जनता को अपनी बात बिना डर और खुल कर कहनी होगी कि वह लोकतंत्र के साथ है या तानाशाही के । चुनाव तो एक आयाम है । जनता का संघर्ष तो महंगाई. करप्शन और तानाशाही की हवा के खिलाफ है ।{--जेपी , 28 फरवरी 1977}।
इमरजेन्सी इसलिये लगायी क्योंकि छात्र कक्षा अटैंड नहीं कर रहे थे । मजदूर काम नहीं कर रहे थे । पुलिस और सेना प्रशासनिक आदेश नहीं मान रहे थे । विरोधियो का समाजवाद में भरोसा नहीं है । हमने देश को अराजकता से बचाया ।
{इंदिरा गांधी 28 फरवरी 1977 } ।
तो ठीक चालीस बरस पहले अमरजेन्सी को लेकर जो इंदिरा गांधी की सोच थी। और इमरजेन्सी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेडने वाले जेपी जो कह रह रहे थे उसमें तय जनता को ही करना था। क्योंकि चुनाव की मुनादी हो चुकी थी और जेपी का रिकॉर्डेड भाषण चंडीगढ की चुनावी रैली के लिये सुनाया गया। और इंदिरा गांधी फूलपुर में चुनावी रैली को संबोधित कर रही थी । तो क्या मौजूदा वक्त में सियासत तीन सौ साठ डिग्री में घूम कर वही पहुंच गई है जहा से एक वक्त इमरजेन्सी का विरोध करते हुये सत्ता तक पहुंची बीजेपी और इमरजेन्सी लगाने वाली सत्ता के बाहर खडे होकर हालात के सामने बेबस खड़ी कांग्रेस । और इन हालातों में छात्र संघर्ष पर टिकती सियासत की धार । तो क्या चालीस बरस पहले जिस तरह इमरजेन्सी के बाद के चुनाव में इमरजेन्सी की परिभाषा अपने अपने तरीके से जेपी और इंदिरा गांधी गढ़ रहे थे । ठीक उसी तर्ज पर मौजूदा सियासत भी छात्रो के संघर्ष को सियासी बिसात पर गढ़ रही है । क्योंकि जो छात्र संघर्ष कर रहे है । मौजूदा हालतो में जो सवाल उठा रहे हैं। वह सवाल ना तो 40 बरस पहले थे। और ना ही मौजूदा वक्त में संघर्ष करते छात्रों में किसी छात्र की उम्र 40 बरस की होगी । तो क्या चुनाव के दौर की जरुरत अब छात्र संघर्ष के जरीये उठते सवालो के आईने में सबसे धारदार हो चले हैं क्योंकि राजनीतिक चुनाव अपनी धार खो रहे है । जनता से सरोकार नेताओं के बच नहीं रहे है । लेकिन सबसे बडा वोट बैक छात्र ही है । आलम ये है कि 42 करोड़ वोटर 18 से 35 बरस के बीच का है । 9 करोड़ युवा वोटर कालेज में है । 12 करोड युवा रजिस्टर्ड बेरोजगार है । यानी छात्रों की ताकत देश की सियासत को पलटने की ताकत रखती है । लेकिन सियासत सियासी बिसात बुनने में माहिर है तो पिर छात्र संघर्ष के इस या उस पार का नजरिया ही नेता बदल रहे हैं।
यानी सियासी टकराव की बिसात पर कोई ये बोलने को तैयार नहीं है कि आखिर पुलिस प्रशासन । कानून या कहे अदालत देशद्रोह या देश भक्ति की व्याख्या क्यो नहीं कर रही है । और अगर व्याख्या है तो फिर खिलाफ जाने वालों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं होती । और छात्रो के नाम पर सारी सियासत सड़क पर ही क्यों हो रही है । यहा से बहुतेरे सवाल निकल सकते हैं। लेकिन जरा इसे समझें कि आने वाले दौर में हम कौन सा भारत बच्चों के लिये छोड़कर जायेंगे । क्योंकि जो छात्र सडक पर संघर्ष करते हुये नजर आ रहे है , यही वह छात्र हैं जिनमें से कई आने वाले वक्त में देश की राजनीति करते नजर आये । कोई आईसा तो कोई एवीबीपी और कोई एनएसयूआई से निकल कर कांग्रेस बीजेपी या वाम राजनीति करते करते संसद में भी नजर आ सकते है । ठीक वैसे ही जैसे जेपी आंदोलन से निकले राजनेता ही आज केन्द्र से लेकर कई राज्यों में बैठे हैं। उनमें राजनाथ , जेटली , सुषमा स्वराज, रविशंकर, नीतीश कुमार , लालू यादव इत्यादि । तो इनके सामने इमरजेन्सी की यादे हैं। तब जेपी का साथ था और इंदिरा गांधी के खिलाफ संघर्ष था । लेकिन जरा कल्पना कीजिये मौजूदा छात्रों के लिये जो चेहरे छात्र संघर्ष के प्रतीक हो सकते हैं। उनके पास कौन सा संघर्ष होगा । लेकिन सच तो यही है कि अभी जो छात्र संघर्ष करते हुये दिखायी दे रहे है . वह स्कूल में पढ़ाई कर कालेज पहुंचने वाली पीढ़ी के लिये राजनीतिक आदर्श होंगे । तो देश सियासी तौर पर किन हाथों में कल होगा उसस पहले जरा ये समझ लें कि मौजूदा वक्त में सियासत के लिये ही कैसे शिक्षा से खिलवाड भी हो रहा है और शिक्षा की तरफ ध्यान भी नहीं दिया जा रहा है । मसलन, राजस्थान सरकार किताबो में हल्दीघाटी की लड़ाई का विजेता महाराणा प्रताप को बताने पर आमादा है । तो पश्चिम बंगाल सरकार ने सातवीं क्लास की किताब का नाम रामधेनु से हटाकर रंगोधेनु करवा दिया । यानी कुलरवाद के तहत किताब का नाम राम का धनुष नही अब इंद्रधनुष होगा । वही मध्य प्रदेश सरकार स्कूली बच्चो की किताब में मोदी की जीवनी का चेप्टर जोड दिया । तो क्या शिक्षा तले इतिहास बनाने की जगह इतिहास बदलने की सोच हावी हो चली है । लेकिन इससे इतर याद किजिये किस तरह की शिक्षा दी जा रही है और शिक्षक खुद कितना जानते है । मसलन बिहार में एजुकेशन सिस्टम से निकला बोर्ड का टापर ऐसा कि विषय का नाम नहीं बोल सकता । और देश में ऐसे टीचर की भरमार है जिन्हें एबीसीडी भी ढंग से पता नही है । लेकिन सवाल चंद तस्वीरों का नहीं उस ढहते एजुकेशन सिस्टम का है,जिसका राजनीतिक सत्ता अपने लिए इस्तेमाल करती है। मुनाफा कमाती है लेकिन बच्चों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है,क्योंकि न तो बुनियादी ढांचा है और न पढ़ाने की इच्छाशक्ति। और असर इसी का है कि तीसरी कक्षा के 75 फीसदी बच्चे, पांचवीं के 50 फीसदी बच्चे और आठवीं के 25 फीसदी बच्चे दूसरी क्लास की किताबों को भी ठीक से नहीं पढ़ सकते.। और दिल्ली के सरकारी स्कूलों पर एक एक सर्वे के मुताबिक छठी क्लास तक के 74 फीसदी बच्चे ठीक से हिन्दी नहीं पढ़ सकते ।
तो जिस राजनीतिक सत्ता को बदहाल शिक्षा को सुधारना चाहिए था-उसके एजेंडे में क्या है, ये इस बात से समझा जा सकता है कि किसी के लिये 17000 से ज्यादा सरस्वती शिशु मंदिर आदर्श है । किसी के लिये 35000 से ज्यादा मदरसों की शिक्षा ही महत्वपूर्ण है । यानी बदलते देश में शिक्षा है कहा इसका सच इस हकीकत से भी जाना जा सकता है कि । 60 फिसदी छात्र उच्च सिक्षा के लिये देश के बाहर चले जाते है । और 89 फिसदी भारत में उच्च सिक्षा की कोई व्यवस्था ही नहीं है । और जहा सिक्षा की व्यवस्था है वहा सडक पर छात्र विचारो की स्वतंत्रता के पैमाने को मापने से जुझ रहा है । तो ये सवाल क्या किसी जहन में कभी आ पाता है कि -डीयू में पढने वाले ढाई लाख छात्रो में से आधे छात्र किसान परिवार से ही आते है । या पिर जेएनयू के 8 हजार छात्रो में से तीन हार छात्र किसान परिवार से ही आते है । और किसान परिवारों से आने के बावजूद वह कौन से हालात है, जहां किसानी के मुद्दे छात्रो को परेशान नहीं करते । और शिक्षा का राजनीतिकरण अभिव्यक्ति के सवाल से होते हुये देशभक्ति या देशद्रोह में इस कदर खो जाता है कि हर घंटे किसान की मौत सवाल बन कर छात्रो को परेशान नहीं करती ।तो क्या छात्र भी अब सियाससी दलो के छात्र संगठन से जुड कर उसी सियासी चक्रव्यूह में फंस चुके है जहा राजनीति सत्ता सिस्टम को ही हडप कर खुद को सिस्टम मानते हुये देश मानने में तब्दिल हो रही है और कैपस दर कैपस छात्रो को समझ नहीं आ रहा है कि वह सियासी ताकत बनने की चाहत में एक ऐसा हिन्दुस्तान गढ रहे है. जहां भक्ति ही देश कहलायेगी और सत्ता ही देश होगी ।
Tuesday, February 28, 2017
Monday, February 27, 2017
देशभक्ति को राजनीति सत्ता की अलिखित कानूनी मान्यता
युवा हिन्दुस्तान की जो आवाज दिल्ली में देशद्रोह बनाम देशबक्ति की हवा में घुमड़ रही है। जिस अंदाज में छात्र-छात्रायें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर कश्मीर और नक्सल मुद्दो के आसरे छात्र संघर्ष के नाम पर छात्रों से ही टकरा रहे हैं। ये तौर तरीके छात्र आंदोलन का ऐसा चेहरा है सत्ता बदलने से ज्यादा सत्ता बरकरार रखने की गूंज है क्योंकि इससे पहले इस तरह की आवाज कभी सुनी देखी नहीं गई। याद कीजिये लोकतंत्र पर करप्शन की छाया पड़ी थी तो जेपी ने 1974 में छात्र आंदोलन के जरिये गुजरात से लेकर बिहार तक जो लकीर खींची, उससे डरी सत्ता ने देश पर इमरेज्न्सी थोप दी । लेकिन छात्र ही थे, जिन्होंने सत्ता पलट दी। 1985 में असम में करप्शन और गैरकानूनी तरीके से बांग्लादेशी घुसपैठ के मामले ने तूल पकड़ा तो कालेज के छात्रों के आंदोलन ने असम की सत्ता पलट दी। और कालेज परीसर से सीधे महंत और फूंकन सरीखे छात्र सीधे विधानसभा पहुंच गये। 1989 में वीपी सिंह ने आरक्षण के जरीये छात्रो को अगडी और पिछडी जाति में बांटा तो छात्र आंदोलन से निकले छात्रो ने सत्ता पर भी कब्जा किया। और देश के चुनावी समीकरण जातीय राजनीति तले घसीटते दिखे। 2011 में करप्शन पर नकेल कसने के लिये लोकतपाल का सवाल अन्ना ने उठाया तो बड़ी तादाद में राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र यूनियन के छात्रो ने एक नयी लकीर तिरंगे तले ही खींच दी। और संसद को भी नतमस्तक होकर लोकपाल पर विधेयेक पास करना पड़ा। तो 2017 में दिल्ली की सड़कों पर छात्रों का ये नजारा कोई नया नहीं है। लेकिन पहली बार छात्र जिन सवालों से जुझ रहे हैं और जिन सवालों पर छात्रो में ही टकराव है उसने तीन सवाल तो पैदा कर ही दिये हैं। पहला क्या छात्र राजनीति का दायरा अब देश के लोकतांत्रिक मूल्यों से टकराने को तैयार हैं। दूसरा, क्या कानून व्यवस्था ने काम करना बंद कर दिया है या उसका नजरिया बदल गया है। तीसरा, राजनीतिक सत्ता की विचारधारा के दायरे में ही सारे संसाधनों को लाने का प्रयास हो रहा है। यानी छात्र आंदोलन को लेकर मौजूदा दौर में ही राजनीति कैंपस के भीतर घुसी है, जिस दौर में भारत सबसे युवा है। और युवा
