मालवा के पठार की काली मिट्टी और लुटियन्स की दिल्ली के राजपथ की लाल बजरी के बीच प्रभाष जोशी की पत्रकारिता । ये प्रभाष जोशी का सफर नहीं है । ये पत्रकारिता की वह सुरंग है, जिसमें से निकलकर मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को समझने के लिये कई आंखों, कई कान मिल सकते है तो कई सच, कई अनकही सियासत समझ में आ सकती है । और पत्रकारिता की इस सुरंग को वही ताड़ सकता है जो मौजूदा वक्त में पत्रकारिता कर रहा हो । जिसने प्रभाष जोशी को पत्रकारिता करते हुये देखा होऔर जिसके हाथ में रामबहादुर राय और सुरेश सर्मा के संपादन में लेखक रामाशंकर कुशवाहा की किताब "लोक का प्रभाष " हो । यूं " लोक का प्रभाष " जीवनी है । प्रभाष जोशी की जीवनी । लेकिन ये पुस्तक जीवनी कम पत्रकारीय समझ पैदा करते हुये अभी के हालात को समझने की चाहे अनचाहे एक ऐसी जमीन दे देती है, जिस पर अभी प्रतिबंध है । प्रतिबंध का मतलब इमरजेन्सी नहीं है । लेकिन प्रतिबंध का मतलब प्रभाष जोशी की पत्रकारिता को सत्ता के लिये खतरनाक मानना तो है ही । और उस हालात में ना तो रामनाथ गोयनका है ना इंडियन एक्सप्रेस। और ना ही प्रभाष जोशी हैं। तो फिर बात कहीं से भी शुरु कि जा सकती है । बस शर्त इतनी है कि अतीत के पन्नों को पढ़ते वक्त मौजूदा सियासी धड़कन के साथ ना जोडें । नहीं तो प्रतिबंध लग जायेगा । तो टुकड़ों में समझें। रामनाथ गोयनका ने जब पास बैठे धीरुभाई अंबानी से ये सुना कि उनके एक हाथ में सोने की तो दूसरे हाथ में चांदी की चप्पल होती है । और किस चप्पल से किस अधिकारी को मारा जाये ये अधिकारी को ही तय करना है तो गोयनका समझ गये कि हर कोई बिकाऊ है, इसे मानकर धीरुभाई चल रहे हैं । और उस मीटिंग के बाद एक्सप्रेस में अरुण शौऱी की रिपोर्ट और जनसत्ता में प्रभाष जोशी का संपादकपन । नजर आयेगा कैसी पत्रकारिता की जरुरत तब हुई । अखबार सत्ता के खिलाफ तो खड़े होते रहे हैं । लेकिन अखबार विपक्ष की भूमिका में आ जाये ऐसा होता नहीं । लेकिन ऐसा हुआ । यूं "लोक का प्रभाष " में कई संदर्भों के आसरे भी हालात नत्थी किये गये है।
मसलन वीपी सिंह से रामबहादुर राय के इंटरव्यू से बनी किताब "मंजिल से ज्यादा सफर" के अंश का जिक्र। किताब का सवाल - जवाब का जिक्र । सवाल-कहा जाता है हर सरकार से रिलायंस ने मनमाफिक काम करवा लिये। वाजपेयी सरकार तक से । जवाब-ऐसा होता रहा होगा । क्योंकि धीरुभाई ने चाणक्य सूत्र को आत्मसात कर लिया । राज करने की कोशिश कभी मत करो, राजा को खरीद लो।
तो क्या राजनीतिक शून्यता में पत्रकारिता राजनीति करती है । या फिर पत्रकारिता राजनीतिक शून्यता को भर देती है । ये दोनो सवाल हर दौर में उठ सकते है । और ऐसा नहीं है कि प्रभाष जोशी ने इसे ना समझा हो । पत्रकारिता कभी एक पत्रकार के आसरे नहीं मथी जा सकती । हां, चक्रव्यूह को हर कोई तोड़ नहीं पाता। और तोड कर हर कोई निकल भी नहीं पाता । तभी तो प्रभाष जोशी को लिखा रामनाथ गोयनका के उस पत्र से शुरुआत की जाये जो युद्द के लिये ललकारता है। जनसत्ता शुरु करने से पहले रामनाथ अगर गीता के अध्याय दो का 38 वां श्लोक का जिक्र अपने दो पेजी पत्र में करते हैं, जो उन्होंने प्रभाष जोशी को लिखा, " जय पराजय, लाभ-हानी तथा सुख-दुख को समान मानकर युद्द के लिये तत्पर हो जाओ - इस सोच के साथ कि युद्द करने पर पाप के भागी नहीं बनोगे। " और कल्पना कीजिये प्रभाष जोशी ने भी दो पेज के जवाबी पत्र में रामनाथ गोयनका को गीता के श्लोक से पत्र खत्म किया , " समदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्दाय युज्यस्व नैंव पापमवायस्यसि ।।" और इसके बाद