तो गौरी लंकेश की हत्या हुई। लेकिन हत्या किसी ने नहीं की। यह ऐसा सिलसिला है, जिसमें या तो जिनकी हत्या हो गई उनसे सवाल पूछा जायेगा, उन्होंने जोखिम की जिन्दगी को ही चुना। या फिर हमें कत्ल की आदत होती जा रही है क्योंकि दाभोलकर, पंसारे, कलबुर्गी के कत्ल का जब हत्यारा कोई नहीं है तो फिर गौरी लंकेश की हत्या के महज 48 घंटो के भीतर क्या हम ये एलान कर सकते हैं कि अगली हत्या के इंतजार में शहर दर शहर विरोध के स्वर सुनाई दे रहे हैं। पत्रकार, समाजसेवी या फिर बुद्दिजीवियों के इस जमावड़े के पास लोकतंत्र का राग तो है लेकिन कानून का राज देश में कैसे चलता है ये हत्याओ के सिलसिले तले उस घने अंधेरे में झांकने की कोशिश तले समझा जा सकता है। चार साल बाद भी नरेन्द्र दामोलकर के हत्यारे फरार हैं। दो बरस पहले गोविंद पंसारे की हत्या के आरोपी समीर गायकवाड को जमानत मिल चुकी है । कलबुर्गी की हत्या के दो बरस हो चुके है लेकिन हत्यारो तक पुलिस पहुंची नहीं है। कानून अपना काम कैसे कर रही है कोई नहीं जानता। तो फिर गौरी लंकेश की हत्या जिस सीसीटीवी कैमरे ने कैद भी की वह कैसे हत्यारों को पहचान पायेगी। क्योकि सीसीटीवी को देखने समझने वाली आंखें-दिमाग तो राजनीतिक सत्ता तले ही रेंगती हैं। और सत्ता को विचारधारा से आंका जाये या कानून व्यवस्था के कठघरे में परखा जाये। क्योंकि दाभोलकर और पंसारे की हत्या को अंजाम देने के मामले में सारंग अकोलकर और विनय पवार आजतक फरार क्यों हैं। और दोनों ही अगर हत्यारे है तो फिर 2013 में दाभोलकर की हत्या के बाद 2015 में पंसारे की हत्या भी यही दोनों करते हैं तो फिर कानून व्यवस्था का मतलब होता क्या है। महाराष्ट्र के पुणे शहर में दाभोलकर की हत्या कांग्रेस की सत्ता तले हुआ। महाराष्ट्र के ही कोल्हापुर में पंसारे की हत्या बीजेपी की सत्ता तले हुई। हत्यारों को कानून व्यवस्था के दायरे में खड़ा किया जाये। तो कांग्रेस-बीजेपी दोनों फेल है। और अगर विचारधारा के दायरे में खड़ा किया जाये तो दोनो की ही राजनीतिक जमीन एक दूसरे के विरोध पर खडी है।
यानी लकीर इतनी मोटी हो चली है कि गौरी लंकेश की हत्या पर राहुल गांधी से लेकर मोदी सरकार तक दुखी हैं। संघ परिवार से लेकर वामपंथी तक भी शोक जता रहे हैं। और कर्नाटक के सीएम भी ट्वीट कर कह रहे हैं, ये लोकतंत्र की हत्या है। यानी लोकतंत्र की हत्या कलबुर्गी की हत्या से लेकर गौरी शंकर तक की हत्या में हुई। दो बरस के इस दौर में दो दो बार लोकतंत्र की हत्या हुई। तो फिर हत्यारों के लोकतंत्र का ये देश हो चुका है। क्योंकि सीएम ही जब लोकतंत्र की हत्या का जिक्र करें तो फिर जिम्मेदारी है किसकी। या फिर हत्याओ का ये सिलसिला चुनावी सियासत के लिये आक्सीजन का काम करने लगा है। और हर कोई इसका अभयस्त इसलिये होते चला जा रहा है क्योंकि विसंगतियों से भरा चुनावी लोकतंत्र हर किसी को घाव दे रहा है। तो जो बचा हुआ है वह उसी लोकंतत्र का राग अलाप रहा हैं, जिसकी जरुरत हत्या है। या फिर हत्यारो को कानूनी मान्यता चाहे अनचाहे राजनीतिक सत्ता ने दे दी है। क्योंकि हत्याओं की तारीखों को समझे। अगस्त 2013 , नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या। फरवरी 2015 गोविन्द पंसारे की हत्या। अगस्त 2015 एमएम कलबुर्गी की हत्या। 5 सितंबर 2017 गौरी लंकेश की हत्या। गौरतलब है कि तीनों हत्याओं में मौका ए वारदात से मिले कारतूस के खोलों के फोरेंसिक जांच से कलबुर्गी-पानसारे और दाभोलकर-की हत्या में इस्तेमाल हथियारों में समानता होने की बात सामने आई थी। बावजूद इसके हत्यारे पकड़े नहीं जा सके हैं। तो सवाल सीधा है कि गौरी लंकेश के हत्यारे पकड़े जाएंगे-इसकी गारंटी कौन लेगा? क्योंकि गौरी लंकेश की हत्या की जांच तो एसआईटी कर रही है, जबकि दाभोलकर की हत्या की जांच को सीबीआई कर चुकी है, जिससे गौरी लंकेश की हत्या के मामले में जांच की मांग की जा रही है। तो क्या गौरी लंकेश की हत्या का सबक यही है कि हत्यारे बेखौफ रहे क्योकि राजनीतिक सत्ता ही लोकतंत्र है जो देश को बांट रहा है ।