भारत का मतलब चुनाव के लिये छात्रों को राजनीतिक हथियार बनाने की मशक्कत भी है और छात्रों के आसरे देश के मुद्दो से ध्यान बंटाना भी है। क्योंकि तिरगें तले छात्रों का ये प्रदर्शन सिर्फ विरोध भर नहीं है बल्कि राष्ट्रप्रेम की वह लकीर है जो चेता रही है कि देशप्रेम दिल ना रखे बल्कि खुले तौर पर नारों की शक्ल में बताये तभी आप देशद्रोही नही होंगे।
तो तस्वीरें साफ बताती है कि बीते तीन बरस से जो सवाल छात्रों को संघर्ष के लिये सडक पर ले आये। वह ना तो शिक्षा को लेकर थे। और ना ही छात्रों के भविष्य के साथ होते खिलावाड को लेकर। सारे सवाल छात्रो को बांटते हुये उठे जेएनयू में उठे। पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में उठे । हैदराबाद में वेमुला की खुदकुशी के बाद उठे। और हर सवाल को चाहे अनचाहे ,अभिव्यक्ति के सवाल से लेकर हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम सेक्यूलरिज्म तले लाया गया।
यानी संविधान के तहत जिन सवालो को उटाकर छात्र आंदोलन अभी तक सत्ता को चेताते थे और छात्रोकी भूमिका राजनीतिक सत्ता से बडी हो जाती थी । लेकिन पहली बार छात्र आंदोलन ही राजनीतिक सत्ता के दायरे में सिमटते दिखे । तो नया सवाल ये भी है कि क्या हर मुद्दे पर सियासी खामोशी या राजनीतिक दलों की आपसी सहमति पहली बार छात्र आंदोलन को ही डिरे्ल कर चुकी है । क्योंकि कश्मीर का सवाल देशद्रोह से जुडा है लेकिन पीडीपी-बीजेपी की सत्ता वहा खामोश है । बस्तर का सवाल नक्सली हिंसा से जुड़ा है तो छत्तीसगढ़ और केन्द्र में एक ही पार्टी की सरकार है तो वह खामोश क्यों है।
यानी जो मुद्दे कैपस में देशद्रोह है वह अदालत और पुलिस प्रशासन की नजर में देशद्रोह क्यों नहीं है। और देशद्रोह के सवाल पर क्या कानून अपना काम नहीं कर पा रही है या फिर दुनियाभर में राजनीतिक धाराये जो पूंजीवाद या कहे मार्केट इकनामी के फेल होने से उभरी है उसमे राष्ट्रवाद सबसे आसान शब्द है । तो क्या छात्र भटक रहे है या फिर शिक्षा को नौकरी से जोडने के चक्कर में इतना फ्रोफशनल्जिम कैपस में समा चुका है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कालेज के प्रिंसिपल तक को लग रहा है कि छात्रों को राजनीतिक शिक्षा दी नहीं जा सकी। क्योंकि ये गजब संयोग है कि छात्रों के संघर्ष के बीच सोमवाल यानी 27 जनवरी को छात्रों के बीच खुद पर्चा बांटने रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजेन्द्र प्रसाद पहुंचे। सेंट स्टीफन्स कालेज में पढ़ाई करने के बाद 1985 में जब रामजस कालेज को बतौर प्रिंसिपल के पद को राजेन्द्र प्रसाद ने संभाला तब इनकी उम्र महज 33 बरस की थी। और बीते 32 बरस के दौर में रामजस को डीयू का एक बेहतरीन कालेज बना दिया। लेकिन अपने काम के आखरी दिन [ 28 फरवरी 2017 को रिटायर हो गये। रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजनेद्र प्रसाद ने जरुर महसूस किया कि छात्र दुनिया के उस मिजाज को समझ नहीं पा रहे हैं जो देशप्रेम की हवा तले सत्ता पलट रही है और छात्र उसके लिये औजार बन रहे है । इसलिये ्पने पर्चे में उन्होने साफ साफ लिखा कि देशभक्ति की हवा4 तले शिक्षा को खत्म ना होने दें । सियासी औजार बनकर उस राजनीतिक धारा को मान्यता ना दें जो छात्रो की पढाई के ही खिलाफ है । तो जो जिक्र रामजस कालेज के प्रिसीपल कर गये उसको छात्र ही समझ नही पा रहे है । क्योकि अमेरिका में भी तो ट्रप के आने के बाद से राष्ट्रप्रेम की हवा तले ही भारत के एक इंजिनियर की हत्या अमेरिकी ने कर दी । और आज जब हत्या का विरोध के लिये भारतीय समेच कई देशो के लोग जुटे तो सभी ने माना कि अमेरिका के मौजूदा हालात में पहचान छुपा कर ही रहा जा सकता है । क्योकि बकायदा वहा हिन्दुस्तानियो के लिये हिन्जुस्तीनी संस्धाओ ने एडवाइजरी जारी की सार्वजनिक जगहो पर मातृभाषा में बात ना करें । अकेले ना घूमे, समूह में रहें। तो क्या दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश में भी नया खतरा संविधान को खारिज कर नस्लीय हिंसा का हो चला है या फिर जिन आर्थिक हालातो से अमेरिका गुजार रहा है उसमें राष्ट्रवाद की थ्योरी ही मौजूदा ट्रंप सत्ता का सबसे बेहतरीन हथियार है । तो क्या जिन सवालो को अमेरिकी राष्ट्रवाद तले ट्रंप के दौर में देखा जा रहा है वही सवाल भारत में भी राष्ट्रवाद के दायरे में मौजूदा वक्त में देखा जा रहा है । क्योकि छिटपुट ही सही लेकिन अखलाख की हत्या हो । या कैराना में पलायन का सवाल । या पिर गुजरात में दलितों के खिलाफ उत्पीडन का मामला । तीनों हालात अल्पसंख्यक और समाज के कमजोर तबको के खिलाफ ही उभरे । और अमेरिका में जिस तरह अब आतंकवाद के नाम पर सात देशो को वीजा देने से रोका गया । नस्लीय हिसां का खुला नजारा अमेरिका में अल्पसंख्यक भारतीयो को डरा रहा है । 4 करोड से ज्यादा अप्रवासियों के सामने पहचान छुपाने का संकट मंडरा रहा है । यानी देशभक्ती की लकीर कानून व्यवस्था को ही कमजोर कर देती है । या कहे कानून व्यवस्था हाथ में लेने की देशभक्ति को सत्ता की मान्यता मिल जाती है । ये सवाल इसलिये क्योकि अमेरिका में भी ट्रंप की राजनीति अलिखित राष्ट्रप्रेम को मान्यता दे रही है और दिल्ली में भी देशभक्ति का नारा पुलिस को मूक दर्शक बना रहा है ।
भारत का मतलब चुनाव के लिये छात्रों को राजनीतिक हथियार बनाने की मशक्कत भी है और छात्रों के आसरे देश के मुद्दो से ध्यान बंटाना भी है। क्योंकि तिरगें तले छात्रों का ये प्रदर्शन सिर्फ विरोध भर नहीं है बल्कि राष्ट्रप्रेम की वह लकीर है जो चेता रही है कि देशप्रेम दिल ना रखे बल्कि खुले तौर पर नारों की शक्ल में बताये तभी आप देशद्रोही नही होंगे।
तो तस्वीरें साफ बताती है कि बीते तीन बरस से जो सवाल छात्रों को संघर्ष के लिये सडक पर ले आये। वह ना तो शिक्षा को लेकर थे। और ना ही छात्रों के भविष्य के साथ होते खिलावाड को लेकर। सारे सवाल छात्रो को बांटते हुये उठे जेएनयू में उठे। पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में उठे । हैदराबाद में वेमुला की खुदकुशी के बाद उठे। और हर सवाल को चाहे अनचाहे ,अभिव्यक्ति के सवाल से लेकर हिन्दू राष्ट्रवाद बनाम सेक्यूलरिज्म तले लाया गया।
यानी संविधान के तहत जिन सवालो को उटाकर छात्र आंदोलन अभी तक सत्ता को चेताते थे और छात्रोकी भूमिका राजनीतिक सत्ता से बडी हो जाती थी । लेकिन पहली बार छात्र आंदोलन ही राजनीतिक सत्ता के दायरे में सिमटते दिखे । तो नया सवाल ये भी है कि क्या हर मुद्दे पर सियासी खामोशी या राजनीतिक दलों की आपसी सहमति पहली बार छात्र आंदोलन को ही डिरे्ल कर चुकी है । क्योंकि कश्मीर का सवाल देशद्रोह से जुडा है लेकिन पीडीपी-बीजेपी की सत्ता वहा खामोश है । बस्तर का सवाल नक्सली हिंसा से जुड़ा है तो छत्तीसगढ़ और केन्द्र में एक ही पार्टी की सरकार है तो वह खामोश क्यों है।
यानी जो मुद्दे कैपस में देशद्रोह है वह अदालत और पुलिस प्रशासन की नजर में देशद्रोह क्यों नहीं है। और देशद्रोह के सवाल पर क्या कानून अपना काम नहीं कर पा रही है या फिर दुनियाभर में राजनीतिक धाराये जो पूंजीवाद या कहे मार्केट इकनामी के फेल होने से उभरी है उसमे राष्ट्रवाद सबसे आसान शब्द है । तो क्या छात्र भटक रहे है या फिर शिक्षा को नौकरी से जोडने के चक्कर में इतना फ्रोफशनल्जिम कैपस में समा चुका है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कालेज के प्रिंसिपल तक को लग रहा है कि छात्रों को राजनीतिक शिक्षा दी नहीं जा सकी। क्योंकि ये गजब संयोग है कि छात्रों के संघर्ष के बीच सोमवाल यानी 27 जनवरी को छात्रों के बीच खुद पर्चा बांटने रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजेन्द्र प्रसाद पहुंचे। सेंट स्टीफन्स कालेज में पढ़ाई करने के बाद 1985 में जब रामजस कालेज को बतौर प्रिंसिपल के पद को राजेन्द्र प्रसाद ने संभाला तब इनकी उम्र महज 33 बरस की थी। और बीते 32 बरस के दौर में रामजस को डीयू का एक बेहतरीन कालेज बना दिया। लेकिन अपने काम के आखरी दिन [ 28 फरवरी 2017 को रिटायर हो गये। रामजस कालेज के प्रिंसिपल राजनेद्र प्रसाद ने जरुर महसूस किया कि छात्र दुनिया के उस मिजाज को समझ नहीं पा रहे हैं जो देशप्रेम की हवा तले सत्ता पलट रही है और छात्र उसके लिये औजार बन रहे है । इसलिये ्पने पर्चे में उन्होने साफ साफ लिखा कि देशभक्ति की हवा4 तले शिक्षा को खत्म ना होने दें । सियासी औजार बनकर उस राजनीतिक धारा को मान्यता ना दें जो छात्रो की पढाई के ही खिलाफ है । तो जो जिक्र रामजस कालेज के प्रिसीपल कर गये उसको छात्र ही समझ नही पा रहे है । क्योकि अमेरिका में भी तो ट्रप के आने के बाद से राष्ट्रप्रेम की हवा तले ही भारत के एक इंजिनियर की हत्या अमेरिकी ने कर दी । और आज जब हत्या का विरोध के लिये भारतीय समेच कई देशो के लोग जुटे तो सभी ने माना कि अमेरिका के मौजूदा हालात में पहचान छुपा कर ही रहा जा सकता है । क्योकि बकायदा वहा हिन्दुस्तानियो के लिये हिन्जुस्तीनी संस्धाओ ने एडवाइजरी जारी की सार्वजनिक जगहो पर मातृभाषा में बात ना करें । अकेले ना घूमे, समूह में रहें। तो क्या दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश में भी नया खतरा संविधान को खारिज कर नस्लीय हिंसा का हो चला है या फिर जिन आर्थिक हालातो से अमेरिका गुजार रहा है उसमें राष्ट्रवाद की थ्योरी ही मौजूदा ट्रंप सत्ता का सबसे बेहतरीन हथियार है । तो क्या जिन सवालो को अमेरिकी राष्ट्रवाद तले ट्रंप के दौर में देखा जा रहा है वही सवाल भारत में भी राष्ट्रवाद के दायरे में मौजूदा वक्त में देखा जा रहा है । क्योकि छिटपुट ही सही लेकिन अखलाख की हत्या हो । या कैराना में पलायन का सवाल । या पिर गुजरात में दलितों के खिलाफ उत्पीडन का मामला । तीनों हालात अल्पसंख्यक और समाज के कमजोर तबको के खिलाफ ही उभरे । और अमेरिका में जिस तरह अब आतंकवाद के नाम पर सात देशो को वीजा देने से रोका गया । नस्लीय हिसां का खुला नजारा अमेरिका में अल्पसंख्यक भारतीयो को डरा रहा है । 4 करोड से ज्यादा अप्रवासियों के सामने पहचान छुपाने का संकट मंडरा रहा है । यानी देशभक्ती की लकीर कानून व्यवस्था को ही कमजोर कर देती है । या कहे कानून व्यवस्था हाथ में लेने की देशभक्ति को सत्ता की मान्यता मिल जाती है । ये सवाल इसलिये क्योकि अमेरिका में भी ट्रंप की राजनीति अलिखित राष्ट्रप्रेम को मान्यता दे रही है और दिल्ली में भी देशभक्ति का नारा पुलिस को मूक दर्शक बना रहा है ।
