल है कितना खतरनाक इसे प्रदानमंत्री मोदी जरुर समझ रहे होगें । क्योकि ग्रमीण भारत का ये सच है । 82 फिसदी परिवारो की आय 5 हजार रुपये महीने से कम की है । 7.9 फिसदी परिवारो की आय 10 हजार रुपये महीने से कम की है । और 4.7 पिसदी की आय 15 हजार रुपये महीने से कम की है । यानी जिस देश में गरीबी की रेखा 32 रुपये रोज पर टिकी हो । जिस देश में 80 फिसदी गाववाले भूमिहीन मजदूर हो । और जिस देश में मजदूरो के लिये मनरेगा के नाम पर हर साल 38 हजार करोड का बजट देकर सरकार अपनी पीठ ठोकती हो । तो ग्रामीण भारत के दर्द पर मनरेगा की उपलब्धि ही जब सरकारो को राहत दे देती हो तब इस सच को कौन कहेगा कि सिर्फ पीने का साफ पानी और दो जून की रोटी को देने के लिये भी सरकार के पास बजट नहीं है ।

यानी जिस चार लाख करोड से लहूलूहान गरीब भारत पर सरकार मलहम लगाने का काम मौजूदा सरकार कर रही है उसके भीतर का सच यही है कि दिल्ली में नेहरु से लेकर मौजूदा वक्त तक कोई पीएम हो गांव बचे कैसे इसपर किसी ने ध्यान दिया ही नहीं । नदियो के जाल और उपजाउ जमीन के बीच इन्द्र देवता ही ग्रामीण भारत के फाइनेंस मनीस्टर से लेकर पीएम तक रहे । क्योकि 1950 से 2016 तक के दौर में सिर्फ 23 फिसदी सिचाई की व्यवस्था खेतो में हो पायी । 60 बरस के ग्रामीण विकास का बजट बीते 10 बरस के कारपोरेट छूट से भी कम रहा । यानी ये कल्पना के परे है कि गरीब और ग्रामीण भारत के सामानान्तर शहरी गरीब और आधुनिक शहरो पर जो खर्च तमाम सत्ता ने किये अगर उतना पैसा गांव के इन्फ्रस्ट्कचर पर हो जाता तो 12 करोड ग्रामीणो का पलायन शहरो में काम के लिये नहीं होता । 11 करोड शहरी गरीब प्रतिदिन 35 रुपये पर जिन्दगी बसर नहीं करते । यानी कैसे हर दौर में गाव और गरीबो के नाम पर दिल्ली की सत्ता ने देश को बेवकूफ बनाया गया है ये मौजूदा बजट से भी समझा जा सकता है । महज 1.51 करोड रुपये शिक्षा-हेल्थ समेत तमाम सोशल सेक्टर के लिये आवंटित किया गया वही 5,72,923 करोड रुपये कारपोरेट को टैक्स में छूट दे दी गई । यानी इक्नामी का रास्ता गांव से नहीं शहरो से निकला . इसीलिये स्मार्ट सिटी की लकीर भी मौजूदा वक्त में खिंची गई । क्योकि गाव के लिये पैसा आये कहा से ये सवाल शहरी सत्ता को आधुनिकतम विकास से जुडने के लिये मार्केट इक्नामी की तरफ ढकेलती रही । तो क्या जो सवाल नेहरु से इंदिरा और वाजपेयी से मनमोहन सिंह गरीबो को लेकर उठाते रहे उसे बिलकुल नयी परिस्थितियो में प्रदानमंत्री मोदी ले जा चुके है । जहा सियासत, समाजवाद और सत्ता का मिश्रण है ।

और दुनिया में कालाधन का सच यही है कि अमेरिका में सबसे ज्यादा कालाधन है, और भारत का नंबर कम से कम शुरुआती पांच देशों में नहीं है। और जिस कालाधन को रोकने के लिए 500 और 1000 के नोट पर पाबंदी के कदम को उठाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी पीठ ठोंक रहे हैं, बिलकुल वैसा ही कदम 1969 में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने उठाया था, जब उन्होंने झटके में 100 डॉलर से ऊपर के सारे नोट यानी पांच सौ, हजार, पांच हजार, दस हजार और एक लाख डॉलर का नोट रद्दी के टुकडे में तब्दील कर दिया था। उस कदम के बाद अमेरिका में बैंकिंग सिस्टम भले मजबूत हुआ लेकिन कालाधन नहीं रुका। और आज का सच ये भी है कि अमेरिका में कुल उपभोक्ता भुगतान का 80 फीसदी कैशलैस पेमेंट सिस्टम से होता है। यानी अमेरिका में नकदी का चलन  बहुत कम है-लेकिन फिर भी कालाधन बनने का सिलसिला जारी है। और बात सिर्फ अमेरिका की नहीं है। जर्मनी में 76 फीसदी कैशलैस पेमेंट होता है तो ब्रिटेन में 89 फीसदी और फ्रांस में 92 फीसदी कैशलैस पेमेंट होता है लेकिन कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त नहीं है । तो सवाल सीधा है कि जिस कैशलेस सोसाइटी की दिशा में मोदी भारत को ले जाना चाह रहे हैं-उसका असल मकसद है क्या। कालेधन से मुक्ति या नकदी पर रोक । नगदी बाजार पर सत्ता की राशनिंग या कैशलैस बाजार को बढावा । लोकतंत्र की खुली हवा पर सत्ता की बंदिश या गरीबो के आक्रोष को दबाना ।कर्योकि एक तरफ देश के 6 लाख गांव में से 5 लाख 54 हजार गांव में बैक नहीं है । देश में क्रेडिड कार्ड संख्या फकत ढाई करोड़ है । यानी एक तरफ कैशलेस समाज भारत के लिये अभी दूर की कौड़ी है तो दूसरी तरफ कैशलेस देश ना तो कालेधन से मुक्त होता है ना ही भ्रष्ट्रचार से । अलबत्ता अमेरिका का सच यह है कि वहां राजनीतिक भ्रष्टाचार कालाधन की जननी है। दर्जन भर अमेरिकियो का कब्जा पूरी बैकिंग
सर्विस पर है भारत में बैकिंग सर्विस पर सरकार का कब्जा है यानी जो सत्ता में हो उसी के रास्ते देश को चलना पडेगा ये पाठ तो हर किसी ने पढ लिया लेकिन ये रास्ता कैसे लोतकंत्र की भी नई परिबाषा गढ रहा है जरा इसे भी समझ लें ।