या फिर अब ये कहे कि कत्ल की आदत हमें पड़ चुकी है क्योंकि चुनावी जीत के लिये हत्या भी आक्सीजन है। और सियासत के इसी आक्सीजन की खोज में जब पत्रकार और आरटीआई एक्टीविस्ट निकलते है तो उनकी हत्या हो जाती है। क्योंकि जाति, धर्म या क्षेत्रियता के दायरे से निकलकर जरा इन नामों की फेरहिस्त देखे। मोहम्मद ताहिरुद्दीन,ललित मेहता,सतीश शेट्टी,अरुण सावंत ,विश्राम लक्ष्मण डोडिया ,शशिधर मिश्रा, सोला रंगा राव,विट्ठल गीते,दत्तात्रेय पाटिल, अमित जेठवा, सोनू, रामदास घाड़ेगांवकर, विजय प्रताप, नियामत अंसारी, अमित कपासिया,प्रेमनाथ झा, वी बालासुब्रमण्यम,वासुदेव अडीगा ,रमेश अग्रवाल ,संजय त्यागी ।
तो ये वो चंद नाम हैं-जिन्होंने सूचना के अधिकार के तहत घपले-घोटाले या गडबड़झालों का पर्दाफाश करने का बीड़ा उठाया तो विरोधियों ने मौत की नींद सुला दिया। जी-ये लिस्ट आरटीआई एक्टविस्ट की है। वैसे आंकड़ों में समझें तो सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद 66 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है ।159 आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले हो चुके हैं और 173 ने धमकाने और अत्याचार की शिकायत दर्ज कराई है । यानी इस देश में सच की खोज आसान नहीं है। या कहें कि जिस सच से सत्ता की चूलें हिल जाएं या उस नैक्सस की पोल खुल जाए-जिसमें अपराधी और सत्ता सब भागीदार हों-उस सच को सत्ता के दिए सूचना के अधिकार से हासिल करना भी आसान नहीं है। दरअसल, सच सुनना आसान नहीं है। और सच को उघाड़ने वाले आरटीआई एक्टविस्ट हों या जर्नलिस्ट-सब जान हथेली पर लेकर ही घूमते हैं। क्योंकि पत्रकारों की बात करें तो अंतरराष्ट्रीय संस्था कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट की रिपोर्ट कहती है कि भारत में पत्रकारों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा नहीं मिल पाती। भ्रष्टाचार और राजनीति तो खतरनाक बीट हैं । 1992 के बाद 27 ऐसे मामले दर्ज हुए,जिनमें पत्रकारों को उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी । तो गौरी लंकेश के हत्यारों को सजा होगी-इसकी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन-एक तरफ सवाल वैचारिक लड़ाई का है तो दूसरी तरफ सवाल कानून व्यवस्था का है। क्योंकि सच यही है कि बेंगलुरु जैसे शहर में अगर एक पत्रकार की घर में घुसकर हत्या हो सकती है तो देश के किसी भी शहर में पत्रकार-आरटीआई एक्टिविस्ट की हत्या हो सकती है-और उन्हें कोई बचा नहीं सकता। यानी अब गेंद सिद्धरमैया के पाले में है कि वो दोषियों को सलाखों के पीछे तक पहुंचवाएं। क्योंकि मुद्दा सिर्फ एक हत्या का नहीं-मीडिया की आजादी का भी है। और सच ये भी है कि मीडिया की आजादी के मामले में भारत की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स की 2107 की वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम रैकिंग कहती है कि भारत का 192 देशों में नंबर 136वां है । और इस रैंकिंग का आधार यह है कि किस देश में पत्रकारों को अपनी बात कहने की कितनी आजादी है। और जब आजादी कटघरे में है तो हत्यारे कटघरे में कैसे आयेंगे।
सुप्रभात,
ReplyDeleteकितनी जल्दी रहती है मीडिया और इस देश के सेकुलरों को हत्यारोपियों का निर्धारण करने की, पार्वती लंकेश जी की हत्या को ही देख लीजिए। ऐसा लगता है कि पार्वती लंकेश के विवाद सिर्फ धार्मिक कट्टरों से थे..उनके पारिवारिक विवाद नहीं थे, उनके राजनैतिक विवाद नहीं थे। और तो और इस देश में पत्रकारों की हत्याओं में क्या सारे मामलों में धार्मिक कट्रपंथी ही शामिल हैं? शहाबुद्दीन, अतीक, और दूसरे बाहुबली क्या धार्मिक कट्टरपंथ का प्रतीक हैं? क्या पत्रकारों और आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं धार्मिक कट्टरपंथियों ने की हैं? क्या इस देश का सेकुलर, समाजवादी और लिबरल राजनीतक तबका भ्रष्ट नहीं है? क्या वे अपने ऊपर आरोप लगाने वाले और खोजी पत्रकारिताय करने वाले पत्रकारों और RTI कार्यकर्ताओं को धमकी नहीं देते रहते हैं? क्या ही में रिपब्लिक टीवी के पत्रकारों को RJD के कर्ताधर्ता लोगों ने ऑन कैमरा धमकी नहीं दी है?
