तो नासा ने पहली बार घरती के आकार के ऐसे सात ग्रहों का पता लगाया है...जहां जिन्दगी ममुकिन है। क्योंकि सात ग्रहो में से तीन पर तीन पर पानी है । और धरती से 40 प्रकाश पर्व की दूरी पर ट्रैप्पिस्ट-1 नाम के तारे के इर्द गिर्द ही सातों ग्रह है । नये सात ग्रहों को तो कोई नाम अभी नहीं दिया गया है । लेकिन भारतीय राजनीति में सात ऐसे शब्द जरुर उभरे हैं जिनके आसरे राजनीतिक सत्ता साधी जा सकती है। सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी ,स्कैम , रेनकोट ,श्मशान या कब्रिस्तान , कसाब ,गधा । और ये शब्द ऐसे भेदते है कि विरोधियों की टोपी उछल जाती है । संसदीय मर्यादा खत्म हो जाती है । जातियों के समीकरण टूट जाते हैं। गरीब का दर्द किसानों की त्रासदी एक नये समाजवाद को परिभाषित कर देती है । विकास का ककहरा 70 बरस के गड्डो से गुस्सा भर देता है । तमाम सत्ता डगमगाने लगती है । और ये सत्ता चाहे मुंबई में शिवसेना की हो या उडीसा में कांग्रेस और बीजू जनता दल की हो । या फिर सियासी सफर पर निकले राहुल-अखिलेश की हो । या फिर पाक साफ दामन बताने वाले मनमोहन सिंह ही क्यो ना हो । हर सत्ता । हर शख्स को चुनौती देते नये नये शब्द भारतीय राजनीति में किसी ध्रुवतारे की तरह अब कुछ इस तरह चमकने लगे है कि पहली बार शिवसेना को समझ में आने लगा है कि आखिर उसे पीएम मोदी ने वसूली पार्टी क्यों कहा । असर यही पड़ा कि बीएमसी में 31 से 81 सीटो पर बीजेपी ने छलांग लगा दी । उ़डीसा के पिछडेपन में पंचायत की 36 से 309 सीट जितने की छलांग लगा दी । घोटालों की फेहरिस्त तले संसदीय मर्यादा बेमानी हुई , कांग्रेस मुक्त भारत के सपने जागने लगे । समाजवादियों की साइकिल से पंचर यूपी के घाव को मलहम गधा शब्द के व्यंग्य बाण से नही लगा। उल्टे गधे की महिमा तले पहली बार रईसी की राजनीति पर गधे की मेहनत भारी पडती दिखी।
यानी ऐसे ऐसे शब्द निकले है कि नासा के सात ग्रह की खोज भी कमजोर लग रही है । ये भी मायने नही रख रहा कि तीन ग्रह पर पानी है तो वहा भी जीवन होगा । वहां भी बसा जा सकता है । मायने तो सियासत के वे शब्द है जिसने महाराष्ट्र की पारंपरिक राजनीति को ही पलट दिया है । पहली बार मराठा-दलित राजनीति हाशिये पर है । मराठी मानुष की राजनीति तले शिवसेना का बडे भाई होने का गुमान टूटा है । ब्राह्ममण और विदर्भ की पताका मुबंई और पश्चिमी महाराष्ट्र में लहरा रही है । तो क्या भारत की राजनीति करवट ले रही है । या फिर पारंपरिक राजनीतिक की लकीर के सामानांतर मोदी ने कहीं बड़ी लकीर खींच दी है । जिसमे आवाज उन गूंगों को मिली है जो अभी तक वोट की ताकत तो थे लेकिन राजनीतिक बिसात पर उनके शब्द कोई मायने नहीं रखते थे। और पहली बार जब अपने नये शभ्दो से प्रदानमंत्री मोदी ने उन्ही ही उन्ही के शब्दो से जागृत किया है तो फिर ये तय है राजनीति की ये लकीर 2019 तक किसी नये महाभारत की भूमिका भी लिख रही है । तो इंतजार कीजिये जब नासा के नये सात ग्रहों पर जीवन पहुंचे और इंतजार कीजिये यूपी के जनादेश तले 2019 का जब सड़क की राजनीति से सियासत का नया ककहरा कहा जायेगा । क्योंकि कांग्रेस को समझ में आने लगा है कि घोटालों की फेहरिस्त के सामने संसदीय मर्यादा बेमानी है । समाजवादी साइकिल ने यूपी को जितना पंचर किया उसके सामने गधा शब्द भी बेमानी है ।