Monday, November 21, 2016

पंडारा बॉक्स तो मोदी ने खोल ही दिया है

प्रधानमंत्री मोदी चौतरफा घिरे हैं और यही उनकी सफलता है। क्योंकि जिस नेता को केन्द्र को रखकर समूची राजनीति सिमट गई है। वह नेता जनता की नजर में भारतीय राजनीति की खलनायकी में खलनायक होकर भी नायक ही दिखायी देगा। क्योंकि राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने की स्थिति में जनतंत्र है नहीं और राजनीतिक लोकतंत्र अपने गीत गाने के लिये वक्त-दर वक्त नायक खोज कर खुद को पाक साफ दिखाने से चूका नहीं है। तो सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस हो या वामपंथी या फिर मुलायम या मायावती, संसद में सभी की जुबां पर मोदी हैं तो सड़क पर ममता और केजरीवाल के निशाने पर भी मोदी हैं। तो मोदी का कद झटके में सियासी पायदान पर सबसे उपर है। और जो दबाव धंधे वालों से लेकर गांव-खेत में दिखायी दे रहा है, उसकी बदहाली के लिये वही राजनीति जिम्मेदार है, जिसे मोदी डिगाना चाहते हैं। तो क्या पहली बार सत्ता ही जनवादी सोच लिये भ्रष्ट पारंपरिक राजनीति को ही अंगूठा दिखा रही है।

यानी इतिहास के पन्नों को पलटें तो जेपी चाहे संपूर्ण क्रांति का नारा देकर चूक गये। अन्ना हजारे चाहे जनलोकपाल की गीत गाकर चूक गये। लेकिन मोदी कालाधन का राग गाते हुये चूकेंगे नहीं क्योंकि सत्ता उनके पास है। और वह सीधे राजनीतिक सत्ताधारियों के तौर तरीकों के खिलाफ बोल ही रहे है। यानी राजनीतिक दलों की जिस कमाई पर पहले सत्ता खामोश रहती थी, अब मोदी ने उस डिब्बे को खोल दिया है। तो चिटफंड से लेकर दलाली और कैश चंदे से लेकर उघोगों को लाभ पहुंचा कर कमाई पर भी सीधे बोल है। तो क्या ये रास्ता राजनीतिक सफाई का साबित होगा। या फिर राजनीति के कटघरे में मोदी अभिमन्यु साबित होंगे। क्योंकि तीन सवाल नोटबंदी के बाद देश को डरा भी रहे हैं। पहला जब सिस्टम भ्रष्ट है तो वही सिस्टम भ्रष्टाचार को खत्म कैसे करेगा। दूसरा ,जब राजनीतिक सत्ताधारियों में लूट का समाजवाद रहा है तो मोदी का जनतंत्र कैसे काम करेगा। और तीसरा 1991 से कन्ज्यूमरइज्म यानी उपभोक्तावाद के आसरे ग्रोथ देखने वाले झटके में सोशल जस्टिस कैसे करेंगे । जाहिर है तीनों सवाल 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये रेफरेन्डम यानी जनमत संग्रह वाले हो सकते हैं। और उससे पहले कमोवेश हर राज्य के चुनाव में मोदी इसी नोटबंदी के आसरे आसमानता का जिक्र कर चुनावी जमनत संग्रह वाले हालात बनाने की दिशा में जायेंगे भी। क्योंकि सत्ता संभालने के 30 महीने बाद मोदी जिस मुहाने पर खडे है, वहां से सत्ता बरकरार रखने की जोडतोड़ में फंसना मोदी का इतिहास के पन्नों में गुम हो जाना साबित होता। और मोदी इस सच को समझ रहे हैं कि उन्होंने जो जुआ खेला है वह है तो सही लेकिन है वह जुआ ही। जिसे अभी तक रईस खेलते रहे पहली बार आम जनता भी इस सियासी जुए में भगीदार हैं।

लेकिन मौजूदा वक्त में अगर पीएम मोदी को क्लीन चीट दे भी दी जाये तो क्या बीजेपी या बीजेपी के साथ जुडे किसी भी चेहरे को लेकर कोई कह सकता है कि कोई दागदार नहीं है। वह चेहरा चाहे मध्यप्रदेश सीएम शिवराज से लेकर छत्तीसगढ सीएम रमन सिंह या राजस्धान की सीएम वसुंधरा राजे सिंधिया का हो। या फिर पंजाब के बादल। बिहार के पासवान , महाराष्ट्र के उद्दव ठाकरे या यूपी में बीएसपी छोड बीजेपी में शामिल हुये स्वामी प्रसाद मौर्य का। यानी चेहरे चाहे बीजेपी के हो या बीजेपी के साथ अगल अलग राज्यों में साथ खडे चेहरे। दागदार तो हर कोई है। कोई व्यापम तो कोई पीडीएस। कोई ललित मोदी। तो पंजाब, बिहार. महाराष्ट्र और यूपी में बीजेपी के साथियों  का दामन भी पाक साफ नहीं है। और मोदी की नोटबंदी के खिलाफ कतारों में खड़े
मुलायम हो या मायावती। ममता बनर्जी हो या करुणानिधि या जयललिता। जब देश में हर राजनेता का दामन दागदार है तो फिर राजनीतिक ईमानदारी का पाठ नोटबंदी के जरीये पढाया जा सकता है इसे सच माने कौन। क्योंकि मोदी खुद उस राजनीतिक तालाब में खड़े हैं, जहां कालाधन राजनीति की जरुरत है। इसीलिये बीते दस बरस में 3146 करोड़ से ज्यादा कैश राजनीतिक दलों ने चंदे के तौर पर लिया। और किसी भी राजनीतिक दल ने कैश की जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी । फिर चुनाव आयोग के मुताबिक 20 हजार से ज्यादा कैश लेने पर जानकारी देनी होती है। तो हर राजनीतिक दलों ने सारे कैश 20 हजार से कम बताये। यानी किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं कहा कि कैश 20 हजार से ज्यादा लिया। मायावती ने तो नब्ब फिसदी चंदा कैश में लिया। और हर से सिर्फ 20 हजार रुपये से कम बतायें। को क्या राजनीतिक सफाई की दिशा में मोदी बढ़ रहे हैं। या फिर प्रधानमंत्री ने चाहे अनचाहे विपक्ष को ही एक ऐसा हथियार दे दिया है जो सरोकार का सवाल उठाकर अभी तक के अपने दाग को इसलिये धो सकते हैं क्योंकि जनता परेशान हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर है नहीं। निर्णय लागू कराने में सिस्टम सक्षम नहीं है।