जनसत्ता की उड़ान जिसके सवा लाख प्रतियां छपने और खरीदे जाने पर लिखना पड़ा- बांच कर पढे । ना ना बांट कर पढ़ें का जिक्र था। लेकिन बांटना तो बांचने के ही समान होता है। यानी लिखा गया दीवारों के कान होते है लेकिन अखबारो को पंख । तो प्रभाष जोशी की पत्रकारीय उड़ान हवा में नहीं थी। कल्पना कीजिये राकेश कोहरवाल को इसलिये निकाला गया क्योंकि वह सीएम देवीलाल के साथ बिना दफ्तर की इजाजत लिये यात्रा पर निकल गये । और देवीलाल की खबरें भेजते रहें। तो देवीलाल ने भी रामनाथ गोयनका को चेताया कि खबर क्यों नहीं छपती । और जब यह सवाल रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से पूछा तो संपादक प्रभाष जोशी का जवाब था । देवीलाल खुद को मालिक संपादक मान रहे हैं। बस रिपोर्टर राकेश कोहरवाल की नौकरी चली गई। लेकिन रामभक्त पत्रकार हेमंत शर्मा की नौकरी नहीं गई। सिर्फ उन्हें रामभक्त का नाम मिला। और हेमंत शर्मा " लोक का प्रभाष " में उस दौर को याद कर कहने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने रिपोर्टिंग की पूरी स्वतंत्रता दी । रिपोर्टर की रिपोर्ट के साथ खडे होने वाले संपादकों की कतार खासी लंबी हो सकती है । या आप सोचे अब तो कोई बचा नहीं तो रिपोर्टर भी कितने बचे हैं ये भी सोचना चाहिये । लेकिन प्रभाष जोशी असहमति के साथ रिपोर्टर के साथ खड़े होते। तो उस वक्त रामभक्त होना और जब खुद संपादक की भूमिका में हो तब प्रभाष जोशी की जगह रामभक्त संपादक हो जाना। ये कोई संदर्भ नहीं है । लेकिन ध्यान देने वाली बात जरुर है कि चाहे प्रभाष जोशी हो या सुरेन्द्र प्रताप सिंह । कतार वाकई लंबी है इनके साथ काम करते हुये आज भी इनके गुणगान करने वाले संपादको की । लेकिन उनमें कोई भी अंश क्यो अपने गुरु या कहे संपादक का आ नहीं पाया । यो सोचने की बात तो है । मेरे ख्याल से विश्लेषण संपादक रहे प्रभाष जोशी का होना चाहिये । विश्लेषण हर उस संपादक का होना चाहिये जो जनोन्मुखी पत्रकारिता करता रहा। आखिर क्यों उनकी हथेली तले से निकले पत्रकार रेंगते देखायी देते है। क्यों उनमें संघर्ष का माद्दा नहीं होता। क्यों वे आज भी प्रभाष जोशी या एसपी सिंह या राजेन्द्र माथुर को याद कर अपने कद में अपने संपादकों के नाम नत्थी करनाचाहते है। खुद की पहचान से वह खुद ही क्यों बचना चाहते है। रामबहादुरराय में वह क्षमता रही कि उन्होंने किसी को दबाया नहीं। हर लेखन को जगह दी। आज भी देते है। चाहे उनके खिलाफ भी कलम क्यों न चली। लेकिन राम बहादुर राय का कैनवास उनसे उन संपादकों से कहीं ज्यादा मांगता है जो रेग रहे है। ये इसलिये क्योंकि ये वाकई अपने आप में अविश्वसनिय सा लगता है कि जब प्रभाष जी ने एक्सप्रेस में बदली सत्ता के कामकाज से नाखुश हो कर जनसत्ता से छोड़ने का मन बनाया तो रामबहादुर राय ने ना सिर्फ मुंबई में विवेक गोयनका से बात की बल्कि 17 नवंबर 1975 को पहली बार अखबार के मालिक विवेक गोयनका को पत्र लिखकर कहा गया कि प्रभाष जोशी को रोके। बकायदा बनवारी से लेकर जवाहर लाल कौल । मंगलेश डबराल से लेकर रामबहादुर राय । कुमार आंनद से लेकर प्रताप सिंह। अंबरिश से लेकर राजेश जोशी । ज्योतिर्मय से लेकर राजेन्द्र धोड़पकर तक ने तमाम तर्क रखते हुये साफ लिखा । "हमें लगता है कि आपको प्रभाषजी को रोकने की हर संभव कोशिश करनी चाहिये ।" जिन दो दर्जन पत्रकारों ने तब प्रभाष जोशी के लिये आवाज उठायी । वह सभी आज के तारिख में जिन्दा है । सभी की धारायें बंटी हुई है। आप कह सकते है कि प्रभाष जोशी की खासियत यही थी कि वह हर धारा को अपने साथ लेकर चलते। और यही मिजाज आज संपादकों की कतार से गायब है। क्योंकि संपादकों ने खुद को संपादक भी एक खास धारा के साथ जोड़कर बनाया है।