उ़डीसा के पिछडेपन में पंचायत की 36 से 309 सीट जितने की छंलाग लगा दी । और दूसरी तरफ पहली बार भारतीय राजनीति में सात ऐसे शब्द निकले है जिनके आसरे सत्ता साधी जा सकती । क्योकि पीएम जब कहते है कि - मैं सेवक हूं 125 करोड़ लोग मालिक हैं--सुबह से रात तक काम करता हूं । तो किसी को भी लग सकता है कि काश सत्ता की कुर्सी पर बैठा हर शख्स ऐसा सोचता । और कहते सोचते हुये वाकई कुछ इसी अंदाज में काम भी करता । तो काम करता तो लहलहाते खेत होते । हर हाथ को काम होता । 19 करोड से ज्यादा की पीठ और पेट एक नहीं हुये होते । बच्चो के हाथ किताब होती । बिमार के लिये अस्पताल होता । तो शायद कोई गधे पर व्यग्य ना करता । खुद को काम के बोझ से मारा हुआ भी नहीं कहता । तो गधे की सत्ता तो उसके काम से ज्यादा चुनावी जीत पर टिकी है । क्योंकि महाराष्ट्र में सत्ता संभाले बीजेपी शिवसेना अगर मैदान में एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक दे । तो फिर कौन सेवक और कौन काम के बोझ का मारा कौन । यानी विपक्ष भी हम । सत्ता भी हम और जिन्दगी के बोझ से दबी जनता का दर्द काफूर । क्योंकि 10 नगर पालिका चुनाव
में बीजेपी जीती तो 205 सीटों से छलांग लगाकर 470 सीट पर पहुंच गई । -शिवसेना हारी तो 227 से 215 पर आ गई । यानी विपक्ष की कांग्रेस और एनसीपी का जिक्र ही गायब । क्योंकि ये आवाज चुनावी शोर में थम गई कि महाराष्ट्र में 2 करोड 71 लाख लोग बीपीएल है । जिनमें -शहरो में करीब 1 करोड बीपीएल है । यानी गरीबी, मुफ्लिसी , बेरोजगारी, किसान खुदकुशी हाशिये पर तो निगाहो में महारा,्ट्र का किंग राज्य के मुखिया देवेन्द्र फडनवीस ही । यानी महाराष्ट के जनादेश ने तो बता दिया कि शिवसेना सेवक नहीं ।त काग्रेस काम के बोझ से भागती है । पवार आखरी दिये की तरह टिमटिमा रहे है । और बीजेपी सेवक भी है । सियासी बोझ भी काबिलियत से ढो रही है । यानी जीत हुई तो राज्य के गड्डे भर गये । हर त्रासदी छुप गई । तो क्या इसी तर्ज पर यूपी में बीजेपी जीत गई तो फिर अखिलेश पर गधा व्यग्य बारी माना जायेगा । और अखिलेश जीत गये तो काम के बोझ से लदे पीएम पर उनका बोझ भारी माना जायेगा । क्योकि यूपी का सच तो गधे की खोज तले दब चुका है । कौन जानता है कि दुनिया के 50 से ज्यादा देशो की जितनी जनसंख्या नहीं है उससे ज्यादा गरीबी की रेका से नीचे यूपी के लोग है जिनकी जिन्दगी दो जून की रोटी के बोझ तले ही दबी हुई है । -यूपी में 7 करोड 38 लाख लोग बीपीएल है । और जिस गरीब गांववालो की जिन्दगी में सत्ता मिलते ही सबकुछ माफ कर राहत देने के दावे सत्ता का हर सेवक कर रही है उसका सच ये है कि 6 करोड 10 लाख गाववालो की जिन्दगी प्रतिदिन 30 रुपये से कम पर चल रही है ।
तो क्या कहे कि गधे की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वो मेहनतकश है, और एक बार रास्ता बताने पर
बिना हांके वहीं लौट आता है। और सत्ता तो रास्ता बदलती रहती है । हां जनता का रास्ता वही का वही रह जाता है क्योकि सच तो यही है कि देश की जनता मेहनतकश है, और एक बार समझाए जाने पर कि चुनाव से ही हर हल निकलेगा तो वो बिना बताए वोट डालकर अपनी किस्मत बदलने का इंतजार करती है। तो क्या नोटबंदी के फैसले ने देश की जिस इक्नामी को झटका दे दिया और विकास दर से लेकर एनपीए और रोजगार से लेकर क्रेडिट ग्रोथ पर संकट आ गया । इकऩॉमी के ये मुश्किल हालातो का कोई असर उस वोटर पर नहीं पडा जो देश में सत्ता बदलने बनाने की ताकत रखता है । क्योकि महाराष्ट्र और उडीसा में बीजेपी की जीत ने उस इक्नामी के संकट को ही खारिज कर दिया जिसे नोटबंदी के बाद बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा था । तो सवाल तीन है । पहला मार्केट इक्नामी सिर्फ मुनाफा बनाने वाले धंधे के लिये है । दूसरा, ग्रामिण या हाशिये पर खडे भारत के लोगो पर अच्छी या बिगडी इक्नामी का कोई असर होता ही नहीं । तीसरा , देश की