यानी जिस राजनीतिक व्यवस्था से लोगों का मन टूट रहा था वह मन फिर से समाधान के लिये उसी राजनीतिक व्यवस्था की तरफ देखने को मजबूर हो रहा है। जबकि जनता के पैसे पर सबसे ज्यादा रईसी राजनेता ही करते हैं। मसलन कुल 4120 विधायक और 426 एमएलसी है यानी कुल 4582 विधायक, जिन्हे औसत प्रतिमाह 2 लाख वेतन और भत्ता प्रतिमाह मिलता है  । जिसे जोड़ दें तो 91,640000 रुपये बनते हैं। यानी सालाना करीब 1100 करोड । इसी तर्ज पर अगर सांसदों का भी हाल देख लें । तो लोकसभा और राज्यसभा मिलाकार कुल 776 सांसदों को हर महीने औसतन 5 लाख रुपये वेचन और भत्ते केतौर पर मिलता है। जिसे जोड़े तो 38 करोड 80 लाख रुपये होते हैं। यानी लाना 465 करोड, 360 लाख रुपये। यानी विधायकों और सांसदों के वेतन भत्ते को मिला दे तो करीब 15 अरब 65 करोड 60 लाख रुपये होंगे। और इसमें आवास , यात्रा भत्ता, इलाज, विदेशी सैर सपाटा शामिल नहीं है। लेकिन सुविधाओं की पोटली यही खत्म नहीं होती बल्कि हर चुने हुये नुमाइन्दे को सुरक्षा चाहिये। सुरक्षा के लिहाज से हर विधायक को 2 बॉडीगार्ड और एक सेक्शन हाउस गार्ड यानी 5 पुलिस कर्मी। तो कुल 7 सुरक्षाकर्मी एक विधायक के पीछे रहते हैं। हर पुलिस कर्मी को औसतन 25 हजार रुपये के लिहाज से कुल एक लाख 75 हजार होते हैं। यानी कुल 4582 विधायकों पर 1 लाख 75 हजार के लिहाज से हर महीने 80 करोड 18 लाख रुपये होते हैं। और सालाना 9 अरब 62 करोड 22 लाख रुपये। इसी तर्ज पर अगर सांसदों की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों के खर्च को जोड़ लें तो सांसदों की सुरक्षा में हर बरस 164 करोड रुपये खर्च होते हैं। इसके अलवा पीएम सीएम कुछ मंत्री और कुछ राजनेताओं को जेड प्लस की सुरक्षा मिली हो होती है, उसके लिये 16 हजार सुरक्षाकर्मियों की तैनाती देश में होती है। जिनपर सालाना खर्चा 776 करोड़ के करीब होता है। यानी कुल 20 अरब का खर्चा चुने हुये नुमाइन्दो की सुरक्षा पर होता है। यानी हर साल चुने हुये नेताओ पर 50 अरब खर्च हो जाता है। और इस फेहरिस्त में राज्यपाल, पूर्व नेताओं की पेंशन, पार्टी अध्यक्ष या पार्टी नेता या फिर जिन नेताओं को सरकारें मंत्रियो का दर्जा दे देती है, अगर उन पर खर्च होने वाला देश या कहे जनता का पैसा जोड़ दिया जाये तो करीब 100 अरब रुपया खर्च हो जाता है। अब ये ना पूछिएगा गरीबों को या जनता को ही इससे मिलता क्या है।

Tuesday, November 15, 2016

संसद से नहीं बैंक से निकलेगा लोकतंत्र का नया राग

जब संसद सड़क के सामने छोटी लगने लगे तो फिर नेताओं का रास्ता जाता किधर है। सड़क के हालात बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में देश के करीब 55 करोड़ लोगों ने वोट डाले लेकिन आज की तारीख में शहर दर शहर गांव दर गांव 55 करोड़ से ज्यादा लोग सड़क पर उस नोट को पाने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं जिसका मूल्य ना तो अनाज से ज्यादा है और ना ही दुनिया के बाजार में डॉलर या पौंड के सामने कहीं टिकता है। फिर भी पहले वोट और अब नोट के लिये अगर सड़क पर ही जनता को जद्दोजहद करनी है तो क्या वोट की तर्ज पर नोट की कीमत भी अब प्रोडक्ट नहीं सरकार तय करेगी। क्योंकि मोदी सरकार को 31 फिसदी वोट मिले। यानी खिलाफ के 69 फिसदी वोट का कोई मूल्य संसदीय राजनीति में कोई मायने रखता ही नहीं है। ठीक इसी तरह 84 फीसदी मूल्य के नोट के खत्म होने के बाद 16 फिसदी मूल्य की रकम महत्वपूर्ण हो गई। यानी रोजाना चार हजार रकम के खर्च करने का समाजवाद सड़क पर आ गया। तो क्या समाजवाद के इस चेहरे के लिये देश तैयार हो चुका है या फिर जिस संसद की पीठ पर सवार होकर लोकतंत्र का राग देश में गाया जा रहा है, पहली बार संसदीय लोकतंत्र को ही सडक का जनतंत्र ठेंगा दिखाने की स्थिति में आ गया है। और यहीं से बड़ा सवाल निकल रहा है कि आखिर बुधवार की सुबह जब संसद शुरु होगी तब राजनीतिक सत्ता के कर्णधारों का रास्ता जायेगा किस तरफ। क्योंकि संसद का महत्व तो तभी है जब संसद में जनता के हित में कोई निर्णय है। या फिर संसद के सरोकार जनता से जुड़े।

और सच यही है कि पहली बार राजनीतिक सत्ता ने संसदीय राजनीति की धारा के खिलाफ निर्णय लिया है। और नया संकट उस पारंपरिक राजनीति के सामने है जो अभी तक ये सोचती रही कि संसद के दायरे से सड़क को संभाला जा सकता है। तो सवाल तीन हैं। पहला क्या संसद छोड़ सड़क की राजनीति को थामना ही अब हर राजनीतिक दल की जरुरत है। दूसरा ,क्या संसदीय राजनीति के भीतर का भ्रष्टाचार नई परिभाषा गढ रहा है। तीसरा , क्या संसदीय राजनीति का चेहरा इतना विकृत हो चला है कि पीएम ने खुद को ही जनता के साथ जोड़ लिया है। यानी दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का मंदिर यानी संसद ही जब सड़क के जनतंत्र को संभालने की स्थिति में नही होगा तो क्या ये कहा जा सकता है कि भारत बदल रहा है । या फिर फेल भारत सफल होने के लिये छटपटा रहा है । क्योकि बीते 70 बरस की सियासत ने दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्रिक देश को बाजार में बदल दिया है। नागरिकों को कन्ज्यूमर बना दिया है। उत्पादन से बड़ा नोट हो गया है। खेती से ज्यादा कमाई सेवा क्षेत्र ने समेट ली। और संसद की नुमाइन्दगी भी रईसों के इर्द -गिर्द घुमड़ने लगी। नीतियां पैसेवालों के लिये बनने लगी। योजनाओं के दायरे में 80 फीसदी नागरिक पैकेज पर टिक गया। 20 फीसदी उपभोक्ता के लिये बजट बनाया जाने लगा तो ऐसा फैसला चाहे अनचाहे देश को ऐसे मुहाने पर खड़ा तो कर ही गया है, जहां से हर राजनेता का रास्ता अब संसद की तरफ नहीं सडक की तरफ जाता है। क्योंकि सडक की सियासत का रास्ता अभी भी एक रुपये को महत्व देता है और संसद के भीतर 500 या दो हजार के नोट मायने रखते है। और कभी नोट को ध्यान से देखिये तो सिर्फ एक रुपये की जिम्मेदारी भारत सरकार लेती है। बाकि हर नोट पर रिजर्व बैक धारक को नोट देने का वायदा करता है। ये ठीक उसी तरह है जैसे खेत खलिहानों में किसानों को बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर मिल सके इस जिम्मेदारी की बात तो भारत सरकार करती है। लेकिन उपजाये गया अनाज की कीमत बाजार में होगी क्या ये भारत सरकार नहीं बल्कि मंडी चलाने वाले दलाल तय करते हैं। तो सोचना शुरु कीजिये आखिर क्यों देश की इकनॉमी नोटों की अर्थव्यवस्था पर चलायी जा रही है। ना कि उत्पादन। खेती और मानव संसाधन पर। आखिर ऐसे हालात क्यों बनाये जा रहे है, जहां किसान की फसल नोट के सामने बेबस है। उच्च शिक्षा हासिल करने वाले युवा छात्र अनपढ़ करोड़पति के सामने बेबस हैं। और अपनी ही कमाई को लेने के लिये हर नागरिक बैंक के सामने बेबस हैं।