Thursday, February 23, 2017
गधा, गरीब, सत्ता और चुनाव
तो नासा ने पहली बार घरती के आकार के ऐसे सात ग्रहों का पता लगाया है...जहां जिन्दगी ममुकिन है। क्योंकि सात ग्रहो में से तीन पर तीन पर पानी है । और धरती से 40 प्रकाश पर्व की दूरी पर ट्रैप्पिस्ट-1 नाम के तारे के इर्द गिर्द ही सातों ग्रह है । नये सात ग्रहों को तो कोई नाम अभी नहीं दिया गया है । लेकिन भारतीय राजनीति में सात ऐसे शब्द जरुर उभरे हैं जिनके आसरे राजनीतिक सत्ता साधी जा सकती है। सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी ,स्कैम , रेनकोट ,श्मशान या कब्रिस्तान , कसाब ,गधा । और ये शब्द ऐसे भेदते है कि विरोधियों की टोपी उछल जाती है । संसदीय मर्यादा खत्म हो जाती है । जातियों के समीकरण टूट जाते हैं। गरीब का दर्द किसानों की त्रासदी एक नये समाजवाद को परिभाषित कर देती है । विकास का ककहरा 70 बरस के गड्डो से गुस्सा भर देता है । तमाम सत्ता डगमगाने लगती है । और ये सत्ता चाहे मुंबई में शिवसेना की हो या उडीसा में कांग्रेस और बीजू जनता दल की हो । या फिर सियासी सफर पर निकले राहुल-अखिलेश की हो । या फिर पाक साफ दामन बताने वाले मनमोहन सिंह ही क्यो ना हो । हर सत्ता । हर शख्स को चुनौती देते नये नये शब्द भारतीय राजनीति में किसी ध्रुवतारे की तरह अब कुछ इस तरह चमकने लगे है कि पहली बार शिवसेना को समझ में आने लगा है कि आखिर उसे पीएम मोदी ने वसूली पार्टी क्यों कहा । असर यही पड़ा कि बीएमसी में 31 से 81 सीटो पर बीजेपी ने छलांग लगा दी । उ़डीसा के पिछडेपन में पंचायत की 36 से 309 सीट जितने की छलांग लगा दी । घोटालों की फेहरिस्त तले संसदीय मर्यादा बेमानी हुई , कांग्रेस मुक्त भारत के सपने जागने लगे । समाजवादियों की साइकिल से पंचर यूपी के घाव को मलहम गधा शब्द के व्यंग्य बाण से नही लगा। उल्टे गधे की महिमा तले पहली बार रईसी की राजनीति पर गधे की मेहनत भारी पडती दिखी।
यानी ऐसे ऐसे शब्द निकले है कि नासा के सात ग्रह की खोज भी कमजोर लग रही है । ये भी मायने नही रख रहा कि तीन ग्रह पर पानी है तो वहा भी जीवन होगा । वहां भी बसा जा सकता है । मायने तो सियासत के वे शब्द है जिसने महाराष्ट्र की पारंपरिक राजनीति को ही पलट दिया है । पहली बार मराठा-दलित राजनीति हाशिये पर है । मराठी मानुष की राजनीति तले शिवसेना का बडे भाई होने का गुमान टूटा है । ब्राह्ममण और विदर्भ की पताका मुबंई और पश्चिमी महाराष्ट्र में लहरा रही है । तो क्या भारत की राजनीति करवट ले रही है । या फिर पारंपरिक राजनीतिक की लकीर के सामानांतर मोदी ने कहीं बड़ी लकीर खींच दी है । जिसमे आवाज उन गूंगों को मिली है जो अभी तक वोट की ताकत तो थे लेकिन राजनीतिक बिसात पर उनके शब्द कोई मायने नहीं रखते थे। और पहली बार जब अपने नये शभ्दो से प्रदानमंत्री मोदी ने उन्ही ही उन्ही के शब्दो से जागृत किया है तो फिर ये तय है राजनीति की ये लकीर 2019 तक किसी नये महाभारत की भूमिका भी लिख रही है । तो इंतजार कीजिये जब नासा के नये सात ग्रहों पर जीवन पहुंचे और इंतजार कीजिये यूपी के जनादेश तले 2019 का जब सड़क की राजनीति से सियासत का नया ककहरा कहा जायेगा । क्योंकि कांग्रेस को समझ में आने लगा है कि घोटालों की फेहरिस्त के सामने संसदीय मर्यादा बेमानी है । समाजवादी साइकिल ने यूपी को जितना पंचर किया उसके सामने गधा शब्द भी बेमानी है ।
उ़डीसा के पिछडेपन में पंचायत की 36 से 309 सीट जितने की छंलाग लगा दी । और दूसरी तरफ पहली बार भारतीय राजनीति में सात ऐसे शब्द निकले है जिनके आसरे सत्ता साधी जा सकती । क्योकि पीएम जब कहते है कि - मैं सेवक हूं 125 करोड़ लोग मालिक हैं--सुबह से रात तक काम करता हूं । तो किसी को भी लग सकता है कि काश सत्ता की कुर्सी पर बैठा हर शख्स ऐसा सोचता । और कहते सोचते हुये वाकई कुछ इसी अंदाज में काम भी करता । तो काम करता तो लहलहाते खेत होते । हर हाथ को काम होता । 19 करोड से ज्यादा की पीठ और पेट एक नहीं हुये होते । बच्चो के हाथ किताब होती । बिमार के लिये अस्पताल होता । तो शायद कोई गधे पर व्यग्य ना करता । खुद को काम के बोझ से मारा हुआ भी नहीं कहता । तो गधे की सत्ता तो उसके काम से ज्यादा चुनावी जीत पर टिकी है । क्योंकि महाराष्ट्र में सत्ता संभाले बीजेपी शिवसेना अगर मैदान में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक दे । तो फिर कौन सेवक और कौन काम के बोझ का मारा कौन । यानी विपक्ष भी हम । सत्ता भी हम और जिन्दगी के बोझ से दबी जनता का दर्द काफूर । क्योंकि 10 नगर पालिका चुनाव
में बीजेपी जीती तो 205 सीटों से छलांग लगाकर 470 सीट पर पहुंच गई । -शिवसेना हारी तो 227 से 215 पर आ गई । यानी विपक्ष की कांग्रेस और एनसीपी का जिक्र ही गायब । क्योंकि ये आवाज चुनावी शोर में थम गई कि महाराष्ट्र में 2 करोड 71 लाख लोग बीपीएल है । जिनमें -शहरो में करीब 1 करोड बीपीएल है । यानी गरीबी, मुफ्लिसी , बेरोजगारी, किसान खुदकुशी हाशिये पर तो निगाहो में महारा,्ट्र का किंग राज्य के मुखिया देवेन्द्र फडनवीस ही । यानी महाराष्ट के जनादेश ने तो बता दिया कि शिवसेना सेवक नहीं ।त काग्रेस काम के बोझ से भागती है । पवार आखरी दिये की तरह टिमटिमा रहे है । और बीजेपी सेवक भी है । सियासी बोझ भी काबिलियत से ढो रही है । यानी जीत हुई तो राज्य के गड्डे भर गये । हर त्रासदी छुप गई । तो क्या इसी तर्ज पर यूपी में बीजेपी जीत गई तो फिर अखिलेश पर गधा व्यग्य बारी माना जायेगा । और अखिलेश जीत गये तो काम के बोझ से लदे पीएम पर उनका बोझ भारी माना जायेगा । क्योकि यूपी का सच तो गधे की खोज तले दब चुका है । कौन जानता है कि दुनिया के 50 से ज्यादा देशो की जितनी जनसंख्या नहीं है उससे ज्यादा गरीबी की रेका से नीचे यूपी के लोग है जिनकी जिन्दगी दो जून की रोटी के बोझ तले ही दबी हुई है । -यूपी में 7 करोड 38 लाख लोग बीपीएल है । और जिस गरीब गांववालो की जिन्दगी में सत्ता मिलते ही सबकुछ माफ कर राहत देने के दावे सत्ता का हर सेवक कर रही है उसका सच ये है कि 6 करोड 10 लाख गाववालो की जिन्दगी प्रतिदिन 30 रुपये से कम पर चल रही है ।
तो क्या कहे कि गधे की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वो मेहनतकश है, और एक बार रास्ता बताने पर
बिना हांके वहीं लौट आता है। और सत्ता तो रास्ता बदलती रहती है । हां जनता का रास्ता वही का वही रह जाता है क्योकि सच तो यही है कि देश की जनता मेहनतकश है, और एक बार समझाए जाने पर कि चुनाव से ही हर हल निकलेगा तो वो बिना बताए वोट डालकर अपनी किस्मत बदलने का इंतजार करती है। तो क्या नोटबंदी के फैसले ने देश की जिस इक्नामी को झटका दे दिया और विकास दर से लेकर एनपीए और रोजगार से लेकर क्रेडिट ग्रोथ पर संकट आ गया । इकऩॉमी के ये मुश्किल हालातो का कोई असर उस वोटर पर नहीं पडा जो देश में सत्ता बदलने बनाने की ताकत रखता है । क्योकि महाराष्ट्र और उडीसा में बीजेपी की जीत ने उस इक्नामी के संकट को ही खारिज कर दिया जिसे नोटबंदी के बाद बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा था । तो सवाल तीन है । पहला मार्केट इक्नामी सिर्फ मुनाफा बनाने वाले धंधे के लिये है । दूसरा, ग्रामिण या हाशिये पर खडे भारत के लोगो पर अच्छी या बिगडी इक्नामी का कोई असर होता ही नहीं । तीसरा , देश की अर्थव्यवस्था में कोई भोगेदारी गरीब, मजदूर, किसान, आदिवासी की है ही नहीं । यानी एक तरफ पश्चिमी इक्नामी की परिभाषा तले परखे तो कह सकते है देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर ठिठक गई है। स्टेट बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 की तीसरी तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह फीसदी से कम रहेगी । आईएमएफ की भी ताजा रिपोर्ट यही कहती है कि नोटबंदी से पैदा हुई अस्थायी परेशानियों के चलते विकास दर 6.6 फीसदी रहेगी । लेकिन आंकड़ों की इस इक्नामी से हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक जनता को क्या लेना देना है । क्योंकि एक तरफ देश के 40 करोड़ों लोगों की पहली जरुरत सिर्फ दो जून की रोटी है। सुविधाएं नहीं। और यही वजह है कि फ्री दाल-चावल-गेंहू के चुनावी वादे को सच मान देश का बड़ा तबका वोट करता है।