दरअसल, प्रभाष जोशी के जिन्दगी के सफर में आष्ठा यानी जन्मस्थान । सुनवानी महाकाल यानी जिन्दगी के प्रयोग । इंदौर यानी लेखन की पहचान । चडीगढ़ यानी संपादकत्व का निखार । दिल्ली यानी अखबार के जरीये संवाद । और इस दौर में गरीबी । मुफ्लिसी । सत्ता की दरिद्रगी । जनता का संघर्ष । सबकुछ प्रभाष जोशी ने जिया । और इसीलिये सत्ता से हमेशा सम्मानजनक दूरी बनाये रखते हुये उसी जमीन पर पत्रकारिता करते रहे जिसे कोई भी सत्ता में आने के बाद भूल जाता है । सत्ता का मतलब सिर्फ सियासी पद नहीं होता चुनाव में जीत नहीं होती । संपादक की भी अपनी सत्ता होती है । और रिपोर्टर की भी ।
लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद कोई भी चखने लगता है वैसे ही पत्रकारिता कैसे पीछे छूटती है इसका एहसास हो सकता है प्रभाष जोशी ने हर किसी को कराया हो । लेकिन खुद सत्ता के आसरे देश के राजनीतिक समाधान की दिशा में कई मौको पर प्रभाष जोशी इतने आगे बढे कि वह भी इस हकीकत को भूले कि राजनीति हर मौके पर मात देगी । अयोध्या आंदोलन उसमें सबसे अग्रणी कह सकते है । क्योंकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ तो प्रभाष जोशी ये लिखने से नहीं चूके , ' राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसको ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रधुकुल की रिती पर कालिख पोत दी...... "। सवाल इस लेखन का नहीं सवाल है कि उस वक्त संघ के खिलाफ डंडा लेकर कूद पडे प्रभाष जोशी के डंडे को भी रामभक्तों ने अपनी पत्रकारिता से लेकर अपनी राजनीति का हथियार बनाया । कहीं ढाल तो कही तलवार । और प्रभाष जी की जीवनी पढ़ते वक्त कई पन्नो में आप ये सोच कर अटक जायेंगे कि क्या वाकई जो लिखा गया वही प्रभाष जोशी है।
लेकिन सोचिये मत । वक्त बदल रहा है । उस वक्त तो पत्रकार-साहित्यकारों की कतार थी । यार दोस्तो में भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर कुमार गंधर्व तक का साथ था । लेखन की विधा को जीने वालो में रेणु से लेकर रधुवीर सहाय थे। वक्त को उर्जावान हर किसी ने बनाया हुआ था । कही विनोबा भावे अपनी सरलता से आंदोलन को भूदान की शक्ल दे देते । तो कही जेपी राजनीतिक डुगडुगी बजाकर सोने वालो को सचेत कर देते । अब तो वह बिहार भी सूना है । चार लाइन न्यूज चैनलों की पीटीसी तो छोड़ दें कोई अखबारी रपट भी दिखायी ना दी जिसने बिहार की खदबदाती जमीन को पकड़ा और बताय़ा कि आखिर क्यो कैसे पटना में भी लुटिसन्स का गलियारा बन गया । इस सन्नाटे को भेदने के लिये अब किसी नेता का इंतजार अगर पत्रकारिता कर रही है तो फिर ये विरासत को ढोते पत्रकारो का मर्सिया है । क्योकि बदलते हालात में प्रभाष जोशी की तरह सोचना भी ठीक नहीं कि गैलिलियो को फिर पढे और सोचे " वह सबसे दूर जायेगा जिसे मालूम नहीं कि कहा जा रहा है " । हा नौकरी की जगह पत्रकारिता कर लें चाहे घर के टूटे सोफे पर किसी गोयनका को बैठाने की हैसियत ना बन पाये । लेकिन पत्रकार होगा तो गोयनका भी पैदा हो जायेगा, ये मान कर चलें।
If you want to see advantages of GST then tune to Zee tv and disadvantage of GST then tune to NDTV. This is reality of Indian media that people know which are pro and anti govt channels.. Media must agree and accept that yes section within them are corrupt and others are silent while remaining are trying to raise thier voice against govt policy. I think in todays scenario media must reinvent themselves...