तो क्या भारत की इकनामी धीरे धीरे व्यवसायिक बैंकों की खाली खातों में रकम लिखकर और भरकर आगे बढ़ कर रही है। यानी देश को बाजार में बदलने के बाद उपभोक्ता संस्कृति का असल चेहरा अब सामने आ रहा है जब बाजारों की चकाचौंध भी दुनिया के सबसे ज्यादा उपभोक्ता वाले देश में इसलिये थम गई है क्योंकि ना दिखाई देने वाली इक्नामी यानी नोट की कीमत सोना, चादी, जमीन, घर , अनाज से भी ज्यादा कीमती हो गई है और नोट के जरीये राजनीतिक सत्ता ही जनता से सिर्फ वायदा कर रही है कि अच्छे दिन आ जायेंगे। ठीक उसी तरह जैसे नोट पर रिजर्व बैक धारक को वायदा करता है। यानी सच पर अभासी सच हावी हो चला है । और अभासी सच का हथियार है बैंकिंग सर्विस । यानी बैंकिंग सर्विस ही अब देश की इकनॉमिक सर्विस होगी, ये संकेत तो साफ हो चले हैं। तो जिस बैंक की टकटकी लगाये हर आदमी आज देश में देख रहा है उस बैंकिंग सर्विस का सच भी समझ लीजिये। क्योंकि यही वह बैंक हैं, जिनसे विजय माल्या कर्ज लेकर बिना चुकाये लंदन भाग सकते है। और यही वो बैंक है, जिनसे कर्ज लेकर ना चुकता पाने पर किसान को खुदकुशी करता है। और देश के 20-30 औघोगिक घरानों के पास बैंक का सवा लाख करोड़ से ज्यादा पड़ा है लेकिन वह बैंक को लौटा नहीं रहे और बैंक ले नहीं पा रहा। तो दो सवालो को समझना होगा। पहला, बैंकों में पैसा देश के नागरिकों का ही है। दूसरा,बैंक का 90 फिसदी पैसा सरकार या उघोगपति कर्ज पर लेते हैं। यानी आज जिस तरह जनता अपने ही रुपयों को पाने के लिये नोट बदल रही हैं। अगर देश का नागरिक सोच लें कि वह बैंकों से सारा पैसा निकाल लेगा तो क्या बैक उसे सारा पैसा देने की स्थिति में होगा। यकीनन नहीं। तो जरा बैंकिंग सर्विस के जरीये उन हालातों को समझें जहा आप एक लाख रुपये बैक में जमा कराते है । बैक उघोगो से ब्याज लेकर 90 हजार रुपये कर्ज में दे देता है। 90 हजार लौटने पर बैक 81 हजार फिर ब्याज लेकर कर्जपर दे देता है। यानी जनता के पैसे से बैक ब्याज लेकर जनता के पैसे को ही उघोगों या कारपोरेट को कर्ज देता है। बैंक की अपनी लागत कुछ नहीं होती। लेकिन बैंक का टर्न ओवर बढता जाता है। औऱ इस प्रक्रिया में रुपये की कीमत गिरती जाती है। यानी अगर लोग ये सोच लें कि कि बैंक से रुपया निकाल कर वह जमीन, सोना या अनाज ही खरीद लें तो बैक के पास इतनी रकम होगी ही नहीं। यानी जो बड़े बुजुर्ग आज बैंक की लाइन में खडे होकर अपने ही पैसों के लिये तरस रहे है अगर वह ये सोच रहे होंगे कि पहले की ठीक था। जब सामान बदलकर जिन्दगी चलती थी। तो समझना होगा कि 1933 में बैंकों ने गोल्ड स्टैंडर्ड खत्म इसीलिये किया। जिससे रुपये की ताकत खत्म हो जाये। यानी पहले जितना रुपया लेकर बैक में व्यक्ति जाता था उतने का सोना-चांदी मिल जाता था। अब ये संभव नहीं है कि जितना रुपया आपने बैंकों में जमा किया उस कीमत में एक बरस बाद उतना ही सामान मिल जाये जो जमा करते वक्त था। और अगर किसी देश को रुपये की जरुरत होगी तो वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ देशों को कर्ज देते हैं। देश कर्ज ना चुका पाने की स्थिति में नोट छापते हैं। और फिर महंगाई बढती है। समाज में असमानता बढ़ती है। और माना यही जाता है कि बैंकिंग सर्विस के जरीये ही सत्ता अपने नागरिको पर और ताकतवर देश कमजोर देशों पर राजकर अपनी नीतियों को लागू कराते है । तो लोकतंत्र का नया राग संसद से नहीं बैंक से मिलने वाले नोट पर जा टिका है।

Monday, November 7, 2016

चकाचौंध की व्यवस्था से अब तो सचेत हो जायें !

जब जिन्दगी पर बन आई तो हंगामा मच गया। हवा जहरीली हुई तो सांसें थमने लगीं। आंखों में जलन शुरु हुई तो गैस चेंबर की याद आ गई। लेकिन क्या वाकई जिन्दगी की परवाह किसी को है। मौजूदा वक्त में जो सवाल देश के है उन्हीं के आसरे जिन्दगी को टोटल लें तब हवा में जहर क्यों और दूर हो कैसे इसपर भी बात होगी। क्योंकि जिस दौर में देशभक्ति जवानों की शहादत पर जा टिकी है, उस दौर में इसी बरस 93 जवान सीमा पर शहीद हो गये। जिस वक्त फसल की जड़ यानी खूंटी के जलने से फैलते जहरीले धुयें में मौत दिखायी दे रही है, तब इसी बरस 1950 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। जब दिल्ली की सडक पर जेएनयू के छात्र नजीब के गायब होने पर हंगामा मचा है। तब देश में 26 हजार से ज्यादा बच्चे इसी बरस लापता हो चुके हैं। जिस दौर में सफाई और विकास पर जोर है उसी दौर में फैंके जाते कचरे में लगती आग। कच्चे उघोगों से निकलता धुआं और सडक निर्माण के लिये सीमेंट,लोहा, ईंट, कोलतार से निकलने वाला धुआं 22 फीसदी बढ़ चुका है। और इस कतार में डिजल के ट्रक-एसयूवी का इस्तेमाल 12 फिसदी बढ़ गया। लकडी-कोयले से निकलने वाले धुये में 3 फीसदी की बढोतरी हो गई। बिजली उत्पादन बढाने के प्रोजेक्ट ने 4 फिस जहर हवा में घोल दिया । तो क्या जिन्दगी धुआं धुआं है और विकास की रफ्तार बेफिक्र है। या फिर सरकारी नीतियां जिस रास्ते जिन्दगी जीने को मजबूर कर रही हैं, उस दिशा में अब भारत ने सोचना बंद कर दिया है।