लेकिन गरीबी से इतर रईसी का सच क्या है-ये भी देख लीजिए। देश में इस वक्त 2 लाख 64 हजार करोड़पति हैं,। महज दो साल में 66 हजार करोड़पति बढ़ गए। और न्यू वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट के मुताबिक करोड़पति वो है,जिनके पास कम से कम 6.7 करोड़ रुपए की संपत्ति है । भारत में इस वक्त करीब 95 अरबपति हैं, यानी वो जिनके पास 6700 करोड़ रुपए से ज्यादा संपत्ति है । यानी नोटबंदी का सवाल हो या इक्नामी के पटरी से उतरने की आंशाका । ये चुनावी बिसात पर इसलिये बेमानी हो जाते है कियोकि वोट की ताकत संबाले देश का बहुशंख्य तबका हाशिये पर है । और पीएम मोदी इसी मर्म को बार बार छुते है । तो क्या 1991 के बाद के आर्थिक सुधार की उम्र अब भारत में पूरी हो चली है । और चुनावी जीत का सिलसिला आने वाले वक्त में देश की अर्थव्यवस्था को भी नये तरीके से परिभाषित करेगा । यानी अर्थवस्था का स्वदेशीकरण होगा । हर हाथ को काम पर जोर होगा । मेक इन इंडिया के लिये रास्ता निकलेगा । ये सवाल इसलिये क्योकि क्योकि इक्नामी के जो मापक है वो खतरे की घंटी बजा रहा है । मसलन बैकिंग सिस्ट्म चरमरा रहा है । -निजी कंपनियों में वेतन इन्क्रीमेंट 8 बरस में सबसे कम 9.5 पिसदी होने का अंदेशा है । 60 बरस में क्रेडिट ग्रोथ सबसे कम हो गई है । इनक्लूसिव ग्रोथ इंडेक्स में भारत का नंबर 60वां है,जो चीन, नेपाल से भी ज्यादा है । लेकिन फिर वही सवाल जिस हिन्दुस्तान के वोटरो का आसरे सत्ता मिलता ही या सत्ता खिसकती है उसकी जिन्दगी तो बीते 70 बरस में बद से बदतर ही हुई है । तो फिर प्ऱदानमंत्री मोदी चुनावी जीत और बिगडी इक्नामी के उस टाइम बम पर बैठे है । जहा वैकल्पिक इक्नामी की सोच अगर नहीं आई तो चुनावी जीत देश के सामाजिक-आर्तिक हालातो के लिये त्रासदी साबित होगी । और अगर वाकई गरीब,मजदूर किसानों को ध्यान में रखकर कोई विक्लप की अर्थव्यवस्था ले आये तो चुनावी जीत से आगे चकमक हिन्दुस्तान होगा । इंतजार किजिये अभी देश की सियासत के कई रंग देखने हैं।
यानी ऐसे ऐसे शब्द निकले है कि नासा के सात ग्रह की खोज भी कमजोर लग रही है । ये भी मायने नही रख रहा कि तीन ग्रह पर पानी है तो वहा भी जीवन होगा । वहां भी बसा जा सकता है । मायने तो सियासत के वे शब्द है जिसने महाराष्ट्र की पारंपरिक राजनीति को ही पलट दिया है । पहली बार मराठा-दलित राजनीति हाशिये पर है । मराठी मानुष की राजनीति तले शिवसेना का बडे भाई होने का गुमान टूटा है । ब्राह्ममण और विदर्भ की पताका मुबंई और पश्चिमी महाराष्ट्र में लहरा रही है । तो क्या भारत की राजनीति करवट ले रही है । या फिर पारंपरिक राजनीतिक की लकीर के सामानांतर मोदी ने कहीं बड़ी लकीर खींच दी है । जिसमे आवाज उन गूंगों को मिली है जो अभी तक वोट की ताकत तो थे लेकिन राजनीतिक बिसात पर उनके शब्द कोई मायने नहीं रखते थे। और पहली बार जब अपने नये शभ्दो से प्रदानमंत्री मोदी ने उन्ही ही उन्ही के शब्दो से जागृत किया है तो फिर ये तय है राजनीति की ये लकीर 2019 तक किसी नये महाभारत की भूमिका भी लिख रही है । तो इंतजार कीजिये जब नासा के नये सात ग्रहों पर जीवन पहुंचे और इंतजार कीजिये यूपी के जनादेश तले 2019 का जब सड़क की राजनीति से सियासत का नया ककहरा कहा जायेगा । क्योंकि कांग्रेस को समझ में आने लगा है कि घोटालों की फेहरिस्त के सामने संसदीय मर्यादा बेमानी है । समाजवादी साइकिल ने यूपी को जितना पंचर किया उसके सामने गधा शब्द भी बेमानी है ।
उ़डीसा के पिछडेपन में पंचायत की 36 से 309 सीट जितने की छंलाग लगा दी । और दूसरी तरफ पहली बार भारतीय राजनीति में सात ऐसे शब्द निकले है जिनके आसरे सत्ता साधी जा सकती । क्योकि पीएम जब कहते है कि - मैं सेवक हूं 125 करोड़ लोग मालिक हैं--सुबह से रात तक काम करता हूं । तो किसी को भी लग सकता है कि काश सत्ता की कुर्सी पर बैठा हर शख्स ऐसा सोचता । और कहते सोचते हुये वाकई कुछ इसी अंदाज में काम भी करता । तो काम करता तो लहलहाते खेत होते । हर हाथ को काम होता । 19 करोड से ज्यादा की पीठ और पेट एक नहीं हुये होते । बच्चो के हाथ किताब होती । बिमार के लिये अस्पताल होता । तो शायद कोई गधे पर व्यग्य ना करता । खुद को काम के बोझ से मारा हुआ भी नहीं कहता । तो गधे की सत्ता तो उसके काम से ज्यादा चुनावी जीत पर टिकी है । क्योंकि महाराष्ट्र में सत्ता संभाले बीजेपी शिवसेना अगर मैदान में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक दे । तो फिर कौन सेवक और कौन काम के बोझ का मारा कौन । यानी विपक्ष भी हम । सत्ता भी हम और जिन्दगी के बोझ से दबी जनता का दर्द काफूर । क्योंकि 10 नगर पालिका चुनाव
में बीजेपी जीती तो 205 सीटों से छलांग लगाकर 470 सीट पर पहुंच गई । -शिवसेना हारी तो 227 से 215 पर आ गई । यानी विपक्ष की कांग्रेस और एनसीपी का जिक्र ही गायब । क्योंकि ये आवाज चुनावी शोर में थम गई कि महाराष्ट्र में 2 करोड 71 लाख लोग बीपीएल है । जिनमें -शहरो में करीब 1 करोड बीपीएल है । यानी गरीबी, मुफ्लिसी , बेरोजगारी, किसान खुदकुशी हाशिये पर तो निगाहो में महारा,्ट्र का किंग राज्य के मुखिया देवेन्द्र फडनवीस ही । यानी महाराष्ट के जनादेश ने तो बता दिया कि शिवसेना सेवक नहीं ।त काग्रेस काम के बोझ से भागती है । पवार आखरी दिये की तरह टिमटिमा रहे है । और बीजेपी सेवक भी है । सियासी बोझ भी काबिलियत से ढो रही है । यानी जीत हुई तो राज्य के गड्डे भर गये । हर त्रासदी छुप गई । तो क्या इसी तर्ज पर यूपी में बीजेपी जीत गई तो फिर अखिलेश पर गधा व्यग्य बारी माना जायेगा । और अखिलेश जीत गये तो काम के बोझ से लदे पीएम पर उनका बोझ भारी माना जायेगा । क्योकि यूपी का सच तो गधे की खोज तले दब चुका है । कौन जानता है कि दुनिया के 50 से ज्यादा देशो की जितनी जनसंख्या नहीं है उससे ज्यादा गरीबी की रेका से नीचे यूपी के लोग है जिनकी जिन्दगी दो जून की रोटी के बोझ तले ही दबी हुई है । -यूपी में 7 करोड 38 लाख लोग बीपीएल है । और जिस गरीब गांववालो की जिन्दगी में सत्ता मिलते ही सबकुछ माफ कर राहत देने के दावे सत्ता का हर सेवक कर रही है उसका सच ये है कि 6 करोड 10 लाख गाववालो की जिन्दगी प्रतिदिन 30 रुपये से कम पर चल रही है ।
तो क्या कहे कि गधे की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वो मेहनतकश है, और एक बार रास्ता बताने पर
बिना हांके वहीं लौट आता है। और सत्ता तो रास्ता बदलती रहती है । हां जनता का रास्ता वही का वही रह जाता है क्योकि सच तो यही है कि देश की जनता मेहनतकश है, और एक बार समझाए जाने पर कि चुनाव से ही हर हल निकलेगा तो वो बिना बताए वोट डालकर अपनी किस्मत बदलने का इंतजार करती है। तो क्या नोटबंदी के फैसले ने देश की जिस इक्नामी को झटका दे दिया और विकास दर से लेकर एनपीए और रोजगार से लेकर क्रेडिट ग्रोथ पर संकट आ गया । इकऩॉमी के ये मुश्किल हालातो का कोई असर उस वोटर पर नहीं पडा जो देश में सत्ता बदलने बनाने की ताकत रखता है । क्योकि महाराष्ट्र और उडीसा में बीजेपी की जीत ने उस इक्नामी के संकट को ही खारिज कर दिया जिसे नोटबंदी के बाद बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा था । तो सवाल तीन है । पहला मार्केट इक्नामी सिर्फ मुनाफा बनाने वाले धंधे के लिये है । दूसरा, ग्रामिण या हाशिये पर खडे भारत के लोगो पर अच्छी या बिगडी इक्नामी का कोई असर होता ही नहीं । तीसरा , देश की अर्थव्यवस्था में कोई भोगेदारी गरीब, मजदूर, किसान, आदिवासी की है ही नहीं । यानी एक तरफ पश्चिमी इक्नामी की परिभाषा तले परखे तो कह सकते है देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर ठिठक गई है। स्टेट बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 की तीसरी तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह फीसदी से कम रहेगी । आईएमएफ की भी ताजा रिपोर्ट यही कहती है कि नोटबंदी से पैदा हुई अस्थायी परेशानियों के चलते विकास दर 6.6 फीसदी रहेगी । लेकिन आंकड़ों की इस इक्नामी से हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक जनता को क्या लेना देना है । क्योंकि एक तरफ देश के 40 करोड़ों लोगों की पहली जरुरत सिर्फ दो जून की रोटी है। सुविधाएं नहीं। और यही वजह है कि फ्री दाल-चावल-गेंहू के चुनावी वादे को सच मान देश का बड़ा तबका वोट करता है।