अर्थव्यवस्था में कोई भोगेदारी गरीब, मजदूर, किसान, आदिवासी की है ही नहीं । यानी एक तरफ पश्चिमी इक्नामी की परिभाषा तले परखे तो कह सकते है देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर ठिठक गई है। स्टेट बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 की तीसरी तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह फीसदी से कम रहेगी । आईएमएफ की भी ताजा रिपोर्ट यही कहती है कि नोटबंदी से पैदा हुई अस्थायी परेशानियों के चलते विकास दर 6.6 फीसदी रहेगी । लेकिन आंकड़ों की इस इक्नामी से हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक जनता को क्या लेना देना है । क्योंकि एक तरफ देश के 40 करोड़ों लोगों की पहली जरुरत सिर्फ दो जून की रोटी है। सुविधाएं नहीं। और यही वजह है कि फ्री दाल-चावल-गेंहू के चुनावी वादे को सच मान देश का बड़ा तबका वोट करता है।
लेकिन गरीबी से इतर रईसी का सच क्या है-ये भी देख लीजिए। देश में इस वक्त 2 लाख 64 हजार करोड़पति हैं,। महज दो साल में 66 हजार करोड़पति बढ़ गए। और न्यू वर्ल्ड वेल्थ रिपोर्ट के मुताबिक करोड़पति वो है,जिनके पास कम से कम 6.7 करोड़ रुपए की संपत्ति है । भारत में इस वक्त करीब 95 अरबपति हैं, यानी वो जिनके पास 6700 करोड़ रुपए से ज्यादा संपत्ति है । यानी नोटबंदी का सवाल हो या इक्नामी के पटरी से उतरने की आंशाका । ये चुनावी बिसात पर इसलिये बेमानी हो जाते है कियोकि वोट की ताकत संबाले देश का बहुशंख्य तबका हाशिये पर है । और पीएम मोदी इसी मर्म को बार बार छुते है । तो क्या 1991 के बाद के आर्थिक सुधार की उम्र अब भारत में पूरी हो चली है । और चुनावी जीत का सिलसिला आने वाले वक्त में देश की अर्थव्यवस्था को भी नये तरीके से परिभाषित करेगा । यानी अर्थवस्था का स्वदेशीकरण होगा । हर हाथ को काम पर जोर होगा । मेक इन इंडिया के लिये रास्ता निकलेगा । ये सवाल इसलिये क्योकि क्योकि इक्नामी के जो मापक है वो खतरे की घंटी बजा रहा है । मसलन बैकिंग सिस्ट्म चरमरा रहा है । -निजी कंपनियों में वेतन इन्क्रीमेंट 8 बरस में सबसे कम 9.5 पिसदी होने का अंदेशा है । 60 बरस में क्रेडिट ग्रोथ सबसे कम हो गई है । इनक्लूसिव ग्रोथ इंडेक्स में भारत का नंबर 60वां है,जो चीन, नेपाल से भी ज्यादा है । लेकिन फिर वही सवाल जिस हिन्दुस्तान के वोटरो का आसरे सत्ता मिलता ही या सत्ता खिसकती है उसकी जिन्दगी तो बीते 70 बरस में बद से बदतर ही हुई है । तो फिर प्ऱदानमंत्री मोदी चुनावी जीत और बिगडी इक्नामी के उस टाइम बम पर बैठे है । जहा वैकल्पिक इक्नामी की सोच अगर नहीं आई तो चुनावी जीत देश के सामाजिक-आर्तिक हालातो के लिये त्रासदी साबित होगी । और अगर वाकई गरीब,मजदूर किसानों को ध्यान में रखकर कोई विक्लप की अर्थव्यवस्था ले आये तो चुनावी जीत से आगे चकमक हिन्दुस्तान होगा । इंतजार किजिये अभी देश की सियासत के कई रंग देखने हैं।
समीकरण कुछ यूं है...
ReplyDeleteगधा- पीएम
गरीब - जनता
सत्ता - मीडिया+विपक्ष+विदेशी माल के भूखे एनजीओ+तथाकथित अझादी के जियाले
चुनाव - वो हथियार जिससे "गधा" परंपरागत रूप से "सत्ता" रहे लोगों को एकस्पोज़ कर रहा है।
आपके समीकरण में सत्ता में बैठे (मीडिया+विपक्ष+विदेशी माल के भूखे एनजीओ+तथाकथित अझादी के जियाले) लोगों को व्यक्ति विशेष से जिस हद तक घृणा है आम जनता उतना ही अधिक उससे प्रेम करती है। वो भी उस सत्ता के पुराने समीकरणों से ऊपर उठकर। गर्दन के ऊपर का हिस्सा जिसे सिर कहते हैं उसे जमीन से बाहर निकालिए तो सबस साफ दिखेगा...
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