ये सवाल इसलिये क्योंकि वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के ही मुताबिक भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में एक उपभोक्ता के बराबर 89 लोग हैं। यानी देश में विकास की समूची थ्योरी ही जब बाजार या कहें उपभोक्तावाद पर टिकी है तब जिस रास्ते कमाई या विकसित होने की नीतियां लाई जा रही हैं। उसमें डेढ़ करोड़ कन्जूमर के हत्थे देश के सौ करोड लोगों के जीवन से खिलवाड़ तो नहीं किया जा रहा है। क्योंकि गांव से औसत दो करोड़
लोगो का पलायन बीते 5 बरस में हर बरस हुआ। दिल्ली में ही 80 लाख रिहाइश बस्तियों में सिमटी है। कचरे से खाद बनाने की तकनीक जो दिल्ली में लगी है उसकी सीमा 10 फिसदी है। यानी दिल्ली की हवा में घुले जहर के साये में हर सवाल मौत से ज्यादा डरावना है। लेकिन अर्से बाद महानगर ही नहीं देश की राजधानी और उपभोक्ताओं की जिन्दगी पर बन आई है तो रास्ता किसी को नहीं सूझ रहा है। और सरकारें भी जिस डिहे पर खडी होकर खतरे की इस घंटी से निजात पाना चाहती है वह है कितना खोखला। उसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि सूखी जड़ों में लगी ये आग उतनी घातक नहीं है जितना मशरुम की तरह फैली देश झुग्गी-झोपडिया और बस्तियां है। जो असमानता का प्रतीक भी है और अंधेरे की जमीन पर चकाचौंध की शहरी सम्यता खड़ा करने की सोच भी है। क्योंकि जिस तरह कंक्रीट के मकान है। गाडियों का हुजूम है। और अव्यवस्थित-असमान समाज के विकास की सोच है। उसके भीतर का सच यही है कि खेती की सवा लाख हेक्ट्यर जमीन हर बरस शहरी कंक्रीट के लिये हड़पी जा रही है। 9 फिसदी नदियों की जमीन हथिया ली गई । 10 फीसदी जंगल काट लिये गये। 19 फिसदी गाडियां बढ़ गईं। 17 फिसदी कचरा बढ बीते पांच बरस में बढ़ चुका है। तो क्या वाकई देश जिस रास्ता निकल पडा है उसमें आने वाले वक्त में हर शहर को आगे बनने के लिये दिल्ली के रास्ते आना ही विकसित होना पडेगा । क्योंकि किसानों के लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर हो क्या सरकार के पास कोई नीति नहीं है । शहरों हो कैसे , इसकी कोई योजना सरकारों के पास है नहीं । शहर या महानगर ही नहीं देश की राजधानी में भी पब्लिक ट्रासपोर्ट को कोई विजन है नहीं। निर्माण क्षेत्र कैसे पर्यावरण को प्रभावित ना करें कभी किसी ने सोचा ही नहीं। दिल्ली में तो हर वक्त निर्माण कार्य ने बिमारी फैलाने में इतनी सहूलियत पैदा कर दी है कि डेंगू हो या चिकनगुनिया या फिर अब बर्ड फ्लू । आदमी से ज्यादा मच्छर इसमें रहने और विकसित होने के अभ्यस्त हो चुके हैं। हालात है कितने बुरे इसका अंदाज इसी से लग सकता है सिर्फ दिल्ली को अगर हवा में जहर से निजात दिलाना है तो खेतो में बडी गली फसल की जड यानी खूंटी ना जले इसके लिये 4 राज्यो के किसानो के लिये 3 लाख करोड चाहिये।

 पब्लिक ट्रासपोर्ट के लिये 9 हजार करोड तुरंत चाहिये। औघोगिक घुआं रोकने के लिये सवा लाख करोड तुरंत चाहिये। निर्माण कार्य का असर वातावरण पर ना पड़े तुरंत 80 हजार करोड चाहिये। यानी 6-7 लाख करोड का असर दिल्ली के वातावरण को तभी ठीक कर पायेगा जब दिल्ली को देश के हालात से काट कर कही और ले जाया जाये। जो संभव है नहीं तो फिर सवाल दिल्ली का नहीं देश का है। और देश मदमस्त है। तो भारत सरकार को कम से कम पर्यावरण पर बनी सबसे चर्चित फिल्म " वॉल.ई " देखनी चाहिये, जिसमें पृथ्वी डंपिग यार्ड में बदल जाती है। मनुष्य दूसरे ग्रह पर चले जाते हैं। गगनचुंबी इमारते कूडे के ढेर में बदल जाती है । रोबोट के जरीये पृथ्वी पर कूडे को व्यवस्थित रुप से रखा जाता है । और बाजार हो या बैक या फिर विकास की चकाचौध के सारे प्रतीक,सबकुछ कूड़ा रखने में ही काम आते है।

Monday, October 31, 2016

दिल्ली से एलओसी तक हवा में घुलता जहर

दो सौ करोड़ । ये बच्चों का आंकडा है। दुनियाभर के बच्चो की तादाद। जिनकी सांसों में जहर समा रहा है ।  हवा में घुलते जहर को दुनिया में कहीं सबसे ज्यादा बच्चे प्रभावित हो रहे हैं तो वह उत्तर भारत ही है । तो जो सवाल दीपावली के बाद सुबह सुबह उठा कि दिल्ली में घुंध की चादर में जहर घुला हुआ है और बच्चों की सांसों में 90 गुना ज्यादा जहर समा रहा है । तो ये महज दीपावली की अगली सुबह का अंधेरा नहीं है। बल्कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली समेत उत्तर भारत में 8 करोड़ बच्चों की सांसो में लगातार जहर जा रहा है । और दीपावली का मौका इसलिये बच्चो के लिये जानलेवा है क्योंकि खुले वातावरण में बच्चे जब सांस लेते है तो प्रदूषित हवा में सांस लेने की रफ्तार सामान्य से दुगुनी हो जाती है । जिससे बच्चों के ब्रेन और इम्युन सिसंटम पर सीधा असर पडता है । ये कितना घातक रहा होगा क्योंकि दीपावली की रात से ही 30 गुना ज्यादा जहर बच्चों की सांसों में गया । लंग्स, ब्रेन और दूसरे आरगन्स पर सीधा असर पड़ा । तो क्या दीपावली की रात से ही दिल्ली जहर के गैस चैबंर में बदलने लगी । क्योंकि यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक बच्चो के लिये सबसे ज्यादा खतरनाक क्षेत्र साउथ एशिया है । जहा एक छोटे तबके के जीवन में बदलाव आया है और उससे गाडियों की तादाद , इन्फ्रास्ट्रक्चर का काम , एसी का उपयोग , लकडी-कोयले की आग । फैक्ट्रियों का धुंआ । सबकुछ जिस तरह हवा में घुल रहा है उसका असर ये है कि 62 करोड बच्चे सांस की बीमारी से जुझ रहे हैं। और इनमें से सबसे ज्यादा बच्चे भारत के ही है । भारत के 30 करोड़ बच्चे जहरीली हवा से प्रभावित हैं । और साउथ एशिया के बाद -अफ्रिका के 52 करोड़ बच्चे तो चीन समेत पूर्वी एशिया के 42 करोड बच्चे सांस लेते वक्त जहर ले रहे हैं। यानी जो सवाल दीपालवी की अगली सुबह दिल्ली की सडको पर धुंध के आसरे नजर आया । वह हालात कैसे किस तरह हर दिन 5 लाख बच्चो की जान ले रहा है। 2 करोड़ बच्चों को सांस की बीमारी दे चुका है। तीन करोड से ज्यादा बच्चों के ब्रेन पर असर पड़ चुका है ।12 करोड से ज्यादा बच्चो के इम्यून सिसंटम कमजोर हो चुका है । लेकिन हवा में घुलते जहर का असर सिर्फ दिल्ली तक नहीं सिमटा है । पहली बार लाइन आफ कन्ट्रोल यानी भारत पाकिस्तान सीमा पर जो हालात है उसने प्रवासी पक्षियो को भी रास्ता बदलने के लिये मजबूर कर दिया है ।