लेकिन गरीबी से इतर रईसी का सच क्या है-ये भी देख लीजिए। देश में इस वक्त 2 लाख 64 हजार करोड़पति हैं,। महज दो साल में 66 हजार करोड़पति बढ़ गए। और न्यू वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट के मुताबिक करोड़पति वो है,जिनके पास कम से कम 6.7 करोड़ रुपए की संपत्ति है । भारत में इस वक्त करीब 95 अरबपति हैं, यानी वो जिनके पास 6700 करोड़ रुपए से ज्यादा संपत्ति है । यानी नोटबंदी का सवाल हो या इक्नामी के पटरी से उतरने की आंशाका । ये चुनावी बिसात पर इसलिये बेमानी हो जाते है कियोकि वोट की ताकत संबाले देश का बहुशंख्य तबका हाशिये पर है । और पीएम मोदी इसी मर्म को बार बार छुते है । तो क्या 1991 के बाद के आर्थिक सुधार की उम्र अब भारत में पूरी हो चली है । और चुनावी जीत का सिलसिला आने वाले वक्त में देश की अर्थव्यवस्था को भी नये तरीके से परिभाषित करेगा । यानी अर्थवस्था का स्वदेशीकरण होगा । हर हाथ को काम पर जोर होगा । मेक इन इंडिया के लिये रास्ता निकलेगा । ये सवाल इसलिये क्योकि क्योकि इक्नामी के जो मापक है वो खतरे की घंटी बजा रहा है । मसलन बैकिंग सिस्ट्म चरमरा रहा है । -निजी कंपनियों में वेतन इन्क्रीमेंट 8 बरस में सबसे कम 9.5 पिसदी होने का अंदेशा है । 60 बरस में क्रेडिट ग्रोथ सबसे कम हो गई है । इनक्लूसिव ग्रोथ इंडेक्स में भारत का नंबर 60वां है,जो चीन, नेपाल से भी ज्यादा है । लेकिन फिर वही सवाल जिस हिन्दुस्तान के वोटरो का आसरे सत्ता मिलता ही या सत्ता खिसकती है उसकी जिन्दगी तो बीते 70 बरस में बद से बदतर ही हुई है । तो फिर प्ऱदानमंत्री मोदी चुनावी जीत और बिगडी इक्नामी के उस टाइम बम पर बैठे है । जहा वैकल्पिक इक्नामी की सोच अगर नहीं आई तो चुनावी जीत देश के सामाजिक-आर्तिक हालातो के लिये त्रासदी साबित होगी । और अगर वाकई गरीब,मजदूर किसानों को ध्यान में रखकर कोई विक्लप की अर्थव्यवस्था ले आये तो चुनावी जीत से आगे चकमक हिन्दुस्तान होगा । इंतजार किजिये अभी देश की सियासत के कई रंग देखने हैं।
Thursday, February 16, 2017
बैलगाड़ी पर सवार देश में हर किसी को सत्ता चाहिये
54 बरस में भारत कहां से कहां पहुंच गया। 1963 में पहली बार इसरो को साइकिल के कैरियर में राकेट बांधकर नारियल के पेडो के बीच थुबा लांचिग स्टेशन पहुंचना पड़ा था। और आज दुनिया भर के सौ से ज्यादा सैटेलाइट को एक साथ लांच करने की स्थित में भारत के वैज्ञानिक आ चुके हैं। लेकिन अंतरिक्ष देखना छोड दें तो जमीन पर खडी साइकिल की स्थिति में कोई बदलाव आया नहीं है। यूं 1981 में बैलगाडी पर सैटेलाइट लादकर इसरो लाया गया था। और देश का मौजूदा सच साइकिल और बैलगाडी से आगे क्यों बढं नहीं पा रहा है इसे जानने से पहले राजनीतिक तौर पर सत्ता के लिये नेताओ के लालच को ही परख लें जो किसान मजदूर और गरीबी के राग से आगे निकल नहीं पा रहे हैं। यानी 2017 में भी बात गरीबों की होगी। किसानों की होगी। मजदूरों की होगी। भूखों की होगी। यानी बैलगाडी पर सवार देश के 80 फीसदी लोगों की रफ्तार साइकिल से तेज हो नहीं पा रही है। और इस सच को जानने के लिये यूपी चुनाव को नहीं बल्कि सत्ता संभाले सरकारों के सच को ही जान लें। तमिननाडु की सरकार दो रुपये के भोजन के वादे पर टिकी है।
छत्तीसगढ़ की सरकार दो रुपये चावल देने पर टिकी है। उडीसा की सरकार मुफ्त राशन देने पर टिकी है पंजाब, राजस्थान, मद्यप्रदेश, बंगाल की सरकारें दो जून के मुफ्त जुगाड़ कराने पर टिकी है। यानी जो राजनीतिक सत्ता भूख मिटाने की लड़ाई लड़ रही है । जिस देश में वोट का मतलब गरीबी मुफलिसी के दर्द को उभार कर पेट भरने का सुकून दिलाने भर का सपना बीते 50 बरस से हर चुनाव में दिखाया जा रहा हो। वहां अंतरिक्ष की दौड को अगर पीएम अपनी सफलता मान लें और आगरा लखनऊ सड़क पर लडाकू विमान उतार कर सीएम खुश हो जाये तो इसका मतलब निकलेगा क्या । और ये संयोग हो सकता है कि 1963 में साइकिल पर रॉकेट लाया गया तब नेहरु ने देश को साइकिल युग से बाहर निकालने का खवाब देश को दिखाया था और 2017 में साइकिल की लडाई देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी यूपी में लड़ रही है। और जिक्र किसान का ही हो रहा है। यानी चाहे अनचाहे जिक्र बैलगाडी पर सवार देश का ही हो रहा है। तो आईये जरा ये भी देख लें कि सैटेलाइट की उडान से इतर भारतीय समाज अभी भी बैलगाड़ी पर सवार क्यों है। क्योंकि सच तो यही है कि बैलगाडी आज भी किसानी की जरुरत है। देश में एक करोड़ चालीस लाख बैलगाडी आज भी खेतों में चलती है। बाजार से खेत तक किसान सामान बैलगाडी से ही लाता है। और लकडी की इस बैलगाडी की कीमत है 10 से 14 हजार रुपये। लकड़ी के पहिये तो 10 हजार और टायर के पहिये तो 12 से 14 हजार। और देश के किसानों का हालात इतनी जर्जर है कि ट्रैक्टर खरीदने की स्थिति में भी देश के 88 फिसदी किसान नहीं है। प्रतिदिन 600 रुपये ट्रैक्टर किराये पर मिलते हैं, जिसे लेने की स्थिति में भी किसान नहीं होता। तो क्या वाकई देश बैलगाड़ी युग से आगे निकल नहीं पा रहा है और 1981 में जब इसरो के वैज्ञानिक बैलगाड़ी पर सैटेलाइट लाद कर पहुंचे थे तो दुनियाभर में
चाहे ये तस्वीर भारत की आर्थिक जर्जरता को बता रही थी। लेकिन अब वैज्ञानिकों की सफलता के आईने में क्या पीएम सीएम को भी सफल माना जा सकता है। क्योंकि बैलगाड़ी पर सवार हिन्दुस्तान का सच यही है कि 21 करोड किसान-मजदूर की औसत आय प्रतिदिन की 40 रुपये है। 12 करोड मनरेगा के मजदूरों को 5 लाख तालाब खोदने हैं। पढ़े लिखे रजिस्टर्ड बेरोजगार 18 करोड़ पार कर चुके हैं। लेकिन मुश्किल तो सत्ता पाने के लिये रैलियों का सपना या सत्ता का आंख मूंद कर सपनो में जीना।
क्योंकि जिस फसल बीमा योजना को प्रधानमंत्री मोदी सबसे सफल और एतिहासिक बताते हैं, उसी फसल योजना को हरियाणा के डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने नहीं कराया। और हरियाणा में बीजेपी की ही सरकार है। वहीं के किसान फसल बीमा नहीं करा रहे तो क्या किसानों के हितों की बातें सिर्फ रैलियों तक सीमित है। क्योंकि बीजेपी के ही दो और राज्य है छत्तीसगढ़ और मद्यप्रदेश। एक तरफ छत्तीसगढ़ के दुर्ग और दूसरी मध्यप्रदेश के श्योपुर में किसानों की उपज खरीदने वाला कोई नहीं है। तो तमाम सब्जियां सड़क पर ही फैंक दी गई। दोनों ही राज्य सरकारें खुद को किसानों की हितैषी कहने से नहीं हिचकतीं लेकिन ऐसा कोई इंतजाम नहीं कर पाई कि किसानों को फसल के पर्याप्त दाम मिल पाएं। मजबूरन किसान अपनी सब्जियां मंडी ले जाने के बजाय सड़क पर फेक रहा है। तो जिस देश में किसान को उपज की कीमत ना मिल पाती हो। जिस देश में अनाज भंडारन की व्यवस्था तक ना हो। जिस देश कर्ज तले किसान खुदकुशी कर लेते हो । उस देश में पीएम या सीएम किसानो को लेकर सपनो का जिक्र करें तो ये बातें कैसे अच्छी लग सकती है । हो सकता है आज ये सुनने में अच्छा लगे कि इस बरस किसान रिकार्ड उत्पादन कर सकता है। करीब 279 मिलियन टन । तो समझना ये भी होगा कि हर बरस 259 मिलियन टन अनाज पैदा होता है। लेकिन सरकार के पास 40 मिलियन टन अनाज से भी कम भंडारन की व्यवस्था है। इसीलिये 44 हजार करोड़ रुपये का अनाज हर बरस पर्बाद हो जाता है। एफसीआई ने माना बीते दस बरस में 2 लाख मिट्रिक टन अनाज बर्बाद हो गया। तो क्या पीएम, सीएम या नेताओं के वादों को मतलब सिर्फ सत्ता के लिये रैलियों में किसानो का राग जपना है। और सत्ता के लिये किसानो को भाषणो में जिस तरह प्यादा बनाया जाता है वह हिन्न्दुस्तान की सबसे बडी त्रासदी है क्योकि अभी भी देश में हर तीन घंटे में एक किसान खुदकुशी कर रहा है। लेकिन देश के सबसे बडे सूबे में चुनाव के वक्त देश के हालातों से हर कोई कितना बेफिक्र है और गरीब गरीब कहते हुये कैसे देश मुनाफा कमाने में ही जा सिमटा है ये भी समझ लें। कल्पना कीजिये देश में शिक्षा बेची जा चुकी है। इलाज पैसेवालो के लिये हो चुका है। घर बनान बेचना सबसे बड़ा धंधा है। क्योंकि सच तो यही है कि सरकार का बजट स्कूलों को लेकर 46,356 करोड़ है। और निजी स्कूलों का धंधा 6 लाख 70 हजार करोड़ का है। यानी देश को कितने सरकारी स्कूल चाहिये। या कहें शिक्षा में किताना जबरदस्त अंतर है। और उसके बाद भी बात गरीबों की होती है। इसी तर्ज पर इलाज देना तो सरकार का पहला काम होना चाहिये। लेकिन सच ये है कि हेल्थ पर सरकार का बजट 48878 करोड रुपये का है । वहीं हेल्थ
इंड्सट्री करीब साढे छह लाख करोड़ पार कर चुकी है। यानी स्वास्थ्य दे पाने में सरकार कहां टिकती है या कहें आम जनता और निजी इलाज के बीच की दूरी कौन पाटेगा। ये कोई नहीं जानता । और जब प्रधानमंत्री मोदी हर किसी को घर देने का जिक्र कर चुके है। 2022 तक का टारगेट ले चुके हैं। तो ये भी समझ लें घर के लिये सरकार का सालाना बजट 23 हजार करोड़ का है। वहीं मकान बनाने का धंधा 6 लाख 30 हजार करोड का हो चला है। और कमोवेश देश की हालत यही है कि हर न्यूनतम जरुरत को ही मुनाफे के धंधे में बदलकर कमाई का रास्ता बनाया जा चुका है। फिर भी गरीबों की बात तो ठीक है ये चुनाव है।
छत्तीसगढ़ की सरकार दो रुपये चावल देने पर टिकी है। उडीसा की सरकार मुफ्त राशन देने पर टिकी है पंजाब, राजस्थान, मद्यप्रदेश, बंगाल की सरकारें दो जून के मुफ्त जुगाड़ कराने पर टिकी है। यानी जो राजनीतिक सत्ता भूख मिटाने की लड़ाई लड़ रही है । जिस देश में वोट का मतलब गरीबी मुफलिसी के दर्द को उभार कर पेट भरने का सुकून दिलाने भर का सपना बीते 50 बरस से हर चुनाव में दिखाया जा रहा हो। वहां अंतरिक्ष की दौड को अगर पीएम अपनी सफलता मान लें और आगरा लखनऊ सड़क पर लडाकू विमान उतार कर सीएम खुश हो जाये तो इसका मतलब निकलेगा क्या । और ये संयोग हो सकता है कि 1963 में साइकिल पर रॉकेट लाया गया तब नेहरु ने देश को साइकिल युग से बाहर निकालने का खवाब देश को दिखाया था और 2017 में साइकिल की लडाई देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस भी यूपी में लड़ रही है। और जिक्र किसान का ही हो रहा है। यानी चाहे अनचाहे जिक्र बैलगाडी पर सवार देश का ही हो रहा है। तो आईये जरा ये भी देख लें कि सैटेलाइट की उडान से इतर भारतीय समाज अभी भी बैलगाड़ी पर सवार क्यों है। क्योंकि सच तो यही है कि बैलगाडी आज भी किसानी की जरुरत है। देश में एक करोड़ चालीस लाख बैलगाडी आज भी खेतों में चलती है। बाजार से खेत तक किसान सामान बैलगाडी से ही लाता है। और लकडी की इस बैलगाडी की कीमत है 10 से 14 हजार रुपये। लकड़ी के पहिये तो 10 हजार और टायर के पहिये तो 12 से 14 हजार। और देश के किसानों का हालात इतनी जर्जर है कि ट्रैक्टर खरीदने की स्थिति में भी देश के 88 फिसदी किसान नहीं है। प्रतिदिन 600 रुपये ट्रैक्टर किराये पर मिलते हैं, जिसे लेने की स्थिति में भी किसान नहीं होता। तो क्या वाकई देश बैलगाड़ी युग से आगे निकल नहीं पा रहा है और 1981 में जब इसरो के वैज्ञानिक बैलगाड़ी पर सैटेलाइट लाद कर पहुंचे थे तो दुनियाभर में