क्या इस देश में क्रिमिनल अदालतों में चल रहे हत्याओं के बहुसंख्य मुकदमे धार्मिक कट्टरपंथियों द्वारा की गयी हत्याओं के ही हैं? क्या पारिवारिक विवादों में हत्याएं नहीं होती है? क्या माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले लोगों को और माओवादियों के पुर्नवास में लगे लोगों की पहले माओवादियों ने हत्या नहीं की है?
लेकिन नहीं..देश के एक तबके को अपने जैसे लोगों के हत्यारों को बस एक ही मौत का डर होता है और वो है उनके द्वारा परिभाषित कट्टरपंथियों द्वारा उनको मारा जाना। जबकि तथ्य ठीक इसके विपरीत है। इस देश में विचारों के अंतर के कारण नागरिकों की सबसे अधिक हत्याएं करने वाली विचाराधारा वही है जिस विचारधारा को पार्वती जी आत्मसात किए हुए थीं। क्या वे इन माओवादियों से सहानुभूति नहीं रखती थी और उनके पुनर्वास में सक्रिय नहीं थी तो पहला शक इन माओवादियों पर किया जाना चाहिए जो उनके इस पुनर्वास कार्यक्रम से खीजे हुए थे।
लेकिन नहीं, माओवादियों के साथ काम करने वाले ये लोग (जो आज धार्मिक कट्टरपंथ को इस हत्या का कारण बताते हैं) अपने ही इन भाई बंधुओं के विवादों को निपटाने के इस तरीके से भली भांति परिचित हैं, और जानते हैं कि उनका भी नंबर लगा सकते हैं ये नक्सली, इसीलिए लेफ्ट में गए हत्यारे को राइट में गया दिखाने का शोर मचाया जा रहा है।
इस बात की तस्दीक उन शोर मचाने वालों के इतिहास से की जा सकती है कि वे किस विचारधारा के पोषक और पालक रहे हैं।
दरअसल इस देश में वामपंथियों ने एक षडयंत्र के तहत समाजवादियों और कांग्रेसियों को बेवकूफ बनाते हुए ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास किया है जिसमें वे खुद को मध्यममार्गी के रूप में स्थापित करने में सफल रहे हैं। और बस इसीलिए अपने ही भाई बंधुओं और परिवार की लड़ाई में हुई हत्याओं को वैचारिक विरोधियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं के रूप में स्थापित करने का शगल चल निकला है।
125 करोड़ लोगों के इस मुल्क में धार्मिक आस्था वालों को नहीं वामपंथियों को अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ रही है और चूंकि वे अपनी लड़ाई में ईमानदार नहीं हैं और अपने स्वार्थ को ऊपर रख कर चलते हैं इसलिए हर मोर्चे पर पिछड़ रहे हैं और हार रहे हैं। ये हत्या भी उसी आपाधापी का ही एक अंग है।
सेकुलर, लिबरल, वामी, इस पूरे षडयंत्र को समझ रहे हैं लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि अपने पैदा किए इस भिंडरावाले को बेनकाब कर सकें। संभवतः इनको ये भय है कि कहीं इनकी ही जमात के दूसरे बुद्धिजीवी इनकी बुद्धिजीविता को संघी ना घोषित कर दें सो ये भी उसी शोर का हिस्सा बनते जा रहे है।
आपको हमारी शुभकामनाएं!
👍👍👍👍👍 शानदार लेख
ReplyDeletebahut badhiya lekh dukhi sab hain gauri lankesh ki hatya par aur ilzaam bhi lagaane se koi chook nahi ho rahi hai
ReplyDeletehttp://www.pushpendradwivedi.com/%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B9%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BE/
लड़ाई अगर विचारधारा की है तो दिल खोल कर बहस होनी चाहिए। अपनी बात को मनवाने के लिए दलीलें होनी चाहिये लेकिन शायद समय बदल रहा है दलीलों के बजाए कारतूस का इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि दलील के जवाब में डर है कि दूसरी दलील पहली दलील पर भारी पड़ जाएगी ऐसे में एक कारतूस का उपयोग और सारी दलील धरि की धरी रह जाये
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