जी जिस कश्मीर घाटी में हर बरस अब तक साइबेरिया, पूर्वी यूरोप, चीन , जापान  फिलिपिन्स से दसियो हजार प्रवासी पक्षी पहुंच जाते थे । इस बार सीमा पर लगातार फायरिंग और पाकिसातनी की सीमा से जिस तरह बार बार सीजफायर उल्लघन हो रहा है । मोर्टार से लेकर तमाम तरह से बारुद फेका जा रहा है उसका असर यही है कि सीमा पर पहाडो से निकलती झिले भी सूने पडे है । पहाडो की झीले गंगाबल, बिश्हेनसर,गडसार में इसबार प्रवासी पंक्षी पहुचे ही नहीं । इतना ही नहीं कश्मीर घाटी में हर बरस सितंबर के आखरी में दुनियाभर से सबसे विशिषट पक्षियो झंड में करीब 15 हजार की तादाद में अबतक पहुंच जाते थे । इस बार हालात ऐसे है कि घाटी के हरकाहार, सिरगुंड,हायगाम और शलालाबाग सूने पडे है । तो कया पहली बार कश्मीर घाटी की हवा में भी बारुद कही ज्यादा है । क्योकि पक्षी विशेषज्ञो की भी माने तो जो प्रवासी पक्षी कश्मीर घाटी पहुंचते है वह अति संवेदनशील होते है और अगर पहली बार घाटी के बदले कोई दूसरा रास्ता प्रवासी पक्षियो के पकडा है तो ये हालात काफी खतरनाक है । और असर इसी का है कि वादी के प्रसिद रिजरवायर बुल्लर , मानसबल और डल लेकर भी सूने पडे है । लेकिन घाटी के हालात में तो प्रवासी पक्षी ही नहीं बल्कि पहली बार बच्चो के भविष्य पर अंघेरा कही ज्यादा घना है । क्योकि स्कूल के ब्लैक बोर्ड पर लिखे जिन शब्दो के आसरे बच्चे देश दुनिया को पहचानने निकलते है अगर उन्हे ही आग के हवाले कर दिया गया तो इससे बडा अंधेरा और क्या हो सकता है । तो पहली बार कश्मीर घाटी में अंधेरा इतना घना है कि बीते साढे तीन महीनो से 2 लाख बच्चे स्कूल जा नहीं पाये है । और बीते दो महीनो में 12 हजार 700 बच्चो के 25 स्कूलो में आग लगा दी गई । घाटी की सियासत और संघर्ष के दौर में ये सवाल बडा हो चला है कि बच्चो के स्कूलो में आग किसने और क्यो लगायी लेकिन ये सवाल पिछे छूट चला है कि आखिर बच्चो का क्या दोष । जो उनके स्कूल खुल नहीं पा रहे है ।

कल्पना किजिये आंतकवादी सैयद सलाउद्दीन से लेकर अलगाववादी नेता यासिन मलिक और सियासत करने वाले उमर अब्दुल्ला से लेकर सीएम महबूबा मुफ्ती हक कोई सवाल कर रहा है कि स्कूलो में आग क्यो लगायी जा रही है । एक दूसरे पर आरोप प्रतायारोप भी लगाये जा रहे है लेकिन इस सच से हर कोई बेफ्रिपक्र है कि आखिर वादी के शहर में बिखरे 11192 स्कूल और वादी के ग्रमीण इलाको में सिमटे 3280 स्कूल बीते एक सौ 115 दिन से बंद क्यो है । ऐसे में सवाल यही कि क्या पत्थर फेंकने से आगे के हालात कश्मीर के भविष्य को ही अंधेरे में समेट रहे है । क्योकि आंतक की हिसा और संघर्ष के दौर में करीब 80 कश्मीरी युवक मारे गये ये सच है । लेकिन इस सच से हर कोई आंख चुरा रहा है कि बीते साढे तीन महीनो से घरो में कैद 2 लाख बच्चे कर क्या रहे है । जिन 25 सरकारी स्कूलो में आग लगायी गई उसमें 6 प्रईमरी , 7 अपर प्रईमरी , 12 हाई स्कूल व हायर सेकेंडरी स्कूल है । और अंनतनाग और कुलगाम के इन 25 स्कूलो में पढने वाले 12 हजार बच्चो का द्रद यही है कि कल तक वह किताब और बैग देख कर पढने का खवाब संजोये रखते थे । इनरके मां-बाप स्कूल घुमा कर ले आते थे । लेकिन बीते दो महीने से जो सिलसिला स्कूलो में आग लगाने का शुरु हुआ है उसका असर बच्चो के दिमाग पर पड रहा है । और ये सवाल घाटी के अंधेरे से कही ज्यादा घना हो चला है कि अगर बच्चो को कागज पेसिंल किताब की जगह महज कोरा ब्लैक बोर्ड मिला तो वह उसपर आने वाले वक्त में क्या लिखेगें ।