चाहे ये तस्वीर भारत की आर्थिक जर्जरता को बता रही थी। लेकिन अब वैज्ञानिकों की सफलता के आईने में क्या पीएम सीएम को भी सफल माना जा सकता है। क्योंकि बैलगाड़ी पर सवार हिन्दुस्तान का सच यही है कि 21 करोड किसान-मजदूर की औसत आय प्रतिदिन की 40 रुपये है। 12 करोड मनरेगा के मजदूरों को 5 लाख तालाब खोदने हैं। पढ़े लिखे रजिस्टर्ड बेरोजगार 18 करोड़ पार कर चुके हैं। लेकिन मुश्किल तो सत्ता पाने के लिये रैलियों का सपना या सत्ता का आंख मूंद कर सपनो में जीना।
क्योंकि जिस फसल बीमा योजना को प्रधानमंत्री मोदी सबसे सफल और एतिहासिक बताते हैं, उसी फसल योजना को हरियाणा के डेढ़ लाख से ज्यादा किसानों ने नहीं कराया। और हरियाणा में बीजेपी की ही सरकार है। वहीं के किसान फसल बीमा नहीं करा रहे तो क्या किसानों के हितों की बातें सिर्फ रैलियों तक सीमित है। क्योंकि बीजेपी के ही दो और राज्य है छत्तीसगढ़ और मद्यप्रदेश। एक तरफ छत्तीसगढ़ के दुर्ग और दूसरी मध्यप्रदेश के श्योपुर में किसानों की उपज खरीदने वाला कोई नहीं है। तो तमाम सब्जियां सड़क पर ही फैंक दी गई। दोनों ही राज्य सरकारें खुद को किसानों की हितैषी कहने से नहीं हिचकतीं लेकिन ऐसा कोई इंतजाम नहीं कर पाई कि किसानों को फसल के पर्याप्त दाम मिल पाएं। मजबूरन किसान अपनी सब्जियां मंडी ले जाने के बजाय सड़क पर फेक रहा है। तो जिस देश में किसान को उपज की कीमत ना मिल पाती हो। जिस देश में अनाज भंडारन की व्यवस्था तक ना हो। जिस देश कर्ज तले किसान खुदकुशी कर लेते हो । उस देश में पीएम या सीएम किसानो को लेकर सपनो का जिक्र करें तो ये बातें कैसे अच्छी लग सकती है । हो सकता है आज ये सुनने में अच्छा लगे कि इस बरस किसान रिकार्ड उत्पादन कर सकता है। करीब 279 मिलियन टन । तो समझना ये भी होगा कि हर बरस 259 मिलियन टन अनाज पैदा होता है। लेकिन सरकार के पास 40 मिलियन टन अनाज से भी कम भंडारन की व्यवस्था है। इसीलिये 44 हजार करोड़ रुपये का अनाज हर बरस पर्बाद हो जाता है। एफसीआई ने माना बीते दस बरस में 2 लाख मिट्रिक टन अनाज बर्बाद हो गया। तो क्या पीएम, सीएम या नेताओं के वादों को मतलब सिर्फ सत्ता के लिये रैलियों में किसानो का राग जपना है। और सत्ता के लिये किसानो को भाषणो में जिस तरह प्यादा बनाया जाता है वह हिन्न्दुस्तान की सबसे बडी त्रासदी है क्योकि अभी भी देश में हर तीन घंटे में एक किसान खुदकुशी कर रहा है। लेकिन देश के सबसे बडे सूबे में चुनाव के वक्त देश के हालातों से हर कोई कितना बेफिक्र है और गरीब गरीब कहते हुये कैसे देश मुनाफा कमाने में ही जा सिमटा है ये भी समझ लें। कल्पना कीजिये देश में शिक्षा बेची जा चुकी है। इलाज पैसेवालो के लिये हो चुका है। घर बनान बेचना सबसे बड़ा धंधा है। क्योंकि सच तो यही है कि सरकार का बजट स्कूलों को लेकर 46,356 करोड़ है। और निजी स्कूलों का धंधा 6 लाख 70 हजार करोड़ का है। यानी देश को कितने सरकारी स्कूल चाहिये। या कहें शिक्षा में किताना जबरदस्त अंतर है। और उसके बाद भी बात गरीबों की होती है। इसी तर्ज पर इलाज देना तो सरकार का पहला काम होना चाहिये। लेकिन सच ये है कि हेल्थ पर सरकार का बजट 48878 करोड रुपये का है । वहीं हेल्थ
इंड्सट्री करीब साढे छह लाख करोड़ पार कर चुकी है। यानी स्वास्थ्य दे पाने में सरकार कहां टिकती है या कहें आम जनता और निजी इलाज के बीच की दूरी कौन पाटेगा। ये कोई नहीं जानता । और जब प्रधानमंत्री मोदी हर किसी को घर देने का जिक्र कर चुके है। 2022 तक का टारगेट ले चुके हैं। तो ये भी समझ लें घर के लिये सरकार का सालाना बजट 23 हजार करोड़ का है। वहीं मकान बनाने का धंधा 6 लाख 30 हजार करोड का हो चला है। और कमोवेश देश की हालत यही है कि हर न्यूनतम जरुरत को ही मुनाफे के धंधे में बदलकर कमाई का रास्ता बनाया जा चुका है। फिर भी गरीबों की बात तो ठीक है ये चुनाव है।
Thursday, February 9, 2017
"रेनकोट" तो हर किसी ने पहन रखा है साहेब !
रेनकोट तो हर किसी ने पहना है। क्या नेहरु। क्या इंदिरा। क्या राजीव गांधी। और क्या पीवी नरसिंह राव या फिर क्या वाजपेयी या क्या मनमोहन सिंह। हा किसी का रेनकोट खासा लंबा और किसी का रेनकोट खासा छोटा हो सकता है। लेकिन रेनकोट तो रेनकोट है, जो बाथरुम में शॉवर के नीचे खड़े होने से भी किसी को भी भीगने नहीं देता। लेकिन किसी पीएम ने अपने से पहले पीएम को ऐसा नहीं कहा जैसा पीएम मोदी ने पूर्व पीएम मनमोहन सिंह को कहा। लेकिन सवाल ये भी है कि मोदी ने गलत क्या कहा। रेनकोट तले खड़े होकर क्या वाकई मनमोहन सिंह कह सकते हैं कि करप्शन की बारिश में वह भीगे नहीं। क्योंकि 10 बरस की सत्ता के दौर में मनमोहन का रेनकोट खासा लंबा है। मसलन आयल फार फुड, सत्यम घोटाला, आईपीएल, 2 जी, कामनवेल्थ, आदर्श, इसरो, कोयला, एनएचआरएम, अगस्ता वेस्टलैंड और फेहरिस्त तो खासी लंबी है। जाहिर है पीएम मोदी ने कुछ गलत तो नहीं कहा। लेकिन अगला सवाल यह भी हो सकता है कि फिर मनमोहन ने पीएम रहते हुये पूर्व पीएम अटलबिहारी वाजपेयी को रेनकोट क्यो नहीं पहनाया। वाजपेयी का रेनकोट भी खासा लंबा था। बराक मिसाइल घोटाला हो या तेलगी स्कैम, तहलका आपरेशन हो या स्टाक मार्केट स्कैम। यूटीआई स्कैम हो या ताबूत घोटाला। पेट्रोल पंप बांटने का खेल हो या नेताओं के पैसे लेते हुये कैमरे पर धराना। और वाजपेयी ने पीएम रहते हुये अपने पूर्व पीएम नवरिंह राव को रेनकोट क्यों नहीं पहनाया। जबकि पीवी की तो सत्ता ही झारखंड मु्क्ति मोर्चो के रेनकोट को पहनकर हुई थी। और उस दौर में तो रेनकोट की लंबाई जमीन को छूने लगी थी। क्योंकि हर्षद मेहता स्कैम हो या इंडियन बैक स्कैम, शुगर इंपोर्ट घोटाला हो या लखूभाई या सुखराम घोटाला यूरिया घोटाला हो या हवाला घोटाला। तो पीएम रहते हुये वाजपेयी चाहते तो नरसिंह राव को रेनकोट पहना सकते थे। लेकिन वाजपेयी ने राव को रेनकोट नहीं पहनाया।
तो क्या रेनकोट भारत की संसदीय लोकतांत्रिक सत्ता का ऐसा अनूठा सच है जिसे हर किसी ने पहना। क्योंकि नेहरु के दौर में जीप स्कैंडल हो या साइकिल स्कैम। मुंदडा स्कैम हो या तेजा लोन स्कैम या प्रताप सिंह कैरो स्कैंडल। और इंदिरा के रेनकोट को कोई कैसे भूल सकता है। खासकर मारुति विवाद और अंतुले करप्शन। या फिर इंडियन आयल स्कैम। या चुरुहट लाटरी स्कैम। यू तो इंदिरा के करप्शन के खिलाफ ही जेपी ने देशभर में आंदोलन छेडा और तब संघ परिवार भी जेपी के साथ खड़ा हुआ। लेकिन रेनकोट तबभी किसी ने इंदिरा गांधी को नहीं पहनाया। और याद कीजिये तो राजीव गांधी के रेनकोट को बोफोर्स और सेंट किट्स तले कैसे वीपी सिंह ने घसीटा । यू तब सबमेरिन और एयर इंडिया घोटाला भी था। रेनकोट तो नहीं लेकिन घोटालों का जिक्र कर वीपी सत्ता में आये। लेकिन वह भी ना तो राजीव गांधी के रेनकोट को उतार पाये और ना ही खुद रेनकोट पहनने से बच पाये। 20 करोड के एयरबस घोटाले का रेनकोट वीपी ने भी पहना। लेकिन कहा किसी ने नहीं।
तो क्या रेनकोट का सिलसिला शुरु हुआ है और अब मान लिया जाये कि पीएम ही नही सीएम भी इसके दायरे में आयेंगे। क्योंकि रेनकोट तो हर सीएम ने भी पहना है। चाहे वह बीजेपी का हो या कांग्रेस का। अकाली का हो या समाजवादी पार्टी का। तो क्या परंपरा शुरु गई है कि रेनकोट अब हर किसी को पहना दिया जाये। क्योंकि रेनकोट तो कमोवेश हर सीएम ने पहना है। लेकिन कहे कौन । क्या खुद प्रधानमंत्री बीजेपी के सीएम वसुंधरा राजे शिवराज सिंह चौहान, और रमनसिंह को कह पायेंगे कि आपने भी तो रेनकोट पहन रखा है। और कांग्रेस के सीएम रावत, सिद्दरमैया और वीरभद्र को कब कहेंगे कि रेनकोट आपने भी पहना है। और क्या यूपी की चुनावी सभा में अब अखिलेश यादव को रेनकोट पहनाया जायेगा। और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल को रेनकोट पहनाने में पीएम ने चूक क्यों कर दी।
