52 करोड़ युवा वोटर। 18 से 35 बरस का युवा । 18 बरस यानी जो बारहवीं पास कर चुका होगा। और जिसके सपने खुले आसमान में बेफिक्र उड़ान भर रहे होंगे । 25 बरस का युवा जिसकी आंखों में देश को नये तरीके से गढने के सपने होंगे । 30 बरस का युवा जो एक बेहतरीन देश चाहता होगा। और अपनी शिक्षा से देश को नये तरीके से गढने की सोच रहा होगा। 35 बरस का यानी जो नौकरी के लिये दर दर की ठोकरें खाते हुये हताश होगा। लेकिन सपने मरे नहीं होंगे। तो क्या 2019 का चुनाव सिर्फ आम चुनाव नहीं बल्कि बदलते हिन्दुस्तान की ऐसी तस्वीर होगी जिसके बाद देश नई करवट लेगा। हर हाथ में मोबाइल । हर दिमाग में सोशल मीडिया। सूचनाओं की तेजी। रियेक्ट करने में कहीं ज्यादा तेजी। कोई रोक टोक नहीं। और अपने सपनों के भारत को गढते हुये हालात बदलने की सोच। तो क्या 2019 के चुनाव को पकडने के लिये नेताओ को पारंपरिक राजनीति छोड़नी पड़ेगी। या फिर जिसतरह का जनादेश पहले दिल्ली और उसके बाद यूपी ने दिया है उसने पारंपरिक राजनीति करने वाली पार्टियो ही नही नेताओं को भी आईना दिखा दिया है कि वह बदल जाये । अन्यथा देश बदल रहा है ।
लेकिन युवा भारत के सपने पाले हिन्दुस्तान का ही एक दूसरा सच डराने वाला भी है। क्योंकि जो पढ़ रहे है । जो आगे बढने के सपने पाल रहे है । जो प्रोफशनल्स हैं। उनसे इतर युवा देश का एक सच ये भी है कि कि 52 करोड युवा वोटरों के बीच बड़ी लंबी लाइन युवा मजदूरों की होगी। युवा बेरोजगारों की होगी । युवा अशिक्षितों की होगी। 24 करोड़ युवा मनरेगा से कस्ट्रक्शन मजदूर और शारीरिक श्रम से जुड़ा होगा। 6 करोड रजिस्टर्ड बेरोजगार। तो 9 करोड रोजगार के लिये सडक पर होंगे। 11 करोड़ से ज्यादा युवा 5वीं पास भी नहीं होगा। तो क्या युवा भारत के सपने संजोये भारत को युवा चुनावी वोट से गढ़ता हुआ सिर्फ दिखायी देगा। और जिस बूढ़े हिन्दुस्तान को पीछे छोड युवा भारत आगे बढने के लिये बेताब होगा उसकी जमीन तले लाखों किसानों की खुदकुशी होगी। 30 करोड से ज्यादा बीपीएल होंगे। प्रदूषण से और इलाज बगैर मरते लाखों दूधमुंहें बच्चों के युवा पिता होंगे। ये सारे सवाल इसलिए क्योंकि राजनीतिक सत्ता पाने की होड देश में इस तरह मच चुकी है कि बाकि सारे संस्धान क्या करेंगे या क्या कर रहे है इसपर किसी की नजर है ही नहीं । और सत्ता के इशारे पर ही देश चले तो उसका एक सच ये भी ही कि 1977 में यूपी की 352 सीट पर जनता पार्टी ने 47.76 फिसदी वोट के साथ कब्जा किया था । लेकिन यूपी की तस्वीर और यूपी का युवा तब भी उसी राजनीति के रास्ते निकल पडा छा जहा देश को नये सीरे से गढने का सपना था । और 2017 में यूपी की 312 सीट पर बीजेपी ने 39.71 फिसदी वोट के साथ कब्जा किया है । और फिर युवाओ के सपनो को राजनीति के रंग में रंगने को सियासत तैयार है । तो आईये जरा इतिहास के इस चक्र को भी परख लें क्योंकि 43 बरस पहले का युवा आज सत्ता की डोर थामे हुये है। और बात युवाओं की ही हो रही है।
18 मार्च 1974 को छात्रों ने पटना में विधानसभा घेरकर संकेत दे दिये थे कि इंदिरा गांधी की सत्ता को डिगाने की ताकत युवा ही रखते है और उसके बाद जेपी ने संपूर्ण क्रांति का बिगुल फूंका था। और 43 बरस बाद 18 मार्च 2017 यानी परसो जब बीजेपी समूचे यूपी में जीत का दिन बूथ स्तर तक पर मनायेगी। तो संकेत यही निकलेंगे कि सत्ता में भागेदारी या परिवारत्न के लिये युवा को आंदोलन नही बूथ लेबल की राजनीति सीखनी होगी। तो क्या 43 बरस में छात्र या युवा की परिभाषा भी बदल गई है। क्योंकि याद कीजिये 18 मार्च 1974 । जब 50 हजार छात्रों ने ही पटना में विधानसभा घेर लिया तो राज्यपाल तक विधानसभा पहुंच नहीं पाये । यानी तब छात्र आंदोलन ने सडक से राजनीति गढी । और उसी आंदोलन से निकले चेहरे आज कहा कहा खडे है । नीतिश कुमार , रविशंकर प्रसाद , राजनाथ सिंह , रामविलास पासवान, लालू यादव सरीखे चेहरे 43 बरस पहले जेपी आंदलन से जुडे और ये चंद चेहरे मौजूदा वक्त में सत्ता के प्रतीक बन चुके हैं। ध्यान दीजिये ये चेहरे बिहार यूपी के ही है। यानी यूपी बिहार की राजनीति से निकले इन चेहरों के जरीये क्या युवा राजनीति को मौजूदा वक्त में हवा दी जा सकती है। और प्रधानमंत्री मोदी आज जब 2019 के चुनाव के लिये बारहवीं पास युवाओं को जोड़ने का जिक्र कर रहे है और दो दिन बाद 18 मार्च को यूपी में जीत का जश्न बीजेपी मनायेगी तो नया सवाल ये भी निकलेगा कि यूपी का युवा बूथ लेबल पर चुनावी राजनीति की निगरानी करेगा या फिर आंदोलन की राह पकडेगा । यानी सिर्फ चुनावी राजनीति को ही अगर देश का सच मान लें तो ये सवाल खडा हो सकता है कि युवाओ को राजनीति साथ लेकर आये । लेकिन जब सवाल युवाओ के हालातों से जुडेंगे तो फिर अगले दो बरस की बीजेपी की चुनौती को भी समझना होगा। क्योंकि शिक्षा संस्धानो को पढाई लायक बनाना होगा । यूनिवर्सिटी के स्तर को पटरी पर लाना होगा ।
करीब सवा करोड डिग्रीधारियो के लिये रोजगार पैदा करना होगा। सरकारी स्कूल को पढ़ाई लायक बनाना होगा , जहा तीन करोड बच्चे पढ़ते हैं । तो क्या वाकई युवाओ को साधने का राजनीतिक रास्ता इतना आसान है कि नेता छात्र से संपर्क साधे और जमीनी तौर पर यूपी की बदहाली बरकरार रहे । या फिर राजनीति ने जब सारे हालात चुनाव के जरीये सत्ता पाने और सत्ता बोगने पर टिका दिये है तो कही नये हालात एक नये छात्र आदोलन को तो देश में खडा नहीं कर देगें । क्योंकि याद किजिये जेएनयू , डीयू , हैदराबाद , पुणे फिल्म इस्टीयूट , जाधवपुर यूनिवर्सिटी , अलीगढ यूनिवर्सिटी में छात्र संघर्ष बीते दौ हरस के दौर में ही हुआ । और कमोवेश हर कैंपस म वही मुद्दे उठे जो राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते । यानी सवाल दलित का हो या सवाल साप्रदायिकाता बनाम सेक्यूलरिज्म का । सवाल राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह का हो या फिर शिक्षा का ही हो । संघर्ष करते ये छात्र राजनीतिक दलों की विचारधारा तले बंटते हुये नजर आये । लेकिन छात्र इस सवाल को कभी राजनीतिक तौर उठा नहीं पाये कि सत्ता के लिये नेता राजनीतिक विचारधारा को छोड़ क्यों देते हैं। यानी उत्तराखंड हो या गोवा या मणिपुर । या फिर यूपी-पंजाब में भी ऐसे नेताओ की पेरहिस्त खासी लंबी है जो कल तक जिस राजनीतिक धारा के खिलाफ थे । चुनाव के वक्त या चुनाव के बाद सत्ता के लिये उसी दल के साथ आ खडे हुये । तो क्या छात्र इस सच को समझ नहीं पा रहे है । क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी जब अपने नेताओं को छात्रों से जोडने के लिये कह रहे हैं तो दो सवाल है । पहला छात्र भी राजनीति लाभ के लिये है । और दूसरा-कालेज में कदम रखते ही अब छात्रो को अपनी राजनीतिक पंसद साफ करनी होगी । यानी देश में हालात ऐसे है कि राजनीति ही सबकुछ है । क्योकि हर सरोकार को राजनीतिक लाभ में बदलने का जो पाठ संसदीय दल की बैठक में प्रादनमंत्री ने 16 मार्च को पढाया उसके संकेत साफ है अब राजनीति राष्ट्रीय पर्व है और चुनावी जीत देश का सबसे बडा लक्ष्य ।
Veru ,true nd reslistic prasoon sir
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