Thursday, October 27, 2016

जनता के पैसे पर सत्ता की रईसी

13 लाख 77 हजार करोड़। ये जनता के टैक्स देने वालों का रुपया है। केन्द्र सरकार इसका 40 फिसदी हिस्सा राज्यों को बांट देती है। और अलग अलग राज्यों में सत्ता के पास जनता का जो टैक्स पहुंचता है, वो 30 लाख करोड से ज्यादा का है। मसलन यूपी में टैक्स पेयर 340120 करोड रुपये तो पंजाब में 85595 करोड रुपये। और इसी तर्ज पर जम्मू-कश्मीर में 61681 करोड रुपये तो झारखंड में 55492 करोड। असम में 77422 करोड रुपये तो गुजरात में 116366 करोड रुपये। यानी देश में केन्द्र से लेकर तमाम राज्य सरकारों के पास टैक्स पेयर का करीब 43 लाख 77 हजार करोड रुपया पहुंचता है। और ये सवाल हमेशा अनसुलझा सा रहा जाता है कि आखिर जनता का पैसा खर्च जनता के लिये होता है कि नहीं। और जनता के पैसे के खर्च पर सत्ता की कोई जिम्मेदारी है या नहीं। क्योंकि एक तरफ गरीब जनता की त्रासदी और दूसरी तरफ सत्ताधारियों की रईसी जिस तरह सार्वजनिक तौर पर दिखायी देती है। उसने ये सवाल तो खड़ा कर ही दिया है कि क्या सत्ताधारी जनता के पैसे पर रईसी करते है। लंबी लंबी गाडियों से लेकर दुनिया भर की यात्रा से सीधा जनता का क्या जुड़ाव होता है। और एक बार सत्ता मिलने के बाद हर राजनेता करोडपति कैसे हो जाता है। सरकारी कर्मचारियो के वेतन में सालाना 2 फीसदी से ज्यादा की बढोतरी होती नहीं है। राजनेताओं की संपत्ति में औसतन 50 फिसदी की बढोतरी कैसे हो जाती है। और असंगठित क्षेत्र के कामगार-मजदूरो की कमाई सालाना दशमलव में भी नहीं बढ़ पाती है। तो ये सवाल है कि क्या राजनेताओं का जुड़ाव  जनता की जरुरतों से ना होकर सत्ता बनाये रखने और संपत्ति बढ़ाने से ही जुड़ी रहती है। ये सवाल इसलिये क्योंकि मौजूदा वक्त में लोकसभा के 81 फिसदी सांसद करोडपति है। तो राज्यसभा के 99 फिसदी सांसद करोडपति है। और ज्य विधानसभा के 83 फिसदी विधायक करोड़पति है। तो ये सवाल हर जहन में उठ सकता है कि आखिर जो जनता अपने वोट से अपने नुमाइन्दों को चुनती है उनकी संपत्ति में सबसे तेज रफ्तार से बढोतरी क्यों है।

और अगर सामाजिक आर्थिक तौर पर सत्ताधारियो की क्लास जनता से दूर होगी। असमानता जनता और सत्ता के बीच होगी तो किसी भी सरकार की कोई भी नीति जनहित को कैसे साधेगी। इसके तीन उदाहरण को समझे तो खेती में पौने दो लाख करोड की सब्सिडी का जिक्र सरकार बार बार करती है। उसे ये बोझ लगता है। और कारपोरेट को सालाना साढे पांच लाख करोड की टैक्स सब्सिडी दी जाती है। जिसका कोई जिक्र तक नही होता। कमोवेश यही हालात शिक्षा, हेल्थ , पीने के पानी और सिचाई या इन्फ्रास्ट्रक्चर तक में है। शायद इसीलिये देश के सामने हर सरकार के वक्त संकट यही होता है कि देश को स्टेट्समैन क्यों नहीं मिलता। ौर विकास के नाम पर हर सरकार वक्त पूंजी या विदेशी निवेश ही क्यों देखती है। क्योंकि नेहरु से लेकर मोदी तक के दौर को परखें तो तमाम पीएम ने अपने अपने दौर में अपनी एक पहचान दी । और सभी ने जनता से अपने अपने दौर में किसी ना किसी मुद्दे पर कोई ना कोई आदर्श रास्ता बताया। जनता से उसपर चलने को कहा और ये सवाल बार बार उठता रहा कि क्या वाकई जनता अपने नेता के कहने पर उनके रास्ते चल पड़ती है या फिर हर प्रदानमंत्री को किसी भी काम को पूरा करने के लिये एक बजट चाहिये होता है। तो ऐसे मौके पर मौजूदा वक्त के आईने लाल बहादुर शास्त्री को याद करना चाहिये। क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने देश में अन्न के संकट के वक्त देशवालों से जब एक वक्त उपवास रखने को कहा तो देश के कमोवेश हर घर में शाम का चूल्हा जलना बंद हो गया।

और ये इसलिये क्योंकि लाल बहादुर शास्त्री ने खुद को कभी जनता के आर्थिक हालात से अलग नहीं माना। विदेश यात्रा के वक्त पीएम होते हुये भी जब लाल बहादुर शास्त्री के परिवार वालों ने एक ओवर कोट सिलवाने को कहा। तो उन्होंने देश और खुद की हालात का जिक्र कर नेहरु के कोट की बांह छोटी करवाकर उसे ही पहन कर मास्को चले गये। वहीं मौजूदा पीएम मोदी ने 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत का एलान कर जनता को जोड़ने का एलान किया। और जुडाव के लिये भी एक बरस में महज प्रचार में 94 करोड़ खर्च हो गये। लेकिन देश की हालात है क्या ये कहा किसी से छिपा है। और इससे पहले मनमोहन सिंह ने भी स्व्च्छ और निर्मल भारत का स्लोगन लगा कर 2009 से 2014 के बीच 744 करोड प्रचार में खर्च कर दिये और हालाता जस के तस रहे।

Wednesday, October 26, 2016

सिर्फ सियासत की...कोई चोरी नहीं की

कश्मीर 109 दिनों से कैद, यूपी में सत्ता सड़क पर, महाराष्ट्र में शिक्षा-रोजगार के लिये आरक्षण, मुंबई में देशभक्ति बंधक, बिहार में कानून ताक पर, पंजाब नशे की गिरफ्त में, गुजरात में पाटीदारों का आंदोलन ,दलितों का उत्पीडन, तो हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन, तमिलनाडु-कर्नाटक में कावेरी पानी पर टकराव, झारखंड में आदिवासी मूल का सवाल तो असम में अवैध प्रवासी का सवाल और दिल्ली बे-सरकार। जरा सोचिये ये देश का हाल है । कमोवेश हर राज्य के नागरिकों को वहां का कोई ना कोई मुद्दा सत्ता का बंधक बना लेता है। हर मुद्दा बानगी है संस्थायें खत्म हो चली हैं। संविधानिक संस्थायें भी सत्ता के आगे नतमस्तक लगती है। वजह भी यही है कि कश्मीर अगर बीते 109 दिनों से अपने घर में कैद है। तो सीएम महबूबा हो या राज्यपाल
वोहरा। सेना की बढ़ती हरकत हो या आतंक का साया। कोई ये सवाल कहने-पूछने को तैयार नहीं है कि घाटी ठप है। स्कूल--कालेज-दुकान-प्रतिष्ठान अगर सबकुछ बंद है तो फिर राज्य हैं कहां। और ऐसे में कोई संवाद बनाने भी पहुंचे तो पहला सवाल यही होता है कि क्या मोदी सरकार का मैंडेट है आपके पास । यूपी में जब सत्ता ही सत्ता के लिये सड़क पर है । तो राज्यपाल भी क्या करें। सीएम -राज्यपाल की मुलाकात हो सकती है । लेकिन कोई ये सवाल करने की हालात में नहीं कि सत्ताधारियों की गुडंगर्दी पर कानून का राज गायब क्यों हो जाता है। मुंबई में तो देशभक्ति को ही सियासी बंधक बनाकर सियासत साधने का अनूठा खेल ऐसा निकाला जाता है। जहां पेज थ्री के नायक चूहों की जमात में बदल जाते हैं। सीएम फडनवीस संविधान को हाथ में लेने
वाले पिद्दी भर के राजनीतिक दल के नेता को अपनी राजनीतिक बिसात पर हाथी बना देते हैं। और झटके में कानून व्यवस्था राजनेताओ की चौखट पर रेंगती दिखती है। बिहार में कानून व्यवस्था ताक पर रखकर सत्ता मनमाफिक ठहाका लगाने से नहीं चूकती। मुज्जफरपुर में महिला इंजीनियर को जिन्दा जलाया जाता है। तो सत्ताधारी जाति की दबंगई खुले तौर पर कानून व्यवस्था अपने हाथ लेने से नहीं कतराती। हत्या-अपहरण-वसूली धंधे में सिमटते दिखायी देते है तो सत्ता हेमा मालनी की खूबसूरती में खोयी से लगती है। बिहार ही क्यों दिल्ली तो बेहतरीन नमूने के तौर पर उभरता है। जहां सत्ता है किसकी जनता पीएम, सीएम और उपराज्यापाल के त्रिकोण में जा फंसा है । और देश की राजनधानी दिल्ली डेंगू, चिकनगुनिया से मर मर कर निकलती है तो अब बर्ड फ्लू की चपेटे में आ जाती है।