ये सवाल इसलिये क्योंकि बीजेपी के तीन सीएम, राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे, मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह। जरा इनके रेनकोट का माप देखिये। वसुंधरा बेदाग है लेकिन ललित मोदी स्कैंडल, 45 हजार करोड का खादान आवंटन, अरावली की पहाडियो में अवैध खनन, हाउसिंग बोर्ड का घपला और गहलोत के दौर से चला आ रहा एसपीएमएल इन्फ्रा लि को लाभ देने का सिलसिला थमा कहा है। कांग्रेस लगातार आरोप लगा रही है। इसी तर्ज पर मध्यप्रदेश के सीएम भी तो बेदाग है । जबकि उनके दौर में व्यापम घोटाले ने हर परीक्षा और रोजगार को कठघरे में खडा कर दिया। और उनके दौर में मामले तो उठते रहे चाहे वह गेंहू डंप करने का स्कैम, स्कॉलरशिप स्कैम हो या डंपर केस या फिर आईएएस अरविंद जोशी और टिनू जोशी की संपत्ति का मामला। इसी तर्ज पर रमन सिंह भी बेदाग हैं। चाहे सीएजी ने वीवीआईपी चापर अगस्तावेस्टलैंड को लेकर सवाल खड़े किये हों। या 36 हजार करोड का पीडीएस स्कैम हो या फिर नमक या सैनिटेशन स्कैम हो या राशन कार्ड का घपला। हर आरोप के कटघरे में कांग्रेस ने यहां सीएम को ही खड़ा किया। ठीक वैसे ही जैसे मनमोहन को हर घोटाले पर बीजेपी ने कटघरे में खडा किया । तो क्या पीएम मोदी बीजेपी के सीएम को रेनकोट पहना पायेंगे। या फिर अब सियासत रेनकोट तले कुछ इस तरह आयेगी कि चुनाव प्रचार में उत्तराखंड के सीएम हरीश रावत हो या यूपी के सीएम अखलेश यादव । दोनो को रेनकोट पहनाने की होड़ मचेगी। क्योंकि रावत बेदाग है। मगर उनके दौर में बाढ राहत में घपला हो गया। शराब घोटाला हो गया । जमीन घोटाला हो गया स्टिंग कराने में घपला हो गया पावर कॉरपोरेशन में घपला हो गया । यानी आरोपों
की फेरहिस्त से कैसे रावत बचेंगे। और अखिलेश खुद को बेदाग बताते हैं लेकिन रेनकोट के आरोप तो अखिलेश पर भी है। मसलन कुंभ मेले में घपला । जमीन कब्जा और बालू खनन । फिर अपने ही मंत्री को करप्ट बताकर अखिलेश ने ही बाहर का रास्ता दिखाया। लेकिन रेनकोट से वह कैसे बच सकते है । और रेनकोट की फेरहिस्त में तो कमोवेश हर राज्य के सीएम का चेहरा भी फिर दिखायी देना चाहिये । क्योंकि चारा में फंसे लालू को छोड़ दें तो कोई सीएम नहीं बचेगा। क्योंकि बीते 5 बरस में ही राज्यों के घोटाले घपले की रकम 90 लाख करोड़ से ज्यादा की है। यानी सियासी हमाम कह कर खामोश हुआ जाये। या रेनकोट तले हर किसी को खडा मानकर समूची संसदीय राजनीति को ही दागदार करार दे दिया जाये ।
तो क्या रेनकोट भारत की संसदीय लोकतांत्रिक सत्ता का ऐसा अनूठा सच है जिसे हर किसी ने पहना। क्योंकि नेहरु के दौर में जीप स्कैंडल हो या साइकिल स्कैम। मुंदडा स्कैम हो या तेजा लोन स्कैम या प्रताप सिंह कैरो स्कैंडल। और इंदिरा के रेनकोट को कोई कैसे भूल सकता है। खासकर मारुति विवाद और अंतुले करप्शन। या फिर इंडियन आयल स्कैम। या चुरुहट लाटरी स्कैम। यू तो इंदिरा के करप्शन के खिलाफ ही जेपी ने देशभर में आंदोलन छेडा और तब संघ परिवार भी जेपी के साथ खड़ा हुआ। लेकिन रेनकोट तबभी किसी ने इंदिरा गांधी को नहीं पहनाया। और याद कीजिये तो राजीव गांधी के रेनकोट को बोफोर्स और सेंट किट्स तले कैसे वीपी सिंह ने घसीटा । यू तब सबमेरिन और एयर इंडिया घोटाला भी था। रेनकोट तो नहीं लेकिन घोटालों का जिक्र कर वीपी सत्ता में आये। लेकिन वह भी ना तो राजीव गांधी के रेनकोट को उतार पाये और ना ही खुद रेनकोट पहनने से बच पाये। 20 करोड के एयरबस घोटाले का रेनकोट वीपी ने भी पहना। लेकिन कहा किसी ने नहीं।
तो क्या रेनकोट का सिलसिला शुरु हुआ है और अब मान लिया जाये कि पीएम ही नही सीएम भी इसके दायरे में आयेंगे। क्योंकि रेनकोट तो हर सीएम ने भी पहना है। चाहे वह बीजेपी का हो या कांग्रेस का। अकाली का हो या समाजवादी पार्टी का। तो क्या परंपरा शुरु गई है कि रेनकोट अब हर किसी को पहना दिया जाये। क्योंकि रेनकोट तो कमोवेश हर सीएम ने पहना है। लेकिन कहे कौन । क्या खुद प्रधानमंत्री बीजेपी के सीएम वसुंधरा राजे शिवराज सिंह चौहान, और रमनसिंह को कह पायेंगे कि आपने भी तो रेनकोट पहन रखा है। और कांग्रेस के सीएम रावत, सिद्दरमैया और वीरभद्र को कब कहेंगे कि रेनकोट आपने भी पहना है। और क्या यूपी की चुनावी सभा में अब अखिलेश यादव को रेनकोट पहनाया जायेगा। और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल को रेनकोट पहनाने में पीएम ने चूक क्यों कर दी।
ये सवाल इसलिये क्योंकि बीजेपी के तीन सीएम, राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे, मध्यप्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह। जरा इनके रेनकोट का माप देखिये। वसुंधरा बेदाग है लेकिन ललित मोदी स्कैंडल, 45 हजार करोड का खादान आवंटन, अरावली की पहाडियो में अवैध खनन, हाउसिंग बोर्ड का घपला और गहलोत के दौर से चला आ रहा एसपीएमएल इन्फ्रा लि को लाभ देने का सिलसिला थमा कहा है। कांग्रेस लगातार आरोप लगा रही है। इसी तर्ज पर मध्यप्रदेश के सीएम भी तो बेदाग है । जबकि उनके दौर में व्यापम घोटाले ने हर परीक्षा और रोजगार को कठघरे में खडा कर दिया। और उनके दौर में मामले तो उठते रहे चाहे वह गेंहू डंप करने का स्कैम, स्कॉलरशिप स्कैम हो या डंपर केस या फिर आईएएस अरविंद जोशी और टिनू जोशी की संपत्ति का मामला। इसी तर्ज पर रमन सिंह भी बेदाग हैं। चाहे सीएजी ने वीवीआईपी चापर अगस्तावेस्टलैंड को लेकर सवाल खड़े किये हों। या 36 हजार करोड का पीडीएस स्कैम हो या फिर नमक या सैनिटेशन स्कैम हो या राशन कार्ड का घपला। हर आरोप के कटघरे में कांग्रेस ने यहां सीएम को ही खड़ा किया। ठीक वैसे ही जैसे मनमोहन को हर घोटाले पर बीजेपी ने कटघरे में खडा किया । तो क्या पीएम मोदी बीजेपी के सीएम को रेनकोट पहना पायेंगे। या फिर अब सियासत रेनकोट तले कुछ इस तरह आयेगी कि चुनाव प्रचार में उत्तराखंड के सीएम हरीश रावत हो या यूपी के सीएम अखलेश यादव । दोनो को रेनकोट पहनाने की होड़ मचेगी। क्योंकि रावत बेदाग है। मगर उनके दौर में बाढ राहत में घपला हो गया। शराब घोटाला हो गया । जमीन घोटाला हो गया स्टिंग कराने में घपला हो गया पावर कॉरपोरेशन में घपला हो गया । यानी आरोपों
की फेरहिस्त से कैसे रावत बचेंगे। और अखिलेश खुद को बेदाग बताते हैं लेकिन रेनकोट के आरोप तो अखिलेश पर भी है। मसलन कुंभ मेले में घपला । जमीन कब्जा और बालू खनन । फिर अपने ही मंत्री को करप्ट बताकर अखिलेश ने ही बाहर का रास्ता दिखाया। लेकिन रेनकोट से वह कैसे बच सकते है । और रेनकोट की फेरहिस्त में तो कमोवेश हर राज्य के सीएम का चेहरा भी फिर दिखायी देना चाहिये । क्योंकि चारा में फंसे लालू को छोड़ दें तो कोई सीएम नहीं बचेगा। क्योंकि बीते 5 बरस में ही राज्यों के घोटाले घपले की रकम 90 लाख करोड़ से ज्यादा की है। यानी सियासी हमाम कह कर खामोश हुआ जाये। या रेनकोट तले हर किसी को खडा मानकर समूची संसदीय राजनीति को ही दागदार करार दे दिया जाये ।
Wednesday, February 8, 2017
यूपी में लोकतंत्र का राग कही मुस्लिमों के घाव पर नमक तो नहीं?
देश के सबसे बड़े सियासी सूबे के मुसलमानों का चुनावी दांव ही सियासी तिकडमों तले कैसे दांव पर लग चुकी है, ये कोई आज का सच नहीं है बल्कि आजादी के तुरंत बाद से ही ये तस्वीर बनाये रखी गईं। और मुस्लिमों की इस तस्वीर को बनाये रखने की जद्दोजहद में सियासत करने वाली पीढ़ियां खप गईं। देश के पहले चुनाव में मौलाना अब्दुल कलाम को भी मुस्लिमों का नुमाइन्दा बनाकर नेहरु ने मुस्लिम आबादी वाले रामपुर से ही चुनाव लड़वाया। और 65 बरस बाद आज भी समाजवादियों के लिये रामपुर की पहचान आजम खान से जा जुड़ी है। और यूपी में रेंगती सियासत का ही सच है कि जहां मुस्लिम आबादी सत्ता में पहुंचा दें वहां मुलायम ने मौलाना बनकर मुसल्लमानो को ही दांव पर लगाया। और इस बार मायावती की जीत हार भी बीएसपी के 97 मुस्लिम उम्मीदवारों पर ही जा टिकी है। यानी यूपी की सोशल इंजीनियरिंग में मंडल-कमंडल की प्रयोगशाला में भी मुस्लिम निशाने पर आकर भी हाशिये पर रहा और सांप्रदायिक हिंसा के खौफ तले सियासत ने मुज्जफरनगर दंगों से लेकर कैराना तक के केन्द्र में मुस्लिमों को ही रखा।
ऐसे में यूपी के मुसलमानों के सच को जानने के लिये देवबंद की गलियों में चले। आजमगढ़ की जमीन पर खड़े होकर सियासी बिगुल फूंके या फिर मुज्जफरनगर-शामली के रिलिफ कैंपों में रहने वाली रेप की शिकार महिलाओं के जख्म पर ये कहकर नमक छिड़के कि लड़ते लड़ते थक गई लेकिन न्याय ने कभी दस्तक नहीं दी। या फिर मु्स्लिमों की बिसात पर सत्ता की इमारत खड़ा करने के उस मिजाज को समझे, जिसके लिये मुस्लिम ना तो वोट बैंक हैं। ना ही मुस्लिम वोट की जरुरत है। और अयोध्या कांड का एक सच ये भी रहा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने आडवाणी के रथयात्रा को नकारा भी और बाबरी ढांचे के विध्वस से एक रात पहले लखनऊ में जमीन समतल करने वाला भाषण भी दिया। और नये अंदाज में हैदराबाद के निजाम की गलियां छोड़कर औवैसी भी जब यूपी की जमीन पर सियासत के दाव चल रहे है, तो उनके लिए तीन तलाक का अंदाज भी नायाब है। जहां वह सपा, बसपा और बीजेपी से तीन तलाक लेने वाले भाषण देने से नहीं हिचकते। तो दर्द या त्रासदी हिन्दू-मुसलमानों की नहीं उस सामाजिक-आर्थिक कटघरे की है जिसपर सियासत ही कुंडली मार कर बैठी है। इसीलिये सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के सच को वही सत्ता कारपेट तले दबाने से नहीं हिचकती जो कोर्ट तैयार कराती है। और यहीं से शुरु होता मुस्लिमों को लेकर ऐसा सच जिसके दायरे में यूपी वोटबैंक के तिराहे पर खड़ा नजर आता है । पहला, अखिलेश-राहुल मुस्लिमों को ही पुचकार रहे हैं। दूसरा, मायावती मुस्लिम-दलित के जोड़ को जीत का मंत्र बता रही है। तीसरा बीजेपी मुसलमानों के बंटने पर सत्ता के सपने संजो रही है। लेकिन सत्ता के लिये प्यादे बने मुस्लिम ही नहीं हिन्दुओं के सामने भी यह सवाल लोकतंत्र के नाम पर गुम कर दिया जाता है कि आखिर गंगा-जमुनी तहजीह का जिक्र करने वालों के ही दौर में ही यूपी में सबसे ज्यादा दंगे क्यो हुये। और क्या दलित। क्या मुस्लिम। क्या ओबीसी। और क्या ऊंची जाति। घायल हर कोई हुआ । और लाभ सियासत ने भरपूर उठाया। ऐसे में कोई ये कहे कि यूपी चुनाव तीन चेहरे अखिलेश, मायावती और मोदी पर जा टिका है तो फिर समझना होगा कि यूपी का सच ये तीन चेहरे नहीं बल्कि वोटबैंक में बांटे जा चुके यूपी के लोग हैं। जो गरीबी मुफलिसी में रहते हैं तो दलित कहलाते हैं। और उनकी तादाद 22 फीसदी है। जो सत्ताधारियो की किसी दंबग जाति से या फिर दलितों से जुड़ जाते हैं तो सत्ता की टोपी भी उछाल सकते हैं और सत्ता को टोपी पहना भी सकते हैं, वह मुसलमान करार दिये जा चुके हैं। जो 19 फीसदी हैं और जो दंबग है वह यादव हैं। उनकी तादाद है तो महज 8 फीसदी लेकिन सत्ता समीकरण में कही ओबीसी तो कही मुस्लिमो को साथ लेकर सोशल इंजिनियरिंग को ही सत्ता में बदलने की काबिलियत मुलायम ने दिखायी। और बिखरा हुआ ओबीसी 40 फीसदी तो बिखरी हुआ ऊंची जातियां 19 पिसदी होकर भी यूपी की बिसात पर प्यादा तो दूर हर चुनाव में रेगती नजर आई। और अक्सर कहा जाता है कि दंगों में ही पता चलता है कि आप कितने अकेले हैं और आपको क्यो समुदाय के साथ होकर वोट बैंक में बदल जाना चाहिये।