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ReplyDeleteगुस्सा... जरूरी है
ReplyDeleteआवाज एक शुरुआत
गुस्सा...एक बहुत महत्वपूर्ण भाव है ज़िंदगी के लिए। अगर आम आदमी की बात की जाए तो उसका कोई ही ऐसा दिन जाता होगा जिस दिन उसे ना लगता हो कि ये जो फलां हुआ उसके साथ गलत हुआ। बहुत गुस्सा आता था। घर से निकलते वक्त बात बात पर गुस्सा निकलना शुरू होता था और शाम वापिस आते आते गुस्से पर ही खत्म होती थी। गुस्से का खुल कर इज़हार भी किया जाता था, जब भी मौका मिलता था। घर मे माता पिता द्वारा तो स्कूल में गुरु अध्यपकों द्वारा भी यहीं समझाया जाता था कि गलत का साथ मत देना। मुसीबत में किसी के काम आना। और भी बहुत बातें होती थी ऐसी नैतिकता भरी। ये बातें हमारी ज़िंदगी मे ऐसे काम करती थी जैसे रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली दवाएं काम करती हैं हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए। नैतिकता की, सही गलत की बात होंगी तो गुस्सा भी आएगा...लाजमी है।
पर ये क्या अचानक ये बातें हमारी ज़िंदगी से गायब होने लगी। हम अपने बच्चों को अब कुछ और ही समझाने लगे। मुसीबत के समय किसी के काम आने को जिसे हम कभी अपना धर्म समझ कर बच्चों को उसके साथ खड़ा होने के लिए प्रेरित किया करते थे, वो बात अब किसी के फ़टे में टांग मत अड़ाना हो गया। नैतिकता की जगह व्यापारिक और व्यवसायिक पढ़ाई पर जोर दिया जाने लगा जो रिश्तों की लाशों पर खड़े होकर मिलती है। हर चीज़ को पैसों से तोलकर देखा जाने लगा। हर चीज़ में फायदा नुकसान देखा जाने लगा। वो चीज़ बेसक हमारे रिश्ते ही क्यों ना हों। नैतिकता की बातें खत्म होने लगी। लोग व्यक्तिगत होने लगे। तो लाज़मी है गुस्सा कहां से आएगा।
किसी के साथ अच्छा बुरा कुछ भी घट जाए। कोई साथ खड़ा होता नही दिख रहा। बड़ी बड़ी घटनाएं घट रही हैं, लोग दबी जुबान में बोलने के लिए तैयार नही। गुस्सा के इज़हार तो दूर की बात। लड़कियों के निर्ममता से बलात्कार करके उन्हें मारा जा रहा है, सरेराह उन्हें छेड़ा जा रहा है। दूर सरहद पर खड़ा सिपाही जो हमारी हिफाजत के लिए खड़ा है परेशान है। हमारा पेट भरने वाला हमारा अन्नदाता आत्महत्या के लिए मजबूर है। कर्मचारी सड़कों पर है। मासूमों की बलि ले रहे हैं अस्पताल। इतना सबकुछ घट रहा है और गुस्सा गायब है। कुछ चन्द के सामने हम नतमस्तक हो गए हैं...गुलामी को स्वीकार कर चुके हैं। शारीरिक गुलामी से मानसिक गुलामी ज्यादा खतरनाक होती है। शारीरिक गुलामी से आज़ादी पाना आसान है। वो तो ज्यादा से शरीर के संग खत्म हो जाएगी। पर मानसिक गुलामी पीढ़ियों को गुलाम बनाती है।
जिस गुस्से को आप खो चुके हैं उसे वापिस लाइए। आपके गुस्से की इस देश को सख्त जरूरत है। फ़टे में टांग अड़ाइए। आपकी टांग की जरूरत है इस देश को।