तो क्या देश को राजनीतिक सत्ता की घुन लग गई है। जो अपने आप में मदमस्त है। क्योंकि वर्ल्ड बैंक के नजरिये को मोदी सरकार मानती है। उसी रास्ते चल निकली है लेकिन जब रिपोर्ट आती है तो पता चलता है कि दुनिया के 190 देशों की कतार में कारोबार शुरु करने में भारत का नंबर 155 हैं। कर प्रदान करने में नंबर 172 है। निर्माण क्षेत्र में परमिट के लिये नंबर 185 है। तो ऐसे में क्या बीते ढाई बरस के दौर में प्रदानमंत्री मोदी जिस तरह 50 से ज्यादा देशों का दौरा कर चुके है और वहां जो भी सब्जबाग दिखाये । क्या ये सिर्फ कहने भर के लिये था । क्योंकि अमेरिका से ब्रिटेन तक और मॉरिशस से सऊदी अरब तक और जापान -फ्रास से लेकर आस्ट्रेलिया तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते ढाई साल में जहां भी गए-उन्होंने विदेशी निवेशकों से यही कहा कि भारत में निवेश कीजिए क्योंकि अब सरकार उन्हें हर सुविधा देने के लिए जी-जान से लगी है। और नतीजा सिफर
क्योंकि विश्व बैंक ने बिजनेस की सहूलियत देने वाले देशों की जो सूची जारी की है-उसमें भारत बीते एक साल में सिर्फ एक पायदान ऊपर चढ़ पाया है। यानी भारत 131 से 130 वें नंबर पर आया तो पाकिस्तान 148 से 144 वें नंबर पर आ गया । और चीन 80 से 78 वें पायदान पर पहुंच गया । और नंबर एक परन्यूजीलैंड तो नंबर दो पर सिंगापुर है । तो क्या भारत महज बाजार बनकर रहजा रहा है जहा कन्जूमर है । और दुनिया के बाजार का माल है । क्योंकि-जिन कसौटियों पर देशों को परखा गया है-उनमें सिर्फ बिजली की उपलब्धता का इकलौता कारक ऐसा है,जिसमें भारत को अच्छी रैंकिंग मिली है। वरना आर्थिक क्षेत्र से जुडे हर मुद्दे पर भारत औततन 130 वी पायदान के पार ही है । तो सवाल है कि -क्या मोदी सरकार निवेशकों का भरोसा जीतने में नाकाम साबित हुई है? या फिर इल्पसंख्यको की सुरक्षा । बीफ का सवाल । ट्रिपल तलाक . और देशभक्ति के मुद्दे में ही देश को सियासत जिस तरह उलझा रही है उसमें दुनिया की रुची है नहीं । ऐसे में निवेश के आसरे विकास का ककहरा पढ़ाने वाली मोदी सरकार के दौर में अगर कारोबारियों को ही रास्ता नहीं मिल रहा तो फिर विकास का रास्ता जाता कहां है। क्योकि एक तरफ नौकरी में राजनीतिक आरक्षण के लिये गुजरात में पाटिदार तो हरियाणा में जाट और महाराष्ट् में मराठा सडक पर संघर्ष कर रहा है । और दूसरी तरफ खबर है कि आईटी इंडस्ट्री में हो रहे आटोमेशन से रोजगार का संकट बढने वाला है ।

तो क्या देश में  बेरोजगारी का सवाल सबसे बडा हो जायेगा । और इसकी जद में पहली बार शहरी प्रोपेशनल्स भी आ जायेगें । ये सवाल इसलिये क्योकि देश की तीन बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों की विकास दर पहली बार 10 फीसदी के नीचे पहुंच गई है। और अमेरिकन रिसर्च फर्म एचएफएस का आकलन है कि अगले पांच साल में आईटी सेक्टर में लो स्किल वाली करीब 6 लाख 40 हजार नौकरियां जा सकती हैं । और अगले 10 साल में मिडिल स्केल के आईटी प्रफेशनल्स की नौकरियो पर भी खतरे की घंटी बजने लगेगी । तो क्या जिस आईटी सेक्टर को लेकर ख्वाब संजोय गये उसपर खतरा है । और इसकी सबसे बडी वजह आटोमेशन है । यानी ऑटोमेशन की गाज लो स्किल कर्मचारियों पर सबसे ज्यादा पड़ेगी। और मिडिल लेवल के कर्मचारियों पर कम होते मुनाफे की मार पड़ना तय है। जिसके संकेत दिसंबर 2014 में उस वक्त मिल गए थे, जब टीसीएस ने 2700 से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी कर दी थी। इतना ही नहीं बैंगलुरु में बीते दो साल में 30 हजार से ज्यादा कर्मचारियों की छंटनी हुई है । तो क्या जिस स्टार्टअप और डिजिटल इंडिया के आसरे आईटी इंडस्ट्री में रोजगार पैदा करने का जिक्र हो रहा है वह भी ख्वाब रह जायेगा । क्योकि आईटी सेक्टर का विकास भी दूसरे क्षेत्रों
के विकास पर निर्भर है। और दुनिया के हालात बताते है कि रोबोटिक टेक्नोलॉजी ने मैन्यूफैक्चरिंग में पश्चिम के दरवाजे फिर खोल दिए हैं । यानी लोगो की जरुरत कम हो चली है । भारत के लिये ये खतरे की घंटी कही ज्यादा बडी इसलिये है क्योंकि -आईटी सेक्टर में बदलाव उस वक्त हो रहा है,जब भारत में बेरोजगारी संकट बढ़ रहा है।