तो यूपी इसकी भी नायाब प्रयोगशाला है । क्योंकि चुनाव के मैदान में जा चुके यूपी का ये सच कितना डराने वाला है कि सांप्रदायिक हिसंसा में यूपी हर दूसरे दिन जलता नजर आया । 2013 से 2016 के दौर में यानी 1400 दिनो में जिस राज्य ने 700 घटनायें ऐसी देखी, जिसमें कही मुस्लिम तो कही हिन्दू। तो कहीं दलित तो कहीं ओबीसी और कही ऊंची जातियों के लोग । आहत हर कोई हुआ। क्योंकि 2013 में 247 घटनाये जिसमें 77 मौत हुई । तो 2014 में 133 घटनायें जिसमें 26 मौत । 2015 में 155 घटनाये जिसमें 22 मौत । और 2016 में 162 घटनाये जिसमें 29 मौत हो गई। और राज्यभर के दो हजार से लोग घायल हुये। यानी सवाल ये नही है कि कि हर जेहन में मुजफ्फरनगर दंगों और मथुरा कांड की याद इसलिये ताजा है क्योंकि ये राजनीतिक बिसात पर वोटों का खेल बना बिगाड़ सकता है। मुश्किल ये है कि यूपी के सामाजिक आर्थिक ताने बाने में ये सवाल दूर की गोटी हो चला है। इसीलिये सांप्रदायिक हिंसा का एक भी आरोपी दोषी साबित क्यों नहीं हुआ। दंगों के एक
भी आरोपी को सजा क्यो नहीं हुई कोई नहीं जानता। दंगों के पीडितों को कोई राहत क्यों नहीं मिली। और अब चुनाव में ही हर कोई राहत का जिक्र करने भी हिम्मत भी कैसे दिखा पा रहे हैं। क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा के दायरे में अगर यूपी के सच को ही परख लें तो 20 करोड़ की जनसंख्या वाले राज्या में करीब 6 करोड की आबादी सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित हुई। लेकिन सियासी बिसात पर अगर यूपी को बांटा जा चुका है तो फिर हर कोई कैसे अकेला है ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश के फगुना गांव में झांक कर देखा जा सकता है। पेशे से लुहार शकुर अहमद का गांव में इकलौता मुस्लिम परिवार है,जबकि दंगों से पहले गांव में 2500 मुस्लिम परिवार थे। लेकिन-दंगों के बाद कोई परिवार वास लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और सरकार उन्हें ये भरोसा नहीं दिला पाई कि अब कुछ नहीं होगा। जाहिर है ये दर्द हिन्दुओं का भी है । उनके भीतर भी आक्रोश है । जिन्होंने 2013 में मुज्जफरनगर दंगों में अपने घरों को जलते हुये देखा। यानी गुस्से में यूपी हो सकता है। लोगों के भीतर आक्रोश हो सकता है। लेकिन सियासत तो मुस्कुराती है। उसे पता है लखनऊ का रास्ता दिल्ली ले जायेगा। लेकिन यूपी के गांव गांव, शहर शहर आहत लोगों का पता है उनका. रास्ता उनके अपने चारदीवारी में ही कैद रखेगा।
ऐसे में यूपी के मुसलमानों के सच को जानने के लिये देवबंद की गलियों में चले। आजमगढ़ की जमीन पर खड़े होकर सियासी बिगुल फूंके या फिर मुज्जफरनगर-शामली के रिलिफ कैंपों में रहने वाली रेप की शिकार महिलाओं के जख्म पर ये कहकर नमक छिड़के कि लड़ते लड़ते थक गई लेकिन न्याय ने कभी दस्तक नहीं दी। या फिर मु्स्लिमों की बिसात पर सत्ता की इमारत खड़ा करने के उस मिजाज को समझे, जिसके लिये मुस्लिम ना तो वोट बैंक हैं। ना ही मुस्लिम वोट की जरुरत है। और अयोध्या कांड का एक सच ये भी रहा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने आडवाणी के रथयात्रा को नकारा भी और बाबरी ढांचे के विध्वस से एक रात पहले लखनऊ में जमीन समतल करने वाला भाषण भी दिया। और नये अंदाज में हैदराबाद के निजाम की गलियां छोड़कर औवैसी भी जब यूपी की जमीन पर सियासत के दाव चल रहे है, तो उनके लिए तीन तलाक का अंदाज भी नायाब है। जहां वह सपा, बसपा और बीजेपी से तीन तलाक लेने वाले भाषण देने से नहीं हिचकते। तो दर्द या त्रासदी हिन्दू-मुसलमानों की नहीं उस सामाजिक-आर्थिक कटघरे की है जिसपर सियासत ही कुंडली मार कर बैठी है। इसीलिये सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के सच को वही सत्ता कारपेट तले दबाने से नहीं हिचकती जो कोर्ट तैयार कराती है। और यहीं से शुरु होता मुस्लिमों को लेकर ऐसा सच जिसके दायरे में यूपी वोटबैंक के तिराहे पर खड़ा नजर आता है । पहला, अखिलेश-राहुल मुस्लिमों को ही पुचकार रहे हैं। दूसरा, मायावती मुस्लिम-दलित के जोड़ को जीत का मंत्र बता रही है। तीसरा बीजेपी मुसलमानों के बंटने पर सत्ता के सपने संजो रही है। लेकिन सत्ता के लिये प्यादे बने मुस्लिम ही नहीं हिन्दुओं के सामने भी यह सवाल लोकतंत्र के नाम पर गुम कर दिया जाता है कि आखिर गंगा-जमुनी तहजीह का जिक्र करने वालों के ही दौर में ही यूपी में सबसे ज्यादा दंगे क्यो हुये। और क्या दलित। क्या मुस्लिम। क्या ओबीसी। और क्या ऊंची जाति। घायल हर कोई हुआ । और लाभ सियासत ने भरपूर उठाया। ऐसे में कोई ये कहे कि यूपी चुनाव तीन चेहरे अखिलेश, मायावती और मोदी पर जा टिका है तो फिर समझना होगा कि यूपी का सच ये तीन चेहरे नहीं बल्कि वोटबैंक में बांटे जा चुके यूपी के लोग हैं। जो गरीबी मुफलिसी में रहते हैं तो दलित कहलाते हैं। और उनकी तादाद 22 फीसदी है। जो सत्ताधारियो की किसी दंबग जाति से या फिर दलितों से जुड़ जाते हैं तो सत्ता की टोपी भी उछाल सकते हैं और सत्ता को टोपी पहना भी सकते हैं, वह मुसलमान करार दिये जा चुके हैं। जो 19 फीसदी हैं और जो दंबग है वह यादव हैं। उनकी तादाद है तो महज 8 फीसदी लेकिन सत्ता समीकरण में कही ओबीसी तो कही मुस्लिमो को साथ लेकर सोशल इंजिनियरिंग को ही सत्ता में बदलने की काबिलियत मुलायम ने दिखायी। और बिखरा हुआ ओबीसी 40 फीसदी तो बिखरी हुआ ऊंची जातियां 19 पिसदी होकर भी यूपी की बिसात पर प्यादा तो दूर हर चुनाव में रेगती नजर आई। और अक्सर कहा जाता है कि दंगों में ही पता चलता है कि आप कितने अकेले हैं और आपको क्यो समुदाय के साथ होकर वोट बैंक में बदल जाना चाहिये।
तो यूपी इसकी भी नायाब प्रयोगशाला है । क्योंकि चुनाव के मैदान में जा चुके यूपी का ये सच कितना डराने वाला है कि सांप्रदायिक हिसंसा में यूपी हर दूसरे दिन जलता नजर आया । 2013 से 2016 के दौर में यानी 1400 दिनो में जिस राज्य ने 700 घटनायें ऐसी देखी, जिसमें कही मुस्लिम तो कही हिन्दू। तो कहीं दलित तो कहीं ओबीसी और कही ऊंची जातियों के लोग । आहत हर कोई हुआ। क्योंकि 2013 में 247 घटनाये जिसमें 77 मौत हुई । तो 2014 में 133 घटनायें जिसमें 26 मौत । 2015 में 155 घटनाये जिसमें 22 मौत । और 2016 में 162 घटनाये जिसमें 29 मौत हो गई। और राज्यभर के दो हजार से लोग घायल हुये। यानी सवाल ये नही है कि कि हर जेहन में मुजफ्फरनगर दंगों और मथुरा कांड की याद इसलिये ताजा है क्योंकि ये राजनीतिक बिसात पर वोटों का खेल बना बिगाड़ सकता है। मुश्किल ये है कि यूपी के सामाजिक आर्थिक ताने बाने में ये सवाल दूर की गोटी हो चला है। इसीलिये सांप्रदायिक हिंसा का एक भी आरोपी दोषी साबित क्यों नहीं हुआ। दंगों के एक
भी आरोपी को सजा क्यो नहीं हुई कोई नहीं जानता। दंगों के पीडितों को कोई राहत क्यों नहीं मिली। और अब चुनाव में ही हर कोई राहत का जिक्र करने भी हिम्मत भी कैसे दिखा पा रहे हैं। क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा के दायरे में अगर यूपी के सच को ही परख लें तो 20 करोड़ की जनसंख्या वाले राज्या में करीब 6 करोड की आबादी सांप्रदायिक हिंसा से प्रभावित हुई। लेकिन सियासी बिसात पर अगर यूपी को बांटा जा चुका है तो फिर हर कोई कैसे अकेला है ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश के फगुना गांव में झांक कर देखा जा सकता है। पेशे से लुहार शकुर अहमद का गांव में इकलौता मुस्लिम परिवार है,जबकि दंगों से पहले गांव में 2500 मुस्लिम परिवार थे। लेकिन-दंगों के बाद कोई परिवार वास लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और सरकार उन्हें ये भरोसा नहीं दिला पाई कि अब कुछ नहीं होगा। जाहिर है ये दर्द हिन्दुओं का भी है । उनके भीतर भी आक्रोश है । जिन्होंने 2013 में मुज्जफरनगर दंगों में अपने घरों को जलते हुये देखा। यानी गुस्से में यूपी हो सकता है। लोगों के भीतर आक्रोश हो सकता है। लेकिन सियासत तो मुस्कुराती है। उसे पता है लखनऊ का रास्ता दिल्ली ले जायेगा। लेकिन यूपी के गांव गांव, शहर शहर आहत लोगों का पता है उनका. रास्ता उनके अपने चारदीवारी में ही कैद रखेगा।